शेष नारायण सिंह
दिल्ली की सीमाओं पर किसानों का आन्दोलन चल रहा है . आन्दोलन की अगुवाई मूल रूप से पंजाब और हरियाणा के किसान कर रहे हैं . पश्चिमी उत्तर प्रदेश के संपन्न किसानों का एक वर्ग भी आन्दोलन में शामिल है . इनके आन्दोलन का कारण यह है कि केंद्र सरकार ने खेती के औद्योगीकरण के लिए जून में सरकार ने तीन अध्यादेश जारी किये थे ,संसद के मानसून सत्र में उनको क़ानून की शक्ल दे दी गयी. किसानों का आन्दोलन उन्हीं कानूनों के खिलाफ है .बीजेपी ने २०१९ के अपने चुनावी घोषणापत्र में वायदा किया था कि अगर नरेंद्र मोदी की सरकार बनती है तो भोजन के राष्ट्रीय बाज़ार की स्थापना करेंगे. यह कानून उसी दिशा में महत्वपूर्ण क़दम हैं .
इन तीनों कानूनों में क्या लिखा है उसके विस्तार में गए बिना खेती में सुधार के लिए लाये गए इन कानूनों की ऐतिहासिक ज़रूरत के के बारे में बात करना उपयोगी होगा. पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के संपन्न किसानों की बात अलग है लेकिन बाकी उत्तर प्रदेश , बिहार , राजस्थान ,मध्यप्रदेश बंगाल, उडीसा आदि राज्यों में खेती के सहारे अब परिवार चलाना असंभव हो गया है . किसानों की ज़मीन का साइज़ बिलकुल छोटा हो गया है . पूर्वी उत्तर प्रदेश में ज्यादातर गावों में बड़ी संख्या में किसान अब सीमान्त किसान हैं . भारत में उस किसान को मार्जिनल या सीमान्त किसान कहा जाता है जिसके पास एक एकड़ से कम ज़मीन हो . एक एकड़ से ढाई एकड़ की ज़मीन के मालिक को छोटा किसान कहा जाता है . मेरे गाँव में दो परिवारों को छोड़कर बाकी सभी किसान मार्जिनल किसान हैं क्योंकि उनके पास एक एकड़ से कम ज़मीन है कृषि अर्थशास्त्र ( एग्रीकल्चर इकनामिक्स ) के किसी भी सिद्धांत के हिसाब से एक एकड़ से कम ज़मीन पर खेती करने वाला परिवार खेती के सहारे अपने परिवार का भरण पोषण नहीं कर सकता . ज़ाहिर है उसको किसी और तरीके से अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने का प्रयास करना पडेगा . उसको कहीं और रोज़गार तलाशना होगा . यह कृषि सुधार संबंधी क़ानून उसी तरह के रोज़गार के अवसर उपलब्ध कराने की दिशा बहुत देर से आई लेकिन ज़रूरी पहल हैं ..
आज़ादी के बाद देश में करीब बीस साल तक खेती में कोई भी सुधार नहीं किया गया . १९६२ में चीन के हमले के समय पहले से ही कमज़ोर अर्थव्यवस्था तबाही के कगार पर खडी थी तो पाकिस्तान का भी हमला हो गया . खाने के अनाज की भारी कमी थी . उस समय के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने अपने कृषिमंत्री सी सुब्रमण्यम से कुछ करने को कहा . सी सुब्रमण्यम ने डॉ एस स्वामीनाथन के सहयोग से मेक्सिको में बौने किस्म के धान और गेहूं के ज़रिये खेती में क्रांतिकारी बदलाव ला चुके डॉ नार्मन बोरलाग ( Dr Norman Borlaug ) को भारत आमंत्रित किया . उन्होंने पंजाब की खेती को देखा और कहा कि इन खेतों में गेहूं की उपज को दुगुना किया जा सकता है . लेकिन कोई भी किसान उनके प्रस्तावों को लागू करने को तैयार नहीं था . कृषि मंत्री सी सुब्रमण्यम ने गारंटी दी कि आप इस योजना को लागू कीजिये ,केंद्र सरकार सब्सिडी के ज़रिये किसी तरह का घाटा नहीं होने देगी. शुरू में शायद डेढ़ सौ फार्मों पर पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना के सहयोग से यह स्कीम लागू की गयी. और ग्रीन रिवोल्यूशन की शुरुआत हो गयी. पैदावार दुगुने से भी ज़्यादा हुई और पूरे पंजाब और हरियाणा के किसान इस स्कीम में शामिल हो गए . ग्रीन रिवोल्यूशन के केवल तीन तत्व थे . उन्नत बीज, सिंचाई की गारंटी और रासायनिक खाद का सही उपयोग . उसके बाद तो पूरे देश से किसान लुधियाना की तीर्थयात्रा पर यह देखने जाने लगे कि पंजाब में क्या हो रहा है कि पैदावार दुगुनी हो रही है . बाकी देश में भी किसानों ने वही किया .उसके बाद से खेती की दिशा में सरकार ने कोई पहल नहीं की है .आज पचास साल से भी ज़्यादा वर्षों के बाद खेती की दिशा में ज़रूरी पहल की गयी है .मोदी सरकार की मौजूदा पहल में भी खेती में क्रांतिकारी बदलाव लाने की क्षमता है .
1991 में जब डॉ मनमोहन सिंह ने जवाहरलाल नेहरू के सोशलिस्टिक पैटर्न के आर्थिक विकास को अलविदा कहकर देश की अर्थव्यवस्था को मुक़म्मल विकास के ढर्रे पर डाला था तो उन्होंने कृषि में भी बड़े सुधारों की बात की थी . लेकिन कर नहीं पाए क्योंकि गठबंधन की सरकारों की अपनी मजबूरियां होती हैं . अब नरेंद्र मोदी ने खेती में जिन ढांचागत सुधारों की बात की है डॉ मनमोहन सिंह वही सुधार लाना चाहते थे लेकिन राजनीतिक दबाव के कारण नहीं ला सके. मोदी सरकार ने उन सुधारों का कांग्रेस भी विरोध कर रही है , किसानों का एक वर्ग भी विरोध कर रहा है . वह राजनीति है लेकिन कृषि सुधारों के अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को समझना ज़रूरी है . सरकार ने जो कृषि नीति घोषित की है उसको आर्थिक विकास की भाषा में agrarian transition development यानी कृषि संक्रमण विकास का माडल कहते हैं . यूरोप और अमरीका में यह बहुत पहले लागू हो चुका है . आज देश का करीब 45 प्रतिशत वर्कफ़ोर्स खेती में लगा हुआ है . जब देश आज़ाद हुआ तो जीडीपी में खेती का एक बड़ा योगदान हुआ करता था . लेकिन आज जीडीपी में खेती का योगदान केवल 15 प्रतिशत ही रहता है . यह आर्थिक विकास का ऐसा माडल है जो एक तरह से अर्थव्यवस्था और ग्रामीण जीवनशैली पर बोझ बन चुका है .
आर्थिक रूप से टिकाऊ ( sustainable ) खेती के लिए ज़रूरी है कि खेती में लगे वर्कफोर्स का कम से कम बीस प्रतिशत शहरों की तरफ भेजा जाय जहां उनको समुचित रोज़गार दिया जा सके. आदर्श स्थिति यह होगी कि उनको औद्योगिक क्षेत्र में लगाया जाय. आज सर्विस सेक्टर भी एक बड़ा सेक्टर है .गावों से खाली हुए उस बीस प्रतिशत वर्कफोर्स को सर्विस सेक्टर में काम दिया जा सकता है . खेती में जो 25 प्रतिशत लोग रह जायेंगें उनके लिए भी कम होल्डिंग वाली खेती के सहारे कुछ ख़ास नहीं हासिल किया जा सकता . खेती पर इतनी बड़ी आबादी को निर्भर नहीं छोड़ा जा सकता ,अगर ऐसा होना जारी रहा तो गरीबी बढ़ती रहेगी .इसलिए खेती में संविदा खेती ( contract farming ) की अवधारणा को विकसित करना पडेगा . संविदा की खेती वास्तव में कृषि के औद्योगीकरण का माडल है .खेती के औद्योगीकरण के बाद गावों में भी शहरीकरण की प्रक्रिया तेज़ होगी और वहां भी औद्योगिक और सर्विस सेक्टर का विकास होगा . इस नवनिर्मित औद्योगिक और सर्विस सेक्टर में बड़ी संख्या में खेती से खाली हुए लोगों को लगाया जा सकता है .
संविदा खेती के बारे में तरह तरह के प्रचार किये जा रहे हैं . लेकिन उसके सही स्वरुप को समझना ज़रूरी है . मसलन अगर एक गाँव में एक एक एकड़ की होल्डिंग वाले एक हज़ार किसान हैं तो उनके खेतों को मिलाकर संविदा पर खेती करने वाला व्यक्ति एकमुश्त एक हज़ार एकड़ पर फसल लगाएगा . उस ज़मीन का मालिक किसान ही रहेगा लेकिन उपज के अपने हिस्से का लाभ पा जाएगा . खाली समय में वह अन्य कोई काम कर सकता है. हरित क्रान्ति के दौरान तो बीज, खाद और पानी के ज़रिये क्रान्ति आई थी ,इस बार की क्रांति नए शोध, बेहतर निवेश और बेहतर बाज़ार के ज़रिये आयेगी. मौजूदा तीनों कानून उसी दिशा में क्रांतिकारी पहल माने जा सकते है
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