शेष नारायण सिंह
आजकल नागरिकता कानून के हवाले से देश भर में जगह जगह आन्दोलन की हवा चल रही है . कुछ लोग इस कानून का विरोध कर रहे हैं जिनके साथ दिल्ली की एक बस्ती शाहीन बाग़ का नाम जुड़ गया है . कुछ शहरों में कुछ लोग नागरिकता कानून में संसद द्वारा किये गए संशोधन का समर्थन कर रहे हैं . समर्थन करने वालों में आम तौर पर सरकार के समर्थक हैं . शाहीन बाग़ का आन्दोलन अब सरकार के खिलाफ प्रतिरोध का पर्याय बन गया है . डेढ़ महीने से ज़्यादा समय से चल रहे इस सत्याग्रह की ख़बरें देश के मीडिया में तो हैं ही , दुनिया के प्रतिष्ठित अखबारों में भी शाहीन बाग़ में धरने पर बैठी औरतों की हिम्मत और अज्म की खबरें प्रमुखता से छापी और प्रसारित की जा रही हैं . दिल्ली के चुनाव में भी शाहीन बाग़ एक मुहावरा बन गया है . शाहीन बाग़ को मुसलमानों द्वारा प्रायोजित प्रतिरोध बताकर हिन्दुओं को अपने पक्ष में लार लेने और वोट देने की बात भी चल रही है . शाहीन बाग़ को धार्मिक ध्रुवीकरण के लिए इस्तेमाल करने के आरोप भी लग रहे हैं .देश की राजनीति ऐसे मुकाम पर पंहुच चुकी है कि अपनी कमियाँ छुपाने के लिए राजनीतिक दल कुछ भी कर सकते हैं और यह बात अब देश की जनता को मालूम है . चिंता की बात यह है कि अब इस विवाद में मीडिया ने एक पक्षकार के रूप में इंट्री ले ली है और उसकी विश्वनीयता पर एक बार फिर बहस शुरू हो गयी है .
आजकल नागरिकता कानून के हवाले से देश भर में जगह जगह आन्दोलन की हवा चल रही है . कुछ लोग इस कानून का विरोध कर रहे हैं जिनके साथ दिल्ली की एक बस्ती शाहीन बाग़ का नाम जुड़ गया है . कुछ शहरों में कुछ लोग नागरिकता कानून में संसद द्वारा किये गए संशोधन का समर्थन कर रहे हैं . समर्थन करने वालों में आम तौर पर सरकार के समर्थक हैं . शाहीन बाग़ का आन्दोलन अब सरकार के खिलाफ प्रतिरोध का पर्याय बन गया है . डेढ़ महीने से ज़्यादा समय से चल रहे इस सत्याग्रह की ख़बरें देश के मीडिया में तो हैं ही , दुनिया के प्रतिष्ठित अखबारों में भी शाहीन बाग़ में धरने पर बैठी औरतों की हिम्मत और अज्म की खबरें प्रमुखता से छापी और प्रसारित की जा रही हैं . दिल्ली के चुनाव में भी शाहीन बाग़ एक मुहावरा बन गया है . शाहीन बाग़ को मुसलमानों द्वारा प्रायोजित प्रतिरोध बताकर हिन्दुओं को अपने पक्ष में लार लेने और वोट देने की बात भी चल रही है . शाहीन बाग़ को धार्मिक ध्रुवीकरण के लिए इस्तेमाल करने के आरोप भी लग रहे हैं .देश की राजनीति ऐसे मुकाम पर पंहुच चुकी है कि अपनी कमियाँ छुपाने के लिए राजनीतिक दल कुछ भी कर सकते हैं और यह बात अब देश की जनता को मालूम है . चिंता की बात यह है कि अब इस विवाद में मीडिया ने एक पक्षकार के रूप में इंट्री ले ली है और उसकी विश्वनीयता पर एक बार फिर बहस शुरू हो गयी है .
मीडिया की विश्वनीयता का सवाल अब एक गंभीर रूप ले चुका है . दिल्ली में काम करने वाले बहुत सारे गंभीर पत्रकारों से बात करने पर पता लगता है कि ज्यादातर लोग एकाध बार वहां हो आये है . मैं भी अपने संपादक के साथ वहां गया था . हम लोग धरनास्थल और उसके आसपास घूमते रहे , लोगों से बातचीत करते रहे और चले आये . वहां टीवी के कुछ कैमरे दिख रहे थे, रिपोर्टर अपना काम कर रहे थे ,किसी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था . वहां एक दादी थीं जो शायद मीडिया से बात करने के लिए अधिकृत थीं , उनसे लोग बात करते थे और औरों से भी ज़रूरी बाईट लेकर अपना काम कर के जा रहे थे . उसके पहले भी हमारे सम्पादक एक रात १२ बजे से तडके तीन बजे तक वहां एक पत्रकार के रूप में कैमरा लेकर घूम चुके थे . कहीं कोई दिक्क़त नहीं थी . हमारी यात्रा के अगले दिन ही खबर आई कि एक टीवी चैनल के सम्पादक को वहां रिपोर्टिंग के दौरान मारपीट का सामना करना पडा . उनको वहां से भगाया गया . हमने शाहीन बाग़ में मौजूद उन लोगों की निंदा की जिन्होंने पत्रकार पर हमला किया . मैंने यह कहा कि किसी रिपोर्टर की निष्पक्ष रहने की क्षमता और योग्यता पर सवाल उठाने के बाद भी किसी को यह हक नहीं है कि उसको रिपोर्ट करने से रोकने के लिए मारा पीटा जाए. आप उससे असहमत हो सकते है , आप उससे बात करने से मना कर सकते हैं लेकिन अगर आपने पत्रकार पर हाथ उठाया तो आपको पत्रकार बिरादरी और सभ्य समाज के क्रोध का सामना करना पड़ेगा . जिस पत्रकार को शाहीन बाग़ में पीटा गया था वह एकाध दिन बाद अपने प्रतिद्वंदी चैनल के एक सम्पादक को लेकर अगले दिन पूरी तैयारी से वहां पंहुच गए और उन्होंने डंके की चोट पर रिपोर्टिंग का ऐलान कर दिया . उनके खिलाफ वहां नारे लगे , उन्होंने शाहीन बाग़ की अपनी समझ को मीडिया में हाईलाईट किया और बात एक बार फिर चर्चा में आ गयी . मुझसे भी भी अपनी राय रखने को कहा गया , मैंने राय दे दी कि मैं पत्रकार की पिटाई वाली बात की निंदा करता हूँ. हां , वहां मौजूद लोगों को किसी के विरोध में या किसी के पक्ष में नारे लगाने का अधिकार है और उनके बारे की व्याख्या करने का अधिकार मीडिया को भी है . उसमें मुझे कोई दिक्क़त नहीं है . आरोप लगाया गया कई टीवी चैनलों के दोनों की सम्पादक सरकार की बात को सही साबित करने के लिए वहां आये थे इसलिए हमने उनका बहिष्कार किया . बहिष्कार करिए ,वह तो आपका आधिकार है .इसमें मीडिया या सभ्य समाज को कोई दिक्क़त नहीं है लेकिन मारपीट करना या होने देना सरासर गलत है .
मीडिया के बहिष्कार की बात लोकतांत्रिक तो हो सकती है लेकिन मीडिया की विश्वसनीयता पर पक्का सवाल उठाती है . तेरा मीडिया , मेरा मीडिया का माहौल बनाती है जो सामाजिक और लोकतांत्रिक विकास के लिए बहुत बड़ी बाधा है . मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल उठेगा तो लोकतन्त्र के लिए अच्छा नहीं होगा . लोकतंत्र की सफलता के लिए मीडिया की विश्वनीयता बहुत ही ज़रूरी है . प्रेस की आज़ादी किसी भी देश की लोकतांत्रिक शक्ति का पैमाना होती है . आज भारत की स्थिति लोकतंत्र के इंडेक्स में बहुत नीचे है . मीडिया की आज़ादी के बारे में भी भारत का नम्बर बहुत ही नीचे है . ऐसा क्यों हो रहा है इसको समझना ज़रूरी है. इमरजेंसी में देश में सेंसर लागू हो गया था . टीवी चैनल तो निजी क्षेत्र के थे नहीं , अखबारों पर सरकार की नाकामियों को रेखांकित करने वाली ख़बरें नहीं छपती थीं .उन पर रोक लगी हुयी थी . नतीजा यह हुआ कि देश की बहुत सारी लोकतांत्रिक संस्थाएं विश्वसनीयता के संकट से गुज़र रही थीं . इमरजेंसी हटी, १९७७ का चुनाव हुआ और कांग्रेस की इंदिरा गांधी सरकार सत्ता से बेदखल हो गयी , जनता पार्टी की सरकार बनी और उस सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्री लाल कृष्ण आडवानी ने मीडया को आइना दिखा दिया . उन्होंने पत्रकारों की एक हाउसिंग सोसाइटी का उद्घाटन करते हुए कहा कि पत्रकारों को इंदिरा जी की सरकार में झुकने के लिए कहा गया था लेकिन उनमें से ज्यादातर रेंगने लगे . उन्होंने सपष्ट किया कि सरकार की तरफ से जो सेंसर के आदेश दे दिए थे उसमें कहीं भी सत्ताधारी पार्टी की जयजयकार का आदेश नहीं था लेकिन पत्रकार उनकी प्रशंसा में कसीदे पढने लगे . जब कसीदे पढ़े जायेंगें तो पत्रकारिता की विश्वसनीयता रसातल को जायेगी . अगर सत्ताधारी पार्टी के पक्ष में मीडिया संस्थान और पत्रकार ढिंढोरची का काम करेंगें तो उनकी पहचान पत्रकार के रूप में नहीं रासोकार और के रूप में होगी . यह मीडिया को तय करना है कि वह चंद बरदाई बनकर सरकार से इनाम आदि लेना चाहता है या महात्मा गांधी जैसा पत्रकार बनकर सच को सामने लाना चाहता है .
मीडिया की विश्वसनीयता के बारे में एक निजी अनुभव भी है . २०१३ के छतीसगढ़ विधानसभा चुनावों के दौरान मैंने नक्सल प्रभावित बस्तर की यात्रा की थी . जगह जगह सी आर पी एफ की बैरीकेड लगे थे .अपना परिचय देने के बाद ही आप आगे जा सकते थे .मैं अपना पी आई बी कार्ड दिखा देता था . जिसमें केंद्र सरकार का निशान बना हुआ है . मेरा नाम और मेरे अखबार का नाम भी उसमें लिखा हुआ है . मैं उस इलाके में दो तीन दिन रहा . पहले ही दिन एक अफसर ने सुझाव दिया कि इस कार्ड को न दिखाकर अगर आप अपने अखबार का परिचय पत्र दिखाएं तो आपके लिए आसान होगा . इस इलाके में देशबन्धु की बहुत विश्वसनीयता है . बाबा लोग ( नक्सल नेता ) कहते हैं कि देशबन्धु अखबार सरकार का भोंपू नहीं है . इसीलिये जब अखबार नक्सलियों की निंदा भी करता है तो वे जानते हैं कि वह किसी दुर्भावना से नहीं कर रहा है . अपने अखबार की निष्पक्षता की चर्चा सुनकर अच्छा तो लगता ही है लेकिन उसी हवाले आजकल के मीडिया पर ,खासकर टीवी मीडिया पर उठ रहे सवालों से चिंता भी होती है .
अपने देश में मीडिया की विश्वसनीयता की एक लम्बी परंपरा रही है . देश का पहला अखबार ' द बंगाल गजट 'माना जाता है .जिसका प्रकाशन १७८० में कलकत्ता से शुरू हुआ था. जेम्स आगस्टस हिकी उसके संपादक थे . ईस्ट इंडिया कंपनी का राज था .अखबार आने से शुरू में अँगरेज़ बहुत खुश हुआ लेकिन जब हिकी साहब ने असली पत्रकारिता शुरू कर दी तो अंग्रेजों ने उनको प्रताड़ित करना शुरू कर दिया . सज़ा भी दी और आखिर में हिकी साहब को अखबार बंद करना पडा . पत्रकारिता के जो मानदंड उस दौर में स्थापित हुए थे उनको ही ऊंचा रखते हुए आज़ादी की लड़ाई लड़ी गई, कांग्रेस की सत्ता आने पर जहां भी ज़रूरी हुआ उसका , विरोध हुआ . अभी कुछ वर्ष पहले तक सरकार की नीतियों पर नुक्ताचीनी होती रही है . लेकिन आजकल माहौल बदल गया है . सरकार की नीतियों या सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियों के नेताओं की जायज आलोचना करने पर भी सत्ताधारी पार्टी के समर्थक लोग पत्रकार को ही निशाना बनाते हैं . अजीब बात है कि वे पत्रकारों के ही एक बड़े वर्ग से समर्थन पाते हैं .इससे बचने की ज़रूरत है . अगर न बच सके तो मीडिया की विश्वसनीयता पर लगातार उठ रहे सवाल मीडिया को ही समाप्त करने का माद्दा रखते हैं . विश्वसनीयता की बात को बनाये रखने के लिए ईमानदार पत्रकारों को अगर कुछ चारण टाइप पत्रकारों का बहिष्कार करना पड़े या उनके खिलाफ टिप्पणी करनी पड़े तो संकोच नहीं करना चाहिए क्योंकि अगर अब नहीं चेते तो बहुत देर हो जायेगी .
आज़ादी की लड़ाई और आज़ादी के बाद के शुरुआती दौर में देश के मीडिया पर जूट उद्योग के मालिकों का क़ब्ज़ा हुआ करता था इसीलिये बड़े अखबारों को जूट प्रेस कहा जाता था . आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के बाद मीडिया पर आम तौर पर कारपोरेट कंपनियों का कब्जा है . जूट प्रेस के दौरन भी छोटे अखबारों ने लोकतंत्र को बचाए रखने की सत्य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता बनाये रखने की कोशिश की . नतीजा यह हुआ कि सत्ताधारी पार्टियां सच को उजागर होने से रोक नहीं पाईं .आज कारपोरेट मीडिया के युग में भी यह काम वही अखबार कर रहे हैं जिन्होंने कभी जूट प्रेस से लोहा लिया था . उसके अलावा आजकल वेब मीडिया भी सूचना के लोकतंत्रीकरण में अपना योगदान कर रहा है . ज़ाहिर है चापलूस पत्रकार और कथित गोदी मीडिया के मठाधीश पत्रकारिता को दफ़न तो नहीं कर पायेंगें लेकिन प्रायोजित पत्रकारिता पर लगाम लगाने की कोशिश तो हर हाल में करनी चाहिए क्योंकि अपने देश में गेहूं के साथ घुन पीसे जाने की परम्परा रही है .
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