Sunday, July 10, 2011

सैम पित्रोदा के साथ आविष्कार क्रान्ति की तरफ बढ़ने का वक़्त आ गया है .

शेष नारायण सिंह

सैम पित्रोदा ने एक नई बात कहना शुरू कर दिया है . उनकी बात को गंभीरता से लेने की ज़रुरत इसलिए है कि मेरे जैसे जिन लोगों ने १९८४ में उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया था,बाद में उन्हें पछताना पड़ा था. उन दिनों अपने देश में टेलीफोन होना स्टेटस सिम्बल माना जाता था. बहुत कम लोगों के घरों में टेलीफोन के कनेक्शन होते थे . टेलीफोन लगाने के लिए दरखास्त देने के कई साल बाद लोगों के नंबर आते थे. इंदिरा गाँधी का राज था और टेलीफोन का काम देखने वाला मंत्रालय ऐसे मंत्री के हवाले कर दिया जाता था जिसकी राजनीतिक हैसियत बहुत मामूली होती थी. . जिसको सज़ा देनी हो वही संचार मंत्री बनाया जाता था. सैम पित्रोदा उन दिनों अमरीका में बहुत नाम कमा चुके थे ,संचार के क्षेत्र में उनका बड़ा नाम था . बताते हैं कि उनके अंदर मातृभूमि के प्रति प्रेम इतना ज्यादा था कि उन्होंने अपना अमरीका का बहुत बड़ा कारोबार छोड़कर भारत में सूचना क्रान्ति की बुनियाद रखने की योजना बनायी .किसी परिचित के हवाले से तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी से मिले .इंदिरा जी ने उनकी बात सुनी और उनको लगभग टाल दिया . लेकिन उनका दिल रखने के लिए उन्हें राजीव गाँधी के पास भेज दिया . राजीव गाँधी उन दिनों राजनीति में शुरुआती प्रशिक्षण ले रहे थे . इंदिरा गाँधी के सामने सैम पित्रोदा ने जो प्रस्ताव रखा था ,उसी को उन्होंने राजीव गाँधी को सुना दिया . राजीव गाँधी इलेक्ट्रानिक गैजेट्स के बहुत शौक़ीन थे. उन्होंने सैम पित्रोदा की बात को समझा और उन्हें फिर इंदिरा गाँधी के सामने पेश किया . बेटे के कहने पर इंदिरा गाँधी ने कुछ धन की व्यवस्था कर दी और देश में संचार क्रान्ति की बुनियाद पड़ गयी . उस दौर में सब को मालूम था कि इंदिरा जी ने सैम सैम पित्रोदा को गंभीरता से नहीं लिया था लेकिन अपने बेटे की बात मान कर उनको कुछ काम दे दिया था. हालांकि यह सच है कि सैम पित्रोदा किसी काम की तलाश में नहीं थे ,वे अपने देश में संचार की व्यवस्था को दुरुस्त करना चाहते थे. बहरहाल उसके बाद ही सी-डाट की शुरुआत हुई और टेलीफोन टेक्नालोजी के क्षेत्र में दुनिया के बड़े बड़े दिग्गज सैम पित्रोदा के ज्ञान का लोहा मानने लगे. राजीव गाँधी जब प्रधान मंत्री बने तो उन्होंने सैम पित्रोदा को अपने आविष्कारों की दिशा में आगे बढ़ने के लिए खुली छूट दे दी और आज दुनिया जानती है कि सैम पित्रोदा के उसी प्रयास का नतीजा है कि संचार क्रान्ति आ चुकी है . संचार क्रान्ति की दुनिया में भारत अग्रणी देश है . दुनिया भर की कम्पनियां भारत में काम करने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं . दुनिया भर के काल सेंटर , इन्फार्मेशन टेक्नालोजी के क्षेत्र में निर्यात सब उसी संचार क्रान्ति का नतीजा है . सैम पित्रोदा के आने के पहले टेलीफोन विभाग के बाहर लोग लाइन में खड़े होते थे और ट्रंककाल करने की लाइन लगती थी. आज सब की जेब में ऐसी मशीन रहती है कि दुनिया के किसी कोने में आसानी से बात हो जाती है . मेरे जैसे बहुत सारे लोगों ने अस्सी के दशक में सैम पित्रोदा के काम पर हो रहे खर्च को राजीव गांधी की सरकार के शौक़ की चीज़ माना था . बाद में हमने अपनी राय बदली और अब हम भी उसी संचार क्रान्ति का आनंद ले रहे हैं.

सैम पित्रोदा ने फिर आवाज़ दी है कि इस बार ज्ञान की क्रान्ति लाने की ज़रुरत है . जब तक बच्चे लीक से हट कर नई शिक्षा नहीं हासिल करेगें तब तक कुछ नहीं होने वाला है . शिक्षा के परंपरागत हथियारों को भूल कर नए हथियारों के ज़रिये ही ज्ञान के क्षेत्र में क्रान्ति लायी जा सकती है .उनकी कोशिश है कि मैकाले ने जिस तरह की शिक्षा की बात की थी उस से आविष्कार करने वाले दिमाग नहीं पैदा होगें . शिक्षा की तरकीबों में मौलिक बदलाव की ज़रुरत है . उसके बिना काम नहीं चलने वाला है .सैम पित्रोदा का पुराना रिकार्ड ऐसा है कि उनकी बात पर विश्वास करके लाभ होगा. इसलिए अब अपने देश को ऐसे नौजवानों का स्वागत करने को तैयार हो जाना चाहिए जिनका दिमाग आविष्कार की तरफ मुड़ चुका हो

Friday, July 8, 2011

पाक प्रधानमंत्री ने कहा -उनके मुल्क के अस्तित्व को ख़तरा

शेष नारायण सिंह

पाकिस्तान बुरी तरह से आतंकवाद के घेरे में फंस गया है.वहां के प्रधानमंत्री युसूफ रजा गीलानी ने बुधवार को अपने मुल्क की परेशानी का बहुत ही साफ़ शब्दों में उल्लेख किया . बहुत ही दुखी मन से उन्होंने कहा कि आतंकवाद के खिलाफ जो लड़ाई उनका देश लड़ रहा है, उसमें सफल होना बहुत ज़रूरी है . उन्होंने आगाह किया कि अगर पाकिस्तानी राष्ट्र के अस्तित्व को बचाना है तो सरकार और देश की जनता को इस लड़ाई में फतह हासिल करनी पड़ेगी. पाकिस्तानी प्रधान मंत्री क यह दर्द जायज़ है . बहुत तकलीफ होती है जब हम देखते हैं कि पाकिस्तान पूरी तरह से आजकल आतंकवाद की ज़द में है . भारत और पाकिस्तान की अंदरूनी हालात पर जब नज़र डालते हैं तो साफ़ नज़र आता है कि गलत राजनीतिक फैसलों के चलते राष्ट्रों की क्या फजीहत हो सकती है .भारत और पाकिस्तान एक ही दिन ब्रिटिश गुलामी से आज़ाद हुए थे.भारत ने सभी धर्मों को सम्मान देने की राजनीति को अपने संविधान की बुनियाद में डाल दिया . पाकिस्तान के संस्थापक,मुहम्मद अली जिन्नाह भी वही चाहते थे लेकिन वह नहीं हो सका.उनकी मृत्यु के बड़ा पाकिस्तान में ऐसे लोगों की सत्ता कायम हो गयी जो बहुत ही हलके लोग थे .आज आलम यह है कि भारत एक सुपरपावर बनने के रास्ते पर है और पाकिस्तान का प्रधानमंत्री स्वीकार कर रहा है कि जिस आतंकवाद को पाकिस्तानी हुक्मरान ने भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए शुरू किया और पाला पोसा उसी के चलते आज पाकिस्तानी राष्ट्र के सामने अस्तित्व का सवाल पैदा हो गया है . हालांकि जब पाकिस्तान के पूर्व फौजी तानाशाह,जनरल जिया उल हक ने आतंकवाद को जिहाद का नाम देने की कोशिश की थी.हो सकता है ऐसा रहा भी हो लेकिन आज तो यह कुछ लोगों का बाकायदा धंधा बन चुका है.पाकिस्तानी समाज में जिस तरह से रेडिकल तत्व हावी हुए हैं वह किसी भी सरकार के लिए मुसीबत बन सकते हैं . युसूफ रजा गीलानी अपने देश के शहर, मिंगोरा में आयोजित रेडिकल तत्वों को खत्म करने के राष्ट्रीय सेमिनार में भाषण कर रहे थे.उन्होंने दावा किया कि वे अपने देश से आतंकवाद को ख़त्म कर देगें.उनको भरोसा है कि उनके देश की जनता इस मुहिम में पाकिस्तान की सरकार को पूरी मदद करेगी. उनके हिसाब से पाकिस्तान आतंकवाद को ख़त्म करने के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध है .पाकिस्तान की सरकार की नीयत पर बाकी दुनिया में भरोसा नहीं किया जा रहा है . इस बात का अंदाज़ इस सेमिनार में भी लग गया .पाकिस्तान में आतंकवाद के फलने फूलने में वहां की फौज और आई एस आई का बड़ा हाथ माना जाता है लेकिन इस सेमिनार में पाकिस्तानी फौज़ के मुखिया जनरल परवेज़ अशफाक कयानी ने भी भाषण किया . ज़ाहिर है कि प्रधान मंत्री गीलानी ने जो भी बातें कहीं वे अमरीका और भारत को नज़र में रख कर कहीं गयी थीं क्योंकि यही दो मुल्क पाकिस्तान से बार बार निवेदन कर रहे हैं कि है वह अपने देश से आतंकवाद का खात्मा करे. हालांकि यह भी उतना ही सच है कि न तो अमरीका और न ही भारत को यह विश्वास है कि पाकिस्तानी फौज आतंकवाद के खिलाफ कोई कारगर क़दम उठायेगी. कुछ संवेदन हीन लोग पाकिस्तानी आतंकवाद को इस्लामी आतंकवाद भी कहते हैं . यह बहुत ही गलत बात है क्योंकि आतंकवाद इस्लामी नहीं हो सकता. इस्लाम में आतंकवाद की कोई गुंजाइश नहीं है .वह स्वार्थी लोगों की तरफ से राजनीतिक फायदे के लिए किया जाने वाला काम है . मुलिम नौजवानों के शामिल होने की वजह से उसे 'इस्लामी आतंकवाद' नाम देने की कोशिश की जाती है . जो कि सरासर गलत है . अमरीकी अखबारों, भारतीय दक्षिणपंथी राजनेताओं और अमरीकी सरकार की तरफ से कोशिश होती है और उन्हें इस प्रचार में आंशिक सफलता भी मिलती है .

सच्चाई यह है कि अगर सही माहौल मिले तो मुसलमान आतंक को कभी भी राजनीतिक हथियार नहीं बनाएगा. जो अमरीका, पाकिस्तान और पाकिस्तानी मुसलमानों को लगभग पूरी तरह से आतंकवाद का केंद्र मानता है वही अमरीका भारत के मुसलमानों को आतंकवाद से बहुत दूर मानता है . यह देखना दिलचस्प होगा कि पिछले दिनों भारत में तैनात अमरीकी राजदूत डेविड मुलफोर्ड ने समय समय पर अपनी सरकार के पास जो गुप्त रिपोर्टें भेजी थीं ,उसमें उन्होंने साफ़ कहा था को भारत में पंद्रह करोड़ से ज्यादा मुसलमान हैं लेकिन वे अपने आप को हर तरह की आतंकवादी गतिविधियों से दूर रखते हैं . उन्होंने दावा किया कि भारत के मुसलमान अपने देश के जीवंत लोकतंत्र में पूरी तरह से शामिल हैं .साझा संस्कृति पर गर्व करते हैं और भारत के अल्पसंख्यक राष्ट्रवादी हैं. अमरीकी राजदूत का यह कथन किसी कूटनीतिक सभा में दिया भाषण नहीं है . यह विकीलीक्स के हवाले से दुनिया को मालूम हुआ है और यह उन गुप्त दस्तावजों का हिस्सा है जो प्रतिष्ठित अखबार ' हिन्दू 'के सहयोग से विकीलीक्स ने भारत में जारी किया था.डिस्पैच में लिखा है कि भारत के बहुसंख्यक मुसलमान उदारवादी राजनीति में विश्वास करते हैं और अपने देश के उद्योग और समाज में अच्छे मुकाम पर पंहुचने की कोशिश करते हैं .उन्होंने दावा किया कि बहुत बड़ी संख्या में मुस्लिम नौजवान मुख्य धारा में ही अपनी तरक्की के अवसर तलाशते हैं इसलिए यहाँ से आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने के लिए रंगरूट नहीं मिल रहे हैं .डेविड मुलफोर्ड ने लिखा है कि भारत में भी इस्लाम में विश्वास करने वाले लोग कई समुदायों में बँटे हुए हैं लेकिन वे सभी राजनीति के सेकुलर धाराओं में हे एसक्रिया होते हैं . धार्मिक अपील वाले संगठनों को भारत में कोई भी समर्थन नहीं मिलता . वे हाशिये पर ही रहते हैं .जबकि भारत में सभी धर्मों के नौजवानों के हीरो आजकल मुस्लिम नौजवान ही हैं . मुलफोर्ड के डिस्पैच में शाहरुख खां ,आमिर खान और सलमान खान का ज़िक्र भी है जो सभी धर्मों के नौजवानों के प्रिय हैं.

अजीब बात है कि शुरू से की पाकिस्तान के साथ खड़े होने वाले अमरीका को अब पाकिस्तान पर भरोसा नहीं है जबकि अमरीका ने पाकिस्तान के बराबर साबित करने के चक्कर में हमेशा से ही भारतक अविरोध किया था . १९७१ के बंगलादेश मुक्ति संग्रामके दौरान तो पाकिस्तान की फौजी हुकूमत को बचाए रखने के लिए उसने भारत पर सातवें बेडे के हमले की योजना भी बना दी थी .लेकिन आज उसी अमरीका को भारत में जीवंत लोकतंत्र नज़र आ रहा है जबकि पाकिस्तान को वह आतंकवादी देश घोषित करने की योजना पर काम कर रहा है.

Tuesday, July 5, 2011

इन्हें मंत्री बनाना ही गलत था

शेष नारायण सिंह


आज अखबारों में एक दिलचस्प खबर छपी है कि केंद्रीय मंत्री मुरली देवड़ा ने प्रधान मंत्री से कहा है कि उन्हें मंत्री पद से मुक्त कर दिया जाए .इस खबर को पढ़ते ही तुरंत दिमाग में एक बात आई कि मुरली देवड़ा को मंत्री बनाया ही क्यों गया . उनको उस मंत्रिमंडल में जगह क्यों दी गयी जिसमें कभी सरदार पटेल और मौलाना आज़ाद जैसे लोग हुआ करते थे . यह उम्मीद करना कि आज के ज़माने में उन महान नेताओं की तरह के लोग राजनीति में शामिल होंगें, बेमतलब है .लेकिन ऐसे लोगों का भी शामिल होना खलता है जिनको जनता के हित की बात सोचने का एक दिन का भी अनुभव न हो .राजनीति में पचास और साठ के दशक में ऐसे लोगों की भरमार थी जो आज़ादी की लड़ाई के सिपाही रह चुके थे लेकिन सत्तर का दशक आते आते सब गड़बड़ हो गया .दिल्ली में इंदिरा गाँधी के प्रधान मंत्री बनने के बाद उनके छोटे बेटे संजय गाँधी का राज आ गया था.देश की राजनीति में मनमानी का युग आ गया था . ज़मीन से जुड़े नेताओं को अपमानित किया जाने लगा था . संजय गाँधी के हुक्म से राज्यों के नेता तैनात होने लगे. जो भी संजय गाँधी या उनके चेलों की सेवा में हाज़िर हो गया उसको ही राजनीति में भर्ती कर लिया गया. इस चक्कर में बहुत सारे ऐसे लोग राजनीति में आ गए जिनको कायदे से जेलों में होना चाहिए था . वही लोग देश के भाग्यविधाता बन गए. उन लोगों ने ही देश में दलालों का एक वर्ग तैयार कर दिया . दलाली एक संस्कृति के रूप में पैदा हो चुकी थी . अस्सी के दशक की शुरुआत में अरुण नेहरू की सर परस्ती में इन्हीं दलालों ने मामूली लेकिन महत्वाकांक्षी व्यापारियों को बड़े उद्योगपति बनने के सपने दिखाए . मुरली देवड़ा और धीरूभाई अम्बानी उसी दौर में मुंबई में यार्न के मामूली व्यापारी के रूप में मुंबई में काम करते थे . दिल्ली का रास्ता इन्होने देख लिया था . दोनों साथ साथ रहते थे. अपने लिए भी बहुत सारे लाइसेंस लिए और बाकी लोगों को भी लाइसेंस दिलवाए . दोनों में दोस्ती खूब गाढ़ी थी. सुबह की जहाज से मुंबई से दिल्ली आते और शाम को वापस चले जाते . लाइसेंस का ज़माना था . डी जी टी डी के अफसरों को दे दिला कर काम करवाते और वापस चले जाते . अस्सी में जब इंदिरा गाँधी दुबारा सत्ता में आयीं तब तक यह टोली बहुत प्रभावी हो चुकी थी . धीरूभाई जो चाहते थे वही होता था.अगर किसी को शक़ हो तो बाम्बे डाइंग के नस्ली वाडिया या सिंथेटिक धागे के पुराने कारोबारी कपल मेहरा के वंशजों से पूछ ले. आज भी मुरली देवड़ा पूरी तरह से धीरूभाई के परिवार के प्रति प्रतिबद्ध हैं . जो सी ए जी की रिपोर्ट आई है वह पिछले ३० वर्षों के इस इतिहास की रोशनी में साफ़ हो जाती है .ज़ाहिर है कि जनता को लाभ पंहुचाने का मुरली देवड़ा को कोई तजुर्बा नहीं है , वे किसी औद्योगिक घराने को ही लाभ पंहुचा सकते हैं . इसलिए उन्हें किसी ऐसे मंत्रालय का चार्ज देने का औचित्य समझ में नहीं आया जो पेट्रोलियम जैसी अहम कमोडिटी का विभाग हो जिसकी वजह से महंगाई के बढ़ने पर सीधा असर पड़ता हो. उनके मित्र धीरूभाई अम्बानी का परिवार जिस विभाग की नीतियों से सीधे तौर पर लाभान्वित होता हो .सी ए जी की रिपोर्ट ने तो उनके कारनामों का पोस्ट मार्टम भर किया है . आज जनता त्राहि त्राहि कर रही है और कांग्रेस की सरकार महंगाई बढाने के लिए ज़िम्मेदार मंत्री और उनके साथियों पर कोई कार्रवाई करने की बात तक नहीं सोच रही है . अखबारों में वह बयान छपवा रहा है कि वह मंत्री पद छोड़ देना चाहता है . मुरली देवड़ा जैसे लोगों को मंत्री ही नहीं बनाया जाना चाहिए था .बहर हाल उम्मीद की जानी चाहिए कि मंत्रिमंडल में फेरबदल के बाद इस तरह के लोग फिर से मंत्रिपरिषद की शोभा न बनें .

Monday, July 4, 2011

यू पी में २०१२ का युद्ध मायावती और बीजेपी के बीच होने की संभावना बढ़ी

शेष नारायण सिंह

राजनाथ सिंह को अपनी पार्टी का उत्तर प्रदेश में आला मालिक बनाकर बीजेपी ने उत्तरप्रदेश विधान सभा के चुनाव की तैयारियों को टाप गियर में डाल दिया है.कांग्रेस के दो सबसे ताक़तवर महासचिव पिछले कई महीने से उत्तर प्रदेश के बारे में ही चिंता करते पाए जा रहे हैं . ग्रेटर नोयडा के गाँव भट्टा और पारसौल में राहुल गाँधी का नाटकीय अंदाज़ मीडिया के लिए बहुत ही अच्छे विजुवल का मौक़ा था , उनके सबसे करीबी महासचिव दिग्विजय सिंह भी आजकल वही राग चला रहे हैं. दिग्विजय सिंह और राहुल गाँधी को उम्मीद है कि अगर किसी एक वर्ग का वोट अपने नाम मुक़म्मल तरीके से ले लिया जाए तो मुसलमानों के वोट कांग्रेस को मिल जायेगें . इसी रणनीति के तहत अब किसानों के एक बड़े वर्ग को साथ लेने की कोशिश चल रही है . अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट , गूजर और राजपूत किसानों में कांग्रेस की आंशिक पैठ बन गयी तो इस इलाके के प्रभावशाली मुसलमानों को कांग्रेस की तरफ खींचने की कोशिश के कुछ कांग्रेस के लिए उत्साहवर्धक नतीजे हो सकते हैं . इसके पहले दिग्विजय सिंह ने मध्य और पूर्वी उत्तर प्रदेश को ठाकुरों को अपनी तरफ खींचने की कोशिश की थी. उसी अभियान में उन्होंने अमर सिंह को भी इस्तेमाल करने की योजना बनाई थी लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली. राज्य के मज़बूत राजपूत कांग्रेसी सांसदों ने दिग्विजय सिंह को जमने नहीं दिया . जगदम्बिका पाल , संजय सिंह , हर्षवर्धन आदि ऐसे कांग्रेसी सांसद हैं जो अपने आपको दिग्विजय सिंह से बड़ा नेता मानते हैं . जब दिग्विजय सिंह को इस खेल का अंदाज़ लगा तो उन्होंने ठाकुरों वाले प्रोजेक्ट को तिलांजलि दे दी और अब मुस्लिम बहुल इलाकों में सभी जातियों के किसानों के हितचिंतन की पिच पर राहुल गाँधी को घुमा रहे हैं. भट्टा पारसौल और अलीगढ की सभा का मकसद यही है . लेकिन दिग्विजय सिंह जैसा मंजा हुआ खिलाड़ी यह कैसे भूल जाता है कि " किसान " नाम का कोई वोट बैंक नहीं होता. किसान आम तौर पर जातियों में बंटा होता है और जब वोट देने की बात आती है तो वह अपनी जाति के हिसाब से वोट देता है .इसलिए किसान को केंद्र में रख कर राजनीतिक अभियान चलाने का दिग्विजय सिंह का कार्यक्रम राहुल गाँधी को व्यस्त रखने से ज्यादा खुछ नहीं है .
उत्तर प्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य फिरोजाबाद लोकसभा सीट के लिए हुए उपचुनाव बहुत अजीब तरीके से बदल गया था . जब फिरोजबाद जैसी सीट पर मुलायम सिंह यादव की पुत्रवधू चुनाव हार गयी तो राजनीति के बड़े बड़े जानकार सन्न रह गए थे. लेकिन सच्चाई यह है कि माहौल बदल गया था . उस चुनाव में मुलायम सिंह यादव को शिकस्त देने के बाद कांग्रेस के हौसले भी बढ़ गए थे. उसे भी उत्तर प्रदेश की सीधी लड़ाई को त्रिकोणीय करने की रणनीति पर काम करने का मौक़ा मिल गया था . उन दिनों ऐसा लगता था कि बीजेपी ने राज्य में हार मान ली है और मायावती की ताक़त के सामने उसकी कोई औकात नहीं है . शायद इसी लिए बीजेपी ने कुछ मनोरंजक नेताओं को सामने करने का फैसला किया था . वरुण गाँधी जैसे लोग उसी योजना के तहत सामने लाये गए थे . दिल्ली के कुछ शहरी नेताओं को उत्तर प्रदेश में रणनीति संचालन का काम दिया गया . पूरा माहौल ऐसा था कि लगता था कि बीजेपी ने स्वीकार कर लिया है कि वह अब देश के सबसे बड़े राज्य में हाशिये पर ही रहेगी. कांग्रेस ने लोकसभा २००९ में कई राजपूतों को जिताया था तो वह राजपूतों को अपने साथ लाने की योजना पर काम कर रही थी. उम्मीद यह थी कि अगर कांग्रेस के जीतने की कोई उम्मीद बनेगी तो मुसलमान उसके साथ चला जाएगा. इस बात में दो राय नहीं है कि मुसलमानों के बीच में कांग्रेस की विश्वसनीयता बढ़ रही है . लेकिन मुसलमान किसी भी कीमत पर बीजेपी को नहीं जीतने देना चाहता .अगर कांग्रेस के साथ कोई और वोट बैंक न जुड़ा तो मुसलमान का बीजेपी को हराने की बजाय उसे जिताने में काम आ जायेगा . रायबरेली ,अमेठी और प्रतापगढ़ के अलावा उत्तर प्रदेश के किसी जिले में ठाकुर अब कांग्रेस के साथ नहीं है. यह बात बीजेपी के रणनीतिकारों की समझ में आ गयी है .राजनाथ सिंह को उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड का पूरी तरह से इंचार्ज बनाने के पीछे पार्टी की मंशा यह है कि एक राष्ट्रीय स्तर के एक बड़े नेता के क़द का फायदा उठाया जाए. इस बीच मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को भी यू पी में लगा दिया गया है . हालांकि मायावती के सामने उनके टिक पाने की संभावना बहुत कम है लेकिन ज़मीन से जुडी एक महिला राजनेता की मौजूदगी से लाभ तो होगा ही.उधर मीडिया में मौजूद आर एस एस के कार्यकर्ताओं ने भी अपना काम शुरू कर दिया है और मायावती की सरकार के खिलाफ रोज़ ही कुछ न कुछ प्रमुखता से सुर्ख़ियों में मिल रहा है.राजनाथ सिंह को कमान सौंपने के बीजेपी के फैसले में यह भी निहित है कि जो तिकड़म की राजनीति करने वाले नेता यू पी में मुखिया बने बैठे थे अब वे आराम करेगें. प्रतिष्ठित अखबार हिन्दू ने लिखा है कि उत्तरप्रदेश में जितने भी बीजेपी नेता है लगभग सभी कभी न कभी वर्तमान मुख्यमंत्री मायावती के समर्थक रह चुके हैं . राजनाथ सिंह अकेले ऐसे बीजेपी नेता हैं जिनकी छवि मायावती के धुर विरोधी की है . ऐसी हालत में उनको वे वोट भी मिल सकते हैं जो मौजूदा सरकार को हराना चाहते हैं . जहां तक मायावती का सवाल है उत्तर प्रदेश में सबसे मज़बूत जनाधार उनका ही है . और अगर यह लगा कि उनको सबसे बड़ी चुनौती बीजेपी से मिल रही है तो मुसलमान थोक में मायावती के साथ चले जायेगें . उस हालत में कांग्रेस और मुलायम सिंह दोनों ही कमज़ोर पड़ेगें और उत्तर प्रदेश की लड़ाई पूरी तरह से मायावती बनाम बीजेपी हो जायेगी . बाकी लोग केवल हाशिये के खिलाड़ी के रूप में ही उत्तर प्रदेश चुनाव २०१२ में शामिल हो सकेंगें.

Sunday, July 3, 2011

पाकिस्तान में जो लोकतंत्र की बात करेगा, मारा जाएगा

(दैनिक जागरण से साभार )

शेष नारायण सिंह

पाकिस्तानी हुकूमत की शह पर एक और मानवाधिकार कार्यकर्ता को मौत के घाट उतार दिया है . बलोचिस्तान के जाफराबाद जिले में मीर रुस्तम बारी को डेरा अल्लाहयार इलाके में उनके घर के सामने ही मोटरसाइकिल सवाल बंदूकधारियों ने मार डाला .उनकी मौके पर ही मौत हो गयी. यह पाकिस्तान की तथाकथित सिविलियन हुकूमत के उस अभियान की एक कड़ी मात्र है जिसमें फौज के इशारे पर उन लोगों को मार दिया जाता है जो सरकार और फौज के लिए मुश्किल पैदा करने की कोशिश कर रहे होते हैं . मीर रुस्तम बारी अपने ही राज्य बलोचिस्तान में घर बार छोड़कर भागने को मजबूर हुए बुगती और मारी क़बीलों के लोगों के हक की लड़ाई लड़ रहे थे.ऐसा लगता है कि पाकिस्तान में किसी को मार डालना उसी तरह से हो गया है जैसे किसी पार्क में टहलना हो. अभी पिछले हफ्ते पाकिस्तानी रेंजर्स ने कराची शहर के बीचोबीच उन्नीस साल के एक लड़के, सरफ़राज़ शाह को राह चलते मार डाला था . पाकिस्तानी रेंजर्स भारत के बी एस एफ की तरह का संगठन है जो सीमा पर तैनात रहता है लेकिन कभी कभी आतंरिक सुरक्षा के काम में भी लगाया जाता है . सरफराज शाह की हत्या को सबने देखा क्योंकि किसी वीडियो कैमरामैन ने उसकी फिल्म उतार ली थी और न्यूज़ चैनलों ने उसे सार्वजनिक कर दिया था. सरफ़राज़ शाह की हत्या मीर रुस्तम बारी से अलग तरह की हत्या है . इस नौजवान को तो रेंजर्स के सिपाहियों ने मज़ा लेने के लिए मार डाला था अ, कहीं कोई राजनीतिक मंशा नहीं थी. इसीलिये यह हत्या ज्यादा खतरनाक मानी जा रही है क्योंकि जिस समाज में तफरीह के लिए किसी राह चलते इंसान को मार डाला जाए उसका अधोपतन लगभग पूरी तरह से मुक़म्मल माना जाता है .पूरे पाकिस्तान ने टी वी चैनलों पर देखा कि किस तरह रेंजर्स की गोली का शिकार होकर वह नौजवान चिल्लाता रहा कि उसे अस्पताल पंहुचा दिया जाय लेकिन कोई नहीं आया. सरफ़राज़ शाह की हत्या पाकिस्तानी राष्ट्र और समाज के लिए एक खतरे की घंटी है . क्योंकि जो पाकिस्तानी फौज और आई एस आई अब तक उन लोगों को मार रही थी जो हुकूमत के लिए मुश्किलें पैदा कर रहे थे और उसने राह चलते लोगों को अपना शिकार बनाना शुरू कर दिया है . पाकिस्तान में रहने वाले बुद्धिजीवियों का कहना है कि देश बहुत ही बड़े संकट के दौर से गुज़र रहा है . उनका दावा है कि यह संकट १९७१ के उस संकट से भी बड़ा है जब मुल्क का एक बड़ा हिस्सा अलग होकर स्वतंत्र बंगलादेश बन गया था .
पाकिस्तान के ताज़ा हालत के बारे में जो बात हैरानी की है वह यह कि लोकतांत्रिक अधिकारों की बात करने वालों की लगभग रोज़ ही हो रही हत्याओं के बावजूद बाकी दुनिया में कहीं भी उसके विरोध में आवाज़ नहीं उठ रही है . जहां तक सभ्य समाज के लोगों की हत्या का सवाल है वह तो वहां रोज़ ही हो रही है. मीर रुस्तम बारी की ह्त्या के एकाध दिन पहले ही क्वेटा में प्रोफ़ेसर सबा दश्तियारी को मार डाला गया था . उसके कुछ दिन पहले खोजी पत्रकार सलीम शहजाद को मौत के घाट उतार दिया गया था. इन हत्याओं में जो बात उभर कर सामने आती है वह यह कि मारे गए सभी लोग उस बिरादरी से सम्बंधित हैं जो फौज के इशारे पर काम करने वाली अमरीकापरस्त सिविलियन हुकूमत की गैरज़िम्मेदार नीतियों से लोगों को आगाह कर रहे थे . इस बिरादरी के लोगों को ख़त्म कर देने का सिलसिला पिछले कुछ वर्षों से चल रहा है . हालांकि इस तरह से मारे गए लोगों की पूरी सूची तो नहीं बनायी जा सकती लेकिन कुछ ऐसे नाम जो मीडिया की नज़र में आये हैं वे किस्से की कई परतों को बयान कर देते हैं . पाकिस्तानी पंजाब के गवर्नर , सलमान तासीर की उनके ही सुरक्षा गार्ड के हाथों हुई हत्या को इस डिजाइन की एक अहम कड़ी के रूप में देखा जाता है . सलमान तासीर के बाद अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री शाहबाज़ भट्टी और पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग के के संयोजक नईम साबिर को मारा गया था. पाकिस्तान के मानवाधिकार संगठनों का दावा है कि जो लोग भी मारे जा रहे हैं लगभग सभी लोग अल कायदा के प्रभाव वाले सैनिक और आतंकवादी संगठनों के शिकार हो रहे हैं .प्रोफ़ेसर सबा दश्तियारी से जिहादी संगठन ख़ास तौर से नाराज़ थे क्योंकि उनके काम से नौजवानों में लोकतांत्रिक चेतना आती. वे छात्रों को लोकतंत्र के बारे में जागरूकता का सन्देश दे रहे थे. बलोचिस्तान में पाकिस्तानी फौज का डंडा बहुत ही ज़बर्दस्त तरीके से चल रहा है . ऐसा शायद इसलिए हो रहा है कि उस इलाके में ज़मीन के नीचे कच्चे के तेल बहुत बड़े ज़खीरों का पता चला है और सरकार उसे पूरी तरह से अपने कब्जे में रखना चाह रही है .वहां अक्सर निर्दोष बलोच युवकों को पकड़ कर उनको सेना के कब्जे में रखा जाता है और उन्हें हर किस्म की यातनाएं दी जाती हैं . आतंक फैलाने के उद्देश्य से ऐसे लोगों को मार दिया जाता है जो बिलकुल सीधे सादे लोग होते हैं . अभी पिछले दिनों बलोचिस्तान विश्वविद्यालय की एक महिला प्रोफ़ेसर ,नाज़िमा तालिब को भी गोली मार दी गयी थी.
एकाध को छोड़कर मारे गए ज़्यादातर लोग पाकिस्तानी समाज में चेतना फैलाने का काम कर रहे थे. कुछ को पाकिस्तानी सेना के लोगों ने सीधे तौर पर मार डाला था लेकिन कुछ को किसी आतंकवादी संगठन के लोगों ने मारा और ज़िम्मेदारी ली. जानकार बताते हैं कि पाकिस्तान में आतंकवादी संगठन लगभग पूरी तरह से आई एस आई और फौज की कृपा से चलते हैं इसलिए वहां पर लोकतंत्र और मानवाधिकारों का जो भी खात्मा हो रहा है उसके लिए आई एस आई और फौज ही पूरी तरह से ज़िम्मेदार है.

Saturday, July 2, 2011

आदित्य कुमार की ज़ुबानी उनकी अपनी कहानी.

एक क्रांति ऐसी भी
पारुल अग्रवाल
बीबीसी संवाददाता, दिल्ली

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बीबीसी की खास पेशकश सिटीज़न रिपोर्ट एक कोशिश है, समाज में बदलाव के लिए संघर्ष कर रहे लोगों की कहानियां देश-दुनिया तक पहुंचाने की. ये वो लोग हैं जो दूसरों के लिए बदलाव की मिसाल बन गए हैं.

पेश है सिटीज़न रिपोर्टर आदित्य कुमार की ज़ुबानी उनकी अपनी कहानी.

'' मेरा नाम आदित्य कुमार है और मैं लखनऊ का रहने वाला हूं. भारत में अंग्रेज़ी को ऊँचे तबक़े की भाषा माना जाता है लेकिन नौकरियों में बढ़ती ज़रुरत के चलते मैने अंग्रेज़ी को आम आदमी तक पहुँचाने का बीड़ा उठाया है.

अपने इस सफ़र में मैंने अपना हमसफ़र बनाया आम आदमी की सवारी साईकिल को.

15 साल पहले मैं रोज़ी-रोटी की तलाश में फ़र्रुख़ाबाद से लखनऊ आया और यहाँ आकर ट्यूशन पढ़ाना शुरू कर दिया.

शहर के हालत देख कर मुझे लगा कि अंग्रेज़ी भाषा सीखे बिना कम आमदनी वाले परिवारों के बच्चे तरक्की नहीं कर सकते.

'ऑनरोड अंग्रेज़ी शिक्षक'

सड़क पर क्लास लगाने का सिलसिला यहीं से शुरू हुआ जो पिछले तीन साल से लगातार चल रहा है. अंग्रेज़ी सीखने की चाह रखने वाले बच्चों और नौजवानों को मैं नि: शुल्क पढ़ाता हूं.ऐसे में इन बच्चों तक पहुँचने के लिए मैंने साइकिल से लखनऊ की सड़कों और गलियों की ख़ाक छाननी शुरू कर दी.

यहां तक कि लोग मुझे अब 'निर्धनों का शिक्षक', 'साइकिल टीचर' और 'ऑनरोड अंग्रेज़ी शिक्षक' तक कहने लगे हैं.

ऐसी ही क्लास का हिस्सा बने अनूप कुमार कहते हैं, ''मैं आदित्य सर की नि: शुल्क कक्षा में पढ़ने जाता हूं. पैसे की तंगी के चलते मेरे लिए अंग्रेज़ी सीखना संभव न था लेकिन उनकी बदौलत आज मैं अंग्रेज़ी समढ पाता हूं और बात कर पाता हूं.''

'पिछड़ी जातियों का उद्धार'
फ़िलहाल मैं अपनी क्लास चौराहों और नुक्कडों पर चलाता हूँ लेकिन मेरी कोशिश है की मैं ज़्यादा से ज़्यादा इलाकों और झुग्गी झोपड़ियों तक पहुँच सकूं.

अंग्रेज़ी सिखाने के लिए मैंने ख़ास तरह का पाठ्यक्रम भी तैयार किया है.

कभी-कभी रोड पर क्लास लेने के कारण मुझे परेशानियों का सामना भी करना पड़ता है. इसलिए में अपना वीडियो कैमरा भी साथ रखता हूँ ताकि जो भी मेरी क्लास में शामिल हैं उनका रिकॉर्ड रख सकूं.

मेरा मानना है की पिछड़ी जातियों का उद्धार पढ़ने-लिखने और अंग्रेज़ी की जानकारी से ही हो सकता है. मेरा लक्ष्य बस यही है की एक दलित होने के नाते जो परेशानियां मैंने झेलीं उनका सामना किसी और को ना करना पड़े.'

( बी बी सी हिन्दी डाट काम से साभार )

हर भ्रष्ट नेता मज़बूत लोकपाल के खिलाफ है

शेष नारायण सिंह

लोकपाल के मुद्दे पर सभी पार्टियां घिरती नज़र आ रही हैं. यह दुनिया जानती है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी भ्रष्टाचार को जड़ से ख़त्म कर देने के पक्ष में नहीं है . भ्रष्टाचार की कमाई से ही तो पार्टियों का खर्चा चलता है ,उसी से नेताओं की दाल रोटी का बंदोबस्त होता है . यह अलग बात है कि भ्रष्टाचार के नाम पर अन्य पार्टियों को घेरने की बात सभी करते रहते हैं .कांग्रेस ने साफ़ ऐलान कर ही दिया है कि वह प्रधानमंत्री को लोकपाल की जांच के दायरे में नहीं लाना चाहती. बीजेपी की कोशिश थी कि वह इसी मुद्दे पर प्रधानमंत्री को भ्रष्ट साबित करने की अपनी योजना को आगे बढाती लेकिन बीजेपी का दुर्भाग्य है कि उसकी पार्टी में मौजूद गुणी जनों की तरह कांग्रेस में भी कुछ उस्ताद मौजूद हैं जो बीजेपी को घेरने की योजना पर ही दिन रात काम करते हैं . लोकपाल के मामले में ताज़ा खेल बीजेपी की पोल खोलता नज़र आता है .कांग्रेस ने सर्भी पार्टियों की बैठक बुलाकर लोकपाल के मसौदे पर चर्चा करने की योजना बना दी जिसमें प्रधानमंत्री समेत सभी मुख्यमंत्रियों को लोकपाल की जांच के दायरे में लाने पर चर्चा की बात है. ज़ाहिर है कि बीजेपी सभी मुख्यमंत्रियों को लोकपाल के दायरे में नहीं ला सकती. अगर कहीं बीजेपी ने तय किया कि वह रणनीतिक कारणों से ही कुछ वक़्त के लिए मुख्यमंत्री को लोकपाल में लाने के बारे में सोच सकती है तो उनके मुख्यमंत्री नाराज़ हो जायेगें . इसका सीधा भावार्थ यह हुआ कि उनकी पार्टी टूट जायेगी. बी एस येदुरप्पा कभी नहीं मानेगें कि उनके भ्रष्टाचार की जांच किसी ऐसी एजेंसी से कराई जाय जो उनके अधीन न हो .बीजेपी के दिल्ली में रहने वाले सभी नेता जानते हैं कि बी एस येदुरप्पा की नज़र में दिल्ले में केवल अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी और राजनाथ सिंह बड़े नेता हैं .बाकी राष्ट्रीय नेताओं को वे बहुत मामूली नेता मानते हैं . उन्हें यह भी मालूम है कि कर्नाटक में बीजेपी की ताक़त बी एस येदुरप्पा की निजी ताक़त है . अगर वे पार्टी से अलग हो जाएँ तो राज्य में बीजेपी शून्य हो जायेगी. इसीलिये बीजेपी वाले पिछले कई दिनों से अपने प्रवक्ताओं के मुंह से कहलवा रहे हैं कि पहले सरकार यह बताये कि वह क्या चाहती है . पार्टी की मंशा यह लगती है कि अगर कांग्रेस ने कोई पोजीशन ले ली तो उसी की धज्ज़ियां उड़ाकर सर्वदलीय बैठक के संकट से बच जायेगें लेकिन कांग्रेस उनको यह अवसर नहीं दे रही है. बीजेपी ने इस संकट से बचने के लिए ही तय किया था कि वह सर्वदलीय बैठक का बहिष्कार करेगी लेकिन नीतीश कुमार और प्रकाश सिंह बादल ने दबाव डालकर ऐसा नहीं करने दिया . पता नहीं क्यों मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के समर्थकविहीन नेता, प्रकाश करात बीजेपी के सुर में सुर मिला रहे हैं .वे भी कह रहे हैं कि उन्हें भी सरकारी ड्राफ्ट चाहिए . खैर उनकी तो कोई औकात नहीं है लेकिन बीजेपी बुरी तरह से फंस गयी है . मुख्यमंत्रियों और प्रधानमंत्री को बाहर रखने की उनकी नीति जब बहस के दायरे में आयेगी तो देश को पता लग जाएगा कि बीजेपी वाले भी कांग्रेस की तरह की भ्रष्ट हैं . इसलिए लोकपाल की संस्था को बहुत ही कमज़ोर कर देने के बारे में देश की दोनों की बड़ी पार्टियों में लगभग एक राय है लेकिन एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए दोनों की पार्टियों के वे प्रवक्ता , जो टी वी की कृपा से नेता बने हुए हैं,कुछ ऐसी बातें करते रहते हैं जिसका उनकी पार्टी को राजनीतिक फायदा होता है . उनका दुर्भाग्य यह है कि जिस टी वी ने उन्हें नेता बनाया है ,वही टी वी और मीडिया देश की जनता को भी सही खबर देता रहता है . अभी पंद्रह साल पहले एक ऐसा मामला आया था जिसमें सभी पार्टियों के नेता फंसे थे .जैन हवाला काण्ड के नाम से कुख्यात इस केस में कांग्रेस, बीजेपी , लोकदल, जनता दल सभी पार्टियों के बड़े नेता एक कश्मीरी संदिग्ध संगठन से रिश्वत लेने के आरोप में जांच के घेरे में आये थे लेकिन सब ने मिलजुल कर मामले को दफना दिया था . लगता है कि लोकपाल बिल के साथ भी वही करने की योजना इन नेताओं की है . लेकिन इस बार यह काम इतना आसान नहीं होगा . यह संभव है कि समाचार देने वाले बड़े संगठनों के कुछ मालिकों को यह नेता लोग अरदब में लेने में सफल हो जाएँ लेकिन वैकल्पिक मीडिया सबकी पोल खोलने की ताक़त रखता है और वह खोल भी देगा. देश की जनता को उम्मीद है कि एक ऐसा लोकपाल कानून बने जिसके बाद भ्रष्टाचार को लगाम देने का काम शुरू किया जा सके.