शेष नारायण सिंह
कभी उर्दू की धूम सारे जहां में हुआ करती थी, दक्षिण एशिया का बेहतरीन साहित्य इसी भाषा में लिखा जाता था और उर्दू जानना पढ़े लिखे होने का सबूत माना जाता था। अब वह बात नही है। राजनीति के थपेड़ों को बरदाश्त करती भारत की यह भाषा आजकल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है।
वह उर्दू जो आज़ादी की ख्वाहिश के इज़हार का ज़रिया बनी आज एक धर्म विशेष के लोगों की जबान बताई जा रही है। इसी जबान में कई बार हमारा मुश्तरका तबाही के बाद गम और गुस्से का इज़हार भी किया गया था।
आज जिस जबान को उर्दू कहते हैं वह विकास के कई पड़ावों से होकर गुजरी है। 12वीं सदी की शुरुआत में मध्य एशिया से आने वाले लोग भारत में बसने लगे थे। वे अपने साथ चर्खा और कागज भी लाए जिसके बाद जिंदगी, तहज़ीब और ज़बान ने एक नया रंग अख्तियार करना शुरू कर दिया। जो फौजी आते थे, वे साथ लाते थे अपनी जबान खाने पीने की आदतें और संगीत।
वे यहां के लोगों से अपने इलाके की जबान में बात करते थे जो यहां की पंजाबी, हरियाणवी और खड़ी बोली से मिल जाती थी और बन जाती थी फौजी लश्करी जबान जिसमें पश्तों, फारसी, खड़ी बोली और हरियाणवी के शब्द और वाक्य मिलते जाते थे। 13 वीं सदी में सिंधी, पंजाबी, फारसी, तुर्की और खड़ी बोली के मिश्रण से लश्करी की अगली पीढ़ी आई और उसे सरायकी ज़बान कहा गया। इसी दौर में यहां सूफी ख्यालात की लहर भी फैल रही थी।
सूफियों के दरवाज़ों पर बादशाह आते और अमीर आते, सिपहसालार आते और गरीब आते और सब अपनी अपनी जबान में कुछ कहते। इस बातचीत से जो जबान पैदा हो रही थी वही जम्हूरी जबान आने वाली सदियों में इस देश की सबसे महत्वपूर्ण जबान बनने वाली थी। इस तरह की संस्कृति का सबसे बड़ा केंद्र महरौली में कुतुब साहब की खानकाह थी। सूफियों की खानकाहों में जो संगीत पैदा हुआ वह आज 800 साल बाद भी न केवल जिंदा है बल्कि अवाम की जिंदगी का हिस्सा है।
अजमेर शरीफ में चिश्तिया सिलसिले के सबसे बड़े बुजुर्ग ख़्वाजा गऱीब नवाज के दरबार में अमीर गरीब हिन्दू, मुसलमान सभी आते थे और आशीर्वाद की जो भाषा लेकर जाते थे, आने वाले वक्त में उसी का नाम उर्दू होने वाला था। सूफी संतों की खानकाहों पर एक नई ज़बान परवान चढ़ रही थी। मुकामी बोलियों में फारसी और अरबी के शब्द मिल रहे थे और हिंदुस्तान को एक सूत्र में पिरोने वाली ज़बान की बुनियाद पड़ रही थी।
इस ज़बान को अब हिंदवी कहा जाने लगा था। बाबा फरीद गंजे शकर ने इसी ज़बान में अपनी बात कही। बाबा फरीद के कलाम को गुरूग्रंथ साहिब में भी शामिल किया गया। दिल्ली और पंजाब में विकसित हो रही इस भाषा को दक्षिण में पहुंचाने का काम ख्वाजा गेसूदराज ने किया। जब वे गुलबर्गा गए और वहीं उनका आस्ताना बना। इस बीच दिल्ली में हिंदवी के सबसे बड़े शायर हज़रत अमीर खुसरो अपने पीर हजरत निजामुद्दीन औलिया के चरणों में बैठकर हिंदवी जबान को छापा तिलक से विभूषित कर रहे थे।
अमीर खुसरो साहब ने लाजवाब शायरी की जो अभी तक बेहतरीन अदब का हिस्सा है और आने वाली नस्लें उन पर फख्र करेंगी। हजरत अमीर खुसरों से महबूब-ए-इलाही ने ही फरमाया था कि हिंदवी में शायरी करो और इस महान जीनियस ने हिंदवी में वह सब लिखा जो जिंदगी को छूता है। हजरत निजामुद्दीन औलिया के आशीर्वाद से दिल्ली की यह जबान आम आदमी की जबान बनती जा रही थी।
उर्दू की तरक्की में दिल्ली के सुलतानों की विजय यात्राओं का भी योगदान है। 1297 में अलाउद्दीन खिलजी ने जब गुजरात पर हमला किया तो लश्कर के साथ वहां यह जबान भी गई। 1327 ई. में जब तुगलक ने दकन कूच किया तो देहली की भाषा, हिंदवी उनके साथ गई। अब इस ज़बान में मराठी, तेलुगू और गुजराती के शब्द मिल चुके थे। दकनी और गूजरी का जन्म हो चुका था।
इस बीच दिल्ली पर कुछ हमले भी हुए। 14वीं सदी के अंत में तैमूर लंग ने दिल्ली पर हमला किया, जिंदगी मुश्किल हो गई। लोग भागने लगे। यह भागते हुए लोग जहां भी गए अपनी जबान ले गए जिसका नतीजा यह हुआ कि उर्दू की पूर्वज भाषा का दायरा पूरे भारत में फैल रहा था। दिल्ली से दूर अपनी जबान की धूम मचने का सिलसिला शुरू हो चुका था। बीजापुर में हिंदवी को बहुत इज्जत मिली। वहां का सुलतान आदिलशाह अपनी प्रजा में बहुत लोकप्रिय था, उसे जगदगुरू कहा जाता था।
सुलतान ने स्वयं हजरत मुहम्मद (सलल्लाहो अलैहि वसल्लम), ख्वाजा गेसूदराज और बहुत सारे हिंदू देवी देवताओं की शान में शायरी लिखी। गोलकुंडा के कुली कुतुबशाह भी बड़े शायर थे। उन्होंने राधा और कृष्ण की जिंदगी के बारे में शायरी की। मसनवी कुली कुतुबशाह एक ऐतिहासिक किताब है। 1653 में उर्दू गद्य (नस्त्र) की पहली किताब लिखी गई। उर्दू के विकास के इस मुकाम पर गव्वासी का नाम लेना जरूरी हैं।
गव्वासी ने बहुत काम किया है इनका नाम उर्दू के जानकारों में सम्मान से लिया जाता है। दकन में उर्दू को सबसे ज्यादा सम्मान वली दकनी की शायरी से मिला। आप गुजरात की बार-बार यात्रा करते थे। इन्हें वली गुजराती भी कहते हैं। 2002 में अहमदाबाद में हुए दंगों में इन्हीं के मजार पर बुलडोजर चलवा कर नरेंद्र मोदी ने उस पर सड़क बनवा दी थी। जब तुगलक ने अपनी राजधानी दिल्ली से दौलताबाद शिफ्ट करने का फैसला लिया तो दिल्ली की जनता पर तो पहाड़ टूट पड़ा लेकिन जो लोग वहां गए वे अपने साथ संगीत, साहित्य, वास्तु और भाषा की जो परंपरा लेकर गए वह आज भी उस इलाके की थाती है।
1526 में जहीरुद्दीन बाबर ने इब्राहीम लोदी को हराकर भारत में मुगुल साम्राज्य की बुनियाद डाली। 17 मुगल बादशाह हुए जिनमें मुहम्मद जलालुद्दीन अकबर सबसे ज्यादा प्रभावशाली हुए। उनके दौर में एक मुकम्मल तहज़ीब विकसित हुई। अकबर ने इंसानी मुहब्बत और रवादारी को हुकूमत का बुनियादी सिद्घांत बनाया। दो तहजीबें इसी दौर में मिलना शुरू हुईं। और हिंदुस्तान की मुश्तरका तहजीब की बुनियाद पड़ी। अकबर की राजधानी आगरा में थी जो ब्रज भाषा का केंद्र था और अकबर के दरबार में उस दौर के सबसे बड़े विद्वान हुआ करते थे।
वहां अबुलफजल भी थे, तो फैजी भी थे, अब्दुर्रहीम खानखाना थे तो बीरबल भी थे। इस दौर में ब्रजभाषा और अवधी भाषाओं का खूब विकास हुआ। यह दौर वह है जब सूफी संतों और भक्ति आंदोलन के संतों ने आम बोलचाल की भाषा में अपनी बात कही। सारी भाषाओं का आपस में मेलजोल बढ़ रहा था और उर्दू जबान की बुनियाद मजबूत हो रही थी। बाबर के समकालीन थे सिखों के गुरू नानक देव। उन्होंने नामदेव, बाबा फरीद और कबीर के कलाम को सम्मान दिया और अपने पवित्र ग्रंथ में शामिल किया। इसी दौर में मलिक मुहम्मद जायसी ने पदमावती की रचना की जो अवधी भाषा का महाकाव्य है लेकिन इसका रस्मुल खत फारसी है।
शाहजहां के काल में मुगल साम्राज्य की राजधानी दिल्ली आ गई। इसी दौर में वली दकनी की शायरी दिल्ली पहुंची और दिल्ली के फारसी दानों को पता चला कि रेख्ता में भी बेहतरीन शायरी हो सकती थी और इसी सोच के कारण रेख्ता एक जम्हूरी जबान के रूप में अपनी पहचान बना सकी। दिल्ली में मुगल साम्राज्य के कमजोर होने के बाद अवध ने दिल्ली से अपना नाता तोड़ लिया लेकिन जबान की तरक्की लगातार होती रही। दरअसल 18वीं सदी मीर, सौदा और दर्द के नाम से याद की जायेगी। मीर पहले अवामी शायर हैं। बचपन गरीबी में बीता और जब जवान हुए तो दिल्ली पर मुसीबत बनकर नादिर शाह टूट पड़ा।
उनकी शायरी की जो तल्खी है वह अपने जमाने के दर्द को बयान करती है। बाद में नज़ीर की शायरी में भी ज़ालिम हुक्मरानों का जिक्र, मीर तकी मीर की याद दिलाता है। मुगलिया ताकत के कमजोर होने के बाद रेख्ता के अन्य महत्वपूर्ण केंद्र हैं, हैदराबाद, रामपुर और लखनऊ। इसी जमाने में दिल्ली से इंशा लखनऊ गए। उनकी कहानी ''रानी केतकी की कहानी'' उर्दू की पहली कहानी है। इसके बाद मुसहफी, आतिश और नासिख का जिक्र होना जरूरी है। मीर हसन ने दकनी और देहलवी मसनवियां लिखी।
उर्दू की इस विकास यात्रा में वाजिद अली शाह 'अख्तर' का महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन जब 1857 में अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया तो अदब के केंद्र के रूप में लखनऊ की पहचान को एक धक्का लगा लेकिन दिल्ली में इस दौर में उर्दू ज़बान परवान चढ़ रही थी।
बख्त खां ने पहला संविधान उर्दू में लिखा। बहादुरशाह जफर खुद शायर थे और उनके समकालीन ग़ालिब और जौक उर्दू ही नहीं भारत की साहित्यिक परंपरा की शान हैं। इसी दौर में मुहम्मद हुसैन आज़ाद ने उर्दू की बड़ी सेवा की उर्दू के सफरनामे का यह दौर गालिब, ज़ौक और मोमिन के नाम है। गालिब इस दौर के सबसे कद्दावर शायर हैं। उन्होंने आम ज़बानों में गद्य, चिट्ठयां और शायरी लिखी। इसके पहले अदालतों की भाषा फारसी के बजाय उर्दू को बना दिया गया।
1822 में उर्दू सहाफत की बुनियाद पड़ी जब मुंशी सदासुख लाल ने जाने जहांनुमा अखबार निकाला। दिल्ली से 'दिल्ली उर्दू अखबार' और 1856 में लखनऊ से 'तिलिस्मे लखनऊ' का प्रकाशन किया गया। लखनऊ में नवल किशोर प्रेस की स्थापना का उर्दू के विकास में प्रमुख योगदान है। सर सैय्यद अहमद खां, मौलाना शिबली नोमानी, अकबर इलाहाबादी, डा. इकबाल उर्दू के विकास के बहुत बड़े नाम हैं। इक़बाल की शायरी, लब पे आती है दुआ बनके तमन्ना मेरी और सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा हमारी तहजीब और तारीख का हिस्सा हैं। इसके अलावा मौलवी नजीर अहमद, पं. रतनलाल शरशार और मिर्जा हादी रुस्वा ने नोवल लिखे। आग़ा हश्र कश्मीरी ने नाटक लिखे।
कांग्रेस के सम्मेलनों की भाषा भी उर्दू ही बन गई थी। 1916 में लखनऊ कांग्रेस में होम रूल का जो प्रस्ताव पास हुआ वह उर्दू में है। 1919 में जब जलियां वाला बाग में अंग्रेजों ने निहत्थे भारतीयों को गोलियों से भून दिया तो उस $गम और गुस्से का इज़हार पं. बृज नारायण चकबस्त और अकबर इलाहाबादी ने उर्दू में ही किया था। इस मौके पर लिखा गया मौलाना अबुल कलाम आजाद का लेख आने वाली कई पीढिय़ां याद रखेंगी। हसरत मोहानी ने 1921 के आंदोलन में इकलाब जिंदाबाद का नारा दिया था जो आज न्याय की लड़ाई का निशान बन गया है।
आज़ादी के बाद सीमा के दोनों पार जो क़त्लो ग़ारद हुआ था उसको भी उर्दू जबान ने संभालने की पूरी को कोशिश की। हमारी मुश्तरका तबाही के खिलाफ अवाम को फिर से लामबंद करने में उर्दू का बहुत योगदान है। आज यह सियासत के घेर में है लेकिन दाग के शब्दों में
उर्दू है जिसका नाम, हमीं जानते हैं दाग
सारे जहां में धूम हमारी ज़बां की है।
गंगा जमुना के दो आब में जन्मी और विकसित हुई इस जबान की ऐतिहासिक यात्रा के बारे में विदेश मंत्रालय की ओर से एक बहुत अच्छी फिल्म बनाई गई है। इस फिल्म का नाम है, ''उर्दू है जिसका नाम'। इसके निर्देशक हैं सुभाष कपूर। फिल्म की अवधारणा, शोध और कहानी सुहैल हाशमी की है। इस फिल्म में संगीत का इस्तेमाल बहुत ही बेहतरीन तरीके से किया गया है जिसे प्रसिद्घ गायिका शुभा मुदगल और डा. अनीस प्रधान ने संजोया है। शुभा की आवाज में मीर और ग़ालिब की गज़लों को बिलकुल नए अंदाज में प्रस्तुत किया गया है।
फिल्म पर काम 2003 में शुरू हो गया था और 2007 में बनकर तैयार हो गई थी। अभी तक दूरदर्शन पर नहीं दिखाई गई है। इस फिल्म के बनने में सुहैल हाशमी का सबसे ज्य़ादा योगदान था और आजकल वे ही इसे प्राइवेट तौर पर दिखाते हैं। पिछले दिनों प्रेस क्लब दिल्ली में कुछ पत्रकारों को यह फिल्म दिखाई गई। मैंने भी फिल्म देखी और लगा कि उर्दू के विकास की हर गली से गुजर गया।
Wednesday, November 11, 2009
Tuesday, November 10, 2009
पूंजीवादी साम्राज्यवादी शोषक वर्ग के निशाने पर आदिवासी
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा है कि आदिवासियों का विकास बंदूक के साये में नहीं किया जा सकता। यह बात बहुत ही अजीब है। सवाल उठता है कि क्या आदिवासी इलाकों के लोग शुरू से ही बंदूक लेकर घूमते रहते थे। आजादी के बाद उन्होंने 50 से भी अधिक वर्षों तक इंतजार किया। इस बीच उनका घर-बार तथाकथित विकास योजनाओं की भेंट चढ़ता रहा। आदिवासी इलाकों की खनिज संपदा की लालच में सरकारें जंगलों में ऊल जलूल परियोजनाएं चलाती रही। यह परियोजनाएं आदिवासियों के शोषण का सबसे बड़ा साधन बनीं। कहीं भी किसी स्तर पर उनको भागीदारी के अवसर नहीं दिए गए। जहां भी आदिवासी इलाकों में विकास का स्वांग रचा गया वहां आदिवासियों की तबाही की इबारत मोटे अक्षरों में लिख दी गई।
वन संपदा पर उनका अधिकार पूरी तरह से खारिज कर दिया गया और उनकी जीवन शैली पर हमला बोला गया। नई परियोजनाओं के लिए बाहर से गए लोगों ने वहां पर सस्ती मजदूरी पर लोगों को काम पर लगाया। कुछ जगहों से तो लड़कियों के शारीरिक शोषण की ख़बरें भी आती थीं। उनके रीति रिवाजों पर हमला हुआ। ईसाई मिशनरियों ने उनके विकास के नाम पर बडे़ पैमाने पर धर्म परिवर्तन करवाकर आस्था के संकट को इतना गहरा दिया कि उन इलाकों में पहचान का संकट पैदा हो गया। ग्राम देवता और कुल देवता जैसे प्राकृतिक रूप से विकसित आस्था के आदर्शों के स्थान पर एक नए देवता की पूजा की परंपरा शुरू की। इस संकट का हल सरकारी स्तर पर कहीं नहीं किया गया। आस्था बदलवाने के काम में हिंदुत्ववादी राजनीतिक वाले भी घुसे लेकिन उन्होंने भी आदिवासी जीवन शैली को तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन लोगों ने स्थानीय देवताओं के बजाय हनुमान जी की पूजा करवाने पर जोर दिया। स्थानीय भावनाओं पर अपने पूर्वाग्रहों को लादने के इस खेल के लिए सभी पार्टियां बराबर की जिम्मेदार हैं।
संविधान में व्यवस्था है कि सरकारी नौकरियों में आदिवासी लोगों के लिए आरक्षण रहेगा लेकिन जब उनके पास बुनियादी शिक्षा की व्यवस्था ही नहीं है तो वे सरकारी नौकरियों तक पहुंचेगे कैसे। इन लोगों की शिक्षा दीक्षा की कोई व्यवस्था नहीं की गई इसलिए इनके लिए रिजर्व नौकरियों में वे लोग घुस गए जो अपेक्षाकृत विकसित थे, शिक्षित थे लेकिन आदिवासी श्रेणी में आते थे। राजस्थान की एक ऐसी ही बिरादरी का आजकल सरकारी नौकरियों में दबदबा है। लेकिन बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश और मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल इलाकों के लोगों को केंद्रीय नौकरियों में ठिकाना नहीं मिला क्योंकि उनके पास पढ़ने लिखने का साधन नहीं था। नतीजा यह हुआ कि उनका शोषण और बढ़ गया।
इन आदिवासी इलाकों का दुर्भाग्य यह भी था कि इनके अपने बीच से जो नेता भी निकले उनकी ईमानदारी संदिग्ध रही। शिबू सोरेन और उनके परिवार की गाथाएं जगजाहिर हैं। इसी तरह के और भी बहुत से नेता देखे और सुने गए हैं। तथाकथित मुख्यधारा में लाने की कोशिश में भी इनके ऊपर चौतरफा हमला हुआ। जहां भी प्रोजेक्ट लगाए गए वहां के सारे जीवन मूल्य बदल दिए गए। आदिवासी इलाकों के शोषण के रोज ही नए तरीके निकाले गए। एक मुकाम पर तो लगता था कि आदिवासियों के शोषण की सारी सीमाएं पार कर ली गई हैं। लेकिन ऐसा नहीं था, जब बालको का बहुराष्ट्रीय कंपनी ने अधिग्रहण किया तब लगा कि आने वाला वक्त इन इलाकों के शोषण की नई ऊंचाइयां देगा। बहरहाल अब साम्राज्यवादी पूंजीवादी शक्तियों ने सत्ता और पूंजी की ताकत इन आदिवासियों के सर्वनाश के लिए झोंक दिया है। और इस मामले में बीजेपी और कांग्रेस में कोई भेद नहीं है। दोनों ही सलवा जुडूम के रास्ते चल रहे हैं, इस संगठन को अपना मानते हैं। इसलिए इन लोगों पर कोई भरोसा करने की जरूरत नहीं है।
आजादी की बाद की राजनीतिक पार्टियों ने आदिवासी इलाकों में मूल निवासियों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को भी नज़र अंदाज किया। जबकि आज़ादी की लड़ाई में सबसे अधिक कुर्बानी इस इलाके के आदिवासियों के नाम दर्ज है। उदाहरण के तौर पर छत्तीसगढ़ और झारखंड से आए नेताओं पर एक नजर डालिए। वही भाई लोग जो वहां की खनिज संपदा से लाभ लेने पहुंचे थे, वही आज वहां के नेता बने बैठे हैं। और जो नेता वहां से निकले भी वे इन्हीं पूंजीवादी शोषक नेताओं के पिछलग्गू बन गए। ताजा मामला मधु कोड़ा का है जो आजकल सुर्खियों में है। राजनीतिक पार्टियों ने इन इलाकों के लोगों को वोट बैंक से ज्यादा कुछ नहीं समझा जिसका नतीजा यह हुआ कि राजनीति की संसदीय जनतंत्र की धारा में यह लोग नहीं आ सके। जब बहुराष्ट्रीय पूंजीवादी हितों को लगा कि दक्षिणपंथी राजनीतिक पार्टियों की मदद से इन इलाकों पर कब्जा नहीं जमाया जा सकता तो साम्राज्यवादी विस्तारवाद के इन पोषकों ने कुछ ट्रास्टकीवादियों को पकड़ लिया। आदिवासी इलाकों में माओवाद के नाम जो आतंक का राज कायम किया जा रहा है, वह इन्हीं दिग्भ्रमित अति वामपंथियों की कृपा से हो रहा है। माक्र्सवादी लफ्फाजी की मदद से इन्हें हथियार उठाने के लिए तैयार किया गया है। इनकी राजनीतिक शिक्षा शून्य है। ध्यान से देखें तो समझ में आ जाएगा कि इन इलाकों में आदिवासियों के गुस्से का निशाना उन्हीं लोगों को बनाया जा रहा है जो सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिनिधि है। निजी या बहुराष्ट्रीय हितों को कहीं भी निशाने पर नहीं लिया जा रहा है।
इस पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री के वक्तव्य को लेने से तस्वीर साफ हो जाती है। उनका यह स्वीकार करना कि आदिवासियों के लिए जो कुछ भी किया जाना चाहिए था, वह नहीं किया गया, एक शुभ संकेत है। लेकिन इतना कह देने मात्र से कुछ नहीं होने वाला है। सच्ची बात यह है कि अगर इस संकल्प के बाद भी कुछ ठोस न किया गया तो बहुत मुश्किल होगी। जहां तक माओवादी आतंकवादियों का सवाल है, उनसे तो सरकारी तरीके से निपटा जा सकता है लेकिन प्रधानमंत्री और सभ्य समाज को चाहिए कि आदिवासी इलाकों में ऐसे विकास कार्यक्रम चलाएं जिनका फायदा केवल आदिवासियों को हो। हालांकि यह बहुत बड़ी बात है लेकिन इससे कम पर बात बनने की संभावना नहीं है। बहरहाल अगर देश का प्रधानमंत्री इस बात को ऐलानियां स्वीकार कर रहा है कि गलती हुई है तो उसके सुधारे जाने की संभावना बहुत बढ़ जाती है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आदिवासियों को तबाह करने के बाज आकर उनके सम्मान की रक्षा के लिए गंभीर कदम उठाए जाएंगे।
( विस्फोट डॉट कॉम से सादर)..
वन संपदा पर उनका अधिकार पूरी तरह से खारिज कर दिया गया और उनकी जीवन शैली पर हमला बोला गया। नई परियोजनाओं के लिए बाहर से गए लोगों ने वहां पर सस्ती मजदूरी पर लोगों को काम पर लगाया। कुछ जगहों से तो लड़कियों के शारीरिक शोषण की ख़बरें भी आती थीं। उनके रीति रिवाजों पर हमला हुआ। ईसाई मिशनरियों ने उनके विकास के नाम पर बडे़ पैमाने पर धर्म परिवर्तन करवाकर आस्था के संकट को इतना गहरा दिया कि उन इलाकों में पहचान का संकट पैदा हो गया। ग्राम देवता और कुल देवता जैसे प्राकृतिक रूप से विकसित आस्था के आदर्शों के स्थान पर एक नए देवता की पूजा की परंपरा शुरू की। इस संकट का हल सरकारी स्तर पर कहीं नहीं किया गया। आस्था बदलवाने के काम में हिंदुत्ववादी राजनीतिक वाले भी घुसे लेकिन उन्होंने भी आदिवासी जीवन शैली को तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन लोगों ने स्थानीय देवताओं के बजाय हनुमान जी की पूजा करवाने पर जोर दिया। स्थानीय भावनाओं पर अपने पूर्वाग्रहों को लादने के इस खेल के लिए सभी पार्टियां बराबर की जिम्मेदार हैं।
संविधान में व्यवस्था है कि सरकारी नौकरियों में आदिवासी लोगों के लिए आरक्षण रहेगा लेकिन जब उनके पास बुनियादी शिक्षा की व्यवस्था ही नहीं है तो वे सरकारी नौकरियों तक पहुंचेगे कैसे। इन लोगों की शिक्षा दीक्षा की कोई व्यवस्था नहीं की गई इसलिए इनके लिए रिजर्व नौकरियों में वे लोग घुस गए जो अपेक्षाकृत विकसित थे, शिक्षित थे लेकिन आदिवासी श्रेणी में आते थे। राजस्थान की एक ऐसी ही बिरादरी का आजकल सरकारी नौकरियों में दबदबा है। लेकिन बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश और मध्यप्रदेश के आदिवासी बहुल इलाकों के लोगों को केंद्रीय नौकरियों में ठिकाना नहीं मिला क्योंकि उनके पास पढ़ने लिखने का साधन नहीं था। नतीजा यह हुआ कि उनका शोषण और बढ़ गया।
इन आदिवासी इलाकों का दुर्भाग्य यह भी था कि इनके अपने बीच से जो नेता भी निकले उनकी ईमानदारी संदिग्ध रही। शिबू सोरेन और उनके परिवार की गाथाएं जगजाहिर हैं। इसी तरह के और भी बहुत से नेता देखे और सुने गए हैं। तथाकथित मुख्यधारा में लाने की कोशिश में भी इनके ऊपर चौतरफा हमला हुआ। जहां भी प्रोजेक्ट लगाए गए वहां के सारे जीवन मूल्य बदल दिए गए। आदिवासी इलाकों के शोषण के रोज ही नए तरीके निकाले गए। एक मुकाम पर तो लगता था कि आदिवासियों के शोषण की सारी सीमाएं पार कर ली गई हैं। लेकिन ऐसा नहीं था, जब बालको का बहुराष्ट्रीय कंपनी ने अधिग्रहण किया तब लगा कि आने वाला वक्त इन इलाकों के शोषण की नई ऊंचाइयां देगा। बहरहाल अब साम्राज्यवादी पूंजीवादी शक्तियों ने सत्ता और पूंजी की ताकत इन आदिवासियों के सर्वनाश के लिए झोंक दिया है। और इस मामले में बीजेपी और कांग्रेस में कोई भेद नहीं है। दोनों ही सलवा जुडूम के रास्ते चल रहे हैं, इस संगठन को अपना मानते हैं। इसलिए इन लोगों पर कोई भरोसा करने की जरूरत नहीं है।
आजादी की बाद की राजनीतिक पार्टियों ने आदिवासी इलाकों में मूल निवासियों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को भी नज़र अंदाज किया। जबकि आज़ादी की लड़ाई में सबसे अधिक कुर्बानी इस इलाके के आदिवासियों के नाम दर्ज है। उदाहरण के तौर पर छत्तीसगढ़ और झारखंड से आए नेताओं पर एक नजर डालिए। वही भाई लोग जो वहां की खनिज संपदा से लाभ लेने पहुंचे थे, वही आज वहां के नेता बने बैठे हैं। और जो नेता वहां से निकले भी वे इन्हीं पूंजीवादी शोषक नेताओं के पिछलग्गू बन गए। ताजा मामला मधु कोड़ा का है जो आजकल सुर्खियों में है। राजनीतिक पार्टियों ने इन इलाकों के लोगों को वोट बैंक से ज्यादा कुछ नहीं समझा जिसका नतीजा यह हुआ कि राजनीति की संसदीय जनतंत्र की धारा में यह लोग नहीं आ सके। जब बहुराष्ट्रीय पूंजीवादी हितों को लगा कि दक्षिणपंथी राजनीतिक पार्टियों की मदद से इन इलाकों पर कब्जा नहीं जमाया जा सकता तो साम्राज्यवादी विस्तारवाद के इन पोषकों ने कुछ ट्रास्टकीवादियों को पकड़ लिया। आदिवासी इलाकों में माओवाद के नाम जो आतंक का राज कायम किया जा रहा है, वह इन्हीं दिग्भ्रमित अति वामपंथियों की कृपा से हो रहा है। माक्र्सवादी लफ्फाजी की मदद से इन्हें हथियार उठाने के लिए तैयार किया गया है। इनकी राजनीतिक शिक्षा शून्य है। ध्यान से देखें तो समझ में आ जाएगा कि इन इलाकों में आदिवासियों के गुस्से का निशाना उन्हीं लोगों को बनाया जा रहा है जो सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिनिधि है। निजी या बहुराष्ट्रीय हितों को कहीं भी निशाने पर नहीं लिया जा रहा है।
इस पृष्ठभूमि में प्रधानमंत्री के वक्तव्य को लेने से तस्वीर साफ हो जाती है। उनका यह स्वीकार करना कि आदिवासियों के लिए जो कुछ भी किया जाना चाहिए था, वह नहीं किया गया, एक शुभ संकेत है। लेकिन इतना कह देने मात्र से कुछ नहीं होने वाला है। सच्ची बात यह है कि अगर इस संकल्प के बाद भी कुछ ठोस न किया गया तो बहुत मुश्किल होगी। जहां तक माओवादी आतंकवादियों का सवाल है, उनसे तो सरकारी तरीके से निपटा जा सकता है लेकिन प्रधानमंत्री और सभ्य समाज को चाहिए कि आदिवासी इलाकों में ऐसे विकास कार्यक्रम चलाएं जिनका फायदा केवल आदिवासियों को हो। हालांकि यह बहुत बड़ी बात है लेकिन इससे कम पर बात बनने की संभावना नहीं है। बहरहाल अगर देश का प्रधानमंत्री इस बात को ऐलानियां स्वीकार कर रहा है कि गलती हुई है तो उसके सुधारे जाने की संभावना बहुत बढ़ जाती है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आदिवासियों को तबाह करने के बाज आकर उनके सम्मान की रक्षा के लिए गंभीर कदम उठाए जाएंगे।
( विस्फोट डॉट कॉम से सादर)..
Monday, November 9, 2009
अंबेडकर का सपना और जाति का विनाश
पिछली सदी के सामाजिक और राजनीतिक दर्शन के जानकारों में डा. बीआर अंबेडकर का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। महात्मा गांधी के समकालीन रहे अंबेडकर ने अपने दर्शन की बुनियादी सोच का आधार जाति प्रथा के विनाश को माना था उनको विश्वास था कि तब तक न तो राजनीतिक सुधार लाया जा सकता है और न ही आर्थिक सुधार लाया जा सकता है।
सत्ता और अंबेडकर के सिद्धांत
The Annihilation of caste में डा.अंबेडकर ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता समता, न्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती। जाहिर है कि जाति व्यवस्था का विनाश हर उस आदमी का लक्ष्य होना चाहिए जो अंबेडकर के दर्शन में विश्वास रखता हो। अंबेडकर के जीवन काल में किसी ने नहीं सोचा होगा कि उनके दर्शन को आधार बनाकर राजनीतिक सत्ता हासिल की जा सकती है। लेकिन आज उत्तर प्रदेश में जो सरकार कायम है, उसके बारे में माना जाता है कि वह अंबेडकर के समर्थकों और उनके अनुयायियों की है। राज्य की मुख्यमंत्री और उनके राजनीतिक गुरू कांशीराम ने अपनी राजनीति के विकास के लिए अंबेडकर का सहारा लिया और आज सत्ता उनके पास है। इस बात की पड़ताल करना दिलचस्प होगा कि अंबेडकर के नाम पर सत्ता का सुख भोग रही सरकार ने उनके सबसे प्रिय सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिया क्या कदम उठाए है।
क्या मायावती चाहती हैं जाति प्रथा का विनाश?
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री की पिछले पंद्रह वर्षों की राजनीति पर नज़र डालने से प्रथम दृष्टया ही समझ में आ जाता है कि उन्होंने जाति प्रथा के विनाश के लिए कोई काम नहीं किया है। बल्कि इसके उलट वे जातियों के आधार पर पहचान बनाए रखने की पक्षधर है। दलित जाति को अपने हर सांचे में फिट रखने के लिए तो उन्होंने छोड़ ही दिया है अन्य जातियों को भी उनकी जाति सीमाओं में बांधे रखने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चला रही हैं। हर जाति का भाईचारा कमेटियाँ बना दी गई हैं और उन कमेटियों को मुख्यमंत्री मायावती की राजनीति पार्टी का कोई बड़ा नेता संभाल रहा है। डाक्टर साहब ने साफ कहा था कि जब तक जातियों के बाहर शादी ब्याह की स्थितियां नहीं पैदा होती तब तक जाति का इस्पाती सांचा तोड़ा नहीं जा सकता। चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजने वाली मायावती जी ने एक बार भी सरकारी स्तर पर ऐसी कोई पहल नहीं की जिसकी वजह से जाति प्रथा पर कोई मामूली सी भी चोट लग सके। जाहिर है जब तक समाज जाति के बंधन के बाहर नहीं निकलता आर्थिक विकास का लक्ष्य भी नहीं हासिल किया जा सकता।
वे कितना जानते हैं अंबेडकर को?
एक अजीब बात यह भी है कि मायावती सरकार के कई मंत्रियों को यह भी नहीं मालूम है कि अंबेडकर के मुख्य राजनीतिक विचार क्या हैं उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब का नाम क्या है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कम्युनिस्ट पार्टी का कोई नेता मार्क्स के सिद्धांतों को न जानता हो, या दास कैपिटल नाम की किताब के बारे में जानकारी न रखता हो। अंबेडकर की 118वीं जयंती के अवसर पर उनके सिद्धांतों का जिक्र करना मैं अपना फर्ज़ समझता हूं क्योंकि पत्रकार के रूप में मेरा पेशा ऐसा है कि मैं अवाम को जानकारी देने का अपना काम करता रहूं। उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब The Annihilation of caste के बारे में यह जानना दिलचस्प होगा कि वह एक ऐसा भाषण है जिसको पढ़ने का मौका उन्हें नहीं मिला लाहौर के जात पात तोड़क मंडल की और से उनको मुख्य भाषण करने के लिए न्यौता मिला। जब डाक्टर साहब ने अपने प्रस्तावित भाषण को लिखकर भेजा तो ब्राहमणों के प्रभुत्व वाले जात-पात तोड़क मंडल के कर्ताधर्ता, काफी बहस मुबाहसे के बाद भी इतना क्रांतिकारी भाषण सुनने कौ तैयार नहीं हुए। शर्त लगा दी कि अगर भाषण में आयोजकों की मर्जी के हिसाब से बदलाव न किया गया तो भाषण हो नहीं पायेगा। अंबेडकर ने भाषण बदलने से मना कर दिया। और उस सामग्री को पुस्तक के रूप में छपवा दिया जो आज हमारी ऐतिहासिक धरोहर का हिस्सा है।
अंर्तजातीय विवाह
इस पुस्तक में जाति के विनाश की राजनीति और दर्शन के बारे में गंभीर चिंतन भी है और विमर्श भी। और इस देश का दुर्भाग्य है कि आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास का इतना नायाब तरीका हमारे पास है, लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। डा- अंबेडकर के समर्थन का दम ठोंकने वाले लोग ही जाति प्रथा को बनाए रखने में रूचि रखते है हैं और उसको बनाए रखने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। जाति के विनाश के लिए डाक्टर अंबेडकर ने सबसे कारगर तरीका जो बताया था वह अंर्तजातीय विवाह का था, लेकिन उसके लिए राजनीतिक स्तर पर कोई कोशिश नहीं की जा रही है, लोग स्वयं ही जाति के बाहर निकल कर शादी ब्याह कर रहे है, यह अलग बात है।
इस पुस्तक में अंबेडकर ने अपने आदर्शों का जिक्र किया है। उन्होंने कहा कि जातिवाद के विनाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारा होगा। एक आदर्श समाज के लिए अंबेडकर का यही सपना था। एक आदर्श समाज को गतिशील रहना चाहिए और बेहतरी के लिए होने वाले किसी भी परिवर्तन का हमेशा स्वागत करना चाहिए। एक आदर्श समाज में विचारों का आदान-प्रदान होता रहना चाहिए।
अंबेडकर की दिशा
अंबेडकर का कहना था कि स्वतंत्रता की अवधारणा भी जाति प्रथा को नकारती है। उनका कहना है कि जाति प्रथा को जारी रखने के पक्षधर लोग राजनीतिक आजादी की बात तो करते हैं लेकिन वे लोगों को अपना पेशा चुनने की आजादी नहीं देना चाहते इस अधिकार को अंबेडकर की कृपा से ही संविधान के मौलिक अधिकारों में शुमार कर लिया गया है और आज इसकी मांग करना उतना अजीब नहीं लगेगा लेकिन जब उन्होंने उनके दशक में में यह बात कही थी तो उसका महत्व बहुत अधिक था। अंबेडकर के आदर्श समाज में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है, बराबरी ब्राहमणों के अधियत्य वाले समाज ने उनके इस विचार के कारण उन्हें बार-बार अपमानित किया। सच्चाई यह है कि सामाजिक बराबरी के इस मसीहा को जात पात तोड़क मंडल ने भाषण नहीं देने दिया लेकिन अंबेडकर ने अपने विचारों में कहीं भी ढील नहीं होने दी।
तकलीफ तब होती है जब उसके अनुयायियों की सरकार में भी उनकी विचारधारा को नजर अंदाज किया जा रहा है। सारी दुनिया के समाज शास्त्री मानते हैं कि जाति प्रथा भारत के आर्थिक, सामाजिक और राजनीति क विकास में सबसें बड़ा रोड़ा है है, और उनके विनाश के लिए अंबेडकर द्वारा सुझाया गया तरीका ही सबसे उपयोगी है जरूरत इस बात की है कि सभी राजनीतिक पार्टियां इसको अपना मुद्दा बनाए और मायावती को चाहिए कि इस अंदोलन को नेतृत्व प्रदान करें।
सत्ता और अंबेडकर के सिद्धांत
The Annihilation of caste में डा.अंबेडकर ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता समता, न्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती। जाहिर है कि जाति व्यवस्था का विनाश हर उस आदमी का लक्ष्य होना चाहिए जो अंबेडकर के दर्शन में विश्वास रखता हो। अंबेडकर के जीवन काल में किसी ने नहीं सोचा होगा कि उनके दर्शन को आधार बनाकर राजनीतिक सत्ता हासिल की जा सकती है। लेकिन आज उत्तर प्रदेश में जो सरकार कायम है, उसके बारे में माना जाता है कि वह अंबेडकर के समर्थकों और उनके अनुयायियों की है। राज्य की मुख्यमंत्री और उनके राजनीतिक गुरू कांशीराम ने अपनी राजनीति के विकास के लिए अंबेडकर का सहारा लिया और आज सत्ता उनके पास है। इस बात की पड़ताल करना दिलचस्प होगा कि अंबेडकर के नाम पर सत्ता का सुख भोग रही सरकार ने उनके सबसे प्रिय सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिया क्या कदम उठाए है।
क्या मायावती चाहती हैं जाति प्रथा का विनाश?
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री की पिछले पंद्रह वर्षों की राजनीति पर नज़र डालने से प्रथम दृष्टया ही समझ में आ जाता है कि उन्होंने जाति प्रथा के विनाश के लिए कोई काम नहीं किया है। बल्कि इसके उलट वे जातियों के आधार पर पहचान बनाए रखने की पक्षधर है। दलित जाति को अपने हर सांचे में फिट रखने के लिए तो उन्होंने छोड़ ही दिया है अन्य जातियों को भी उनकी जाति सीमाओं में बांधे रखने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चला रही हैं। हर जाति का भाईचारा कमेटियाँ बना दी गई हैं और उन कमेटियों को मुख्यमंत्री मायावती की राजनीति पार्टी का कोई बड़ा नेता संभाल रहा है। डाक्टर साहब ने साफ कहा था कि जब तक जातियों के बाहर शादी ब्याह की स्थितियां नहीं पैदा होती तब तक जाति का इस्पाती सांचा तोड़ा नहीं जा सकता। चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजने वाली मायावती जी ने एक बार भी सरकारी स्तर पर ऐसी कोई पहल नहीं की जिसकी वजह से जाति प्रथा पर कोई मामूली सी भी चोट लग सके। जाहिर है जब तक समाज जाति के बंधन के बाहर नहीं निकलता आर्थिक विकास का लक्ष्य भी नहीं हासिल किया जा सकता।
वे कितना जानते हैं अंबेडकर को?
एक अजीब बात यह भी है कि मायावती सरकार के कई मंत्रियों को यह भी नहीं मालूम है कि अंबेडकर के मुख्य राजनीतिक विचार क्या हैं उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब का नाम क्या है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कम्युनिस्ट पार्टी का कोई नेता मार्क्स के सिद्धांतों को न जानता हो, या दास कैपिटल नाम की किताब के बारे में जानकारी न रखता हो। अंबेडकर की 118वीं जयंती के अवसर पर उनके सिद्धांतों का जिक्र करना मैं अपना फर्ज़ समझता हूं क्योंकि पत्रकार के रूप में मेरा पेशा ऐसा है कि मैं अवाम को जानकारी देने का अपना काम करता रहूं। उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब The Annihilation of caste के बारे में यह जानना दिलचस्प होगा कि वह एक ऐसा भाषण है जिसको पढ़ने का मौका उन्हें नहीं मिला लाहौर के जात पात तोड़क मंडल की और से उनको मुख्य भाषण करने के लिए न्यौता मिला। जब डाक्टर साहब ने अपने प्रस्तावित भाषण को लिखकर भेजा तो ब्राहमणों के प्रभुत्व वाले जात-पात तोड़क मंडल के कर्ताधर्ता, काफी बहस मुबाहसे के बाद भी इतना क्रांतिकारी भाषण सुनने कौ तैयार नहीं हुए। शर्त लगा दी कि अगर भाषण में आयोजकों की मर्जी के हिसाब से बदलाव न किया गया तो भाषण हो नहीं पायेगा। अंबेडकर ने भाषण बदलने से मना कर दिया। और उस सामग्री को पुस्तक के रूप में छपवा दिया जो आज हमारी ऐतिहासिक धरोहर का हिस्सा है।
अंर्तजातीय विवाह
इस पुस्तक में जाति के विनाश की राजनीति और दर्शन के बारे में गंभीर चिंतन भी है और विमर्श भी। और इस देश का दुर्भाग्य है कि आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विकास का इतना नायाब तरीका हमारे पास है, लेकिन उसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। डा- अंबेडकर के समर्थन का दम ठोंकने वाले लोग ही जाति प्रथा को बनाए रखने में रूचि रखते है हैं और उसको बनाए रखने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। जाति के विनाश के लिए डाक्टर अंबेडकर ने सबसे कारगर तरीका जो बताया था वह अंर्तजातीय विवाह का था, लेकिन उसके लिए राजनीतिक स्तर पर कोई कोशिश नहीं की जा रही है, लोग स्वयं ही जाति के बाहर निकल कर शादी ब्याह कर रहे है, यह अलग बात है।
इस पुस्तक में अंबेडकर ने अपने आदर्शों का जिक्र किया है। उन्होंने कहा कि जातिवाद के विनाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रता, बराबरी और भाईचारा होगा। एक आदर्श समाज के लिए अंबेडकर का यही सपना था। एक आदर्श समाज को गतिशील रहना चाहिए और बेहतरी के लिए होने वाले किसी भी परिवर्तन का हमेशा स्वागत करना चाहिए। एक आदर्श समाज में विचारों का आदान-प्रदान होता रहना चाहिए।
अंबेडकर की दिशा
अंबेडकर का कहना था कि स्वतंत्रता की अवधारणा भी जाति प्रथा को नकारती है। उनका कहना है कि जाति प्रथा को जारी रखने के पक्षधर लोग राजनीतिक आजादी की बात तो करते हैं लेकिन वे लोगों को अपना पेशा चुनने की आजादी नहीं देना चाहते इस अधिकार को अंबेडकर की कृपा से ही संविधान के मौलिक अधिकारों में शुमार कर लिया गया है और आज इसकी मांग करना उतना अजीब नहीं लगेगा लेकिन जब उन्होंने उनके दशक में में यह बात कही थी तो उसका महत्व बहुत अधिक था। अंबेडकर के आदर्श समाज में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है, बराबरी ब्राहमणों के अधियत्य वाले समाज ने उनके इस विचार के कारण उन्हें बार-बार अपमानित किया। सच्चाई यह है कि सामाजिक बराबरी के इस मसीहा को जात पात तोड़क मंडल ने भाषण नहीं देने दिया लेकिन अंबेडकर ने अपने विचारों में कहीं भी ढील नहीं होने दी।
तकलीफ तब होती है जब उसके अनुयायियों की सरकार में भी उनकी विचारधारा को नजर अंदाज किया जा रहा है। सारी दुनिया के समाज शास्त्री मानते हैं कि जाति प्रथा भारत के आर्थिक, सामाजिक और राजनीति क विकास में सबसें बड़ा रोड़ा है है, और उनके विनाश के लिए अंबेडकर द्वारा सुझाया गया तरीका ही सबसे उपयोगी है जरूरत इस बात की है कि सभी राजनीतिक पार्टियां इसको अपना मुद्दा बनाए और मायावती को चाहिए कि इस अंदोलन को नेतृत्व प्रदान करें।
Friday, November 6, 2009
आतंक के भस्मासुर के सामने लाचार पाकिस्तान
पाकिस्तान अपने ६२ साल के इतिहास में सबसे भयानक मुसीबत के दौर से गुज़र रहा है. आतंकवाद का भस्मासुर उसे निगल जाने की तैयारी में है. देश के हर बड़े शहर को आतंकवादी अपने हमले का निशाना बना चुके हैं . आतंकवादी हमलों के नए दौर के बाद मरने वालों में बच्चो और औरतों की संख्या बहुत ज्यादा है .अगर पाकिस्तान को विखंडन हुआ तो बांग्लादेश की स्थापना के बाद यह सबसे बड़ा झटका माना जाएगा. अजीब बात यह है कि तानाशाही के व्यापार के चक्कर में पाकिस्तान ने अपने अस्तित्व को ही दांव पर लगा दिया है...हालांकि पाकिस्तानी हुक्मरान को बहुत दिनं तक मुगालता था कि आस पास के देशों में आतंक फैला कर वे अपनी राजनीतिक महत्ता बढा सकते थे. दर असल अमरीकी मदद के बदले में इन्हीं तालिबान को अफगानिस्तान में भेजकर पाकिस्तानी हुकूमतों ने अच्छी खासी रक़म पैदा की थी जब अमरीका की मदद से पाकिस्तानी तानाशाह, जिया उल हक आतंकवाद को अपनी सरकार की नीति के रूप में विकसित कर रहे थे , तभी दुनिया भर के समझ दार लोगों ने उन्हें चेतावनी दी थी. लेकिन उन्होंने किसी की नहीं सुनी . जनरल जिया ने धार्मिक उन्मादियों और फौज के जिद्दी जनरलों की सलाह से देश के बेकार फिर रहे नौजवानों की एक जमात बनायी थी जिसकी मदद से उन्होंने अफगानिस्तान और भारत में आतंकवाद की खेती की थी .उसी खेती का ज़हर आज पाकिस्तान के अस्तित्व पर सवालिया निशान बन कर खडा हो गया है.. अमरीका की सुरक्षा पर भी उसी आतंकवाद का साया मंडरा रहा है जो पाकिस्तानी हुक्मरानों की मदद से स्थापित किया गया था . दुनिया जानती है कि अमरीका का सबसे बड़ा दुश्मन, अल कायदा , अमरीकी पैसे से ही बनाया गया था और उसके संस्थापक ओसामा बिन लादेन अमरीका के ख़ास चेला हुआ करते थे . बाद में उन्होंने ही अमरीका पर आतंकवादी हमला करवाया और आज अमरीकी हुकूमत उनको किसी भी कीमत पर पकड़ने के लिए आमादा है. जबकि अमरीका की घेरेबंदी के चलते बुरी तरह से घिर चुके पाकिस्तानी आतंकवादी , अपने देश को ही तबाह करने के लिए तुले हुए हैं .इस माहौल में कश्मीर की सरकारी यात्रा पर गए भारत के प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह पाकिस्तान की तरफ दोस्ती का हाथ बढा दिया है. अंतर राष्ट्रीय मामलों के जानकार बताते हैं कि मनमोहन सिंह का दोस्ती के लिए बढा हुआ हाथ वास्तव में जले पर नमक की तरह का असर करेगा क्योंकि पाकिस्तान अब किसी से दोस्ती या दुश्मनी करने की ताक़त नहीं रखता. वह तो अपनी अस्तित्व की लड़ाई में इतना बुरी तरह से उलझ चुका है कि उसके पास और किसी काम के लिए फुर्सत ही नहीं है. यहाँ यह याद करना दिलचस्प होगा कि भारत जैसे बड़े देश से पाकिस्तान की दुश्मनी का आधार, कश्मीर है. वह कश्मीर को अपना बनाना चाहता है लेकिन आज वह इतिहास के उस मोड़ पर खडा है जहां से उसको कश्मीर पर कब्जा तो दूर , अपने चार राज्यों को बचा कर रख पाना ही टेढी खीर नज़र आ रही है. लेकिन कश्मीर के मसले को जिंदा रखना पाकिस्तानी शासकों की मजबूरी है क्योंकि १९४८ में जब जिनाह की सरपरस्ती में कश्मीर पर कबायली हमला हुआ था उसके बाद से ही भारत के प्रति नफरत के पाकिस्तानी अभियान में कश्मीर विवाद क भारी योगदान रहा है अगर पाकिस्तान के हुक्मरान उसको ही ख़त्म कर देंगें तो उनके लिए बहुत मुश्किल हो जायेगी
पाकिस्तान की एक देश में स्थापना ही एक तिकड़म का परिणाम है. वहां रहने वाले ज़्यादातर लोग अपने आपको भारत से जोड़ कर अपने इतिहास को याद करते हैं . शुरू से ही पाकिस्तानी शासकों ने धर्म के सहारे अवाम को इकठ्ठा रखने की कोशिश की . यह बहुत बड़ी गलती थी. जब भी धर्म को राज काज में दखल देने की आज़ादी दी जायेगी, राष्ट्र का वही हाल होगा जो आज पाकिस्तान का हो रहा है . दुर्भाग्य की बात यह है कि पाकिस्तान के संस्थापक जब इतिहास और भूगोल से इस तरह का खिलवाड़ कर रहे थे तो उन्हें अंदाज़ ही नहीं था कि वे किस सर्वनाश की नींव डाल रहे हैं . जब अंग्रेजों के एक खेल को पूरा करने के लिए जिनाह ने पाकिस्तान की जिद पकडी थी उसी वक़्त यह अंदाज़ लग गया था कि आने वाला समय इस नए देश के लिए ठीक नहीं होगा..पाकिस्तान की आज़ादी के लिए कोई लड़ाई तो लड़ी नहीं गयी . वह देश तो उस वक़्त के ब्रिटिश प्रधान मंत्री, चर्चिल के एक शातिराना खेल का नतीजा था. मुंबई के अपने घर में बैठकर मुहम्मद अली जिनाह ने चिट्ठियाँ लिख लिख कर पाकिस्तान बना दिया था. आज़ादी की जो लड़ाई १९२० से १९४७ तक चली थी , वह पूरे भारत की आज़ादी के लिए थी और उसमें वह इलाके भी शामिल थे जहां आज का पाकिस्तान है. इस इलाके के जन नायक , खान अब्दुल गफ्फार खान थे. जिनाह जननेता कभी नहीं रहे. वे तो मुस्लिम एलीट के नेता थे. उसी एलीट की हैसियत को बनाए रखने के लिए उन्होंने अंग्रेजों के साथ मिलकर पाकिस्तान बनवा दिया. उनकी अदूरदर्शी सोच का नतीजा है कि आज पाकिस्तान में रहने वाला आम आदमी अमरीकी खैरात पर जिंदा है. आज पाकिस्तान
की अर्थ व्यवस्था पूरी तरह से विदेशी मदद के सहारे चल रही है.. भारत और पाकिस्तान एक ही दिन स्वतंत्र हुए थे. लेकिन भारत आज एक ताक़तवर देश है जबकि पाकिस्तान के अन्दर होने वाली हर गतिविधि अब अमरीकी निगरानी का विषय बन चुकी है. वैसे पाकिस्तान में भी जिस सिलसिलेवार तरीके से जनतंत्र का खत्म किया गया उसका भी आतंकवाद के विकास में खासा योगदान है.आज वहां पाकिस्तानी फौज पूरी तरह से कण्ट्रोल में है. वह जो चाहती हैं करवाती है.ज़रदारी और गीलानी को जनतंत्र का मुखिया बनना भी संभवतः फौज की ही किसी रणनीति का हिस्सा है. इसी लिए जब ताज़ा अमरीकी मदद के मामले में अमरीकी सीनेट ने एक ऐसा नियम जोड़ दिया जिस से पाकिस्तानी जनरलों की तरक्की तब तक नहीं हो पायेगी जब तक कि सिविलियन सरकार उसकी मंजूरी न दे . फौज के अफसर भड़क गए और अमरीकी राष्ट्रपति को फरमान सुना दिया कि इन शर्तों के साथ अमरीकी सहायता नहीं ली जायेगी. लेकिन पाकिस्तान सरकार इस हुक्म को नहीं मान सकती क्योंकि अगर लैरी कुगर एक्ट वाली आर्थिक सहायता न मिली तो पाकिस्तान में रोज़मर्रा का खर्च चलना भी मुश्किल हो जाये़या. जहां तक मदद की बात है अमरीकी विदेश मंत्री सहित लगभग सभी बड़े अधिकारोयों ने मीडिया की मार्फ़त यह ऐलान कर दिया है कि यह मदद मुफ्त में नहीं दी जा रही है . इसके बदले पाकिस्तानी सत्ता को अमरीकी हितों की साधना करनी पड़ेगी.
सच्ची बात यह है कि यह वास्तव में पाकिस्तान के आतंरिक मामलों में अमरीका की खुली दखलंदाजी है और पाकिस्तान के शासक इस हस्तक्षेप को झेलने के लिए मजबूर हैं एक संप्रभु देश के अंदरूनी मामलों में अमरीका की दखलंदाजी को जनतंत्र के समर्थक कभी भी सही नहीं मानते लेकिन आज पाकिस्तान जिस तरह से अपने ही बनाए दलदल में फंस चुका है.और उस दलदल से निकलना पाकिस्तान के अस्तित्व के लिए तो ज़रूरी है ही बाकी दुनिया के लिए भी उतना ही ज़रूरी है. क्योंकि अगर पाकिस्तान तबाह हुआ तो वहां मौजूद प्रशिक्षित आतंकवादी बाहर निकल पडेंगें और तोड़ फोड़ के अलावा उन्हें और तो कुछ आता नहीं लिहाजा जहां भी जायेंगें तोड़ फोड़ का खेल खेलेंगे..पाकिस्तान के अस्थिर हो जाने का नुकसान भारत को सबसे ज्यादा होगा क्योंकि पाकिस्तान में सक्रिय आतंकवादी जमातों को शुरू से ही यह बता दिया गया है कि भारत ही उनका असली दुश्मन है. इस लिए बाकी दुनिया के साथ मिलकर भारत को भी यह कोशिश करनी चाहिए कि आतंकवाद का सफाया तो हो जाए लेकिन पाकिस्तान बचा रहे ज विदेशी मामलों के जानकार बताते हैं कि अमरीका की पूरी कोशिश है कि पाकिस्तान का अस्तित्व बना रहे क्योंकि राजनीतिक सत्ता ख़त्म होने के बाद किसी और देश का प्रशासन चला पाना कितना कठिन होता है उसे अमरीकी नेताओं से बेहतर कोई नहीं जानता . इराक और अफगानिस्तान में यह गलती वे कर चुके हैं और कोई दूसरी मुसीबत झेलने को तैयार नहीं हैं लेकिन पाकिस्तान को एक राष्ट्र के रूप में बचाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी वहां के सभ्य समाज और गैर जनतंत्र की पक्षधर जमातों की है. .इस लिए इस बात में दो राय नहीं कि पाकिस्तान को एक जनतांत्रिक राज्य के रूप में बनाए रखना पूरी दुनिया के हित में है.. यह अलग बात है कि अब तक के गैर जिम्मेदार पाकिस्तानी शासकों ने इसकी गुंजाइश बहुत कम छोडी है. ..
पाकिस्तान की एक देश में स्थापना ही एक तिकड़म का परिणाम है. वहां रहने वाले ज़्यादातर लोग अपने आपको भारत से जोड़ कर अपने इतिहास को याद करते हैं . शुरू से ही पाकिस्तानी शासकों ने धर्म के सहारे अवाम को इकठ्ठा रखने की कोशिश की . यह बहुत बड़ी गलती थी. जब भी धर्म को राज काज में दखल देने की आज़ादी दी जायेगी, राष्ट्र का वही हाल होगा जो आज पाकिस्तान का हो रहा है . दुर्भाग्य की बात यह है कि पाकिस्तान के संस्थापक जब इतिहास और भूगोल से इस तरह का खिलवाड़ कर रहे थे तो उन्हें अंदाज़ ही नहीं था कि वे किस सर्वनाश की नींव डाल रहे हैं . जब अंग्रेजों के एक खेल को पूरा करने के लिए जिनाह ने पाकिस्तान की जिद पकडी थी उसी वक़्त यह अंदाज़ लग गया था कि आने वाला समय इस नए देश के लिए ठीक नहीं होगा..पाकिस्तान की आज़ादी के लिए कोई लड़ाई तो लड़ी नहीं गयी . वह देश तो उस वक़्त के ब्रिटिश प्रधान मंत्री, चर्चिल के एक शातिराना खेल का नतीजा था. मुंबई के अपने घर में बैठकर मुहम्मद अली जिनाह ने चिट्ठियाँ लिख लिख कर पाकिस्तान बना दिया था. आज़ादी की जो लड़ाई १९२० से १९४७ तक चली थी , वह पूरे भारत की आज़ादी के लिए थी और उसमें वह इलाके भी शामिल थे जहां आज का पाकिस्तान है. इस इलाके के जन नायक , खान अब्दुल गफ्फार खान थे. जिनाह जननेता कभी नहीं रहे. वे तो मुस्लिम एलीट के नेता थे. उसी एलीट की हैसियत को बनाए रखने के लिए उन्होंने अंग्रेजों के साथ मिलकर पाकिस्तान बनवा दिया. उनकी अदूरदर्शी सोच का नतीजा है कि आज पाकिस्तान में रहने वाला आम आदमी अमरीकी खैरात पर जिंदा है. आज पाकिस्तान
की अर्थ व्यवस्था पूरी तरह से विदेशी मदद के सहारे चल रही है.. भारत और पाकिस्तान एक ही दिन स्वतंत्र हुए थे. लेकिन भारत आज एक ताक़तवर देश है जबकि पाकिस्तान के अन्दर होने वाली हर गतिविधि अब अमरीकी निगरानी का विषय बन चुकी है. वैसे पाकिस्तान में भी जिस सिलसिलेवार तरीके से जनतंत्र का खत्म किया गया उसका भी आतंकवाद के विकास में खासा योगदान है.आज वहां पाकिस्तानी फौज पूरी तरह से कण्ट्रोल में है. वह जो चाहती हैं करवाती है.ज़रदारी और गीलानी को जनतंत्र का मुखिया बनना भी संभवतः फौज की ही किसी रणनीति का हिस्सा है. इसी लिए जब ताज़ा अमरीकी मदद के मामले में अमरीकी सीनेट ने एक ऐसा नियम जोड़ दिया जिस से पाकिस्तानी जनरलों की तरक्की तब तक नहीं हो पायेगी जब तक कि सिविलियन सरकार उसकी मंजूरी न दे . फौज के अफसर भड़क गए और अमरीकी राष्ट्रपति को फरमान सुना दिया कि इन शर्तों के साथ अमरीकी सहायता नहीं ली जायेगी. लेकिन पाकिस्तान सरकार इस हुक्म को नहीं मान सकती क्योंकि अगर लैरी कुगर एक्ट वाली आर्थिक सहायता न मिली तो पाकिस्तान में रोज़मर्रा का खर्च चलना भी मुश्किल हो जाये़या. जहां तक मदद की बात है अमरीकी विदेश मंत्री सहित लगभग सभी बड़े अधिकारोयों ने मीडिया की मार्फ़त यह ऐलान कर दिया है कि यह मदद मुफ्त में नहीं दी जा रही है . इसके बदले पाकिस्तानी सत्ता को अमरीकी हितों की साधना करनी पड़ेगी.
सच्ची बात यह है कि यह वास्तव में पाकिस्तान के आतंरिक मामलों में अमरीका की खुली दखलंदाजी है और पाकिस्तान के शासक इस हस्तक्षेप को झेलने के लिए मजबूर हैं एक संप्रभु देश के अंदरूनी मामलों में अमरीका की दखलंदाजी को जनतंत्र के समर्थक कभी भी सही नहीं मानते लेकिन आज पाकिस्तान जिस तरह से अपने ही बनाए दलदल में फंस चुका है.और उस दलदल से निकलना पाकिस्तान के अस्तित्व के लिए तो ज़रूरी है ही बाकी दुनिया के लिए भी उतना ही ज़रूरी है. क्योंकि अगर पाकिस्तान तबाह हुआ तो वहां मौजूद प्रशिक्षित आतंकवादी बाहर निकल पडेंगें और तोड़ फोड़ के अलावा उन्हें और तो कुछ आता नहीं लिहाजा जहां भी जायेंगें तोड़ फोड़ का खेल खेलेंगे..पाकिस्तान के अस्थिर हो जाने का नुकसान भारत को सबसे ज्यादा होगा क्योंकि पाकिस्तान में सक्रिय आतंकवादी जमातों को शुरू से ही यह बता दिया गया है कि भारत ही उनका असली दुश्मन है. इस लिए बाकी दुनिया के साथ मिलकर भारत को भी यह कोशिश करनी चाहिए कि आतंकवाद का सफाया तो हो जाए लेकिन पाकिस्तान बचा रहे ज विदेशी मामलों के जानकार बताते हैं कि अमरीका की पूरी कोशिश है कि पाकिस्तान का अस्तित्व बना रहे क्योंकि राजनीतिक सत्ता ख़त्म होने के बाद किसी और देश का प्रशासन चला पाना कितना कठिन होता है उसे अमरीकी नेताओं से बेहतर कोई नहीं जानता . इराक और अफगानिस्तान में यह गलती वे कर चुके हैं और कोई दूसरी मुसीबत झेलने को तैयार नहीं हैं लेकिन पाकिस्तान को एक राष्ट्र के रूप में बचाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी वहां के सभ्य समाज और गैर जनतंत्र की पक्षधर जमातों की है. .इस लिए इस बात में दो राय नहीं कि पाकिस्तान को एक जनतांत्रिक राज्य के रूप में बनाए रखना पूरी दुनिया के हित में है.. यह अलग बात है कि अब तक के गैर जिम्मेदार पाकिस्तानी शासकों ने इसकी गुंजाइश बहुत कम छोडी है. ..
Monday, November 2, 2009
ज्योतिबा फुले ने दलित पक्षधरता की तमीज सिखाई
महात्मा गांधी की किताब हिंद स्वराज की शताब्दी के वर्ष में कई स्तरों पर उस किताब की चर्चा हो रही है, जो जायज भी है। महात्मा जी की इसी किताब ने सत्याग्रह और अहिंसा को राजनीतिक विजय के एक हथियार के रूप में विकसित करने की प्रेरणा दी और 1920 से 1947 तक की भारत की राजनीतिक यात्रा के पाथेय के रूप में हिंद स्वराज में बताये गये मंत्र अमर हो गये।
दरअसल हिंद स्वराज एक ऐसी किताब है, जिसने भारत के सामाजिक राजनीतिक जीवन को बहुत गहराई तक प्रभावित किया। बीसवीं सदी के उथल पुथल भरे भारत के इतिहास में जिन पांच किताबों का सबसे ज़्यादा योगदान है, हिंद स्वराज का नाम उसमें सर्वोपरि है। इसके अलावा जिन चार किताबों ने भारत के राजनीतिक सामाजिक चिंतन को प्रभावित किया उनके नाम हैं, भीमराव अंबेडकर की जाति का विनाश मार्क्स और एंगेल्स की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो, ज्योतिराव फुले की गुलामगिरी और वीडी सावरकर की हिंदुत्व। अंबेडकर, मार्क्स और सावरकर के बारे में तो उनकी राजनीतिक विचारधारा के उत्तराधिकारियों की वजह से हिंदी क्षेत्रों में जानकारी है। क्योंकि मार्क्स का दर्शन कम्युनिस्ट पार्टी का, सावरकर का दर्शन बीजेपी का और अंबेडकर का दर्शन बहुजन समाज पार्टी का आधार है लेकिन 19 वीं सदी के क्रांतिकारी चितंक और वर्णव्यवस्था को गंभीर चुनौती देने वाले ज्योतिराव फुले के बारे में जानकारी की कमी है। ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म पुणे में हुआ था और उनके पिता पेशवा के राज्य में बहुत सम्माननीय व्यक्ति थे। लेकिन ज्योतिराव फुले अलग किस्म के इंसान थे। उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए जो काम किया उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। उनका जन्म 1827 में पुणे में हुआ था, माता पिता संपन्न थे लेकिन महात्मा फुले हमेशा ही गरीबों के पक्षधर बने रहे। उनकी महानता के कुछ खास कार्यों का ज़िक्र करना ज़रूरी है।
1848 में शूद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना कर दी थी। आजकल जिन्हें दलित कहा जाता है, महात्मा फुले के लेखन में उन्हें शूद्रातिशूद्र कहा गया है। 1848 में दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोलना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है। क्योंकि इसके 9 साल बाद बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। उन्होंने 1848 में ही मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का प्रकाशन किया था। 1848 में यह स्कूल खोलकर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठेकेदारों को नाराज़ कर दिया था। उनके अपने पिता गोविंदराव जी भी उस वक्त के सामंती समाज के बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। दलित लड़कियों के स्कूल के मुद्दे पर बहुत झगड़ा हुआ लेकिन ज्योतिराव फुले ने किसी की न सुनी। नतीजतन उन्हें 1849 में घर से निकाल दिया गया। सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया। जब 1868 में उनके पिताजी की मृत्यु हो गयी तो उन्होंने अपने परिवार के पीने के पानी वाले तालाब को अछूतों के लिए खोल दिया। 1873 में महात्मा फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की और इसी साल उनकी पुस्तक गुलामगिरी का प्रकाशन हुआ। दोनों ही घटनाओं ने पश्चिमी और दक्षिण भारत के भावी इतिहास और चिंतन को बहुत प्रभावित किया।
महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा है। वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे उसे ब्राह्मणवाद के नाम से ही संबोधित करते हैं। उनका विश्वास था कि अपने एकाधिकार को स्थापित किये रहने के उद्देश्य से ही ब्राह्मणों ने श्रुति और स्मृति का आविष्कार किया था। इन्हीं ग्रंथों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को दैवी रूप देने की कोशिश की। महात्मा फुले ने इस विचारधारा को पूरी तरह ख़ारिज़ कर दिया। फुले को विश्वास था कि ब्राह्मणवाद एक ऐसी धार्मिक व्यवस्था थी जो ब्राह्मणों की प्रभुता की उच्चता को बौद्घिक और तार्किक आधार देने के लिए बनायी गयी थी। उनका हमला ब्राह्मण वर्चस्ववादी दर्शन पर होता था। उनका कहना था कि ब्राह्मणवाद के इतिहास पर गौर करें तो समझ में आ जाएगा कि यह शोषण करने के उद्देश्य से हजारों वर्षों में विकसित की गयी व्यवस्था है। इसमें कुछ भी पवित्र या दैवी नहीं है। न्याय शास्त्र में सत की जानकारी के लिए जिन 16 तरकीबों का वर्णन किया गया है, वितंडा उसमें से एक है। महात्मा फुले ने इसी वितंडा का सहारा लेकर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को समाप्त करने की लड़ाई लड़ी। उन्होंने अवतार कल्पना का भी विरोध किया। उन्होंने विष्णु के विभिन्न अवतारों का बहुत ही ज़ोरदार विरोध किया। कई बार उनका विरोध ऐतिहासिक या तार्किक कसौटी पर खरा नहीं उतरता लेकिन उनकी कोशिश थी कि ब्राह्मणवाद ने जो कुछ भी पवित्र या दैवी कह कर प्रचारित कर रखा है उसका विनाश किया जाना चाहिए। उनकी धारणा थी कि उसके बाद ही न्याय पर आधारित व्यवस्था कायम की जा सकेगी। ब्राह्मणवादी धर्म के ईश्वर और आर्यों की उत्पत्ति के बारे में उनके विचार को समझने के लिए ज़रूरी है कि यह ध्यान में रखा जाए कि महात्मा फुले इतिहास नहीं लिख रहे थे। वे सामाजिक न्याय और समरसता के युद्घ की भावी सेनाओं के लिए बीजक लिख रहे थे।
महात्मा फुले ने कर्म विपाक के सिद्घांत को भी ख़ारिज़ कर दिया था, जिसमें जन्म जन्मांतर के पाप पुण्य का हिसाब रखा जाता है। उनका कहना था कि यह सोच जातिव्यवस्था को बढ़ावा देती है इसलिए इसे फौरन ख़ारिज़ किया जाना चाहिए। फुले के लेखन में कहीं भी पुनर्जन्म की बात का खंडन या मंडन नहीं किया गया है। यह अजीब लगता है क्योंकि पुनर्जन्म का आधार तो कर्म विपाक ही है।
महात्मा फुले ने जाति को उत्पादन के एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने और ब्राह्मणों के आधिपत्य को स्थापित करने की एक विधा के रूप में देखा। उनके हिसाब से जाति भारतीय समाज की बुनियाद का काम भी करती थी और उसके ऊपर बने ढांचे का भी। उन्होंने शूद्रातिशूद्र राजा, बालिराज और विष्णु के वामनावतार के संघर्ष का बार-बार ज़िक्र किया है। ऐसा लगता है कि उनके अंदर यह क्षमता थी कि वह सारे इतिहास की व्याख्या बालि राज-वामन संघर्ष के संदर्भ में कर सकते थे।
स्थापित व्यवस्था के खिलाफ महात्मा फुले के हमले बहुत ही ज़बरदस्त थे। वे एक मिशन को ध्यान में रखकर काम कर रहे थे। उन्होंने इस बात के भी सूत्र दिये, जिसके आधार पर शूद्रातिशूद्रों का अपना धर्म चल सके। वे एक क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन की बात कर रहे थे। ब्राह्मणवाद के चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को उन्होंने ख़ारिज़ किया, ऋग्वेद के पुरुष सूक्त का, जिसके आधार पर वर्णव्यवस्था की स्थापना हुई थी, को फर्ज़ी बताया और द्वैवर्णिक व्यवस्था की बात की।
महात्मा फुले एक समतामूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है। पशुपालन, खेती, सिंचाई व्यवस्था सबके बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है। गरीबों के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत ज़ोर दिया। उन्होंने आज के 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की। जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमदनगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन था, वह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था। इस दौर के समाज सुधारकों में किसानों के बारे में विस्तार से सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं था लेकिन महात्मा फुले ने इस सबको अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया।
स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे। मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं। लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा। उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को ग़लत बताया।
फुले ने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की। प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था लेकिन महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था। इसीलिए उन्होंने पंडिता रमाबाई के समर्थन में लोगों को लामबंद किया, जब उन्होंने धर्म परिवर्तन किया और ईसाई बन गयीं। वे धर्म परिवर्तन के समर्थक नहीं थे लेकिन महिला द्वारा अपने फ़ैसले खुद लेने के सैद्घांतिक पक्ष का उन्होंने समर्थन किया।
महात्मा फुले की किताब गुलामगिरी बहुत कम पृष्ठों की एक किताब है, लेकिन इसमें बताये गये विचारों के आधार पर पश्चिमी और दक्षिणी भारत में बहुत सारे आंदोलन चले। उत्तर प्रदेश में चल रही दलित अस्मिता की लड़ाई के बहुत सारे सूत्र गुलामगिरी में ढूंढ़े जा सकते है। आधुनिक भारत महात्मा फुले जैसी क्रांतिकारी विचारक का आभारी है।
दरअसल हिंद स्वराज एक ऐसी किताब है, जिसने भारत के सामाजिक राजनीतिक जीवन को बहुत गहराई तक प्रभावित किया। बीसवीं सदी के उथल पुथल भरे भारत के इतिहास में जिन पांच किताबों का सबसे ज़्यादा योगदान है, हिंद स्वराज का नाम उसमें सर्वोपरि है। इसके अलावा जिन चार किताबों ने भारत के राजनीतिक सामाजिक चिंतन को प्रभावित किया उनके नाम हैं, भीमराव अंबेडकर की जाति का विनाश मार्क्स और एंगेल्स की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो, ज्योतिराव फुले की गुलामगिरी और वीडी सावरकर की हिंदुत्व। अंबेडकर, मार्क्स और सावरकर के बारे में तो उनकी राजनीतिक विचारधारा के उत्तराधिकारियों की वजह से हिंदी क्षेत्रों में जानकारी है। क्योंकि मार्क्स का दर्शन कम्युनिस्ट पार्टी का, सावरकर का दर्शन बीजेपी का और अंबेडकर का दर्शन बहुजन समाज पार्टी का आधार है लेकिन 19 वीं सदी के क्रांतिकारी चितंक और वर्णव्यवस्था को गंभीर चुनौती देने वाले ज्योतिराव फुले के बारे में जानकारी की कमी है। ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म पुणे में हुआ था और उनके पिता पेशवा के राज्य में बहुत सम्माननीय व्यक्ति थे। लेकिन ज्योतिराव फुले अलग किस्म के इंसान थे। उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए जो काम किया उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। उनका जन्म 1827 में पुणे में हुआ था, माता पिता संपन्न थे लेकिन महात्मा फुले हमेशा ही गरीबों के पक्षधर बने रहे। उनकी महानता के कुछ खास कार्यों का ज़िक्र करना ज़रूरी है।
1848 में शूद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना कर दी थी। आजकल जिन्हें दलित कहा जाता है, महात्मा फुले के लेखन में उन्हें शूद्रातिशूद्र कहा गया है। 1848 में दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोलना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है। क्योंकि इसके 9 साल बाद बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। उन्होंने 1848 में ही मार्क्स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का प्रकाशन किया था। 1848 में यह स्कूल खोलकर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठेकेदारों को नाराज़ कर दिया था। उनके अपने पिता गोविंदराव जी भी उस वक्त के सामंती समाज के बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। दलित लड़कियों के स्कूल के मुद्दे पर बहुत झगड़ा हुआ लेकिन ज्योतिराव फुले ने किसी की न सुनी। नतीजतन उन्हें 1849 में घर से निकाल दिया गया। सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया। जब 1868 में उनके पिताजी की मृत्यु हो गयी तो उन्होंने अपने परिवार के पीने के पानी वाले तालाब को अछूतों के लिए खोल दिया। 1873 में महात्मा फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की और इसी साल उनकी पुस्तक गुलामगिरी का प्रकाशन हुआ। दोनों ही घटनाओं ने पश्चिमी और दक्षिण भारत के भावी इतिहास और चिंतन को बहुत प्रभावित किया।
महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा है। वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे उसे ब्राह्मणवाद के नाम से ही संबोधित करते हैं। उनका विश्वास था कि अपने एकाधिकार को स्थापित किये रहने के उद्देश्य से ही ब्राह्मणों ने श्रुति और स्मृति का आविष्कार किया था। इन्हीं ग्रंथों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को दैवी रूप देने की कोशिश की। महात्मा फुले ने इस विचारधारा को पूरी तरह ख़ारिज़ कर दिया। फुले को विश्वास था कि ब्राह्मणवाद एक ऐसी धार्मिक व्यवस्था थी जो ब्राह्मणों की प्रभुता की उच्चता को बौद्घिक और तार्किक आधार देने के लिए बनायी गयी थी। उनका हमला ब्राह्मण वर्चस्ववादी दर्शन पर होता था। उनका कहना था कि ब्राह्मणवाद के इतिहास पर गौर करें तो समझ में आ जाएगा कि यह शोषण करने के उद्देश्य से हजारों वर्षों में विकसित की गयी व्यवस्था है। इसमें कुछ भी पवित्र या दैवी नहीं है। न्याय शास्त्र में सत की जानकारी के लिए जिन 16 तरकीबों का वर्णन किया गया है, वितंडा उसमें से एक है। महात्मा फुले ने इसी वितंडा का सहारा लेकर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को समाप्त करने की लड़ाई लड़ी। उन्होंने अवतार कल्पना का भी विरोध किया। उन्होंने विष्णु के विभिन्न अवतारों का बहुत ही ज़ोरदार विरोध किया। कई बार उनका विरोध ऐतिहासिक या तार्किक कसौटी पर खरा नहीं उतरता लेकिन उनकी कोशिश थी कि ब्राह्मणवाद ने जो कुछ भी पवित्र या दैवी कह कर प्रचारित कर रखा है उसका विनाश किया जाना चाहिए। उनकी धारणा थी कि उसके बाद ही न्याय पर आधारित व्यवस्था कायम की जा सकेगी। ब्राह्मणवादी धर्म के ईश्वर और आर्यों की उत्पत्ति के बारे में उनके विचार को समझने के लिए ज़रूरी है कि यह ध्यान में रखा जाए कि महात्मा फुले इतिहास नहीं लिख रहे थे। वे सामाजिक न्याय और समरसता के युद्घ की भावी सेनाओं के लिए बीजक लिख रहे थे।
महात्मा फुले ने कर्म विपाक के सिद्घांत को भी ख़ारिज़ कर दिया था, जिसमें जन्म जन्मांतर के पाप पुण्य का हिसाब रखा जाता है। उनका कहना था कि यह सोच जातिव्यवस्था को बढ़ावा देती है इसलिए इसे फौरन ख़ारिज़ किया जाना चाहिए। फुले के लेखन में कहीं भी पुनर्जन्म की बात का खंडन या मंडन नहीं किया गया है। यह अजीब लगता है क्योंकि पुनर्जन्म का आधार तो कर्म विपाक ही है।
महात्मा फुले ने जाति को उत्पादन के एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने और ब्राह्मणों के आधिपत्य को स्थापित करने की एक विधा के रूप में देखा। उनके हिसाब से जाति भारतीय समाज की बुनियाद का काम भी करती थी और उसके ऊपर बने ढांचे का भी। उन्होंने शूद्रातिशूद्र राजा, बालिराज और विष्णु के वामनावतार के संघर्ष का बार-बार ज़िक्र किया है। ऐसा लगता है कि उनके अंदर यह क्षमता थी कि वह सारे इतिहास की व्याख्या बालि राज-वामन संघर्ष के संदर्भ में कर सकते थे।
स्थापित व्यवस्था के खिलाफ महात्मा फुले के हमले बहुत ही ज़बरदस्त थे। वे एक मिशन को ध्यान में रखकर काम कर रहे थे। उन्होंने इस बात के भी सूत्र दिये, जिसके आधार पर शूद्रातिशूद्रों का अपना धर्म चल सके। वे एक क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन की बात कर रहे थे। ब्राह्मणवाद के चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को उन्होंने ख़ारिज़ किया, ऋग्वेद के पुरुष सूक्त का, जिसके आधार पर वर्णव्यवस्था की स्थापना हुई थी, को फर्ज़ी बताया और द्वैवर्णिक व्यवस्था की बात की।
महात्मा फुले एक समतामूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है। पशुपालन, खेती, सिंचाई व्यवस्था सबके बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है। गरीबों के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत ज़ोर दिया। उन्होंने आज के 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की। जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमदनगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन था, वह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था। इस दौर के समाज सुधारकों में किसानों के बारे में विस्तार से सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं था लेकिन महात्मा फुले ने इस सबको अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया।
स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे। मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं। लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा। उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को ग़लत बताया।
फुले ने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की। प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था लेकिन महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था। इसीलिए उन्होंने पंडिता रमाबाई के समर्थन में लोगों को लामबंद किया, जब उन्होंने धर्म परिवर्तन किया और ईसाई बन गयीं। वे धर्म परिवर्तन के समर्थक नहीं थे लेकिन महिला द्वारा अपने फ़ैसले खुद लेने के सैद्घांतिक पक्ष का उन्होंने समर्थन किया।
महात्मा फुले की किताब गुलामगिरी बहुत कम पृष्ठों की एक किताब है, लेकिन इसमें बताये गये विचारों के आधार पर पश्चिमी और दक्षिणी भारत में बहुत सारे आंदोलन चले। उत्तर प्रदेश में चल रही दलित अस्मिता की लड़ाई के बहुत सारे सूत्र गुलामगिरी में ढूंढ़े जा सकते है। आधुनिक भारत महात्मा फुले जैसी क्रांतिकारी विचारक का आभारी है।
घूस को घूस ही रहने दो कोई नाम न दो .
मधु कोडा की भ्रष्टाचार कथा की चर्चा चारों तरफ हो रही है. झारखण्ड के इस पूर्व मुख्यमंत्री की दौलत के बारे में जो लोग भी सुन रहे हैं, दांतों तले उंगली दबाने का अभिनय कर रहे हैं .दुनिया के कई देशों में उन्होंने पैसा लगा रखा है, हर बड़े शहर में मकान है, कहीं दूकान है तो कहीं फैक्ट्री है, सोना चांदी, हीरे जवाहरात का कोई हिसाब ही नहीं है, बैंकों में लॉकर हैं,विदेशी बैंकों में खाते हैं. बे ईमानी के रास्ते अर्जित की गयी मधु कोडा की इस संपत्ति का स्रोत सौ फीसदी राजनीतिक भर्ष्टाचार है क्योंकि राजनीति के अलावा , उसने और कोई काम ही नहीं किया. अब इस वर्णन में से मधु कोडा का नाम हटाकर पढने की कोशिश करते हैं. अपने मुल्क में ऐसे बहुत सारे नेता हैं जिनके पास इसी तरह की संपत्ति है और जिन्होंने उस संपत्ति को चोरी और घूसखोरी के ज़रिये इकठ्ठा किया है. लेकिन जब उनका नाम आता है तो मीडिया इतने चटखारे नहीं लेता ,शायद इस प्रवृत्ति में किसी तरह के वर्ग पूर्वाग्रह भी हों लेकिन यहाँ उन पूर्वाग्रहों की चर्चा करके घूसखोरी के निजाम के खिलाफ चल रही बहस को कमज़ोर करना ठीक नहीं है. मधु कोडा की कृपा से सार्वजनिक जीवन में घूस की भूमिका एक बार फिर फोकस में आई है तो उस पर गंभीर चर्चा की शुरुआत करने की कोशिश की जानी चाहिए. नेताओं
की घूस महिमा पर चर्चा अक्सर होती रहती है और कुछ दिन बाद ख़त्म हो जाती है. आज़ादी के बाद भी नेताओं के घूस पर चर्चा होती थी लेकिन उस चर्चा का समाज को यह फायदा होता था कि उस नेता के खिलाफ जनमत बनता तह और ज़्यादातर मामलों में वह नेता सज़ा पा जाता था और उसे सार्वजनिक जीवन से बाहर होना पड़ता था . जवाहरलाल नेहरु के पेट्रोलियम मंत्री , केशव देव मालवीय का ज़िक्र इस सन्दर्भ में अक्सर किया जाता है जिनके ऊपर मीडिया ने दस हज़ार रूपये की घूस का आरोप लगाया और उन्हें सरकार से बाहर होना पड़ा. लेकिन अब ऐसा नहीं होता . घूसखोर नेता मज़े से ऐश करता है और कहीं कुछ नहीं होता. इस लिस्ट में देश के वर्तमान नेताओं में से लगभग ९० प्रतिशत का नाम डाला जा सकता है . अब घूस को आमदनी बताया जाता है और डंके की चोट पर बा-हलफ ऐलान किया जाता है कि भाई, जब हम राजनीति में आये थे तो हमारे पास रोटी के पैसे नहीं थे लेकिन अब मेरे पास करोडों की संपत्ति है. सवाल पैदा होता है कि जांच एजेंसियों , अदालतों, और बाकी सरकारी तंत्र के बावजूद नेता कैसे इतनी रक़म इकट्ठी कर लेता है .और कहीं किसी को पता नहीं लगता. क्या समाज के बाकी वर्ग अपनी ड्यूटी सही तरीके से निभा रहे हैं. ? क्या सरकारी नौकर अपना काम सही तरीके से कर रहे हैं ? क्या पत्रकार अपना कर्त्तव्य निभा रहे हैं ? जवाब में बहुत हे एतेज़ आवाज़ में ' नहीं' कहा आ सकता है. अफसरों की घूस की संपत्ति का ज़िक्र रोज़ ही अखबारों में रहता है लेकिन उसका ज़िक्र तब होता है जब से बी आई या और कोई जांच एजेन्सी उन अफसरों को पकड़ लेती है. आम तौर पर इस देश के अफसर घूसखोर हैं इसलिए उनका ज़िक्र यहाँ करके वक़्त और कागज़ की बर्बादी के सिवा कुछ नहीं हासिल होने वाला है .लेकिन घूस के इ स्दुनिया पर समाज को काबू करना होगा वरना एक राष्ट्र और समाज के रूप में अपनी तबाही को रोक पाना बिलकुल असंभव हो जाएगा. सत्ता को बेलगाम होने से अगर रोका न गया तो आनेवाली नस्लें हमें माफ़ नहीं करेंगीं. लेकिन कौन बांधेगा सत्ता के लगातार निरंकुश हो रहे इस घोडे को अनुशासन और ईमानदारी के खूंटे से . जवाब साफ़ है कि जिस जनता ने इस भ्रष्ट बे-ईमान अफसरों नेताओं को सत्ता दी है वही इन्हें लगाम लगा सकती है. देश से भ्रष्टाचार को ख़त्म करने का एक ही तरीका है कि जनता इनके खिलाफ लामबंद हो , वह तय करे कि चोरी-घूसखोरी का राज नहीं चलने देंगें. लेकिन उस जनता को बतायेगा कौन ? इसी सवाल के जवाब में अपने देश के भविष्य को संवारने का मन्त्र छुपा है. जनता को जाने वाला और कोई नहीं , हमारी अपनी बिरादरी है. अगर पत्रकार चेत ले तो बे-ईमान नेता और अफसर पनाह माँगने लगें.अपनी ड्यूटी संविधान सम्मत तरीके से करने लगें और अगर घूस की गिजा पर मौज करने वाली यह बिरादरी घूस लेने से डरने लगे तो समाज में शान्ति और खुशहाली आने में बहुत देर नहीं लगेगी.लेकिन इस बिरादरी को अपना फ़र्ज़ सही तरीके से करना पड़ेगा.
दुर्भाग्य की बात है कि आज ऐसा नहीं हो रहा है. पत्रकार जिन अखबारों और टी वी चैनलों पर अपनी बात कह सकता है वह बड़े पूंजीपतियों के प्रत्यक्ष या परोक्ष कब्जे में है . इस लिए मीडिया के परंपरागत माध्यमों से बहुत उम्मीद करना ठीक नहीं है.. वैसे भी पत्रकारों ने अजीब ख्याति हासिल कर ली है . इमर्जेंसी के ठीक बाद जब प्रेस पर बेजा कण्ट्रोल की बहस चली थी तो उस वक़्त की जनता पार्टी के नेता लाल कृष्ण अडवाणी ने एक बड़ी दिलचस्प बात कही थी. उन्होंने पत्रकारों से कहा कि आप से झुकने को कहा गया था लेकिन आप लोग तो रेंगने लगे थे. यह बात सभी पत्रकारों के लिए सच नहीं थी. कुलदीप नायर जैसे कुछ लोगों ने तानाशाही की शर्तों को मानने से इनकार कर दिया था . आज भी कुछ पत्रकार ऐसे हैं जिन्होंने लक्ष्मी की ताक़त के सामने झुकने से मना कर दिया है लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि मीडिया में काम करने वालों की एक बड़ी जमात आजकल घूस का वर्णन करने के लिए कमाई शब्द का इस्तेमाल करने लगी है. बस यही गड़बड़ है .अगर मीडिया तय कर ले कि देशहित में काम करना है और नेता-बाबू गठजोड़ को घूस का राज नहीं कायम करने देना है तो आधी से ज्यादा लड़ाई अपने आप जीत ली जायेगी. अब यहीं पर इस बात की जांच कर लेना ज़रूरी है कि क्या मीडिया की जो वर्तमान दशा है उसमें इतनी निर्णायक लड़ाई की उम्मीद की जा सकती है.हालांकि यह बहुत शर्म की बात है लेकिन आज के मीडिया का एक बड़ा वर्ग इसी नेता-बाबू गठजोड़ की कृपा से करोड़पति और अरबपति बन चुका है.. वह सच को छुपाने की बे-ईमानों की कोशिश का हिस्सा बन जाता है. मीडिया में घूसखोरी की वे ही घटनाएं रिपोर्ट होती हैं जिनकी जांच सरकार की एजेंसियाँ कर लेती हैं. इस देश में मीडिया ने बार बार सरकारों को जनहित में सच स्वीकार करने के लिए मजबूर किया है. इंडियन एक्सप्रेस की खोजी पत्रकारिता के वजह से ही उस वक़्त के महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री , ए आर अंतुले को जाना पड़ा था , बोफोर्स का भांडा भी मीडिया ने फोड़ा था और बंगारू लक्ष्मण की नोटों की गड्डियाँ संभालती छवि भी मीडिया की कृपा से ही आई थी . इन कुछ उदाहरणों से यह बात साफ़ है कि अगर मीडिया तय कर ले तो वह परिवर्तन का वाहक बन सकता है लेकिन उसके लिए हिम्मत और अपने पेशे के प्रति ईमानदारी की भावना चाहिए.. इन कुछ आदरणीय अपवादों के सहारे आज भी प्रेस की आजादी और उसकी ताक़त का मानदंड बनते हैं लेकिन आज देश में पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग बे-ईमानी की चपेट में है.. राजनेताओं से पैसे लेना, उनके मन माफिक खबरें छापना, एक से लेकर दूसरे के खिलाफ खबर छापना, कुछ ऐसी बातें हैं जिन्होंने मीडिया को कटघरे में खडा कर दिया है. . किसी एक पत्रकार की बे-ईमानी का साधारणीकरण करके पूरे पेशे को घेरने वाले हर कोने में मिल जायेंगें. इसलिए मीडिया के जिम्मेदार लोगों को चाहिए कि वे इस तरह के लोगों की बात को गलत साबित करने के लिए पहल करें . इस पहल की शुरुआत अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा से की जा सकती है .लेकिन इस काम में उन लोगों की कोई भूमिका नहीं है जिन्होंने किसी सोसाइटी में मेम्बरशिप लेकर कहीं एक फ्लैट जुगाड़ लिया है.. पिछले दिनों भड़ास पर ऐसे कुछ ईमानदार लोगों ने अपनी संपत्ति की घोषणा की . मामूली आर्थिक ताक़त वाले इन पत्रकारों की पहल से कुछ नहीं होने वाला है . हाँ अगर यह लोग अपनी संपत्ति के साथ साथ उन लोगों की संपत्ति की भी घोषणा करवाएं जिनके तीन चार प्लाट हैं, दूकान है , कई कारें हैं , और शाई जीवन शैली है , तो बात बनेगी.. उसके बाद घूस और पत्रकारिता के गठजोड़ की कड़ी टूटेगी और अगर यह कड़ी टूटती है तो कोई भी मधु कोडा हिम्मत नहीं करेगा कि वह आम आदमी के धन की इतने बड़े पैमाने पर चोरी कर सके.. उत्तर प्रदेश के घूसखोर आई ए एस अफसरों की सूची आखिर उन्हीं की बिरादरी के लोगों ने प्रकाशित की थी. यह अलग बात है उसके बाद भी कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ा. लेकिन जनता जागरूक हो रही है अगर उसे घूस की परिभाषा बताते हुए यह बता दिया जाए कि नेता-अफसर गिरोह द्बारा लिया गया वह पैसा जो आम आदमी की भलाई के लिए होता है जब वही भ्रष्ट तरीके से कोई और हड़प लेता है ,तो वह घूस हो जाता है . अगर यह बात जनता की समझ में आ गयी तो घूस के सिद्धांत पर चलने वाली सरकारों का बच रहना मुश्किल हो जाएगा. लेकिन उसके पहले जनता तक सच्चाई पंहुचाने वाले पत्रकारों को अपनी ड्यूटी सही तरीके से करनी पड़ेगी.
की घूस महिमा पर चर्चा अक्सर होती रहती है और कुछ दिन बाद ख़त्म हो जाती है. आज़ादी के बाद भी नेताओं के घूस पर चर्चा होती थी लेकिन उस चर्चा का समाज को यह फायदा होता था कि उस नेता के खिलाफ जनमत बनता तह और ज़्यादातर मामलों में वह नेता सज़ा पा जाता था और उसे सार्वजनिक जीवन से बाहर होना पड़ता था . जवाहरलाल नेहरु के पेट्रोलियम मंत्री , केशव देव मालवीय का ज़िक्र इस सन्दर्भ में अक्सर किया जाता है जिनके ऊपर मीडिया ने दस हज़ार रूपये की घूस का आरोप लगाया और उन्हें सरकार से बाहर होना पड़ा. लेकिन अब ऐसा नहीं होता . घूसखोर नेता मज़े से ऐश करता है और कहीं कुछ नहीं होता. इस लिस्ट में देश के वर्तमान नेताओं में से लगभग ९० प्रतिशत का नाम डाला जा सकता है . अब घूस को आमदनी बताया जाता है और डंके की चोट पर बा-हलफ ऐलान किया जाता है कि भाई, जब हम राजनीति में आये थे तो हमारे पास रोटी के पैसे नहीं थे लेकिन अब मेरे पास करोडों की संपत्ति है. सवाल पैदा होता है कि जांच एजेंसियों , अदालतों, और बाकी सरकारी तंत्र के बावजूद नेता कैसे इतनी रक़म इकट्ठी कर लेता है .और कहीं किसी को पता नहीं लगता. क्या समाज के बाकी वर्ग अपनी ड्यूटी सही तरीके से निभा रहे हैं. ? क्या सरकारी नौकर अपना काम सही तरीके से कर रहे हैं ? क्या पत्रकार अपना कर्त्तव्य निभा रहे हैं ? जवाब में बहुत हे एतेज़ आवाज़ में ' नहीं' कहा आ सकता है. अफसरों की घूस की संपत्ति का ज़िक्र रोज़ ही अखबारों में रहता है लेकिन उसका ज़िक्र तब होता है जब से बी आई या और कोई जांच एजेन्सी उन अफसरों को पकड़ लेती है. आम तौर पर इस देश के अफसर घूसखोर हैं इसलिए उनका ज़िक्र यहाँ करके वक़्त और कागज़ की बर्बादी के सिवा कुछ नहीं हासिल होने वाला है .लेकिन घूस के इ स्दुनिया पर समाज को काबू करना होगा वरना एक राष्ट्र और समाज के रूप में अपनी तबाही को रोक पाना बिलकुल असंभव हो जाएगा. सत्ता को बेलगाम होने से अगर रोका न गया तो आनेवाली नस्लें हमें माफ़ नहीं करेंगीं. लेकिन कौन बांधेगा सत्ता के लगातार निरंकुश हो रहे इस घोडे को अनुशासन और ईमानदारी के खूंटे से . जवाब साफ़ है कि जिस जनता ने इस भ्रष्ट बे-ईमान अफसरों नेताओं को सत्ता दी है वही इन्हें लगाम लगा सकती है. देश से भ्रष्टाचार को ख़त्म करने का एक ही तरीका है कि जनता इनके खिलाफ लामबंद हो , वह तय करे कि चोरी-घूसखोरी का राज नहीं चलने देंगें. लेकिन उस जनता को बतायेगा कौन ? इसी सवाल के जवाब में अपने देश के भविष्य को संवारने का मन्त्र छुपा है. जनता को जाने वाला और कोई नहीं , हमारी अपनी बिरादरी है. अगर पत्रकार चेत ले तो बे-ईमान नेता और अफसर पनाह माँगने लगें.अपनी ड्यूटी संविधान सम्मत तरीके से करने लगें और अगर घूस की गिजा पर मौज करने वाली यह बिरादरी घूस लेने से डरने लगे तो समाज में शान्ति और खुशहाली आने में बहुत देर नहीं लगेगी.लेकिन इस बिरादरी को अपना फ़र्ज़ सही तरीके से करना पड़ेगा.
दुर्भाग्य की बात है कि आज ऐसा नहीं हो रहा है. पत्रकार जिन अखबारों और टी वी चैनलों पर अपनी बात कह सकता है वह बड़े पूंजीपतियों के प्रत्यक्ष या परोक्ष कब्जे में है . इस लिए मीडिया के परंपरागत माध्यमों से बहुत उम्मीद करना ठीक नहीं है.. वैसे भी पत्रकारों ने अजीब ख्याति हासिल कर ली है . इमर्जेंसी के ठीक बाद जब प्रेस पर बेजा कण्ट्रोल की बहस चली थी तो उस वक़्त की जनता पार्टी के नेता लाल कृष्ण अडवाणी ने एक बड़ी दिलचस्प बात कही थी. उन्होंने पत्रकारों से कहा कि आप से झुकने को कहा गया था लेकिन आप लोग तो रेंगने लगे थे. यह बात सभी पत्रकारों के लिए सच नहीं थी. कुलदीप नायर जैसे कुछ लोगों ने तानाशाही की शर्तों को मानने से इनकार कर दिया था . आज भी कुछ पत्रकार ऐसे हैं जिन्होंने लक्ष्मी की ताक़त के सामने झुकने से मना कर दिया है लेकिन अफ़सोस इस बात का है कि मीडिया में काम करने वालों की एक बड़ी जमात आजकल घूस का वर्णन करने के लिए कमाई शब्द का इस्तेमाल करने लगी है. बस यही गड़बड़ है .अगर मीडिया तय कर ले कि देशहित में काम करना है और नेता-बाबू गठजोड़ को घूस का राज नहीं कायम करने देना है तो आधी से ज्यादा लड़ाई अपने आप जीत ली जायेगी. अब यहीं पर इस बात की जांच कर लेना ज़रूरी है कि क्या मीडिया की जो वर्तमान दशा है उसमें इतनी निर्णायक लड़ाई की उम्मीद की जा सकती है.हालांकि यह बहुत शर्म की बात है लेकिन आज के मीडिया का एक बड़ा वर्ग इसी नेता-बाबू गठजोड़ की कृपा से करोड़पति और अरबपति बन चुका है.. वह सच को छुपाने की बे-ईमानों की कोशिश का हिस्सा बन जाता है. मीडिया में घूसखोरी की वे ही घटनाएं रिपोर्ट होती हैं जिनकी जांच सरकार की एजेंसियाँ कर लेती हैं. इस देश में मीडिया ने बार बार सरकारों को जनहित में सच स्वीकार करने के लिए मजबूर किया है. इंडियन एक्सप्रेस की खोजी पत्रकारिता के वजह से ही उस वक़्त के महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री , ए आर अंतुले को जाना पड़ा था , बोफोर्स का भांडा भी मीडिया ने फोड़ा था और बंगारू लक्ष्मण की नोटों की गड्डियाँ संभालती छवि भी मीडिया की कृपा से ही आई थी . इन कुछ उदाहरणों से यह बात साफ़ है कि अगर मीडिया तय कर ले तो वह परिवर्तन का वाहक बन सकता है लेकिन उसके लिए हिम्मत और अपने पेशे के प्रति ईमानदारी की भावना चाहिए.. इन कुछ आदरणीय अपवादों के सहारे आज भी प्रेस की आजादी और उसकी ताक़त का मानदंड बनते हैं लेकिन आज देश में पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग बे-ईमानी की चपेट में है.. राजनेताओं से पैसे लेना, उनके मन माफिक खबरें छापना, एक से लेकर दूसरे के खिलाफ खबर छापना, कुछ ऐसी बातें हैं जिन्होंने मीडिया को कटघरे में खडा कर दिया है. . किसी एक पत्रकार की बे-ईमानी का साधारणीकरण करके पूरे पेशे को घेरने वाले हर कोने में मिल जायेंगें. इसलिए मीडिया के जिम्मेदार लोगों को चाहिए कि वे इस तरह के लोगों की बात को गलत साबित करने के लिए पहल करें . इस पहल की शुरुआत अपनी संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा से की जा सकती है .लेकिन इस काम में उन लोगों की कोई भूमिका नहीं है जिन्होंने किसी सोसाइटी में मेम्बरशिप लेकर कहीं एक फ्लैट जुगाड़ लिया है.. पिछले दिनों भड़ास पर ऐसे कुछ ईमानदार लोगों ने अपनी संपत्ति की घोषणा की . मामूली आर्थिक ताक़त वाले इन पत्रकारों की पहल से कुछ नहीं होने वाला है . हाँ अगर यह लोग अपनी संपत्ति के साथ साथ उन लोगों की संपत्ति की भी घोषणा करवाएं जिनके तीन चार प्लाट हैं, दूकान है , कई कारें हैं , और शाई जीवन शैली है , तो बात बनेगी.. उसके बाद घूस और पत्रकारिता के गठजोड़ की कड़ी टूटेगी और अगर यह कड़ी टूटती है तो कोई भी मधु कोडा हिम्मत नहीं करेगा कि वह आम आदमी के धन की इतने बड़े पैमाने पर चोरी कर सके.. उत्तर प्रदेश के घूसखोर आई ए एस अफसरों की सूची आखिर उन्हीं की बिरादरी के लोगों ने प्रकाशित की थी. यह अलग बात है उसके बाद भी कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ा. लेकिन जनता जागरूक हो रही है अगर उसे घूस की परिभाषा बताते हुए यह बता दिया जाए कि नेता-अफसर गिरोह द्बारा लिया गया वह पैसा जो आम आदमी की भलाई के लिए होता है जब वही भ्रष्ट तरीके से कोई और हड़प लेता है ,तो वह घूस हो जाता है . अगर यह बात जनता की समझ में आ गयी तो घूस के सिद्धांत पर चलने वाली सरकारों का बच रहना मुश्किल हो जाएगा. लेकिन उसके पहले जनता तक सच्चाई पंहुचाने वाले पत्रकारों को अपनी ड्यूटी सही तरीके से करनी पड़ेगी.
Sunday, November 1, 2009
वामपंथी आतंकवाद से राजनीतिक मुकाबला ज़रूरी
पश्चिम बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ, बिहार, उड़ीसा और आंध्रप्रदेश के कुछ इलाकों में कई वर्षों से चल रहे वामपंथी आतंकवादियों के प्रकोप के नतीजे अपने बर्बर रूप में सामने आने लगे है। मंगलवार को, पश्चिम बंगाल में रेलगाड़ी रोककर तोड़फोड़ की वारदात जहां एक तरफ आतंकवादियों की बढ़ती ताकत का डंका है, वहीं इन राज्यों की सरकारों की घिग्घी बंधने का ऐलान भी। सभी को मालूम है कि इस इलाके में चल रहा आतंकवादियों का शासन पिछले बीस साल से इस इलाके में राज करने वाली सरकारों के नाकारापन का नमूना है।
यहां यह साफ कर देना जरूरी है कि इस नकारापन के खेल में सभी राजनीतिक पार्टियां शामिल हैं। आज कल टी.वी. चैनलों पर एक दूसरे के खिलाफ राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप का दौर चल रहा है वह बिलकुल बेमतलब है। वामपंथी आतंकवाद के सहारे वोट लेने की कोशिश करने वाली ममता बनर्जी को चाहिए कि भस्मासुरी राजनीति का तिरस्कार करें वरना भस्मासुर का वर्ग चरित्र ही ऐसा है कि वह बाकी लोगों को भस्म करने के बाद अपने रचयिता का सर्वनाश करता है। इन आतंकवादियों को राजनीतिक पार्टी के सदस्य कहने वाले वाममोर्चे के नेता भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। पश्चिम बंगाल में अति वामपंथ और तृणमूल-दक्षिण पंथ के मोर्चे के खिलाफ वाम मोर्चे की निद्रा भी उतनी ही जिम्मेदार है, जितना आंध्रपेदश की कांग्रेस सत्ता जिम्मेदार है। वामपंथी आतंकवाद के प्रसार में इन दो पार्टियों के अलावा बीजेपी, जद (यू) और राजद का भी उतना ही हाथ है, इसलिए इनमें से किसी को एक दूसरी पार्टी पर हमला करने का हक नहीं है।
इन इलाकों में रहने वाले गरीब आदमियों को गरीबी के खौफनाक अंधेरे में ढकेलने वाली यही राजनीतिक पार्टियां हैं। इन क्षेत्रों की अकूत खनिज संपदा की लालच में दुनिया भर की कंपनियों और पूंजीपतियों की नजर भारत के इन आदिवासी इलाकों पर है। रिश्वत की गिज़ा पर ऐश करने वाले भारतीय नेताओं और बाबुओं की मामूली इच्छाओं की पूर्ति के लिए भारत की सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता को दाव पर लगा दिया गया है। अब जरूरत इस बात की है कि सभी राजनीतिक पार्टियां, मीडिया संगठन, सरकारी प्रशासक और आम आदमी छुद्र स्वार्थों की दुनिया को अलविदा कहें और इस आतंकवादी हमले को नाकाम करने में तन मन से जुट जायं। नेपाली राजशाही के समर्थकों के भारतीयों के एक नेता का बयान आज अखबारों में छपा है जिससे राजनीतिक रोटियां सेंके जाने की इच्छा की बू आ रही है। इस तरह की हरकतों पर फौरन लगाम लगाना होगा वरना बहुत देर हो जायेगी। आतंकवाद चाहे जिस रूप में हो उसका विरोध किया जाना चाहिए। तथाकथित लाल कॉरिडर के इलाके में राह से खटक चुके वामपंथियों के कुछ लालची नेताओं ने इस इलाके में रहने वाले आदिवासियों को मार्क्सवादी लफ्फाजी के जाल में फंसाकर जो लूट और आतंक का साम्राज्य बना रखा है, उसकी सभ्य समाज में चौतरफा निंदा हो रही है लेकिन इन बर्बर आतंकवादियों को सभ्य समाज की परवाह नहीं है। इन शठों के साथ शठता के साथ ही निपटा जा सकता है।
वामपंथियों का एक वर्ग यह भी कह रहा है कि इन इलाकों में रहने वाले गरीब आदिवासी लोगों को सरकार ने नजरअंदाज किया जिसकी वजह से वहां राजनीतिक शून्य पैदा हुआ और वामपंथी आतंकवादियों ने खाली जगह भर लिया। यह तर्क बिलकुल बेमतलब है। वामपंथियों से सवाल पूछा जाना चाहिए कि पूरी दुनिया में राजनीतिक जागरूकता का प्रचार करने का दम भरने वाले कम्युनिस्टों ने लालगढ़ के आसपास के इलाके में क्यों नहीं कोई जागरूकता फैलाई। आदिवासियों को राम भरोसे छोड़ने वाले राजनेताओं में कम्युनिस्ट नेताओं का नाम सबसे ऊपर लिखा जायेगा। इसलिए उनका यह आरोप बेमतलब है कि केन्द्र सरकार ने आदिवासियों के कल्याण में कोताही की। आर.एस.एस. की तरफ से इन इलाकों में वनवासी कल्याण की योजनाएं चलाई जा रही थी लेकिन वामपंथी आतंकवादियों के बढ़ चुके प्रस्ताव के मद्देनजर अब इस बात में कोई शक नहीं है कि आर.एस.एस. का काम ऐसा नहीं था जो इन आतंकवादियों के झटके को झेल सकता। वैसे भी संघ बिरादरी वहां मौजूद स्थानीय रीति रिवाजों को हटाकर अपनी विचारधारा को थोपने की कोशिश कर रही थी। ज़ाहिर है शाखे नाजुक पर बनने वाला आशियाना कमजोर ही होता है। इसलिए इन इलाकों में कुछ वर्षों तक तो वोट का लाभ लेने में संघ परिवार कामयाब रहा लेकिन जब विचारधारा और गरीब की पक्षधरता के नाम पर माओवादियों ने काम शुरू किया तो सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों को भागना पड़ा।
इस इलाके में कांग्रेस का रुख सबसे ज्यादा गैर जिम्मेदाराना रहा है। आजादी के बाद से अब तक कभी भी कांग्रेस ने इन इलाकों में रहने वाले लोगों को राजनीतिक एजेंडे पर लाने की कोशिश ही नहीं की जिसका नतीजा है कि यह लोग हमेशा अजूबे की तरह देखे जाते रहे। अजीब बात है कि झारखण्ड और छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल राज्य बनने के बाद वहां से स्थानीय तौर पर राजनीतिक प्रक्रिया के तहत विकसित नेताओं की भारी कमी है। वहां भी उन्हीं लोगों के वंशज राजनीतिक सत्ता पर काबिज़ हैं जो इन इलाकों की खनिज संपदा की लूट में बड़ी कंपनियों के मामूली ठेकेदार बनकर आए थे। यहां के नेताओं का दूसरा वर्ग उन दलालों का है जिन पर दिल्ली में बैठे नेता लोग दांव लगाते है।
ऐसे माहौल में अब राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप के दौर से बाहर निकल कर नेताओं को चाहिए कि वामपंथी आतंकवाद के नाम पर आदिवासी इलाकों में चल रहे बर्बरता के राज को फौरन खत्म करें। पश्चिम बंगाल में राजधानी एक्सप्रेस का अपहरण करके और भविष्य में ऐसी ही वारदात को फिर अंजाम देने की धमकी देकर आतंकवादियों ने सभ्य समाज और राजनेताओं के पाले में चुनौती की गेंद फेंक दी है। और राष्ट्र के सामने इन्हें कुचल देने के सिवा और कोई विकल्प नहीं है(डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट से साभार)
यहां यह साफ कर देना जरूरी है कि इस नकारापन के खेल में सभी राजनीतिक पार्टियां शामिल हैं। आज कल टी.वी. चैनलों पर एक दूसरे के खिलाफ राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप का दौर चल रहा है वह बिलकुल बेमतलब है। वामपंथी आतंकवाद के सहारे वोट लेने की कोशिश करने वाली ममता बनर्जी को चाहिए कि भस्मासुरी राजनीति का तिरस्कार करें वरना भस्मासुर का वर्ग चरित्र ही ऐसा है कि वह बाकी लोगों को भस्म करने के बाद अपने रचयिता का सर्वनाश करता है। इन आतंकवादियों को राजनीतिक पार्टी के सदस्य कहने वाले वाममोर्चे के नेता भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। पश्चिम बंगाल में अति वामपंथ और तृणमूल-दक्षिण पंथ के मोर्चे के खिलाफ वाम मोर्चे की निद्रा भी उतनी ही जिम्मेदार है, जितना आंध्रपेदश की कांग्रेस सत्ता जिम्मेदार है। वामपंथी आतंकवाद के प्रसार में इन दो पार्टियों के अलावा बीजेपी, जद (यू) और राजद का भी उतना ही हाथ है, इसलिए इनमें से किसी को एक दूसरी पार्टी पर हमला करने का हक नहीं है।
इन इलाकों में रहने वाले गरीब आदमियों को गरीबी के खौफनाक अंधेरे में ढकेलने वाली यही राजनीतिक पार्टियां हैं। इन क्षेत्रों की अकूत खनिज संपदा की लालच में दुनिया भर की कंपनियों और पूंजीपतियों की नजर भारत के इन आदिवासी इलाकों पर है। रिश्वत की गिज़ा पर ऐश करने वाले भारतीय नेताओं और बाबुओं की मामूली इच्छाओं की पूर्ति के लिए भारत की सुरक्षा, संप्रभुता और अखंडता को दाव पर लगा दिया गया है। अब जरूरत इस बात की है कि सभी राजनीतिक पार्टियां, मीडिया संगठन, सरकारी प्रशासक और आम आदमी छुद्र स्वार्थों की दुनिया को अलविदा कहें और इस आतंकवादी हमले को नाकाम करने में तन मन से जुट जायं। नेपाली राजशाही के समर्थकों के भारतीयों के एक नेता का बयान आज अखबारों में छपा है जिससे राजनीतिक रोटियां सेंके जाने की इच्छा की बू आ रही है। इस तरह की हरकतों पर फौरन लगाम लगाना होगा वरना बहुत देर हो जायेगी। आतंकवाद चाहे जिस रूप में हो उसका विरोध किया जाना चाहिए। तथाकथित लाल कॉरिडर के इलाके में राह से खटक चुके वामपंथियों के कुछ लालची नेताओं ने इस इलाके में रहने वाले आदिवासियों को मार्क्सवादी लफ्फाजी के जाल में फंसाकर जो लूट और आतंक का साम्राज्य बना रखा है, उसकी सभ्य समाज में चौतरफा निंदा हो रही है लेकिन इन बर्बर आतंकवादियों को सभ्य समाज की परवाह नहीं है। इन शठों के साथ शठता के साथ ही निपटा जा सकता है।
वामपंथियों का एक वर्ग यह भी कह रहा है कि इन इलाकों में रहने वाले गरीब आदिवासी लोगों को सरकार ने नजरअंदाज किया जिसकी वजह से वहां राजनीतिक शून्य पैदा हुआ और वामपंथी आतंकवादियों ने खाली जगह भर लिया। यह तर्क बिलकुल बेमतलब है। वामपंथियों से सवाल पूछा जाना चाहिए कि पूरी दुनिया में राजनीतिक जागरूकता का प्रचार करने का दम भरने वाले कम्युनिस्टों ने लालगढ़ के आसपास के इलाके में क्यों नहीं कोई जागरूकता फैलाई। आदिवासियों को राम भरोसे छोड़ने वाले राजनेताओं में कम्युनिस्ट नेताओं का नाम सबसे ऊपर लिखा जायेगा। इसलिए उनका यह आरोप बेमतलब है कि केन्द्र सरकार ने आदिवासियों के कल्याण में कोताही की। आर.एस.एस. की तरफ से इन इलाकों में वनवासी कल्याण की योजनाएं चलाई जा रही थी लेकिन वामपंथी आतंकवादियों के बढ़ चुके प्रस्ताव के मद्देनजर अब इस बात में कोई शक नहीं है कि आर.एस.एस. का काम ऐसा नहीं था जो इन आतंकवादियों के झटके को झेल सकता। वैसे भी संघ बिरादरी वहां मौजूद स्थानीय रीति रिवाजों को हटाकर अपनी विचारधारा को थोपने की कोशिश कर रही थी। ज़ाहिर है शाखे नाजुक पर बनने वाला आशियाना कमजोर ही होता है। इसलिए इन इलाकों में कुछ वर्षों तक तो वोट का लाभ लेने में संघ परिवार कामयाब रहा लेकिन जब विचारधारा और गरीब की पक्षधरता के नाम पर माओवादियों ने काम शुरू किया तो सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों को भागना पड़ा।
इस इलाके में कांग्रेस का रुख सबसे ज्यादा गैर जिम्मेदाराना रहा है। आजादी के बाद से अब तक कभी भी कांग्रेस ने इन इलाकों में रहने वाले लोगों को राजनीतिक एजेंडे पर लाने की कोशिश ही नहीं की जिसका नतीजा है कि यह लोग हमेशा अजूबे की तरह देखे जाते रहे। अजीब बात है कि झारखण्ड और छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल राज्य बनने के बाद वहां से स्थानीय तौर पर राजनीतिक प्रक्रिया के तहत विकसित नेताओं की भारी कमी है। वहां भी उन्हीं लोगों के वंशज राजनीतिक सत्ता पर काबिज़ हैं जो इन इलाकों की खनिज संपदा की लूट में बड़ी कंपनियों के मामूली ठेकेदार बनकर आए थे। यहां के नेताओं का दूसरा वर्ग उन दलालों का है जिन पर दिल्ली में बैठे नेता लोग दांव लगाते है।
ऐसे माहौल में अब राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप के दौर से बाहर निकल कर नेताओं को चाहिए कि वामपंथी आतंकवाद के नाम पर आदिवासी इलाकों में चल रहे बर्बरता के राज को फौरन खत्म करें। पश्चिम बंगाल में राजधानी एक्सप्रेस का अपहरण करके और भविष्य में ऐसी ही वारदात को फिर अंजाम देने की धमकी देकर आतंकवादियों ने सभ्य समाज और राजनेताओं के पाले में चुनौती की गेंद फेंक दी है। और राष्ट्र के सामने इन्हें कुचल देने के सिवा और कोई विकल्प नहीं है(डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट से साभार)
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