Monday, December 21, 2020

माँ तो चली गयीं ,अब यादें ही हैं

 

 


शेष नारायण सिंह

 

हमारी माई की पुण्यतिथि २३ दिसंबर को पड़ती  है . वैसे तो उनकी याद हमेशा आती रहती है लेकिन  दिसंबर में कुछ ज़्यादा ही आती है . आज १५ साल हो गए उनको विदा हुए . किस्मत में नहीं था,वरना २० से २२  दिसंबर २००५ को मैं कानपुर था. उन दिनों गाँव में फोन नहीं था .जब मां का बी पी बहुत ज़्यादा बढ़ गया तो लम्भुआ पी सी ओ से मेरा  भतीजा उज्जवल फोन करने की कोशिश कर रहा था लेकिन आवाज़ ही नहीं आई. अगर बात हो गयी होती तो मैं चार घंटे के अन्दर गाँव पंहुच गया होता. लेकिन बात नहीं हुई. दिल्ली आने के  लिए उसी  शाम ट्रेन ले ली. जब दिल्ली पंहुचा तब  पता लगा कि मां नहीं रहीं . पछतावा हुआ ,आज तक है .बहरहाल हम तुरंत चल पड़े और  अगले दिन घर पंहुच गया .माई के बालगोपाल सब इकठ्ठा हुए और उनके अंतिम संस्कार की सारी विधियां पूरी हुईं . मेरी मां की मृत्यु उनकी प्रिय  संतान ,मेरे छोटे भाई सूबेदार सिंह की गोद में हुई. भरा पूरा परिवार था उनका . चार संताने हैं उनकी और सब के बच्चे उच्च शिक्षित  हैं , सब अपना काम कर रहे हैं .  लेकिन मेरी मां का जीवन अभावों में ही बीता. हालांकि ज़मींदारों के यहाँ  ब्याहकर आई थीं लेकिन सम्पन्नता नहीं थी. अपने हौसले के बल पर जिंदा रहीं, किसी के सामने सर नहीं झुकाया , उनकी अपनी ज़िंदगी में बहुत मुसीबतें आईं लेकिन कभी किसी के सामने झुकी नहीं . ज़मींदारी उन्मूलन के बाद गाँव के कुछ परिवारों में नौकरी चाकरी के कारण मामूली सम्पन्नता आ गयी लेकिन मूल रूप से गाँव गरीबों का ही रहा . आज स्थिति यह है कि एकाध परिवार को छोड़कर किसी के पास एक एकड़  से ज्यादा ज़मीन नहीं है यानी हमारा गाँव , सीमान्त किसानों का गाँव है . उसी गाँव में रहते हुए सबके दुखदर्द में  शामिल होते हुए उन्होंने अपनी उम्र के ८२ साल पूरे किये और चली गयीं .

इस बार माई की पुण्यतिथि पर अपने दो दोस्तों की माताओं का सन्दर्भ भी बार बार याद आ रहा है . इसी साल दीवाली के आसपास चंचल सिंह की माई की भी मृत्यु हुयी. दीवाली के  बाद उनसे मेरी मुलाक़ात की तारीख तय थी लेकिन उसके पहले ही चली गयीं. मैं नियत समय पर गया लेकिन उनसे मिल नहीं सका .उनकी तेरहवीं में शामिल हुआ. उनकी भी वही पृष्ठभूमि थी जो मेरी माई की थी. दोनों ही १९२४ की जन्मी थीं .जब भी मैं उनसे मिला तो मुझे  अपनी ही माई की याद आ गयी. शानदार शख्सियत , आस पड़ोस के लोगों की संकट मोचक ,अपने  बच्चों की  बुलंदी के सपने देखती और उनको पूरा  होते उन्होंने भी देखा था . हालांकि उनके जीवन में भी एकाध वज्रपात ऐसे हैं जिनको सोचकर सिहर जाता हूँ लेकिन जब भी उन्होंने मुझे अपनी गोद में लिया लगा कि सारी दुनिया की ममता और वात्सल्य वहीं केन्द्रित हो गया है . उनकी तेरहवीं से अपने दोस्त  शीतल सिंह की कार में  वापस आना था. उनके साथ रात उनके फार्म पर सूरापुर के पास तौकलपुर गया . रात वहां सो गए और सुबह उनके पैतृक गाँव , महमदाबाद आया . कादीपुर तहसील मुख्यालय के करीब गोमती नदी की उपजाऊ ज़मीन में बसा हुआ गाँव . गाँव में जहां शीतल का पुराना घर है ,उसके साथ ही एक मंदिर है.  उसी मंदिर के साथ ,चबूतरे के ठीक बाहर शीतल सिंह ने मां की एक मूर्ति लगा दी है . जब उनके घर पंहुचा तो धक से रह गया . शीतल के गाँव पहली बार गया था लेकिन ऐसा लगा कि वह जगह तो मेरी जानी पहचानी है .उनकी मां  ने उनके घर के चारों तरफ जिस तरह की हरियाली कर रखा है वह बिलकुल स्नेह की छाया लगती है. सरकारी सेवा से छुट्टी मिलने पर वे अपने गाँव आ गयी थीं . वहां उन्होंने जिस तरह के पेड़ पौधे लगाए उनको देखकर वहां से आने  का मन ही नहीं कहता. बहुत गझिन अपनापा था उस ज़मीन पर , पाजिटिव शक्ति का पुंज लगा उनका पुराना घर .उसी महमदाबाद गाँव में उनकी  मां राजकुमार ठाकुरों के एक सम्पन्न परिवार में ब्याहकर आयी थीं , कई हल की खेती थी लेकिन परिवार बढ़ता गया और खेती बंटती गयी . माँ की बड़ी इच्छा थी कि उतनी ही ज़मीन  रहती तो अच्छा था .  भाग्यशाली थीं क्योंकि उनकी बच्चे उनकी हर इच्छा को ईश्वरीय कानून मानते हैं .शीतल और उनके भाई ने जितनी बड़ी ज़मीन वाले घर में वे आई थीं ,लगभग उतनी  ही ज़मीन खरीद लिया  है . परिवार के कई टुकड़ों के अलग होने के बाद उन्होंने अपने और अपने बच्चों के लिए जो घर बनवाया था उसी घर को विकसित कर एक शानदार आधुनिक सुविधाओं से लैस घर बन रहा है . माँ की बहू वहीं शिफ्ट कर गयी हैं और घर बनवा रही हैं . उम्मीद है कि  शिवरात्रि तक घर बन जाएगा .

जिन तीन माताओं का मैंने  ज़िक्र किया  है उनमें से अब कोई इस दुनिया में नहीं है लेकिन उनकी छाया ,उनका आशीर्वाद उन हवाओं में देखा जा सकता  है जहाँ वे सब दुलहिन के रूप में आई  थीं और आज उनकी दुलहिनें और उनकी संतानें उनकी विरासत हो संभालने में लगी हुई हैं .  ( दुलहिन यानी बहू ). इन तीन माताओं जैसी  ही रतनलाल शरशार की माँ रही होगी जब उन्होंने कहा कि , “ कहते हैं , माँ के पाँव के नीचे बहिश्त है “.

 

 

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