शेष नारायण सिंह
पश्चिम एशिया ,खासकर इराक और सीरिया में अमरीकी विदेशनीति को बहुत ही कठिन दौर से गुजरना पड़ रहा है . अभी कुछ अरसा पहले इराक के युद्ध से अपने देश को अलग कर चुके अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को फिर इराक में सैनिक कार्रवाई करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है . कई साल पहले अमरीकी शहरों पर ११ सितम्बर को आतंकवादी हमले के बाद से सभी अमरीकी राष्ट्रपतियों ने इराक पर हमले किये हैं . बड़े तामझाम के साथ बराक ओबामा ने इराक में युद्ध खत्म करने की घोषणा की थी लेकिन इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया की सैनिक कार्रवाई के मद्देनज़र उनको भी वहाँ शामिल होना पड़ गया. जनवरी ९१ में बुश सीनियर ने , दिसंबर ९८ में बिल क्लिंटन ने और मार्च २००३ में बुश जूनियर ने इराक पर सैनिक कार्रवाई शुरू किया था . अब सितम्बर २०१४ में बराक ओबामा ने भी इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया के आतंक के राज को सीमित करने की मंसूबाबंदी कर ली है .बराक ओबामा का मामला थोडा अलग है .उन्होने जब इराक में अमरीकी सैनिक कार्रवाई खत्म करने की घोषणा की थी तो कहा था कि अमरीका के राष्ट्रपति के रूप में उनकी जिम्मेदारी है कि वे अमरीकी अवाम के जान-ओ-माल की हिफाज़त करें . अब दोबारा इराक पर सैनिक कार्रवाई करने के पहले वे फिर यही कह रहे हैं कि अमरीकी जिंदगियों की रक्षा के लिए वे यह काम कर रहे हैं . हालांकि दोनों दावों के सन्दर्भ अलग हैं और दोनों के मायने भी बिलकुल अलग हैं .अभी कुछ दिन पहले बराक ओबामा ने कहा था कि इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया से अमरीकी राष्ट्रीय सुरक्षा को कोई ख़तरा नहीं है . लेकिन उन्होने साथ साथ यह भी कह दिया कि उनके राज में कोई अगर अमरीका को धमकी देगा तो उसे बचने के लिए कहीं कोई जगह नहीं मिलेगी. हर बार जब भी अमरीका ने इराक पर हमला किया है तो सभे एराष्ट्रपति किसी न किसी रूप में अंतर राष्ट्रीय सहयोग की बात करते थे . सीनियर बुध और बिल क्लिंटन ने तो पूरी दुनिया को शामिल करने की कोशिश की थी और अपने मुवक्किल देशों को उस लड़ाई में झोंकने में भी कामयाब रहे थे लेकिन बराक ओबमा की बात से यह नहीं लगता कि वे कोई उस तरह की कोशिश भी कर रहे हैं . ओबामा और उनकी मंडली के और लोग यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि यह वाली लड़ाई पुराने अफगानिस्तान या इराक वाली लड़ाइयों जैसी नहीं होगी. इस बार कुछ सोमालिया या यमन जैसी गुपचुप हमलों टाइप ही बात रखी जायेगी . हालांकि उनको मालूम है कि यह लड़ाई केवल हवाई हमलों से ही नहीं जीती जा सकती, ज़मीनी सेना भी चाहिए और ओबामा की योजना है कि ज़मीनी सेना का जुगाड इराक और सीरिया में मौजूद उन लड़ाकों से किया जाएगा जो इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया के खिलाफ लड़ रहे हैं . यह बहुत ही विरोधाभासी सोच है . इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया के खिलाफ जो लोग सीरिया में लड़ रहे हैं ,उनमें सबसे महत्वपूर्ण तो सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद ही हैं और उनको तबाह करने के लिए अमरीका और नैटो के सदस्य देश सुन्नी बागियों को मदद कर रहे हैं . उन सुन्नी बागियों में से एक बड़ी संख्या इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया वालों के हमदर्द हैं .
अमरीकी विदेशनीति में एक नई तरह की सोच पैदा हो रही है . इस नई सोच का अमरीकी विदेशनीति पर बहुत ही भारी असर पड़ने वाला है और यह भी तय है कि यह असर बहुत ही दूर तलक जाएगा .अभी तक माना जाता रहा है कि पश्चिम एशिया में अमरीका सउदी अरब और इरान के बीच जारी प्राक्सी लड़ाई को ही बैलेंस करता रहा है . वह कहीं सुन्नी को मदद करता है तो कहीं शिया को . लेकिन अब इस सोच में बुनियादी बदलाव हो रहा है . अब अमरीकी विदेशनीति के नियामक इस बात पर जोर दे रहे हैं कि इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया के विरोधाभासी झगड़े के चलते अब इस्लाम वाले सभी राज्यों से दूरी बना ली जाए . अगर ऐसा हुआ तो अमरीकी विदेश नीति एक बार फिर बुरी तरह से असफल होगी और सिर के बल खड़ी नज़र आयेगी. इस्लामी और गैर इस्लामी के आधार पर अगर अमरीका अपनी भावी नीति तय करता है तो खासी उलटवांसी होगी क्योंकि एक तरफ तो इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया और मुस्लिम ब्रदरहुड है और दूसरी तरफ इरान ,सीरिया की सरकारें हैं और शिया मिलिशिया संगठन हेज़बोल्ला और असीब अहल अल हक़ है .इसमें से सभी आतंकवादी नहीं हैं लेकिन इनकी राष्ट्रीय पहचान गौड़ है और इस्लामी पहचान मुख्य है . यानी इन सभी संगठनों के सदस्य अपने आपको मुसलमान पहले मानते हैं और किसी देश या संगठन का सदस्य या शिया और सुन्नी बाद में .पश्चिम एशिया या अन्य इस्लामी देशों में अमरीका के प्रति जो नफरत का भाव है उसके चलते अब अमरीका में नीति निर्धारक हर तरह के इस्लाम को अपना दुश्मन मानकर चलने की रणनीति पर काम करने की योजना बना रहे है .और यह आने वाले समय में बहुत ही खतरनाक हो सकता है ..
अमरीकी विदेशनीति में अक्सर इस तरह के हिचकोले आते रहते हैं .इसका कारण यह है कि उनकी विदेशनीति के निर्धारकों ने आम तौर पर फौरी नतीजों को ध्यानमें रख कर सारा काम किया था. दूरदृष्टि का कहीं दूर दूर तक पता नहीं है . अमरीकी की शेखचिल्ली विदेशनीति की तुलना भारत की विदेशनीति से करना दिलचस्प होगा जो अब तक कहीं भी फेल नहीं हुई. उसका कारण यह है कि इस नीति के मुख्य निर्माता जवाहरलाल नेहरू ने बहुत ही सोच विचार के बाद इस नीति को अमली जामा पहनाया था . लेकिन अजीब बात है कि आजकल नेहरू की विदेशनीति के बारे में बहस का सिलसिला शुरू हो गया है और वे लोग जिनकी पार्टियां आज़ादी की लड़ाई के दौरान अंग्रेजों की मददगार थीं, नेहरू को बहुत ही मामूली नेता बताने की दौड़ में शामिल हो गए हैं ..कुछ टेलिविज़न चैनल भी इस लड़ाई में कूद पड़े हैं . दिल्ली के काकटेल सर्किट में होने वाली गपबाज़ी से इतिहास और राजनीति की जानकारी ग्रहण करने वाले कुछ पत्रकार भी १९४७ के पहले और बाद के अंग्रेजों के वफादार बुद्धिजीवियों की जमात की मदद से जवाहरलाल नेहरू को बौना बताने की कोशिश में जुट गए हैं लेकिन सच्चाई यह है कि नेहरू की दूरदर्शिता का ही नतीजा है कि आज भारत एक महान देश माना जाता है और ठीक उसी दिन आज़ादी पाने वाला पाकिस्तान आज एक बहुत ही पिछड़ा मुल्क है. तथाकथित बुद्धिजीवियो का एक ऐसा वर्ग भी देश में मौजूद है जो यह बताना अपना फ़र्ज़ समझता है कि अगर आज़ादी मिलने के बाद भारत ने अमरीका का साथ पकड़ लिया होता तो बहुत अच्छी विदेशनीति बनती . ज़ाहिर है इस तरह के लोगों को गंभीरता से लेने की ज़रुरत नहीं है . लेकिन जवाहरलाल नेहरू की विदेश नीति की बुनियाद को समझना ज़रूरी है ..१९४६ में जब कांग्रेस ने अंतरिम सरकार में शामिल होने का फैसला किया, उसी वक़्त जवाहरलाल ने स्पष्ट कर दिया था कि भारत की विदेशनीति विश्व के मामलों में दखल रखने की कोशिश करेगी , स्वतंत्र विदेशनीति होगी और अपने राष्ट्रहित को सर्वोपरि महत्व देगी .. यह बात भी गौर करने की है कि किसी नवस्वतंत्र देश की विदेशनीति एक दिन में नहीं विकसित होती. जब विदेशनीति के मामले में नेहरू ने काम शुरू किया तो बहुत सारी अडचनें आयीं लेकिन वे जुटे रहे और एक एक करके सारे मानदंड तय कर दिया. भारत की विदेशनीति उन्ही आदर्शों का विस्तार है जिनके आधार पर आज़ादी की लड़ाई लड़ी गयी थी और आज़ादी की लड़ाई को एक महात्मा ने नेतृत्व प्रदान किया था जिनकी सदिच्छा और दूरदर्शिता में उनके दुश्मनों को भी पूरा भरोसा रहता था. आज़ादी के बाद भारत की आर्थिक और राजनयिक क्षमता बहुत ज्यादा थी लेकिन अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में ताक़त कुछ नहीं थी. जब भारत को आज़ादी मिली तो शीतयुद्ध शुरू हो चुका था और ब्रितानी साम्राज्यवाद के भक्तगण नहीं चाहते थे कि भारत एक मज़बूत ताक़त बने और अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसकी आवाज़ सुनी जाए . जबकि जवाहरलाल नेहरू की विदेशनीति का यही लक्ष्य था. अमरीका के पास परमाणु हथियार थे लेकिन उसे इस बात से डर लगा रहता था कि कोई नया देश उसके खिलाफ न हो जाए जबकि सोविएत रूस के नेता स्टालिन और उनके साथी हर उस देश को शक की नज़र से देखते थे जो पूरी तरह उनके साथ नहीं था. नेहरू से दोनों ही देश नाराज़ थे क्योंकि वे किसी के साथ जाने को तैयार नहीं थे, भारत को किसी गुट में शामिल करना जवाहरलाल की नीति का हिस्सा कभी नहीं रहा . दोनों ही महाशक्तियों को नेहरू भरोसा दे रहे थे कि भारत उनमें से न किसी के गुट में शामिल होगा और न ही किसी का विरोध करेगा. यह बात दोनों महाशक्तियों को बुरी लगती थी. जवाहरलाल नेहरू ने अमरीकियों को कुछ इन शब्दों में फटकारा था . उन्होंने कहा कि ,'यह हैरतअंगेज़ है कि अपनी विदेशनीति को अमरीकी सरकार किस बचकाने पन से चलाती है .वे अपनी ताक़त और पैसे के बल पर काम चला रहे हैं , उनके पास न तो अक्ल है और न ही कोई और चीज़.' शुरुआती दिनों में सोवियत रूस ने हमेशा नेहरू के गुटनिरपेक्ष विदेशनीति का विरोध किया और आरोप लगाया कि वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद को समर्थन देने का एक मंच है ..सोवियत रूस ने कश्मीर के मसले पर भारत की कोई मदद नहीं की और उनकी कोशिश रही कि भारत उनके साथ शामिल हो जाए . जवाहरलाल ने कहा कि “ भारत रूस से दोस्ती चाहता है लेकिन हम बहुत ही संवेदंशील लोग हैं . हमें यह बर्दाश्त नहीं होगा कि कोई हमें गाली दे या हमारा अपमान करे. रूस को यह मुगालता है कि भारत में कुछ नहीं बदला है और हम अभी भी ब्रिटेन के साथी है . यह बहुत ही अहमकाना सोच है ..और अगर इस सोच की बिना पर कोई नीति बनायेगें तो वह गलत ही होगी जहां तक भारत का सवाल है वह अपने रास्ते पर चलता रहेगा.” जो लोग समकालीन इतिहास की मामूली समझ भी रखते हैं उन्हें मालूम है कि कितनी मुश्किलों से भारत की आज़ादी के बाद की नाव को भंवर से निकाल कर जवाहरलाल लाये थे और आज जो अमरीका परस्त लोग अपने पूर्वाग्रहों के आधार पर टी वी चैनलों पर बैठ कर मूर्खतापूर्ण प्रलाप करते हैं उन पर कोई भी केवल दया ही कर सकता है. उन्हें अपने दिल्ली और वाशिंगटन में बैठे अपने आकाओं को बता देना चाहिए अगर नेहरू की तरह सोच विचार कर अमरीका ने विदेशनीति को संचालित किया होता तो आज उसे पश्चिम एशिया में यह दुर्दशा न झेलनी पड़ती
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