Thursday, January 9, 2020

डी पी त्रिपाठी की याद उनके जाने के दो दिन बाद


शेष नारायण सिंह

१९७३ में सुल्तानपुर शहर में सबसे जीवंत जगह मुझे बस अड्डे के अन्दर मौजूद अखबार की दुकान लगती थी . उसी दुकान पर  इलाहाबाद से छपने वाली एक पत्रिका ,” आगामी कल “ का दर्शन हुआ था . उस  दुकान को चलाने वाले बुज़ुर्ग में बहुत ही  गंभीरता दिखती थी . . मेरे हाई स्कूल के सहपाठी , गया प्रसाद सिंह वकील बन चुके थे और सुल्तानपुर में वकालत करते थे . उनके घनिष्ठ मित्र राज खन्ना से वहीं मुलाक़ात हुयी जो आज तक बहुत ही भरोसे की दोस्ती है . ‘आगामी कल ‘ पत्रिका से राजेन्द्र अरुण, विभूति नारायण राय और देवी प्रसाद त्रिपाठी जुड़े हुए थे .उसी अखबार की दुकान पर देवी प्रसाद त्रिपाठी से पहली बार मुलाक़ात हुयी थी.  जहाँ तक मेरा सवाल है मैंने  किसी अख़बार आदि में पहली बार उसी ,’ आगामी कल ‘  में कुछ लिखा था . उन दिनों डिग्री कालेज में लेक्चरर होना इस बात का  संकेत माना जाता था कि बंदा पढ़ा लिखा होगा . मेरे बारे में भी यही मुगालता और लोगों को था . जिले के उस समय के बड़े समाजवादी नेता  त्रिभुवन  नाथ संडा  थे, वे राज नारायण के दोस्त थे , एस वाई एस के दिनों के हमारे नेता लेकिन १९७३ में सुल्तानपुर के दो बड़े नेता , कामरेड अब्दुल रहमान खान और कामरेड शीतला प्रसाद गुप्त हमारे नेता बन चुके थे. आगामी कल में धंवरुआ में किसानों की जागृति के बारे में कुछ लिख  दिया था मैंने . दर असल स्व अब्दुल रहमान खान किसानों के उस जागरण अभियान के हीरो थे .   उनकी ही बताई हुई  बातों को कलमबंद कर दिया था . देवी प्रसाद त्रिपाठी को वह बहुत पसंद आया था. हालांकि उन दिनों वे कम्युनिस्ट नहीं थे लेकिन आन्दोलन प्रिय तो थे . अब्दुल रहमान खान साहब ने किसानों के जागरण का जो  अभियान चलाया था वह शुद्ध रूप से वामपंथी था. त्रिपाठी जब मेरे कालेज  कादीपुर आये तो मुझसे बात की . लगभग मेरी की उम्र के थे लेकिन मुझसे बहुत ही ज्यादा जागरूक . बाद में जे एन यू गए ,  वहां छात्र संघ के अध्यक्ष हुए और इमरजेंसी में जेल गए . जब बाहर आए तो देश की दूसरी आज़ादी के लिए लड़ी गयी लड़ाई के हीरो थे . कादीपुर के मेरे छात्र रमाशंकर यादव और उनके दोस्त असरार खान त्रिपाठी के बहुत ही प्रिय लोग थे.  असरार खान तो कामरेड अब्दुल रहमान खान के बेटे भी हैं . 

डी पी त्रिपाठी अब चल गए , कैंसर ने उनको लील लिया .उनके अंतिम संस्कार के समय दिल्ली के लोधी रोड पर बहुत लोग आये थे . बड़ी  संख्या में वे लोग थे जिन्होंने १९७० के दशक को डी पी त्रिपाठी के साथ जे एन यू को देश की एक बुलंद संस्था बनने में योगदान किया था . सबकी आंखें नम थीं. सब अपने तरीके से उनको जानते थे . मैं भी जानता हूँ .  DPT के व्यक्तित्व की जो सबसे बड़ी बात मुझे समझ में आयी वह यह कि वह इंसान किसी के बारे में कुछ भी नेगेटिव बात नहीं करता था.लोधी शमशान पर खड़े हुए मुझको  फुटकर  यादें घुमड़ घुमड़ कर आती रहीं. जब अनिल चौधारी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा तो लगा कि बहुत बड़ा सहारा मिल गया है . कुलदीप कुमार को एकदम निराश देखा . इतनी तकलीफ उनके चेहरे पर मैंने कभी  नहीं देखी है . त्रिपाठी ने कुलदीप के बारे में पहली बार मुझे तब बताया था जब वे शिमला में थे . कहा कि ‘इतिहास की पढ़ाई कर रहे हैं लेकिन बहुत ही कुशाग्रबुद्धि हैं ,हिंदी के बहुत अच्छे कवि हैं .‘ जब  कुलदीप कुमार  की बारे में सोचता हूँ , उनकी यह बात हमेशा याद आती रहती है . जब बलराम सिंह को जे एन यू में लाये तो  सबको बताया कि भविष्य को दिशा देगा .  सबके बारे में उनकी एक सकारात्मक राय हुआ करती थी. इमरजेंसी में जेल के दिनों में उनके साथी  हंसराज रहबर, मोहन धारिया, सुरेन्द्र मोहन और चन्द्र शेखर थे . उनके यहाँ मुझको और घनश्याम मिश्र को लेकर जाते थे .  सुरेन्द्र मोहन जी के यहाँ ही पता चला की हंसराज रहबर ने अपनी नज्म , ‘ महफ़िल में बार बार जाने को जी करे’ को  किस  तरह से तोड़ मरोड़ कर पेश किया था और अटल बिहारी वाजपेयी की फरमाइश को पूरी तो कर दिया था लेकिन उसके बाद उन्होंने फिर रहबर जी से कुछ सुनाने की फरमाइश नहीं की . 
जब मैं १९७६ में दिल्ली आया तो त्रिपाठी तिहाड़ जेल में बंद थे . घनश्याम मिश्र मुझको उनसे मिलवाने ले गए . उनकी तारीख थी . आजकल जहां संसद मार्ग  थाना है , वहीं कोर्ट हुआ करती थी. फरवरी का महीना था . लॉन में बैठकर बात हुयी . मुझसे पूछा कि क्या  सोचा है . मैंने कह दिया . कादीपुर की नौकरी  छूट चुकी है . शादी हो गयी है , एक बेटा है . कोई छोटी मोटी नौकरी करके गुज़र करना है . उन्होंने साफ़ कह दिया  कि भूल जाइए . कोई छोटी मोटी नौकरी नहीं मिलेगी .फिर से पढ़ाई कीजिये और इमरजेंसी ख़त्म होने का इंतज़ार कीजिये . उसके बाद ही कुछ सोचिये . उसके बाद जेल से जब भी तारीख पर आये, मुलाकातें होती  रहीं. जेल से बाहर आने के बाद प्रो पुष्पेश पन्त से बात करके मुझे उनके केंद्र में में ही दाखिला दिलवा दिया लेकिन मेरा मन नहीं था पढ़ाई का . मेरा बेटा दो साल का होने वाला था . मुझे तो कुछ कमाकर गहर भेजना था . 
जेल से आने के बाद  त्रिपाठी की राजनीतिक हैसियत बहुत बढ़  चुकी थी .जनता पार्टी सरकार के  कई मंत्री उनके  दोस्त थे . मोहन धारिया से कहकर मुझे उन्होंने एक  प्राइवेट कंपनी में लगवा दिया लेकिन साथ ही यह वार्निंग भी दे दी थी कि कर नहीं पाओगे . लिखने पढ़ने का काम करो . उसी दौर में सर्वोदय एन्क्लेव में मिला हुआ मेरा घर उनका कैम्प कार्यालय भी हो गया था . ऐसी बहुत सी बातें हैं जो कल से आजतक घूम घूम कर  याद आती जा रही हैं . दिल्ली में मैंने बाद में पत्रकारिता आदि के क्षेत्र में जो भी किया उसके लिए मैं देवी  प्रसाद त्रिपाठी का आभारी रहूंगा . 
इमरजेंसी में जेल जाने के पहले डी पी टी ने जे एन यू यूनियन के अध्यक्ष पद का चुनाव जीता था . वहां से रिहा होने के बाद भी   अध्यक्ष रहे लेकिन फरवरी में ही यूनियन का चुनाव करवाने के लिए अड़ गए और सीताराम येचुरी एस एफ आई के उम्मीदवार बने .  उस चुनाव का प्रचार भी क्या हंगामी था .उसी चुनाव में अनिल चौधरी को उन्होंने ज़िम्मा दिया कि शेष नारायण को सही तरीके से एजुकेट करना है . काफी सामंती तत्व इनके दिमाग में हैं . उनको  निकालना है . अनिल ने ही मुझे अवधी लहजे में शिक्षित किया .उस चुनाव के समय मैं जे एन यू में नहीं था. लेकिन चुनाव में काम किया . अशोक लता जैन, उषा मेनन और अनिल  चौधरी मुझे डिक्लास कर  रहे थे . चुनाव अभियान में मुझे सीढ़ी और एक  कनस्तर में लेई लेकर उन लोगों के साथ चलना होता था जो पोस्टर लगाते  थे . यह काम रात में होता था . घनश्याम मिश्र पोस्टर लेकर चलते थे . दिलीप उपाध्याय, साईनाथ आदि कैम्पस की  दीवालों पर पोस्टर लगाते थे .यह सभी लड़के   हमसे और घनश्याम से उम्र में कम थे लेकिन  हम सीढ़ी कंधे पर टाँगे चलते थे . डिक्लास होने के कोर्स में जाति , धर्म, उम्र , आदि के सभी बंधन तोड़ने पड़ते थे . उसी डिक्लास होने के चक्कर में बर्तन आदि  मांजने का काम भी करवाया गया . शादी के बाद प्रबीर और अशोकलता जैन  वसंत विहार के ए ब्लाक की कोठी नंबर १५ के स्टाफ क्वार्टर में किराए पर रहते थे . एक दिन अनिल चौधरी ने कहा कि उनके यहाँ दावत में जाना है . हम चले गए . पता लगा कि चौधरी साहब को वहां खाना बनाना भी है . हम उनके सहायक की भूमिका में थे . रात १२ बज गया . वापसी  पैदल ही हुयी.बाद में  त्रिपाठी ने बताया कि अब सब ठीक है , आप इंसान बन  गए हैं . उसी  दौर में जब मैंने एकाध बार अभिलाषा सिंह को राजकुमारी कह दिया तो बहुत खफा हुए और  समझाया कि ऐसा कहना अभिलाषा का अपमान है . वे  बहुत ही शालीन और वैज्ञानिक सोच वाली  हैं .  सामन्ती चोले को तिलांजलि दे चुकी हैं . 

लालचंद उनके बहुत ही प्रिय थे . हिंदी में एम ए करने आये थे और त्रिपाठी उनके लिए सबसे अच्छी बातें करते थे . मैंने पचास साल से ज्यादा की अपनी त्रिपाठी की दोस्ती में उनको कभी नेगेटिव बात करते नहीं देखा .  जे एन यू और सी पी एम की राजनीति में आला मुकाम हासिल करने के बाद दिल्ली छोड़कर इलाहाबाद  जाना और वहां विश्वविद्यालय में उनका शिक्षक होना एक ऐसी पहेली है जो बहुत दिनों तक समझ में नहीं आयी थी लेकिन जब वे राजीव गांधी के ख़ास सलाहकार बने तब उन्होंने उस गुत्थी को भी अर्थाया . राजीव के करीबी के रूप में मैंने उनके पंचशील एन्क्लेव और डिफेंस कालोनी के घरों में  उनकी दिनचर्या को देखा है . बड़े बड़े मंत्री उनके  यहाँ दरबार लगाया करते थे . उन दिनों घनशयाम मिश्र सुल्तानपुर में लेक्चरर हो कर जा चुके थे. मुझसे एक दिन कहा कि उसको कहो कि दिल्ली अक्सर आया करे लेकिन घनश्याम  वहीं मस्त थे. घनश्याम के जाने के बाद त्रिपाठी के सबसे करीबी और विश्वसनीय कुमार नरेंद्र सिंह रहे जो जीवन भर उनके साथी और सखा रहे .  
जब एक अखबार में काम करने के दौरान मुझे एडिट पेज पर काम करने का मौक़ा मिला तो त्रिपाठी कांग्रेसी थे लेकिन कहा कि विचारधारा के स्तर पर मार्क्सवादी सोच ही सुपीरियर है. राजेन्द्र शर्मा से संपर्क में रहो और आज का ( १९९३ )जो सर्वोच्च लेखन है उसको छापो उससे बड़ा नाम होगा . सी पी चंद्रशेखर , जयती घोष, प्रभात  पटनायक ,  राजेन्द्र शर्मा , सीताराम येचुरी उसी दौर में मेरे सम्पादकीय पृष्ठ पर विराजते थे . इन सबको बैलेंस करने के लिए मैंने इशर जज अहलुवालिया से भी लिखवाया . उन दिनों मुझसे बहुत खुश रहते थे . एक दिन मुझसे कहा कि मनमोहन का लेख ,” फैज़ की शायरी - गुरुरे इश्क का बांकपन “ पढ़ो. तब तक मैं  टेलिविज़न में चर्चावीर हो चुका था . मनमोहन का लेख उनको बहुत पसंद था .  अपने फीरोज़ शाह रोड वाले घर पर बैठकर मुझसे पढवाया . फैज़ से भी उनकी आत्मीयता रही होगी क्योंकि जब १९७८ में फैज़ दिल्ली आये थे तो उनकी एक बड़ी बैठकी जाकिर हुसेन मार्ग पर डॉ आई पी सिंह के घर पर हुयी थी . भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में पाकिस्तान-इरान-अफगानिस्तान डेस्क के इंचार्ज के रूप में डॉक्टर साहेब ने फैज़ की यात्रा को आसान  बनाया था. अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री थे और आई पी सिंह उनके खास थे , वे जौनपुर के थे और  मेरा भी उनके यहाँ आना जाना था. मैं त्रिपाठी के साथ वहां गया था  . डॉ आई पी सिंह के ४७ नंबर वाले घर के लॉन में मैंने डी पी त्रिपाठी को  फैज़ से  फैज़ की शायरी पर बात करते देखा है . फैज़  उनसे बात करके बहुत खुश हुए थे .
उनके गाँव के ही केदारनाथ सिंह इंदिरा गांधी की सरकार में मंत्री थे. कांग्रेस के बड़े  नेता भी थे . हमारे दोस्त , राजेन्द्र सिंह के बाबूजी थे तो हम लोग उनसे थोड़ी समानजनक दूरी बनाकर रखते थे लेकिन उनसे त्रिपाठी की बातचीत बिलकुल दोस्ताना माहौल में होती थी .  त्रिपाठी को मैंने राजीव गांधी फाउंडेशन के एक  कार्यक्रम में डेसमंड टूटू और नेल्सन मंडेला से भी बात करते देखा है . उनकी शख्सियत की जो  सबसे बड़ी बात थी वह यह वे  किसी भी इंसान से intimidate नहीं होते थे .केदारनाथ सिंह से बातचीत के दौरान ही उन्होंने प्रेरणा दी थी कि बच्चों को जे एन यू में भेजिए . उनके बेटे और अब राजनीतिक नेता , अशोक सिंह को जे एन यू में भर्ती करवाने में त्रिपाठी का योगदान था. अशोक उनको और मुझको अपना बड़ा भाई मानते हैं . 
बहुत सारी यादें हैं . लेकिन यह तय है कि उस इंसान के जाने के बाद अंदर से कुछ हिल गया है . सोच रहा हूँ कि  उनके बारे में ज्यादा से ज्यादा से लिखूं तो शायद कुछ चैन पड़ेगा.

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