शेष नारायण सिंह
हिन्दी की कवयित्री रीता भदौरिया के दूसरे काव्य संग्रह 'पानी में गाँठ' के लोकार्पण का अवसर। दिल्ली में भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद के सभागार में राजधानी की नामचीन अदबी और शहाफी शख्सीयतों की मौजदगी में रीता की कविताओं पर चर्चा हुई और कविता और समाज पर भी। रीता के संवेदन और उनकी रचना प्रतिभा में वक्ताओं को प्रचुर संभावना दिखी। सदारत कर रहे थे हिन्दी के बड़े कवि प्रयाग शुक्ल। अध्यक्षीय संबोधन में उन्होंने समय की कमी और विमर्श से उपजे उत्तेजनात्मक तनाव के बीच से निकलने की सधी हुई कोशिश की पर समय पर तनाव भारी रहा। संक्षिप्ति की वकालत के बावजूद विस्तार से बचना उन जैसे बड़े साहित्यकार के लिए भी संभव नहीं हो सका और सच तो यह है कि यही श्रोताओं के लिए आनंददायक रहा। वे चिंतित थे कि खराब और अच्छी कविता की बात की गयी, वे चिंतित थे कि कलावाद पर आक्षेप किया गया। उन्होंने जवाब भी दिया, बहुत स्पष्ट और साफ सुथरा, कलावाद कोई बुरी चीज नहीं है, मैं स्वयं कलावादी हूँ। कला लोक से ही जन्मती है, लोक के साथ ही आगे बढ़ती है। न तो कविता के पाठक कम हुए हैं, न ही अच्छी कविताएं। सारे देश में घूमा हूँ मैं, हर जगह कविता लिखने वाले, उसके प्रशंसक मिले हैं। मैं कविता को अच्छी या बुरी कविता के रूप में नहीं देखता हूँ, मेरे लिए कविता सिर्फ अच्छी होती है, कोई ज्यादा अच्छी, कोई कम अच्छी।
इस मौके पर प्रयाग शुक्ल के अलावा असगर वजाहत, वीरेन डंगवाल, अशोक चक्रधर, आलोक पुराणिक, कमर वहीद नकवी, राम कृपाल सिंह, प्रभात कुमार राय, प्रो. जय प्रकाश द्विवेदी, कुलदीप तलवार, कुलदीप कुमार, राम बहादुर राय, सुभाष राय, वंशीधर मिश्र, मिथिलेश कुमार सिंह, मधु जोशी आदि मौजूद थे। दिल्ली के हिन्दी पत्रकारों का भी बड़ा जमावड़ा था। असगर वजाहत ने कविता के महत्व का प्रतिपादन करते हुए उसे जीवन और समाज के परिष्कार का सबसे बड़ा औजार कहा। उन्होंने कहा कि जब आप को सभी छोड़ दें, कोई भी आप की मदद करने वाला न हो, तब भी कविता अपनी समूची ताकत और संभावना के साथ आप के साथ होगी। असगर साहब ने कहा कि कविता समानांतर समाज बनाती है, वह समाज को दिशा देने, उसे विकसित करने का काम करती है। वीरेन डंगवाल ने कहा कि बीते सालों में कविता का जनतांत्रीकरण हुआ है और बहुत से नए कवि सामने आये हैं। सुभाष राय और बंधीधर मिश्र ने कुछ खतरों की ओर संकेत किया और कविताप्रेमियों और आलोचकों को आगाह करने की कोशिश की। राय का मानना था कि बहुत सारे नकली या अखबारी अनुभवों पर कविताएं लिखी जा रहीं हैं। कवि वहां उपस्थित नहीं है, जहाँ से वह रचना का कथ्य उठाता है। अनुभव की प्रामाणिकता के अभाव में कविता भी संदेह के घेरे में है। कवि सम्मान, पुरस्कार के पीछे भाग रहा है, अच्छी कविताएं भी आ रहीं हैं लेकिन खराब कविताएं ज्यादा आ रहीं हैं। मिश्र ने धूमिल के उद्घरण देते हुए कहा कि कविताएं सार्थक वक्तव्य होने की जगह केवल वक्तव्य हो जाएँ तो वे अपना प्रभाव खो देंगी। उन्होंने दृष्टिसम्पन्नता के अभाव की ओर संकेत किया।
मधु जोशी ने विस्तार से रीता भदौरिया के संघर्ष और संवेदनात्मक विकास की चर्चा की और उनकी कविताओं को सराहा। जोशी ने कहा कि रीता की कविताओं में विचारों की निरंतरता है। अशोक चक्रधर ने रीता के संग्रह से कुछ कविताओं का पाठ किया और उनमें एक वृहत्तर संभावना की चर्चा करते हुए कहा कि पुस्तक पर अलग से बात होनी चाहिए। इस मौके पर कवयित्री रीता ने स्वयं की रचना प्रकिया के बारे में बताया और कहा कि उन्होंने जीवन में काफी उतार-चढ़ाव देखे हैं। अपने विभाग के कामकाज के सिलसिले में ऐसे लोग भी देखे हैं जिनके पास दो वक्त की रोटी का इंतजाम नहीं है और ऐसे लोग भी, जिनके पास अपनी संपत्ति को ठिकाने लगाने का तरीका नहीं सूझ रहा। उन्होंने विकास का भ्रम और अंतिम पड़ाव, अपने कविता संग्रह से दो कविताएं पढ़कर सुनाई। गोष्ठी का संचालन जाने-माने रंगकर्मी और पत्रकार अनिल शुक्ल ने किया।
Thursday, December 8, 2011
Tuesday, December 6, 2011
संसद में हंगामा करना सबसे कमज़ोर तरीका है संसदीय काम का
शेष नारायण सिंह
संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में अभी तक कोई ख़ास काम नहीं हो सका है .लगभग आधा सत्र बीत चुका है. इस सत्र में संसद को लोकपाल बिल पास करना है. पिछले सत्र में लोकसभा ने संकल्प लिया था और यह माना जा रहा था कि शीतकालीन सत्र में लोकपाल बिल को कानून की शक्ल दे दी जायेगी. अब तक के संकेत से तो यही लगता है कि वह एक टेढ़ी खीर है जो भी दो चार मिनट संसद की कार्यवाही चलती है उसको देख कर लगता है कि आजकल यह रिवाज़ हो गया है क संसद सदस्य हर उस मसले को हल्ला गुल्ला करके ही सरकार की नज़र में ला सकते हैं जिस से वे चिंतित हैं . इस सत्र में बीजेपी और वामपंथी पार्टियों वाले तो मूल रूप से खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी के निवेश के मुद्दे पर हंगामा कर रहे हैं जबकि अन्य पार्टियों के लोग अलग अलग मुद्दों पर संसद का काम शुरू होते ही हल्ला गुल्ला शुरू कर देते हैं . अजीब बात है कि कांग्रेस वाले भी तेलंगाना राज्य के मुद्दे पर सरकार के सामने अपनी बात रखने के लिए संसद में शोरगुल का रास्ता ही अपना रहे हैं जबकि सत्ता पक्ष की पार्टी होने के नाते उनके सामने बहुत सारे विकल्प मौजूद हैं . यह बात समझ में नहीं आती कि जब संसद के सदस्य के रूप में राजनीतिक नेताओं के सामने सरकार को घेरने के बहुत सारे विकल्प मौजूद हैं तो सदन की कार्यवाही में बाधा डालने के तरीके को अपनाने का औचित्य क्या है .देखा यह जा रहा है कि संसद में हल्ला गुल्ला करके सदस्यगण अपनी बात कहने के बहुमूल्य अवसर गँवा रहे हैं .
कुछ संसद सदस्यों से बातचीत हुई तो लगा कि वे सरकार की मनमानी से दुखी होकर संसद का काम नहीं चलने दे रहे हैं . यह बात बिलकुल तर्कसंगत नहीं है . अगर संसद सदस्य चाहे तो उसके पास सरकार को घेरने के इतने साधन हैं कि कोई भी सरकार मनमानी नहीं कर सकती.यह तो वह सरकार है जिसमें बहुत सारी राजनीतिक पार्टियां शामिल हैं . सरकार में शामिल पार्टियों के आपस में भी खूब मतभेद हैं . खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी के निवेश के ही मसले पर सरकार में शामिल तृणमूल कांग्रेस और डी एम के खुले आम सरकार के खिलाफ बोल रहे हैं जबकि सरकार को भाहर से समर्थन दे रही समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी इस विषय पर सरकार के पक्ष में नहीं हैं . इसके बावजूद भी विपक्ष हल्ला करके अपनी बात को जनता तक पंहुचाने की कोशिश कर रहा है . हो सकता है आज का विपक्ष उसी को सही मानता हो लेकिन इसी लोकसभा में विपक्ष ने ऐसे ऐसे काम किये हैं कि दुनिया की कोई भी संसद उनसे प्रेरणा ले सकती है . १९७१ के लोकसभा चुनावों के बाद इंदिरा गाँधी की सरकार बनी थी . उनके पास बहुत ही मज़बूत बहुमत था. तो तिहाई से ज्यादा बहुमत वाली सरकारें कुछ भी कर सकती हैं ,संविधान में संशोधन तक कर सकती हैं लेकिन पांचवीं लोक सभा के आधा दर्जन सदस्यों ने इंदिरा गांधी की सरकार को सदन में हमेशा घेर कर रखा. इन छः सदस्यों के काम के तरीके को आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा के रूप में लेना चाहिए. इनमें से अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा अब कोई जीवित नहीं हैं लेकिन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के ज्योतिर्मय बसु,संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के मधु लिमये और मधु दंडवते, जनसंघ के अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय लोक दल के पीलू मोदी और कांग्रेस ( ओ ) के श्याम नंदन मिश्र की मौजूदगी में इंदिरा गाँधी की सरकार का हर वह फैसला चुनौती के रास्ते से गुज़रता था जिसे इन सदस्यों ने जनहित की अनदेखी का फैसला माना . आज तो लोकसभा की कार्यवाही लाइव दिखाई जाती है , हर पल की जानकारी देश के कोने कोने में पंहुचती है . चौबीस घंटों का टेलिविज़न समाचार है , बहुत सारे अखबार हैं जो नेताओं की हर अच्छाई को जनता तक दिन रात पंहुचा रहे हैं लेकिन उन दिनों ऐसा नहीं था. समाचार के श्रोत के रूप में टेलिविज़न का विकास नहीं हुआ था , रेडियो सरकारी था . जनता को ख़बरों के लिए कुछ अखबारों पर निर्भर रहना पड़ता था. आज तो हर बड़े शहर से अखबार छपते हैं , उन दिनों ऐसा नहीं था. इतने अखबार भी नहीं छपते थे लेकिन संसद की इन विभूतियों के काम की हनक पूरे देश में महसूस की जाती थी. बहुत साल बाद जब मधु लिमये से इसके कारणों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बताया कि उन दिनों संसद सदस्य बहुत सारा वक़्त संसद की लाइब्रेरी में बिताते थे जिसके कारण उनके पास हर तरह की सूचना होती थी. लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि आज ऐसा नहीं है .
संसद के सदस्य के रूप में नेताओं के पास ऐसे बहुत सारे साधन हैं कि वे सरकार को किसी भी फैसले में मनमानी से रोक सकते हैं . आजकल तो लोकसभा की कार्यवाही लाइव दिखाई जाती है जिसके कारण सदस्यों की प्रतिभा को पूरा देश देख सकता है और राजनीतिक बिरादरी के बारे में ऊंची राय बन सकती है . अगर सरकार को जनविरोधी मानते हैं तो उसके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाकर सरकार की छुट्टी करने तक का प्रावधान संसद के नियमों में है लेकिन उसके लिए सदस्यों पूरी तैयारी के साथ ही सदन में आना पड़ेगा. संसद के सदस्य के रूप में नेताओं के पास जो अवसर उपलब्ध हैं उन पर एक नज़र डालना दिलचस्प होगा.
सबसे महत्वपूर्ण तो प्रश्न काल ही है .लोकसभा की कार्यवाही के लिए जो नियम बनाए गए हैं उनमें नियम ३२ से लेकर ५४ तक प्रश्नों के बारे में हैं . सदन की कार्यवाही का पहला घंटा प्रश्न काल के रूप में जाना जाता है और इसमें हर तरह के सवाल कर सकते हैं . कुछ सवाल तो मौखिक उत्तर के लिए होते हैं सदन के अंदर सम्बंधित मंत्री को सदस्यों के सवालों का जवाब देना पड़ता है . मंत्री से बाकायदा पूरक प्रश्न पूछे जा सकते हैं , हर सदस्य किसी भी सवाल पर स्पष्टीकरण मांग सकता है और सरकार के सामने गोल मोल जवाब देने के विकल्प बहुत कम होते हैं ..मौखिक प्रशनों के अलावा बहुत सारे पश्न ऐसे होते हैं जिनका जवाब लिखित रूप में सरकार की तरफ से दिया जाता है . अगर सरकार की ओर से लिखित जवाब में कोई बात स्पष्ट नहीं होती तो सदस्य के पास नियम ५५ के तहत आधे घंटे की चर्चा के लिए नोटिस देने का अधिकार होता है . अध्यक्ष महोदय की अनुमति से आधे घंटे की चर्चा में सरकार से स्पष्टीकरण माँगा जा सकता है .सरकार की नीयत पर लगाम लगाए रखने के लिए विपक्ष के पास नियम ५६ से ६३ के तहत काम रोको प्रस्ताव का रास्ता खुला होता है . अगर कोई मामला अर्जेंट है और जनहित में है तो अध्यक्ष महोदय की अनुमति से काम रोको प्रस्ताव लाया जा सकता है . इस प्रस्ताव पर बहस के बाद वोट डाले जाते हैं और अगर सरकार के खिलाफ काम रोको प्रस्ताव पास हो जाता है तो इसे सरकार के खिलाफ निंदा का प्रस्ताव माना जाता है . देखा यह गया है कि सरकारें काम रोको प्रस्ताव से बचना चाहती हैं इसलिए इस प्रस्ताव के रास्ते में बहुत सारी अड़चन रहती है . बहरहाल सरकार के काम काज पर नज़र रखने के लिए काम रोको प्रस्ताव विपक्ष के हाथ में सबसे मज़बूत हथियार है . इसके अलावा नियम १७१ के तहत सदन के विचार के लिए एक प्रस्ताव लाया जा सकता है जो सदस्य की राय हो सकती है ,कोई सुझाव हो सकता है या सरकार की किसी नीति या किसी काम .की आलोचना हो सकती है . इसके ज़रिये सरकार को सही काम करने के लिए सुझाव दिया जा सकता है ,उस से आग्रह किया जा सकता है . ध्यान आकर्षण करने लिए बनाए गए लोक सभा के नियम १७० से १८३ के अंतर्गत जनहित के लगभग सभी मामले उठाये जा सकते हैं .
विपक्ष के हाथ में लोक सभा के नियम १८४ से लेकर १९२ तक की ताक़त भी है . इन नियमों के अनुसार कोई भी सदस्य किसी राष्ट्रीय हित के मसले पर सरकार के खिलाफ प्रस्ताव पेश कर सकता है . नियम १८६ में उन मुद्दों का विस्तार से वर्णन किया गया है जो बहस के लिए उठाये जा सकते हैं . इन नियमों के तहत होने वाली चर्चा के अंत में वोट डाले जाते हैं इसलिए यह सरकार के लिए खासी मुश्किल पैदा कर सकते हैं . लोकसभा में अध्यक्ष की अनुमति के बिना कोई भी बहस नहीं हो सकते ए, वह नियम इस बहस में भी लागू होते हैं . इसके अलावा लोकसभा के नियम १९३ से १९६ के तहत जनहित के किसी मुद्दे पर लघु अवधि की चर्चा की नोटिस दी जा सकती है . इस नियम के तहत होने वाली बहस के बाद वोट नहीं डाले जाते लेकिन जब सब कुछ पूरा देश टेलिविज़न के ज़रिये लाइव देख रहा है तो सरकार और सांसदों की मंशा तो जनता की अदालत में साफ़ नज़र आती ही रहती है .नियम १९७ के अंतर्गत संसद सदस्य , सरकार या किसी मंत्री का ध्यान आकर्षित करने के लिए ध्यानाकर्षण प्रस्ताव ला सकते हैं . पहले ध्यानाकर्षण प्रस्ताव की चर्चा आखबारों में खूब पढी जाती थी लेकिन आजकल ऐसा बहुत कम होता है .
विपक्ष के पास लोकसभा में सबसे बड़ा हथियार नियम १९८ के तहत सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव है . इस प्रस्ताव के तहत सरकारें गिराई जा सकती हैं . विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार इसी प्रस्ताव के बाद गिरी थी.इस तरह से हम देखते हैं कि संसद सदस्यों के पास सरकार से जनहित और राष्ट्रहित के काम कवाने के लिए बहुत सारे तरीके उपलब्ध हैं लेकिन उसके बाद भी जब इस देश की एक अरब से ज़्यादा आबादी के प्रतिनधि शोरगुल के ज़रिये अपनी ड्यूटी करने को प्राथमिकता देते हैं तो निराशा होती है
संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में अभी तक कोई ख़ास काम नहीं हो सका है .लगभग आधा सत्र बीत चुका है. इस सत्र में संसद को लोकपाल बिल पास करना है. पिछले सत्र में लोकसभा ने संकल्प लिया था और यह माना जा रहा था कि शीतकालीन सत्र में लोकपाल बिल को कानून की शक्ल दे दी जायेगी. अब तक के संकेत से तो यही लगता है कि वह एक टेढ़ी खीर है जो भी दो चार मिनट संसद की कार्यवाही चलती है उसको देख कर लगता है कि आजकल यह रिवाज़ हो गया है क संसद सदस्य हर उस मसले को हल्ला गुल्ला करके ही सरकार की नज़र में ला सकते हैं जिस से वे चिंतित हैं . इस सत्र में बीजेपी और वामपंथी पार्टियों वाले तो मूल रूप से खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी के निवेश के मुद्दे पर हंगामा कर रहे हैं जबकि अन्य पार्टियों के लोग अलग अलग मुद्दों पर संसद का काम शुरू होते ही हल्ला गुल्ला शुरू कर देते हैं . अजीब बात है कि कांग्रेस वाले भी तेलंगाना राज्य के मुद्दे पर सरकार के सामने अपनी बात रखने के लिए संसद में शोरगुल का रास्ता ही अपना रहे हैं जबकि सत्ता पक्ष की पार्टी होने के नाते उनके सामने बहुत सारे विकल्प मौजूद हैं . यह बात समझ में नहीं आती कि जब संसद के सदस्य के रूप में राजनीतिक नेताओं के सामने सरकार को घेरने के बहुत सारे विकल्प मौजूद हैं तो सदन की कार्यवाही में बाधा डालने के तरीके को अपनाने का औचित्य क्या है .देखा यह जा रहा है कि संसद में हल्ला गुल्ला करके सदस्यगण अपनी बात कहने के बहुमूल्य अवसर गँवा रहे हैं .
कुछ संसद सदस्यों से बातचीत हुई तो लगा कि वे सरकार की मनमानी से दुखी होकर संसद का काम नहीं चलने दे रहे हैं . यह बात बिलकुल तर्कसंगत नहीं है . अगर संसद सदस्य चाहे तो उसके पास सरकार को घेरने के इतने साधन हैं कि कोई भी सरकार मनमानी नहीं कर सकती.यह तो वह सरकार है जिसमें बहुत सारी राजनीतिक पार्टियां शामिल हैं . सरकार में शामिल पार्टियों के आपस में भी खूब मतभेद हैं . खुदरा कारोबार में विदेशी पूंजी के निवेश के ही मसले पर सरकार में शामिल तृणमूल कांग्रेस और डी एम के खुले आम सरकार के खिलाफ बोल रहे हैं जबकि सरकार को भाहर से समर्थन दे रही समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी भी इस विषय पर सरकार के पक्ष में नहीं हैं . इसके बावजूद भी विपक्ष हल्ला करके अपनी बात को जनता तक पंहुचाने की कोशिश कर रहा है . हो सकता है आज का विपक्ष उसी को सही मानता हो लेकिन इसी लोकसभा में विपक्ष ने ऐसे ऐसे काम किये हैं कि दुनिया की कोई भी संसद उनसे प्रेरणा ले सकती है . १९७१ के लोकसभा चुनावों के बाद इंदिरा गाँधी की सरकार बनी थी . उनके पास बहुत ही मज़बूत बहुमत था. तो तिहाई से ज्यादा बहुमत वाली सरकारें कुछ भी कर सकती हैं ,संविधान में संशोधन तक कर सकती हैं लेकिन पांचवीं लोक सभा के आधा दर्जन सदस्यों ने इंदिरा गांधी की सरकार को सदन में हमेशा घेर कर रखा. इन छः सदस्यों के काम के तरीके को आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा के रूप में लेना चाहिए. इनमें से अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा अब कोई जीवित नहीं हैं लेकिन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के ज्योतिर्मय बसु,संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के मधु लिमये और मधु दंडवते, जनसंघ के अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय लोक दल के पीलू मोदी और कांग्रेस ( ओ ) के श्याम नंदन मिश्र की मौजूदगी में इंदिरा गाँधी की सरकार का हर वह फैसला चुनौती के रास्ते से गुज़रता था जिसे इन सदस्यों ने जनहित की अनदेखी का फैसला माना . आज तो लोकसभा की कार्यवाही लाइव दिखाई जाती है , हर पल की जानकारी देश के कोने कोने में पंहुचती है . चौबीस घंटों का टेलिविज़न समाचार है , बहुत सारे अखबार हैं जो नेताओं की हर अच्छाई को जनता तक दिन रात पंहुचा रहे हैं लेकिन उन दिनों ऐसा नहीं था. समाचार के श्रोत के रूप में टेलिविज़न का विकास नहीं हुआ था , रेडियो सरकारी था . जनता को ख़बरों के लिए कुछ अखबारों पर निर्भर रहना पड़ता था. आज तो हर बड़े शहर से अखबार छपते हैं , उन दिनों ऐसा नहीं था. इतने अखबार भी नहीं छपते थे लेकिन संसद की इन विभूतियों के काम की हनक पूरे देश में महसूस की जाती थी. बहुत साल बाद जब मधु लिमये से इसके कारणों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बताया कि उन दिनों संसद सदस्य बहुत सारा वक़्त संसद की लाइब्रेरी में बिताते थे जिसके कारण उनके पास हर तरह की सूचना होती थी. लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि आज ऐसा नहीं है .
संसद के सदस्य के रूप में नेताओं के पास ऐसे बहुत सारे साधन हैं कि वे सरकार को किसी भी फैसले में मनमानी से रोक सकते हैं . आजकल तो लोकसभा की कार्यवाही लाइव दिखाई जाती है जिसके कारण सदस्यों की प्रतिभा को पूरा देश देख सकता है और राजनीतिक बिरादरी के बारे में ऊंची राय बन सकती है . अगर सरकार को जनविरोधी मानते हैं तो उसके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाकर सरकार की छुट्टी करने तक का प्रावधान संसद के नियमों में है लेकिन उसके लिए सदस्यों पूरी तैयारी के साथ ही सदन में आना पड़ेगा. संसद के सदस्य के रूप में नेताओं के पास जो अवसर उपलब्ध हैं उन पर एक नज़र डालना दिलचस्प होगा.
सबसे महत्वपूर्ण तो प्रश्न काल ही है .लोकसभा की कार्यवाही के लिए जो नियम बनाए गए हैं उनमें नियम ३२ से लेकर ५४ तक प्रश्नों के बारे में हैं . सदन की कार्यवाही का पहला घंटा प्रश्न काल के रूप में जाना जाता है और इसमें हर तरह के सवाल कर सकते हैं . कुछ सवाल तो मौखिक उत्तर के लिए होते हैं सदन के अंदर सम्बंधित मंत्री को सदस्यों के सवालों का जवाब देना पड़ता है . मंत्री से बाकायदा पूरक प्रश्न पूछे जा सकते हैं , हर सदस्य किसी भी सवाल पर स्पष्टीकरण मांग सकता है और सरकार के सामने गोल मोल जवाब देने के विकल्प बहुत कम होते हैं ..मौखिक प्रशनों के अलावा बहुत सारे पश्न ऐसे होते हैं जिनका जवाब लिखित रूप में सरकार की तरफ से दिया जाता है . अगर सरकार की ओर से लिखित जवाब में कोई बात स्पष्ट नहीं होती तो सदस्य के पास नियम ५५ के तहत आधे घंटे की चर्चा के लिए नोटिस देने का अधिकार होता है . अध्यक्ष महोदय की अनुमति से आधे घंटे की चर्चा में सरकार से स्पष्टीकरण माँगा जा सकता है .सरकार की नीयत पर लगाम लगाए रखने के लिए विपक्ष के पास नियम ५६ से ६३ के तहत काम रोको प्रस्ताव का रास्ता खुला होता है . अगर कोई मामला अर्जेंट है और जनहित में है तो अध्यक्ष महोदय की अनुमति से काम रोको प्रस्ताव लाया जा सकता है . इस प्रस्ताव पर बहस के बाद वोट डाले जाते हैं और अगर सरकार के खिलाफ काम रोको प्रस्ताव पास हो जाता है तो इसे सरकार के खिलाफ निंदा का प्रस्ताव माना जाता है . देखा यह गया है कि सरकारें काम रोको प्रस्ताव से बचना चाहती हैं इसलिए इस प्रस्ताव के रास्ते में बहुत सारी अड़चन रहती है . बहरहाल सरकार के काम काज पर नज़र रखने के लिए काम रोको प्रस्ताव विपक्ष के हाथ में सबसे मज़बूत हथियार है . इसके अलावा नियम १७१ के तहत सदन के विचार के लिए एक प्रस्ताव लाया जा सकता है जो सदस्य की राय हो सकती है ,कोई सुझाव हो सकता है या सरकार की किसी नीति या किसी काम .की आलोचना हो सकती है . इसके ज़रिये सरकार को सही काम करने के लिए सुझाव दिया जा सकता है ,उस से आग्रह किया जा सकता है . ध्यान आकर्षण करने लिए बनाए गए लोक सभा के नियम १७० से १८३ के अंतर्गत जनहित के लगभग सभी मामले उठाये जा सकते हैं .
विपक्ष के हाथ में लोक सभा के नियम १८४ से लेकर १९२ तक की ताक़त भी है . इन नियमों के अनुसार कोई भी सदस्य किसी राष्ट्रीय हित के मसले पर सरकार के खिलाफ प्रस्ताव पेश कर सकता है . नियम १८६ में उन मुद्दों का विस्तार से वर्णन किया गया है जो बहस के लिए उठाये जा सकते हैं . इन नियमों के तहत होने वाली चर्चा के अंत में वोट डाले जाते हैं इसलिए यह सरकार के लिए खासी मुश्किल पैदा कर सकते हैं . लोकसभा में अध्यक्ष की अनुमति के बिना कोई भी बहस नहीं हो सकते ए, वह नियम इस बहस में भी लागू होते हैं . इसके अलावा लोकसभा के नियम १९३ से १९६ के तहत जनहित के किसी मुद्दे पर लघु अवधि की चर्चा की नोटिस दी जा सकती है . इस नियम के तहत होने वाली बहस के बाद वोट नहीं डाले जाते लेकिन जब सब कुछ पूरा देश टेलिविज़न के ज़रिये लाइव देख रहा है तो सरकार और सांसदों की मंशा तो जनता की अदालत में साफ़ नज़र आती ही रहती है .नियम १९७ के अंतर्गत संसद सदस्य , सरकार या किसी मंत्री का ध्यान आकर्षित करने के लिए ध्यानाकर्षण प्रस्ताव ला सकते हैं . पहले ध्यानाकर्षण प्रस्ताव की चर्चा आखबारों में खूब पढी जाती थी लेकिन आजकल ऐसा बहुत कम होता है .
विपक्ष के पास लोकसभा में सबसे बड़ा हथियार नियम १९८ के तहत सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव है . इस प्रस्ताव के तहत सरकारें गिराई जा सकती हैं . विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार इसी प्रस्ताव के बाद गिरी थी.इस तरह से हम देखते हैं कि संसद सदस्यों के पास सरकार से जनहित और राष्ट्रहित के काम कवाने के लिए बहुत सारे तरीके उपलब्ध हैं लेकिन उसके बाद भी जब इस देश की एक अरब से ज़्यादा आबादी के प्रतिनधि शोरगुल के ज़रिये अपनी ड्यूटी करने को प्राथमिकता देते हैं तो निराशा होती है
Monday, December 5, 2011
एक मनु की औकात नहीं कि वह जाति व्यवस्था की स्थापना कर दे
शेष नारायण सिंह
डा.अंबेडकर के 55वे निर्वाण दिवस के मौके पर ज़रूरी है कि उनकी सोच और दर्शन के सबसे अहम पहलू पर गौर किया जाए. सब को मालूम है कि डा. अंबेडकर के दर्शन ने २० वीं सदी के भारत के राजनीतिक आचरण को बहुत ज्यादा प्रभावित किया था . लेकिन उनके दर्शन की सबसे ख़ास बात पर जानकारी की भारी कमी है. यह बात कई बार कही जा चुकी है कि उनके नाम पर राजनीति करने वालों को इतना तो मालूम है कि बाबा साहेब जाति व्यवस्था के खिलाफ थे लेकिन बाकी चीजों पर ज़्यादातर लोग अन्धकार में हैं. उन्हीं कुछ बातों का ज़िक्र करना आज के दिन सही रहेगा. डा. अंबेडकर को इतिहास एक ऐसे राजनीतिक चिन्तक के रूप में याद रखेगा जिन्होंने जाति के विनाश को सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की बुनियाद माना था. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि उनकी राजनीतिक विरासत का सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाली पार्टी की नेता, आज जाति की संस्था को संभाल कर रखना चाहती हैं ,उसके विनाश में उनकी कोई रूचि नहीं है . वोट बैंक राजनीति के चक्कर में पड़ गयी अंबेडकरवादी पार्टियों को अब वास्तव में इस बात की चिंता सताने लगी है कि अगर जाति का विनाश हो जाएगा तो उनकी वोट बैंक की राजनीति का क्या होगा. डा अंबेडकर की राजनीतिक सोच को लेकर कुछ और भ्रांतियां भी हैं . कांशीराम और मायावती ने इस क़दर प्रचार कर रखा है कि जाति की पूरी व्यवस्था का ज़हर मनु ने ही फैलाया था, वही इसके संस्थापक थे और मनु की सोच को ख़त्म कर देने मात्र से सब ठीक हो जाएगा. लेकिन बाबा साहेब ऐसा नहीं मानते थे . उनके एक बहुचर्चित, और अकादमिक भाषण के हवाले से कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था की सारी बुराइयों को लिए मनु को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता .मनु के बारे में उन्होंने कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगें तो बहुत ही हिम्मती रहे होंगें . डा. अंबेडकर का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा कोई एक व्यक्ति बना दे और बाकी पूरा समाज उसको स्वीकार कर ले. उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी कानून बना देगा और पीढियां दर पीढियां उसको मानती रहेंगीं. . हाँ इस बात की कल्पना की जा सकती है कि मनु नाम के कोई तानाशाह रहे होंगें जिनकी ताक़त के नीचे पूरी आबादी दबी रही होगी और वे जो कह देंगे ,उसे सब मान लेंगें और उन लोगों की आने वाली नस्लें भी उसे मानती रहेंगी.उन्होंने कहा कि , मैं इस बात को जोर दे कर कहना चाहता हूँ कि मनु ने जाति की व्यवस्था की स्थापना नहीं की क्योंकि यह उनके बस की बात नहीं था. . मनु के जन्म के पहले भी जाति की व्यवस्था कायम थी. . मनु का योगदान बस इतना है कि उन्होंने इसे एक दार्शनिक आधार दिया. . जहां तक हिन्दू समाज के स्वरुप और उसमें जाति के मह्त्व की बात है, वह मनु की हैसियत के बाहर था और उन्होंने वर्तमान हिन्दू समाज की दिशा तय करने में कोई भूमिका नहीं निभाई. उनका योगदान बस इतना ही है उन्होंने जाति को एक धर्म के रूप में स्थापित करने की कोशिश की . जाति का दायरा इतना बड़ा है कि उसे एक आदमी, चाहे वह जितना ही बड़ा ज्ञाता या शातिर हो, संभाल ही नहीं सकता. . इसी तरह से यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि ब्राह्मणों ने जाति की संस्था की स्थापना की. मेरा मानना है कि ब्राह्मणों ने बहुत सारे गलत काम किये हैं लेकिन उनकी औक़ात यह कभी नहीं थी कि वे पूरे समाज पर जाति व्यवस्था को थोप सकते. . हिन्दू समाज में यह धारणा आम है कि के जाति की संस्था का आविष्कार शास्त्रों ने किया और शास्त्र तो कभी गलत हो नहीं सकते. बाबा साहेब ने अपने इसी भाषण में एक चेतावनी और दी थी कि उपदेश देने से जाति की स्थापना नहीं हुई थी और इसको ख़त्म भी उपदेश के ज़रिये नहीं किया जा सकता.. यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है अपने इन विचारों के बावजूद भी , डा अंबेडकर ने समाज सुधारकों के खिलाफ कोई बात नहीं कही. ज्योतिबा फुले का वे हमेशा सम्मान करते रहे. . हाँ उन्हें यह पूरा विश्वास था कि जाति प्रथा को किसी महापुरुष से जोड़ कर उसकी तार्किक परिणति तक नहीं ले जाया जा सकता.
डा अंबेडकर के अनुसार हर समाज का वर्गीकरण और उप वर्गीकरण होता है लेकिन परेशानी की बात यह है कि इस वर्गीकरण के चलते वह ऐसे सांचों में फिट हो जाता है कि एक दूसरे वर्ग के लोग इसमें न अन्दर जा सकते हैं और न बाहर आ सकते हैं . यही जाति का शिकंजा है और इसे ख़त्म किये बिना कोई तरक्की नहीं हो सकती. सच्ची बात यह है कि शुरू में अन्य समाजों की तरह हिन्दू समाज भी चार वर्गों में बंटा हुआ था . ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र . यह वर्गीकरण मूल रूप से जन्म के आधार पर नहीं था, यह कर्म के आधार पर था .एक वर्ग से दूसरे वर्ग में आवाजाही थी लेकिन हज़ारों वर्षों की निहित स्वार्थों कोशिश के बाद इसे जन्म के आधार पर कर दिया गया और एक दूसरे वर्ग में आने जाने की रीति ख़त्म हो गयी. और यही जाति की संस्था के रूप में बाद के युगों में पहचाना जाने लगा. . अगर आर्थिक विकास की गति को तेज़ किया जाय और उसमें सार्थक हस्तक्षेप करके कामकाज के बेहतर अवसर उपलब्ध कराये जाएँ तो जाति व्यवस्था को जिंदा रख पाना बहुत ही मुश्किल होगा. और जाति के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था का बच पाना बहुत ही मुश्किल होगा.. अगर ऐसा हुआ तो जाति के विनाश के ज्योतिब अफुले, डा. राम मनोहर लोहिया और डा. अम्बेडकर की राजनीतिक और सामाजिक सोच और दर्शन का मकसद हासिल किया जा सकेगा..
डा.अंबेडकर के 55वे निर्वाण दिवस के मौके पर ज़रूरी है कि उनकी सोच और दर्शन के सबसे अहम पहलू पर गौर किया जाए. सब को मालूम है कि डा. अंबेडकर के दर्शन ने २० वीं सदी के भारत के राजनीतिक आचरण को बहुत ज्यादा प्रभावित किया था . लेकिन उनके दर्शन की सबसे ख़ास बात पर जानकारी की भारी कमी है. यह बात कई बार कही जा चुकी है कि उनके नाम पर राजनीति करने वालों को इतना तो मालूम है कि बाबा साहेब जाति व्यवस्था के खिलाफ थे लेकिन बाकी चीजों पर ज़्यादातर लोग अन्धकार में हैं. उन्हीं कुछ बातों का ज़िक्र करना आज के दिन सही रहेगा. डा. अंबेडकर को इतिहास एक ऐसे राजनीतिक चिन्तक के रूप में याद रखेगा जिन्होंने जाति के विनाश को सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की बुनियाद माना था. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि उनकी राजनीतिक विरासत का सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाली पार्टी की नेता, आज जाति की संस्था को संभाल कर रखना चाहती हैं ,उसके विनाश में उनकी कोई रूचि नहीं है . वोट बैंक राजनीति के चक्कर में पड़ गयी अंबेडकरवादी पार्टियों को अब वास्तव में इस बात की चिंता सताने लगी है कि अगर जाति का विनाश हो जाएगा तो उनकी वोट बैंक की राजनीति का क्या होगा. डा अंबेडकर की राजनीतिक सोच को लेकर कुछ और भ्रांतियां भी हैं . कांशीराम और मायावती ने इस क़दर प्रचार कर रखा है कि जाति की पूरी व्यवस्था का ज़हर मनु ने ही फैलाया था, वही इसके संस्थापक थे और मनु की सोच को ख़त्म कर देने मात्र से सब ठीक हो जाएगा. लेकिन बाबा साहेब ऐसा नहीं मानते थे . उनके एक बहुचर्चित, और अकादमिक भाषण के हवाले से कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था की सारी बुराइयों को लिए मनु को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता .मनु के बारे में उन्होंने कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगें तो बहुत ही हिम्मती रहे होंगें . डा. अंबेडकर का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा कोई एक व्यक्ति बना दे और बाकी पूरा समाज उसको स्वीकार कर ले. उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी कानून बना देगा और पीढियां दर पीढियां उसको मानती रहेंगीं. . हाँ इस बात की कल्पना की जा सकती है कि मनु नाम के कोई तानाशाह रहे होंगें जिनकी ताक़त के नीचे पूरी आबादी दबी रही होगी और वे जो कह देंगे ,उसे सब मान लेंगें और उन लोगों की आने वाली नस्लें भी उसे मानती रहेंगी.उन्होंने कहा कि , मैं इस बात को जोर दे कर कहना चाहता हूँ कि मनु ने जाति की व्यवस्था की स्थापना नहीं की क्योंकि यह उनके बस की बात नहीं था. . मनु के जन्म के पहले भी जाति की व्यवस्था कायम थी. . मनु का योगदान बस इतना है कि उन्होंने इसे एक दार्शनिक आधार दिया. . जहां तक हिन्दू समाज के स्वरुप और उसमें जाति के मह्त्व की बात है, वह मनु की हैसियत के बाहर था और उन्होंने वर्तमान हिन्दू समाज की दिशा तय करने में कोई भूमिका नहीं निभाई. उनका योगदान बस इतना ही है उन्होंने जाति को एक धर्म के रूप में स्थापित करने की कोशिश की . जाति का दायरा इतना बड़ा है कि उसे एक आदमी, चाहे वह जितना ही बड़ा ज्ञाता या शातिर हो, संभाल ही नहीं सकता. . इसी तरह से यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि ब्राह्मणों ने जाति की संस्था की स्थापना की. मेरा मानना है कि ब्राह्मणों ने बहुत सारे गलत काम किये हैं लेकिन उनकी औक़ात यह कभी नहीं थी कि वे पूरे समाज पर जाति व्यवस्था को थोप सकते. . हिन्दू समाज में यह धारणा आम है कि के जाति की संस्था का आविष्कार शास्त्रों ने किया और शास्त्र तो कभी गलत हो नहीं सकते. बाबा साहेब ने अपने इसी भाषण में एक चेतावनी और दी थी कि उपदेश देने से जाति की स्थापना नहीं हुई थी और इसको ख़त्म भी उपदेश के ज़रिये नहीं किया जा सकता.. यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है अपने इन विचारों के बावजूद भी , डा अंबेडकर ने समाज सुधारकों के खिलाफ कोई बात नहीं कही. ज्योतिबा फुले का वे हमेशा सम्मान करते रहे. . हाँ उन्हें यह पूरा विश्वास था कि जाति प्रथा को किसी महापुरुष से जोड़ कर उसकी तार्किक परिणति तक नहीं ले जाया जा सकता.
डा अंबेडकर के अनुसार हर समाज का वर्गीकरण और उप वर्गीकरण होता है लेकिन परेशानी की बात यह है कि इस वर्गीकरण के चलते वह ऐसे सांचों में फिट हो जाता है कि एक दूसरे वर्ग के लोग इसमें न अन्दर जा सकते हैं और न बाहर आ सकते हैं . यही जाति का शिकंजा है और इसे ख़त्म किये बिना कोई तरक्की नहीं हो सकती. सच्ची बात यह है कि शुरू में अन्य समाजों की तरह हिन्दू समाज भी चार वर्गों में बंटा हुआ था . ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र . यह वर्गीकरण मूल रूप से जन्म के आधार पर नहीं था, यह कर्म के आधार पर था .एक वर्ग से दूसरे वर्ग में आवाजाही थी लेकिन हज़ारों वर्षों की निहित स्वार्थों कोशिश के बाद इसे जन्म के आधार पर कर दिया गया और एक दूसरे वर्ग में आने जाने की रीति ख़त्म हो गयी. और यही जाति की संस्था के रूप में बाद के युगों में पहचाना जाने लगा. . अगर आर्थिक विकास की गति को तेज़ किया जाय और उसमें सार्थक हस्तक्षेप करके कामकाज के बेहतर अवसर उपलब्ध कराये जाएँ तो जाति व्यवस्था को जिंदा रख पाना बहुत ही मुश्किल होगा. और जाति के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था का बच पाना बहुत ही मुश्किल होगा.. अगर ऐसा हुआ तो जाति के विनाश के ज्योतिब अफुले, डा. राम मनोहर लोहिया और डा. अम्बेडकर की राजनीतिक और सामाजिक सोच और दर्शन का मकसद हासिल किया जा सकेगा..
देव आनंद ने ज़िंदगी का साथ निभाना बंद कर दिया
शेष नारायण सिंह
देव आनंद ने आज ज़िंदगी का साथ निभाना बंद कर दिया,हालांकि उन्होंने बार बार यह ऐलान किया था कि वे ज़िंदगी साथ निभाते चले जायेगें. देव आनंद ने अपनी सारी ज़िंदगी फिल्मों को समर्पित की इसलिए उन्हें फिल्मकार के रूप में ही याद किया जाएगा. लेकिन उनकी एक ज़िन्दगी वह भी है जो १९४६ में फ़िल्मी कैरियर शुरू होने के पहले मुंबई में शुरू हो चुकी थी. देव आनंद ने उसी गवर्नमेंट कालेज लाहौर से पढाई की थी जहां देश के बड़े बड़े बुद्धिजीवी गए थे. लाहौर से अंग्रेज़ी में बी ए करने के बाद वे मुंबई चले गए जहां उनके बड़े भाई चतन आनंद रोज़गार के तलाश में पहले से ही रहते थे. दूसरे विश्व युद्ध का ज़माना था. उन्हें मुंबई में फौजी दफ्तर में एक क्लर्क की नौकरी मिल गयी.मुंबई में उन्हीं दिनों महात्मा गाँधी के नाम का तूफ़ान चल रहा था. ख्वाजा अहमद अब्बास की प्रेरणा और प्रयास से इप्टा ( इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसियेशन ) की स्थापना हो चुकी थी . चेतन आनंद इप्टा में जुट चुके थे, देव आनंद भी उनके साथ नाटक के ज़रिते जान जागरण के अभियान में जुट गए. वहां उनकी मुलाक़ात होमी भाभा, क्रिशन चंदर ,कैफ़ी आज़मी ,मजरूह सुल्तानपुरी साहिर लुधियानवी ,बलराज साहनी ,मोहन सहगल, मुल्क राज आनंद, रोमेश थापर, शैलेन्द्र ,प्रेम धवन ,इस्मत चुगताई .ए के हंगल, हेमंत कुमार , अदी मर्जबान,सलिल चौधरी जैसे कम्युनिस्टों से हुई . एक बेहतरीन कलात्मक जीवन की बुनियाद पड़ चुकी थी. १९४२-४३ में बने यह दोस्त जब तक जीवित रहे ,देव आनंद की बुलंदियों को और ऊंचा करने में सहयोग करते रहे. यह सब यह दुनिया छोड़कर जा चुके हैं . अफ़सोस, आज इप्टा का आख़िरी महान कलाकार भी अलविदा कह गया.
नाटकों में तो वे अपने भाई और बलराज साहनी के साथ बहुत कुछ काम करते रहे लेकिन पहला फ़िल्मी ब्रेक उनको १९४६ में मिला जब महान कलाकार ,अशोक कुमार ने उन्हें प्रभात टाकीज की फिल्म हम एक हैं में काम दे दिया . इसी फिल्म की शूटिंग के दौरान उनकी मुलाक़ात , गुरु दत्त से हुई, जो गुरु दत्त के जीवन भर चली. इसी दोस्ती का नतीजा था कि जब देव आनंद ने अपनी फिल्म कंपनी नवकेतन के बैनर तले, व्लादिमीर गोगोल के विख्यात नाटक , इन्स्पेक्टर जनरल के आधार पर फिल्म बाज़ी बनाने का फैसला किया तो उनके इप्टा वाले कई साथी साथ आये. इस फिल्म की कहानी और संवाद बलराज सहनी ने लिखा, गुरु दत्त की यह पहली निर्देशित फिल्म है , साहिर लुधियानवी ने गाने लिखे , सचिन देव बर्मन ने संगीत दिया और अपनी भावी पत्नी कल्पना कार्तिक के साथ देव आनंद ने इस फिल्म में मुख्य भूमिका निभाई. यह देव आनद का ही जज्बा था कि बहुत सारे नए लोगों के साथ उन्होंने फिल्म बानने का रिस्क लिया . इस फिल्म में ही बलराज साहनी पहली बार लेखक के रूप में देखे गए . गीतकार के रूप में साहिर लुधियानवी की यह पहली फिल्म है , गुरुदत्त और सचिन देव बर्मन की भी पहली फिल्म है . लेकिन देव आनंद ने बाज़ी लगाई और एक बहुत ही सफल फिल्म बन गयी. बाकी ज़िंदगी में भी देव आनंद इस तरह के खतरों से खेलते रहे , प्रयोग करते रहे , नए नए लोगों को फ़िल्मी परदे पर बड़े बड़े काम के लिए उतारते रहे. आज जब भारतीय सिनेमा के इतिहास पर नज़र डालते हैं तो साफ़ समझ में आ जाता है कि रावी नदी के किनारे के इस छोरे की रिस्क लेने की ताक़त की वजह से ही आज हम भारतीय सिनेमा के बहुत बड़े कलाकारों को जानते हैं .उन्होंने अपनी पहली फिल्म में ही नए लोगों को मौक़ा दिया . बाद में भी शत्रुघ्न सिन्हा को प्रेम पुजारी में ब्रेक दिया , जीनत अमान, टीना मुनीम जैसी अभिनेत्रियों को खोज निकाला. उनके कुछ प्रयोग बुरी तरह से फेल भी हुए . जाहिदा और नताशा नाम की अनजान लड़कियों को उन्होंने अपनी बहुत बड़ी फिल्मों में मुख्य भूमिका दी लेकिन वे अभिनय नहीं कर सकीं , कहीं खो गयीं . अपने बेटे सुनील को भी उन्होंने हीरो बनाने की कोशिश की. सफल विदेशी फिल्म क्रेमर बनाम क्रेमर की तरह की आनंद बनाम आनंद बनायी लेकिन सुनील अभिनय कला में माहिर नहीं थे. देव आनंद ने मनोज कुमार या राजेंद्र कुमार की तरह अपने बेटे को अभिनेता बनने की जिद नहीं की, उसे और काम में लगा दिया .
देव आनंद ने जो कुछ भी किया वह सिनेमा हो गया . साठ और सत्तर के दशक में देव आनंद जो करते थे,वही फैशन हो जाता था. उनके नाम से बहुत सारी कहानियाँ भी चला दी जाती थी, १९६७ में मुझे कई लोगों ने बताया था कि देव आनंद के ऊपर सरकारी रोक लगी हुई है कि वे सफ़ेद पैंट और काली कमीज़ नहीं पहन सकते . उस पोशाक में वे इतने ज्यादा आकर्षक लगते थे कि जिधर जाते हैं उधर लडकियां उनके पीछे दौड़ पड़ती हैं .यह बकवास थी लेकिन एक कहानी के रूप में चल गयी थी. उनके स्टाइल को सभी कापी करते थे. उनके समकालीन दिलीप कुमार और राज कपूर भी बहुत बड़े अभिनेता थे लेकिन जो जलवा देव आनंद का था ,वह किसी का नहीं .अपने समय की सबसे खूबसूरत अभिनत्रियों ने देव आनंद के साथ काम किया था. सुरैया , मधुबाला , नूतन, वहीदा रहमान, हेमा मालिनी, जीनत अमान, टीना मुनीम ,मुमताज को इस बात पर हमेशा गर्व रहा कि वे देव आनंद की हीरोइन रह चुकी हैं.
देव आनंद को उनकी हिम्मत के लिए हमेशा याद किया जाएगा.फिल्मों में तो वे प्रयोग करते ही रहे , इंसाफ़ के पक्षधर के रूप में अपने आपको स्थापित करने के मामले में भी उनका कोई जोड़ नहीं है . १९७५ में जब इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगाई तो देव आनंद ने उसका विरोध किया. यह वही दौर है जब मुंबई की फिल्मी दुनिया के लोग लाइन लगाकर संजय गाँधी और इंदिरा गांधी की जय जयकार कर रहे थे , उन्हीं दिनों किशोर कुमार और देव आनंद ने तानाशाही के खिलाफ मोर्चा खोल दिया . संजय गांधी ने दूरदर्शन पर उनकी फिल्मों और किशोर कुमार के गानों को बंद करवा दिया. उन दिनों दूरदर्शन ही इकलौता टी वी चैनल होता था . लेकिन इन दोनों ने परवाह नहीं की. देव आनंद ने तो एक राजनीतिक पार्टी भी बनायी . बाद में जब जनता पार्टी की जीत हुई तो और सारे नव निर्वाचित सांसद दिल्ली के राज घाट स्थित महात्मा गांधी की समाधि पर क़सम खाने गए तो देव आनंद भी वहां मौजूद थे . सबकी नज़र उनके सामने इज्ज़त से झुक झुक जाती थी.
देव आनंद की शख्सियत को आंकड़ों के ज़रिये समझ पाना थोडा मुश्किल है . उन्हें वे सभी पुरस्कार और सम्मान मिले जो बड़े सिनेमा वालों को मिलते हैं , दादा साहेब फाल्के, पद्म भूषण , फिल्मफेयर जैसे सभी सम्मान उन्हें मिले लेकिन जो सबसे बड़ा सम्मान उन्हें मिला वह यह कि उन्होंने भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक मील का पत्थर स्थापित किया .आज देव आनंद नहीं है , जाना ही था , सभी जाते हैं . लेकिन मन में एक हूक सी उठती है कि काश देव आनंद न जाते ..
देव आनंद ने आज ज़िंदगी का साथ निभाना बंद कर दिया,हालांकि उन्होंने बार बार यह ऐलान किया था कि वे ज़िंदगी साथ निभाते चले जायेगें. देव आनंद ने अपनी सारी ज़िंदगी फिल्मों को समर्पित की इसलिए उन्हें फिल्मकार के रूप में ही याद किया जाएगा. लेकिन उनकी एक ज़िन्दगी वह भी है जो १९४६ में फ़िल्मी कैरियर शुरू होने के पहले मुंबई में शुरू हो चुकी थी. देव आनंद ने उसी गवर्नमेंट कालेज लाहौर से पढाई की थी जहां देश के बड़े बड़े बुद्धिजीवी गए थे. लाहौर से अंग्रेज़ी में बी ए करने के बाद वे मुंबई चले गए जहां उनके बड़े भाई चतन आनंद रोज़गार के तलाश में पहले से ही रहते थे. दूसरे विश्व युद्ध का ज़माना था. उन्हें मुंबई में फौजी दफ्तर में एक क्लर्क की नौकरी मिल गयी.मुंबई में उन्हीं दिनों महात्मा गाँधी के नाम का तूफ़ान चल रहा था. ख्वाजा अहमद अब्बास की प्रेरणा और प्रयास से इप्टा ( इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसियेशन ) की स्थापना हो चुकी थी . चेतन आनंद इप्टा में जुट चुके थे, देव आनंद भी उनके साथ नाटक के ज़रिते जान जागरण के अभियान में जुट गए. वहां उनकी मुलाक़ात होमी भाभा, क्रिशन चंदर ,कैफ़ी आज़मी ,मजरूह सुल्तानपुरी साहिर लुधियानवी ,बलराज साहनी ,मोहन सहगल, मुल्क राज आनंद, रोमेश थापर, शैलेन्द्र ,प्रेम धवन ,इस्मत चुगताई .ए के हंगल, हेमंत कुमार , अदी मर्जबान,सलिल चौधरी जैसे कम्युनिस्टों से हुई . एक बेहतरीन कलात्मक जीवन की बुनियाद पड़ चुकी थी. १९४२-४३ में बने यह दोस्त जब तक जीवित रहे ,देव आनंद की बुलंदियों को और ऊंचा करने में सहयोग करते रहे. यह सब यह दुनिया छोड़कर जा चुके हैं . अफ़सोस, आज इप्टा का आख़िरी महान कलाकार भी अलविदा कह गया.
नाटकों में तो वे अपने भाई और बलराज साहनी के साथ बहुत कुछ काम करते रहे लेकिन पहला फ़िल्मी ब्रेक उनको १९४६ में मिला जब महान कलाकार ,अशोक कुमार ने उन्हें प्रभात टाकीज की फिल्म हम एक हैं में काम दे दिया . इसी फिल्म की शूटिंग के दौरान उनकी मुलाक़ात , गुरु दत्त से हुई, जो गुरु दत्त के जीवन भर चली. इसी दोस्ती का नतीजा था कि जब देव आनंद ने अपनी फिल्म कंपनी नवकेतन के बैनर तले, व्लादिमीर गोगोल के विख्यात नाटक , इन्स्पेक्टर जनरल के आधार पर फिल्म बाज़ी बनाने का फैसला किया तो उनके इप्टा वाले कई साथी साथ आये. इस फिल्म की कहानी और संवाद बलराज सहनी ने लिखा, गुरु दत्त की यह पहली निर्देशित फिल्म है , साहिर लुधियानवी ने गाने लिखे , सचिन देव बर्मन ने संगीत दिया और अपनी भावी पत्नी कल्पना कार्तिक के साथ देव आनंद ने इस फिल्म में मुख्य भूमिका निभाई. यह देव आनद का ही जज्बा था कि बहुत सारे नए लोगों के साथ उन्होंने फिल्म बानने का रिस्क लिया . इस फिल्म में ही बलराज साहनी पहली बार लेखक के रूप में देखे गए . गीतकार के रूप में साहिर लुधियानवी की यह पहली फिल्म है , गुरुदत्त और सचिन देव बर्मन की भी पहली फिल्म है . लेकिन देव आनंद ने बाज़ी लगाई और एक बहुत ही सफल फिल्म बन गयी. बाकी ज़िंदगी में भी देव आनंद इस तरह के खतरों से खेलते रहे , प्रयोग करते रहे , नए नए लोगों को फ़िल्मी परदे पर बड़े बड़े काम के लिए उतारते रहे. आज जब भारतीय सिनेमा के इतिहास पर नज़र डालते हैं तो साफ़ समझ में आ जाता है कि रावी नदी के किनारे के इस छोरे की रिस्क लेने की ताक़त की वजह से ही आज हम भारतीय सिनेमा के बहुत बड़े कलाकारों को जानते हैं .उन्होंने अपनी पहली फिल्म में ही नए लोगों को मौक़ा दिया . बाद में भी शत्रुघ्न सिन्हा को प्रेम पुजारी में ब्रेक दिया , जीनत अमान, टीना मुनीम जैसी अभिनेत्रियों को खोज निकाला. उनके कुछ प्रयोग बुरी तरह से फेल भी हुए . जाहिदा और नताशा नाम की अनजान लड़कियों को उन्होंने अपनी बहुत बड़ी फिल्मों में मुख्य भूमिका दी लेकिन वे अभिनय नहीं कर सकीं , कहीं खो गयीं . अपने बेटे सुनील को भी उन्होंने हीरो बनाने की कोशिश की. सफल विदेशी फिल्म क्रेमर बनाम क्रेमर की तरह की आनंद बनाम आनंद बनायी लेकिन सुनील अभिनय कला में माहिर नहीं थे. देव आनंद ने मनोज कुमार या राजेंद्र कुमार की तरह अपने बेटे को अभिनेता बनने की जिद नहीं की, उसे और काम में लगा दिया .
देव आनंद ने जो कुछ भी किया वह सिनेमा हो गया . साठ और सत्तर के दशक में देव आनंद जो करते थे,वही फैशन हो जाता था. उनके नाम से बहुत सारी कहानियाँ भी चला दी जाती थी, १९६७ में मुझे कई लोगों ने बताया था कि देव आनंद के ऊपर सरकारी रोक लगी हुई है कि वे सफ़ेद पैंट और काली कमीज़ नहीं पहन सकते . उस पोशाक में वे इतने ज्यादा आकर्षक लगते थे कि जिधर जाते हैं उधर लडकियां उनके पीछे दौड़ पड़ती हैं .यह बकवास थी लेकिन एक कहानी के रूप में चल गयी थी. उनके स्टाइल को सभी कापी करते थे. उनके समकालीन दिलीप कुमार और राज कपूर भी बहुत बड़े अभिनेता थे लेकिन जो जलवा देव आनंद का था ,वह किसी का नहीं .अपने समय की सबसे खूबसूरत अभिनत्रियों ने देव आनंद के साथ काम किया था. सुरैया , मधुबाला , नूतन, वहीदा रहमान, हेमा मालिनी, जीनत अमान, टीना मुनीम ,मुमताज को इस बात पर हमेशा गर्व रहा कि वे देव आनंद की हीरोइन रह चुकी हैं.
देव आनंद को उनकी हिम्मत के लिए हमेशा याद किया जाएगा.फिल्मों में तो वे प्रयोग करते ही रहे , इंसाफ़ के पक्षधर के रूप में अपने आपको स्थापित करने के मामले में भी उनका कोई जोड़ नहीं है . १९७५ में जब इंदिरा गाँधी ने इमरजेंसी लगाई तो देव आनंद ने उसका विरोध किया. यह वही दौर है जब मुंबई की फिल्मी दुनिया के लोग लाइन लगाकर संजय गाँधी और इंदिरा गांधी की जय जयकार कर रहे थे , उन्हीं दिनों किशोर कुमार और देव आनंद ने तानाशाही के खिलाफ मोर्चा खोल दिया . संजय गांधी ने दूरदर्शन पर उनकी फिल्मों और किशोर कुमार के गानों को बंद करवा दिया. उन दिनों दूरदर्शन ही इकलौता टी वी चैनल होता था . लेकिन इन दोनों ने परवाह नहीं की. देव आनंद ने तो एक राजनीतिक पार्टी भी बनायी . बाद में जब जनता पार्टी की जीत हुई तो और सारे नव निर्वाचित सांसद दिल्ली के राज घाट स्थित महात्मा गांधी की समाधि पर क़सम खाने गए तो देव आनंद भी वहां मौजूद थे . सबकी नज़र उनके सामने इज्ज़त से झुक झुक जाती थी.
देव आनंद की शख्सियत को आंकड़ों के ज़रिये समझ पाना थोडा मुश्किल है . उन्हें वे सभी पुरस्कार और सम्मान मिले जो बड़े सिनेमा वालों को मिलते हैं , दादा साहेब फाल्के, पद्म भूषण , फिल्मफेयर जैसे सभी सम्मान उन्हें मिले लेकिन जो सबसे बड़ा सम्मान उन्हें मिला वह यह कि उन्होंने भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक मील का पत्थर स्थापित किया .आज देव आनंद नहीं है , जाना ही था , सभी जाते हैं . लेकिन मन में एक हूक सी उठती है कि काश देव आनंद न जाते ..
Sunday, December 4, 2011
विद्या बालन बहुत बड़ी कलाकार हैं
शेष नारायण सिंह
विद्या बालन की फिल्म डर्टी पिक्चर देखने का मौक़ा मिला..इसके पहले महीनों से पी आर वालों की कृपा से चल रहे प्रोमो की भीड़ में लगता था कि फिल्म बनाने वालों ने प्रचार प्रसार के लिए खूब पैसा झोंका है ,इसलिए लग रहा था कि डर्टी पिक्चर भी बाकी फिल्मों जैसी ही एक फिल्म होगी जिसमें हर तरह के मसाले अपनाए गए होंगें . फिल्म की कहानी वगैरह भी वैसी ही थी. हर तरह का मसाला था. नसीरुद्दीन शाह जैसे समर्थ अभिनेता की घटिया एक्टिंग थी . नसीर आम तौर पर ऐसी रद्दी एक्टिंग नहीं करते. लेकिन ६५ साल की उम्र में जो काम मिलता है ,वह कर लेना ठीक रहता है . क़र्ज़ में डूबे अमिताभ बच्चन ने भी कभी लोगों को करोड़पति बनाने का लालच देने वाले लोगों का साथ कर लिया था और लालच के धंधे में लोगों को फंसाने वालों के साथ मिलकर पैसा कमाया था और अपना क़र्ज़ उतारा था. इमरान हाशमी से किसी एक्टिंग की उम्मीद कोई नहीं करता,उनकी तो फिल्म में मौजूदगी ही उनको रोटी पानी भर के पैसे का बंदोबस्त कर देती है . तुषार कपूर भी ठीक हैं . जब उनकी अम्मा और उनकी बहन फिल्म के प्रोड्यूसर हों तो उनको भी छोटा मोटा रोल मिल जाना कोई बड़ी बात नहीं है . पैसा उनकी अम्मा का है जो चाहें करें . वैसे भी जब इमरान हाशमी आदि जैसे एक्टर फिल्म में रोल पा रहे हैं तो तुषार तो घर के बन्दे हैं .
लेकिन फिल्म ने एक बात मेरे दिलो दिमाग पर बैठा दी है कि यह विद्या बालन बहुत बड़ी कलाकार है . जिस तरीके से उसने अभिव्यक्ति को जीवंत रूप दिया है वह न भूतो न भविष्यति है . एक्सप्रेशन के व्याकरण को उसने बिलकुल शास्त्रीय अर्थ बख्श दिया है . कहीं वहीदा रहमान लगती है तो कहीं रेखा . कहीं स्मिता पाटिल तो कहीं शबाना आजमी . समझ में नहीं आता कि करीब एक सौ अलग अलग तरह के भाव वाले चेहरे कैसे जी लिया है इस लडकी ने . और जिस फ्लैश में चेहरे की कुछ लकीरें, बात करते करते बदल जाती है,क्या बात है . लगता है कि आचार्य भरत के नाट्य शास्त्र के चेहरे की अभिव्यक्ति वाले किसी चैप्टर का लैब में डिमान्स्ट्रेशन चल रहा हो . आज ही देव आनंद गए हैं और वे यह कहते हुए गए हैं कि उनका सबसे अच्छा काम अभी आने वाला है . उनके इस बयान को उनकी जिंदादिली का उदाहरण माना जाता है लेकिन एक बात बहुत ही भरोसे के साथ कही जा सकती है कि बुलंदियों पर मौजूद विद्या बालन का सबसे अच्छा काम अभी आने वाला है . आने वाले वर्षों में सिनेमा के जानकारों को विद्या बालन पर नज़र रखना पड़ेगा . अगर नज़र नहीं रख सके तो कुछ छूट जाएगा क्योंकि विदा बालन के अभिनय की बुलंदियां आनी अभी बाकी हैं .
विद्या बालन की फिल्म डर्टी पिक्चर देखने का मौक़ा मिला..इसके पहले महीनों से पी आर वालों की कृपा से चल रहे प्रोमो की भीड़ में लगता था कि फिल्म बनाने वालों ने प्रचार प्रसार के लिए खूब पैसा झोंका है ,इसलिए लग रहा था कि डर्टी पिक्चर भी बाकी फिल्मों जैसी ही एक फिल्म होगी जिसमें हर तरह के मसाले अपनाए गए होंगें . फिल्म की कहानी वगैरह भी वैसी ही थी. हर तरह का मसाला था. नसीरुद्दीन शाह जैसे समर्थ अभिनेता की घटिया एक्टिंग थी . नसीर आम तौर पर ऐसी रद्दी एक्टिंग नहीं करते. लेकिन ६५ साल की उम्र में जो काम मिलता है ,वह कर लेना ठीक रहता है . क़र्ज़ में डूबे अमिताभ बच्चन ने भी कभी लोगों को करोड़पति बनाने का लालच देने वाले लोगों का साथ कर लिया था और लालच के धंधे में लोगों को फंसाने वालों के साथ मिलकर पैसा कमाया था और अपना क़र्ज़ उतारा था. इमरान हाशमी से किसी एक्टिंग की उम्मीद कोई नहीं करता,उनकी तो फिल्म में मौजूदगी ही उनको रोटी पानी भर के पैसे का बंदोबस्त कर देती है . तुषार कपूर भी ठीक हैं . जब उनकी अम्मा और उनकी बहन फिल्म के प्रोड्यूसर हों तो उनको भी छोटा मोटा रोल मिल जाना कोई बड़ी बात नहीं है . पैसा उनकी अम्मा का है जो चाहें करें . वैसे भी जब इमरान हाशमी आदि जैसे एक्टर फिल्म में रोल पा रहे हैं तो तुषार तो घर के बन्दे हैं .
लेकिन फिल्म ने एक बात मेरे दिलो दिमाग पर बैठा दी है कि यह विद्या बालन बहुत बड़ी कलाकार है . जिस तरीके से उसने अभिव्यक्ति को जीवंत रूप दिया है वह न भूतो न भविष्यति है . एक्सप्रेशन के व्याकरण को उसने बिलकुल शास्त्रीय अर्थ बख्श दिया है . कहीं वहीदा रहमान लगती है तो कहीं रेखा . कहीं स्मिता पाटिल तो कहीं शबाना आजमी . समझ में नहीं आता कि करीब एक सौ अलग अलग तरह के भाव वाले चेहरे कैसे जी लिया है इस लडकी ने . और जिस फ्लैश में चेहरे की कुछ लकीरें, बात करते करते बदल जाती है,क्या बात है . लगता है कि आचार्य भरत के नाट्य शास्त्र के चेहरे की अभिव्यक्ति वाले किसी चैप्टर का लैब में डिमान्स्ट्रेशन चल रहा हो . आज ही देव आनंद गए हैं और वे यह कहते हुए गए हैं कि उनका सबसे अच्छा काम अभी आने वाला है . उनके इस बयान को उनकी जिंदादिली का उदाहरण माना जाता है लेकिन एक बात बहुत ही भरोसे के साथ कही जा सकती है कि बुलंदियों पर मौजूद विद्या बालन का सबसे अच्छा काम अभी आने वाला है . आने वाले वर्षों में सिनेमा के जानकारों को विद्या बालन पर नज़र रखना पड़ेगा . अगर नज़र नहीं रख सके तो कुछ छूट जाएगा क्योंकि विदा बालन के अभिनय की बुलंदियां आनी अभी बाकी हैं .
Saturday, December 3, 2011
शुक्रवार के दिन गैरसरकारी संसदसदस्य बड़े कानून बना सकते हैं .
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली, २ दिसंबर.आज नौवें दिन भी संसद में कोई काम नहीं हो सका. शीतकालीन सत्र का आधा वक़्त ख़त्म हो चुका है और अभी यह उम्मीद नज़र नहीं आ रही है कि आने वाले दिनों में भी कोई काम काज हो सकेगा. इसी सत्र में लोकपाल बिल भी पास होना है जिसके लिए राजनीतिक वातावरण पहले से ही बहुत गर्म हो चुका है . लोकपाल कानून को पास कराने के लिए शुरू किये गए आन्दोलन से सुर्ख़ियों में आये अन्ना हजारे और उनके संगी साथी अभी से ताल ठोंक रहे हैं . ज़ाहिर है आने वाला समय देश की राजनीति में बहुत ही दिलचस्प होगा.
आज शुक्रवार है .संसद में शुक्रवार का दिन वैसे भी ढीला माना जाता है . शुक्रवार का दिन उन सदस्यों के विधायी काम के लिए रिज़र्व रखा गया है जो सरकार में नहीं है . संसद के समय का बहुत बड़ा हिस्सा सरकारी विधायी कार्य को समर्पित होता है . इसलिए वे कानून धरे रह जाते हैं जिसे सरकार की मर्जी के खिलाफ सदस्य लाना चाहते हैं . इसीलिये १९५२ से ही शुक्रवार का दिन प्राइवेट मेंबर बिल के लिए आरक्षित कर दिया गया है . इस दिन सदस्य ऐसा कोई भी प्रस्ताव संसद के विचार के लिए ला सकते हैं जिसको वे जनहित में कानून बनाना चाहते हैं . पिछले ५९ वर्षों में हज़ारों प्राइवेट मेंबर बिल संसद के दोनों सदनों में पेश किये जा चुके हैं . जिनमें से १४ अब तक कानून भी बन चुके हैं . ऐसा ही एक बिल १९५६ में रायबरेली के कांग्रेस सांसद फीरोज़ गांधी ने पेश किया था जिसकी वजह से आज संसद की कार्यवाही आम आदमी तक पंहुच पाती है . उसके पहले संसद की कार्यवाही को रिपोर्ट करने की पूरी छूट नहीं होती थी. हुआ यह था कि उस वक़्त के वित्तमंत्री ने बिरला औद्योगिक घराने के बारे में कोई बयान दिया था . लेकिन अगले दिन के अखबारों में उसका कहीं भी कोई उल्लेख नहीं था. राजनीतिक आचरण में शुचिता के पक्षधर फीरोज़ गांधी को यह बात ठीक नहीं लगी. उन्होंने लोकसभा में एक प्राइवेट मेंबर बिल पेश किया जिसका उद्देश्य संसद की कार्यवाही को रिपोर्ट करने के काम को बंदिशों से आज़ाद कराना था . . उन्होंने कहा कि मैं इस सदन में जनता का प्रतिनधि हूँ . मैं जो कुछ भी यहाँ बोलता हूँ उसे जनता तक पंहुचाना प्रेस की ड्यूटी है. मैं आग्रह करता हूँ कि एक ऐसा क़ानून बनाया जाय जिस से सदन की कार्यवाही वर्बेटिम ( अक्षरशः ) रिपोर्ट की जा सके. यह भी प्रावधान किया जाना चाहिये कि उन संवाददाताओं के ऊपर संसद की कार्यवाही रिपोर्ट करने के लिए कोई भी मानहानि का मुक़दमा न चलाया जा सके या उनके ऊपर कोई जुरमाना न हो सके. आज संसद के अंदर होने वाली हर बात को पूरा देश जानता है . वह एक प्राइवेट मेबर बिल के ज़रिये ही कानून बन सका था लेकिन आजकल अजीब माहौल है . ज़्यादातर संसद सदस्य गुरुवार को ही दिल्ली छोड़ देते हैं और शुक्रवार का दिन आम तौर पर खाली माना जाता है . जबकि सच्चाई यह है कि अगर संसद सदस्य रचनात्मक तरीके से काम करें तो शुक्रवार के दिन का बहुत ही अच्छा इस्तेमाल किया जा सकता है .
नई दिल्ली, २ दिसंबर.आज नौवें दिन भी संसद में कोई काम नहीं हो सका. शीतकालीन सत्र का आधा वक़्त ख़त्म हो चुका है और अभी यह उम्मीद नज़र नहीं आ रही है कि आने वाले दिनों में भी कोई काम काज हो सकेगा. इसी सत्र में लोकपाल बिल भी पास होना है जिसके लिए राजनीतिक वातावरण पहले से ही बहुत गर्म हो चुका है . लोकपाल कानून को पास कराने के लिए शुरू किये गए आन्दोलन से सुर्ख़ियों में आये अन्ना हजारे और उनके संगी साथी अभी से ताल ठोंक रहे हैं . ज़ाहिर है आने वाला समय देश की राजनीति में बहुत ही दिलचस्प होगा.
आज शुक्रवार है .संसद में शुक्रवार का दिन वैसे भी ढीला माना जाता है . शुक्रवार का दिन उन सदस्यों के विधायी काम के लिए रिज़र्व रखा गया है जो सरकार में नहीं है . संसद के समय का बहुत बड़ा हिस्सा सरकारी विधायी कार्य को समर्पित होता है . इसलिए वे कानून धरे रह जाते हैं जिसे सरकार की मर्जी के खिलाफ सदस्य लाना चाहते हैं . इसीलिये १९५२ से ही शुक्रवार का दिन प्राइवेट मेंबर बिल के लिए आरक्षित कर दिया गया है . इस दिन सदस्य ऐसा कोई भी प्रस्ताव संसद के विचार के लिए ला सकते हैं जिसको वे जनहित में कानून बनाना चाहते हैं . पिछले ५९ वर्षों में हज़ारों प्राइवेट मेंबर बिल संसद के दोनों सदनों में पेश किये जा चुके हैं . जिनमें से १४ अब तक कानून भी बन चुके हैं . ऐसा ही एक बिल १९५६ में रायबरेली के कांग्रेस सांसद फीरोज़ गांधी ने पेश किया था जिसकी वजह से आज संसद की कार्यवाही आम आदमी तक पंहुच पाती है . उसके पहले संसद की कार्यवाही को रिपोर्ट करने की पूरी छूट नहीं होती थी. हुआ यह था कि उस वक़्त के वित्तमंत्री ने बिरला औद्योगिक घराने के बारे में कोई बयान दिया था . लेकिन अगले दिन के अखबारों में उसका कहीं भी कोई उल्लेख नहीं था. राजनीतिक आचरण में शुचिता के पक्षधर फीरोज़ गांधी को यह बात ठीक नहीं लगी. उन्होंने लोकसभा में एक प्राइवेट मेंबर बिल पेश किया जिसका उद्देश्य संसद की कार्यवाही को रिपोर्ट करने के काम को बंदिशों से आज़ाद कराना था . . उन्होंने कहा कि मैं इस सदन में जनता का प्रतिनधि हूँ . मैं जो कुछ भी यहाँ बोलता हूँ उसे जनता तक पंहुचाना प्रेस की ड्यूटी है. मैं आग्रह करता हूँ कि एक ऐसा क़ानून बनाया जाय जिस से सदन की कार्यवाही वर्बेटिम ( अक्षरशः ) रिपोर्ट की जा सके. यह भी प्रावधान किया जाना चाहिये कि उन संवाददाताओं के ऊपर संसद की कार्यवाही रिपोर्ट करने के लिए कोई भी मानहानि का मुक़दमा न चलाया जा सके या उनके ऊपर कोई जुरमाना न हो सके. आज संसद के अंदर होने वाली हर बात को पूरा देश जानता है . वह एक प्राइवेट मेबर बिल के ज़रिये ही कानून बन सका था लेकिन आजकल अजीब माहौल है . ज़्यादातर संसद सदस्य गुरुवार को ही दिल्ली छोड़ देते हैं और शुक्रवार का दिन आम तौर पर खाली माना जाता है . जबकि सच्चाई यह है कि अगर संसद सदस्य रचनात्मक तरीके से काम करें तो शुक्रवार के दिन का बहुत ही अच्छा इस्तेमाल किया जा सकता है .
अमेठी के राजा ने दिखाए बगावती तेवर
शेष नारायण सिंह
नई दिल्ली,२९ नवम्बर . कांग्रेस पार्टी की मुसीबतें बढ़ती ही जा रही हैं . पार्टी के महसचिव, राहुल गाँधी के तुफैल में दिल्ली में बुलाये गए यूथ कांग्रेस वालों को आज प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राजनीति के बारे में बताया लेकिन लगता है कि उत्तर प्रदेश में एक राजनीतिक गलती के बाद उससे भी बड़ी गलती कर रहे राहुल गांधी के सामने असली समस्याएं आना शुरू हो गयी हैं . आज राहुल गांधी के चुनाव क्षेत्र ,अमेठी के राजा और उनकी पड़ोसी सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीतकर आये संसद सदस्य संजय सिंह ने खुदरा कारोबार के अलोकप्रिय मुद्दे पर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया . लोकसभा के कल तक के लिए स्थगित होने के बाद उन्होंने संसद भवन परिसर में ही पत्रकारों को बताया कि खुदरा कारोबार में विदेशी कंपनियों को पूंजी निवेश के लिए बुलाना बिकुल गलत राजनीति है . उन्होंने कहा कि यह कांग्रेस पार्टी की मूल राजनीतिक विचार धारा से बिलकुल अलग है और इसका विरोध किया जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि वे इसके खिलाफ हैं और वे प्रधान मंत्री को इसके बारे में पत्र लिख कर आगाह करने जा रहे हैं .उनका दावा है कि यह फैसला इस देश के आम आदमी पर सीधा वार करेगा और कम से कम यह तो कांग्रेस की राजनीति का मकसद कभी नहीं रहा कि आम आदमी को परेशान किया जाए.
उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनावों में एक मज़बूत राजनीतिक हैसियत के लिए अभियान चला रही कांग्रेस पार्टी के लिए यह एक गैरमामूली चुनौती है . संजय सिंह का विरोध किसी एक एम पी का विरोध नहीं है . इस विरोध का खामियाजा कांग्रेस को तो भोगना ही पड़ेगा . खुद राहुल गांधी को अपने इलाके में पाँचों विधान सभा सीटें जीतने का सपना भूल जाना पडेगा. अगर कहीं संसद में दुर्दशा झेल रही कांग्रेस के पतन की शुरुआत हो गयी तो राहुल गांधी को राजनीति के सपने से भी तौबा करना पड़ सकता है . संजय सिंह के करीबी लोगों ने संकेत दिया है कि राहुल गांधी के पड़ोसी क्षेत्र से और उसी जिले से एम पी होने के बावजूद राहुल गांधी ने संजय सिंह से दूरी बना कर रखा हुआ है . हद तो तब हो गयी जब राहुल गांधी ने पिछले हफ्ते लखनऊ के आस पास के जिलों में जनसंपर्क अभियान शुरू किया . उस अभियान में उनके साथ इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा और बाराबंकी के सांसद पी एल पुनिया सर्वेसर्वा के तौर पर मौजूद थे. उस इलाके की राजनीति जानने वालों का दावा है कि कांग्रेस सांसद जगदम्बिका पाल के घर के पास जब २५ नवम्बर को राहुल गांधी की सभा हुई ,उसी दिन दिल्ली में जगदम्बिका पाल के बेटे का रिसेप्शन था. यह कार्यक्रम करीब तीन महीने पहले से तय था लेकिन ऐन उसी दिन राहुल गांधी ने उनके गाँव के पास सभा की . सभा में जगदम्बिका पाल नहीं थे. संजय सिंह को भी वहां नहीं बुलाया गया था. एक सन्देश देने की कोशिश की गयी थी कि उत्तर प्रदेश में अब संजय सिंह और जगदम्बिका पाल जैसे लोगों की कोई ज़रुरत नहीं है , उनकी कमी को दिग्विजय सिंह बहुत ही प्रभाव शाली तरीके से पूरा कर रहे हैं. बताते हैं कि संजय सिंह का आज मीडिया से मुखातिब होना इसी तिरस्कार की राजनीति का एक नतीजा है .संजय गाँधी के १९७५-७६ वाले अमेठी कैम्प से हाईलाईट हुए जगदम्बिका पाल और संजय सिंह यू पी की राजनीति में इतना कुछ बिगाड़ सकते हैं जिसका अभी तक राहुल गांधी के नए सिपहसालार बने बेनी प्रसाद वर्मा और पी एल पुनिया को अंदाज़ तक नहीं होगा. संजय सिंह ने तो बोलना शुरू कर दिया है लेकिन अभी जगदम्बिका पाल चुप हैं लेकिन उनके करीबी लोगों का कहना है कि २५ तारीख को खलीलाबाद में सभा करके राहुल गांधी ने ऐसी हालत पैदा कर दी है कि अब जगदम्बिका पाल कांग्रेस के लिए वोट मांगने जायेगें तो उनके अपने लोग ही उन्हें गंभीरता से नहीं लेगें . संजय सिंह की भी यही हालत अमेठी में हो चुकी है . सरकार के खिलाफ बयान देकर वे अपने आपको ऐसी स्थिति में लाने की कोशिश कर रहे हैं कि कम से कम चुनाव के वक़्त वे इलाके में जाकर कह सकें कि उन्होंने तो कांग्रेस की गलत नीतियों का विरोध किया था.
नई दिल्ली,२९ नवम्बर . कांग्रेस पार्टी की मुसीबतें बढ़ती ही जा रही हैं . पार्टी के महसचिव, राहुल गाँधी के तुफैल में दिल्ली में बुलाये गए यूथ कांग्रेस वालों को आज प्रधानमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राजनीति के बारे में बताया लेकिन लगता है कि उत्तर प्रदेश में एक राजनीतिक गलती के बाद उससे भी बड़ी गलती कर रहे राहुल गांधी के सामने असली समस्याएं आना शुरू हो गयी हैं . आज राहुल गांधी के चुनाव क्षेत्र ,अमेठी के राजा और उनकी पड़ोसी सीट से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीतकर आये संसद सदस्य संजय सिंह ने खुदरा कारोबार के अलोकप्रिय मुद्दे पर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया . लोकसभा के कल तक के लिए स्थगित होने के बाद उन्होंने संसद भवन परिसर में ही पत्रकारों को बताया कि खुदरा कारोबार में विदेशी कंपनियों को पूंजी निवेश के लिए बुलाना बिकुल गलत राजनीति है . उन्होंने कहा कि यह कांग्रेस पार्टी की मूल राजनीतिक विचार धारा से बिलकुल अलग है और इसका विरोध किया जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि वे इसके खिलाफ हैं और वे प्रधान मंत्री को इसके बारे में पत्र लिख कर आगाह करने जा रहे हैं .उनका दावा है कि यह फैसला इस देश के आम आदमी पर सीधा वार करेगा और कम से कम यह तो कांग्रेस की राजनीति का मकसद कभी नहीं रहा कि आम आदमी को परेशान किया जाए.
उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनावों में एक मज़बूत राजनीतिक हैसियत के लिए अभियान चला रही कांग्रेस पार्टी के लिए यह एक गैरमामूली चुनौती है . संजय सिंह का विरोध किसी एक एम पी का विरोध नहीं है . इस विरोध का खामियाजा कांग्रेस को तो भोगना ही पड़ेगा . खुद राहुल गांधी को अपने इलाके में पाँचों विधान सभा सीटें जीतने का सपना भूल जाना पडेगा. अगर कहीं संसद में दुर्दशा झेल रही कांग्रेस के पतन की शुरुआत हो गयी तो राहुल गांधी को राजनीति के सपने से भी तौबा करना पड़ सकता है . संजय सिंह के करीबी लोगों ने संकेत दिया है कि राहुल गांधी के पड़ोसी क्षेत्र से और उसी जिले से एम पी होने के बावजूद राहुल गांधी ने संजय सिंह से दूरी बना कर रखा हुआ है . हद तो तब हो गयी जब राहुल गांधी ने पिछले हफ्ते लखनऊ के आस पास के जिलों में जनसंपर्क अभियान शुरू किया . उस अभियान में उनके साथ इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा और बाराबंकी के सांसद पी एल पुनिया सर्वेसर्वा के तौर पर मौजूद थे. उस इलाके की राजनीति जानने वालों का दावा है कि कांग्रेस सांसद जगदम्बिका पाल के घर के पास जब २५ नवम्बर को राहुल गांधी की सभा हुई ,उसी दिन दिल्ली में जगदम्बिका पाल के बेटे का रिसेप्शन था. यह कार्यक्रम करीब तीन महीने पहले से तय था लेकिन ऐन उसी दिन राहुल गांधी ने उनके गाँव के पास सभा की . सभा में जगदम्बिका पाल नहीं थे. संजय सिंह को भी वहां नहीं बुलाया गया था. एक सन्देश देने की कोशिश की गयी थी कि उत्तर प्रदेश में अब संजय सिंह और जगदम्बिका पाल जैसे लोगों की कोई ज़रुरत नहीं है , उनकी कमी को दिग्विजय सिंह बहुत ही प्रभाव शाली तरीके से पूरा कर रहे हैं. बताते हैं कि संजय सिंह का आज मीडिया से मुखातिब होना इसी तिरस्कार की राजनीति का एक नतीजा है .संजय गाँधी के १९७५-७६ वाले अमेठी कैम्प से हाईलाईट हुए जगदम्बिका पाल और संजय सिंह यू पी की राजनीति में इतना कुछ बिगाड़ सकते हैं जिसका अभी तक राहुल गांधी के नए सिपहसालार बने बेनी प्रसाद वर्मा और पी एल पुनिया को अंदाज़ तक नहीं होगा. संजय सिंह ने तो बोलना शुरू कर दिया है लेकिन अभी जगदम्बिका पाल चुप हैं लेकिन उनके करीबी लोगों का कहना है कि २५ तारीख को खलीलाबाद में सभा करके राहुल गांधी ने ऐसी हालत पैदा कर दी है कि अब जगदम्बिका पाल कांग्रेस के लिए वोट मांगने जायेगें तो उनके अपने लोग ही उन्हें गंभीरता से नहीं लेगें . संजय सिंह की भी यही हालत अमेठी में हो चुकी है . सरकार के खिलाफ बयान देकर वे अपने आपको ऐसी स्थिति में लाने की कोशिश कर रहे हैं कि कम से कम चुनाव के वक़्त वे इलाके में जाकर कह सकें कि उन्होंने तो कांग्रेस की गलत नीतियों का विरोध किया था.
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