शेष नारायण सिंह
( उर्दू इन्किलाब के लिए )
बहुत अरसा हुआ मजाज़ लखनवी ने हिंदुस्तान की औरतों का आवाहन किया था कि तेरे माथे पे ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन,तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था . बात आयी हो गयी . लेकिन आज उन औरतों ने बात को दिल पे ले लिया है . दिल्ली के शाहीन बाग़ में करीब एक महीने से कुछ औरतें धरने पर बैठी हैं . नागरिकता एक्ट १९५५ में हुए संशोधन के खिलाफ दिसंबर २०१९ में केंद्र सरकार के खिलाफ जामिया विश्वविद्यालय में छात्रों का विरोध प्रदर्शन हुआ था . पुलिस ने कैम्पस और पुस्तकालय में घुसकर छात्रों पर हिंसक हमला किया था . उस सरकारी ज्यादती के खिलाफ देश भर में विरोध हुआ . जामिया के शाहीन बाग़ में भी कुछ महिलाएं विरोध करने के लिए जमा हो गयी थीं . उनको शायद उम्मीद थी कि सरकार उनसे बातचीत करेगी और जामिया में पुलिस की ज्यादती के खिलाफ कोई कार्रवाई करेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ . वह धरना नागरिकता कानून १९५५ में ही संशोधन के खिलाफ एक आन्दोलन की शक्ल ले चुका है और आज पूरी दुनिया में शाहीन बाग़ की औरतों के आन्दोलन का नाम जाना पहचाना जा रहा है . वे पर्दानशीं ख़वातीन जो मजाज़ की अपील से आगे नहीं आई थीं , जो औरतें कैफ़ी आज़मी के आवाहन को कभी का नज़रंदाज़ कर चुकी थीं , वे आज मैदान ले चुकी हैं . कैफ़ी ने जंगे आज़ादी के दौरान ही अपील कर दी थी कि
तोड़ ये अज़्म-शिकन, दग़दग़ा-ए-पंद भी तोड़
तेरी ख़ातिर है जो ज़ंजीर वो सौगंद भी तोड़
तौक़ ये भी है ज़मुर्रद का गुलू-बंद भी तोड़
तोड़ पैमाना-ए-मर्दान-ए-ख़िरद-मंद भी तोड़
बन के तूफ़ान छलकना है उबलना है तुझे
लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा था . लेकिन आज जब केंद्र सरकार ने भारतीय जनमानस के एकता को तोड़ने की गरज से उनकी नगरिकता के सवाल को बहस की ज़द में ला दिया है तो और उठ खडी हुई हैं . उनको माम्लूम हैं कि ,” औरतें उट्ठी नहीं तो ज़ुल्म बढ़ता जाएगा “ आज दिल्ली के शाहीन बाग़ में औरतों की क़यादत में एक सियासी ताक़त ने कूच कर दिया है और उनकी अज्म को देखकर लगता है कि अब उनके डेरे मंजिल पर ही डाले जायेंगे. शाहीन बाग़ में धरने पर बैठी औरतें इतिहास लिख रही हैं. पूरे देश में उनकी बात को समझने के लिए लोग तैयार बैठे हैं और अब लगता है कि सरकार की समझ में धीरे धीरे ही सही आने लगा है कि गरीब आदमी के अस्तित्व को सवालों को घेरे में लाने की उनकी गलती उनके लिए बहुत ही मुश्किल पैदाकर चुकी है . शाहीन बाग़ के महिलाओं का आन्दोलन इस देश के इतिहास में एक बहुत ही महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना बन चुका है . महात्मा गांधी के सत्याग्रह के प्रयोग को शाहीन बाग़ के ज़रिये पूरी दुनिया में नए तरीके से फैलाया जा रहा है .यह अजीब इत्तिफाक है कि जहाँ शाहीन बाग़ की बस्ती आबाद है वह गांधी जी की याद से जुड़ा हुआ विश्वविद्यालय है .यहाँ १९३५ तक यमुना के किनारे बसा हुआ एक बहुत ही छोटा सा गाँव ओखला हुआ करता था. महात्मा गांधी की प्रेरणा से स्थापित जामिया मिलिया को यहाँ डॉ जाकिर हुसैन १९३५ में लाये . उसके पहले जामिया मिलिया का कैम्पस दिल्ली के करोल बाग़ में हुआ करता था . वहां जगह बहुत कम थी इसलिए १९३५ में इसे ओखला लाया गया. यहाँ ज़मीन आसानी से उपलब्ध हो गयी .महात्मा गांधी ने जब १९२० के आन्दोलन के दौरान अंग्रेजों की शिक्षा संस्थाओं के बहिष्कार का आवाहन किया तो जामिया मिलिया इस्लामिया , काशी विद्यापीठ ,गुजरात विद्यापीठ जैसी कुछ संस्थाओं की स्थापना हुई. जामिया की स्थापना तो मूल रूप से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कैम्पस में ही कर दी गयी थी . देवबंद के मौलाना महमूद हसन ने महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन में बहुत ही बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था. उस आन्दोलन का मुस्लिम लीग और जिन्ना ने विरोध किया था लेकिन मौलाना साहब के साथ होने के कारण पूरे देश में बड़ी संख्या में मुसलमानों ने जिन्ना का विरोध किया और गांधी के साथ हो गए .आज़ादी की लड़ाई में इतने बड़े पैमाने पर मुसलमानों के शामिल होने के बाद ही अँगरेज़ हुक्मरान को लग गया था कि हिन्दू-मुस्लिम इत्तिहाद उनकी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए लामबंद हो चुका है . उसी घबडाहट के दौर में अँगरेज़ ने अपने ख़ास लोगों की मदद से कुछ ऐसे संगठन तैयार किये जो हिन्दू और मुसलमान के बीच झगडे करवा सके . उसी राष्ट्रप्रेम की आंधी के दौर में में जामिया मिलिया इस्लामिया की स्थापना की गयी थी . इसलिए जामिया को भारत की आज़ादी के आन्दोलन की एक पवित्र संस्था के रूप में याद किया जाता है क्योंकि यह आजादी की लड़ाई की धरोहर है .
जामिया मिलिया इस्लामिया की स्थापना करने वालों में शैखुल हिन्द मौलाना महमूद हसन ,मौलाना मुहम्मद अली जौहर , हकीम अजमल खान , डॉ मुख़्तार अंसारी, ख्वाजा अब्दुल मजीद और डॉ जाकिर हुसैन प्रमुख थे . जामिया की स्थापना १९२० में हो गयी थी लेकिन अपना कैम्पस नहीं था . १९२५ में हकीम अजमल खां के सौजन्य से जामिया को करोल बाग़ में जगह मिल गयी लेकिन वह बहुत छोटी जगह थी . जब डॉ जाकिर हुसैन साहब इस विश्वविद्यालय को उस वक़्त के ओखला गाँव में लाये तब खूब जगह मिली और आज यूनिवर्सिटी खासी बड़ी जगह में है . शुरू में तो यहाँ जामिया के स्टाफ के लोगों ने ही घर आदि बनवाए लेकिन आज यह मुसलमानों की एक बड़ी आबादी है . उसी आबादी में शाहीन बाग़ भी एक मोहल्ला है . इसलिए शाहीन बाग़ में जो महिलाएं आज इकठ्ठा हुई हैं वे महात्मा गांधी की आज़ादी के लड़ाई वाली उसी विरासत का हिस्सा हैं. डॉ जाकिर हुसैन कहा करते थे कि जामिया मिलिया इस्लामिया वास्तव में शिक्षा और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के एक संघर्ष का आन्दोलन है . उन्होंने दावा किया था कि यह भारतीय मुसलमानों के लिए एक ब्लूप्रिंट तैयार करेगा जिसके केंद्र में तो इस्लाम होगा लेकिन वह सभी भारतीयों के लिए एक राष्ट्रीय संस्कृति के विकास का मार्ग तय करेगा ." उसी राष्ट्रीय संस्कृति के केंद्र में आज महात्मा गांधी के सत्याग्रह के तरीकों का इस्तेमाल करते हुए इतना बड़ा आन्दोलन खडा हो गया है कि स्थापित सत्ता की समझ में नहीं आ रहा है कि स्थिति को कैसे संभाला जाए .
शाहीन बाग़ का धरना शुरू हुए एक महीने से ऊपर हो गया है . उसी की प्रेरणा से देश के बहुत सारे शहरों में नागरिकता संशोधन विधेयक ( सी ए ए )के खिलाफ औरतों के धरने शुरू हो चुके हैं .इलाहाबाद , मुंबई , कोटा , बेगूसराय, पटना , भोपाल , कोलकता आदि में शाहीन बाग़ की तर्ज पर लोग जमा हो रहे हैं और विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं . सरकार की कोशिश है कि आन्दोलन को अब शान्ति पूर्वक समाप्त किया जाये लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है . दिल्ली के जामा मस्जिद, सीलम पुर और जामिया में शुरू हुए सी ए ए के विरोध को ख़त्म करने के लिए बल प्रयोग करने और उसे मूल रूप से मुसलमानों का आन्दोलन साबित करने की सरकार की कोशिश उल्टी पड़ चुकी है . अब यह साबित हो चुका है कि आन्दोलन केवल मुसलमानों का नहीं है बल्कि सभी धर्म और समुदाय के लोग इसमें शामिल हैं . सबसे दिलचस्प बात यह है कि सी ए ए के विरोध में हुए आन्दोलन ने एक बार फिर पूरी ताक़त से स्थापित कर दिया है कि सत्ता का विरोध करने के लिए असहयोग और सत्याग्रह नाम के जो हथियार महात्मा गांधी ने दिया था वे अभी भी उतने ही कारगर हैं जितने तब थे . सत्ता की तोप बन्दूक के सामने निहत्थे इंसान की ताकत का इस्तेमाल का गांधी जी का जो तरीका था ,अब पूरी दुनिया में सफलता पूर्वक अपनाया जा रहा है . सत्ता की दौड़ में शामिल भारतीयों में एक तरह का शक पैदा हो रहा था कि कहीं गांधी जी के हथियार भोथरे तो नहीं हो रहे हैं . शाहीन बाग़ की निहत्थी औरतों ने उसको एक बार फिर सही सन्दर्भ में रख दिया है .
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