Wednesday, March 31, 2021

सन बयालीस में नंदीग्राम की हिंदू-मुस्लिम एकता ने अंग्रेज़ी हुकूमत से मुकाबला किया था

 

 


 

शेष नारायण सिंह

 

 

तृणमूल कांग्रेस के पूर्व  नेता और  बंगाल सरकार में मंत्री  और ममता बनर्जी के करीबी भक्त रह चुके शुवेंदु अधिकारी को जब बीजेपी में भर्ती किया गया था तो पार्टी को लगता था कि बहुत बड़ा तख्तापलट हो गया है . जिस दिन वे भर्ती हुए थे उस दिन बहुत बड़े जश्न का आयोजन किया गया था . उम्मीद  की गयी थी कि सारे बंगाल में वे तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को बीजेपी में ला देंगे लेकिन उनके पाला बदलते ही ममता बनर्जी ने उनकी सीट से अपनी उम्मीदवारी का ऐलान कर दिया  . भवानीपुर की अपनी मज़बूत सीट छोड़कर उन्होंने नंदीग्राम में ही अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया .  शुवेंदु अधिकारी ने भी तुरंत ऐलान कर दिया कि वे ममता को नंदीग्राम से पचास हज़ार से ज़्यादा वोटों से हराएंगे और अगर न हरा सके तो राजनीति से संन्यास से लेंगे . बीजेपी वालों ने शायद सोचा था कि नंदीग्राम में तो शुवेंदु का ही काम है उनके लिए अपने  क्षेत्र से जीतना बहुत आसान होगा . आंकड़ों पर नज़र डालें तो साफ हो  जाएगा कि 2009 के लोकसभा चुनाव से ही नंदीग्राम में  तृणमूल कांग्रेस को ज़बरदस्त बहुमत मिलता  रहा है .जिसमें मुख्य कार्यकर्ता के रूप में शुवेंदु अधिकारी शामिल होते रहे हैं .  2019 लोकसभा चुनाव में बीजेपी के उत्थान के बावजूद भी तृणमूल को कोई  घाटा नहीं हुआ था  . बीजेपी के वोटों में वृद्धि हुई .वह वृद्धि लेफ्ट फ्रंट के वोटों का बीजेपी  के खाते में आ जाने के कारण हुई थी. नंदीग्राम में बीजेपी के वोटों में २५ प्रतिशत की वृद्धि हुयी थी  जिसमें 22 प्रतिशत लेफ्ट फ्रंट से शिफ्ट होने वाले वोटरों का योगदान था. इसके बावजूद तृणमूल कांग्रेस को बीजेपी से 33 प्रतिशत की बढ़त थी ..बीजेपी को उम्मीद थी कि शुवेंदु के साथ आ जाने से यह अंतर  ख़त्म हो जाएगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ . बीजेपी में शामिल होने से उनके वोटों का तीस प्रतिशत मुस्लिम मतदाता तुरंत उनके खिलाफ ही हो गया . चुनाव करीब आने के साथ साथ यह साफ़ हो गया कि ममता को हराना आसान नहीं है और शुवेंदु अधिकारी उतने मज़बूत नहीं हैं जितने माने जा रहे थे .  उनकी 2011 और 2016 की जीत में क्षेत्र के करीब तीस प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं का बड़ा योगदान होता था . वे सभी ममता बनर्जी के साथ हैं . अब ममता को नंदीग्राम का विधानसभा  चुनाव जीतने के लिए  बाकी बच्चे सत्तर प्रतिशत  वोटों में से केवल 21 प्रतिशत की और ज़रूरत है  जब कि शुवेंदु अधिकारी को 51 प्रतिशत वोट मिलना ज़रूरी है . हालांकि वहां से सी पी एम की उम्मीदवार भी एक शिष्ट महिला हैं , उनके साथ भी कुछ लोगों की सहानुभूति है लेकिन जिस तरह से शुवेंदु अधिकारी ने हिन्दू मतों का ध्रुवीकरण किया है उसके चलते लेफ्ट फ्रंट की उम्मीदवार कोई बहुत फर्क डालने वाली नहीं साबित होंगी.  नंदीग्राम के कुल वोटों का 51 प्रतिशत लेने के लिए शुवेंदु अधिकारी  को कुल हिंदू वोटों का 70 प्रतिशत से ज्यादा वोट लेना पडेगा . यह तर्क के लिए बनाई गयी एक काल्पनिक स्थिति  है लेकिन सच्चाई यह है कि लेफ्ट फ्रंट के लिए  आई एस एफ वाले मौलाना भी रैली कर चुके हैं  , कुछ लेफ्ट फ्रंट के वोट भी वहां हैं जो उसके उम्मीदवार को मिलेंगे ही . इसलिए जीतने  वाले  को  40 से 45 प्रतिशत वोट का लक्ष्य रखना पडेगा .

 यह स्थिति ममता को भी  पता  है और शुवेंदु अधिकारी  को . ममता को मालूम है कि नंदीग्राम या पूरे बंगाल में जीतने के लिए उनको कम से कम आधे हिन्दू वोट चाहिए ..शायद इसीलिये उन्होंने हिन्दुओं को खुश  करने के लिए कई काम किये हैं. मीडिया को साथ लेकर मंदिरों में जाना , मंच से चंडीपाठ करना अपने गोत्र को सार्वजनिक  रूप से बताना आदि ऐसे काम हैं  जिससे साफ पता चलता है कि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जानती हैं कि उनके खिलाफ सभी हिन्दुओं को लामबंद करने की कोशिश हो रही है.  उनके पुराने शिष्य , शुवेंदु अधिकारी  ने उनको ‘ बेगम ममता ‘ और नंदीग्राम में मिनी पाकिस्तान बनाने की कोशिश करने वाली बताकर उनको हिन्दू विरोधी साबित करने की पूरी तैयारी कर ली है .लेफ्ट फ्रंट के खिलाफ जब ममता ने काम किया था और उनके बदमाशों को सामना  किया तह तो  शुवेंदु अधिकारी  ही उनके सेनापति थे .  उन्होंने पिछले दस वर्षों में लेफ्ट फ्रंट वालों को हिंसा का बार बार शिकार बनाया है .ममता को मालूम है कि अपनी उस प्रतिभा का शुवेंदु पूरी तरह से इस बार भी प्रयोग  करेंगे . नंदीग्राम में शुवेंदु अधिकारी  कभी मुसलमानों के  हीरो हुआ करते थे लेकिन अब वे उनको हिंसा शिकार बनाने का माहौल बना रहे हैं . .

 

नंदीग्राम का इलाका वास्तव में चावल उत्पादकों का गढ़  माना जाता है . वहां  किसानों के मुद्दे भी चुनाव में महत्वपूर्ण हुआ करते थे लेकिन  शुवेंदु अधिकारी  ने चुनाव को पूरी तरह से हिन्दू बनाम मुस्लिम बनाने की पूरी कोशिश की है  . ऐसा लगता है कि उनकी पार्टी को मालूम है कि वे  धार्मिक आधार पर चुनाव को पूरी तरह बांटने में नाकाम रहे  हैं. अमित शाह  सहित सभी बड़े नेताओं का   मतदान के ठीक पहले वहां ज़मीनी स्तर का प्रचार करना इस बात का साफ़ संकेत है . हालांकि बीजेपी के नेता और उनके समर्थक विश्लेषक और चैनल इस बात का ज़बरदस्त प्रचार कर रहे हैं कि उन्होंने ममता बनर्जी को नंदीग्राम में चार दिन तक चुनाव प्रचार करने के लिए मजबूर कर दिया  लेकिन सच्चाई यह है कि केवल नंदीग्राम में बीजेपी के बड़े नताओं को चुनाव के एक दिन पहले रोड शो करने को तो ममता ने मजबूर किया है . बहरहाल सबको मालूम है कि नंदीग्राम का चुनाव सही मायनों में दोनों पक्षों के लिए प्रतिष्ठा का चुनाव  है . अगर बीजेपी वाले मुख्यमंत्री को  हराने में सफल  हो जाते हैं तो उनकी बंगाल की  राजनीति बहुत ही आसान हो जायेगी . शुवेंदु अधिकारी  सहित जो बड़ी संख्या में तृणमूल कांग्रेस वाले बीजेपी में शामिल हुए हैं उनकी मदद से तृणमूल के बाकी कार्यकर्ताओं को साथ लेने में बहुत मदद मिलेगी . लेकिन अगर  ममता जीत गयीं तो बीजेपी को झटका लगेगा  क्योंकि अगर बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सरकार दोबारा बनती है तो जैसा कि ममता और शुवेंदु अधिकारी  ने पिछले  दस साल में लेफ्ट फ्रंट के कार्यकर्ताओं को हिंसा का शिकार  बनाया है उसी तरह से बीजेपी के कार्यकर्ता निशाने पर लिए जा  सकते हैं . लेफ्ट फ्रंट के ज़्यादातर कार्यकर्ता ममता और शुवेंदु अधिकारी  की संयुक्त ताक़त और उनके गुंडों  की पिटाई से बचने के लिए बीजेपी में जा चुके हैं . अगर बीजेपी कमज़ोर पड़ती है तो वे लोग भी हिंसा से बचने के लिए अन्य तरीकों को अपनाएंगे .उन तरीकों में तृणमूल की शरण जाना भी शामिल हो सकता है . शुवेंदु अधिकारी  ने नंदीग्राम से ममता की उम्मीदवारी की घोषणा के बाद ऐलान किया था कि अगर वे चुनाव हार गए तो वे  राजनीति से संन्यास ले लेंगे . उनको संन्यास लेने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि  अगर वे हार गए और तृणमूल कांग्रेस की सरकार बन गयी तो उनको ममता किसी तरह की राजनीति लायक छोड़ेंगी ही नहीं .  उनका पूरा परिवार आज  ममता बनर्जी की कृपा से राजनीतिक मलाई काट रहा है . उनके परिवार के ज़्यादातर सदस्य लोकसभा विधानसभा और जिले की राजनीति में  बड़े पदों पर हैं. वह सब छूट जाएगा . उनके हारने के बाद बीजेपी  के लिए भी उनका कोई ख़ास उपयोग नहीं रह जाएगा क्योंकि  पार्टी को उनकी ज़रूरत बंगाल के बाहर बिलकुल नहीं पड़ेगी यानी उनको राजनीति से रिटायर होने की जहमत नहीं उठानी पड़ेगी . वे दूध की मक्खी की तरह फेंक दिए जायेंगे.इसलिए जहां यह चुनाव ममता बनर्जी के भविष्य की राजनीति की स्थिरता  की लडाई है वहीं शुवेंदु अधिकारी  के लिए यह लड़ाई एक राजनीतिक नेता के रूप में अस्तित्व की  भी लड़ाई है .

 

नंदीग्राम  चुनाव के पिछले आंकड़े एक दिलचस्प  कहानी बताते हैं .2016 के विधानसभा चुनाव में शुवेंदु अधिकारी  को ज़बरदस्त बहुमत मिला था .  उनके लोगों को उम्मीद थी कि बहुमत के वे आंकड़े उनके साथ ही चले जायेंगे लेकिन ऐसा  नहीं हुआ. उनकी जीत में  सहयोग देने वाले मतदातों का एक बड़ा  हिस्सा  मुसलमानों का  था और वे अब उनके साथ नहीं हैं . वे उनको  हराने के लिए एकजुट हैं .  शुवेंदु अधिकारी की सोच में जो दूसरा तर्कदोष था वह यह कि वे सभी हिन्दुओं को अपने साथ ले लेंगे लेकिन बंगाल में  और वह भी नंदीग्राम जैसे जागरूक क्षेत्र में सभी मतदाताओं को धार्मिक आधार पर  बांटना नामुमकिन है .

लेफ्ट फ्रंट सरकार की भूमिअधिग्रहण नीति के खिलाफ जब बंगाल की जनता 14 साल पहले लामबंद हुई थी तो नंदीग्राम ही  उसके केंद्र में था .उसी आन्दोलन ने ममता बनर्जी को सत्ता दिलवाई  और शुवेंदु अधिकारी को नेता बनाया . लेकिन उसके पहले भी इस गाँव की जागरूकता का डंका ब्रिटिश साम्राज्य के सर पर  बज चुका था. उस लड़ाई में हिन्दू और मुसलमान साथ साथ थे . जब अगस्त 1942 में महात्मा गांधी ने ,’,भारत छोड़ो ‘ का नारा दिया था तो उसकी धमक नंदीग्राम में बहुत ही ज़ोरदार तरीके से देखी गयी थी. 30 सितंबर 1942 के दिन क़रीब  दस हज़ार लोगों का एक जुलूस नंदीग्राम के पुलिस थाने पर गया और उन्होंने थेन पर तिरंगा झंडा फहरा दिया था .  ब्रिटिश  सैनिकों ने गोली चला दी जिसके कारण आठ लोग मारे गए . भारत सरकार ने शहीदों की जो डिक्शनरी छापी है उसमें  नंदीग्राम के आठों शहीदों के नाम हैं . मरने वालों में शेख अलाउद्दीन , अजीम  बख्श और शेख अब्दुल भी थे. उन दिनों के अविभाजित मिदनापुर जिले , नंदीग्राम जिसका हिस्सा है , में 1920 और 1930 के महात्मा गांधी के आन्दोलनों में भी हिन्दू-मुस्लिम एकता की ज़बरदस्त जुगलबंदी   देखने को मिली थी . मौजूदा चुनाव में उसी नंदीग्राम में हिंदू-मुस्लिम विवाद पैदा करके चुनाव जीतने की शुवेंदु अधिकारी की कोशिश कितना सफल होती है इस पर राजनीतिशास्त्र , समाजशास्त्र और इतिहास के जानकारों की  दृष्टि लगातर बनी रहेगी .

 

Saturday, March 27, 2021

फिल्म पगलैट में आशुतोष राणा के चेहरे पर उमड़ा हुआ “ निनाद करता सन्नाटा “ बेहतरीन अभिनय का दस्तावेज़ है .

 


शेष नारायण सिंह

 

नेटफ्लिक्स पर फिल्म पगलैट से मुक़ाबला हुआ.  एक नौजवान की मृत्यु के दिन से उसकी तेरहवीं के 13  दिन की कथा है . लखनऊ टाइप शहरों में निम्न मध्यवर्गीय संयुक्त परिवारों में होने वाले स्वार्थ और ओछेपन के तांडव को बहुत ही नफासत से प्रस्तुत किया गया है . मौत के दुःख में शामिल होने के लिए आने वाले रिश्तेदारों के नकलीपन  का चित्रण वस्तुवादी है . कोई चमकदार सेट नहीं .  एक निम्न मध्यवर्गीय मोहल्ला, एक नदी , कुछ घटवार दिखा कर फिल्म को आला मुकाम पर पंहुचा दिया गया है . मौत के बाद भी लालच के शिकार होने वाले गरीबी से जूझ रहे ,सम्पन्नता का अभिनय कर रहे परिवारों की  कहानी  इस तरह से फिल्माई गयी है कि लगता है कि  फिल्मकार और कलाकारों ने सच्चाई को उसी तरह से पकड़कर रखा है जैसे फिल्म पड़ोसन के ‘ चतुर नार  ‘ वाले गाने में महमूद ने सुर को पकड रखा था .  अभिनेत्री सान्या मल्होत्रा ने पाखण्ड को रेखांकित करने में शानदार काम किया . रघुवीर यादव का पप्पू तायाजी  याद रहेगा लेकिन मेरी नज़र में आशुतोष राणा का काम विश्वस्तर का है . पूरी फिल्म में वे बोलते बहुत कम हैं लेकिन चेहरे पर जो दर्द की इबारत लिखी है वह बेजोड़ है . दर्द के हर स्वरूप का दर्शन आशुतोष के अभिनय में देखने को मिला.  परिवार के स्वार्थी लोगों  को झेलने का दर्द अलग है तो डिस्काउंट की बात करने वाले गिरि जी अलग लगते हैं . उनके बेटे की तेरहवीं पूरी होने के पहले उनकी  विधवा बहू के इंश्योरेंस में मिले पचास लाख रूपये झटकने के चक्कर में पड़े रिश्तदारों के आचरण के दर्द की खीझ अलग है , स्वर्गीय बेटे की पत्नी को मिलने वाले इन्श्योरेंस के पैसे को हड़पने की साजिश में शामिल होने के दर्द को उन्होंने अमर बना दिया है . फिल्म ख़त्म होने के बाद मैं यही सोचता रहा कि दर्द को इतने वस्तुवादी तरीके से जीने की आशुतोष राणा की क्षमता उनको काबुलीवाला और  दो बीघा ज़मीन के बलराज साहनी के मेयार पर ले जाकर खड़ा कर देती है .सही बात यह है गिरि जी के  दर्द का चित्रण  उन कालजयी फिल्मों से बीस ही पड़ेगा क्योंकि मैंने किसी भी फिल्म में ऐसा “  निनाद करता सन्नाटा  “ कभी नहीं देखा  जो आशुतोष राणा के चेहरे दर्ज पूरी फिल्म के दौरान दर्ज था .अच्छी फिल्मों के शौकीन लोगों के लिए एक अच्छी फिल्म .एक ऐसी फिल्म जो क्रिस्टोफर कॉडवेल के सौंदर्यशास्त्र के मानकों पर सही उतरनी चाहिए .

 

 

Thursday, March 25, 2021

मेरे बारे में सबीहा हाशमी के विचार

 


शेष ने मुझे बेवकूफ बनाने की कोशिश कभी नहीं की ,मुझे बहुत सम्मान किया हमेशा . अपने और मेरे बच्चों को बहुत प्यार करते हैं ,पति बहुत शानदार हैं .बोलने और लिखने में हमेशा  सही शब्दों का प्रयोग करते हैं . ऐसा लगता है कि जो शब्द उन्होंने प्रयोग किया है ,उससे बेहतर शब्द हो ही नहीं सकता था . मेरी ज़िंदगी के सबसे कठिन दौर में वह हमेशा खड़े रहे . फायर इंजन की तरह रहे और यह गारंटी थी कि हर परेशानी को रोकने की कोशिश करेंगे .मेरे लिए बहुत कुछ किया लेकिन कभी एहसान नहीं जताया .  जब भी मेरे ऊपर उपकार किया तो मुझे लगता था कि उनसे उपकार लेकर मैंने उनपर बहुत कृपा की है .

Wednesday, March 24, 2021

ममता बनर्जी के बारे में दिलीप घोष का बयान तालिबानी है

  

शेष नारायण सिंह

 

 

पश्चिम बंगाल के प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष , दिलीप घोष ने राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी  के सन्दर्भ में एक बहुत ही आपत्तिजनक बयान दिया है. नंदीग्राम में जब ममता परचा दाखिल करने गयी थीं तो उनके पाँव में चोट लग गयी थी. शायद फ्रैक्चर था. प्लास्टर लगाया गया . अब ममता बनर्जी व्हील चेयर से चलती हैं और चुनाव प्रचार करती हैं . इमकान है कि ममता बनर्जी  को इन हालात में मतदाताओं को सहानुभूति भी मिल रही है . बीजेपी ने पिछले एक साल से बंगाल विधानसभा चुनाव जीतेने के लिए सारी ताक़त झोंक  रखी है . आज की स्थिति यह है कि अधिकतर चुनाव सर्वे  बीजेपी को पिछड़ता हुआ बता रहे हैं . चुनावी सर्वे के अनुसार  ममता बनर्जी बंगाल की सबसे लोकप्रिय नेता हैं और यही बात वहां बीजेपी की तरफ से मुख्यमंत्री पद की  दावेदारी करने वालों को खल रही है .  बंगाल बीजेपी अध्यक्ष दिलीप घोष भी इन नेताओं में शामिल हैं जो मुख्यमंत्री पद की उम्मीद लगाये बैठे हैं . ऐसे नेताओं में दिलीप घोष का नाम सबसे ऊपर है . शायद यही कारण है कि वे ममता बनर्जी के बारे में ऊल जलूल बयान दे रहे हैं . ममता बनर्जी की चोट को लेकर उन्होंने पुरुलिया की एक चुनाव सभा में कह दिया कि  ममता बनर्जी के पाँव का प्लास्टर कट गया है और अब क्रेप बैंडेज लगी हुयी है . वे पाँव उठकर सबको ( बैंडेज ) दिखाती रहती हैं . साड़ी ऐसे पहनती हैं जिससे एक  पाँव ढका रहता है और दूसरा खुला रहता है. अगर उनको अपना पाँव खुला ही रखना है तो साड़ी क्यों पहनती हैं ,उनको बरमूडा पहनना चाहिए जिससे ( पाँव ) स्पष्ट  दिखता रहे . उनके इस बेहूदा बयान पर  लोक सभा सदस्य मोहुआ मोइत्रा ने ट्वीट करके कहा कि  दिलीप घोष का यह बयान एक विकृतकामी ( pervert ) का बयान है और ऐसी मानसिकता वाले सभी विकृतकामी बन्दर चुनाव हारेंगे .

 

चुनाव हारना जीतना तो नतीजों से पता लगेगा लेकिन दिलीप घोष की घटिया मानसिकता का  पता उनके इस बयान से जगजाहिर हो गया है . साथ साथ यह भी पता चलने लगा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह,  बीजेपी अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा और कैलाश विजयवर्गीय की सारी मेहनत के बावजूद दिलीप घोष टाइप “  विकृतकामी बंदरों “ को हार साफ़ नज़र आ रही है . अगर यही बयान किसी विरोधी नेता ने बीजेपी की किसी महिला नेता के खिलाफ दे दिया होता तो देश के बड़े न्यूज़ चैनल चौबीसों घंटे यही खबर चला रहे होते लेकिन दिलीप घोष के मर्दवादी नपुंसक बयान पर किसी  चैनल ने कोई खबर नहीं चलाई . बहरहाल उनकी अपनी मजबूरियां होंगी लेकिन दिलीप घोष के इस बयान की  चौतरफा निंदा होनी  चाहिए और उनकी इस मानसिकता को उसी तरह के लोगों के दिमाग की स्थिति से जोड़कर देखा जाना चाहिए जो  स्त्री को  अपने से घटिया मानते हैं. ऐसा कई बार  सुना गया है कि किसी बड़े सरकारी पद पर  तैनात महिला अफसर का चपरासी उसका हुक्म मानने में अपनी हेठी समझता है .  दिलीप घोष का बयान उसी संकुचित सोच वाली मानसिकता वाले चपरासी की तरह का ही बयान  माना जाएगा . यह भी ज़रूरी है कि  सभ्य समाज के प्रबुद्ध लोग इस तरह  की  सोच की निंदा करें और महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई को धार देने की कोशिश करें. महिलाओं के अधिकार की लड़ाई लड़ने वालों को को यह चाहिए कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के तालिबानी संगठनों की तरह सोचने वालों की हर मुकाम पर निंदा करें . दिलीप घोष का बयान उसी तालिबानी सोच का भारतीय संस्करण है.

 

तालिबानी सोच के चलते देश की आज़ादी को भी खतरा पैदा हो जाता है . भारत और पाकिस्तान एक समय पर अंग्रेजों से आज़ाद हुए थे . महात्मा गांधी के नेतृत्व में जो आज़ादी की लड़ाई लड़ी गयी थी उसमें नैसर्गिक न्याय स्थाई भाव था . शोषित पीड़ित जमातों के साथ न्याय उसी का हिस्सा है . डॉ लोहिया समेत सभी बड़े नेताओं ने बार बार कहा है कि  महिलायें भी अपने देश में शोषित पीड़ित रही हैं वे चाहे जिस  जाति या धर्म का पालन करने वाली हों. आज़ादी के बाद देश की नीतियाँ गांधी के ही रास्ते पर चलीं . ज़मींदारी उन्मूलन हुआ,दलितों के लिये आरक्षण हुआ, उनको शिक्षा देने का अभियान चलाया गया  लेकिन  पाकिस्तान में  कुछ नहीं हुआ. वहां पर समाज के समृद्ध वर्गों के एकाधिकार को बनाये रखने के लिए ही सारे नियम  क़ानून बनाये गए .  यही कारण है कि आज पाकिस्तान एक पिछड़ा देश है जबकि भारत दुनिया के शीर्ष देशों में गिना  जाने लगा  है . पाकिस्तान में तो अभी तक महिलाओं को अपमानित करने का कुटीर उद्योग चल रहा है .इसी सोच का नतीजा है कि वहां  जब भी चुनाव होते हैं तो घटिया मर्दवादी सोच के लोग ही हावी रहते  हैं. पाकिस्तान में होने वाले किसी चुनाव के लिए सबसे बड़ा ख़तरा पुरातनपंथियों और तालिबानी सोच के लोगों से रहता है .  पिछले कई वर्षों  से  पाकिस्तान के  सरहदी सूबे , खैबर पख्तूनख्वां ,में तालिबानियों की ओर से पर्चे बांटे जाते हैं जिसमें अपील की जाती है कि चुनाव के दिन कोई भी महिला घर से बाहर न निकले और वोट न डाले . सूबे के मर्दों को हिदायत दी जाती  है कि अपने घर की औरतों को वोट डालने के लिए घर से बाहर न निकलने दें . जो पर्चे बांटे जाते  हैं उनमें लिखा होता है कि औरतों के लिए डमोक्रेसी में शरीक होना गैर इस्लामी है   .दिलीप घोष के बरमूडा वाले बयान से पाकिस्तानी तालिबान की इसी सोच की बू आती है .

 

इस तरह की सोच वाले सभी पार्टियों में मौजूद हैं . ज़रूरत इस बात की है उन लोगों को राजनीति की मुख्यधारा से  बाहर ही रखा जाए . पाकिस्तानी तालिबानी  मानसिकता किसी भी  समाज में स्वीकार नहीं की  जानी चाहिए .एक समाज के रूप में हमें इस मानसिकता से लड़ना पडेगा . असली समस्या यह है कि आज भी हमारा पुरुष प्रधान समाज महिलाओं को कमज़ोर मानता है .जब तक औरतों के बारे में पुरुष समाज की बुनियादी सोच नहीं बदलेगी तब तक कुछ नहीं होने वाला है . असली लड़ाई पुरुषों की मानसिकता  बदलने की है .जब यह मानसिकता  बदलेगी उसके बाद ही देश की आधी आबादी के खिलाफ निजी तौर पर की जाने वाली ज़हरीली बयानबाजी से बचा  जा सकता है . दुनिया जानती है कि संसद और विधानमंडलों में महिलाओं के ३३ प्रतिशत आरक्षण के लिये कानून बनाने के लिए देश की अधिकतर राजनीतिक पार्टियों में आम राय है लेकिन कानून संसद में पास नहीं हो रहा  है . इसके पीछे भी वही तर्क है कि पुरुष प्रधान समाज से आने वाले नेता महिलाओं के बराबरी के हक को स्वीकार नहीं करते .इसीलिये सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक और नैतिक  विकास को बहुत तेज़ गति दे सकने वाला यह कानून अभी पास नहीं हो रहा है .महिला आरक्षण का विरोध कर रही जमातें किसी से कमज़ोर नहीं हैं और महिलायें  पिछले कई दशक से सरकारों को अपनी बातें मानने के लिए दबाव डालती रही हैं .अपने को पिछड़ी जातियों के राजनीतिक हित की निगहबान बताने वाली राजनीतिक पार्टियां महिलाओं के आरक्षण में अलग से पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की बात कर रही हैं . सबको मालूम है कि यह मुद्दे को भटकाने का तरीका है .

 

महिला अधिकारों की लड़ाई कोई नई नहीं है  भारत की आज़ादी  की लड़ाई के  साथ महिलाओं की आज़ादी की लड़ाई का आन्दोलन भी चलता रहा है .१८५७ में ही मुल्क की खुदमुख्तारी की लड़ाई शुरू हो गयी थी लेकिन अँगरेज़ भारत का साम्राज्य छोड़ने को तैयार नहीं था. उसने इंतज़ाम बदल दिया. ईस्ट इण्डिया कंपनी से छीनकर ब्रितानी सम्राट ने हुकूमत अपने हाथ में ले ली. लेकिन शोषण का सिलसिला जारी रहा. दूसरी बार अँगरेज़ को बड़ी चुनौती महात्मा गाँधी ने दी . १९२० में उन्होंने जब आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व करना शुरू किया तो बहुत शुरुआती दौर में साफ़ कर दिया था कि उनके अभियान का मकसद केवल राजनीतिक आज़ादी नहीं हैवे सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई लड़ रहे हैं , उनके साथ पूरा मुल्क खड़ा हो गया . . हिन्दू ,मुसलमानसिखईसाईबूढ़े ,बच्चे नौजवान , औरतें और मर्द सभी गाँधी के साथ थे. सामाजिक बराबरी के उनके आह्वान ने भरोसा जगा दिया था कि अब असली आज़ादी मिल जायेगी. लेकिन अँगरेज़ ने उनकी मुहिम में हर तरह के अड़ंगे डाले .

महिलाओं के सम्मान को सुनिश्चित करने के लिए उनको राजनीतिक अधिकार मिलना  ज़रूरी है और उसके लिए महिलाओं को आरक्षण मिलना ही चाहिए .आरक्षण के  बिल को पास  उन लोगों के ही करना है जिनमें से अधिकतर मर्दवादी  सोच की बीमारी  के मरीज़ हैं . और वे दिलीप घोष टाइप मानसिकता वाले लोग हैं . पिछले दिनों एक रिपोर्ट आई थी जिसमें लिखा है कि अहमदाबाद की 58 फीसदी औरतें गंभीर रूप से मानसिक तनाव की शिकार हैं. उनका अध्ययन बताता है कि 65 फीसद औरतें सरेआम पड़ोसियों के सामने बेइज्जत की जाती है. 35 फीसदी औरतों की बेटियां अपने पिता की हिंसा की शिकार हैं. यही नहीं 70 फीसदी औरतें गाली गलौच और धमकी झेलती हैं. 68 फीसदी औरतों ने थप्पड़ों से पिटाई की जाती है. ठोकर और धक्कामुक्की की शिकार 62 फीसदी औरतें हैं तो 53 फीसदी लात-घूंसों से पीटी जाती हैं. यही नहीं 49 फीसदी को किसी ठोस या सख्त चीज से प्रहार किया गया जाता है. वहीं 37 फीसदी के जिस्मों पे दांत काटे के निशान पाए गए. 29 फीसद गला दबाकर पीटी गई हैं तो 22 फीसदी औरतों को सिगरेट से जलाया गया है. "दिलीप घोष यह सब तो नहीं कर सकते लेकिन जो उन्होंने ममता जी की चोट, साड़ी और बरमूडा वाला बयान दिया है वह इसी श्रेणी के अपराधों की मानसिक स्थिति से पैदा होती है और उनकी निंदा की जानी चाहिए .

Sunday, March 21, 2021

वाणी की युद्ध-यात्रा ,हमने ढाका पर भारतीय सेना की विजय को देखा है –डॉ धर्मवीर भारती की आँखों से

 

 


शेष नारायण सिंह

 

बंगलादेश की आज़ादी की लड़ाई एक हथियारबंद लड़ाई थी जिसमें  पहले के पूर्वी पाकिस्तान की जनता के हर वर्ग ने हिस्सा लिया था . शेरपुर ,जमालपुर, टंगाइल होते हुए जो सेना ढाका पंहुची थी उसकी अगुवाई मेजर जनरल गन्धर्व नागरा कर रहे थे. उनके साथ सहयोगी ब्रिगेडियर क्लेर भी थी . उन दिनों टीवी नहीं था .  रेडियो और अखबार से ही ख़बरें मिलती थीं. उस लड़ाई का आँखों देखा हाल हमने उस दौर की सबसे लोकप्रिय हिंदी पत्रिका धर्मयुग में पढ़ा था. धर्मयुग के संपादक डॉ धर्मवीर भारती एक युद्ध संवाददता के रूप में जनरल गंधर्व नागरा की सेना के साथ साथ चल रहे थे. डॉ भारती को हिंदी भाषा  का  दुनिया का पहला युद्ध संवाददाता होने का गौरव प्राप्त  है .उनके फोटोग्राफर बालकृष्ण भी  साथ थे. धर्मयुग में छपे डॉ धर्मवीर भारती के  डिस्पैच  १९७१ के दिसंबर और १९७२ की जनवरी  में भारत के कोने कोने में  पढ़े जाते थे.  एम ए  प्रीवियस के छात्र के रूप में हमने उन ख़बरों को पढ़ा था , बार बार पढ़ा था. हिंदी में गद्य लेखन के जो श्रेष्ठतम मानदंड हैं, वह रिपोर्टें उन्हीं में शुमार की जायेंगी . वैसे भी डॉ  धर्मवीर भारती की गद्य लेखन का सम्मान चंहुओर है  लेकिन मुक्तिवाहिनी और मित्रवाहिनी के साथ उनकी वह यात्रा ऐतिहासिक है .कल ( २० मार्च )  वाणी प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी से डॉ भारती की  क़लम की ताकत और उस लडाई की  रिपोर्टिंग की चर्चा  हो रही थी , तो मैंने डॉ  भारती की रिपोर्ट के कुछ अंश सुनाना शुरू कर दिया .बहुत सारे अंश हमको जबानी याद हैं ..  कुछ क्षण बाद ही अरुण जी भी कुछ अंश  सुनाने लगे. मैंने कहा ,भाई आप तो उस समय १०-११ साल के  रहे होंगे, आप तो शायद धर्मयुग न पढ़ते रहे  हों  तो उन्होंने ११८ पृष्ठों की एक किताब दिखाई जिसमें वह सारी रिपोर्ट छपी हुयी है . “ युद्ध-यात्रा “  नाम की यह किताब  वाणी प्रकाशन ने ही छापी है . मैं गदगद हो गया . उन्होंने वह किताब मुझे दी और  कहा कि यह आपके लिए  है. अपन भी सख्त याचक हैं . कभी मुफ्त में मिली किताब पढ़ते नहीं . मुझे मालूम है कि वे  मुझसे किताब का दाम नहीं लेंगे इसलिए मैंने कहा कि आप किताब पर कुछ लिख कर दीजिये. उन्होंने कहा कि लिखना तो आदरणीय पुष्पा भारती जी का अधिकार है लेकिन चलिए कुछ लिखता हूं. उन्होंने पुष्पा जी और स्व डॉ भारती के हवाले से वह किताब मुझे दे दी  .

घर पंहुचकर  किताब   पढ़ना शुरू किया . आधी तो रात में ही पढ़ गया और जो  बची उसे सुबह पूरी कर लिया . उस किताब में मेरे लिए नया कुछ भी नहीं था. सारा कुछ हमने आज के पचास साल पहले पढ़ रखा था ,इसलिए डॉ भारती की वह रिपोर्टें ऐसी लगती हैं कि जैसे हम भी  उनमें कहीं   मौजूद हैं . उन्हीं रिपोर्टों को पढ़कर अपने मित्रों को  सुनाते हुए मेरे जीवन के कुछ स्मरणीय क्षण  जुड़े हुए हैं , बहुत ही अच्छी यादें हैं .हमारे सैन्य विज्ञान के प्राध्यापक एस सी श्रीवास्तव साहब तो मेजर जनरल गन्धर्व नागरा और ब्रिगेडियर क्लेर को राम-लक्षमण कहा करते थे . भारतीय सेना ढाका की तरफ पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण की तरफ से बढ़ रही थी और सबकी बाकायदा दुनिया भर में रिपोर्टिंग हुयी लेकिन हिंदी क्षेत्र की जनता को उत्तर की तरफ से आती हुयी मेजर जनरल गंधर्व नागरा की सेना के बारे में ही ज्यादा जानकारी  थी. हम लोगों को मालूम है कि जमालपुर से बढ़ते हुए जब ढाका शहर के ठीक बाहर जनरल नागरा की फ़ौज पंहुच गयी तो वे मीरपुर पुल पर गए और उन्होंने ही अपने दो अफसरों को वह चिट्ठी लेकर भेजी थी जिसमें पाकिस्तानी सेना का आला अफसर लेफ्टीनेंट जनरल ए ए के नियाजी को समझाया गया था कि,” मैं अपनी फ़ौज के साथ यहाँ तक आ पंहुचा हूँ. यदि आप अपनी कुशल चाहते  हैं तो आत्मसमर्पण कर दें .आत्मसमर्पण के बाद आपकी और आपकी सेना की पूरी सुरक्षा की गारंटी मैं लेता हूँ. : उसके बाद जनरल नियाजी ने आत्मसमर्पण करने का फैसला किया . जनरल नागरा और जनरल  नियाजी एक  दूसरे से पूर्व परचित थे . दोनों गले मिले . उसके बाद कलकत्ता से पूर्वी कमान के कमांडर जनरल जे एस  अरोड़ा ढाका गए और समर्पण की कार्यवाही विधिवत पूरी की गयी .

लेफ्टिनेंट जनरल नियाजी ४/७ राजपूत रेजिमेंट में कमीशन किये गए थे इसलिए भारत की सेना में उनके बहुत सारे दोस्त थे . उनको जनरल नागरा के वचन के अनुसार राजपूत  रेजिमेंटल सेंटर और गढ़वाल राइफल्स सेंटर में युद्धबंदी के रूप में रखा गया . डॉ भारती की रिपोर्ट में तो यह नहीं लिखा है लेकिन जब जनरल अरोड़ा के सामने जनरल नियाजी समर्पण करने आये तो उनको अपनी पिस्तौल समर्पण करना  था. जनरल अरोड़ा ने कहा कि बेल्ट भी खोल दो . बेल्ट  खोलने के बाद नियाजी ने कहा कि   पतलून भी ? इस बात  ठहाका लगा और जब नियाजी को बताया गया कि उनकी सेना ने किस तरह से अत्याचार किये हैं तो उनको अफ़सोस भी हुआ.  दरअसल उनको तो बलि का बकरा बनाया गया था .उनके पहले तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना का कमांडर लेफ्टिनेट जनरल टिक्का खान था और उसने जब देखा कि है हार  निश्चित है तो वह भाग कर वापस रावलपिंडी चला गया था. बाग्लादेश में उसी के तैनात किये गए अफसर  तैनात थे जो सब कके सब बूचर थे . इसके पहले वह बलोचिस्तान में अपने खूंखार तरीकों से बूचर ऑफ़ बलोचिस्तान का तमगा  हासिल कर चुका था. उसी जनरल टिक्का खान का रिश्तेदार वह बदतमीज लेफ्टिनेंट जैदी भी था जिसको जमालपुर कीलड़ाई में युद्धबंदी बनाया गया था .

डॉ भारती की रिपोर्ट  पढ़कर ही हमको  पता था कि मुक्तिबाहिनी के कमांडर कर्नल उस्मानी कितने बहादुर थे .मां काली की कसम खाकर अपने सैनिकों को भेजते मुस्लिम मुक्तिबाहिनी अफसरों की कहानी भी वहीं दर्ज है . मुक्तिबाहिनी के सेक्टर कमांडर मेजर जलील को ,भारतीय सेना के कर्नल बरार और मेजर महेंद्र , फ़्लाइंग ऑफिसर वर्मा के कटाक्ष का बेहतरीन  वर्णन भी धर्मयुग रिपोर्टों में  पढ़ा था . उस पूरी रिपोर्ट को छापकर अरुण माहेश्वरी और उनकी यशस्वी बेटी अदिति ने बहुत ही आला और नफीस काम किया है. मन तो कह रहा  है कि सारी कथा लिख दूं  लेकिन लिखूंगा नहीं क्योंकि आप में से अगर कोई ‘युद्ध-यात्रा ‘ को पढ़ना चाहेगा तो उसका मज़ा किरकिरा हो जायेगा

 

Monday, March 15, 2021

बहुत अरसा बाद लखनऊ की माल एस्टेट गया ,मन खुश हो गया .


शेष नारायण सिंह

कई दशक बाद माल गया. माल के राजा कुंवर भूपेन्द्र सिंह की शादी की 51 वीं सालगिरह थी . उनकी पौत्री ( नवनिधि और माधवेंद्र की बेटी ) का अन्नप्राशन भी था बाकायदा जश्न मनाया गया . उनके प्रिय जल्लाबाद फार्म पर मुख्य कार्यक्रम था . उनके बच्चों ने आयोजन किया था . उनके उन सारे दोस्तों को आमंत्रित किया गया था जो उनको पाचास साल या उससे ज़्यादा वक़्त से जानते हैं . उन्होंने अपनी पढ़ाई काल्विन ताल्लुकेदार्स कालेज लखनऊ में थोड़े दिन की ,अमेरिका गए और लखनऊ यूनिवर्सिटी में पूरी की . उनको मैं सत्तर के दशक से जानता हूं. मैं उनको सम्मान से लल्लन दादा कहता हूं. शुरुआती परिचय के बाद उनसे मुलाकातें तो बहुत रेगुलर नहीं थीं लेकिन लखनऊ के उनके 60 पुराना क़िला आवास पर कभी कभार आना जाना होता था . बाद में मैं दिल्ली आ गया और वे लखनऊ में आम के पल्प की यूनिट लगाने में व्यस्त हो गए . फिर इमरजेंसी लग गयी और ज्यादातर पढ़े लिखे लोग थोड़े संकोच में रहने लगे . पता नहीं कब कौन और कहाँ नाराज़ हो जाए और फिर सत्ता का क्रोध किस रूप में आ जाये . अमेठी के कोहरा में उनकी चाची का मायका है . उनके मामा स्व रवीन्द्र प्रताप सिंह सुल्तानपुर जिले के जनसंघ के जिलास्तर के नेता थे. 1967 में गौरीगंज से एम एल ए रह चुके थे. 1977 में जब संजय गांधी के सामने विपक्ष को कोई ताकतवर उम्मीदवार नहीं सूझ रहा था तो नानाजी देशमुख ने अमेठी से जनता पार्टी के उम्मीदवार के रूप में रवीन्द्र प्रताप सिंह के नाम की घोषणा कर दी . वे चुनाव में उस वक़्त की सत्ता के युवराज के खिलाफ मैदान में आये और उन्होंने संजय गांधी को बहुत बुरी तरह हराया . उन दिनों मैं रोज़गार की तलाश में दिल्ली में रहता था . उनके ही आवास पर लल्लन दादा से दोबारा मुलाक़ात हुई . लल्लन दादा mango belt में बहुत सम्मान की शख्सियत हैं . मलीहाबाद के आसपास जहां लखनऊ के आम की राजधानी है , उसी के पास उनका एस्टेट है . जल्लाबाद का बाग़ भी उसी इलाके में है और अब वहां उनके बेटे कुंवर माधवेंद्र सिंह ने एक आधुनिक और वैज्ञानिक ,माधव उद्यान विकसित कर दिया है . उसी माधव उद्यान में १३ मार्च का जश्न आयोजित था . उस कार्यक्रम का आयोजन उनकी बेटियों और बेटों ने किया था . उनके भाई कुंवर देवेन्द्र सिंह हामेशा की तरह साथ साथ मौजूद थे जैसे राम के साथ लक्ष्मण. भाभी साहिबा, कुंवरानी गायत्री सिंह के इर्द गिर्द ही सारा कार्यक्रम केंदित था. हो भी क्यों न ? अपनी बेटियों को जिस तरह से भाभी ने शिक्षा दिलवाई है , जिस तरह से उनका लालन पालन किया है सभी ख़ुदमुख़्तार हैं . आम तौर पर राजाओं की बेटियाँ इतनी आत्मनिर्भर नहीं होतीं, लेकिन मनीषा ,मेघना, मोहिता, मौसमी सब जहां भी जाती हैं रोशनी बिखेर देती हैं . दादा की बहनों, भाइयों की औलादें अपने जीवनसाथियों के साथ जश्न में शामिल थीं. कटक से आयी भांजी ने जिस तरह से फिल्म का गाना render किया वह बेहतरीन था . उनके बेटे माधवेंद्र की जो बहू आई है वह एक सकारात्मक ऊर्जा का पुंज है . नवनिधि सिंह , माल की बहू है लेकिन भाभी साहिबा उसको वही सम्मान देती हैं जो बेटियों को या शायद उससे भी ज्यादा . मुझे खुशी है कि मैं इस बार माल के किसी आयोजन में शामिल हो सका. मैं ही नहीं ,अवध के ताल्लुकेदारों के ज्यादातर परिवार जश्न में शामिल हुए .उनमें बहुत से लल्लन दादा के साथ यूनिवर्सिटी के छात्र भी रह चुके हैं. सबकी अपनी मीठी मीठी यादें हैं .
मैं बजात खुद राजा या ताल्लुकदार परिवार से नहीं हूँ. commoner हूं . उनसे सात साल छोटा हूँ तो साथ पढने लिखने का भी कोई मतलब नहीं . दर असल मेरा बेहतरीन समय उनके साथ दिल्ली में ही बीता है . लल्लन दादा ने लोगों से मुझे अपना भाई कहकर परिचित कराया . उनके बालसखा अनिल चंद्रा दिल्ली में गारमेंट की दुनिया के बहुत ही आदरणीय नाम हुआ करते थे. अब तो बुज़ुर्ग हो गए . दोनों साथ साथ लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़ते थे. अनिल दादा के पिताजी स्व डॉ सुशील चंद्रा ,लखनऊ विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर रह चुके थे , जेके इंस्टीट्यूट के डाइरेक्टर रह चुके, रिटायर होने के बाद दिल्ली में ही रहते थे. बहुत बड़ा नाम था उनका. वे सभ्यता की प्रतिमूर्ति थे . अनिल चंद्रा के डैडी थे तो लल्लन दादा समेत ज्यादातर दोस्त उनको डैडी ही कहते थे . वे हमारे डैडी चंद्रा हो गए . एक बार उन्होंने मुझसे कहा कि तुम ठाकुर हो सुल्तानपुर के और अवध की असली नफासत और ठसक तुम्हारी पर्सनालिटी में नहीं है . तुमको चाहिए कि लल्लन को गुरू मानकर चलो तो तुमको सभ्य समाज में उठने बैठने की तमीज आ जायेगी . तो जनाब हमने डैडी चंद्रा की सलाह मानी और तमीज के मामले में हम लल्लन दादा के शिष्य हो गए. अपने गुरू के पद को उन्होंने बहुत ही गंभीरता से लिया और मुझे 1978 में तमीज सिखाने के प्रोजेक्ट में लग गए . यह अलग बात है कि आज 43 साल बाद भी मैं कुछ खास तमीज नहीं सीख पाया . लल्लन दादा और अनिल दादा जब कभी बात करने लगते थे तो घंटों बतियाते रहते थे. दोनों ही मित्र , भाई ज़्यादा लगते थे . एक बार अनिल चंद्रा के मालचा मार्ग दिल्ली स्थित घर पर एलान किया गया कि लल्लन दादा और अनिल दादा कुछ ख़ास किस्म का लखनवी भोजन आमंत्रित लोगों को खिलाएंगे. दोनों ही मित्रों ने खुद ही बावर्चीखाने का ज़िम्मा संभाला . हम लोग लंच पर आमंत्रित थे . सारे नौकर चाकर भी साथ लगे थे . हम भी सहायक की भूमिका में थे. एक बजे के बाद से भूख के मारे बुरा हाल था लेकिन चूंकि तमीज के विद्यार्थी थे तो भूख ज़ाहिर करने का तो सवाल ही नहीं उठता था. चार बजे लंच सर्व हुआ तब तक हमारे पेट में चूहे कूद रहे थे. बहरहाल खाना लाजवाब था. 13 मार्च के जश्न में अनिल दादा शामिल नहीं हो सके लेकिन मैं उनकी भी नुमाइंदगी कर रहा था .
दिल्ली में जे एन यू के छात्रावास का खाना ही हम खाते थे लेकिन जब लल्लन दादा दिल्ली आते थे तो हम पांच सितारा होटलों में खाने जाया करते थे . हमने अमरीका और ब्रिटेन की बेहतरीन फ़िल्में उनके साथ ही देखी हैं . उनको अच्छे कपडे पहनने का बहुत ही शौक़ है . उस दौर के मेरे भी सभी अच्छे कमीजें और पतलून उनके साथ ही जाकर खरीदे गए हैं.
लल्लन दादा यानी कुंवर भूपेन्द्र सिंह का एक कौल है कि उनके आम दुनिया में सबसे बेहतरीन आम होते हैं . मैं इस बात की तस्दीक करता हूँ. हर साल आम के मौसम में मेरे लिए जल्लाबाद फ़ार्म के आम ज़रूर आते थे और दिल्ली में अपने ख़ास मित्रों और शुभचिंतकों को मैं आम खिलाया करता था. उन दिनों मैं बेरोजगार था लेकिन उन्होंने जब भी मुझे किसी से मिलाया तो या तो अपना भाई या colleague कहकर ही मिलाया . दुनिया भर विख्यात food technologist डॉ आनन्द कुराडे को कुंवर भपेन्द्र सिंह ने अपनी कम्पनी में काम दिया था . माल की कैनर्स इंडिया लिमिटेड उनका पहला कंसल्टेंसी का काम था. . जब लल्लन दादा को मैंने बताया कि बीबीसी रेडियो में भी मुझे कुछ काम मिलता रहता है तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं था. आज के करीब 24 साल पहले जब मैंने एन डी टी वी ज्वाइन किया तो उन्होंने मुझे और मेरे दोस्तों को मिठाई खिलाई थी. मेरे तीनों बच्चे उनको बहुत ही सम्मान की नज़र से देखते हैं. 1988 में मेरे ग्रीन पार्क के घर में जब भी वे पधारे सब के लिए कोई न कोई गिफ्ट लेकर आये .
एक बार उन्होंने कहा कि पीटर सेलर्स की कोई फिल्म चाणक्य सिनेमा में लगी हुयी है , उसको देखना है . उस सिनेमा हाल की महंगी टिकटें सबसे पहले बिक जाती थीं. जब हम पंहुचे तो थोड़ी देर हो गयी थी और 65 पैसे वाली टिकटें ही बची थी, उन्होंने कहा वही खरीद लो क्योंकि उनको अगले दिन सुबह की फ्लाइट से लखनऊ जाना था. एक रूपये तीस पैसे की टिकट खरीदी गयी . गौर करने की बात यह है कि हम अशोक होटल में खाना खाकर गए थे जिसका बिल आज के चालीस साल पहले हज़ार रूपये तो रहा ही होगा और जिस टैक्सी में हम आये उस्सको भी उन दिनों डेढ़ सौ रूपये दिए गए. भाभी साहिबा के साथ एक बार वे वैष्णों देवी गए . जब लौटे तो मेरे बच्चों को ख़ास तौर से बुलाकर प्रसाद दिया .
ऐसी उनके बारे में बहुत सारी यादें हैं . कभी लिखूँगा . अब वे पूरी तरह रिटायर हैं , माधवेंद्र ने काम बहुत अच्छी तरह संभाल लिया है . अब माल या जल्लाबाद जाना बहुत आसान है . पहली बार जब गया था तो मलीहाबाद होकर गया था , गंगा नाम का उनका सहायक मेरी सेवा में रहता था . उन दिनों लगता लगता था कि माल बहुत दूर है . लेकिन इस बार हज़रतगंज से चलने के एक घंटे के बाद मैं जल्लाबाद पंहुच गया था , क्योंकि दुबग्गा से माल के लिए एक सड़क बन गयी है जिसपर कोई ख़ास ट्रैफिक नहीं रहता . कुल मिलाकर ‘ मालगाँव ‘ भी तरक्की कर रहा है .माल में तो कोठी है ही जल्लाबाद में भी एक बेहतरीन कॉटेज है. सोचता हूं कि अब जब भी लखनऊ जाऊं तो एक बार उस संत , राजा भूपेन्द्र सिंह के ठिकाने पर ज़रूर जिसने पता नहीं कितने लोगों का उपकार किया है लेकिन कभी किसी से उस मदद पाने वाले की मजबूरी या गरीबी का उल्लेख नहीं किया . उनके बारे में मुबारक सिद्दीकी का यह शे’र कितना मौजूं है .
किसी की रह से , ख़ुदा की ख़ातिर , उठा के काँटे हटा के पत्थर
फिर उस के आगे , निगाह अपनी झुका के रखना . कमाल ये है
बहुत बहुत मुबारक भाभी जी और लल्लन दादा . बहुत बहुत बधाई मेरे बच्चो .

बांगलादेश के पचास साल और बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान


शेष नारायण सिंह

50 साल पहले बंगलादेश का जन्म हुआ था. 26 मार्च को उसकी पचासवीं जयन्ती मनाई जायेगी . उसके पहले सात मार्च को शेख मुजीब ने पाकिस्तान से  बांगलादेश की आज़ादी का नारा दिया था और 26 मार्च को आज़ादी के जंग का इअलान कर दिया था . उसी दिन से पूर्वी  पाकिस्तान ख़त्म और बंगलादेश अस्तिव में आ गया  . इस साल 26 मार्च के  कार्यक्रम में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल होंगे. कोरोना की महामारी आने के बाद यह उनकी पहली विदेश यात्रा होगी . बांग्लादेश के जन्म के साथ ही असंभव भौगोलिक बंटवारे का एक अध्याय ख़त्म हो गया था. नए राष्ट्र के संस्थापक ,शेख मुजीबुर्रहमान को तत्कालीन पाकिस्तानी शासकों ने जेल में बंद कर रखा था लेकिन उनकी प्रेरणा से शुरू हुआ बंगलादेश की आज़ादी का आन्दोलन भारत की मदद से परवान चढ़ा और एक नए देश का जन्म हो गया.. बंगलादेश का जन्म वास्तव में दादागीरी की राजनीति के खिलाफ इतिहास का एक तमाचा था जो शेख मुजीब के माध्यम से पाकिस्तान के मुंह पर वक़्त ने जड़ दिया था. आज पाकिस्तान जिस अस्थिरता के दौर में पंहुच चुका है उसकी बुनियाद तो उसकी स्थापना के साथ ही १९४७ में रख दी गयी थी लेकिन इस उप महाद्वीप की ६० के दशक की घटनाओं ने उसे बहुत तेज़ रफ़्तार दे दी थी.. यह पाकिस्तान का दुर्भाग्य था कि उसकी स्थापना के तुरंत बाद ही मुहम्मद अली जिन्नाह की मौत हो गयी. प्रधानमंत्री लियाक़त अली को पंजाबी आधिपत्य वाली पाकिस्तानी फौज और व्यवस्था के लोग अपना बंदा मानने को तैयार नहीं थे और उनको हिन्दुस्तान से आया हुआ मोहाजिर मानते थे . उन्हें भी मौत के घाट उतार दिया. जब जनरल अय्यूब खां ने पाकिस्तान की सत्ता पर क़ब्ज़ा किया तो वहां गैर ज़िम्मेदार हुकूमतों के दौर का आगाज़ हो गया.. याह्या खां की हुकूमत पाकिस्तानी इतिहास में सबसे गैर ज़िम्मेदार सत्ता मानी जाती है. ऐशो आराम की दुनिया में डूबते उतराते जनरल याहया खां ने पाकिस्तान की सत्ता को अपने फौजी अफसरों के क्लब का ही विस्तार समझ लिया  था . मानसिक रूप से कुंद ,याहया खान किसी न किसी की सलाह पर ही निर्भर करते थे उन्हें अपने तईं राज करने की तमीज नहीं थी. कभी प्रसिद्ध गायिका नूरजहां की राय मानते ,तो कभी ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की. सच्ची बात यह है कि सत्ता हथियाने की अपनी मुहिम के चलते ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने याहया खान से थोक में मूर्खतापूर्ण फैसले करवाए..ऐसा ही एक मूर्खतापूर्ण फैसला था कि जब संयुक्त पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेम्बली ( संसद) में शेख मुजीबुर्रहमान की पार्टीअवामी लीग को स्पष्ट बहुमत मिल गया तो भी उन्हें सरकार बनाने का न्योता नहीं दिया गया..पश्चिमी पाकिस्तान की मनमानी के खिलाफ पूर्वी पाकिस्तान में पहले से ही गुस्सा था और जब उनके अधिकारों को साफ़ नकार दिया गया तो पूर्वी बंगाल के लोग सडकों पर आ गए. . मुक्ति का युद्ध शुरू हो गयामुक्तिबाहिनी का गठन हुआ और स्वतंत्र बंगलादेश की स्थापना हो गयी.. इस तरह १६ दिसंबर १९७१ का दिन बंगलादेश के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो गया.उसी दिन  पाकिस्तान की फौज के करीब १ लाख सैनिको ने घुटने टेक दिए और भारतीय सेना के सामने समर्पण किया था . बाद में बंगलादेश ने भी बहुत परेशानियां देखीं १५ अगस्त १९७५  के दिन शेख मुजीब की उनकी फ़ौज के कुछ अफसरों ने धानमंडी स्थित उनके मकान में मार डाला . फ़ौजी अफसरों ने उस हमले में उनके पूरे परिवार को मार डाला था.  शेख मुजीब की पत्नी ,उनके तीन बेटे  और भी  कुछ रिश्तेदार जो उनके घर में टिके हुए थे , सबको मार डाला गया था . उनकी दो बेटियाँ जर्मनी में थीं लिहाजा उनकी जान बच गयी. उनमें से एक  शेख हसीना आजकल बंगलादेश की प्रधानमंत्री हैं .शेख साहब को मारकर बांग्लादेश में भी  फौज ने सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया . यह वही लोग थे जो पाकिस्तानी फौज के अफसर थे  लेकिन बंगालदेश की स्थापना के बाद बंगलादेश की सेना में बंटवारे के तहत आ गए थे . उसके बाद फ़ौज ने बार बार बांग्लादेश की सत्ता पर आधिपत्य जमाया और कई बार ऐसे लोग सत्ता पर काबिज़ हो गए जो पाकिस्तानी आततायीजनरल टिक्का खान के सहयोगी रह चुके थे.  जनरल टिक्का खान को   बूचर ऑफ़ बलोचिस्तान कहा जाता था . बाद में उसको ढाका की तैनाती दी गयी. जब बंगलादेश की आज़ादी के लिए मुक्ति बाहिनी का आन्दोलन चल रहा था तो ले.जनरल टिक्का खान ही ढाका में पाकिस्तानी फौज का कमांडर था . उसी की सरपरस्ती में  बंगलादेश में नागरिकों का क़त्ले-आम हुआ था . उसी ने  अपने फौजियों को आदेश दिया था कि बाग्लादेश को तबाह करो. इतिहास का सबसे बड़ा  बलात्कार भी उसी के हुक्म से बंगलादेश में हुआ था . बलात्कार करने वाले सभी पाकिस्तानी फौज के लोग ही थी . बलात्कार की घटनाएं उस दौर में पूर्वी पाकिस्तान में जितना हुईं उतनी शायद ज्ञात इतिहास में कहीं भी ,कभी न हुई हों ..बाद में जब पाकिस्तानी फ़ौज को लगा कि अब भारत की सेना के  सामने आत्मसमर्पण  करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है तो टिक्का खान खुद भी भाग गया और उसने अपने खास लोगों को भी भगा दिया . ढाका के आसपास तैनात सेना ने पाकिस्तानी जनरल  नियाजी की अगुवाई में भारतीय ले. जनरल जगजीत सिंह अरोरा के सामने समर्पण किया .

शेख मुजीब की मृत्यु के बाद काफी दिन तक फ़ौज ने बंगालदेश की सत्ता को अपने कब्जे में रखा .बाद में शेख मुजीबुर्रहमान की पार्टी ने फ़ौज को राजनीतिक तरीके से शिकस्त दी और  वहां लोकशाही की स्थापना हुई . शेख मुजीब की बेटी शेख हसीना ने फौजी हुकूमत का सपना देखने वालों  को बंगालदेश में उसकी औकात पर रखा  हुआ है और बे नागरिक प्रशासन को मजबूती देने की कोशिश शुरू लगातार कर रही हैं ..बंगलादेश का गठन इंसानी हौसलों की फ़तेह का एक बेमिसाल उदाहरण है..जब से शेख मुजीब ने ऐलान किया था कि पाकिस्तानी फौजी हुकूमत से सहयोग नहीं किया जाएगाउसी वक्त से पाकिस्तानी फौज ने पूर्वी पाकिस्तान में दमनचक्र शुरू कर दिया था. सारा राजकाज सेना के हवाले कर दिया गया था और वहां फौज ने वे सारे अत्याचार कियेजिनकी कल्पना की जा सकती है .. .आतंक का राज कायम कर रखा था सेना ने .. लोगों को पकड़ पकड़ कर मार रहे थे पाकिस्तानी फौजी. लेकिन बंगलादेशी नौजवान भी किसी कीमत पर हार मानने को तैयार नहीं था. जिस समाज में बलात्कार पीड़ित महिलाओं को तिरस्कार की नज़र से देखा जाता था उसी समाज में स्वतंत्र बंगलादेश की स्थापना के बाद पूरे देश का नौजवान उन लड़कियों से शादी करके उन्हें सामान्य जीवन देने के लिए आगे आया.  बलात्कार करने वाली  पाकिस्तानी फौज सबसे खूंखार हाथियार बलात्कार ही थी लेकिन वहां के नौजवानों ने उसी हथियार को भोथरा कर दिया.जिन लोगों ने उस दौर में बंगलादेशी युवकों का जज्बा देखा है वे जानते हैं कि इंसानी हौसले पाकिस्तानी फौज़ जैसी खूंखार ताक़त को भी शून्य पर ला कर खड़ा कर सकते हैं .. . बंगलादेश की स्थापना में भारत और उस वक़्त की प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी का बड़ा योगदान है. इंदिरा गांधी को उस वक़्त के पाकिस्तान के संरक्षक अमरीका से ज़बरदस्त पंगा लेना पडा था .  पाकिस्तानी फौज के  सभी हथियार अमरीका ने ही दे रखा था. जब बंगलादेश की आजादी  बिलकुल साफ़ नजर आ रही थी उस वक़्त अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड  निक्सन और उनके विदेश मंत्री हेनरी कीसिंजर ने अमरीका की सेना के सातवें  बेड़े के विमानवाहक जहाज , इंटरप्राइज को बंगाल की खाड़ी में स्थापित कर दिया  था. भारत की सेना को धमकाने की कोशिश की जा  रही थी . लेकिन जब अमरीका को सी आई ए की इंटेलिजेंस से पता लगा कि तत्कालीन भारतीय रक्षा मंत्री बाबू जगजीवन राम ने  सेना के एक  ऐसे आत्मघाती दस्ते का गठन कर दिया था जो अमरीकी नौसेना के सबसे बड़े अभियान को ही बरबाद करने की योजना बना चुका था  , तो उनका विमान  वाहक जहाज, इंटरप्राइज़  वापस अपने सातवें बेड़े में जा मिला . पाकिस्तानी  फौज की हार  हुई बंगलादेश की स्थापना हो गयी . भारत का बंगलादेश की स्थापना में बड़ा योगदान है क्योंकि  अगर भारत का समर्थन न मिला होता तो शायद बंगलादेश का गठन अलग तरीके से हुआ होता..

लेकिन यह बात भी सच है कि अपनी स्थापना के इन 50  वर्षों में बंगलादेश ने बहुत सारी मुसीबतें देखी हैं . अभी वहां लोकशाही की जड़ें बहुत ही कमज़ोर हैं..शेख हसीना एक मज़बूतदूरदर्शी और समझदार नेता तो हैं  और 2004 से लगातार  प्रधानमंत्री पद पर हैं  .उनकी अगुवाई में बांगलादेश की अर्थव्यवस्था आज बहुत ही सही तरीके से चल रही है . देश की प्रति व्यक्ति आय भारत से  अधिक  है .  कोरोना के चलते जो अमरीकी और यूरोपीय कम्पनियां चीन से अपने कारखाने हटा रही हैं उनमें से कई बंगलादेश में अपने कारखाने  लगा रही हैं . इस सब के बाद भी  लोकशाही के खिलाफ काम करने वाली वे शक्तियां उनको उखाड़ फेंकने के लिए अभी तक जोर मार रही हैं जिन्होंने बंगलादेश की स्थापना का विरोध किया था या उनके परिवार को ही ख़त्म कर दिया था . उन शक्तियों में जमाते-इस्लामी प्रमुख है . उन लोगों को  बंगलादेश में  इस्लामी शासन कायम  करने की बहुत जल्दी है . शेख हसीना धार्मिक आधार पर सत्ता की स्थापना की पक्षधर नहीं हैं . वे शेख मुजीबुर्रहमान के सपनों के हिसाब से सोनार  बांगला की कल्पना को साकार  करने में लगी हुई   हैं.  शेख हसीना  पड़ोसी देशों से अच्छे सम्बन्ध की पक्षधर हैं और  उनके नेतृत्व में बंगलादेश सही कूटनीतिक अर्थों में भारत का मित्र  देश है . आज शेख हसीना को भारत की मदद की वैसी ज़रूरत नहीं है जैसी १९७१ में थी लेकिन आपसी सम्मान का रिश्ता बनाने की कोशिश करना चाहिए . भारत में या पश्चिम बंगाल में अगर हिन्दू राष्ट्र की बात की जायेगी तो बंगलादेश जैसे एक बेहतरीन दोस्त की लोकतांत्रिक नेता पर भी अवाम का दबाव  बढेगा और भारत से दोस्ती पर संकट  की स्थिति आ जायेगी इसलिए देश में धर्मनिरपेक्षता के निजाम पर सत्ताधारी नेताओं को हमला करने से बाज आना चाहिए ..

Sunday, March 7, 2021

महिला सशक्तीकरण के लिए महिलाओं को शिक्षा और राजनीतिक अधिकार देने पड़ेंगे

 शेष नारायण सिंह 

 

मेरे  बचपन में मेरे गाँव में अठारह साल के पहले सभी लड़कों लड़कियों की शादी हो जाती थी . आम तौर पर शादी के एक या तीन साल बाद लडकी की विदाई होती थी .उस विदाई के समय लडकियां बिलख बिलख कर रोती थीं, उनकी माँ सबसे ज़्यादा रोती थी. शुरू में तो समझ में नहीं आता था कि रोने की क्या ज़रूरत है . थोडा बड़े होने पर पता चला कि रोने का कारण यह होता था कि एकदम अंजान लोगों के साथ जाकर रहना होता था और ज्यादातर लड़कियों  को ससुराल में कष्ट सहना पड़ता था.  अवधी लोकगीतों में सुसराल में अकेली पड़ गयी लडकी की व्यथा की कहानियाँ भरी  पड़ी हैं .जो लड़की अपने घर में अपने  माँ बाप के साथ पूरी तरह स्वतंत्र रहती थी ,ससुराल में जाकर उसे तरह तरह के बंधन में बाँध दिया जाता था . सबसे बड़ी बात तो उसको घूंघट में रहना पड़ता था. अपने मायके में वह किसी भी बाग़ में जा सकती थी या किसी भी खेत में जा सकती थी लेकिन ससुराल में बहू के रूप में उसका कहीं भी जाना प्रतिबंधित हो जाता था . अति सामंती परिवारों में तो यह भी शेखी बघारी जाती थी कि हमारे यहाँ औरत दुलहन के रूप में डोली में आती है  और मौत के बाद ही घर से बाहर निकलती है .जो लडकी अपने घर में भाई बहन और माँ बाप की लाडली होती थी वही सुसराल में जाकर रसोई का सारा काम करने के लिए मजबूर थी . गरीब परिवारों में नई नई  बहू की ड्यूटी में घर में झाडू  बुहारू करना, बर्तन मांजना , सास के पाँव दाबना, उनके नहाने के लिए पानी रखना , उनके सर में तेल डालना ,  घर भर के कपडे धोना सब कुछ शामिल  होता था. सबके खाने के बाद उसको खाना  मिलता था .  ज़िंदगी एकदम से बदल जाती थी लेकिन अजीब बात है कि वही लड़की जब वापस अपने माँ बाप के पास विदा होकर कुछ हफ्ते या महीने के लिए आती थी तो खुशी ज़ाहिर करती थी. ऐसा शायद इसलिए होता था कि उसको बचपन से ही यह समझ में आता रहता  था कि बेटी और बहू का  प्रोटोकाल अलग अलग  होता है . जो औरत अपनी बेटी की विदाई के समय बिलख बिलख कर  रोती थी ,वही अपने बेटे की पत्नी के प्रति तानाशाही पूर्ण रवैय्या अपनाती थी .वास्तव में यह मानसिकता ही औरतों के सम्मान के जीवन में सबसे बड़ी बाधा है . मेरे मामा की बेटी की शादी एक ऐसे परिवार में कर दी गयी थी जहां सास बहुत ही खूंखार महिला थी . उसके बेटे ने पढाई लिखाई भी नहीं पूरी की और  मामा की फूल से बच्ची को ज़िंदगी में बहुत ही तकलीफ उठानी पडी. उसकी अकाल मृत्यु हो गयी. बाद में पता चला कि उसकी सास ने उसको जलाकर मार डाला था. ऐसे बहुत सारे किस्से हैं.

 

यह हालात आज से कम से कम चालीस साल पहले के हैं. अब स्थितियां बदल गयी हैं लेकिन आदर्श स्थिति अभी नहीं आई है .जो भी थोडा बहुत  बदलाव आया है उसका कारण शिक्षा है . अब  शादियाँ भी देर से होने लगी हैं. आम तौर पर लडकियां पढाई लिखाई कर रही हैं और परिवारों में भी बदलाव हो रहे  हैं . संयुक्त परिवार की अवधारणा  अंतिम सांस ले रही है . शादी के बाद ज्यादातर लड़के अपना अलग घर बसा रहे हैं .  मेरे पहले की पीढी में अपनी पत्नी या अपने बच्चों की खैरियत की चिंता करना पुरुष के लिए बहुत अजूबा माना जाता था . यह मानकर चला जाता था कि परिवार  सबका ख्याल रख लेगा लेकिन अब  ऐसा नहीं है . हालात तेज़ी से बदल रहे हैं लेकिन बदलाव की रफ़्तार कम है .उसे और तेज़ करना पडेगा .परिवर्तन की गति को दिशा देने के लिए महिलाओं की शिक्षा और राजनीतिक फैसलों में उनके दखल की ज़रूरत सबसे ज़्यादा है .लड़कियों की तरक्की और बदलाव के विचार तो जागरूक तबकों में हमेशा से ही रहा  है लेकिन शिक्षा के अभाव में उसको हासिल नहीं किया जा सका.

महिलाओं को सही सम्मान मिल पाए उसके लिए मर्दवादी या पुरुष की उच्चता की भावना को हमेशा के लिए खतम करना पडेगा . समाज के हर स्तर पर मौजूद यह मानसिकता ही असली  दुश्मन है . जब यह मानसिकता  बदलेगी उसके बाद ही देश की आधी आबादी की बराबरी की बात सोची जा सकती है .लेकिन पुरुष प्रधान  समाज में यह मानसिकता हावी  है . संसद और विधानमंडलों में महिलाओं के ३३ प्रतिशत आरक्षण के लिये कानून बनाने की बात को उदहारण के तौर पर रखा जा सकता है .  यह  राजनीतिक मांग बहुत  समय से चल रही है .देश की अधिकतर राजनीतिक पार्टियों में आम राय है कि ऐसा कानून बनना चाहिए लेकिन कानून संसद में पास नहीं हो रहा  है . इसके पीछे भी वही तर्क है कि पुरुष प्रधान समाज से आने वाले राजनेता महिलाओं के बराबरी के हक को स्वीकार नहीं करते .इसीलिये सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक और नैतिक  विकास को बहुत तेज़ गति दे सकने वाला यह कानून अभी पास नहीं हो रहा है . अपने को पिछड़ी जातियों के राजनीतिक हित की निगहबान बताने वाली राजनीतिक पार्टियां महिलाओं के आरक्षण में अलग से पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की बात कर रही हैं .

 

अपने देश में महिला अधिकारों की लड़ाई कोई नई नहीं है . भारत की आज़ादी  की लड़ाई के साथ  साथ महिलाओं की आज़ादी की लड़ाई का आन्दोलन भी चलता रहा है .१८५७ में ही मुल्क की खुद मुख्तारी की लड़ाई शुरू हो गयी थी लेकिन अँगरेज़ भारत का साम्राज्य छोड़ने को तैयार नहीं था. उसने इंतज़ाम बदल दिया. ईस्ट इण्डिया कंपनी से छीनकर ब्रितानी सम्राट ने हुकूमत अपने हाथ में ले ली. उसके बाद भी  शोषण का सिलसिला जारी रहा. दूसरी बार अँगरेज़ को बड़ी चुनौती महात्मा गाँधी ने दी . १९२० में उन्होंने जब आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व करना शुरू किया तो बहुत शुरुआती दौर में साफ़ कर दिया था कि उनके अभियान का मकसद केवल राजनीतिक आज़ादी नहीं हैवे सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई लड़ रहे हैं , उनके साथ पूरा मुल्क खड़ा हो गया . . हिन्दू ,मुसलमानसिखईसाईबूढ़े ,बच्चे नौजवान , औरतें और मर्द सभी गाँधी के साथ थे. सामाजिक बराबरी के उनके आह्वान ने भरोसा जगा दिया था कि अब असली आज़ादी मिल जायेगी. लेकिन अँगरेज़ ने उनकी मुहिम में हर तरह के अड़ंगे डाले . १९२० की हिन्दू मुस्लिम एकता को खंडित करने की कोशिश की . अंग्रेजों ने पैसे देकर अपने वफादार हिन्दुओं और मुसलमानों के साम्प्रदायिक संगठन बनवाये और देशवासियों की एकता को तबाह करने की पूरी कोशिश की . लेकिन राजनीतिक आज़ादी हासिल कर ली गयी. आज़ादी के लड़ाई का स्थायी भाव सामाजिक इन्साफ और बराबरी पर आधारित समाज की स्थापना भी थी . लेकिन १९५० के दशक में जब गांधी नहीं रहे तो कांग्रेस के अन्दर सक्रिय हिन्दू और मुस्लिम पोंगापंथियों ने बराबरी के सपने को चकनाचूर कर दिया . इनकी पुरातनपंथी सोच का सबसे बड़ा शिकार महिलायें हुईं. इस बात का अनुमान  इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब महात्मा गाँधी की इच्छा का आदर करने के उद्देश्य से जवाहरलाल नेहरू ने हिन्दू विवाह अधिनियम पास करवाने की कोशिश की तो उसमें कांग्रेस के बड़े बड़े नेता टूट पड़े और नेहरू का हर तरफ से विरोध किया. यहाँ तक कि उस वक़्त के राष्ट्रपति ने भी अडंगा लगाने की कोशिश की. हिन्दू विवाह अधिनियम कोई क्रांतिकारी दस्तावेज़ नहीं था . इसके ज़रिये हिन्दू औरतों को कुछ अधिकार देने की कोशिश की गयी थी. लेकिन मर्दवादी सोच के कांग्रेसी नेताओं ने उसका विरोध किया. नेहरू बहुत बड़े नेता थे , उनका विरोध कर पाना पुरातनपंथियों के लिए भारी पड़ा और बिल पास हो गया.

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महिलाओं को उनके अधिकार देने का विरोध करने वाली पुरुष मानसिकता के चलते आज़ादी के बाद सत्ता में औरतों को उचित हिस्सेदारी नहीं मिल सकी. संसद ने संविधान में संशोधन करके पंचायतों में तो सीटें रिज़र्व कर दीं लेकिन बहुत दिन तक पुरुषों ने वहां भी उनको अपने अधिकारों से वंचित रखा . ग्राम  पंचायतों में  माहिलाओं के आरक्षण के बाद प्रधानपति प्रजाति के मर्द भी देखे जाने लगे थे .अब यह बीमारी कम हो रही है लेकिन सब कुछ बहुत  धीरे धीरे हो रहा है . इसी सोच के कारण संसद और विधान मंडलों में महिलाओं को आरक्षण देने की बात में अड़ंगेबाजी का सिलसिला जारी है . किसी न किसी बहाने से पिछले पचीस वर्षों से महिला आरक्षण बिल राजनीतिक अड़ंगे का शिकार हुआ पड़ा है . देश का दुर्भाग्य है कि महिला आरक्षण बिल का सबसे ज्यादा विरोध वे नेता कर रहे हैं जो डॉ राम मनोहर लोहिया की राजनीतिक सोच को बुनियाद बना कर राजनीति आचरण करने का दावा करते हैं . डॉ लोहिया ने महिलाओं के राजनीतिक भागीदारी का सबसे ज्यादा समर्थन किया था और पूरा जीवन उसके लिए कोशिश करते रहे थे. भारतीय जनता पार्टी जब विपक्ष में थी तो संसद और विधान मंडलों में महिलाओं के आरक्षण की बात का समर्थन उनके कार्यक्रमों में शामिल था . अब केंद्र में उनकी स्पष्ट बहुमत की सरकार है . संविधान में संशोधन करने की स्थिति में पार्टी है . दो तिहाई से ज्यादा राज्य सरकारें उनकी या उनके सहयोगियों की हैं लेकिन  अब बीजेपी की तरफ से उस दिशा में कोई काम नहीं हो रहा है. अपनी राजनीतिक विचारधारा को सत्ता में स्थाई बनाने के लिए सारी कोशिश चल रही है और सत्ता के हर संस्थान पर  विचारधारा की पकड मज़बूत की जा रही है. ऐसी हालत में यह बात समझ से परे हैं कि  विपक्ष में रहने के दौरान महिलाओं के आरक्षण का जो एजेंडा बीजेपी ने चलाया था उसको लागू क्यों नहीं किया जा रहा है . महिला दिवस के मौके पर  महिलाओं के सशक्तीकरण के बहुत सारे भाषण होते हैं . सबको मालूम है कि सशक्तीकरण तभी होगा जब महिलाएं शिक्षित होंगी और उनको राजनीतिक अधिकार मिलेंगे . इस दिशा में सरकार को क़दम उठाना चाहिए .

 

 

Thursday, March 4, 2021

महिलाओं के सशक्तीकरण से ही हाथरस जैसी घटनाओं पर लगाम लगेगी


 

शेष नारायण सिंह

 

 

हाथरस में एक बार फिर इंसानियत को अपमानित किया गया है . एक बदमाश कई साल से एक लडकी के पीछे पडा हुआ था . करीब तीन साल पहले लडकी के पिता ने उसके खिलाफ पुलिस में शिकायत की . 15 दिन  बाद ही उसकी ज़मानत हो गयी . तब से वह परिवार को परेशान कर रहा था . पिछले दिनों उस बदमाश ने लडकी के  पिताजी  को  गोली मार दी. गोली सरेआम मारी गयी,  बहुत ही वहशियाना तरीके से मारी गयी लेकिन  पुलिस ने कोई  कार्रवाई नहीं की. गोली लगने के बाद लडकी  चीखती रही लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुयी . जब उसका वीडियो वायरल हुआ तब सरकार हरकत में आई. समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने भी मैदान ले लिया और योगी सरकार से पीडिता के लिए इन्साफ माँगा . लेकिन कुछ ही देर बाद पता चला कि गोली मारने वाला  बदमाश ,गौरव शर्मा सामाजवादी पार्टी से  जुड़ा हुआ था .सपा के उस दौर के बड़े नेताओं के साथ गौरव शर्मा की कई तस्वीरें भी वायरल हो रही हैं। वह अविभाजित सपा के नेता और पूर्व मंत्री शिवपाल यादव समेत कई दिग्गज नेताओं का ख़ास बताया जा रहा है . अलीगढ़ से भाजपा सांसद सतीश गौतम के साथ भी उसकी कई तस्वीरें हैं . ऐसे में भाजपा और सपा समर्थकों के बीच सोशल मीडिया पर एक दूसरी पार्टी पर आरोप प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया है .

हाथरस में  कुछ महीने पहले भी एक  लडकी की मौत  की खबर आई थी जिसमें अभियुक्त ने उसको खेत में मार डाला था. उस केस में भी बलात्कार और हत्या के आरोप  लगे थे लेकिन सरकार ने बार बार दावा किया कि बलात्कार नहीं हुआ था , केवल हत्या की गयी थी. उस बार भी सरकारी अमले का रवैया बहुत ही गैरजिम्मेदार रहा था . सरकार ने पुलिस वालों को तो हटा दिया  था लेकिन कलेक्टर जमा रह गया था. हालांकि परिवार वालों  को बताये बिना ,उसी ने लाश को रात के अँधेरे में जलाने जैसा गलत काम किया था. यह उत्तरप्रदेश सरकार की क़ानून व्यवस्था पर ज़बरदस्त सवालिया निशान तो पैदा करता ही है  . योगी  सरकार की रहबरी भी सवालों की ज़द में है . नए मामले में उत्तरप्रदेश की सत्ताधारी पार्टी और विपक्ष की मुख्य पार्टी से अपराधी के सम्बन्ध सामने आ रहे हैं .अब होगा यह दोनों ही पार्टियां मिलकर केस को दबा देंगी, उस पापी का कहीं न कहीं रिश्ता निकल आएगा और राजनीतिक बिरादरी उसके पक्ष में खडी  हो जायेगी . इसके पहले वाले हाथरस कांड में भी यह हो चुका है . अभियुक्त की बिरादरी वाले राजपूत समाज के लोग अपराधी को महान बनाने के चक्कर में सभाएं कर रहे  थे. कुछ साल पहले भी इसी  इसी ब्रज क्षेत्र में आपराधियों को फूल माला पहनाकर वोट लेने की कोशिश हो चुकी है . सबको मालूम था वे अपराधी वही थे जिन्होंने मुज़फ्फर नगर के  दंगे के दौरान बेहिसाब खून खराबा किया था . उन अभियुक्तों को सम्मानित करने वाले सभी नेता भारतीय जनता  पार्टी के थे. अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री रहते उनकी पार्टी के बदमाश  सरेआम यही सब अपराध किया करते थे . उनको भी सरकारी संरक्षण मिलता था . अब भारतीय जनता पार्टी के गुंडों को वह संरक्षण मिल रहा है . अपने गुंडों की मनमानी का समर्थन करने का भस्मासुरी  तरीका ख़त्म किये बिना समाज और राष्ट्र का भला नहीं होगा .   सत्ताधारी नेताओं की इन्हीं  कारस्तानियों के चलते भारत की इज्ज़त दुनिया के देशों में कम हो रही है . अमरीका के थिंक टैंक ‘फ्रीडम हाउस ‘ की  रिपोर्ट अखबारों में छपी है . पिछले साल तक की रिपोर्टों में भारत को “ स्वतंत्र “ श्रेणी में रखा जाता था लेकिन सी बार भारत को “ आंशिक रूप से स्वतंत्र “ में रख दिया गया है .इस पदावनति का कारण असहिष्णुता है . रिपोर्ट में मुसलमानों पर हमले  ,नागरिक अधिकार की अवहेलना , देशद्रोह  कानून का मनमाना प्रयोग जैसी बातें का उल्लेख किया गया है . हाथरस जैसे काण्ड के कारण महिलाओं और लड़कियों की असुरक्षा भी देश की प्रतिष्टा को बाकी  दुनिया में घटा रही है .

देश के हर कोने से महिलाओं पर हो रहे अत्याचार की ख़बरें आ रही हैं . उत्तर प्रदेश से  बलात्कार की ख़बरें कई ज़िलों से आ रही हैं।  मध्य प्रदेश और राजस्थान में महिलाओं के साथ अत्याचार की इतनी ख़बरें आती हैं कि  जब किसी दिन घटना की सूचना नहीं आती तो लगता है कि  वही समाचार  का विषय है। आज आलम यह है कि कहीं भी  किसी भी लडकी को घेरकर उसको अपमानित करना राजनीतिक पार्टियों से जुड़े शोहदों का अधिकार सा हो गया है .सवाल उठता है कि  क्या वे लड़कियां जो अकेले देखी जायेगीं उनको बलात्कार का शिकार बनाया जायेगा. बार बार सवाल पैदा होता है कि लड़कियों के प्रति समाज का रवैया इतना वहशियाना क्यों है। दिसंबर २०१३ में हुए दिल्ली गैंग रेप कांड के बाद समाज के हर वर्ग में गुस्सा था.  अजीब बात है कि बलात्कार जैसे अपराध के बाद शुरू हुए आंदोलन से वह बातें निकल कर नहीं आईं जो महिलाओं को राजनीतिक ताक़त  देतीं  और उनके सशक्तीकरण की बात को आगे बढ़ातीं . गैंग रेप का शिकार हुई लडकी के साथ हमदर्दी वाला जो आंदोलन शुरू हुआ था उसमें बहुत कुछ ऐसा था जो कि व्यवस्था बदल देने की क्षमता रखता था लेकिन बीच में पता नहीं कब अपना राजनीतिक एजेंडा चलाने वाली राजनीतिक पार्टियों ने आंदोलन को हाइजैक कर लिया और आंदोलन को दिशाहीन और हिंसक बना दिया . इस दिशाहीनता का नतीजा यह  हुआ  कि महिलाओं के सशक्तीकरण के मुख्य मुद्दों से राजनीतिक विमर्श को पूरी तरह से भटका दिया गया  .  बच्चियों और महिलाओं के प्रति समाज के रवैय्ये को  बदल डालने का जो अवसर मिला था  उसको गँवा दिया गया।   अब ज़रूरी है कि कानून में ऐसे प्रावधान  किये जाएँ और उनको लागू करने की इच्छाशक्ति सरकारों में नज़र आये जिससे कि अपराधी को मिलने वाली सज़ा को देख कर भविष्य में किसी भी पुरुष की हिम्मत न पड़े कि बलात्कार के बारे में सोच भी सके.  ऐसे लोगों के खिलाफ सभ्य समाज को लामबंद होने की ज़रूरत है जो लडकी को इस्तेमाल की वस्तु साबित करता . हमें एक ऐसा समाज  चाहिए जिसमें लडकी के साथ बलात्कार करने वालों और उनकी मानसिकता की हिफाज़त करने वालों के खिलाफ  सामाजिक जागरण हो ,ताक़त हो.  मर्दवादी  मानसिकता के चलते इस देश में लड़कियों को दूसरे दरजे का इंसान माना जाता है और लडकी की इज्ज़त की रक्षा करना समाज का कर्त्तव्य माना जाता है . यह गलत है . पुरुष कौन होता है लडकी की रक्षा करने वाला . ऐसी शिक्षा और माहौल बनाया जाना चाहिए जिसमें लड़की खुद को अपनी रक्षक माने . लड़की के रक्षक के रूप में पुरुष को पेश करने की  मानसिकता को जब तक खत्म नहीं किया जाएगा तह तक कुछ  नहीं बदलेगा . जो पुरुष समाज अपने आप को महिला की इज्ज़त का रखवाला मानता है वही पुरुष समाज अपने आपको यह अधिकार भी दे देता है कि वह महिला के  यौन जीवन का संरक्षक  और उसका उपभोक्ता है . इस मानसिकता को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया जाना चाहिए .मर्दवादी सोच से एक समाज के रूप में लड़ने की ज़रूरत है . और यह लड़ाई केवल वे लोग कर सकते हैं जो लड़की और लड़के को बराबर का  इंसान मानें और उसी सोच को जीवन के हर क्षेत्र में उतारें  . कुछ स्कूलों में भी कायरता को शौर्य बताने वाले पाठ्यक्रमों की कमी  नहीं है .इन पाठ्यक्रमों को खत्म करने की ज़रूरत है . सरकारी स्कूलों के स्थान पर देश में कई जगह ऐसे स्कूल खुल गए हैं,जहां मर्दाना शौर्य की वाहवाही की शिक्षा दी जाती है . वहाँ औरत को एक  ‘ वस्तु ‘ की रूप में सम्मानित करने की सीख दी जाती है. इस मानसिकता के खिलाफ एकजुट  होकर उसे ख़त्म करने की ज़रूरत है . अगर हम एक समाज के रूप में अपने आपको बराबरी की बुनियाद पर नहीं स्थापित कर सके तो जो पुरुष अपने आपको महिला का रक्षक बनाता फिरता है वह उसके साथ ज़बरदस्ती करने में भी संकोच नहीं करेगा. शिक्षा और समाज की बुनियाद में ही यह भर देने की ज़रूरत है कि पुरुष और स्त्री बराबर है और कोई किसी का रक्षक नहीं है. सब अपनी रक्षा खुद कर सकते हैं. बिना बुनियादी बदलाव के बलात्कार को हटाने की कोशिश वैसी  ही है जैसे किसी घाव पर मलहम लगाना . हमें ऐसे एंटी बायोटिक की तलाश करनी है जो शरीर में ऐसी शक्ति पैदा करे कि घाव में मवाद पैदा होने की नौबत ही न आये. कहीं कोई बलात्कार ही न हो . उसके लिए सबसे ज़रूरी बात यह है कि महिला और पुरुष के बीच बराबरी को सामाजिक विकास की आवश्यक शर्त माना जाए.

इस बात की भी ज़रुरत है कि लड़कियों की तालीम को हर परिवार ,हर बिरादरी सबसे बड़ी प्राथमिकता बनाये और उनकी शिक्षा के लिए ज़रूरी पहल की जाए . लेकिन जो भी करना हो फ़ौरन करना पडेगा क्योंकि इस दिशा में जो काम आज से सत्तर साल पहले  होने चाहिए थे उन्हें अब शुरू करना है . अगर और देरी हुई तो बहुत देर हो जायेगी .

 

गुजरात के चुनाव नतीजों से आन्दोलन करने वाले किसान नेताओं को सबक लेना चाहिए

 

 

शेष नारायण सिंह

 

गुजरात के स्थानीय निकाय चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने भारी जीत दर्ज की है . अभी कुछ दिन पहले छः महानगरपालिकाओं के चुनाव हुए थे . उन चुनावों में भी बीजेपी ने  सभी नगरों पर कब्जा किया था . सूरत ,अहमदाबाद, वड़ोदरा, राजकोट ,जामनगर और भावनगर की  6 महानगर पालिकाओं में ही चुनाव में भी भारतीय जनता पार्टी  ने पूरी सफलता पाई थी . उसदिन एक  टीवी चैनल के डिबेट में शामिल होने का मौक़ा मिला था. दिल्ली के कुछ विद्वानों ने कहा था कि बीजेपी मूल रूप से महानगरों की पार्टी  है इसलिए जीत  स्वाभाविक है .  जब ग्रामीण इलाकों वाले जिला पंचायत , नगर पंचायत , तालुका और ग्राम पंचायतों के चुनाव होंगे तो माहौल बदल जाएगा . उसी चर्चा में अहमदाबाद से शामिल हो रहे एक पत्रकार मित्र ने चेतावनी दी थी कि अभी जल्दी इस तरह के अनुमान   लगाना ठीक नहीं है क्योंकि कुछ दिन बाद ही ग्रामीण  क्षेत्रों में भी चुनाव होने वाले हैं ,दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा . वे चुनाव हो गए हैं और स्पष्ट हो गया  है कि गुजरात के ग्रामीण इलाकों में भी भारतीय जनता पार्टी और नरेद्र मोदी की लोकप्रियता बढ़ी है . इसके पहले  गुजरात विधानसभा की आठ सीटों पर उपचुनाव हुए थे जहां भारतीय जनता पार्टी को 8 सीट मिली थी . अब  ग्रामीण   क्षेत्रों में फैले ,जिला ,तहसील पंचायत एवं नगर पालिका में भारी  जीत देखी गयी  है .

 

इन नतीजों से सबसे बड़ा  नुकसान कांग्रेस का हुआ है . गुजरात में कांग्रेस की जड़ें बहुत कमज़ोर पड़ चुकी हैं और अब कोई भी ऐसा नेता नहीं है जो पार्टी को सफलता की राह पर ले जा सके. ताज़ा पंचायत चुनावों में कांग्रेस की बुरी तरह से हुयी हार के बाद राज्य के पार्टी अध्यक्ष अमित चावड़ा और नेता प्रतिपक्ष परेश धनानी ने इस्तीफा दे दिया है . या यों कहें की उनको पार्टी आलाकमान ने हटा दिया है . इस्तीफे के बाद उन्होंने कहा कि , “ स्थानीय निकाय चुनाव के परिणाम हमारी उम्मीदों के विपरीत हैं। हम जनता के जनादेश को स्वीकार करते हैं। ‘ आदिवासी समाज में  मज़बूत पकड़ वाले ,भारतीय ट्राइबल पार्टी के नेता छोटू भाई वसावा भी गुजरात की कुच्छ सीटों पर नतीजों को प्रभावित करने की क्षमता वाले नेता मने जाते हैं . हर चुनाव के पहले पार्टियां  उनको साथ लेने की कोशिश करती हैं . लेकिन इस चुनाव में उनकी भी मिट्टी पलीद हो गयी है .उनके अपने पुत्र चुनाव हार गए हैं .  कांग्रेस के बड़े नेता और पूर्व अध्यक्ष अर्जुन भाई मोढवाडिया के भारी रामदेव भाई भी चुनाव हार गए हैं

 

इन चुनावों ने साबित कर दिया है कि गुजरात में भारतीय जनता पार्टी अब उतनी ही मज़बूत पार्टी है जितनी 1977 के चुनाव के पहले कांग्रेस पार्टी हुआ करती थी . उन दिनों कांग्रेस में  ऐसे नेता  थे जिन्होंने महात्मा गांधी और सरदार पटेलके साथ काम किया था और उन दोनों नेताओं का वहां पूरा सम्मान था लेकिन  कांग्रेस की राजनीति  में इंदिरा गांधी के आगमन के बाद गुजरात समेत पूरे देश में कांग्रेसियों के बीच सरदार पटेल का सम्मान होना बंद हो गया . उसके बाद कांग्रेस की शक्ति में कमी आने का सिलसिला शुरू हुआ . अयोध्या आन्दोलन के बाद भारतीय जनता पार्टी  में मजबूती आने लगी .  सरदार पटेल की विरासत के सही उत्तराधिकारी के रूप में भी नरेंद्र मोदी की पहचान होने लगी है जिसका नतीजा है कि आज  भारतीय जनता पार्टी   के गढ़ के रूप में गुजरात स्थापित हो चुका है और अब साफ़ लगने लगा है कि वहां पार्टी को हरा पाना बहुत ही दूर की कौड़ी है .

 

 आम तौर पर माना जाता था कि भारतीय जनता पार्टी   शहरी  मध्यवर्ग की पार्टी है लेकिन अब ऐसा नहीं है . अब सभी वर्गों के लोग भारतीय जनता पार्टी   के साथ नज़र आने लगे हैं. 2019 के चुनावों में एक बात बार बार उभर का सामने आ रही थी कि उत्तर भारत के सभी इलाकों में लोग ओबीसी वर्ग की  जातियों में नरेंद्र मोदी की पहचान उनके अपने नेता के रूप  में हो रही थी. ग्रामीण इलाकों में  रसोई गैस , बिजली और सरकारी खर्च पर बने शौचालयों के कारण सभी जातियों के लोगों में उनकी लोकप्रियता बढ़ी थी .आज नरेंद्र मोदी को सभी वर्गों का समर्थन है क्योंकि भारतीय जनता पार्टी   को उन्होंने उसी मुकाम पर पंहुचा दिया है जहां कभी कांग्रेस हुआ करती थी. आज लगभग पूरे भारत में बीजेपी या तो सत्ता में है या विपक्ष की मज़बूत पार्टी है .

पिछले एक साल में हुए कई राज्यों के चुनावों में भी भारतीय जनता पार्टी  ने  गुजरात जैसा तो नहीं लेकिन अच्छा प्रदर्शन किया है . बिहार  विधानसभा चुनाव में  अब तक भारतीय जनता पार्टी   नीतीश कुमार की सहयोगी पार्टी के रूप में चुनाव लडती थी.. इस बार भी वही हुआ  लेकिन इस बार.  भारतीय जनता पार्टी   को नीतीश कुमार की जे डी यू से ज्यादा सीटें मिलीं   . पिछले साल कई अन्य राज्यों में उपचुनाव भी हुए . 11 राज्यों में हुए  58 सीटो के  उप-चुनाव में भाजपा को 40 सीटो पर जीत हासिल  हुई जिसमें एक तो गुजरात ही है जहां  उसका स्ट्राइक रेट शत प्रतिशत रहा .  मध्य प्रदेश में 28 में 19 उत्तर  प्रदेश में 7 में 6 मणिपुर में 5 में से 4 ,कर्नाटक में और  तेलंगाना की सभी सीटों के उपचुनाव  भारतीय जनता पार्टी   के नाम रहे . इसके अलावा  लद्दाख ऑटोनोमस  डेवलपमेंट काउन्सिल और

 ग्रेटर हैदराबाद  म्युनिसिपल  भी भारतीय जनता पार्टी   को खासी सफलता मिली .

 इन चुनावों में बहुत  सारे चुनाव दिल्ली के पास हो रहे पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के आन्दोलन के शुरू होने के बाद हुए हैं . आन्दोलन में शामिल किसानों ने   बार बार यह बात दुहराई  है कि वे खेती में नीतिगत हस्तक्षेप वाले तीन कानूनों के वापस होने तक आन्दोलन को जारी रखेंगे. शुरू में ऐसा संकेत दिया जा रहा था कि किसान आन्दोलन को ग्रामीण जनता का बड़ा समर्थन हासिल है .आम तौर पर आन्दोलन के बाद होने वाले चुनाव के नतीजे इस बात का संकेत देते हैं कि किस पार्टी की क्या हैसियत है . अगर आन्दोलन सफल रहा तो उसके बाद होने वाले चुनावों में  सत्ताधारी पार्टी को हार का सामना करना पड़ता है लेकिन अगर सत्ताधारी पार्टी को सफलता मिलती है तो माना जाता है कि आन्दोलन  की लोकप्रियता उतनी नहीं है जितनी कि बताई जा रही है. मौजूदा किसान आन्दोलन की भी यही स्थति है .  पंजाब में  नगर पंचायतों के चुनाव के नतीजे में तो बीजेपी का नुकसान हुआ लेकिन पंजाब वैसे भी बीजेपी स्टेट नहीं है . वहां वह अकाली दल की सहयोगी पार्टी रही है . अब अकाली दल अलग है, किसानों के मुद्दे पर ही अकाली दल ने बीजेपी का साथ छोड़ा था लेकिन उसको भी कोई ख़ास सफलता नहीं मिली .

गुजरात के ग्रामीण इलाकों में हुए चुनावों और उसमें सत्ताधारी पार्टी को मिली सफलता की रोशनी में नई कृषि नीति के खिलाफ आन्दोलन कर रहे किसानों को ज़रूरी सबक लेना चाहिए और वह सबक यह है कि  तीनों कानूनों को वापस लेने की जिद छोड़कर  किसानों के फायदे वाले प्रावधानों की बात  करें . सबको मालूम है कि कृषि क़ानून में बदलाव ज़रूरी है ,क्योंकि 1965-66  की हरित क्रान्ति के नीतिगत हस्तक्षेप के बाद कोई भी बड़ा बदलाव  नहीं किया गया है .  कांग्रेस को जानना चाहिए कि 1991 में जब डॉ मनमोहन सिंह ने देश के आर्थिक विकास के लिए जो  फार्मूला तय किया था ,मौजूदा  क़ानून उसी बात को आगे बढाने की कोशिश है . किसानों को चाहिए कि दीवाल पर लिखी इबारत को भांप लें और मान लें कि नई कृषि नीति के बाद भारतीय  जनता पार्टी और नरेद्र मोदी की लोकप्रियता के ग्राफ में वृद्धि हुयी है और किसान आन्दोलन के नेताओं को सरकार के साथ मिल बैठकर आन्दोलन को वापस लेने की कोशिश करनी चाहिए .