Thursday, January 30, 2020

अरुण कुमार त्रिपाठी ,प्रदीप कुमार सिंह और राम किशोर की किताब राष्ट्रवाद , देशभक्ति और देशद्रोह की भूमिका



शेष नारायण सिंह 


राजनीतिक आचरण के एक महत्वपूर्ण तत्व के रूप में राष्ट्रवाद  हमेशा से ही चर्चा में रहा है . इतिहास के विभिन्न कालखंड यह तय करते रहे हैं कि राष्ट्रवाद का  स्वरूप क्या होगा . बड़े भूभाग पर शासन करने की आवश्यकता के हिसाब से शासक वर्ग राष्ट्रवाद की नई नई  परिभाषाएं गढ़ते रहे हैं . यूरोप में राष्ट्र राज्य  की विचारधारा के साथ साथ  राष्ट्रवाद की तरह तरह की कल्पनाएँ हैं . यूरोप में ही राष्ट्रवाद की अलग अलग  अवधारणा को शासक अपने हिसाब से परिभाषित  करते रहे हैं . अपने देश में भी आजकल हर मोड़ पर राष्ट्रवाद की बात की जा रही है . पिछले एक सौ वर्षों में राष्ट्रवाद ने मानवता को कई तरीकों से प्रभावित किया है .  राष्ट्रवाद की एक अजीबोगरीब सोच के चलते ही एक सिरफिरे ने दुनिया को महायुद्ध की आग  में झोंक दिया था . उसके दिमाग में  जर्मनी की  सर्वोच्चता की बात इतने गहरे पैठ गयी थी कि बाकी देश उसको अपनी अधीन लगते थे. राष्ट्रवाद के इतिहास में हिटलर की राष्ट्रवाद की समझ सबसे खूंखार  उदाहरण के रूप में याद की जाती है . इसलिए  राष्ट्रवाद की बहस में बहुत ही सावधान रहने की ज़रूरत है . अरुण कुमार त्रिपाठी ,प्रदीप कुमार सिंह और राम किशोर की किताब राष्ट्रवाद देशभक्ति और  देशद्रोह में  इन महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहुत ही गंभीरतापूर्वक विचार किया है . इन मानयताओं की विकृतियों की चर्चा भी की गयी है . जनसंचार और साहित्य संस्कृति की भूमिका भी राष्ट्रवाद को एक दिशा देने में बहुत ही ज़रूरी और कई बार निर्णायक होती है . यह स्थापित सत्य है कि  किसी भी राजनीतिक विचाधारा के प्रचार प्रसार में मीडिया की भूमिका बहुत बड़ी होती है . आज भी   राष्ट्रवाद को  राजनीतिक सत्ता के केंद्र में रखने में मीडिया बहुत ही महत्वपूर्ण रोल अदा कर रहा है . उम्मीद है कि इस पुस्तक से  राष्ट्रवाद और देशभक्ति की बारीकियों को समझने में हिंदी के बड़े पाठक वर्ग को लाभ होगा .
भारत में आई संचार क्रान्ति के बाद जनसंचार का एक नया व्याकरण लिखा गया . अभी उसके विकास की प्राक्रिया जारी है .भारत में राजनीतिक विवाद और प्रचार की तरकीब में  भी बड़ा बदलाव आया है .पारंपरिक मीडिया तो था ही , सोशल मीडिया की भूमिका बहुत बढ़ गयी है . इस माध्यम  का प्रयोग भारत में नफरत फैलाने के लिए भी खूब हो रहा है .इसकी शुरुआत मुजफ्फरनगर के २०१३ के दंगों के दौरान हो गयी थी . उन दंगों में दंगाइयों ने इस तरकीब  का इस्तेमाल किया था.  पिछले कुछ वर्षों में नफरत के  काम में लगे लोगों ने इंसानों को जिंदा जलाया ,उनका वीडियो बनाया और सोशल मीडिया के ज़रिये पूरी दुनिया में प्रचारित किया . एक ऐसे व्यक्ति  को हीरो के रूप में पेश करने की  कोशिश किये जाने की घटना भी सार्वजनिक चर्चा में आई जिसने किसी को जलाकर मार डाला और उसका वीडियो बनाकर सोशल  मीडिया के ज़रिये खूब प्रचार भी किया . नफरत और कट्टरता का आलम यह है कि इस तरह की हरकतों को भारत की आबादी का एक बड़ा वर्ग सही ठहरता है , उसमें अपने ब्रैंड के राष्ट्रवाद को परवान चढ़ते देखता है . यह बहुत ही निराशाजनक स्थिति है  लेकिन  इसका मतलब यह नहीं है कि सब कुछ ख़त्म हो गया है . अभी आशा की एक किरण बाकी है . वह किरण है की देश में अभी भी लिबरल राजनीति के मानने वालों की बहुत बड़ी संख्या है . हालांकि यह भी सच है कि देश में  लिबरल राजनीति और चिंतन का दायरा सिकुड़ तो गया है लेकिन अभी ख़त्म बिलकुल नहीं हुआ है . लिबरल तरीके से सोचने वाले मुखर नहीं  हैं लेकिन उनकी संख्या अच्छी खासी है .अभी भी सार्वजनिक जीवन में जब राष्ट्रवाद के हवाले से कट्टरता की वकालत करने वाले सामने आते  हैं तो  देश की आबादी का एक बड़ा वर्ग उनको आइना दिखाने के लिए तैयार हो जाता  है .
यह पुस्तक बहुत ही सही समय पर आयी है क्योंकि आज इसकी जितनी ज़रूरत है उतनी शायद एक साल पहले नहीं थी .  नागरिकता कानून में २०१९ में हुए संशोधन के बाद राष्ट्र, राष्ट्रीयता ,राष्ट्रवाद ,राष्ट्रप्रेम और  नागरिकता से जुड़े सवाल बहुत ही बड़े पैमाने पर चर्चा में आ गए हैं .  मुसलमानों को केंद्र में रखकर एक राष्ट्रीय बहस शुरू करने की कोशिश भी की गयी . इस प्रयास में  सत्ताधारी पार्टी के कई के नेता भी शामिल हुए लेकिन राष्ट्रवाद को हिन्दू-मुस्लिम रंगत देने में  कोई ख़ास सफलता नहीं  मिली .इस बात में दो राय नहीं है कि  कानून पास होने के बाद जब उसका विरोध शुरू हुआ तो पहली कतार में मुसलमान थे . पहला विरोध मुसलमानों की तरफ से ही हुआ लेकिन बहुत कम समय में  नागरिकता कानून का विरोध धर्म ,जाति राज्य ,आयु  आदि की सीमायें पार कर गया .अलीगढ़ और जामिया विश्वविद्यालय में हुए विरोध प्रदर्शन को  मीडिया की  बहसों और सत्ताधारी नेताओं के बयाओं के रास्ते एक निश्चित दिशा देने की कोशिश की गयी लेकिन ऐसा हो नहीं सकता . नागरिकता कानून का विरोध सभी धर्मों के लोग करने  लगे . संसद में इस कानून को पास करवाने में मदद करने के बाद अकली दल ने किनारा कर लिया और जनता दल यूनाईटेड में भी नए सिरे से विचार शुरू हो गया . नतीजा  यह हुआ  कि विमर्श बिलकुल अलग रास्ते चल निकला .देश के अलग अलग हिस्सों में नागरिकता कानून में ही बदलाव का विरोध शुरू हो गया .  

इस   विरोध का केंद्र दिल्ली का  शाहीन बाग़ नाम का मोहल्ला बन गया .  नागरिकता एक्ट १९५५ में हुए संशोधन के खिलाफ दिसंबर २०१९ में सबसे पहले दिल्ली के जामिया विश्वविद्यालय में छात्रों का विरोध प्रदर्शन हुआ था . पुलिस ने कैम्पस और पुस्तकालय में घुसकर छात्रों पर हिंसक हमला किया . पुलिस का दावा  है कि उस विरोध प्रदर्शन में बहुत सारे बाहरी लोग भी आ गए थे और उनको  हटाने के लिए बलप्रयोग हुआ था  लेकिन ज़मीनी सच्चाई बिलकुल अलग थी . मौके पर मौजूद पत्रकारों ने रिपोर्ट किया और कुछ चैनलों में दिखाया भी गया  कि मारपीट का शिकार  जामिया के छात्र ही हुए थे . यहाँ तक की विश्वविद्यालय में पढने वाली लड़कियों को भी पुलिस के बलप्रयोग का निशाना बनाया गया था . जामिया में पीटने वाले छात्रों में सभी धर्मों के  छात्र छात्राएं  शामिल थे .पुलिस की उस कार्रवाई के खिलाफ देश भर में  विरोध हुआ  . जामिया विश्वविद्यालय से थोड़ी दूरी पर स्थित  शाहीन बाग़ मोहल्ले की एक सड़क पर  कुछ महिलाएं  विरोध करने के लिए जमा हो गयीं .  शायद  उनको उम्मीद थी कि सरकार उनसे बातचीत करेगी और  जामिया में पुलिस की ज्यादती के खिलाफ कोई जाँच करेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ . करीब एक महीने बाद वह धरना नागरिकता कानून १९५५ में ही संशोधन के  खिलाफ एक  आन्दोलन बन गया . उसके बाद देश भर में  शाहीन बाग़ की औरतों के आन्दोलन का नाम जाना पहचाना जाने लगा . जब प्रतिष्ठित अमरीकी अखबार न्यूयार्क टाइम्स और वाशिंगटन पोस्ट ने भी  शाहीन बाग़ के  विरोध  को अपनी प्रमुख ख़बरों में स्थान दे दिया तो बात पूरी दुनिया में चर्चा में आ गयी  .
 राष्ट्रीयता और नागरिकता  के सवाल पर शाहीन बाग़ में शुरू हुआ आन्दोलन इस देश के इतिहास में एक बहुत ही महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना बन गया .. महात्मा गांधी के सत्याग्रह के प्रयोग को शाहीन बाग़ के ज़रिये नए तरीके से फैलाया गया ..यह अजीब   इत्तिफाक है कि जहाँ शाहीन बाग़ की बस्ती आबाद है वह   गांधी जी की याद से जुड़ा हुआ विश्वविद्यालय है .जब असहयोग आन्दोलन के   महात्मा गांधी ने अँगरेज़ परस्त शिक्षा का बहिष्कार राष्ट्रीय आन्दोलन के एजेंडे में शामिल किया तो जामिया मिलिया इस्लामिया की स्थापना हुई थी . एक तरह से जामिया की स्थापना ही ब्रिटिश आधिपत्य को चुनौती के एक प्रतीक के रूप में की गयी थी. गांधी के राष्ट्रवाद की अवधारणा में देश की भौगोलिक सीमा के साथ  भारत की   सभी संस्कृतियाँ  और सभी इंसान  समाहित थे . महात्मा गांधी ने जब   १९२० के आन्दोलन के दौरान अंग्रेजों की शिक्षा संस्थाओं के बहिष्कार का आवाहन किया तो जामिया मिलिया इस्लामिया काशी विद्यापीठ  ,गुजरात विद्यापीठ जैसी कुछ संस्थाओं की स्थापना हुई. जामिया की स्थापना तो मूल रूप से  अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कैम्पस में ही कर दी  गयी थी . भारत के राजनीतिक इतिहास में १९२० के असहयोग आन्दोलन की भूमिका बहुत ही क्रांतिकारी मानी जाती है . तब  तक कांग्रेस के नेता रह चुके मुहम्मद अली जिन्ना गांधीजी और कांग्रेस के अन्य नेताओं से नाराज़ होकर बाहर होने की धमकी दे चुके थे. राजनीतिक हलकों में यह इमकान था कि जिन्ना के नाराज़ होने के बाद मुसलमान आजादी की लड़ाई से अलग हो जायेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ . देवबंद के मौलाना महमूद हसन ने महात्मा   गांधी के असहयोग आन्दोलन में बहुत ही बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था.  मौलाना साहब के साथ होने के कारण  पूरे देश में बड़ी  संख्या में मुसलमानों ने  जिन्ना का  विरोध किया और गांधी जी के साथ हो गए  . हालांकि उस दौर में जिन्नाह ने मुसलमानों को अलग राष्ट्र के रूप में   चिन्हित नहीं किया था लेकिन मुसलमानों को गांधी से अलग करने की कोशिश शुरू कर दी थी .उनकी लाख कोशिश के बाद भी मुसलमान जिन्ना के साथ जाने को तैयार नहीं था. लगभग उसी समय जेल से रिहा हो चुके  वी डी सावरकर ने अपनी किताब हिंदुत्व के ज़रिये हिन्दू राष्ट्रवाद की अवधारणा को एक राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन की शक्ल देने की कोशिश  शुरू कर दिया था .  राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद की नई  परिभाषा महात्मा  गांधी ने लिख दी थी और उनके राष्ट्रवाद में हिन्दू मुसलमान समेत सभी शामिल थे  .  राष्ट्रवाद की इसी नई  परिभाषा को मूर्त रूप देने के लिए गांधी जी ने अंग्रेज़ी सोच के हर मानदंड को चुनौती दी . अंग्रेज़ी  कपड़ों के  बहिष्कार किया . जिसका नतीजा  हुआ कि ब्रिटेन की बहुत सारी कपडा  मिलों का उत्पादन घाट गया . अंग्रेज़ी शिक्षा के बहिष्कार का बड़ा कार्यक्रम चलाया . उसी राष्ट्रप्रेम की आंधी में जामिया की  स्थापना की गयी थी . इसलिए जामिया को भारत की आज़ादी की लड़ाई की  धरोहर माना जाता  है . डॉ जाकिर हुसैन कहा करते थे कि जामिया मिलिया  इस्लामिया वास्तव में शिक्षा और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के एक  संघर्ष का आन्दोलन है . उन्होंने दावा किया था कि यह  भारतीय मुसलमानों के लिए एक ब्लूप्रिंट तैयार करेगा जिसके केंद्र में तो इस्लाम होगा लेकिन वह सभी भारतीयों के लिए एक राष्ट्रीय संस्कृति के विकास का मार्ग तय करेगा ." उसी राष्ट्रीय संस्कृति को मानने वाले भारतीय राष्टवाद को गांधी जी के तरीके से एक आकार देने की कोशिश कर रहे थे . महात्मा गांधी के सत्याग्रह के तरीकों का  इस्तेमाल  करते हुए जामिया की संस्कृति के चलते शाहीन बाघ का इतना बड़ा आन्दोलन खडा हो गया कि स्थापित सत्ता  को उसको तोड़ने के तरीके बहुत समय बाद तक  समझ में नहीं आये .
 गांधी जी की उसी राष्ट्रवाद की अवधारणा को तहस नहस करने के लिए अल्लामा इकबाल के हवाले से मुसलमानों को  अलग राष्ट्र के रूप में स्थापित करने की  कोशिश की गयी और उस मुहिम के नेता मुहम्मद अली जिन्ना बनाए गए .  हिन्दुओं को अलग राष्ट्र बताने की कोशिश भी वी डी सावरकर ने पूरी मेहनत से किया लेकिन उनको आज़ादी की लडाई के दौरान कोई सफलता नहीं मिली. गांधी जब तक जिंदा रहे राष्ट्रवाद को  धर्म से  जोड़ने की सारी कोशिशों को सफल नहीं होने दिया .इसीलिये  जब राष्ट्र और मानवता के किसी मुद्दे को बहुत ही सावधानी से समझने की ज़रूरत  पड़ती है तो महात्मा गांधी की बातें ही कसौटी का काम करती हैं. उनकी बातें ही खरा सोना साबित होती हैं . राष्ट्रवाददेशप्रेम और मानवता के बारे में महात्मा गांधी ने अपनी किताब  'मेरे सपनों का भारत में  लिखा है,कि   मेरे लिए देशप्रेम और मानव-प्रेम में कोई भेद नहीं हैदोनों एक ही हैं। मैं देशप्रेमी हूँक्‍योंकि मैं मानव-प्रेमी हूँ। देशप्रेम की जीवन-नीति किसी कुल या कबीले के अधिपति की जीवन-नीति से भिन्‍न नहीं है। और यदि कोई देशप्रेमी उतना ही उग्र मानव-प्रेमी नहीं हैतो कहना चाहिए कि उसके देशप्रेम में उतनी न्‍यूनता है.जिस तरह देशप्रेम का धर्म हमें आज यह सिखाता है कि व्‍यक्ति को परिवार के लिएपरिवार को ग्राम के लिएग्राम को जनपद के लिए और जनपद को प्रदेश के लिए मरना सीखना चाहिएउसी तरह किसी देश को स्‍वतंत्र इसलिए होना चाहिए कि वह आवश्‍यकता होने पर संसार के कल्‍याण के लिए अपना बलिदान दे सके। इसलिए राष्‍ट्रवाद की मेरी कल्‍पना यह है कि मेरा देश इसलिए स्‍वाधीन हो कि प्रयोजन उपस्थित होने पर सारा  ही देश मानव-जाति की प्राणरक्षा के लिए स्‍वेच्‍छापूर्वक मृत्‍यु का आलिंगन करे। उसमें जातिद्वेष के लिए कोई स्‍थान नहीं है। मेरी कामना है कि हमारा राष्‍ट्रप्रेम ऐसा ही हो। हमारा राष्‍ट्रवाद दूसरे देशों के लिए संकट का कारण नहीं हो सकता क्‍योंकि जिस तरह हम किसी को अपना शोषण नहीं करने देंगेउसी तरह हम भी किसी का शोषण नहीं करेंगे। स्‍वराज्‍य के द्वारा हम सारी मानव-जाति की सेवा करेंगे।
महात्मा गांधी ने साफ़ कहा है कि राष्ट्रवाद में जातिद्वेष का कोई स्थान नहीं है . इसीलिये उन्होंने जिन्ना और सावरकर के राष्ट्रवाद को  सिरे से खारिज कर दिया था .उनकी राष्ट्रवाद की अवधारणा उसको संकीर्णता से बहुत दूर ले जाती है और सही मायनों में यही राष्ट्रवाद की सही तस्वीर है.  राष्ट्रवाद के उनके विचारों में कहीं भी धर्म या जाति को कोई भी स्थान नहीं दिया गया है .इस किताब में इन विचारधाराओं को समझने के लिए जिस वैविध्य की ज़रूरत  होती  है , वह मौजूद है . अरुण त्रिपाठी और उनके साथियों की किताब में देश भर के उन विद्वानों के लेख हैं जिनकी बात को गंभीरता से लिया जाता है . महात्मा गांधी ,जवाहरलाल नेहरू भगत सिंह ,राममनोहर लोहिया बी आर आंबेडकर ,मुंशी प्रेमचंद,  दीनदयाल उपाध्याय वी डी सावरकर आदि की राष्ट्रवाद से सम्बंधित अवधारणा को एक ही पुस्तक में इकठ्ठा करके संपादकों ने इस महत्वपूर्ण विषय से सम्बंधित पूरा कैनवास सामने रख दिया है . चिंतकों और राजनेताओं के ऐतिहासिक लेखों के साथ ही राष्ट्रवाद की अपरिभाषित ज़मीन की कंटीली राह को समझाने की कोशिश भी की गयी है . किताब में आज के उन विद्वानों और चिन्तक राजनेताओं के लेख भी हैं जिनको पढ़ या सुनकर आज की पीढी राष्ट्रवाद राष्ट्रीयता , राष्ट्रप्रेम  जैसी मान्यताओं को समझने की कोशिश करती है . किशन पटनायक आनंद कुमार रघु ठाकुर ,सच्चिदानंद सिन्हारोमिला थापर ,लाल्टूजयशंकर पाण्डेय भगवान स्वरूप कटियार शम्भूनाथ शुक्ल के लेख समझ को एक सही सन्दर्भ में रख देते हैं . अंग्रेज़ी में तो इन  विषयों पर काफी कुछ लिखा गया है लेकिन  हिंदी में एक ही जगह पर इतना सब कुछ  आसानी से  उपलब्ध नहीं है . अंग्रेज़ी  विश्व के एक बड़े हिस्से की अकादमिक शोध और विमर्श की भाषा हो चुकी है . ब्रिटेन के पुराने उपनिवेशों में आज भी ज्यादातर सरकारी काम और शोध का माध्यम अंग्रेज़ी ही है .इसके अलावा अमरीका अंग्रेज़ी में हो रहे शोध का सबसे बड़ा केंद्र है . संयुक्त राष्ट्र में भी मुख्य भाषा अंग्रेज़ी ही है हालांकि वहां छः भाषाओं  को मान्यताप्राप्त  भाषा के रूप में स्वीकार किया  गया है . अरबीचीनीअंग्रेज़ीफ़्रांसीसीरूसी और स्पेनी  संयुक्त राष्ट्र की मान्यताप्राप्त भाषाएँ हैं लेकिन वहां भी कामकाज के   संचालन की भाषा में मुख्य रूप से अंग्रेज़ी ही है .अंग्रेज़ी के अलावा फ्रांसीसी भाषा को भी संचालन के लिए इस्तेमाल करने का प्रावधान है. इन्हीं ऐतिहासिक कारणों से अकादमिक  और राजनीतिक विचारों के शोध आदि में भी अंग्रेज़ी की प्रमुख भूमिका रहती है . यह किताब उन लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण निधि है जो हिंदी के माध्यम से राष्ट्रवाद और उससे सम्बंधित  विषयों को गंभीरता से पढ़ना चाहते हैं  .
 किताब की शुरुआत में ही संपादकों की बात के ज़रिये  राष्ट्रवाद के विषय पर लिखने वाले दुनिया के नई विद्वानों के सन्दर्भ के साथ अरुण त्रिपाठी ने एक बेहतरीन टिप्पणी की है . उसको पढ़कर स्व हरिदेव  शर्मा की याद आ गयी . कई दशकों तक आधुनिक और समकालीन इतिहास के इनसाइक्लोपीडिया के रूप जाने पहचाने गए शर्मा जी ने दिल्ली के नेहरू समारक पुस्तकालय और शोध केंद्र के अधिकारी के रूप में काम किया था  . बहुत सारे विद्वानों को उन्होंने बहुत मदद की जिसके परिणामस्वरूप वे लोग ऐसी किताबें  लिख सके जिनको आज हम सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में जानते हैं . हरिदेव शर्मा जी  स्वयं बहुत कम लिखा . लेकिन जो भी लिखा वह ऐसा  लिखा वह संभालकर रखने लायक बन गया . असहयोग आन्दोलन के बारे में उनका शोधप्रबंध पढने केबाद १९२० के आन्दोलन के बहुत सारे  सवालों के जवाब अपने आप मिल जाते हैं . डॉ राम मनोहर लोहिया के  सहयोगी के रूप में इतिहास की उन घटनाओं के भी वे  चश्मदीद रहे जो कहीं लिखी या रिपोर्ट नहीं की गयीं . उन्होंने अपने अंतिम समय में  आचार्य नरेद्र देव के लेखन और  भाषणों का एक संकलन संपादित किया .  यह संकलन चार  खण्डों में उपलब्ध है. पहले खंड की शुरुआत में  हरिदेव शर्मा जी  ने आचार्य नरेंद्र देव की एक संक्षिप्त जीवनी लिखी  है . ४२ पृष्ठों में छपी हुयी उस  जीवनी को पढ़ लेने से राष्ट्रीय आन्दोलन के  बहुत सारे धागे अपने आप खुल जाते हैं . अंग्रेज़ी गद्य का ऐसा धाराप्रवाह तारतम्य  बहुत कम लोगों के लेखन में मिलता है ने लिखा है . अरुण त्रिपाठी और उनके साथियों की यह किताब पढ़ते हुए ऐसा लगा कि राष्ट्रवाद राष्ट्रीयता और देशप्रेम के सवाल पर दुनिया  भर में हुए शोध को एक ही जगह पर रख दिया गया  है  . संपादकों की बात  को जिन १८ पृष्ठों में लिखा गया है उसमें वे  सारी बातें हैं जो इस विषय के विद्यार्थी के लिए जानना ज़रूरी है . मुझे व्यक्तिगत रूप से उम्मीद है कि अन्य लोगों को भी इस किताब से वही लाभ होगा जो मुझको हुआ है .
शेष नारायण सिंह
२१-०१-२०२०
नई दिल्ली 

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