शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,९ अप्रैल .उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार ने पूर्व मुख्यमंत्री मायावती को राजनीतिक रूप से कमज़ोर करने की रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है . राज्य की पिछड़ी जातियों के एक वर्ग को अनुसूचित जातियों की सूची में डालने की योजना पर काम शुरू हो गया है . अगर ऐसा हो गया तो अनुसूचित जातियों के लिए सरकारी नौकरियों, विधायिका और पंचायतों में रिज़र्व सीटों में हिस्सा बंटाने राज्य की अति पिछड़ी जातियों के सदस्य भी पंहुच जायेगें.राज्य सरकार ने अखिलेश यादव के उस वायदे को पूरा करने के लिए तैयारी शुरू कर दी है जिसमें उन्होंने कहा था कि पिछड़ी जातियो में अति पिछड़ी जातियों को दलितों जैसी सुविधाएं दी जायेगीं .योजना के मुताबिक मल्लाह, कहार और कुम्हार जाति को अब अनुसूचित जाति का सदस्य बना दिया जाएगा और इन जातियों के लोगों को अनुसूचित जातियों नके लिए रिज़र्व सीटों के लिए हक़दार माना जायेगा. समाजवादी पार्टी के सासद धर्मेन्द्र यादव का कहना है कि राज्य सरकार अपने चुनाव घोषणा पत्र में किये गए वायदों को बहुत ही गंभीरता से ले रही है . उसी राजनीतिक सोच के अनुसार सरकार बनने के बाद मंत्रिमंडल की पहली बैठक में ही बेरोज़गारी भत्ता देने का फैसला कर लिया गया था . अति पिछड़ों को सरकारी नौकरियों में दलितों के सामान अधिकार देना भी समाजवादी पार्टी के चुनावी वायदों में शामिल है .
राज्य सरकार अपने उस प्रस्ताव को फिर से जिंदा करना चाहती है जिसके तहत मुलायम सिंह यादव के मुख्यमंत्रित्व काल में राज्य सरकार ने केंद्र सरकार के पास एक प्रस्ताव भेजा था जिसमें मांग की गयी थी कि मल्लाह , कहार और कुम्हार जाति की कुछ उपजातियों को अनुसूचित जाति माना जाए.उन दिनों अमर सिंह का ज़माना था और समाजवादी पार्टी की कांग्रेस से दूरी हुआ करती थी . मुलायम सिंह की सरकार के प्रस्ताव पर केंद्र सरकार ने कोई फैसला नहीं लिया और मामला लटक गया. २००७ में जब मायावती की सरकार आ गयी तो उत्तर प्रदेश सरकार ने अपना प्रस्ताव वापस ले लिया . मल्लाह जाति के लोगों को अपने साथ लेना समाजवादी पार्टी की करीब १५ साल पुरानी रणनीति का हिस्सा है. जब कांशीराम ने मुलायम सिंह के साथ गठबंधन तोड़कर मायावती को बीजेपी के समर्थन से मुख्यमंत्री बना दिया था ,उसी वक़्त मुलायम सिंह यादव ने तय कर लिया था कि कांशी राम-मायावती के दलित वोट बैंक के बराबर का ही एक और वोट बैंक तैयार कर लेगें. उन्होंने उन दिनों इस संवाददाता को बताया था कि जाटवों की उत्तर प्रदेश में जितनी संख्या है , मल्लाहों की संख्या उसकी ७० प्रतिशत है . अगर मलाह पूरी तरह से समाजवादी पार्टी के साथ हो जायेगें तो दलितों के मायावती के साथ जाने से समाजवादी पार्टी को कोई नुकसान नहीं होगा. इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने मलाहों की अस्मिता की पहचान बन चुकी डाकू फूलन देवी को अपनी पार्टी में शामिल किया था और उन्हें लोकसभा की सदस्य बनवाया था. समाजवादी पार्टी का दावा है कि राज्य में मलाह, कहार और कुम्हार जातियों की संख्या जाटवों की कुल संख्या से ज़्यादा है . इसलिए इन जातियों को अगर अनुसूचित जाति में शामिल कर दिया जाए तो इन्हें राजनीतिक रूप से अपने साथ जोड़ा जा सकता है . इस योजना का दूसरा लाभ यह होगा कि मायवती के कोर समर्थकों को अपने आरक्षण में से उन जातियों को भी हिस्सा देना पड़ेगा जो कि चुनावों में मायावती के खिलाफ वोट कर रहे होगें.
उत्तर प्रदेश में पिछड़ी जातियो में अति पिछड़ी जातियों के सहारे राजनीति करने की कोशिश बीजेपी ने भी की थी. जब राजनाथ सिंह मुख्य मंत्री थे तो उन्होने अति पिछड़ों के लिए अलग से रिज़र्वेशन की बात की थी. और उसी हिसाब से नियम कानून भी बना दिया था. लेकिन उनकी राजनीति की धार के निशाने पर मुलायम सिंह यादव और उनकी राजनीति को कमज़ोर करना था. वे ओबीसी के आरक्षण में से काट कर अति पिछड़ी जातियों को सीटें देना चाहते थे . लेकिन समाजवादी पार्टी ने अति पिछड़ों को आरक्षण भी दे दिया है और अपने ओबीसी वर्ग के समर्थन को और मज़बूत कर दिया है . क्योंकि अगर मलाह , कुम्हार और कहार जाति के लोग दलित कोटे से सीटें ले रहे हैं तो ओबीसी के लिए जो २७ प्रतिशत का आरक्षण है उसमें से यादव आदि जातियों को ज़्यादा सीटें मिलेगीं.
इन जातियों को अनुसूचित जाति घोषित करने की प्रक्रिया को सरकार ने शुरू भी कर दिया है . मुख्य सचिव जावेद उस्मानी ने सम्बंधित विभाग से आंकड़े तलब कर लिए हैं और जल्दी ही प्रक्रिया पूरी कर दी जायेगी.
Tuesday, April 10, 2012
Saturday, April 7, 2012
यमन के तानाशाह के लिए यमदूत हैं तवक्कुल कारमान
शेष नारायण सिंह
अरब देश यमन में परिवर्तन की आंधी चल रही है . और इस तूफ़ान के अगले दस्ते की अगुवाई ३२ साल की तवक्कुल कारमान कर रही हैं . तवक्कुल कारमान आजकल भारत की यात्रा पर आई हुई हैं . ५ अप्रैल को उन्होंने नई दिल्ली के विज्ञान भवन में पांचवां जगजीवन राम स्मारक व्याख्यान दिया . तवक्कुल कारमान ने अपने भाषण के बाद भारत में बहुत सारे नए दोस्त बना लिए . महात्मा गांधी की अनुयायी तवक्कुल कारमान को २०११ का नोबेल शान्ति पुरस्कार भी मिल चुका है .तवक्कुल महिला हैं , पत्रकार हैं ,राजनेता हैं और अरब क्रान्ति की प्रेरणा हैं . उनके जैसे लोगों ने ही मिस्र में होस्नी मुबारक, ट्यूनिसिया में बेन अली और लीबिया में कर्नल गद्दाफी को सत्ता से बेदखल करने के आन्दोलन चलाये जिसे शुरू में गंभीरता से नहीं लिया गया लेकिन बाद में उन तानाशाहों को सत्ता से जाना पड़ा . जानकर बताते हैं कि अब यमनी तानाशाह अली अब्दुल्ला सालेह के जाने का वक़्त भी बहुत करीब आ पंहुचा है.
यमन में सत्ता पर क़ब्ज़ा अली अब्दुल्ला सालेह का है . वे राष्ट्रपति हैं.इसी पद पर १९७८ से जमे हुए हैं . अली अब्दुल्ला सालेह १९७८ में जब राष्ट्रपति बने थे तब यमन के दो हिस्से थे. उत्तरी यमन और दक्षिणी यमन .सालेह उत्तरी यमन के राष्ट्रपति बने थे. 1990 में दोनों हिस्सों का एकीकरण हुआ और इसे यमन गणराज्य का नाम दिया गया . उत्तरी यमन 1962 में गणराज्य बन गया था जबकि दक्षिण यमन में १९६७ तक ब्रिटिश राज रहा . यमन अरब प्रायद्वीप में एकमात्र गणराज्य है. इस क्षेत्र के बाक़ी देशों- सऊदी अरब, ओमान, बहरीन, कुवैत, क़तर, और संयुक्त अरब अमीरात- में राजशाही है. यमन हर तरह से विविधताओं का देश है. कबीलों, मजहबी फिरकों, राजनीतिक विचारधाराओं आदि की बहुलता और आपसी मतभेदों का लाभ उठाकर सालेह लगातार चुनाव जीतते रहे. पहले दक्षिणी यमन में कम्युनिस्टों, और बाद में सऊदी विरोधी हूथी कबीले और अल-क़ायदा की मौजूदगी ने सालेह के लिये सऊदी अरब और अमेरीका की मदद के दरवाज़े भी खुले रखे. इन तीन दशकों में सालेह और उनके साथियों के अत्याचार और भयानक भ्रष्टाचार ने बहुसंख्यक यमनियों का जीना-दूभर कर दिया है. आधी आबादी ग़रीबी रेखा से नीचे है तो एक-तिहाई आबादी कुपोषण का शिकार है. युवाओं की तिहाई आबादी बेरोज़गार है. आधी से अधिक आबादी रोज़गार और भरण-पोषण के लिये खेती पर निर्भर है, लेकिन पानी की लगातार होती कमी कुछ ही समय में बड़े भू-भाग को बंजर कर सकती है. एक अध्ययन के अनुसार, राजधानी साना अगले बीस साल में जलहीन हो सकती है. ऐसी स्थिति में आम यमनी में सालेह और उनके शासन के विरुद्ध असंतोष होना स्वाभाविक ही है. इस असंतोष की गंभीरता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि सालेह विरोधियों की ज़मात में वे सब शामिल हैं जो आमतौर से एक-दूसरे के घोर विरोधी हैं- इस्लाह (मुस्लिम ब्रदरहूड से सम्बद्ध), हूथी, यज़ीदी, शिया, सुन्नी, सलाफी, नासिरवादी, दक्षिण के समाजवादी आदि. यमन के इतिहास में कट्टरपंथी मुसलमानों और मार्क्सवादियों में कभी एका नहीं रहा लेकिन अब वे यमन की राजधानी साना के ‘परिवर्तन चौक’ पर एक साथ नज़र आते हैं .
यमन में अली सालेह का आतंक बहुत ही भयानक है अब उनकी सत्ता को ख़त्म करने के लिए यमनी जनता सडकों पर है और इसी आन्दोलन की सबसे बड़ी नेता हैं तवक्कुल कारमान. अरब देशों में तानाशाहों से मुक्ति के लिए जारी लड़ाई के दौरान जब ट्यूनीशिया में 14 जनवरी को बेन अली का पतन हुआ,उसके बाद यमन में क्रांति की शुरुआत हो गयी. तवक्कुल कारमान ने अपने देश के लोगों से कहा कि ट्यूनीशिया विद्रोह का जश्न मनाने के लिये १६ जनवरी को इकठ्ठा हों.
अगले दिन यमन की राजधानी स’ना में ट्यूनीशियाई दूतावास के सामने प्रदर्शन हुआ .प्रदर्शन जबरदस्त था. हज़ारों लोग शरीक हुए. और स’ना में सत्ता के विरुद्ध यह पहला शांतिपूर्ण प्रदर्शन था. नारे लग रहे थे कि ‘चले जाओ, इससे पहले कि तुम्हें भगाया जाये’. इसके बाद पूरे यमन में परिवर्तन का तूफ़ान आ गया . हर शहर में आस पास के लोग इकठ्ठा होने लगे और हर शहर में परिवर्तन चौक बना दिए गए. एक-दूसरे से दशकों तक लड़ते रहने वाले हिंसक कबीले ‘परिवर्तन चौकों’ पर साथ खड़े हैं, आपसी ख़ूनी संघर्ष को लोग भुला चुके हैं .सरकारी पुलिस ने कई जगहों पर लोगों को मार भी दिया है लोगों के बीच क्रोध और आक्रोश है लेकिन कहीं भी पुलिस पर कोई भी हमला नहीं हुआ . यह क्रान्ति पूरी तरह से शांतिपूर्ण है .
नई दिल्ली के अपने भाषण में तवक्कुल कारमान ने अरब देशों में चल रही स्प्रिंग रिवोल्यूशन के बारे में विस्तार से जानकारी दी और यह भरोसा जताया कि बहुत जल्द ही यमन भी एक तानाशाह के कब्जे से मुक्त हो जाएगा . उन्होंने कहा कि यह लोकतंत्र का दुर्भाग्य है कि होस्नी मुबारक, गद्दाफी, बेन अली, अब्दुल्ला अली सालेह और बशर अपने आपको लोकतंत्र का प्रतिनिधि बताते हैं जबकि इन सभी ने अपने अपने देशों में खानदानी तानाशाही कायम कर रखी है. मिस्र, लीबिया और ट्यूनीशिया के लोग तो अपने तानाशाहों से मुक्ति पा चुके हैं जबकि यमन और सीरिया में परिवर्तन बहुत दूर नहीं है. तवक्कुल ने कहा कि जो लोग अरब स्प्रिंग से डरते हैं, वे उनके आन्दोलन को बदनाम करते हैं . उन्होंने कहा कि इनके आन्दोलन को बदनाम करने के लिए उन्हने आतंकवादी संगठनों से जोड़ने की कोशिश की जा रही है. लेकिन सच्चाई यह है कि आतंकवादी लोकतंत्र में पनप ही नहीं सकते . हर तानाशाह आतंकवादी होता है और हर आतंकवादी तानाशाह होता है .दोनों एक दूसरे के पूरक होते हैं .जब तक तानाशाह ख़त्म नहीं होंगें बराबरी नहीं आयेगी. शांतिपूर्ण क्रान्ति तानाशाही को ख़त्म करने का सबसे कारगर तरीका है .उन्होंने सभी देशों से अपील की कि आन्दोलन के खिलाफ जारी प्रचार को कभी भी बढ़ावा न दें क्योंकि हर तानाशाह यही चाहता है . उन्होंने कहा कि जिन मुस्लिम देशों में लोकतंत्र की स्थापना हो चुकी है वहां आतंकवाद नहीं है. टर्की, मलयेशिया, लेबनान और इंडोनेशिया में किसी एक परिवार या तानाशाह का राज नहीं है और वहां कहीं भी आतंकवाद नहीं है . लेकिन जिन देशों में तानाशाही है वहां तरह तरह के आतंकवादी पाए जाते हैं .
तवक्कुल कारमान का दावा है कि तानाशाह को हटाने के लिये उस देश की जनता को ही आगे आना पडेगा . किसी विदेशी सत्ता की मदद से परिवर्तन नहीं लाया जा सकता. इराक का उदाहरण सामने है . अमरीकी हस्तक्षेप के बाद वहां सत्ता परिवर्तन हुआ लेकिन सही अर्थों में कोई बदलाव नहीं आया. बदलाव वही सही है जहां हर बदलाव के बाद लोकतंत्र की स्थापना हो . तवक्कुल कारमान ने भरोसा जताया कि उम्मीद से पहले ही यमन में जनता की सत्ता कायम होने वाली है.
अरब देश यमन में परिवर्तन की आंधी चल रही है . और इस तूफ़ान के अगले दस्ते की अगुवाई ३२ साल की तवक्कुल कारमान कर रही हैं . तवक्कुल कारमान आजकल भारत की यात्रा पर आई हुई हैं . ५ अप्रैल को उन्होंने नई दिल्ली के विज्ञान भवन में पांचवां जगजीवन राम स्मारक व्याख्यान दिया . तवक्कुल कारमान ने अपने भाषण के बाद भारत में बहुत सारे नए दोस्त बना लिए . महात्मा गांधी की अनुयायी तवक्कुल कारमान को २०११ का नोबेल शान्ति पुरस्कार भी मिल चुका है .तवक्कुल महिला हैं , पत्रकार हैं ,राजनेता हैं और अरब क्रान्ति की प्रेरणा हैं . उनके जैसे लोगों ने ही मिस्र में होस्नी मुबारक, ट्यूनिसिया में बेन अली और लीबिया में कर्नल गद्दाफी को सत्ता से बेदखल करने के आन्दोलन चलाये जिसे शुरू में गंभीरता से नहीं लिया गया लेकिन बाद में उन तानाशाहों को सत्ता से जाना पड़ा . जानकर बताते हैं कि अब यमनी तानाशाह अली अब्दुल्ला सालेह के जाने का वक़्त भी बहुत करीब आ पंहुचा है.
यमन में सत्ता पर क़ब्ज़ा अली अब्दुल्ला सालेह का है . वे राष्ट्रपति हैं.इसी पद पर १९७८ से जमे हुए हैं . अली अब्दुल्ला सालेह १९७८ में जब राष्ट्रपति बने थे तब यमन के दो हिस्से थे. उत्तरी यमन और दक्षिणी यमन .सालेह उत्तरी यमन के राष्ट्रपति बने थे. 1990 में दोनों हिस्सों का एकीकरण हुआ और इसे यमन गणराज्य का नाम दिया गया . उत्तरी यमन 1962 में गणराज्य बन गया था जबकि दक्षिण यमन में १९६७ तक ब्रिटिश राज रहा . यमन अरब प्रायद्वीप में एकमात्र गणराज्य है. इस क्षेत्र के बाक़ी देशों- सऊदी अरब, ओमान, बहरीन, कुवैत, क़तर, और संयुक्त अरब अमीरात- में राजशाही है. यमन हर तरह से विविधताओं का देश है. कबीलों, मजहबी फिरकों, राजनीतिक विचारधाराओं आदि की बहुलता और आपसी मतभेदों का लाभ उठाकर सालेह लगातार चुनाव जीतते रहे. पहले दक्षिणी यमन में कम्युनिस्टों, और बाद में सऊदी विरोधी हूथी कबीले और अल-क़ायदा की मौजूदगी ने सालेह के लिये सऊदी अरब और अमेरीका की मदद के दरवाज़े भी खुले रखे. इन तीन दशकों में सालेह और उनके साथियों के अत्याचार और भयानक भ्रष्टाचार ने बहुसंख्यक यमनियों का जीना-दूभर कर दिया है. आधी आबादी ग़रीबी रेखा से नीचे है तो एक-तिहाई आबादी कुपोषण का शिकार है. युवाओं की तिहाई आबादी बेरोज़गार है. आधी से अधिक आबादी रोज़गार और भरण-पोषण के लिये खेती पर निर्भर है, लेकिन पानी की लगातार होती कमी कुछ ही समय में बड़े भू-भाग को बंजर कर सकती है. एक अध्ययन के अनुसार, राजधानी साना अगले बीस साल में जलहीन हो सकती है. ऐसी स्थिति में आम यमनी में सालेह और उनके शासन के विरुद्ध असंतोष होना स्वाभाविक ही है. इस असंतोष की गंभीरता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि सालेह विरोधियों की ज़मात में वे सब शामिल हैं जो आमतौर से एक-दूसरे के घोर विरोधी हैं- इस्लाह (मुस्लिम ब्रदरहूड से सम्बद्ध), हूथी, यज़ीदी, शिया, सुन्नी, सलाफी, नासिरवादी, दक्षिण के समाजवादी आदि. यमन के इतिहास में कट्टरपंथी मुसलमानों और मार्क्सवादियों में कभी एका नहीं रहा लेकिन अब वे यमन की राजधानी साना के ‘परिवर्तन चौक’ पर एक साथ नज़र आते हैं .
यमन में अली सालेह का आतंक बहुत ही भयानक है अब उनकी सत्ता को ख़त्म करने के लिए यमनी जनता सडकों पर है और इसी आन्दोलन की सबसे बड़ी नेता हैं तवक्कुल कारमान. अरब देशों में तानाशाहों से मुक्ति के लिए जारी लड़ाई के दौरान जब ट्यूनीशिया में 14 जनवरी को बेन अली का पतन हुआ,उसके बाद यमन में क्रांति की शुरुआत हो गयी. तवक्कुल कारमान ने अपने देश के लोगों से कहा कि ट्यूनीशिया विद्रोह का जश्न मनाने के लिये १६ जनवरी को इकठ्ठा हों.
अगले दिन यमन की राजधानी स’ना में ट्यूनीशियाई दूतावास के सामने प्रदर्शन हुआ .प्रदर्शन जबरदस्त था. हज़ारों लोग शरीक हुए. और स’ना में सत्ता के विरुद्ध यह पहला शांतिपूर्ण प्रदर्शन था. नारे लग रहे थे कि ‘चले जाओ, इससे पहले कि तुम्हें भगाया जाये’. इसके बाद पूरे यमन में परिवर्तन का तूफ़ान आ गया . हर शहर में आस पास के लोग इकठ्ठा होने लगे और हर शहर में परिवर्तन चौक बना दिए गए. एक-दूसरे से दशकों तक लड़ते रहने वाले हिंसक कबीले ‘परिवर्तन चौकों’ पर साथ खड़े हैं, आपसी ख़ूनी संघर्ष को लोग भुला चुके हैं .सरकारी पुलिस ने कई जगहों पर लोगों को मार भी दिया है लोगों के बीच क्रोध और आक्रोश है लेकिन कहीं भी पुलिस पर कोई भी हमला नहीं हुआ . यह क्रान्ति पूरी तरह से शांतिपूर्ण है .
नई दिल्ली के अपने भाषण में तवक्कुल कारमान ने अरब देशों में चल रही स्प्रिंग रिवोल्यूशन के बारे में विस्तार से जानकारी दी और यह भरोसा जताया कि बहुत जल्द ही यमन भी एक तानाशाह के कब्जे से मुक्त हो जाएगा . उन्होंने कहा कि यह लोकतंत्र का दुर्भाग्य है कि होस्नी मुबारक, गद्दाफी, बेन अली, अब्दुल्ला अली सालेह और बशर अपने आपको लोकतंत्र का प्रतिनिधि बताते हैं जबकि इन सभी ने अपने अपने देशों में खानदानी तानाशाही कायम कर रखी है. मिस्र, लीबिया और ट्यूनीशिया के लोग तो अपने तानाशाहों से मुक्ति पा चुके हैं जबकि यमन और सीरिया में परिवर्तन बहुत दूर नहीं है. तवक्कुल ने कहा कि जो लोग अरब स्प्रिंग से डरते हैं, वे उनके आन्दोलन को बदनाम करते हैं . उन्होंने कहा कि इनके आन्दोलन को बदनाम करने के लिए उन्हने आतंकवादी संगठनों से जोड़ने की कोशिश की जा रही है. लेकिन सच्चाई यह है कि आतंकवादी लोकतंत्र में पनप ही नहीं सकते . हर तानाशाह आतंकवादी होता है और हर आतंकवादी तानाशाह होता है .दोनों एक दूसरे के पूरक होते हैं .जब तक तानाशाह ख़त्म नहीं होंगें बराबरी नहीं आयेगी. शांतिपूर्ण क्रान्ति तानाशाही को ख़त्म करने का सबसे कारगर तरीका है .उन्होंने सभी देशों से अपील की कि आन्दोलन के खिलाफ जारी प्रचार को कभी भी बढ़ावा न दें क्योंकि हर तानाशाह यही चाहता है . उन्होंने कहा कि जिन मुस्लिम देशों में लोकतंत्र की स्थापना हो चुकी है वहां आतंकवाद नहीं है. टर्की, मलयेशिया, लेबनान और इंडोनेशिया में किसी एक परिवार या तानाशाह का राज नहीं है और वहां कहीं भी आतंकवाद नहीं है . लेकिन जिन देशों में तानाशाही है वहां तरह तरह के आतंकवादी पाए जाते हैं .
तवक्कुल कारमान का दावा है कि तानाशाह को हटाने के लिये उस देश की जनता को ही आगे आना पडेगा . किसी विदेशी सत्ता की मदद से परिवर्तन नहीं लाया जा सकता. इराक का उदाहरण सामने है . अमरीकी हस्तक्षेप के बाद वहां सत्ता परिवर्तन हुआ लेकिन सही अर्थों में कोई बदलाव नहीं आया. बदलाव वही सही है जहां हर बदलाव के बाद लोकतंत्र की स्थापना हो . तवक्कुल कारमान ने भरोसा जताया कि उम्मीद से पहले ही यमन में जनता की सत्ता कायम होने वाली है.
उदयन शर्मा ने मुझे एक मिनट के अंदर सम्पादकीय लिखना सिखाया था
शेष नारायण सिंह
११ साल हो गए ,जब उदयन शर्मा को दिल्ली के अपोलो अस्पताल में दाखिल कराया गया था. बाद में उन्हें जी बी पन्त अस्पताल में लाया गया जहां उन्होंने अंतिम सांस ली. हर साल यह महीना मेरे लिए बहुत मुश्किल बीतता है . उदयन शर्मा बहुत बड़े पत्रकार थे, बेहतरीन इंसान थे, बहुत अच्छे पिता थे , बेहतरीन दोस्त थे ,. उन्होंने बहुत लोगों से दोस्ती की और बहुत लोगों ने उन्हें नापसंद किया . इसी दिल्ली शहर में ऐसे सैकड़ों लोग मिल जायेगें जो उनको बहुत अच्छी तरह जानते होंगें.अगर इन लोगों के सामने कोई अन्य व्यक्ति कह दे कि वह भी उदयन शर्मा को जानता है तो वे बुरा मान जायेगें और दावा करेगें कि सबसे अच्छे दोस्त तो उदयन शर्मा उनके ही थे. मैं ऐसे बहुत सारे लोगों को जनता हूँ जो उदयन शर्मा को बहुत अच्छी तरह जानते हैं, उनसे अच्छी तरह कोई नहीं जानता . मुझे हमेशा से लगता रहा है कि उदयन के व्यक्तित्व में वह खासियत थी कि जो भी उनसे मिलता था वह उनको अपना सबसे करीबी दोस्त मानने लगता था. उदयन शर्मा के जन्मदिन के मौके पर ११ जुलाई के दिन दिल्ली में एक कार्यक्रम होता है जिसमें उन्हें याद किया जाता है . उनकी पुण्यतिथि को याद नहीं किया जाता. सब कहते हैं कि पंडित जी की मृत्यु को याद करना ठीक नहीं है, उस से दर्द बढ़ जाता है . उनकी मृत्यु के महीने , अप्रैल में कहीं कोई कार्यक्रम नहीं होता, कहीं कोई आयोजन नहीं होता . लेकिन सच्ची बात है कि उनके चाहने वालों को वे सबसे ज्यादा अप्रैल में ही याद आते हैं . हाँ यह भी पक्का है कि कोई किसी से कहता नहीं ,कहीं उदयन का ज़िक्र नहीं होता. डर यह रहता है कि कहीं तकलीफ बढ़ न जाए. लेकिन अप्रैल के महीने में सभी लोग उदयन शर्मा को अप्रैल में बहुत मिस करते हैं. कोई किसी से कहता नहीं .सभी लोग उदयन शर्मा को अपने तरीके से याद करते रहते हैं .
मैं भी उदयन को हर साल पूरे अप्रैल निजी तौर पर याद करता हूँ . आज तक तो मैं अपने कुछ बहुत करीबी लोगों से बता दिया करता था कि मुझे उदयन की बहुत याद आती है लेकिन आज मैंने प्रतिज्ञा कर ली है अब कभी किसी से नहीं बताऊंगा कि मुझे भी उदयन शर्मा की याद आती है . पिछले ११ वर्षों में मैं ऐसे बहुत लोगों से मिला हूँ जिनको उदयन ने पत्रकारिता सिखाई है . मुझे भी उन्होंने बहुत बुरे वक़्त में नौकरी दी थी और मुझे सम्पादकीय लिखना सिखाया था. हुआ यह कि एक दिन अचानक उन्होंने मुझसे कह दिया कि अब तुम रोज़ एक सम्पादकीय लिखा करोगे. मुझे तो लगा कि सांप सूंघ गया . कभी लिखा ही नहीं था सम्पादकीय . लेकिन पंडित जी ने मुझे एक मिनट में सिखा दिया . कहने लगे कि मेरे भाई , आप जिस तरह से किसी भी टापिक पर बात करते रहते हैं , उसी को कलमबंद कर दो , बस वही सम्पादकीय हो जाएगा. मैंने लिख दिया और जनाब हम एक दिन के अंदर सम्पादकीय लेखक बन गए . यह मेरे निजी विचार हैं . किसी को तकलीफ देने के लिए नहीं लिखे गए है और मेरे ब्लॉग पर रहेगें .
११ साल हो गए ,जब उदयन शर्मा को दिल्ली के अपोलो अस्पताल में दाखिल कराया गया था. बाद में उन्हें जी बी पन्त अस्पताल में लाया गया जहां उन्होंने अंतिम सांस ली. हर साल यह महीना मेरे लिए बहुत मुश्किल बीतता है . उदयन शर्मा बहुत बड़े पत्रकार थे, बेहतरीन इंसान थे, बहुत अच्छे पिता थे , बेहतरीन दोस्त थे ,. उन्होंने बहुत लोगों से दोस्ती की और बहुत लोगों ने उन्हें नापसंद किया . इसी दिल्ली शहर में ऐसे सैकड़ों लोग मिल जायेगें जो उनको बहुत अच्छी तरह जानते होंगें.अगर इन लोगों के सामने कोई अन्य व्यक्ति कह दे कि वह भी उदयन शर्मा को जानता है तो वे बुरा मान जायेगें और दावा करेगें कि सबसे अच्छे दोस्त तो उदयन शर्मा उनके ही थे. मैं ऐसे बहुत सारे लोगों को जनता हूँ जो उदयन शर्मा को बहुत अच्छी तरह जानते हैं, उनसे अच्छी तरह कोई नहीं जानता . मुझे हमेशा से लगता रहा है कि उदयन के व्यक्तित्व में वह खासियत थी कि जो भी उनसे मिलता था वह उनको अपना सबसे करीबी दोस्त मानने लगता था. उदयन शर्मा के जन्मदिन के मौके पर ११ जुलाई के दिन दिल्ली में एक कार्यक्रम होता है जिसमें उन्हें याद किया जाता है . उनकी पुण्यतिथि को याद नहीं किया जाता. सब कहते हैं कि पंडित जी की मृत्यु को याद करना ठीक नहीं है, उस से दर्द बढ़ जाता है . उनकी मृत्यु के महीने , अप्रैल में कहीं कोई कार्यक्रम नहीं होता, कहीं कोई आयोजन नहीं होता . लेकिन सच्ची बात है कि उनके चाहने वालों को वे सबसे ज्यादा अप्रैल में ही याद आते हैं . हाँ यह भी पक्का है कि कोई किसी से कहता नहीं ,कहीं उदयन का ज़िक्र नहीं होता. डर यह रहता है कि कहीं तकलीफ बढ़ न जाए. लेकिन अप्रैल के महीने में सभी लोग उदयन शर्मा को अप्रैल में बहुत मिस करते हैं. कोई किसी से कहता नहीं .सभी लोग उदयन शर्मा को अपने तरीके से याद करते रहते हैं .
मैं भी उदयन को हर साल पूरे अप्रैल निजी तौर पर याद करता हूँ . आज तक तो मैं अपने कुछ बहुत करीबी लोगों से बता दिया करता था कि मुझे उदयन की बहुत याद आती है लेकिन आज मैंने प्रतिज्ञा कर ली है अब कभी किसी से नहीं बताऊंगा कि मुझे भी उदयन शर्मा की याद आती है . पिछले ११ वर्षों में मैं ऐसे बहुत लोगों से मिला हूँ जिनको उदयन ने पत्रकारिता सिखाई है . मुझे भी उन्होंने बहुत बुरे वक़्त में नौकरी दी थी और मुझे सम्पादकीय लिखना सिखाया था. हुआ यह कि एक दिन अचानक उन्होंने मुझसे कह दिया कि अब तुम रोज़ एक सम्पादकीय लिखा करोगे. मुझे तो लगा कि सांप सूंघ गया . कभी लिखा ही नहीं था सम्पादकीय . लेकिन पंडित जी ने मुझे एक मिनट में सिखा दिया . कहने लगे कि मेरे भाई , आप जिस तरह से किसी भी टापिक पर बात करते रहते हैं , उसी को कलमबंद कर दो , बस वही सम्पादकीय हो जाएगा. मैंने लिख दिया और जनाब हम एक दिन के अंदर सम्पादकीय लेखक बन गए . यह मेरे निजी विचार हैं . किसी को तकलीफ देने के लिए नहीं लिखे गए है और मेरे ब्लॉग पर रहेगें .
Thursday, April 5, 2012
" हर तानाशाह आतंकवादी होता है और हर आतंकवादी होता है तानाशाह"
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,५ अप्रैल.अरब क्रान्ति की नेता और सबसे कम उम्र में नोबेल शान्ति पुरस्कार जीतने वाली यमन की पत्रकार तवक्कुल कारमान ने आज यहाँ कहा कि हर तानाशाह आतंकवादी होता है और हर आतंकवादी निश्चित रूप से तानाशाह होता है. वे आज यहाँ बाबू जगजीवन राम राष्ट्रीय संस्थान के तत्वावधान में आयोजित पांचवें स्मारक व्यख्यान के आयोजन की मुख्य वक्ता थीं. अरब स्प्रिंग रिवोल्यूशन की नेता और वीमेन जर्नलिस्ट्स विदाउट चेन्स की संयोजक तवक्कुल कार्मान ने अरब दुनिय में परिवर्तन की आंधी ला दी है . जिन अरब देशों में महिलायें बाहर नहीं निकलती थीं वहीं आज तवक्कुल की प्रेरणा से हज़ारों महिलायें सडकों पर आ कर तानाशाही का विरोध कर रही हैं . वे खुद महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानती हैं और अरब दुनिया में परिवर्तन की बहुत बड़ी समर्थक हैं .वे खुद भी अहिसंक तरीकों से चलाये जा रहे अरब देशों के परिवर्तन के आन्दोलन का नेतृत्व कर रही हैं.
बहुत ही लचर तरीके से आयोजित सरकारी कार्यक्रम में कुछ भी ठीक नहीं था . समय से करीब ४५ मिनट बात तक आयोजक तैयारी में ही लग एराहे . हद तो तब हो गयी जब मुख्य अतिथि के आ जाने के बाद भी सीटों पर आरक्षण की पट्टियां लगाई जाती रहीं . आयोजक और उनका मंत्रालय बिलकुल गाफिल थे क्योंकि सम्बंधित मंत्री ने पंजाब विधानसभा के स्पीकर को पंजाब की लोकसभा का स्पीकर बताया और अपनी गलती को सुधारने तक की परवाह नहीं की..सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की खामियों को लोकसभा की स्पीकर और बाबू जगजीवन राम की बेटी ने अपने स्वागत भाषण में बखूबी लिया . उन्होंने कहा कि वे तवक्कुल कारमान की बेख़ौफ़ पत्रकारिता का सम्मान करती हैं . मीरा कुमार ने इस अवसर पर अपने महान पिता को याद किया और कहा कि वे कहा करते थे हमारे देश के लिए लिक्तंत्र बहुत ज़रूरी है क्योंकि वह हमें बराबरी का अवसर देती है . वे कहा करते थे कि बराबरी का लक्ष्य हासिल करने के लिए लोक तंत्र ज़रूरी है लेकिन जाति प्रथा इसमें सबसे बड़ी बाधा है . बाबू जगजीवन राम कहा करते तह कि या तो जाति प्रथा अरहेई आ लोकतंत्र . क्योंकि दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं . मीरा कुमार ने बताया अपने देश में लोकतंत्र और जातिप्रथा , दोनों ही साथ साथ चल रहे हैं .उन्होंने उम्मीद जताई कि हमारा लोकतंत्र जाति प्रथा को ख़त्म कर डा और बराबरी उसी रास्ते से आयेगी.
जब तवक्कुल कारमान ने माइक संभाला तो दर्शकों में कोई बहुत उत्साह नहीं था लेकिन जब उन्होंने अपना भाषण ख़त्म किया तो सभी दर्शक खड़े हो कर तालियाँ बजा रहे थे.उन्होंने कहा कि अरब दुनिया में शासक वर्गों ने अजीब तरीके अपना रखे हैं .वे देश की संपत्ति को अपनी खेती समझते हैं और अपने परिवार वालों के साथ मिलकर सारी संपदा को लूट रहे हैं . अरब देशों में हर तरफ तानाशाही का बोलबाला है लेकिन अपने देशों के नाम सभी ने इस तरह के रख छोड़े हैं कि उसमें रिपबलिक कहीं ज़रूर आ जाता है . उनके अपने देश, यमन के तानाशाह ने पूरी कोशिश की कि उनके आन्दोलन को इस्लामी आतंकवादी आन्दोलन करार दे दिया जाए.. लेकिन अरब नौजवानों ने तानाशाहों की कोशिश को सफल नहीं होने दिया. नौजवानों ने कुर्बानियां दीं क्योंकि वे अपने भविष्य को तानशाही के हवाले नहीं करना चाहते . अपनी कुर्बानियों एक बल पर अरब नौजवानों ने साबित कर दिया कि वे आतंकवादी नहीं है क्योंकि वे महात्मा गांधी के अहिंसक आन्दोलन को अपने संघर्ष का तरीका बना चुके हैं .इन नौजवानों की ताक़त संघर्ष कर सकने की क्षमता है .. अरब देशों के तानाशाह आम लोगों को उनका हक नहीं देना चाहते इसलिए वे उन्हें बदनाम करने के लिए उन पर आतंकवादी का लेबल लगाने की कोशिश करते हैं लेकिन अब पूरी दुनिया को मालूम है कि अरब दुनिया बहुत बड़े बदलाव के मुहाने पर खडी है और उम्मीद से पहले ही अरब देशों में लोकशाही के स्थापना हो जायेगी.
नई दिल्ली,५ अप्रैल.अरब क्रान्ति की नेता और सबसे कम उम्र में नोबेल शान्ति पुरस्कार जीतने वाली यमन की पत्रकार तवक्कुल कारमान ने आज यहाँ कहा कि हर तानाशाह आतंकवादी होता है और हर आतंकवादी निश्चित रूप से तानाशाह होता है. वे आज यहाँ बाबू जगजीवन राम राष्ट्रीय संस्थान के तत्वावधान में आयोजित पांचवें स्मारक व्यख्यान के आयोजन की मुख्य वक्ता थीं. अरब स्प्रिंग रिवोल्यूशन की नेता और वीमेन जर्नलिस्ट्स विदाउट चेन्स की संयोजक तवक्कुल कार्मान ने अरब दुनिय में परिवर्तन की आंधी ला दी है . जिन अरब देशों में महिलायें बाहर नहीं निकलती थीं वहीं आज तवक्कुल की प्रेरणा से हज़ारों महिलायें सडकों पर आ कर तानाशाही का विरोध कर रही हैं . वे खुद महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानती हैं और अरब दुनिया में परिवर्तन की बहुत बड़ी समर्थक हैं .वे खुद भी अहिसंक तरीकों से चलाये जा रहे अरब देशों के परिवर्तन के आन्दोलन का नेतृत्व कर रही हैं.
बहुत ही लचर तरीके से आयोजित सरकारी कार्यक्रम में कुछ भी ठीक नहीं था . समय से करीब ४५ मिनट बात तक आयोजक तैयारी में ही लग एराहे . हद तो तब हो गयी जब मुख्य अतिथि के आ जाने के बाद भी सीटों पर आरक्षण की पट्टियां लगाई जाती रहीं . आयोजक और उनका मंत्रालय बिलकुल गाफिल थे क्योंकि सम्बंधित मंत्री ने पंजाब विधानसभा के स्पीकर को पंजाब की लोकसभा का स्पीकर बताया और अपनी गलती को सुधारने तक की परवाह नहीं की..सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय की खामियों को लोकसभा की स्पीकर और बाबू जगजीवन राम की बेटी ने अपने स्वागत भाषण में बखूबी लिया . उन्होंने कहा कि वे तवक्कुल कारमान की बेख़ौफ़ पत्रकारिता का सम्मान करती हैं . मीरा कुमार ने इस अवसर पर अपने महान पिता को याद किया और कहा कि वे कहा करते थे हमारे देश के लिए लिक्तंत्र बहुत ज़रूरी है क्योंकि वह हमें बराबरी का अवसर देती है . वे कहा करते थे कि बराबरी का लक्ष्य हासिल करने के लिए लोक तंत्र ज़रूरी है लेकिन जाति प्रथा इसमें सबसे बड़ी बाधा है . बाबू जगजीवन राम कहा करते तह कि या तो जाति प्रथा अरहेई आ लोकतंत्र . क्योंकि दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं . मीरा कुमार ने बताया अपने देश में लोकतंत्र और जातिप्रथा , दोनों ही साथ साथ चल रहे हैं .उन्होंने उम्मीद जताई कि हमारा लोकतंत्र जाति प्रथा को ख़त्म कर डा और बराबरी उसी रास्ते से आयेगी.
जब तवक्कुल कारमान ने माइक संभाला तो दर्शकों में कोई बहुत उत्साह नहीं था लेकिन जब उन्होंने अपना भाषण ख़त्म किया तो सभी दर्शक खड़े हो कर तालियाँ बजा रहे थे.उन्होंने कहा कि अरब दुनिया में शासक वर्गों ने अजीब तरीके अपना रखे हैं .वे देश की संपत्ति को अपनी खेती समझते हैं और अपने परिवार वालों के साथ मिलकर सारी संपदा को लूट रहे हैं . अरब देशों में हर तरफ तानाशाही का बोलबाला है लेकिन अपने देशों के नाम सभी ने इस तरह के रख छोड़े हैं कि उसमें रिपबलिक कहीं ज़रूर आ जाता है . उनके अपने देश, यमन के तानाशाह ने पूरी कोशिश की कि उनके आन्दोलन को इस्लामी आतंकवादी आन्दोलन करार दे दिया जाए.. लेकिन अरब नौजवानों ने तानाशाहों की कोशिश को सफल नहीं होने दिया. नौजवानों ने कुर्बानियां दीं क्योंकि वे अपने भविष्य को तानशाही के हवाले नहीं करना चाहते . अपनी कुर्बानियों एक बल पर अरब नौजवानों ने साबित कर दिया कि वे आतंकवादी नहीं है क्योंकि वे महात्मा गांधी के अहिंसक आन्दोलन को अपने संघर्ष का तरीका बना चुके हैं .इन नौजवानों की ताक़त संघर्ष कर सकने की क्षमता है .. अरब देशों के तानाशाह आम लोगों को उनका हक नहीं देना चाहते इसलिए वे उन्हें बदनाम करने के लिए उन पर आतंकवादी का लेबल लगाने की कोशिश करते हैं लेकिन अब पूरी दुनिया को मालूम है कि अरब दुनिया बहुत बड़े बदलाव के मुहाने पर खडी है और उम्मीद से पहले ही अरब देशों में लोकशाही के स्थापना हो जायेगी.
अमरीका के भारी दबाव के बाद भी पाकिस्तान हाफ़िज़ सईद को नहीं पकड़ेगा
शेष नारायण सिंह
मुंबई हमलों की साज़िश के सरगना हाफ़िज़ मुहम्मद सईद को अब अमरीका भी आतंकवादी मानने लगा है . इसके पहले जब भारत की तरफ से कहा जाता था कि हाफ़िज़ सईद को काबू में किये बिना आतंक के खिलाफ किसी तरह की लड़ाई, कम से कम पाकिस्तान में तो नहीं लड़ी जा सकती, तो अमरीका के नेता हीला हवाला करते थे. अब अमरीका की समझ में भी आ गया है कि हाफ़िज़ सईद को पकड़ना ज़रूरी है क्योंकि उसने पाकिस्तान के रास्ते अफगानिस्तान जाने वाली फौजी सप्लाई में अडंगा डालने की कोशिश शुरू कर दिया है .अब अमरीका को लगता है कि हाफ़िज़ सईद को काबू में कर लेना चाहिए . लेकिन उसे पकड़ने के लिए अमरीकी हुकूमत ने जो तरीका अपनाया है वह बहुत ही अजीब है . अमरीका ने ऐलान कर दिया है कि जो भी हाफ़िज़ सईद को अमरीका के हवाले कर देगा उसे पचास करोड़ से ज्यादा रूपये इनाम के रूप में दिए जायेगें. लगता है कि अमरीका की पाकिस्तान नीति के संचालकों को मालूम नहीं है कि हाफ़िज़ सईद की पाकिस्तान की फौज में क्या हैसियत है . आज ही पाकिस्तानी फौज के रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल हमीद गुल का बयान आ गया है कि अमरीका को कोई अख्तियार नहीं है कि वह हाफ़िज़ सईद की गिरफ्तारी की बात करे. यह वही हमीद गुल हैं जो कभी आई एस आई के डाइरेक्टर हुआ करते थे और पाकिस्तान में जितने भी बड़े आतंकवादी हैं यह उन सभी के संरक्षक रह चुके हैं . लेकिन हाफ़िज़ सईद इनका भी संरक्षक रह चुका है . हाफ़िज़ सईद के अहसानों का बदला चुकाने के लिए हमीद गुल ने तो भारत के खिलाफ भी बयान देना शुरू कर दिया है . कहते हैं कि भारत को अमरीका के उस बयान का स्वागत नहीं करना चाहिए था जिसमें कहा गया है कि हाफिज़ सईद को पकड़ने वाले को भारी रक़म बतौर इनाम दी जायेगी. वे तो यहाँ तक धमकी दे रहे हैं कि अगर पाकिस्तान के राष्ट्रपति ८ अप्रैल को ख्वाजा गरीब नवाज़ की दरगाह पर हाजिरी लगाने अजमेर जाते हैं तो पाकिस्तान की सडकों और बाज़ारों में जुलूस निकाल कर उनका विरोध किया जायेगा.
यह देखना दिलचस्प होगा कि एक आतंकवादी के लिए पाकिस्तानी फौज़ और उसकी आई एस आई का निर्माता इस तरह की बात क्यों कर रहा है . यह हाफ़िज़ सईद आखिर है कौन. पाकिस्तान की सरकार में किसी की भी औकात नहीं है कि वह हाफिज़ सईद के खिलाफ कोई कार्रवाई करे... .हाफ़िज़ मुहम्मद सईद के खिलाफ कार्रवाई करना इसलिए भी मुश्किल होगा क्योंकि आज पकिस्तान में आतंक का जो भी तंत्र है , वह सब उसी सईद का बनाया हुआ है . उसकी ताक़त को समझने के लिए पिछले ३३ वर्षों के पाकिस्तानी इतिहास पर एक नज़र डालना ठीक रहेगा. पाकिस्तान के पूर्व तानाशाह , जिया उल हक ने हाफिज़ सईद को महत्व देना शुरू किया था . उसका इस्तेमाल अफगानिस्तान में पूरी तरह से किया गया लेकिन बेनजीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ ने उसे कश्मीर में आतंकवाद फैलाने के लिए इस्तेमाल किया . वह पाकिस्तानी प्रशासन का बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया . सब को मालूम है कि पाकिस्तान में हुकूमत ज़रदारी या गीलानी की नहीं है . सारी हुकूमत फौज की है और हाफिज़ सईद फौज का अपना बंदा है. हाफिज़ सईद की हैसियत का अंदाज़ इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जनरल जिया के वक़्त से ही वह फौज में तैनाती वगैरह के लिए सिफारिश करता रहा है और पाकिस्तान के बारे में जो लोग जानते हैं उनमें सब को मालूम है कि पकिस्तान में किसी भी सरकारी काम की सिफारिश अगर हाफिज़ सईद कर दे तो वह काम हो जाता है . यह आज भी उतना ही सच है . इसका मतलब यह हुआ कि जिन लोगों पर हाफिज़ सईद ने अगर १९८० में फौज के छोटे अफसरों के रूप में एहसान किया था, वे आज फौज और आई एस आई के करता धरता बन चुके हैं उसके अहसान के नीचे दबे हुए अफसर हाफिज़ सईद पर कोई कार्रवाई नहीं होने देंगें.
अगर पाकिस्तान पर सही अर्थों में दबाव बनाना है तो सबसे ज़रूरी यह है कि फौज में जो हाफ़िज़ सईद के चेले हैं उन्हें अर्दब में लिया जाए. इसका एक तरीका तो यह है फौज के ताम झाम को कमज़ोर किया जाए. इस मकसद को हासिल करने के लिए ज़रूरी है फौज को अमरीका से मिलने वाली मदद पर फ़ौरन रोक लगाई जाए. यह काम अमरीका कर सकता है . ऐसी हालत में अगर अमरीका की सहायता पर पल रहे पकिस्तान को अमरीकी सहायता बंद कर दी जाए तो पाकिस्तान पर दबाव बन सकता है लेकिन इस सुझाव में भी कई पेंच हैं . .पाकिस्तान के गरीब लोगों को बिना विदेशी सहायता के रोटी नहीं दी जा सकती है क्योंकि वहां पहले प्रधान मंत्री लियाकत अली के क़त्ल के बाद से विकास का काम बिलकुल नहीं हुआ है .पहली बार जनरल अयूब ने फौजी हुकूमत कायम की थी, उसके बाद से फौज ने पाकिस्तान का पीछा नहीं छोडा. आज वहां अपना कुछ नहीं है सब कुछ खैरात में मिलता है .इस सारे चक्कर में पकिस्तान का आम आदमी सबसे ज्यादा पिस रहा है. इसलिए विदेशी सहायता बंद होने की सूरत में पाकिस्तानी अवाम सबसे ज्यादा परेशानी में पड़ेगा क्योंकि ऊपर के लोग तो जो भी थोडा बहुत होगा उसे हड़प कर ही लेगें ..इस लिए यह ज़रूरी है कि पाकिस्तान को मदद करने वाले दान दाता देश साफ़ बता दें कि जो भी मदद मिलेगी, जिस काम के लिए मिलेगी उसे वहीं इस्तेमाल करना पड़ेगा. आम पाकिस्तानी के लिए मिलने वाली राशि का इस्तेमाल आतंकवाद और फौजी हुकूमत का पेट भरने के लिए नहीं किया जा सकता. अमरीका और अन्य दान दाता देशों के लिए इस तरह का फैसला लेना बहुत मुश्किल पड़ सकता है लेकिन असाधारण परिस्थतियों में असाधारण फैसले लेने पड़ते हैं . ज़ाहिर है कि इतनी बड़ी रक़म को इनाम के रूप में घोषित करके अमरीका ने एक असाधारण फैसला लिया है . लेकिन यह उम्मीद करना बेकार है कि पाकिस्तान हाफ़िज़ सईद को पकड़ कर अमरीका के हवाले कर देगा . जब तक फौज को घेरे में न लिया जाएगा , हाफ़िज़ सईद का कुछ नहीं बिगड़ेगा.
मुंबई हमलों की साज़िश के सरगना हाफ़िज़ मुहम्मद सईद को अब अमरीका भी आतंकवादी मानने लगा है . इसके पहले जब भारत की तरफ से कहा जाता था कि हाफ़िज़ सईद को काबू में किये बिना आतंक के खिलाफ किसी तरह की लड़ाई, कम से कम पाकिस्तान में तो नहीं लड़ी जा सकती, तो अमरीका के नेता हीला हवाला करते थे. अब अमरीका की समझ में भी आ गया है कि हाफ़िज़ सईद को पकड़ना ज़रूरी है क्योंकि उसने पाकिस्तान के रास्ते अफगानिस्तान जाने वाली फौजी सप्लाई में अडंगा डालने की कोशिश शुरू कर दिया है .अब अमरीका को लगता है कि हाफ़िज़ सईद को काबू में कर लेना चाहिए . लेकिन उसे पकड़ने के लिए अमरीकी हुकूमत ने जो तरीका अपनाया है वह बहुत ही अजीब है . अमरीका ने ऐलान कर दिया है कि जो भी हाफ़िज़ सईद को अमरीका के हवाले कर देगा उसे पचास करोड़ से ज्यादा रूपये इनाम के रूप में दिए जायेगें. लगता है कि अमरीका की पाकिस्तान नीति के संचालकों को मालूम नहीं है कि हाफ़िज़ सईद की पाकिस्तान की फौज में क्या हैसियत है . आज ही पाकिस्तानी फौज के रिटायर्ड लेफ्टिनेंट जनरल हमीद गुल का बयान आ गया है कि अमरीका को कोई अख्तियार नहीं है कि वह हाफ़िज़ सईद की गिरफ्तारी की बात करे. यह वही हमीद गुल हैं जो कभी आई एस आई के डाइरेक्टर हुआ करते थे और पाकिस्तान में जितने भी बड़े आतंकवादी हैं यह उन सभी के संरक्षक रह चुके हैं . लेकिन हाफ़िज़ सईद इनका भी संरक्षक रह चुका है . हाफ़िज़ सईद के अहसानों का बदला चुकाने के लिए हमीद गुल ने तो भारत के खिलाफ भी बयान देना शुरू कर दिया है . कहते हैं कि भारत को अमरीका के उस बयान का स्वागत नहीं करना चाहिए था जिसमें कहा गया है कि हाफिज़ सईद को पकड़ने वाले को भारी रक़म बतौर इनाम दी जायेगी. वे तो यहाँ तक धमकी दे रहे हैं कि अगर पाकिस्तान के राष्ट्रपति ८ अप्रैल को ख्वाजा गरीब नवाज़ की दरगाह पर हाजिरी लगाने अजमेर जाते हैं तो पाकिस्तान की सडकों और बाज़ारों में जुलूस निकाल कर उनका विरोध किया जायेगा.
यह देखना दिलचस्प होगा कि एक आतंकवादी के लिए पाकिस्तानी फौज़ और उसकी आई एस आई का निर्माता इस तरह की बात क्यों कर रहा है . यह हाफ़िज़ सईद आखिर है कौन. पाकिस्तान की सरकार में किसी की भी औकात नहीं है कि वह हाफिज़ सईद के खिलाफ कोई कार्रवाई करे... .हाफ़िज़ मुहम्मद सईद के खिलाफ कार्रवाई करना इसलिए भी मुश्किल होगा क्योंकि आज पकिस्तान में आतंक का जो भी तंत्र है , वह सब उसी सईद का बनाया हुआ है . उसकी ताक़त को समझने के लिए पिछले ३३ वर्षों के पाकिस्तानी इतिहास पर एक नज़र डालना ठीक रहेगा. पाकिस्तान के पूर्व तानाशाह , जिया उल हक ने हाफिज़ सईद को महत्व देना शुरू किया था . उसका इस्तेमाल अफगानिस्तान में पूरी तरह से किया गया लेकिन बेनजीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ ने उसे कश्मीर में आतंकवाद फैलाने के लिए इस्तेमाल किया . वह पाकिस्तानी प्रशासन का बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया . सब को मालूम है कि पाकिस्तान में हुकूमत ज़रदारी या गीलानी की नहीं है . सारी हुकूमत फौज की है और हाफिज़ सईद फौज का अपना बंदा है. हाफिज़ सईद की हैसियत का अंदाज़ इस बात से भी लगाया जा सकता है कि जनरल जिया के वक़्त से ही वह फौज में तैनाती वगैरह के लिए सिफारिश करता रहा है और पाकिस्तान के बारे में जो लोग जानते हैं उनमें सब को मालूम है कि पकिस्तान में किसी भी सरकारी काम की सिफारिश अगर हाफिज़ सईद कर दे तो वह काम हो जाता है . यह आज भी उतना ही सच है . इसका मतलब यह हुआ कि जिन लोगों पर हाफिज़ सईद ने अगर १९८० में फौज के छोटे अफसरों के रूप में एहसान किया था, वे आज फौज और आई एस आई के करता धरता बन चुके हैं उसके अहसान के नीचे दबे हुए अफसर हाफिज़ सईद पर कोई कार्रवाई नहीं होने देंगें.
अगर पाकिस्तान पर सही अर्थों में दबाव बनाना है तो सबसे ज़रूरी यह है कि फौज में जो हाफ़िज़ सईद के चेले हैं उन्हें अर्दब में लिया जाए. इसका एक तरीका तो यह है फौज के ताम झाम को कमज़ोर किया जाए. इस मकसद को हासिल करने के लिए ज़रूरी है फौज को अमरीका से मिलने वाली मदद पर फ़ौरन रोक लगाई जाए. यह काम अमरीका कर सकता है . ऐसी हालत में अगर अमरीका की सहायता पर पल रहे पकिस्तान को अमरीकी सहायता बंद कर दी जाए तो पाकिस्तान पर दबाव बन सकता है लेकिन इस सुझाव में भी कई पेंच हैं . .पाकिस्तान के गरीब लोगों को बिना विदेशी सहायता के रोटी नहीं दी जा सकती है क्योंकि वहां पहले प्रधान मंत्री लियाकत अली के क़त्ल के बाद से विकास का काम बिलकुल नहीं हुआ है .पहली बार जनरल अयूब ने फौजी हुकूमत कायम की थी, उसके बाद से फौज ने पाकिस्तान का पीछा नहीं छोडा. आज वहां अपना कुछ नहीं है सब कुछ खैरात में मिलता है .इस सारे चक्कर में पकिस्तान का आम आदमी सबसे ज्यादा पिस रहा है. इसलिए विदेशी सहायता बंद होने की सूरत में पाकिस्तानी अवाम सबसे ज्यादा परेशानी में पड़ेगा क्योंकि ऊपर के लोग तो जो भी थोडा बहुत होगा उसे हड़प कर ही लेगें ..इस लिए यह ज़रूरी है कि पाकिस्तान को मदद करने वाले दान दाता देश साफ़ बता दें कि जो भी मदद मिलेगी, जिस काम के लिए मिलेगी उसे वहीं इस्तेमाल करना पड़ेगा. आम पाकिस्तानी के लिए मिलने वाली राशि का इस्तेमाल आतंकवाद और फौजी हुकूमत का पेट भरने के लिए नहीं किया जा सकता. अमरीका और अन्य दान दाता देशों के लिए इस तरह का फैसला लेना बहुत मुश्किल पड़ सकता है लेकिन असाधारण परिस्थतियों में असाधारण फैसले लेने पड़ते हैं . ज़ाहिर है कि इतनी बड़ी रक़म को इनाम के रूप में घोषित करके अमरीका ने एक असाधारण फैसला लिया है . लेकिन यह उम्मीद करना बेकार है कि पाकिस्तान हाफ़िज़ सईद को पकड़ कर अमरीका के हवाले कर देगा . जब तक फौज को घेरे में न लिया जाएगा , हाफ़िज़ सईद का कुछ नहीं बिगड़ेगा.
Wednesday, April 4, 2012
भारत के न्यायप्रिय लोग बाबू जगजीवन राम को आदर्श मानते हैं
आज जगजीवन राम की जयंती है
शेष नारायण सिंह
जगजीवन राम इस देश के राष्ट्रीय हीरो हैं . अपनी अंतिम सांस तक उन्होंने भारत को हमेशा सबसे ऊपर रखा . सामाजिक न्याय की उनकी सोच बहुत ही व्यावहारिक थी. महात्मा गाँधी की सामाजिक बराबरी की दार्शनिक सोच को उन्होंने अमली जामा पहनाया. १९३० के दशक में वे बाकायदा राजनीति में आये . यह एक महान राजनीतिक जीवन की शुरुआत थी बाद के वर्षों में महात्मा गाँधी के साथ हमेशा खड़े रहने वाले जगजीवन राम ने राष्ट्रीय आन्दोलन का हमेशा नेतृत्व किया . आज़ादी के बाद जब पहली सरकार बनी तो वे उसमें कैबिनेट मंत्री के रूप में शामिल हुए और जब तानाशाही का विरोध करने का अवसर आया तो लोकशाही की स्थापना की लड़ाई में शामिल हो गए. सब जानते हैं कि ६ फरवरी १९७७ के दिन केंद्रीय मंत्रिमंडल से दिया गया उनका इस्तीफ़ा ही वह ताक़त थी जिसने इमरजेंसी के राज को ख़त्म किया. उसके बाद उन्हें इस देश ने प्रधानमंत्री नहीं बनाया क्योंकि वे दलित थे . हालांकि उनको ही प्रधान मंत्री होना चाहिए था . केंद्र में वे जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गाँधी के मंत्रिमंडलों में रहे . कृषि और खाद्य मंत्री के रूप में उन्होंने देश की खाद्य समस्या का ऐसा हल निकाला कि आज तक अनाज के लिए हमें किसी मुल्क के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ा . बंगलादेश की स्थापना के समय वे रक्षा मंत्री थे . सेना को जो नेतृत्व उन्होंने दिया वह अपने आप में एक मिसाल है . उन दिनों एक बहुत ही गैर ज़िम्मेदार आदमी अमरीका का राष्ट्रपति था , उसने भारत को धमकाने के लिए हिंद महासागर में अमरीकी सेना का परमाणु हथियारों से लैस विमानवाहक पोत , 'इंटरप्राइज़' भेज दिया था. बाबू जगजीवन राम ने ऐलान कर दिया कि अगर ' इंटरप्राइज़' बंगाल की खाड़ी में ज़रा सा भी आगे बढा तो भारत के जांबाज़ सैनिक उसे वहीं डूबा देंगें.
बाबू जगजीवन राम के योग्य नेतृत्व का ही कमाल है कि बंगला देश को स्वतंत्र करवाने की लड़ाई को बहुत ही योजनाबंद्ध तरीके से पूरा कर लिया गया . कृषि मंत्री के रूप में उन्होंने हरित क्रान्ति की उपलब्धियों को देश की आर्थिक तरक्की के मिशन से जोड़ा . देश में मौजूद कृषि शोध संस्थानों की स्थापना में उनका बड़ा योगदान है . रेल मंत्री के रूप में बाबू जगजीवन राम ने बुनियादी ढांचागत सुविधाओं में क्रांतिकारी योगदान किया . एक राष्ट्र निर्माता के रूप में उन्हें हमेशा याद किया जाएगा . आज अपने देश में जितने भी कानून मजदूरों के हित के लिए बनाए गए हैं उन सबको बाबू जगजीवन राम ने तब बनाया था जब वे नेहरू की कैबिनेट में मंत्री थे.लेकिन यह देश जगजीवन राम के प्रति वह सम्मान कभी नहीं व्यक्त कर पाया जिस पर उनका अधिकार है . उनके राजनीतिक जीवन में ऐसे बहुत सारे दृष्टांत हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि उन्होंने हमेशा ही राष्ट्र प्रेम और सामाजिक समरसता को मह्त्व दिया . सामाजिक न्याय की अपनी लड़ाई में उन्होंने सारे समाज को साथ रखने की कोशिश की और महात्मा गाँधी और जवाहर लाल नेहरू के विश्वास पात्र बने. सारी दुनिया जानती है कि १९६९ में कांग्रेस में बँटवारे के बाद जगजीवन राम कांग्रेस के सबसे बड़े नेता थे और उम्मीद की जा रही थी कांग्रेस में उन्हें ही वैकल्पिक नेता के रूप में स्वीकार किया जाएगा. . १९६९ के बाद में बाबूजे एने ही इंदिरा गांधी की डूबती नैया को पार लगाया था . कांग्रेस की १९७१ की जीत में भी बाबू जगजीवन राम के कुशल नेतृत्व का भारी योगदान था . हरित क्रान्ति के ज़रिये उन्होंने देश के ग्रामीण इलाकों में सम्पन्नता को न्योता दिया था और जब कांग्रेस के उस वक़्त के बड़े नेता इंदिरा गाँधी को सबक सिखाने के चक्कर में थे . बाबू जी के नेतृत्व का जलवा था कि पूरे देश का कांग्रेस कार्यकर्ता उनकी पार्टी के साथ लगा रहा . लेकिन जब १९७२ के बाद बंगलादेश की स्थापना हो गयी तो इंदिरा गाँधी ने समझा कि सब उनकी ही कृपा से हुआ था , सब उबका ही प्रताप था. इसी सोच के तहत उन्होंने अपने छोटे बेटे को अपने विकल्प के रूप मों पेश करने की योजना पर काम कारण शुरू कर दिया . उसके बाद तो कांग्रेस में मनमानी का युग शुरू हो गया. इंदिरा गाँधी के छोटे बेटे के संगी साथी देश की राजनीतिक व्यवस्था पर हावी हो गए.कांग्रेस में उन लोगों की जय जय कार होने लगी जो किसी रूप में इंदिरा गाँधी छोटे बेटे तक पंहुच बना सकते थे. नतीजा यह हुआ कि अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई. राज नारायण की चुनाव याचिका पर इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला आने के बाद इंदिरा गांधी के लिए प्रधान मंत्री पद पर बने रहना असंभव हो गया था . अगर उस वक़्त उन्होंने कांग्रेस के सबसे बड़े नेता, बाबू जगजीवन राम को प्रधान मंत्री बना दिया होता तो कांग्रेस एक लोकतांत्रिक संगठन के रूप में बच जाती और देश को इमरजेंसी और संजय गाँधी का आतंक न झेलना पड़ता . लेकिन इन्दिरा गाँधी को अपने बेटे संजय के राजनीतिक भविष्य के सिवा कुछ भी नहीं दिखता था . नतीजा सब को मालूम है . कांग्रेस एक लोकतांत्रिक पार्टी के रूप में वहीं खतम हो गयी.
इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गाँधी की स्थापित सत्ता के विरोधी जयप्रकाश नारायण ने कई बार कहा था कि जगजीवन राम जैसे बड़े नेताओं को इंदिरा गाँधी और संजय गांधी के विरोध में खड़े हो जाना चाहिए . वह अवसर फरवरी १९७७ में आया जब जगजीवन राम ने अपने कुछ सताहियों के साथ मिलकर कांग्रेस फार डेमोक्रेसी बना ली.एक बार कांग्रेस फिर टूट गयी और देश में लोकतंत्र की स्थापना हुई. सब को मालूम था अकी १९७७ की जीत कभी न मिलती अगर बाबू जगजीवन राम का साथ न होता . लेकिन जब प्रधान मंत्री चुनने की बात आई तो पुरातन पंथी ताक़तों ने मोरारजी देसाई को सत्ता सौंप दी. अपनी जिद और अजीबोगरीब आदतों की वजह से विख्यात मोरारजी देसाई ने देश को कोई प्रभावी नेतृत्व नहीं दिया और एक बहुत बड़ा राजनीतिक प्रयोग ज़मींदोज़ हो गया . जनता पार्टी को एक बार मौक़ा मिला था कि उस वक़्त के सबसे बड़े राजनीतिक नेता को प्रधान मंत्री बनाते लेकिन जनता पार्टी नामक भानुमती के कुनबे में ऐसे लोग शामिल थे जो किसी भी हालत में आम राय से फैसले ले ही नहीं सकते थे. उनकी आपसी लड़ाई को ख़त्म करने के लिए जनता ने दोबारा इंदिरा गाँधी की वापसी का हुक्म सुना दिया.
१९७७ में जगजीवन राम को उनके हक से दूर रखने के बहुत दूरगामी नतीजे हुए. सैकड़ों वर्षों से दोयम दर्जे की ज़िंदगी जी रहे दलित समाज ने आज़ादी के बाद पहली बार समझा कि कांग्रेस या अन्य कोई भी राजनीतिक जमात उनको केवल इस्तेमाल काना चाहती है. कोई भे एराजनीतिक पार्टी दलितों को उनका हक देने के लिए तैयार नहीं है . न्याय प्रिय लोगों का एक बहुत बड़ा समुदाय आज कांग्रेस से दूर जा चुका है और उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में कनाग्रेस को कोई पूछने वाला नहीं है . १९७७ के बाद से ही दलितों ने कांग्रेस से किनारा करना शुरू कर दिया और जब कांशीराम ने ऐलानियाँ दलितों की पार्टी बनायी तो दलित समुदाय के लोगों ने उसी पार्टी को अपना लिया. सच्च्ची बात यह है कि जगजीवन राम ने कभी भी दलितों की राजनीति नहीं की लेकिन कांग्रेस और उसके बाद के नेतृत्व ने उन्हें हमेशा दलित ही माना .उनकी राजनीति के केंद्र में हमेशा से ही भारत रहा है और उसी भारत के न्याय प्रिय लोग आज भी बाबू जगजीवन राम को आदर्श मानते हैं .
शेष नारायण सिंह
जगजीवन राम इस देश के राष्ट्रीय हीरो हैं . अपनी अंतिम सांस तक उन्होंने भारत को हमेशा सबसे ऊपर रखा . सामाजिक न्याय की उनकी सोच बहुत ही व्यावहारिक थी. महात्मा गाँधी की सामाजिक बराबरी की दार्शनिक सोच को उन्होंने अमली जामा पहनाया. १९३० के दशक में वे बाकायदा राजनीति में आये . यह एक महान राजनीतिक जीवन की शुरुआत थी बाद के वर्षों में महात्मा गाँधी के साथ हमेशा खड़े रहने वाले जगजीवन राम ने राष्ट्रीय आन्दोलन का हमेशा नेतृत्व किया . आज़ादी के बाद जब पहली सरकार बनी तो वे उसमें कैबिनेट मंत्री के रूप में शामिल हुए और जब तानाशाही का विरोध करने का अवसर आया तो लोकशाही की स्थापना की लड़ाई में शामिल हो गए. सब जानते हैं कि ६ फरवरी १९७७ के दिन केंद्रीय मंत्रिमंडल से दिया गया उनका इस्तीफ़ा ही वह ताक़त थी जिसने इमरजेंसी के राज को ख़त्म किया. उसके बाद उन्हें इस देश ने प्रधानमंत्री नहीं बनाया क्योंकि वे दलित थे . हालांकि उनको ही प्रधान मंत्री होना चाहिए था . केंद्र में वे जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गाँधी के मंत्रिमंडलों में रहे . कृषि और खाद्य मंत्री के रूप में उन्होंने देश की खाद्य समस्या का ऐसा हल निकाला कि आज तक अनाज के लिए हमें किसी मुल्क के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ा . बंगलादेश की स्थापना के समय वे रक्षा मंत्री थे . सेना को जो नेतृत्व उन्होंने दिया वह अपने आप में एक मिसाल है . उन दिनों एक बहुत ही गैर ज़िम्मेदार आदमी अमरीका का राष्ट्रपति था , उसने भारत को धमकाने के लिए हिंद महासागर में अमरीकी सेना का परमाणु हथियारों से लैस विमानवाहक पोत , 'इंटरप्राइज़' भेज दिया था. बाबू जगजीवन राम ने ऐलान कर दिया कि अगर ' इंटरप्राइज़' बंगाल की खाड़ी में ज़रा सा भी आगे बढा तो भारत के जांबाज़ सैनिक उसे वहीं डूबा देंगें.
बाबू जगजीवन राम के योग्य नेतृत्व का ही कमाल है कि बंगला देश को स्वतंत्र करवाने की लड़ाई को बहुत ही योजनाबंद्ध तरीके से पूरा कर लिया गया . कृषि मंत्री के रूप में उन्होंने हरित क्रान्ति की उपलब्धियों को देश की आर्थिक तरक्की के मिशन से जोड़ा . देश में मौजूद कृषि शोध संस्थानों की स्थापना में उनका बड़ा योगदान है . रेल मंत्री के रूप में बाबू जगजीवन राम ने बुनियादी ढांचागत सुविधाओं में क्रांतिकारी योगदान किया . एक राष्ट्र निर्माता के रूप में उन्हें हमेशा याद किया जाएगा . आज अपने देश में जितने भी कानून मजदूरों के हित के लिए बनाए गए हैं उन सबको बाबू जगजीवन राम ने तब बनाया था जब वे नेहरू की कैबिनेट में मंत्री थे.लेकिन यह देश जगजीवन राम के प्रति वह सम्मान कभी नहीं व्यक्त कर पाया जिस पर उनका अधिकार है . उनके राजनीतिक जीवन में ऐसे बहुत सारे दृष्टांत हैं जिनके आधार पर कहा जा सकता है कि उन्होंने हमेशा ही राष्ट्र प्रेम और सामाजिक समरसता को मह्त्व दिया . सामाजिक न्याय की अपनी लड़ाई में उन्होंने सारे समाज को साथ रखने की कोशिश की और महात्मा गाँधी और जवाहर लाल नेहरू के विश्वास पात्र बने. सारी दुनिया जानती है कि १९६९ में कांग्रेस में बँटवारे के बाद जगजीवन राम कांग्रेस के सबसे बड़े नेता थे और उम्मीद की जा रही थी कांग्रेस में उन्हें ही वैकल्पिक नेता के रूप में स्वीकार किया जाएगा. . १९६९ के बाद में बाबूजे एने ही इंदिरा गांधी की डूबती नैया को पार लगाया था . कांग्रेस की १९७१ की जीत में भी बाबू जगजीवन राम के कुशल नेतृत्व का भारी योगदान था . हरित क्रान्ति के ज़रिये उन्होंने देश के ग्रामीण इलाकों में सम्पन्नता को न्योता दिया था और जब कांग्रेस के उस वक़्त के बड़े नेता इंदिरा गाँधी को सबक सिखाने के चक्कर में थे . बाबू जी के नेतृत्व का जलवा था कि पूरे देश का कांग्रेस कार्यकर्ता उनकी पार्टी के साथ लगा रहा . लेकिन जब १९७२ के बाद बंगलादेश की स्थापना हो गयी तो इंदिरा गाँधी ने समझा कि सब उनकी ही कृपा से हुआ था , सब उबका ही प्रताप था. इसी सोच के तहत उन्होंने अपने छोटे बेटे को अपने विकल्प के रूप मों पेश करने की योजना पर काम कारण शुरू कर दिया . उसके बाद तो कांग्रेस में मनमानी का युग शुरू हो गया. इंदिरा गाँधी के छोटे बेटे के संगी साथी देश की राजनीतिक व्यवस्था पर हावी हो गए.कांग्रेस में उन लोगों की जय जय कार होने लगी जो किसी रूप में इंदिरा गाँधी छोटे बेटे तक पंहुच बना सकते थे. नतीजा यह हुआ कि अपनी सत्ता बचाए रखने के लिए इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगाई. राज नारायण की चुनाव याचिका पर इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला आने के बाद इंदिरा गांधी के लिए प्रधान मंत्री पद पर बने रहना असंभव हो गया था . अगर उस वक़्त उन्होंने कांग्रेस के सबसे बड़े नेता, बाबू जगजीवन राम को प्रधान मंत्री बना दिया होता तो कांग्रेस एक लोकतांत्रिक संगठन के रूप में बच जाती और देश को इमरजेंसी और संजय गाँधी का आतंक न झेलना पड़ता . लेकिन इन्दिरा गाँधी को अपने बेटे संजय के राजनीतिक भविष्य के सिवा कुछ भी नहीं दिखता था . नतीजा सब को मालूम है . कांग्रेस एक लोकतांत्रिक पार्टी के रूप में वहीं खतम हो गयी.
इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गाँधी की स्थापित सत्ता के विरोधी जयप्रकाश नारायण ने कई बार कहा था कि जगजीवन राम जैसे बड़े नेताओं को इंदिरा गाँधी और संजय गांधी के विरोध में खड़े हो जाना चाहिए . वह अवसर फरवरी १९७७ में आया जब जगजीवन राम ने अपने कुछ सताहियों के साथ मिलकर कांग्रेस फार डेमोक्रेसी बना ली.एक बार कांग्रेस फिर टूट गयी और देश में लोकतंत्र की स्थापना हुई. सब को मालूम था अकी १९७७ की जीत कभी न मिलती अगर बाबू जगजीवन राम का साथ न होता . लेकिन जब प्रधान मंत्री चुनने की बात आई तो पुरातन पंथी ताक़तों ने मोरारजी देसाई को सत्ता सौंप दी. अपनी जिद और अजीबोगरीब आदतों की वजह से विख्यात मोरारजी देसाई ने देश को कोई प्रभावी नेतृत्व नहीं दिया और एक बहुत बड़ा राजनीतिक प्रयोग ज़मींदोज़ हो गया . जनता पार्टी को एक बार मौक़ा मिला था कि उस वक़्त के सबसे बड़े राजनीतिक नेता को प्रधान मंत्री बनाते लेकिन जनता पार्टी नामक भानुमती के कुनबे में ऐसे लोग शामिल थे जो किसी भी हालत में आम राय से फैसले ले ही नहीं सकते थे. उनकी आपसी लड़ाई को ख़त्म करने के लिए जनता ने दोबारा इंदिरा गाँधी की वापसी का हुक्म सुना दिया.
१९७७ में जगजीवन राम को उनके हक से दूर रखने के बहुत दूरगामी नतीजे हुए. सैकड़ों वर्षों से दोयम दर्जे की ज़िंदगी जी रहे दलित समाज ने आज़ादी के बाद पहली बार समझा कि कांग्रेस या अन्य कोई भी राजनीतिक जमात उनको केवल इस्तेमाल काना चाहती है. कोई भे एराजनीतिक पार्टी दलितों को उनका हक देने के लिए तैयार नहीं है . न्याय प्रिय लोगों का एक बहुत बड़ा समुदाय आज कांग्रेस से दूर जा चुका है और उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में कनाग्रेस को कोई पूछने वाला नहीं है . १९७७ के बाद से ही दलितों ने कांग्रेस से किनारा करना शुरू कर दिया और जब कांशीराम ने ऐलानियाँ दलितों की पार्टी बनायी तो दलित समुदाय के लोगों ने उसी पार्टी को अपना लिया. सच्च्ची बात यह है कि जगजीवन राम ने कभी भी दलितों की राजनीति नहीं की लेकिन कांग्रेस और उसके बाद के नेतृत्व ने उन्हें हमेशा दलित ही माना .उनकी राजनीति के केंद्र में हमेशा से ही भारत रहा है और उसी भारत के न्याय प्रिय लोग आज भी बाबू जगजीवन राम को आदर्श मानते हैं .
Sunday, April 1, 2012
हथियारों के दलाल और उनके कारिंदे जनरल के खिलाफ लामबंद हो गए हैं .
शेष नारायण सिंह
जनरल वी के सिंह के खिलाफ नई दिल्ली के सत्ता के गलियारों में बहुत सारे लोग लाठी भांज रहे थे. बाद में उनकी संख्या कुछ कम हुई. जनरल वी के सिंह को हटाने के लिए दिल्ली में सक्रिय हथियार दलालों की लाबी बहुत तेज़ काम कर रही थी. राजधानी में यही लाबी सबसे ताक़तवर मानी जाती है .नई दिल्ली के हथियार दलालों ने ही कुमार नारायण नाम के हथियारों के एक दलाल को जेल में डलवा दिया था क्योंकि वह विरोधी पार्टी का था और उसके दुश्मन उससे मज़बूत थे. इस हथियार लाबी की ताक़त इतनी है कि वह किसी को भी प्रभावित कर सकती है . ज़्यादातर मामलों में तो पता भी नहीं चलता और ईमानदार आदमी भी दलालों के इस गिरोह का शिकार हो जाता है . जब मीडिया पर एकाधिकार का ज़माना था और सरकारी रेडियो और टेलिविज़न ही हुआ करते थी तो अखबारों की खबरें किसी भी हालत में हथियारों के दलालों के खिलाफ नहीं जा सकती थीं . जब से प्राइवेट टेलिविज़न चैनल आये हैं , हथियारों के दलालों के गिरोह खबरों को कंट्रोल नहीं कर पा रहे हैं . नतीजा यह है कि इनके कारनामे सार्वजनिक चर्चा का विषय बन जा रहे हैं . जनरल वी के सिंह के खिलाफ भी जो अभियान चला , वह अब खंड खंड हो रहा है. जनरल ने १४ करोड़ रूपये के घूस वाले अपने इंटरव्यू में हिन्दू अखबार की संवाददाता, विद्या सुब्रमनियम को बताया था कि फौज के नाम पर दलाली करने वाले आदर्श घोटाले वाला गिरोह उनके पीछे पडा हुआ है और उसी गैंग के लोग उन्हें बदनाम करने पर आमादा है . सवाल यह उठता है कि अगर उस गिरोह वाले जनरल के पीछे पड़े हैं तो प्रेस क्लब में लोग उनके खिलाफ इतना क्यों हैं, मेरे वे पत्रकार मित्र जिनकी ईमानदारी पर कभी कोई सवाल नहीं उठाये गए, वे क्यों जनरल के खिलाफ हैं . वे अफसर जनरल को क्यों गरिया रहे हैं जिनकी ईमानदारी की कहानियां दिल्ली में उदाहरण के तौर पर इस्तेमाल की जाती हैं . वे नेता क्यों जनरल को बर्खास्त करने की बात कर रहे हैं जो आम तौर पर बहुत ही कड़क माने जाते हैं और जिनको कभी कोई भी दलाल बेवक़ूफ़ नहीं बना सकता .
इन सारे सवालों का एक ही जवाब है. वह जवाब यह है कि हथियारों के दलालों ने जनरल वी के सिंह को निपटाने की योजना बहुत ही ठीक से बना रखी थी. इन लोगों ने मीडिया में अपने कुछ ख़ास लोगों के बीच बहुत दिनों से जनरल वी के सिंह के खिलाफ खुसुर पुसुर चला रखा था . जनरल को कुछ नहीं मालूम था. नौकरशाही में भी बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो हथियारों के दलालों के लिए काम करते हैं . तो मीडिया में मौजूद हथियार दलाल लाबी के ख़ास लोगों ने ईमानदार पत्रकारों को संभाला और उन्हें जनरल की काल्पनिक कमियों की जानकारी दी. इन ईमानदार पत्रकारों ने नेताओं को अंदर की खबर देने के चक्कर में उन्हें बता दिया कि सेना प्रमुख बिलकुल बेकार आदमी है . इस बीच प्रधानमंत्री को लिखा गया एक रूटीन पत्र इन्हीं दलालों के एजेंटों ने लीक कर दिया . ब्रिक्स सम्मेलन की टाइमिंग भी दलालों ने ही मैनेज की . और भी बहुत सारी बातें हुईं और जनरल वी के सिंह एक जिद्दी इंसान के रूप में पेश कर दिए गए. आज तो हद ही हो गयी . अखबार में एक ऐसे आदमी का बयान छपा है जो कई पीढ़ियों से सत्ता के गलियारों में सक्रिय है . यह आदमी कहता है कि जनरल को ज़बस्दस्ती छुट्टी पर भेज दो .
जानकार बताते हैं कि अगर जनरल वी के सिंह ने सेना के कुछ बड़े अफसरों द्वारा किये गए फौज की सुखना वाली ज़मीन के घोटाले का पर्दाफाश न किया होता या आदर्श घोटाले को बेनकाब न किया होता , या हथियारों की दलाली में लगे लोगों को मनमानी करने दी होती तो नई दिल्ली के पावर ब्रोकर उन्हें घेरने की कोशिश न करते. इन पावर ब्रोकरों के हाथ बहुत लम्बे होते हैं और बहुत सारे लोगों को पता भी नहीं लगता कि यह उनको कब इस्तेमाल कर लेते हैं . बहरहाल संतोष इस बात का है कि जनरल वी के सिंह ने वह काम किया जो कभी टी एन शेषन ने किया था और अपनी सुरक्षा की परवाह किये बिना दिल्ली के स्वार्थी लोगों को उनकी औकात पर ला दिया . इस दिशा में आज का विद्या सुब्रमनियम का वह लेख बहुत काम आएगा जिसमें उन्होंने लिखा है कि जनरल बेदाग़ है
जनरल वी के सिंह के खिलाफ नई दिल्ली के सत्ता के गलियारों में बहुत सारे लोग लाठी भांज रहे थे. बाद में उनकी संख्या कुछ कम हुई. जनरल वी के सिंह को हटाने के लिए दिल्ली में सक्रिय हथियार दलालों की लाबी बहुत तेज़ काम कर रही थी. राजधानी में यही लाबी सबसे ताक़तवर मानी जाती है .नई दिल्ली के हथियार दलालों ने ही कुमार नारायण नाम के हथियारों के एक दलाल को जेल में डलवा दिया था क्योंकि वह विरोधी पार्टी का था और उसके दुश्मन उससे मज़बूत थे. इस हथियार लाबी की ताक़त इतनी है कि वह किसी को भी प्रभावित कर सकती है . ज़्यादातर मामलों में तो पता भी नहीं चलता और ईमानदार आदमी भी दलालों के इस गिरोह का शिकार हो जाता है . जब मीडिया पर एकाधिकार का ज़माना था और सरकारी रेडियो और टेलिविज़न ही हुआ करते थी तो अखबारों की खबरें किसी भी हालत में हथियारों के दलालों के खिलाफ नहीं जा सकती थीं . जब से प्राइवेट टेलिविज़न चैनल आये हैं , हथियारों के दलालों के गिरोह खबरों को कंट्रोल नहीं कर पा रहे हैं . नतीजा यह है कि इनके कारनामे सार्वजनिक चर्चा का विषय बन जा रहे हैं . जनरल वी के सिंह के खिलाफ भी जो अभियान चला , वह अब खंड खंड हो रहा है. जनरल ने १४ करोड़ रूपये के घूस वाले अपने इंटरव्यू में हिन्दू अखबार की संवाददाता, विद्या सुब्रमनियम को बताया था कि फौज के नाम पर दलाली करने वाले आदर्श घोटाले वाला गिरोह उनके पीछे पडा हुआ है और उसी गैंग के लोग उन्हें बदनाम करने पर आमादा है . सवाल यह उठता है कि अगर उस गिरोह वाले जनरल के पीछे पड़े हैं तो प्रेस क्लब में लोग उनके खिलाफ इतना क्यों हैं, मेरे वे पत्रकार मित्र जिनकी ईमानदारी पर कभी कोई सवाल नहीं उठाये गए, वे क्यों जनरल के खिलाफ हैं . वे अफसर जनरल को क्यों गरिया रहे हैं जिनकी ईमानदारी की कहानियां दिल्ली में उदाहरण के तौर पर इस्तेमाल की जाती हैं . वे नेता क्यों जनरल को बर्खास्त करने की बात कर रहे हैं जो आम तौर पर बहुत ही कड़क माने जाते हैं और जिनको कभी कोई भी दलाल बेवक़ूफ़ नहीं बना सकता .
इन सारे सवालों का एक ही जवाब है. वह जवाब यह है कि हथियारों के दलालों ने जनरल वी के सिंह को निपटाने की योजना बहुत ही ठीक से बना रखी थी. इन लोगों ने मीडिया में अपने कुछ ख़ास लोगों के बीच बहुत दिनों से जनरल वी के सिंह के खिलाफ खुसुर पुसुर चला रखा था . जनरल को कुछ नहीं मालूम था. नौकरशाही में भी बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो हथियारों के दलालों के लिए काम करते हैं . तो मीडिया में मौजूद हथियार दलाल लाबी के ख़ास लोगों ने ईमानदार पत्रकारों को संभाला और उन्हें जनरल की काल्पनिक कमियों की जानकारी दी. इन ईमानदार पत्रकारों ने नेताओं को अंदर की खबर देने के चक्कर में उन्हें बता दिया कि सेना प्रमुख बिलकुल बेकार आदमी है . इस बीच प्रधानमंत्री को लिखा गया एक रूटीन पत्र इन्हीं दलालों के एजेंटों ने लीक कर दिया . ब्रिक्स सम्मेलन की टाइमिंग भी दलालों ने ही मैनेज की . और भी बहुत सारी बातें हुईं और जनरल वी के सिंह एक जिद्दी इंसान के रूप में पेश कर दिए गए. आज तो हद ही हो गयी . अखबार में एक ऐसे आदमी का बयान छपा है जो कई पीढ़ियों से सत्ता के गलियारों में सक्रिय है . यह आदमी कहता है कि जनरल को ज़बस्दस्ती छुट्टी पर भेज दो .
जानकार बताते हैं कि अगर जनरल वी के सिंह ने सेना के कुछ बड़े अफसरों द्वारा किये गए फौज की सुखना वाली ज़मीन के घोटाले का पर्दाफाश न किया होता या आदर्श घोटाले को बेनकाब न किया होता , या हथियारों की दलाली में लगे लोगों को मनमानी करने दी होती तो नई दिल्ली के पावर ब्रोकर उन्हें घेरने की कोशिश न करते. इन पावर ब्रोकरों के हाथ बहुत लम्बे होते हैं और बहुत सारे लोगों को पता भी नहीं लगता कि यह उनको कब इस्तेमाल कर लेते हैं . बहरहाल संतोष इस बात का है कि जनरल वी के सिंह ने वह काम किया जो कभी टी एन शेषन ने किया था और अपनी सुरक्षा की परवाह किये बिना दिल्ली के स्वार्थी लोगों को उनकी औकात पर ला दिया . इस दिशा में आज का विद्या सुब्रमनियम का वह लेख बहुत काम आएगा जिसमें उन्होंने लिखा है कि जनरल बेदाग़ है
Subscribe to:
Posts (Atom)