शेष नारायण सिंह
इस बार मुंबई की यात्रा में
साहित्यकार, रंगकर्मी, संस्कृति की संरक्षक ,संगीतकार विभा जी ने बताया कि एक
किताब छाप रही हैं जिसमें कुछ लेखकों आदि के संस्मरण छापे जायेंगें . आजकल मुझे
भी संस्मरणों के लेखक के रूप में
मेरे मित्रों के बीच में मान्यता मिलना शुरू हो गयी है .शायद इसीलिये उन्होंने
मुझको भी उस किताब में कुछ लिखने के लिए आमंत्रित कर दिया और वही सन्देश जो सब को
भेजा गया था ,मेरे पास भी भेज दिया . अपने
जीवन में सबसे अहम भूमिका निभाने वाली स्त्री के बारे में लिखना है . मेरे लिए
बहुत आसान था क्योंकि अपनी माताजी के बारे में बात करते हुए उनकी महानता की बात
करके मैं कभी नहीं अघाता .लेकिन उन्होंने
कहाकि माताजी के बारे में नहीं लिखना है क्योंकि सबकी माताजी महान होती हैं . जो मेसेज उन्होंने लिखने वालों के लिए भेजा था , उसको ज्यों का त्यों
प्रस्तुत कर रहा हूँ :----------
" आप सबके जीवन में कोई एक ऐसी स्त्री आई
होगी, जो आपकी जिंदगी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर चली गई होगी।
वह कौन थी, क्या थी, उसकी फितरत क्या
थी? कैसे वह आपकी जिंदगी में आई? आपके
जीवन में क्या बदलकर चली गई? क्या आपको देकर गई? क्या आपसे लेकर गई?
मेरी स्त्री !
इसके तहत आप अपने जीवन की किसी एक स्त्री के बारे में
2000 से 2500 शब्दों में हमें लिखकर
भेजें। बस, ध्यान यह रहे कि यह स्त्री आपकी सगा सम्बन्धी न
हो। माने वह आपकी मां, बेटी, पत्नी,
सास आदि न हो। समाज की स्त्री। समाज से ली गई स्त्री । यह स्त्री
आपकी नायिका भी हो सकती हैं या खलनायिका भी।
पंद्रह दिन के भीतर आपका आलेख मिल जाने से हम आपके
आभारी होंगे। "
विभा जी इस मेसेज के बाद यह तय हो
गया कि अपनी बेटियों , बहनों ,पत्नी या
अन्य किसी संबंधी के बारे में नहीं लिखना है . माताजी के बारे में तो नहीं ही
लिखना है .
उनके आदेश के बाद मैंने अपने बचपन से लेकर अब तक की महिलाओं के बारे में
सोचना शुरू किया . अपने घर की स्त्रियों
के अलावा किसी से कोई परिचय तक नहीं था.
प्राइमरी स्कूल में तो शायद एकाध लडकियां पढ़ती थीं लेकिन हाई स्कूल और इंटरमीडिएट की कक्षा में न ही कोई लडकी सहपाठी
थी और न ही कोई स्त्री शिक्षक के रूप में तैनात थी .
बी ए में महिला शिक्षक तो थीं लेकिन मेरे क्लास में जो एकाध लडकियां थीं ,
उनसे किसी तरह का कोई संवाद नहीं था . एम ए की क्लास में कई
लडकियां सहपाठी थीं. उनमें से कुछ से
दोस्ती भी हुयी लेकिन करीब डेढ़ साल में ऐसी कोई घटना नहीं है जिसके बारे में कहा
जा सके कि ," :----------" आप सबके जीवन में
कोई एक ऐसी स्त्री आई होगी, जो आपकी जिंदगी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर चली गई होगी
" . दिल्ली
आने के बाद ऐसी महिलाओं से मेरा परिचय होना शुरू हुआ जो
सामान्य पारिचय की श्रेणी में रखा जा सकता है . जे एन यू की कई छात्राओं ने बहुत
मदद की . वह ऐसा विश्वविद्यालय है जहां इंसानी रिश्ते सम्मान पाते हैं . अपने शुरुआती वर्षों में जे एन यू का स्तर इतना ऊंचा था कि आई ए एस जैसी नौकरियों का इम्तिहान देना उस कैम्पस में तौहीन माना जाता
था .अस्सी के दशक में कुछ लड़कों ने चुपचाप आई ए एस की परीक्षा दी और लगभग सभी सफल
हुए . उसके बाद वहां प्रवेश के लिए देश के उन इलाकों से आने वाले छात्रों की भीड़ आने लगी जो आई ए एस या उसी
स्तर की अन्य केंद्रीय नौकरियों में जाना अपने जीवन का उद्देश्य मानते थे .
कुछ लड़कों को प्रवेश मिल जाता था , बहुतों को नहीं मिलता था . आज जो लोग
जे एन यू के बारे में उल्टी सीधी बकवास करते पाए जाते हैं , उनमें बड़ी संख्या उन
लोगों की है जो कम से कम एक बार जे एन
यू में प्रवेश की परीक्षा में शामिल हो चुके हैं और फेल हो चुके हैं . उनमें से कई आई ए एस आदि में भी हैं , कुछ नेता हैं और कुछ पत्रकार
हैं . उनकी अपनी कुंठाएं हैं और उनकी अपनी
मजबूरियां जिसके चलते वे जवाहारलाल नेहरू
विश्वविद्यालय के बारे में ऊल जलूल बातें करते रहते हैं . उनकी अपनी कुंठाएं उनको अभी तक नहीं
छोड़ रही हैं जबकि उनमें से बहुत सारे तो अब चौथेपन को प्राप्त हो चुके हैं.
इसी विश्वविद्यालय के सौजन्य से मुझे उस स्त्री से मुलाक़ात का सौभाग्य मिला
जिसका मेरे ऊपर बहुत ही एहसान है . मेरे
एक बेहद करीबी दोस्त की बड़ी बहन हैं वे . उनकी अम्मा हमारे सभी दोस्तों की अम्मा
थीं लेकिन पूरा परिवार ऐसा है जिसने किसी भी
शोषित पीड़ित की मदद करने में हमेशा पहल की . दिल्ली के एक करखनदार परिवार में उसका
जन्म हुआ था . मुल्क के बंटवारे की तकलीफ को उनके परिवार ने बहुत करीब से झेला था.
उनके परिवार के लोग जंगे-आज़ादी की अगली कतार में रहे थे. उनके पिता ने
हिन्दू कालेज के छात्र के रूप में बंटवारे के दौर में इंसानी
बुलंदियों को रेखांकित किया था लेकिन बंटवारे के बाद परिवार टूट गया . कोई
पाकिस्तान चला गया और कोई हिन्दुस्तान में रह गया . उसके दादा मौलाना अहमद सईद ने
पाकिस्तान के चक्कर में पड़ने से मुसलमानों को आगाह किया था और जिन्ना का विरोध
किया था . मौलाना अहमद
सईद देहलवी ने 1919 में अब्दुल मोहसिन सज्जाद , क़ाज़ी हुसैन अहमद , और अब्दुल बारी
फिरंगीमहली के साथ मिल कर जमीअत उलमा -ए - हिंद की स्थापना की थी. जो लोग बीसवीं
सदी के भारत के इतिहास को जानते हैं ,उन्हें मालूम है कि
जमियत उलेमा ए हिंद ने महात्मा गाँधी के १९२० के असहयोग आन्दोलन को इतनी ताक़त दे
दी थी कि अंग्रेज़ी साम्राज्य की बुनियाद हिल गयी थी .उसके बाद ही अंग्रेजों ने
हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट डालने के अपने प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर
दिया था.
जमीअत उस समय के उलेमा की संस्था थी . खिलाफत तहरीक के समर्थन का सवाल जमीअत और कांग्रेस को करीब लाया था . जमीअत ने हिंदुस्तान भर में मुसलमानों को आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित किया और बाद में जब मुहम्मद अली जिन्नाह ने पाकिस्तान की मांग की तो उसका ऐलानियाँ विरोध किया . मौलाना अहमद सईद साहेब भारत में ही रहे और परिवार का एक बड़ा हिस्सा भी यहीं रहा लेकिन कुछ लोगों के चले जाने से परिवार तो बिखर गया ही था.
इसी परिवार में आठ नवम्बर ११९४९ को दिल्ली के
कश्मीरी गेट मोहल्ले में सबीहा हाशमी का जन्म हुआ था. बंटवारे के बाद परिवार
पर आर्थिक संकट का पहाड़ टूट पड़ा था लेकिन उनके माता पिता ने हालात
का बहुत ही बहादुरी से मुकाबला किया अपनी पाँचों औलादों को इज्ज़त की ज़िंदगी
देने की पूरी कोशिश की और कामयाब हुए. उनके सारे भाई बहन बहुत ही आदरणीय लोग हैं .
१९४७ के बाद जब दिल्ली में कारोबार लगभग ख़त्म हो गया तो डॉ जाकिर हुसैन और प्रो
नुरुल हसन की प्रेरणा से उनके पिताजी अपने
बच्चों के साथ अलीगढ़ शिफ्ट हो गए . बाद में उनकी माँ को दिल्ली में नौकरी मिल गयी तो बड़े बच्चे अपनी माँ के पास दिल्ली में आकर
पढाई लिखाई करने लगे . छोटे बच्चे अलीगढ में ही रहे. कुछ
साल तक परिवार दिल्ली और अलीगढ के बीच झूलता रहा
. बाद में सभी दिल्ली आ गए . इसी दिल्ली में आज से
चालीस साल पहले मेरी उनसे मुलाक़ात हुयी थी.
जो लोग सबीहा को जानते हैं उनमें
से कोई भी बता देगा कि उन्होंने सैकड़ों ऐसे लोगों की
जिंदगियों को जीने लायक बनाने में योगदान किया है जो अँधेरे
भविष्य की ओर ताक रहे थे.
वह किसी भी परेशान इंसान की मददगार के रूप
में अपने असली स्वरुप में आ जाती हैं . लगता है कि आर्थिक अभाव में बीते अपने बचपन ने उनको एक ऐसे इंसान के रूप में स्थापित
कर दिया है जो किसी भी मुसीबतजदा इंसान को दूर से ही पहचान लेता है और वे फिर बिना
उसको बताये उसकी मदद की योजना पर काम करना शुरू कर देती हैं . सबीहा हाशमी ने सैकड़ों लोगों पर एहसान किया है लेकिन उसको वे
कभी किसी से बताती नहीं हैं . उनकी शख्सियत की यह खासियत मैंने पिछले चालीस
वर्षों में बार बार देखा है
. गांधी जी के प्रिय भजन , " वैष्णव
जन तो तेने कहिये जो पीर पराई जाने रे, पर दुक्खे उपकार करे ,मन अभिमान न माने रे
." वाली पंक्तियाँ उन पर बिलकुल सटीक
बैठती हैं . उन्होंने कभी किसी से नहीं बताया कि किसी की उन्होंने मदद की है , कभी
नहीं .
दिल्ली के एक बहुत ही विख्यात पब्लिक स्कूल में आप
आर्ट पढ़ाती थीं, एक दिन उनको पता लगा कि बहुत ही कम
उम्र के किसी बच्चे को कैंसर हो गया है . कैंसर की शुरुआती स्टेज थी . डाक्टर ने
बताया कि अगर बच्चे का इलाज तुरंत हो जाये
तो उसकी ज़िंदगी बच सकती थी. अगले एक घंटे के अंदर आप अपने शुभचिंतकों से बात करके
प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर चुकी थीं. बच्चे का इलाज हो गया . अस्पताल में ही
जाकर जो भी करना होता था , किया . बच्चे की इस मदद को अपनी
ट्राफी नहीं बनाया . यहाँ तक कि उनको मालूम भी नहीं कि
वह बच्चा कहाँ है . ऐसी अनगिनत मिसालें हैं . किसी की क्षमताओं को पहचान कर उसको
बेहतरीन अवसर दिलवाना उनकी पहचान का हिस्सा है . उनके स्कूल में एक लड़का
उनके विभाग में चपरासी का काम करता था. पारिवारिक परेशानियों के कारण
पढाई पूरी नहीं कर सका था . उसको प्राइवेट फ़ार्म
भरवाकर पढ़ाई पूरी करवाया और बाद में वही लड़का बैंक के प्रोबेशनरी अफसर की
परीक्षा में बैठा और आज बड़े पद पर है .
उनके दफ्तर के एक अन्य सहयोगी की मृत्यु के बाद उसके घर गईं, आपने
भांप लिया कि सहयोगी की विधवा को उस परिवार में
परेशानी ही परेशानी होगी. अपने दफ्तर में उसकी नौकरी
लगवाई. उसकी आगे की पढ़ाई करवाई और आज वह महिला एक बहुत बड़े स्कूल
में शिक्षिका है . ऐसे बहुत
सारे मामले हैं ,लिखना शुरू करें तो किताब बन जायेगी . आजकल
आप बंगलौर के पास के जिले रामनगर के एक गाँव में विराजती हैं और वहां भी
कई लड़कियों को अपनी
ज़िंदगी बेहतर बनाने के लिए प्रेरित कर रही हैं
. उस गाँव की कई बच्चियों के माता पिता
को हडका कर सब को शिक्षा पूरी करने का माहौल बनाती हैं और उनकी फीस
आदि का इंतज़ाम करती रहती हैं . अपने लिए सबीहा ने कभी किसी से कोई आर्थिक मदद नहीं ली लेकिन अगर
किसी मुसीबतज़दा को मदद करना हो तो अपने
बच्चों , पुराने छात्रों आदि से बेझिझक
मदद लेती हैं .
सबीहा अपनी औलादों के लिए कुछ भी कर सकती हैं , कुछ
भी . दिल्ली के पास गुडगाँव में उनके बेटे ने अच्छा ख़ासा घर बना दिया था लेकिन जब उनको लगा कि उनको बेटे के पास बंगलौर रहना ज़रूरी
है तो उन्होंने यहाँ से सब कुछ ख़त्म करके बंगलोर शिफ्ट करना उचित
समझा लेकिन बच्चों के सर पर बोझ नहीं बनीं, उनके घर में रहना पसंद नहीं किया
.अपना अलग घर बनाया और आराम से रहती हैं. इस मामले में
खुशकिस्मत हैं कि उनकी सभी औलादें अब बंगलौर में ही
हैं . सब को वहीं काम मिल गया है .आपने वहां एक ऐसे गाँव में ठिकाना बनाया है जहां जाने के लिए सड़क भी नहीं है.अब
सत्तर साल की उम्र हो गयी है , उनके बाल सफ़ेद हैं ,गाँव का हर इंसान उनको अज्जी
कहता है . मुख्य सड़क से काफी दूर पर उनका घर है लेकिन
वहां से हट नहीं सकतीं क्योंकि गाँव का हर परेशान परिवार अज्जी की तरफ उम्मीद की
नज़र से देखता है . अपने इस नए गाँव की बच्चियों से हस्तशिल्प के आइटम बनवाती
हैं , खुद भी लगी रहती हैं और
बंगलौर शहर में जहां भी कोई प्रदर्शनी लगती है उसमें बच्चों के काम को प्रदर्शित
करती हैं , सामान की बिक्री से जो
भी आमदनी होती है उसको उनकी फीस के डिब्बे में डालती रहती हैं . उसमें से अपने लिए एक पैसा नहीं लेतीं
.उनके तीनों ही बच्चे यह जानते हैं और अगर कोई ज़रूरत पड़ी तो हाज़िर रहते हैं.
मेरे जीवन में उनकी भूमिका बहुत ही बड़ी है. मैं
उनके भाई का दोस्त ही तो हूं लेकिन मुझे उन्होंने रास्ता दिखाया और सिस्टम से ज़िंदगी जीने की तमीज सिखाई .मैं एक ऐसा आदमी था जो रोज़गार की
तलाश में दिल्ली तो आ गया था लेकिन इस महानगर में पूरी तरह से कनफ्यूज़ था .
छोटे शहर और गाँव से आया मैं दिल्ली में दिशाहीनता की तरफ बढ़ रहा था . रोज़गार तो छोटा मोटा मिल गया था लेकिन परिवार गाँव में
था. मैं अपनी पत्नी और दो बच्चों को इसलिए दिल्ली नहीं ला रहा था कि रहेंगे
कहाँ . सबीहा ने मुझे डांट डपट कर इस बात
पर राजी किया कि बच्चों और अपनी पत्नी को दिल्ली लेकर आऊँ . किराये के मकान में
रखवाया और बच्चों को तुरंत
स्कूलों में प्रवेश दिला दिया . दिल्ली के पब्लिक स्कूलों में प्रवेश बहुत कठिन
मंजिल होती है लेकिन वे दिल्ली के एक बहुत ही ठसकेदार पब्लिक स्कूल में बाइज्ज़त
टीचर थीं इसलिए शहर के बहुत संपन्न लोगों के बच्चों के मातापिता भी उनका
बहुत सम्मान करते थे . मेरी तीसरी औलाद बेटी है. जब वह दिल्ली में पैदा हुई तो मेरी पत्नी इंदु की देखभाल का पूरा
ज़िम्मा उन्होंने ले लिया . जिस दिन मेरी बेटी पैदा हुई, मेरी पत्नी को लेकर
अस्पताल गयीं और सारा इंतज़ाम किया . मेरे वही
बच्चे अब उच्च शिक्षित हैं और अपनी ज़िन्दगी संभाल रहे हैं,
अच्छी पढाई लिखाई कर चुके हैं . मैं सुल्तानपुर से डिग्री कालेज
के लेक्चरर की नौकरी छोड़कर आया था. मुझे मुगालता था कि उसी स्तर का काम मिलेगा
तो करूंगा . उन्होंने मुझे समझाया कि जो
भी काम मिले , कर लो . बंधी बंधाई तनख्वाह मिलेगी तो गृहस्थी चल निकलेगी .आज सोचता हूँ कि अगर उनकी
बात न मानी होती तो पता नहीं किस रूप में ज़िंदगी चल रही होती .मैं आज पत्रकारिता के कई हल्कों
में पहचाना जाता हूँ लेकिन
रोज़ लिखने की प्रेरणा मुझे सबीहा हाशमी ने ही दिया था .
सबीहा में हिम्मत और हौसला बहुत ज्यादा है .
आपने चालीस साल की उम्र में रॉक क्लाइम्बिंग सीखा और बाकायदा एक्सपर्ट बनीं, अडतालीस साल की उम्र में कार
चलाना सीखा . चालीस की उम्र पार करने के बाद चीनी भाषा
में उच्च शिक्षा ली. नई
दिल्ली के नैशनल म्यूज़ियम इंस्टीच्यूट ( डीम्ड यूनिवर्सिटी ) से पचास साल की उम्र
में पी एच डी किया . जब मैंने पूछा कि इतनी उम्र के बाद पी एच डी से क्या फायदा
होगा ? आपने कहा कि ,"यह
मेरी इमोशनल यात्रा है . मेरे अब्बू की इच्छा थी कि
मैं पी एच डी करूं. उनके जीवनकाल में तो नहीं कर पाई
लेकिन अब जब भी मैं उसके लिए पढ़ाई करती हूँ तो लगता है
उनको श्रद्धांजलि दे रही हूँ ." सबीहा कहती हैं कि उनके दिमाग में एक फ़िल्टर लगा है जिसके कारण वे उन बातों को भूल जाती हैं जो तकलीफ देने
वाली होती हैं . उनके साथ ज़िंदगी में बहुत सारे धोखे हुए हैं
लेकिन कभी किसी का उल्लेख नहीं
करतीं. उनकी किसी भी बात को मैं आज भी
दरकिनार नहीं कर सकता .
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