Saturday, January 18, 2020

शाहीन बाग़ का सत्याग्रह महात्मा गांधी की परंपरा की नवीनतम कड़ी है



शेष नारायण सिंह

( देशबंधु के लिए )

दिल्ली के शाहीन बाग़ में  करीब एक महीने से कुछ औरतें धरने पर बैठी हैं .यमुना नदी के किनारे बसा  हुआ शाहीन बाग़ दिल्ली और नोयडा को जोड़ने वाली एक महत्वपूर्ण  सड़क पर स्थित है . जामिया मिलिया इस्लामिया  इसी इलाके में है. नागरिकता एक्ट १९५५ में हुए संशोधन के खिलाफ दिसंबर २०१९ में केंद्र सरकार के खिलाफ जामिया विश्वविद्यालय में छात्रों का विरोध प्रदर्शन हुआ था . पुलिस ने कैम्पस और पुस्तकालय में घुसकर छात्रों पर हिंसक हमला किया था . पुलिस का आरोप है कि उस विरोध प्रदर्शन में बहुत सारे बाहरी लोग भी आ गए थे लेकिन मारपीट का शिकार मूल रूप से जामिया के छात्र ही हुए थे . उस सरकारी ज्यादती के खिलाफ देश भर में  विरोध हुआ था . जामिया के शाहीन बाग़ में भी कुछ महिलाएं  विरोध करने के लिए जमा हो गयी थीं . उनको शायद  उम्मीद थी कि सरकार उनसे बातचीत करेगी और  जामिया में पुलिस की ज्यादती के खिलाफ कोई कार्रवाई करेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ . वह धरना नागरिकता कानून १९५५ में ही संशोधन के  खिलाफ एक  आन्दोलन की शक्ल ले चुका है और आज पूरी दुनिया में  शाहीन बाग़ की औरतों के आन्दोलन का नाम जाना पहचाना जा रहा है .
शाहीन बाग़ का  आन्दोलन इस देश के इतिहास में एक बहुत ही महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना बन चुका है . महात्मा गांधी के सत्याग्रह के प्रयोग को शाहीन बाग़ के ज़रिये पूरी दुनिया में नए तरीके से फैलाया जा रहा है .यह अजीब   इत्तिफाक है कि जहाँ शाहीन बाग़ की बस्ती आबाद है वह   गांधी जी की याद से जुड़ा हुआ विश्वविद्यालय है .यहाँ  १९३५ तक यमुना के किनारे बसा हुआ एक बहुत ही छोटा सा गाँव ओखला हुआ करता था. महात्मा गांधी की प्रेरणा से स्थापित जामिया मिलिया को यहाँ डॉ जाकिर हुसैन १९३५ में लाये . उसके पहले जामिया मिलिया का कैम्पस दिल्ली के करोल  बाग़ में हुआ करता था .  वहां जगह बहुत कम थी इसलिए १९३५ में इसे ओखला  लाया गया.  यहाँ ज़मीन आसानी से  उपलब्ध हो गयी .महात्मा गांधी ने जब   १९२० के आन्दोलन के दौरान अंग्रेजों की शिक्षा संस्थाओं के बहिष्कार का आवाहन किया तो जामिया मिलिया इस्लामिया , काशी विद्यापीठ  ,गुजरात विद्यापीठ जैसी कुछ संस्थाओं की स्थापना हुई. जामिया की स्थापना तो मूल रूप से  अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कैम्पस में ही कर दी  गयी थी . देवबंद के मौलाना महमूद हसन ने महात्मा   गांधी के असहयोग आन्दोलन में बहुत ही बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था. उस आन्दोलन का मुस्लिम लीग और जिन्ना ने विरोध किया था लेकिन मौलाना साहब के साथ होने के कारण  पूरे देश में बड़ी  संख्या में मुसलमानों ने  जिन्ना का  विरोध किया और गांधी के साथ हो लिए . उसी राष्ट्रप्रेम की आंधी में जामिया की  स्थापना की गयी थी . इसलिए जामिया को भारत की आज़ादी के आन्दोलन की एक पवित्र संस्था के रूप में याद किया जाता है क्योंकि यह आजादी की लड़ाई की  धरोहर  है .

जामिया मिलिया इस्लामिया की  स्थापना करने वालों में शैखुल हिन्द मौलाना महमूद हसन  ,मौलाना मुहम्मद अली जौहर , हकीम अजमल खान , डॉ मुख़्तार अंसारी, ख्वाजा अब्दुल मजीद और डॉ जाकिर हुसैन  प्रमुख थे . जामिया की स्थापना १९२० में हो गयी थी लेकिन अपना कैम्पस नहीं था . १९२५ में हकीम अजमल खां के सौजन्य से जामिया को करोल बाग़ में जगह मिल गयी लेकिन वह बहुत छोटी जगह थी . जब डॉ जाकिर हुसैन साहब इस विश्वविद्यालय को उस वक़्त के ओखला गाँव में लाये तब खूब जगह मिली और आज यूनिवर्सिटी खासी बड़ी  जगह में है . शुरू में तो यहाँ जामिया के स्टाफ के लोगों ने ही घर आदि बनवाए लेकिन आज यह मुसलमानों की एक बड़ी आबादी है . उसी आबादी में  शाहीन बाग़ भी एक मोहल्ला है . इसलिए शाहीन बाग़ में जो महिलाएं आज इकठ्ठा हुई हैं वे महात्मा गांधी की आज़ादी के लड़ाई वाली उसी विरासत का हिस्सा हैं. डॉ जाकिर हुसैन कहा करते थे कि जामिया मिलिया  इस्लामिया वास्तव में शिक्षा और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के एक  संघर्ष का आन्दोलन है . उन्होंने दावा किया था कि यह  भारतीय मुसलमानों के लिए एक ब्लूप्रिंट तैयार करेगा जिसके केंद्र में तो इस्लाम होगा लेकिन वह सभी भारतीयों के लिए एक राष्ट्रीय संस्कृति के विकास का मार्ग तय करेगा ." उसी राष्ट्रीय संस्कृति के केंद्र  में आज महात्मा गांधी के सत्याग्रह के तरीकों का  इस्तेमाल  करते हुए इतना बड़ा आन्दोलन खडा हो गया है कि स्थापित सत्ता  की समझ में नहीं आ रहा  है कि स्थिति को कैसे संभाला जाए .
शाहीन  बाग़ का  धरना शुरू हुए एक महीने से ऊपर हो गया है . उसी की प्रेरणा से देश के बहुत   सारे शहरों में नागरिकता संशोधन विधेयक ( सी ए ए )के खिलाफ औरतों के धरने शुरू हो चुके हैं .  मुख्यधारा के  मीडिया में सी ए ए के विरोध में चल रहे आन्दोलन को ख़ास  स्थान नहीं मिल रहा है लेकिन आन्दोलन बहुत ही अधिक जोर पकड चुका है .इलाहाबाद , मुंबई , कोटा , बेगूसराय, पटना , भोपाल ,  कोलकता आदि में शाहीन बाग़ की तर्ज पर लोग जमा हो रहे हैं और विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं . सरकार की कोशिश  है कि आन्दोलन को अब शान्ति पूर्वक समाप्त किया जाये लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है . दिल्ली के जामा मस्जिद, सीलम पुर और जामिया में शुरू हुए सी ए ए के विरोध को ख़त्म करने के लिए बल प्रयोग करने और उसे मूल रूप से मुसलमानों  का आन्दोलन साबित करने की सरकार की कोशिश उल्टी पड़ चुकी है . अब यह साबित हो चुका है कि आन्दोलन केवल मुसलमानों का नहीं है बल्कि सभी धर्म और समुदाय के लोग इसमें शामिल हैं . सबसे दिलचस्प बात यह  है कि सी ए  ए के  विरोध में हुए आन्दोलन ने एक बार फिर पूरी ताक़त से स्थापित कर दिया है कि सत्ता का विरोध करने के लिए असहयोग और  सत्याग्रह नाम के जो हथियार महात्मा गांधी ने दिया था वे अभी भी उतने ही कारगर हैं जितने तब थे . सत्ता की तोप बन्दूक के  सामने  निहत्थे इंसान की ताकत का इस्तेमाल का गांधी जी का जो तरीका  था ,अब पूरी दुनिया में सफलता पूर्वक अपनाया जा रहा है . सत्ता की दौड़ में शामिल भारतीयों में एक तरह का शक  पैदा हो रहा था कि कहीं गांधी जी के हथियार भोथरे तो नहीं हो रहे हैं .  शाहीन बाग़ की निहत्थी औरतों  ने उसको एक बार फिर  सही  सन्दर्भ में रख दिया है .
जब सत्ता बहुत भारी बहुमत से राज करती  है तो उसके मुगालता हो  जाता है कि संसद का बहुमत उसको कुछ भी कर डालने की अनुमति दे देता है . लेकिन लोकतंत्र की बुनियादी अवधारणा बहुमतवाद का समर्थन नहीं करती . संसद का बहुमत केवल सरकार बनाने की एक विधि है लेकिन  सरकार बनने के बाद उसका कर्त्तव्य है कि सभी विचारधाराओं को साथ लेकर चले , देश के हर इन्सान खासकर अंतिम  पायदान पर बैठे हुए इंसान के हित में काम  करे . यह भी संभव है कि  देश का  अंतिम व्यक्ति उस की सरकार का मतदाता न हो लेकिन उसके हित की चिंता करना सरकार का फ़र्ज़  है . अगर  सरकार अपने इस बुनियादी कर्त्तव्य से विमुख होती  है तो महात्मा गांधी का  सविनय अवज्ञा और असहयोग का हथियार अपने आप चल जाता है . वह कालखंड चाहे १९२० हो, १९७५  हो या २०१९ हो . आज शाहीन बाग़ में वही हो रहा है जो कभी महात्मा  गांधी के शिष्य  जयप्रकाश नारायण  ने १९७५ में किया था .देश की जनता की  बात दिल्ली के सत्ताधीशों को सुनाने के लिए अठारह मार्च १९७५ के दिन एक जुलूस पटना की सडकों पर निकला था .उस जुलूस में मुश्किल से हजार लोग रहे होंगे .हाथ पीछे बंधे थे और मुंह पर पट्टी बंधी थी .पटना शहर की मुख्य सड़कों से गुजर कर सभी लोग एक जगह जमा हुए . उस जुलूस में महान गांधीवादी कुमार प्रशांत और हिंदी के महान साहित्यकार  फणीश्वरनाथ रेणु भी शामिल थे . कुमार प्रशांत बताते हैं  कि जब मुंह से पट्टी हटी तो रेणु जी लंबे समय तक खामोश रहे . कुछ देर बाद  बोले: "  प्रशांतजीऐसा निनाद करता सन्नाटा तो मैंने पहली बार ही देखा और सुना! "
यह निनाद करता सन्नाटा ही महात्मा गांधी का सत्याग्रह  है . यही सन्नाटा , चौरी चौरा के बाद भी महसूस किया गया था ,यही सन्नाटा दांडी गाँव में जब एक मुट्ठी नमक उठाया  गया  थातब भी था . इस निनाद करते सन्नाटे को अमरीका में रंगभेद के खिलाफ  हुए संघर्ष में  बार  बार बार इस्तेमाल हुआ . अमरीका में रंगभेद के खिलाफ बहुत समय से आन्दोलन चलता रहा था  . आन्दोलन हिंसक हो जाता था और क्लू,क्लाक्सक्लान नाम के दक्षिणपंथी  श्वेतों के संगठन के गुंडे शोषित पीडित जनता के साथ बदमाशी करते थे . जवाब में  अफ्रीकी-अमरीकी भी हिंसक हो जाते थे . नतीजा यह होता था कि सत्ता के मालिक लोग आन्दोलन को हिंसा के नाम पर तोड़ देते थे .सरकार में श्वेत प्रभुता के चलते इनको हिंसक करार देकर सरकारी कार्रवाई का शिकार बना दिया जाता था . इस बीच भारत से  गांधी जी के विचारों का अध्ययन करके वापस  गए एक धर्मशास्त्र के अमरीकी  जेम्स मोरिस लॉसन  ने   आन्दोलन को पूरी तरह से गांधी के विचारों में रंग दिया . वे धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने के सिलसिले में भारत आये थे लेकिन जब लौटकर गए तो पूरी तरह से महात्मा गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा की ताक़त के जानकार बनकर लौटे थे  .उनके  अनुयायी  इन्हीं  छात्र छात्राओं ने १९५९
और ६० में टेनेसी राज्य  की दुकानों में नैशविल सिट-इन का आन्दोलन  चलाया  .   इन्हीं  छात्र नेताओं ने संयुक्त राज्य अमरीका के दक्षिण  में चले फ्रीडम राइडमिसीसिपी फ्रीडम समर,१९६३ के बर्मिंघम चिल्ड्रेन्स   क्रुसेड , १९६३ के सेल्मा वोटिंग राइट्स आन्दोलन१९६६ के वियतनाम युद्ध  विरोधी आन्दोलन आदि का नेतृत्व किया . इन छात्रों के  नेतृत्व  में हुए बहुत  ही महत्वपूर्ण आन्दोलनों में एक १९६३ का वाशिंगटन मार्च का आन्दोलन  है. इसी आन्दोलन में इन   छात्रों  ने मार्टिन लूथर किंग जूनियर को आमंत्रित किया था उसके बाद वे आन्दोलन का सहयोग करते रहे .

शाहीन बाग़ के सिट-इन में भी नैशविल सिट-इन के गांधी के तरीके की अनुभूति होती है .सत्ता को देखना  होगा कि अपनी बात को शान्तिपूर्वक कहने की कोशिश कर रहे लोगों को नज़र अंदाज़ करने का जोखिम न उठायें  क्योंकि निहत्थे इंसान के पास अगर  गांधी का आत्मविश्वास आ जाये तो उसको पराजित करना असभव होता है .

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