Thursday, January 9, 2020

यह सरकार तो अब दुआ के सहारे ही चल रही है क्योंकि खस्ताहाल अर्थव्यवस्था अवाम को तबाह करने पर आमादा है



शेष नारायण सिंह

इस बार की मुंबई यात्रा संक्षिप्त रही . तीन चार दिन रहा. लगभग रोज़ ही  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सफलता की दुआ करता रहा . मैंने अपने उन दोस्तों के साथ बैठकर दुआ की जो आज के छः साल पहले तक मुतमइन थे कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद संभालते ही देश में कारोबार करने वालों को ज़बरदस्त सफलता मिलेगीउद्योग जगत में बदलाव  आयेगा और अर्थव्यवस्था के मामले में भारत बड़ी सफलता हासिल करेगा . वही लोग अब निराश नज़र आ रहे हैं . और प्रार्थना कर रहे हैं कि प्रधानमंत्री अर्थव्यवस्था को  पटरी पर लाने में सफलता प्राप्त करें क्योंकि सभी व्यापारी हैं और  कारोबार बिलकुल ठप पड़े हैं . इसी मुंबई यात्रा के समय ही आर्थिक विकास और जीडीपी की विकास दर के ताज़ा आंकड़े भी आ गए .सब कुछ आर्थिक अखबारों की सुर्ख़ियों में था.  जो कुछ छपा था उससे पूरे देश में बहुत ही निराशा हो गयी.  मुम्बई के सेठ साहूकार दुखी हो गए . जीडीपी की वृद्धि में खेतीकारखाने का उत्पादन और निर्यात का बड़ा योगदान होता है . लेकिन इन तीनों ही क्षेत्रों में प्रगति बहुत ही निराशाजनक  है . रोज़गार की हालत पिछले ४५ साल में सबसे खराब मुकाम पर है . उसी दिन मुंबई में इंडियन एक्सप्रेस के एक्सप्रेस अड्डा कार्यक्रम में अर्थशास्त्र के इस साल के नोबेल पुरस्कार विजेता  डूफ्लो और अभिजीत बनर्जी भी थे . उन्होंने भी अर्थव्यवस्था के बारे में चेतावनी दे दी कि भारत आर्थिक मंदी के मुहाने पर खड़ा है . उन्होंने  संभलने की सलाह दे दी .मुंबई देश की आर्थिक राजधानी हैं और वहां इस तरह की निराशा का माहौल निश्चित रूप से चिंताजनक था. इन मुलाकातों में  कुछ ऐसे लोगों से भी बातचीत हुई जो कह रहे थे कि मैंने तो पहले ही बता दिया था कि अर्थव्यवस्था का कुशल प्रबंधन नरेंद्र मोदी के बस की बात नहीं है .यह वे लोग थे जिनकी एक ख़ास किस्म की राजनीति है . मैं  जानता हूँ कि देश में  एक बड़े वर्ग के नेता और उनके समर्थक  नरेंद्र मोदी को हटाकर खुद सत्तासीन होना चाहते हैं . मुझे भी कोई एतराज नहीं है . कोई भी चुनाव जीतकर  आये और देश का कामकाज संभाल ले एक नागरिक को उसमें क्या दिक्क़त हो सकती है . लेकिन आज अर्थव्यवस्था जिस मुकाम पर  पंहुच गयी है ,उसमें यही दुआ की जानी चाहिए कि  जो भी हमारी  आर्थिक नैया का खेवैया है ,वह सफल हो वह हम सबको पार ले जाए  क्योंकि उसके डूबने का मतलब यह  है कि हम भी डूब जायेंगें . उन्होंने नीतियों को अपने हिसाब से डिजाइन किया है और उनकी रणनीति में  कोई ऐसी बात ज़रूर होगी जिससे वे चीज़ों को संभाल लेंगे लेकिन फ़िलहाल ऐसे कोई लच्छन तो नहीं दिख रहे है . साधारण आदमी को तो आर्थिक व्यवस्था की मंदी ही दिख रही है .  निराशा के इस माहौल में मेरी मुलाक़ात बीजेपी के कुछ महत्वपूर्ण नेताओं से भी हुई . उनका कहना था कि  चिंता की कोई बात नहीं है . मोदी जी सब संभाल लेंगें . मैं नरेंद्र मोदी का समर्थक नहीं हूँ लेकिन  जब कोई भी यह तसल्ली देता है कि नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री के रूप में अर्थव्यवस्था को संभाल लेंगें तो  उम्मीद बनती है .इसका कारण यह है कि अगर नरेंद्र मोदी सफल न हुए तो देश बहुत पीछे चला जाएगा. वे कैसे संभालेंगे यह वे जानें लेकिन एक राष्ट्र के रूप में हम अर्थव्यवस्था को डूबता नहीं देखना चाहते .
सच्चाई यह है कि  आज की सरकार ने अर्थव्यवस्था को ऐसे मुकाम पर लाकर  खड़ा कर दिया है जहां से उसके संभलने की संभावनाएं प्रतिदिन ही कमज़ोर पड़ती जा रही हैं . २०१४ में जब बीजेपी ने सत्ता संभाली थी तो देश में डॉ मनमोहन  सिंह की सरकार के खिलाफ इस तरह का माहौल बना दिया  गया था कि वह अब तक की सब से भ्रष्ट सरकार  है . उनके खिलाफ आर एस एस ने दिल्ली में बड़ा आन्दोलन करवाया . महाराष्ट्र से अन्ना हजारे नाम के एक पुराने फौजी को लाया गया . अन्ना के कैम्प में अपने लोगों को अहम रोल दिलवाकर आर एस एस/बीजेपी ने कोशिश की थी कि इस आन्दोलन को कांग्रेस के खिलाफ तूफ़ान के रूप में खड़ा कर दिया जाए. यह बिलकुल सही राजनीति थी और हर राजनीतिक पार्टी को अपने लाभ के लिए काम करना चाहिए . आर एस एस की कोशिश थी कि कांग्रेस को भ्रष्टाचार का पर्यायवाची बनाकर पेश कर दिया जाए उसमें उन्हें सफालता भी मिली. वह योजना २०१४ के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को पक्की जीत दिलवाने की रणनीति थी और उसमें सफलता भी मिली. यह अलग बात है कि उसी अन्ना के आन्दोलन  से एक ऐसी शाखा भी निकल पडी जो आज आम आदमी पार्टी के रूप में दिल्ली की सरकार पर काबिज़ है और बीजेपी के लिए बड़ी चिंता का कारण है. अन्ना हजारे के उसी आन्दोलन के बाद  नरेंद्र मोदी की जीत वाला २०१४ का  चुनाव हुआ. नतीजा सामने  है . बीजेपी सत्ता में विधिवत काबिज़ है .लेकिन यह सरकार अपने ज्यादातर वायदे पूरी करने में नाकाम रही है . यह अलग बात है कि बीजेपी वाले यह दावा करते रहते हैं कि उन्होंने अपने अस्सी प्रतिशत वायदे पूरे कर दिए  हैं .

भ्रष्टाचार का खात्मा करने और देश को अच्छे दिन के वायदे के साथ आई सरकार आज देश की आर्थिक राजधानी में चौतरफा निराशा का सबब  बनी हुई है .  देश को आर्थिक मंदी के मुहाने पर ले जाने वाली इस सरकार से देश को बहुत उम्मीद थी  लेकिन इस सरकार ने आर्थिक क्षेत्र के विद्वान व्यक्तियों को एक एक करके विदा कर दिया . रघुराम राजन , अरविन्द पनगढ़िया, अरविन्द सुब्रमण्यम , उर्जित पटेल जैसे लोग आज  देश की अर्थव्यवस्था के प्रबंधन से बाहर हो चुके  हैं. जिन लोगों के पास देश की आर्थिक स्थिति को सुधारने की ज़िम्मेदारी है वे समझ ही नहीं पा रहे हैं कि क्या करना है . पिछले बजट की सारी बातें सरकार पलट चुकी है . किसी की समझ में नहीं आ रहा है कि जाना किधर है . जो भी स्कीमें  वित्त प्रबंधन के लिए लाई जाती हैं उनसे नुकसान ज़्यादा हो रहा है . रियल एस्टेट में आयी तबाही के कारण देश के मध्यवर्ग के बड़े लोगों के सपने टूट चुके हैं . हालांकि  नोटबंदी की घोषणा करते समय प्रधानमंत्री ने साफ़ कहा था कि आम आदमी को घर खरीदने में सुविधा होगी  . ऐसा  नहीं हुआ .रियल एस्टेट के कारोबार के  बर्बाद के हो जाने के बाद उसमें  फिर से जान फूंकने के लिए सरकारी खजाने से  बहुत बड़ी रक़म देनी  पड़ रही है .

आज स्थिति यह है कि आर्थिक कमजोरी को ठीक करने के लिए कोई दवा काम नहीं आ रही है . सरकार आर्थिक मोर्चे पर फेल हो चुकी है . उस हालत में जब कोई भी दवा काम नहीं कर रही है तो दुआ के अलावा कोई रास्ता नहीं है . मेरे  बचपन में भी ऐसा ही होता था . गाँव में चारों तरफ खुशी का माहौल रहता था जब तक कोई बीमार न पड़ जाये. बीमार होने पर इलाज़ की सुविधा न के बराबर होती  थी. आजादी के बाद  विकास की इकाई के रूप में ब्लाक को स्थापित किया जा चुका था. नेहरू के विज़न का नतीजा  था कि हर ब्लाक में  छोटे  छोटे सरकारी अस्पताल खुल गए थे और उन अस्पतालों में मामूली बीमारियों का इलाज मुफ्त में ही हो  जाता था लेकिन अगर बीमारी वहां नहीं संभल सकती थी तो जिला अस्पताल रेफर कर दिया जाता था . वहां भी इलाज मुफ्त  ही होता था लेकिन जिला अस्पताल जाना ही लोगों के लिए पहाड़  होता था . ऐसी हालत में गाँव के बड़े बुज़ुर्ग कहते थे कि ,अब  इनकी सेहत दवा से नहीं दुआ से ठीक होगी . फिर दुआ ही का रास्ता बचता था . आज अपनी अर्थव्यवस्था की हालत वैसी ही हो गयी है . जब नरेंद्र मोदी ने २०१४ में सत्ता संभाली तो देश की आर्थिक स्थिति ढलान पर थी . माहौल ऐसा बना कि डॉ मनमोहन सिंह की सरकार की विदाई हो गयी . एक नई सरकार आ गयी . किसी भी सरकार का ज़िम्मा  आर्थिक स्थिति को सुधारना होता है लेकिन मौजूदा सरकार उस मोर्चे पर फेल हो गयी है . सरकारी प्रवक्ता और उनकी पार्टी के नेता कहते हैं कि सरकार ने काम भी किया लेकिन  आज छः साल बाद स्थिति  यह है कि देश की आर्थिक स्थिति लगातार खराब हो रही है . . 
अभी विश्व बैंक के आंकड़े आये हैं . विश्व बैंक ने चालू वित्त वर्ष 2019-2020 में भारत के लिए पांच प्रतिशत विकास दर का अनुमान लगाया है और भारत के जीडीपी विकास दर के अनुमान को घटा दिया है। वर्ल्ड बैंक के अनुसार मौजूदा वित्त वर्ष 2019-2020 में भारत की जीडीपी में विकास की दर फीसदी रह सकती है.विश्व बैंक का अनमान है कि भारत से तेज विकास दर बांग्लादेश की होगीजहां इस वित्त वर्ष जीडीपी में प्रतिशत रहेगी .  
हमारे अपने सरकारी आंकड़ों में भी देश के आर्थिक भविष्य की बहुत ही मुश्किल तस्वीर पेश की गयी है .केंद्र सरकार के केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (CSO) द्वारा जारी पूर्वानुमान में भी कहा गया है कि चालू वित्त वर्ष 2019-2020 में देश की जीडीपी में  5 फीसदी का विकास होगा . सीएसओ के अनुसार  2019-20 में सकल घरेलू उत्पाद (GDP) पांच फीसदी रहेगी इतनी बीरी हालत  11 साल में पहली बार हुयी है .यह आंकड़े लगातार गिर रहे  हैं क्योंकि 2018-19 में जीडीपी की  विकास दर 6.8% उसके पहले वाले साल 2017-18 में जीडीपी की विकास  दर 7.2 प्रतिशत थी . 
भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में  अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुमान भी कोई बहुत अच्छे नहीं   हैं . आई एम  एफ की  मैनेजिंग डायरेक्टर क्रिस्टालिना जियोर्जिवा ने कहा कि भारत ने बुनियादी चीजों पर बेहतर काम किया है लेकिन अर्थव्यवस्था से जुड़ी कई ऐसी समस्याएं हैं जिसका हल करना जरूरी है. खास तौर पर नॉन-बैंकिंग क्षेत्र में हालात बेहतर करने की जरूरत है.
आर्थिक स्थिति की इस मंदी के बीच सरकार का कोई भी आदमी अर्थव्यवस्था की इस खस्ता हालत को स्वीकार करने के लिए तैयार  नहीं है . सत्ताधारी दल के किसी भी  कार्यकर्ता से बात करिए तो वह ऐसे मुद्दों की बात करने लगेगा जिसके कारण अर्थव्यवस्था में कोई लाभ नहीं होता लेकिन भावनात्मक मुद्दों को हवा मिलती है . सवाल यह है कि भावनातमक मुद्दों से कब तक देश चलेगा . अर्थव्यवस्था को दुरुस्त करना सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए .

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