Friday, June 13, 2014

संसदीय लोकतंत्र में सरकार से कम नहीं है विपक्ष की ज़िम्मेदारी





शेष नारायण सिंह 


कांग्रेस पार्टी ने राज्यसभा में गुलाम नबी आज़ाद को नेता और आनंद शर्मा को उपनेता तैनात कर दिया है .सबको मालूम है कि अगर राज्यसभा के साठ से भी अधिक कांग्रेसी सांसदों की राय ली गयी होती तो इन दोनों में से कोई न चुना जाता .ज़ाहिर है दिल्ली शहर के जनपथ और तुगलक लेन के साकिनों की मेहरबानी से यह हुआ है .इस तैनाती के साथ ही लगता है कि कांग्रेस ने  एक संगठन के रूप में अपनी जिजीविषा को भी तिलांजलि दे दी है. और एक संगठन के रूप में  संघर्षशील जनता के प्रतिनिधि के रूप में देश की राजनीति में बने रहने की इच्छा को अलविदा कह दिया है . प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनाव के अभियान के दौरान अक्सर कहा करते थे कि देश को कांग्रेसमुक्त भारत चाहिए .ऐसा लगता  है कि प्रधानमंत्री की उस इच्छा को पूरा करने में कांग्रेस का मौजूदा  नेतृत्व भी अपना योगदान कर रहा है . इन दो महानुभावों के बारे में इस तरह की टिप्पणी का मतलब यह कतई नहीं है कि यह बताया जाए कि किसी भी संघर्ष में इनकी कहीं कोई भूमिका नहीं है . यह भी बताना उद्देश्य नहीं  है कि पी वी नरसिम्हा राव समेत दिल्ली के ताक़तवर कांग्रेसियों के ख़ास शिष्य के रूप में गुलाम नबी आज़ाद ने लोकसभा में भी प्रवेश पा लिया था . यह भी बताने की ज़रुरत नहीं है कि अपने राज्य ,जम्मू कश्मीर की राजनीति में उनका केवल योगदान यह है कि दिल्ली दरबार के प्रतिनिधि के रूप में वहां  वे मुख्यमंत्री रहे हैं . जहां तक जनसमर्थन की बात है , वह वहां भी नहीं रहा  है क्योंकि इस बार के लोकसभा चुनाव में पराजित होकर आये हैं . यहाँ इस विषय पर चर्चा करना  भी ठीक नहीं होगा कि आनंद शर्मा का देश की राजनीति में सबसे बड़ा योगदान कभी इंदिरा गांधी और कभी राजीव गांधी का कृपापात्र बने रहने के सिवा कुछ नहीं है . यह भी कहने की ज़रुरत नहीं है कि युवक कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में आनंद शर्मा ने ही देश के कांग्रेस से सहानुभूति रखने वाले नौजवानों को दरबारगीरी की संस्कृति का महत्त्व समझाया था .
कांग्रेस पार्टी का कौन नेता हो या कौन डस्टबिन में फेंक दिया जाए यह उनका अपना मामला है  लेकिन कांग्रेस पार्टी देश की आज़ादी की लड़ाई की विरासत का निशान है ,यह बात किसी भी कांग्रेसी को नहीं भूलना चाहिए .समझ में नहीं  आता कि जब डॉ मनमोहन सिंह  पिछले दस साल से राज्यसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता थे तो उनको हटाने की क्या ज़रूरत थी. कांग्रेस के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के इर्दगिर्द गणेश परिक्रमा करने वाले कांग्रेस नेताओं के समूह ने पिछले दस वर्षों से हमेशा यह कोशिश की है कि कांग्रेस या यू पी ए सरकार की हर सफलता के लिए सोनिया गांधी या राहुल गांधी की तारीफ़ की जाए और अगर कहीं कोई विफलता  हो तो उसका ठीकरा डॉ मनमोहन सिंह के सर मढ़ दिया जाए.  यहाँ यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि  डॉ मनमोहन सिंह दस वर्षों तक प्राक्सी प्रधानमंत्री ही रहे हैं. पहले कांग्रेस अध्यक्ष की बात पूरी तरह से मानी जाती थी ,बाद में पार्टी के उपाध्यक्ष जी नानसेंस आदि के संबोधनों से मनमोहन सरकार के फैसलों को विभूषित किया करते थे.. तो जब किसी प्राक्सी को ही राज्यसभा में नेता बनाया जाना था तो डॉ मनमोहन सिंह में क्या कमी थी.
कांग्रेस पार्टी के आलाकमान को शायद यह समझ में नहीं आ रहा है कि उनकी पार्टी किसी परिवार की पार्टी नहीं है . यहाँ आज़ादी की लड़ाई में कांग्रेस की भूमिका का ज़िक्र करके बात को ऐतिहासिक सन्दर्भ देने की भी मंशा नहीं है. बस यह याद दिला देना है की संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका सरकारी पक्ष से कम नहीं होती, कई बार तो ज़्यादा  ही होती है . १९७१ में इंदिरा गांधी भारी बहुमत से जीतकर आयी थीं और  विपक्ष में संख्या के लिहाज़ से बहुत सांसद थे लेकिन उन सांसदों में  देशहित का भाव सर्वोच्च था . उन सब को मालूम था कि वे आने वाले समय में सरकार में नहीं शामिल होने वाले थे क्योंकि देश में कभी गैरकांग्रेसी सरकार ही नहीं बनी थी . उनको मालूम था कि उनकी राजनीति मूलरूप से सरकार पर नज़र रखने की राजनीति ही थी लेकिन उस दौर में  इंदिरा गांधी की कोई भी जनविरोधी नीति संसद में चुनौती से बच नहीं सकी. तत्कालीन प्रधानमंत्री के बेटे संजय गांधी की मारुति फैकटरी  और उससे जुड़ी भ्रष्टाचार की गाथाएँ देश के बड़े भाग में लोगों को मालूम थीं . पांडिचेरी लाइसेंस घोटाला की हर जानकारी जनता तक पंहुंच रही थी. यह यह समझ लेना ज़रूरी है कि उन दिनों २४ घंटे का टेलिविज़न नहीं था , मात्र कुछ अखबार थे जिनकी वजह से सारी जानकारी जनता तक पंहुचती थी.१९७७ में भी विपक्ष की भूमिका किसी से कम नहीं थी. इंदिरा गांधी खुद चुनाव हार गयी थीं . कांग्रेस पार्टी के हौसले पस्त थे लेकिन कुछ ही दिनों में विपक्ष ने सरकार के हर काम को पब्लिक स्क्रूटिनी के दायरे में डाल दिया .सब ठीक हो गया और मोरारजी देसाई की सरकार में काम करने वाले भ्रष्ट मंत्रियों की ज़िंदगी दुश्वार हो गयी क्योंकि सरकार के हर काम पर कांग्रेसी विपक्ष की नज़र थी . राजीव गांधी भी जब लोकसभा में विपक्ष के नेता थे तो विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को माकूल विपक्ष मिला और जब राजा ने खुद ही यह साबित कर दिया कि राजकाज के मामले में वी पी सिंह बहुत ही लचर थे तो उनको हटाकर अस्थायी ही सही  , एक नया और राजनीतिज्ञ प्रधानमंत्री देश को दे दिया . जानकार बताते हैं की अगर उन दिनों चंद्र्शेखर जी को प्रधानमंत्री न बनाया गया  होता तो वी पी सिंह की सरकार की कमज़ोर राजनीतिक कुशलता के चलते, कश्मीर और पंजाब में आई एस आई  की कृपा से चल रहा आतंकवाद देश की अस्मिता पर भारी पड़ जाता .
 सबको मालूम है कि लोकसभा में बीजेपी का स्पष्ट बहुमत है और राज्यसभा में ही उनकी नीतियों की सही निगरानी  होगी .ऐसी स्थिति में  कांग्रेस आलाकमान ने अपनी पिछली टुकड़ी के वफादार टाइप नेताओं को राज्यसभा का चार्ज देकर देश के लोकतंत्र के साथ न्याय नहीं किया है .  जिस तरह से नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव का संचालन किया है उसके कारण देश के संसदीय लोकतंत्र के सामने अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है .लगता है कि सब कुछ राष्ट्रपति प्रणाली की तरफ बढ़ रहा है . ऐसी हालत  में मुख्य विपक्षी दल की तरफ से कमजोरी का संकेत देना राष्ट्रहित में नहीं है .

औरतों को तालीम की ताक़त दिए बगैर जोर ज़बरदस्ती पर काबू नहीं पाया जा सकता



शेष नारायण सिंह

देश के हर कोने से महिलाओं पर हो रहे अत्याचार की ख़बरें आ रही हैं।  अभी खबर आयी है कि  मुंबई के पास कल्याण में एक मर्द ने सरकारी बस में यात्रा कर रही एक महिला को इतना पीटा कि  वह बेहोश हो गयी।  उसको बचाने के लिए बस की कंडक्टर आई तो उसको भी मारा पीटा।  बस में  ने उनकी वहशत का कोई जवाब  नहीं  दिया।  उत्तर प्रदेश से  बलात्कार की ख़बरें कई ज़िलों से आ रही हैं।  मध्य प्रदेश और राजस्थान में महिलाओं के साथ अत्याचार की इतनी ख़बरें आती हैं कि  जब किसी दिन घटना की सूचना नहीं आती तो लगता है कि  वही समाचार  का विषय है। आज दिल्ली के अखबारों में खबर है  कि  किसी नराधम ने एक तीन साल की बच्ची के साथ बलात्कार किया। उत्तर प्रदेश से लड़कियों से हैवानियत की जितनी भी रिपोर्टें आ रही हैं उनमें ज़्यादातर ऐसी बच्चियों को शिकार बनाया गया है जो शाम ढले शौच के लिए घर से बाहर खेतों में  जा रही थीं . यानी अगर उनके घर में शौच की सुविधा होती , शौचालय बनाने की सरकारी स्कीम के तहत शौचालय बनवा दिए गए होते तो बड़ी संख्या में लड़कियों को बलात्कार जैसी जघन्य पाशविकता का शिकार होने से बचाया जा सकता था. केंद्र सरकार के संगठन , राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन( एन एस एस ओ ) की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत के गाँवों में रहने वाली साठ फीसदी आबादी के पास घर में या घर के पास शौचालय नहीं है . केंद्र सरकार की तरफ से राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन लागू किया गया है .ग्रामीण आबादी के लिये अप्रैल, 2005 में शुरू किया गया . इस कार्यक्रम में महिलाओं और उनके स्वास्थ्य में सुधार को सबसे ज़्यादा प्राथमिकता दी गयी है . एक बड़ी धनराशि महिलाओं की सुविधा को ध्यान में रखकर शौचालयों के लिए रिज़र्व कर दी गयी थी. देश के अठारह राज्यों के लिए इस स्कीम में ख़ास इंतज़ाम किये गए थे . अरुणाचल प्रदेश,असमबिहारछत्तीसगढ़हिमाचल प्रदेशझारखंडजम्मू कश्मीरमणिपुरमिजोरममेघालयमध्य प्रदेश,नागालैण्डउड़ीसाराजस्थानसिक्किमत्रिपुराउत्तराखंड एवं उत्तर प्रदेश में केंद्र सरकार की और से अब तक शौचालय के नाम पर बड़ी रक़म दी जा चुकी है लेकिन गैरजिम्मेदार राज्य सरकारों ने इस दिशा में कोई ख़ास काम नहीं किया. मन कहता है की काश सरकारों ने अपने ज़िम्मेदारी निभाई होती तो आज  उन बच्चियों को बलात्कार जैसे भयानक अपराध से बचाया जा सका होता.

 

लेकिन यहीं पर दूसरा सवाल पैदा होता है . क्या वे लड़कियां जो अकेले देखी जायेगीं उनको बलात्कार का शिकार बनाया जायेगा. बार बार सवाल पैदा होता है कि लड़कियों के प्रति समाज का रवैया इतना वहशियाना क्यों है। दिसंबर २०१३ में हुए दिल्ली गैंग रेप कांड के बाद समाज के हर वर्ग में गुस्सा था.  अजीब बात है कि बलात्कार जैसे अपराध के बाद शुरू हुए आंदोलन से वह बातें निकल कर नहीं आईं जो महिलाओं को राजनीतिक ताक़त  देतीं  और उनके सशक्तीकरण की बात को आगे बढ़ातीं . गैंग रेप का शिकार हुई लडकी के साथ हमदर्दी वाला जो आंदोलन शुरू हुआ था उसमें बहुत कुछ ऐसा था जो कि व्यवस्था बदल देने की क्षमता रखता था लेकिन बीच में पता नहीं कब अपना राजनीतिक एजेंडा चलाने वाली राजनीतिक पार्टियों ने आंदोलन को हाइजैक कर लिया और केन्द्र सरकार ,दिल्ली  सरकार और इन सरकारों को चलाने वाली राजनीतिक पार्टी फोकस में आ गयी . कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की कोशिश में लगी हुई पार्टियों ने आंदोलन को दिशाहीन और हिंसक बना दिया . इस दिशाहीनता का नतीजा या हुआ  कि महिलाओं के सशक्तीकरण के मुख्य मुद्दों से राजनीतिक विमर्श को पूरी तरह से भटका दिया गया  .  बच्चियों और महिलाओं के प्रति समाज के रवैय्ये को  बदल डालने का जो अवसर मिला था  उसको गँवा दिया गया।   अब ज़रूरी है कि कानून में ऐसे इंतजामात किये जाएँ कि अपराधी को मिलने वाली सज़ा को देख कर भविष्य में किसी भी पुरुष की हिम्मत न पड़े कि बलात्कार के बारे में सोच भी सके.  उस समाज के खिलाफ सभ्य समाज को लामबंद होने की ज़रूरत है जो लडकी को इस्तेमाल की वस्तु साबित करता है  और उसके साथ होने वाले बलात्कार को भी अपनी शान में गुस्ताखी मान कर सारा काम करता है . हमें एक ऐसा समाज  चाहिए जिसमें लडकी के साथ बलात्कार करने वालों और उनकी मानसिकता की हिफाज़त करने वालों के खिलाफ लामबंद होने की इच्छा हो और ताक़त हो. 

 चारों तरफ महिलाओं के प्रति अत्याचार की ख़बरें हैं।  किसी दिन के अखबारों पर नज़र डालें तो बलात्कार के कम से कम दस मामले ऐसे हैं जिनकी खबर छपी है . ये ऐसे मामले हैं जिनको पुलिस थानों में बाकायदा रिपोर्ट किया गया है . इन बलात्कारों से भी ज्यादा अपमानजनक बहुत सारे  विज्ञापन हैं जो अखबारों और टेलिविज़न चैनलों पर चलाये जा रहे हैं .महिलाओं को उपभोग की चीज़ साबित करने की कोशिश करने वाली इस मानसिकता के खिलाफ जंग  छेड़ने की ज़रूरत है जिसमें लडकी को संपत्ति मानते हैं . इसी मानसिकता के चलते इस देश में लड़कियों को दूसरे दरजे का इंसान माना जाता है और उनकी इज्ज़त को मर्दानी इज्ज़त से जोड़कर देखा जाता है . लडकी की इज्ज़त की रक्षा करना समाज का कर्त्तव्य माना जाता है . यह गलत है . पुरुष कौन होता है लडकी की रक्षा करने वाला . ऐसी शिक्षा और माहौल बनाया जाना चाहिए जिसमें लड़की खुद को अपनी रक्षक माने . लड़की के रक्षक के रूप में पुरुष को पेश करने की  मानसिकता को जब तक खत्म नहीं किया जाएगा तह तक कुछ भी बद्लेगा नहीं. जो पुरुष समाज अपने आप को महिला की इज्ज़त का रखवाला मानता है वही पुरुष समाज अपने आपको यह अधिकार भी दे देता है कि वह महिला के  यौन जीवन का संरक्षक  और उसका उपभोक्ता है . इस मानसिकता को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया जाना चाहिए .मर्दवादी सोच से एक समाज के रूप में लड़ने की ज़रूरत है . और यह लड़ाई केवल वे लोग कर सकते हैं जो लड़की और लड़के को बराबर का  इंसान मानें और उसी सोच को जीवन के हर क्षेत्र में उतारें .  कमज़ोर को मारकर बहादुरी दिखाने वाले जब तक अपने कायराना काम को शौर्य बताते रहेगें तब तक इस देश में बलात्कार करने वालों के हौसलों को तोड़ पाना संभव नहीं होगा. अब तक का भारतीय समाज  का इतिहास ऐसा है जहां औरत को कमज़ोर बनाने के सैकड़ों संस्कार मौजूद हैं . स्कूलों में भी कायरता को शौर्य बताने वाले पाठ्यक्रमों की कमी  नहीं है .इन पाठ्यक्रमों को खत्म करने की ज़रूरत है . सरकारी स्कूलों के स्थान पर देश में कई जगह ऐसे स्कूल खुल गए हैं,जहां मर्दाना शौर्य की वाहवाही की शिक्षा दी जाती है . वहाँ औरत को एक ऐसी वस्तु की रूप में सम्मानित करने की सीख दी जाती है .इस समाज में औरत का सम्मान पुरुष के सम्मान से जुड़ा हुआ है . इस मानसिकता के खिलाफ एकजुट  होकर उसे ख़त्म करने की ज़रूरत है . अगर हम एक समाज के रूप में अपने आपको बराबरी की बुनियाद पर नहीं स्थापित कर सके तो जो पुरुष अपने आपको महिला का रक्षक बनाता फिरता है वह उसके साथ ज़बरदस्ती करने में भी संकोच नहीं करेगा. शिक्षा और समाज की बुनियाद में ही यह भर देने की ज़रूरत है कि पुरुष और स्त्री बराबर है और कोई किसी का रक्षक नहीं है. सब अपनी रक्षा खुद कर सकते हैं. बिना बुनियादी बदलाव के बलात्कार को हटाने की कोशिश वैसी  ही है जैसे किसी घाव पर मलहम लगाना . हमें ऐसे एंटी बायोटिक की तलाश करनी है जो शरीर में ऐसी शक्ति पैदा करे कि घाव होने की नौबत ही न आये. कहीं कोई बलात्कार ही न हो . उसके लिए सबसे ज़रूरी बात यह है कि महिला और पुरुष के बीच बराबरी को सामाजिक विकास की आवश्यक शर्त माना जाए.

इस बात की भी ज़रुरत है कि लड़कियों की तालीम को हर परिवार ,हर बिरादरी सबसे बड़ी प्राथमिकता बनाये और उनकी शिक्षा के लिए ज़रूरी पहल की जाए . जहां तक मुसलामानों की बात है केंद्र सरकार के पंद्रह सूत्र प्रोग्राम में लड़कियों की तालीम पर पूरा जोर दिया गया  है . मौजूदा  सरकार के प्रधानमंत्री ने कई बार कहा है कि पिछली सरकार की जो अच्छी बातें हैं उनको लागू किया जाएगा. सबको मालूम है की सच्चर कमेटी की रिपोर्ट और प्रधानमंत्री का पंद्रह सूत्री प्रोग्राम अल्पसंख्यकों के हवाले से पिछली सरकार के बहुत ही अच्छे प्रोग्राम हैं , मौजूदा सरकार अगर उनको लागू करती है जो लड़कियों का इम्पावरमेंट तालीम के ज़रिये होगा और अगर सही तरीके से महिलाओं को अवसर दिए गए तो बलात्कार जैसे अपराध बिलकुल कम हो जायेगें . या यह भी हो सकता है कि नई सरकार को इन दस्तावेजों से एतराज़ हो क्योंकि इनका फोकस मुस्लिम ख़वातीन पर ज़्यादा है तो उनको अपनी कोई नई स्कीम लानी चाहिए . लेकिन जो भी करना हो फ़ौरन करना पडेगा क्योंकि इस दिशा में जो काम आज से साठ साल पहले  होने चाहिए थे उन्हें अब शुरू करना है . अगर औरदेरी हुई तो बहुत देर हो जायेगी .

Wednesday, June 11, 2014

आतंकवाद के भस्मासुर की चपेट में पाकिस्तानी राष्ट्र


शेष नारायण सिंह 


पाकिस्तान  के कराची हवाई अड्डे पर हमलों का  सिलसिला लगातार जारी  है. तहरीके तालिबान पाकिस्तान ने  हमलों की ज़िम्मेदारी ली है।  इन हमलों  के बाद आत्नकवाद की राजनीति में एक नया अध्याय जुड़ गया है।  जब पाकिस्तान के तत्कालीन  फौजी तानाशाह जनरल ज़िया उल हक़ ने आतंकवाद को विदेशनीति   का बुनियादी आधार बनाने का  खतरनाक खेल खेलना  शुरू किया तो दुनिया  शान्तिप्रिय लोगों ने उनको आगाह किया  था कि  आतंकवाद को कभी भी राजनीति का हथियार नहीं बनाना चाहिए।  लेकिन जनरल  जिया  अपनी ज़िद पर अड़े रहे।  भारत के कश्मीर और पंजाब में उन्होंने फ़ौज़ की मदद से आतंकवादियों को झोंकना शुरू कर दिया।  अफगानिस्तान में भी अमरीकी मदद से उन्होंने आतंकवादियों  पैमाने पर तैनाती की।  इस इलाक़े की मौजूदा तबाही का कारण यही है कि  जनरल  जिया का आतंकवाद अपनी जड़ें  जमा चुका है। 
पाकिस्तानी आतंकवाद की सबसे नई बात यह है कि  पहली बार पाकिस्तानी फ़ौज़ और आई यस आई के खिलाफ इस बार उनके द्वारा पैदा किया गया आतंकवाद ही मैदान में है।  पहली बार पाकिस्तानी इस्टैब्लिशमेंट के खिलाफ तालिबान के लड़ाकू हमला कर रहे हैं।  इसलिए जो   आतंकवाद भारत को नुक्सान पंहुचाने के लिए पाकिस्तानी फ़ौज़ ने तैयार किया था वह अब उनके ही सर की मुसीबत बन चुका है।  भारत में भस्मासुर की जो अवधारणा बताई जाती है ,वह पाकिस्तान में सफल होती   नज़र आ रही है।  अस्सी  के दशक में पाकिस्तान  अमरीका की कठपुतली के रूप में भारत के खिलाफ आतंकवाद फैलाने का काम करता था।  यह  बात हमेशा से ही मालूम थी कि  अमरीका तब से भारत का विरोधी हो गया था जब से अमरीका की मर्ज़ी के खिलाफ जवाहरलाल  नेहरू ने निर्गुट आन्दोलन  की स्थापना की थी।  क़रीब तीन साल पहले अमरीका की जे एफ के लाइब्रेरी में नेहरू-केनेडी पत्रव्यवहार को सार्वजनिक किये जाने के बाद कुछ ऐसे तथ्य सामने आये हैं जिनसे पता चलता है कि अमरीका ने भारत की मुसीबत  के वक़्त कोई मदद नहीं की थी.  भारत के  ऊपर जब १९६२ में चीन का हमला हुआ था तो वह नवस्वतंत्र भारत के लिए सबसे बड़ी मुसीबत थी . उस वक़्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमरीका से मदद माँगी भी थी लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति जॉन केनेडी ने कोई भी सहारा नहीं दिया  और नेहरू की चिट्ठियों का जवाब तक नहीं दिया था . इसके बाद इंदिरा गाँधी के प्रधान मंत्री बनने के बाद लिंडन जॉनसन  ने भारत का अमरीकी कूटनीति के हित में इस्तेमाल करने की कोशिश की थी लेकिन इंदिरा गाँधी ने अपने राष्ट्रहित को महत्व दिया और अमरीका के हित से ज्यादा महत्व अपने हित को दिया और गुट निरपेक्ष आन्दोलन की नेता के रूप में भारत की इज़्ज़त बढ़ाई . हालांकि अमरीका की  यह हमेशा से कोशिश रही है कि वह एशिया की  राजनीति में भारत का अमरीकी हित में इस्तेमाल करे लेकिन भारतीय विदेशनीति के नियामक अमरीकी राष्ट्रहित के प्रोजेक्ट में अपने आप को पुर्जा बनाने को तैयार नहीं थे .
पिछले साठ वर्षों के इतिहास पर नज़र डालें तो समझ में आ जाएगा कि अमरीका ने भारत को हमेशा  की नीचा दिखाने की कोशिश की  है . १९४८ में जब कश्मीर मामला संयुक्तराष्ट्र में गया था तो तेज़ी से सुपर पावर बन रहे अमरीका ने भारत के खिलाफ काम किया था .  १९६५ में जब कश्मीर में घुसपैठ कराके उस वक़्त के पाकिस्तानी तानाशाह , जनरल अय्यूब  ने भारत पर हमला किया था तो उनकी सेना के पास जो भी हथियार थे सब अमरीका ने ही उपलब्ध करवाया था . उस लड़ाई में जिन पैटन टैंकों को भारतीय सेना ने रौंदा था, वे सभी अमरीका की खैरात के रूप में पाकिस्तान  की झोली में आये थे. पाकिस्तानी सेना के हार जाने के बाद अमरीका ने भारत पर दबाव बनाया था कि वह अपने कब्जे वाले पाकिस्तानी इलाकों को छोड़ दे  . १९७१ की बंगलादेश की  मुक्ति की लड़ाई में भी अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन ने  तानाशाह याहया खां के बड़े भाई के रूप में काम किया था और भारत  को धमकाने के लिए अमरीकी सेना के सातवें बेडे को बंगाल की खाड़ी में तैनात कर दिया था . उस वक़्त के अमरीकी विदेशमंत्री हेनरी कीसिंजर ने उस दौर में पाकिस्तान की तरफ से पूरी दुनिया  में पैरवी की थी. संयुक्त राष्ट्र में भी भारत के खिलाफ काम किया था . जब भी भारत ने परमाणु परीक्षण किया अमरीका को तकलीफ हुई . भारत ने बार बार पूरी दुनिया से अपील की कि बिजली पैदा करने के लिए उसे परमाणु शक्ति का विकास करने दिया जाय लेकिन अमरीका ने शान्ति पूर्ण परमाणु के प्रयोग की कोशिश के बाद भारत के ऊपर तरह तरह की पाबंदियां लगाईं. उसकी हमेशा कोशिश रही कि वह भारत और पाकिस्तान को बराबर की हैसियत वाला मुल्क बना कर रखे लेकिन ऐसा करने में वह सफल नहीं रहा .आज भारत के जिन इलाकों में भी अशांति है , वह सब अमरीका की कृपा से की गयी पाकिस्तानी  दखलंदाजी की वजह से ही है . कश्मीर में जो कुछ भी पाकिस्तान कर रहा है उसके पीछे पूरी तरह से अमरीका का पैसा लगा है . पंजाब में भी आतंकवाद पाकिस्तान की  फौज की कृपा से ही शुरू हुआ था . 

आज हम देखते हैं कि  अमरीका ने जिस पाकिस्तानी आतंकवाद का ज़रिये भारत की एकता पर प्राक्सी हमला किया था  पाकिस्तान  ही मुसीबत बन गया है. पाकिस्तानी  फ़ौज़ और राजनेताओं को चाहिए कि वे अपने देश की सुरक्षा को सबसे ऊपर  रखें और भारत की मदद से आतंकवाद के खात्मे के लिए योजना बनाएं वरना एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान  अस्तित्व खतरे में पड़  जाएगा।

Tuesday, June 10, 2014

प्रधानमंत्री के चुनावी नारों को राष्ट्रपति के अभिभाषण में शामिल किया गया .




शेष नारायण सिंह

 संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में राष्ट्रपति के अभिभाषण के साथ ही सोलहवीं  लोकसभा का विधवत आगाज़ हो गया. मानी हुयी बात है कि राष्ट्रपति के अभिभाषण में उनकी सरकार की नीतियों और योजनाओं का ज़िक्र होता है  लेकिन आज का राष्ट्रपति का अभिभाषण इस बात  के लिए ख़ास तौर पर याद रखा जाएगा कि उसमें मौजूदा प्रधानमंत्री के उन भाषणों के अंश भी थे जिनको उन्होंने लोकसभा चुनाव के दौरान नारों की शक्ल में इस्तेमाल किया था  सबको मालूम है कि राष्ट्रपति हर काम मंत्रिमंडल की सलाह से करते हैं  ,उनके सार्वजनिक भाषण भी सरकार की तरफ से लिखे जाते हैं , उनके हर भाषण में सरकार की नीतियों का ही उल्लेख होता है लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि राष्ट्रपति महोदय अपने भाषण में सत्ताधारी पार्टी के चुनावी नारों का बड़े विस्तार से उल्लेख करें . आज का भाषण इस सन्दर्भ में बहुत ही उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव भाषणों के कई नारों का अपने भाषण में इस्तेमाल किया .
आज के भाषण में जो सबसे प्रमुख बात समझ में आई वह  यह कि महिलाओं को संसद और विधानमंडलों में ३३ प्रतिशत आरक्षण की बीजेपी और कांग्रेस की करीब बीस साल से चल रही योजना  को लागू किया जा सकेगा . इसका कारण यह है कि बीजेपी की सरकार किसी भी ऐसी पार्टी के सहयोग की मुहताज नहीं है जो आम तौर पर महिलाओं के आरक्षण की बात शुरू होने पर हंगामा करते थे .  समर्थन की बात  तो दूर इस तरह  की विचारधारा  के लोग लोकसभा के सदस्य भी नहीं हैं . कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही इस मामले पर एकमत  रहे हैं . आज राष्ट्रपति जी ने महिलाओं के लिए जिन सकारात्मक बातों का उल्लेख किया उसमें से एक यह भी है . ज़ाहिर है कि दशकों से ठन्डे बसते में पडी यह योजना  मानसून सत्र में ही लागू की जा सकती है . महिलाओं के लिए अभिभाषण में और भी अहम् बाते  कही गयी हैं जिनपर सबकी नज़र रहेगी . मसलन महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा पर काबू  करने की जिस  मंशा की बात की गयी है अगर वह  लागू हो गयी तो भारत दुनिया के सभ्य देशों की सूची में काफी ऊपर पंहुंच जायेगा .

अपने अभिभाषण में केंद्र सरकार की पांच साल की योजनाओं का ज़िक्र तो राष्ट्रपति जी ने किया ही , कई बार उन्होंने ऐसी योजनाओं का ज़िक्र भी किया जिनके पूरा होने में दस साल से भी ज़्यादा समय लग सकता है . मूल रूप से बड़े उद्योगों के ज़रिये रोज़गार सृजन करने की सम्भावनाओं का लगभग हर योजना में उल्लेख था . खेती में निबेश को बढ़ावा देने की बात थी तो रेलवे के  विकास के बारे में उनकी रूपरेखा से बिलकुल साफ़ लग रहा था कि अब रेलवे में बड़े पैमाने पर तथाकथित पी पी पी माडल के ज़रिये निजीकरण की शुरुआत होने वाली है . पानी की सुरक्षा और उसकी व्यवस्था के बारे में मौजूदा सरकार बहुत गंभीर है और प्रधानमंत्री सिंचाई योजना लाने की मंशा का ऐलान भी बाकायदा किया गया  . शिक्षा के क्षेत्र में प्रधानमन्त्री के हुनर विकास योजना  को प्रमुखता से लागू करने की बात भी की गयी. उन्होंने प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना ,सेना में समान रैंक ,सामान पेंशन योजना ,प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन के लिए नीति,सुरक्षाबलों के लिए आधुनिक ,सागरमाला प्रोजेक्ट ,नेशनल मिशन ऑफ हिमालय ,हर परिवार को पक्का घरशौंचालय, १००  नए शहर, पूर्वोत्तर और पहाड़ी राज्यों में रेल नेटवर्क,हाई स्पीड ट्रेन , काला धन लाने के लिए एसआईटी , स्वच्छ भारत मिशन आदि बहुत सारे नारों का उल्लेख किया जो कि मौजूदा सरकार की योजनाओं  का हिस्सा हैं . हर हाथ को हुनर , हर खेत को पानी का जो बीजेपी या उसकी पूर्ववर्ती जनसंघ का पुराना ऩारा  है उसको भी अपने भाषण में शामिल किया
सरकारी हिसाब किताब का डिजिटाइजेशन,बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ कार्यक्रम , कश्मीरी पंडितों को घाटी में लौटाने की योजना, राज्य और केंद्र का टीम इंडिया की अवधारणा आदि ऐसी योजनायें हैं जिनपर पूरे देश की नज़र रहेगी .

एक भारत , श्रेष्ठ भारत , प्रधानमंत्री का प्रिय चुनावी नारा था जो राष्ट्रपति जी के भाषण में इस्तेमाल हुआ .  यह अलग बात है कि इस नारे  को नीति के स्तर पर कैसे लागू किया जाएगा ,इसके बारे में सही योजना का  उल्लेख नहीं किया गया . कुल मिलाकर राष्ट्रपति का अभिभाषण उन सभी वायदों से भरा हुआ था . देखना दिलचस्प होगा कि इनमें से कितनों को मौजूदा सरकार लागू कर पाती है .

संसदीय लोकतंत्र में सरकार से कम नहीं है विपक्ष की ज़िम्मेदारी





शेष नारायण सिंह 


कांग्रेस पार्टी ने राज्यसभा में गुलाम नबी आज़ाद को नेता और आनंद शर्मा को उपनेता तैनात कर दिया है .सबको मालूम है कि अगर राज्यसभा के साठ से भी अधिक कांग्रेसी सांसदों की राय ली गयी होती तो इन दोनों में से कोई न चुना जाता .ज़ाहिर है दिल्ली शहर के जनपथ और तुगलक लेन के साकिनों की मेहरबानी से यह हुआ है .इस तैनाती के साथ ही लगता है कि कांग्रेस ने  एक संगठन के रूप में अपनी जिजीविषा को भी तिलांजलि दे दी है. और एक संगठन के रूप में  संघर्षशील जनता के प्रतिनिधि के रूप में देश की राजनीति में बने रहने की इच्छा को अलविदा कह दिया है . प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनाव के अभियान के दौरान अक्सर कहा करते थे कि देश को कांग्रेसमुक्त भारत चाहिए .ऐसा लगता  है कि प्रधानमंत्री की उस इच्छा को पूरा करने में कांग्रेस का मौजूदा  नेतृत्व भी अपना योगदान कर रहा है . इन दो महानुभावों के बारे में इस तरह की टिप्पणी का मतलब यह कतई नहीं है कि यह बताया जाए कि किसी भी संघर्ष में इनकी कहीं कोई भूमिका नहीं है . यह भी बताना उद्देश्य नहीं  है कि पी वी नरसिम्हा राव समेत दिल्ली के ताक़तवर कांग्रेसियों के ख़ास शिष्य के रूप में गुलाम नबी आज़ाद ने लोकसभा में भी प्रवेश पा लिया था . यह भी बताने की ज़रुरत नहीं है कि अपने राज्य ,जम्मू कश्मीर की राजनीति में उनका केवल योगदान यह है कि दिल्ली दरबार के प्रतिनिधि के रूप में वहां  वे मुख्यमंत्री रहे हैं . जहां तक जनसमर्थन की बात है , वह वहां भी नहीं रहा  है क्योंकि इस बार के लोकसभा चुनाव में पराजित होकर आये हैं . यहाँ इस विषय पर चर्चा करना  भी ठीक नहीं होगा कि आनंद शर्मा का देश की राजनीति में सबसे बड़ा योगदान कभी इंदिरा गांधी और कभी राजीव गांधी का कृपापात्र बने रहने के सिवा कुछ नहीं है . यह भी कहने की ज़रुरत नहीं है कि युवक कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में आनंद शर्मा ने ही देश के कांग्रेस से सहानुभूति रखने वाले नौजवानों को दरबारगीरी की संस्कृति का महत्त्व समझाया था .
कांग्रेस पार्टी का कौन नेता हो या कौन डस्टबिन में फेंक दिया जाए यह उनका अपना मामला है  लेकिन कांग्रेस पार्टी देश की आज़ादी की लड़ाई की विरासत का निशान है ,यह बात किसी भी कांग्रेसी को नहीं भूलना चाहिए .समझ में नहीं  आता कि जब डॉ मनमोहन सिंह  पिछले दस साल से राज्यसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता थे तो उनको हटाने की क्या ज़रूरत थी. कांग्रेस के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के इर्दगिर्द गणेश परिक्रमा करने वाले कांग्रेस नेताओं के समूह ने पिछले दस वर्षों से हमेशा यह कोशिश की है कि कांग्रेस या यू पी ए सरकार की हर सफलता के लिए सोनिया गांधी या राहुल गांधी की तारीफ़ की जाए और अगर कहीं कोई विफलता  हो तो उसका ठीकरा डॉ मनमोहन सिंह के सर मढ़ दिया जाए.  यहाँ यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि  डॉ मनमोहन सिंह दस वर्षों तक प्राक्सी प्रधानमंत्री ही रहे हैं. पहले कांग्रेस अध्यक्ष की बात पूरी तरह से मानी जाती थी ,बाद में पार्टी के उपाध्यक्ष जी नानसेंस आदि के संबोधनों से मनमोहन सरकार के फैसलों को विभूषित किया करते थे.. तो जब किसी प्राक्सी को ही राज्यसभा में नेता बनाया जाना था तो डॉ मनमोहन सिंह में क्या कमी थी.
कांग्रेस पार्टी के आलाकमान को शायद यह समझ में नहीं आ रहा है कि उनकी पार्टी किसी परिवार की पार्टी नहीं है . यहाँ आज़ादी की लड़ाई में कांग्रेस की भूमिका का ज़िक्र करके बात को ऐतिहासिक सन्दर्भ देने की भी मंशा नहीं है. बस यह याद दिला देना है की संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका सरकारी पक्ष से कम नहीं होती, कई बार तो ज़्यादा  ही होती है . १९७१ में इंदिरा गांधी भारी बहुमत से जीतकर आयी थीं और  विपक्ष में संख्या के लिहाज़ से बहुत सांसद थे लेकिन उन सांसदों में  देशहित का भाव सर्वोच्च था . उन सब को मालूम था कि वे आने वाले समय में सरकार में नहीं शामिल होने वाले थे क्योंकि देश में कभी गैरकांग्रेसी सरकार ही नहीं बनी थी . उनको मालूम था कि उनकी राजनीति मूलरूप से सरकार पर नज़र रखने की राजनीति ही थी लेकिन उस दौर में  इंदिरा गांधी की कोई भी जनविरोधी नीति संसद में चुनौती से बच नहीं सकी. तत्कालीन प्रधानमंत्री के बेटे संजय गांधी की मारुति फैकटरी  और उससे जुड़ी भ्रष्टाचार की गाथाएँ देश के बड़े भाग में लोगों को मालूम थीं . पांडिचेरी लाइसेंस घोटाला की हर जानकारी जनता तक पंहुंच रही थी. यह यह समझ लेना ज़रूरी है कि उन दिनों २४ घंटे का टेलिविज़न नहीं था , मात्र कुछ अखबार थे जिनकी वजह से सारी जानकारी जनता तक पंहुचती थी.१९७७ में भी विपक्ष की भूमिका किसी से कम नहीं थी. इंदिरा गांधी खुद चुनाव हार गयी थीं . कांग्रेस पार्टी के हौसले पस्त थे लेकिन कुछ ही दिनों में विपक्ष ने सरकार के हर काम को पब्लिक स्क्रूटिनी के दायरे में डाल दिया .सब ठीक हो गया और मोरारजी देसाई की सरकार में काम करने वाले भ्रष्ट मंत्रियों की ज़िंदगी दुश्वार हो गयी क्योंकि सरकार के हर काम पर कांग्रेसी विपक्ष की नज़र थी . राजीव गांधी भी जब लोकसभा में विपक्ष के नेता थे तो विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को माकूल विपक्ष मिला और जब राजा ने खुद ही यह साबित कर दिया कि राजकाज के मामले में वी पी सिंह बहुत ही लचर थे तो उनको हटाकर अस्थायी ही सही  , एक नया और राजनीतिज्ञ प्रधानमंत्री देश को दे दिया . जानकार बताते हैं की अगर उन दिनों चंद्र्शेखर जी को प्रधानमंत्री न बनाया गया  होता तो वी पी सिंह की सरकार की कमज़ोर राजनीतिक कुशलता के चलते, कश्मीर और पंजाब में आई एस आई  की कृपा से चल रहा आतंकवाद देश की अस्मिता पर भारी पड़ जाता .
 सबको मालूम है कि लोकसभा में बीजेपी का स्पष्ट बहुमत है और राज्यसभा में ही उनकी नीतियों की सही निगरानी  होगी .ऐसी स्थिति में  कांग्रेस आलाकमान ने अपनी पिछली टुकड़ी के वफादार टाइप नेताओं को राज्यसभा का चार्ज देकर देश के लोकतंत्र के साथ न्याय नहीं किया है .  जिस तरह से नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव का संचालन किया है उसके कारण देश के संसदीय लोकतंत्र के सामने अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है .लगता है कि सब कुछ राष्ट्रपति प्रणाली की तरफ बढ़ रहा है . ऐसी हालत  में मुख्य विपक्षी दल की तरफ से कमजोरी का संकेत देना राष्ट्रहित में नहीं है .

Monday, June 9, 2014

चीन से सम्बन्ध सुधारने की सकारात्मक पहल फिर शुरू , लेकिन रास्ते बहुत ही मुश्किल हैं



शेष नारायण सिंह 

चीन के विदेशमंत्री की नई दिल्ली यात्रा संपन्न हो गयी . जैसा कि सब को मालूम है कुछ खास हासिल नहीं हुआ. होना भी नहीं था क्योंकि दोनों देशों के आपसी रिश्तों में खटास इतनी ज़्यादा है कि मामूली बातचीत से कुछ हासिल होने वाला नहीं है .गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार चीन की यात्रा की थी और वे उसके विकास से बहुत प्रभावित बताये जाते हैं . लेकिन यह भी सच है कि दोनों देशों के बीच में विवादित मामलों का बहुत बड़ा पहाड़ भी है . यह उम्मीद करना कि विवादों पर चर्चा संभव हो पायेगी ,अभी बहुत जल्दबाजी होगी . लेकिन कभी एक दूसरे के दुशमन रहे दो देशों के बीच अगर बातचीत होती रहे तो कूटनीति की दुनिया में वह भी बहुत बड़ी  बात होती है . इस यात्रा में चीनी विदेशमंत्री मूल रूप से  इस उद्देश्य से  आ रहे हैं की दोनों देश इस बात का  ऐलान कर सकें कि नई हुकूमत में पहले से बेहतर तरीके से संवाद किया जायेगा, दोनों के बीच व्यापार के अवसर हैं,उनको सही परिप्रेक्ष्य में रखा जाएगा. इस यात्रा के नियोजकों को भी मालूम था कि  तिब्बत, पनबिजली योजनायें , ब्रह्मपुत्र विवाद आदि से सम्बंधित मुद्दों पर सांकेतिक भाषा में भी ज़िक्र नहीं होगा . लोकसभा चुनाव के दौरान अरुणाचल प्रदेश के बारे में दिए गए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों का भूलकर भी ज़िक्र नहीं किया जाएगा .. प्रधानमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में प्रवासी तिब्बत सरकार के प्रधानमंत्री लोबसांग सांगे एक सम्मानित अतिथि के रूप में शामिल हुए थे .  विदेश मंत्रालय के आला अधिकारियों को  मालूम है कि चीन ने इस बात का बुरा माना था . ज़ाहिर है इस विषय को भी बातचीत में शामिल नहीं किया गया  .
मूल रूप से इस यात्रा को पड़ोसियों से अच्छे सम्बन्ध बनाने की दिशा में उठाया गया एक क़दम माना जा रहा  है . अपने पदग्रहण समारोह में दक्षेश देशों के शासकों को बुलाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसकी शुरुआत कर दी है . हमको मालूम है कि भारतीय जनता पार्टी की विदेशनीति में पड़ोसी देशों से रिश्तों को सुधारने की लालसा बहुत ही प्रमुख होती  है . जब अटल बिहारी वाजपेयी १९७७ में विदेशमंत्री बने तो उन्होंने पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने को अपनी प्राथमिकता बताया . सांकृतिक आदानप्रदान शुरू हुआ . भारत से पान के पत्तों का निर्यात शुरू हुआ , बहुत बड़े पैमाने पर बांस का भी  निर्यात किया गया . इमरजेंसी ख़त्म होने पर जब जेल से रिहा हुए तो अपने पहले  ही सार्वजनिक भाषण में अटल बिहारी  वाजपयी ने  फैज़ अहमद फैज़ की शायरी को अपना बड़ा संबल बताया और कहा कि फैज़ का वह शेर  " कूए यार से निकले तो सूए दार चले " उन्हें जेल में बहुत अच्छा लगता था . नतीजा यह हुआ कि फैज़ भी आये और इकबाल बानो भी आयीं , मुन्नी बेगम भी आयीं . लेकिन उसी दौर में भारत की लाख विरोध के बावजूद भी तत्कालीन पाकिस्तानी तानाशाह जनरल ज़िया उल हक  ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को फांसी दे दी, और भारत से दुश्मनी की फौजी संस्कृति की शुरुआत कर दी . उसी दौर में यह हाफ़िज़ सईद उनका धार्मिक सलाहकार तैनात हुआ था और हम जानते हैं कि एक हाफ़िज़ सईद ने दोनों देशो के बीच दुश्मनी का जो माहौल तैयार किया है उससे इस इलाके में शान्ति को सबसे बड़ा खतरा  है . दोबारा जब अटल जी प्रधानमंत्री के रूप में
सत्ता में आये तो पाकिस्तान से रिश्ते   सुधारने के लिए बस पर बैठकर लाहौर गए और सबको मालूम है कि शान्ति की बात तो दूर वहां पाकिस्तानी फौजें कारगिल में भारत के खिलाफ हमला कर चुकी थीं. वह तो हमारी फौजों ने इज्ज़त बचा ली वरना कारगिल में भारी मुश्किल पैदा हो चुकी थी . पाकिस्तान से दोस्ती बढाने के लिए नरेंद्र मोदी ने ज़रूरी पहल तो कर दी है लेकिन सबको पता है कि वहां के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ की हैसियत पाकिस्तानी भारत नीति में लगभग नगण्य होती है . सारे फैसले फौज और आई एस आई करती है .
इस पृष्ठभूमि  में चीन से सकारात्मक संवाद की शुरुआत अच्छी बात है लेकिन रास्ता बहुत बड़े बीहड़ों से होकर गुज़रता है .इसलिए संवाद का लक्ष्य ही हासिल हो जाए तो बहुत अच्छा माना जायेगा लेकिन दुर्भाग्य यह है कि शुरू में ब्रितानी साम्राज्यवाद और बाद में अमरीकी साम्राज्यवाद का शिकार रहे इस इलाके में विदेशी शक्तियों का बहुत ही नाजायज़ प्रभाव रहता है . ब्रिटेन और अमरीका के बाद आजकल चीन इस इलाके में अपना प्रभुत्व स्थापित करने की फ़िराक में है चीनी विदेशमंत्री वांग यी की यात्रा इस इलाके में शान्ति और सुलह का माहौल बनाए रखने के लिए बहुत अहम क़दम है लेकिन चीन के प्रभुत्वकामी हुक्मरानों की मंशा के मद्देनज़र उसके साथ रिश्ते सुधारने के चक्कर में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए . हमें इतिहास का ध्यान रखना चाहिए क्योंकि जो इतिहास को ध्यान में नहीं रखते वे खुद ही एक दुखद इतिहास बनने का खतरा मोल लेते हैं . चीन से अच्छे सम्बन्ध बनाने के लिए जवाहरलाल नेहरू ने हर कोशिश की थी लेकिन सब कुछ बहुत जल्दी  ही चीनी विस्तारवाद का शिकार हो गया. आठ फरवरी १९६० को जब राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने संसद को दोनों सदनों को बजट सत्र की शुरुआत के वक़्त संबोधित किया तो उसमें साफ़ चिंता  जताई गयी कि चीन भारतीय सीमा पर अपने सैनिक झोंक रहा है . हालांकि चीनी हमला वास्तव  में १९६२ में हुआ लेकिन १९६० में ही मामला इतना गंभीर हो चुका था कि राष्ट्रपति को अपने संबोधन में इस मद्दे को मुख्य विषय बनाना पडा.
मौजूदा यात्रा केवल जान पहचान बढाने वाली यात्रा के रूप में देखी जा रही है और २०१५ तक १०० अरब डालर का आपसी व्यापार वाला लक्ष्य हासिल  करने की दिशा में एक ज़रूरी क़दम  मानी जा रही है . ब्राज़ील में, ब्रिक्स ( ब्राजील ,भारत, चीन रूस और दक्षिण अफ्रीका ) सम्मलेन के दौरान  होने वाली  शासनाध्यक्षों की मुलाक़ात के सन्दर्भ में भी यह यात्रा महत्वपूर्ण है क्योंकि वहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति जी जिनपिंग की मुलाक़ात होगी .  ज़ाहिर है चीनी विदेशमंत्री की इस यात्रा से ब्रिक्स में बातचीत करने के कुछ बिंदु निकाले जा रहे हैं .इस्सके अलावा इस यात्रा से बहुत उम्मीद करना जल्दबाजी होगी .

Sunday, June 8, 2014

औरतों को तालीम की ताक़त दो ,वरना इन्साफ नहीं होगा



शेष नारायण सिंह

देश के हर कोने से महिलाओं पर हो रहे अत्याचार की ख़बरें आ रही हैं।  अभी खबर आयी है कि  मुंबई के पास कल्याण में एक मर्द ने सरकारी बस में यात्रा कर रही एक महिला को इतना पीटा कि  वह बेहोश हो गयी।  उसको बचाने के लिए बस की कंडक्टर आई तो उसको भी मारा पीटा।  बस में  ने उनकी वहशत का कोई जवाब  नहीं  दिया।  उत्तर प्रदेश से  बलात्कार की ख़बरें कई ज़िलों से आ रही हैं।  मध्य प्रदेश और राजस्थान में महिलाओं के साथ अत्याचार की इतनी ख़बरें आती हैं कि  जब किसी दिन घटना की सूचना नहीं आती तो लगता है कि  वही समाचार  का विषय है। आज दिल्ली के अखबारों में खबर है  कि  किसी नराधम ने एक तीन साल की बच्ची के साथ बलात्कार किया। उत्तर प्रदेश से लड़कियों से हैवानियत की जितनी भी रिपोर्टें आ रही हैं उनमें ज़्यादातर ऐसी बच्चियों को शिकार बनाया गया है जो शाम ढले शौच के लिए घर से बाहर खेतों में  जा रही थीं . यानी अगर उनके घर में शौच की सुविधा होती , शौचालय बनाने की सरकारी स्कीम के तहत शौचालय बनवा दिए गए होते तो बड़ी संख्या में लड़कियों को बलात्कार जैसी जघन्य पाशविकता का शिकार होने से बचाया जा सकता था. केंद्र सरकार के संगठन , राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन( एन एस एस ओ ) की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत के गाँवों में रहने वाली साठ फीसदी आबादी के पास घर में या घर के पास शौचालय नहीं है . केंद्र सरकार की तरफ से राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन लागू किया गया है .ग्रामीण आबादी के लिये अप्रैल, 2005 में शुरू किया गया . इस कार्यक्रम में महिलाओं और उनके स्वास्थ्य में सुधार को सबसे ज़्यादा प्राथमिकता दी गयी है . एक बड़ी धनराशि महिलाओं की सुविधा को ध्यान में रखकर शौचालयों के लिए रिज़र्व कर दी गयी थी. देश के अठारह राज्यों के लिए इस स्कीम में ख़ास इंतज़ाम किये गए थे . अरुणाचल प्रदेश,असमबिहारछत्तीसगढ़हिमाचल प्रदेशझारखंडजम्मू कश्मीरमणिपुरमिजोरममेघालयमध्य प्रदेश,नागालैण्डउड़ीसाराजस्थानसिक्किमत्रिपुराउत्तराखंड एवं उत्तर प्रदेश में केंद्र सरकार की और से अब तक शौचालय के नाम पर बड़ी रक़म दी जा चुकी है लेकिन गैरजिम्मेदार राज्य सरकारों ने इस दिशा में कोई ख़ास काम नहीं किया. मन कहता है की काश सरकारों ने अपने ज़िम्मेदारी निभाई होती तो आज  उन बच्चियों को बलात्कार जैसे भयानक अपराध से बचाया जा सका होता.

 

लेकिन यहीं पर दूसरा सवाल पैदा होता है . क्या वे लड़कियां जो अकेले देखी जायेगीं उनको बलात्कार का शिकार बनाया जायेगा. बार बार सवाल पैदा होता है कि लड़कियों के प्रति समाज का रवैया इतना वहशियाना क्यों है। दिसंबर २०१३ में हुए दिल्ली गैंग रेप कांड के बाद समाज के हर वर्ग में गुस्सा था.  अजीब बात है कि बलात्कार जैसे अपराध के बाद शुरू हुए आंदोलन से वह बातें निकल कर नहीं आईं जो महिलाओं को राजनीतिक ताक़त  देतीं  और उनके सशक्तीकरण की बात को आगे बढ़ातीं . गैंग रेप का शिकार हुई लडकी के साथ हमदर्दी वाला जो आंदोलन शुरू हुआ था उसमें बहुत कुछ ऐसा था जो कि व्यवस्था बदल देने की क्षमता रखता था लेकिन बीच में पता नहीं कब अपना राजनीतिक एजेंडा चलाने वाली राजनीतिक पार्टियों ने आंदोलन को हाइजैक कर लिया और केन्द्र सरकार ,दिल्ली  सरकार और इन सरकारों को चलाने वाली राजनीतिक पार्टी फोकस में आ गयी . कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने की कोशिश में लगी हुई पार्टियों ने आंदोलन को दिशाहीन और हिंसक बना दिया . इस दिशाहीनता का नतीजा या हुआ  कि महिलाओं के सशक्तीकरण के मुख्य मुद्दों से राजनीतिक विमर्श को पूरी तरह से भटका दिया गया  .  बच्चियों और महिलाओं के प्रति समाज के रवैय्ये को  बदल डालने का जो अवसर मिला था  उसको गँवा दिया गया।   अब ज़रूरी है कि कानून में ऐसे इंतजामात किये जाएँ कि अपराधी को मिलने वाली सज़ा को देख कर भविष्य में किसी भी पुरुष की हिम्मत न पड़े कि बलात्कार के बारे में सोच भी सके.  उस समाज के खिलाफ सभ्य समाज को लामबंद होने की ज़रूरत है जो लडकी को इस्तेमाल की वस्तु साबित करता है  और उसके साथ होने वाले बलात्कार को भी अपनी शान में गुस्ताखी मान कर सारा काम करता है . हमें एक ऐसा समाज  चाहिए जिसमें लडकी के साथ बलात्कार करने वालों और उनकी मानसिकता की हिफाज़त करने वालों के खिलाफ लामबंद होने की इच्छा हो और ताक़त हो. 

 चारों तरफ महिलाओं के प्रति अत्याचार की ख़बरें हैं।  किसी दिन के अखबारों पर नज़र डालें तो बलात्कार के कम से कम दस मामले ऐसे हैं जिनकी खबर छपी है . ये ऐसे मामले हैं जिनको पुलिस थानों में बाकायदा रिपोर्ट किया गया है . इन बलात्कारों से भी ज्यादा अपमानजनक बहुत सारे  विज्ञापन हैं जो अखबारों और टेलिविज़न चैनलों पर चलाये जा रहे हैं .महिलाओं को उपभोग की चीज़ साबित करने की कोशिश करने वाली इस मानसिकता के खिलाफ जंग  छेड़ने की ज़रूरत है जिसमें लडकी को संपत्ति मानते हैं . इसी मानसिकता के चलते इस देश में लड़कियों को दूसरे दरजे का इंसान माना जाता है और उनकी इज्ज़त को मर्दानी इज्ज़त से जोड़कर देखा जाता है . लडकी की इज्ज़त की रक्षा करना समाज का कर्त्तव्य माना जाता है . यह गलत है . पुरुष कौन होता है लडकी की रक्षा करने वाला . ऐसी शिक्षा और माहौल बनाया जाना चाहिए जिसमें लड़की खुद को अपनी रक्षक माने . लड़की के रक्षक के रूप में पुरुष को पेश करने की  मानसिकता को जब तक खत्म नहीं किया जाएगा तह तक कुछ भी बद्लेगा नहीं. जो पुरुष समाज अपने आप को महिला की इज्ज़त का रखवाला मानता है वही पुरुष समाज अपने आपको यह अधिकार भी दे देता है कि वह महिला के  यौन जीवन का संरक्षक  और उसका उपभोक्ता है . इस मानसिकता को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया जाना चाहिए .मर्दवादी सोच से एक समाज के रूप में लड़ने की ज़रूरत है . और यह लड़ाई केवल वे लोग कर सकते हैं जो लड़की और लड़के को बराबर का  इंसान मानें और उसी सोच को जीवन के हर क्षेत्र में उतारें .  कमज़ोर को मारकर बहादुरी दिखाने वाले जब तक अपने कायराना काम को शौर्य बताते रहेगें तब तक इस देश में बलात्कार करने वालों के हौसलों को तोड़ पाना संभव नहीं होगा. अब तक का भारतीय समाज  का इतिहास ऐसा है जहां औरत को कमज़ोर बनाने के सैकड़ों संस्कार मौजूद हैं . स्कूलों में भी कायरता को शौर्य बताने वाले पाठ्यक्रमों की कमी  नहीं है .इन पाठ्यक्रमों को खत्म करने की ज़रूरत है . सरकारी स्कूलों के स्थान पर देश में कई जगह ऐसे स्कूल खुल गए हैं,जहां मर्दाना शौर्य की वाहवाही की शिक्षा दी जाती है . वहाँ औरत को एक ऐसी वस्तु की रूप में सम्मानित करने की सीख दी जाती है .इस समाज में औरत का सम्मान पुरुष के सम्मान से जुड़ा हुआ है . इस मानसिकता के खिलाफ एकजुट  होकर उसे ख़त्म करने की ज़रूरत है . अगर हम एक समाज के रूप में अपने आपको बराबरी की बुनियाद पर नहीं स्थापित कर सके तो जो पुरुष अपने आपको महिला का रक्षक बनाता फिरता है वह उसके साथ ज़बरदस्ती करने में भी संकोच नहीं करेगा. शिक्षा और समाज की बुनियाद में ही यह भर देने की ज़रूरत है कि पुरुष और स्त्री बराबर है और कोई किसी का रक्षक नहीं है. सब अपनी रक्षा खुद कर सकते हैं. बिना बुनियादी बदलाव के बलात्कार को हटाने की कोशिश वैसी  ही है जैसे किसी घाव पर मलहम लगाना . हमें ऐसे एंटी बायोटिक की तलाश करनी है जो शरीर में ऐसी शक्ति पैदा करे कि घाव होने की नौबत ही न आये. कहीं कोई बलात्कार ही न हो . उसके लिए सबसे ज़रूरी बात यह है कि महिला और पुरुष के बीच बराबरी को सामाजिक विकास की आवश्यक शर्त माना जाए.

इस बात की भी ज़रुरत है कि लड़कियों की तालीम को हर परिवार ,हर बिरादरी सबसे बड़ी प्राथमिकता बनाये और उनकी शिक्षा के लिए ज़रूरी पहल की जाए . जहां तक मुसलामानों की बात है केंद्र सरकार के पंद्रह सूत्र प्रोग्राम में लड़कियों की तालीम पर पूरा जोर दिया गया  है . मौजूदा  सरकार के प्रधानमंत्री ने कई बार कहा है कि पिछली सरकार की जो अच्छी बातें हैं उनको लागू किया जाएगा. सबको मालूम है की सच्चर कमेटी की रिपोर्ट और प्रधानमंत्री का पंद्रह सूत्री प्रोग्राम अल्पसंख्यकों के हवाले से पिछली सरकार के बहुत ही अच्छे प्रोग्राम हैं , मौजूदा सरकार अगर उनको लागू करती है जो लड़कियों का इम्पावरमेंट तालीम के ज़रिये होगा और अगर सही तरीके से महिलाओं को अवसर दिए गए तो बलात्कार जैसे अपराध बिलकुल कम हो जायेगें . या यह भी हो सकता है कि नई सरकार को इन दस्तावेजों से एतराज़ हो क्योंकि इनका फोकस मुस्लिम ख़वातीन पर ज़्यादा है तो उनको अपनी कोई नई स्कीम लानी चाहिए . लेकिन जो भी करना हो फ़ौरन करना पडेगा क्योंकि इस दिशा में जो काम आज से साठ साल पहले  होने चाहिए थे उन्हें अब शुरू करना है . अगर और देरी हुई तो बहुत देर हो जायेगी .