Wednesday, December 30, 2020

कोरोना के बाद तर्जे-हुकूमत में बदलाव की सम्भावना और उसकी दिशा

 

 

 


शेष नारायण सिंह

 

2020 बीत गया . इतना बुरा साल मैंने अपने जीवन में कभी  नहीं देखा था .दुनिया भर में कोरोना वायरस का  आतंक था . भारत में इस महामारी से बचाव की तैयारी थोडा विलम्ब  से शुरू हुई. जब अमरीका में कोरोना बढ़ चुका था तब तक भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्री मानने को तैयार नहीं थे  कि अपने देश में कोई ख़तरा है .  11 मार्च 2020 को स्वास्थ्यमंत्री डॉ हर्षवर्धन ने  बयान दिया कि देश में कोई मेडिकल इमरजेंसी नहीं है . हालांकि उसी हफ्ते प्रधानमंत्री ने जनता कर्फ्यू की घोषणा की थी . बाद में 21 दिन का पूर्ण लॉक डाउन घोषित किया गया .आज जब पीछे मुड़कर देखते हैं तो लगता है कि काश सरकार समय रहते चेत गयी होती तो कोरोना से जो तबाही आई है उसको कम किया जा सकता था . बाद में तो सरकार ने चेतावनी और सावधानी की अपील करना शुरू कर दिया .  स्कूल कालेज बंद किये गए .ट्रेनें रद्द  की गईं . लेकिन सत्ताधारी पार्टी के कुछ लोग तरह तरह की  मूर्खताओं के ज़रिये दुनिया भर में देश के शासक वर्ग की खिल्ली  उड़वाते  रहे . सत्ताधारी  दल के समर्थक एक बाबा ने गौमूत्र की एक पार्टी आयोजित की . उसमें बहुत सारे लोग शामिल हुए और  कैमरों के सामने गौमूत्र पिया लेकिन उसपर कोई कार्रवाई नहीं हुई. अब तो साल बीत चुका है लेकिन कोरोना की चिंता बरकरार है , आर्थिक मोर्चे पर  भारी नुकसान हो  चुका है ,, स्वास्थ्य सेवाओं की कठिन  परीक्षा हो रही है . घर में बंद लोगों और बच्चों को तरह तरह की मानसिक प्रताडनाओं से गुजरना पड़ रहा है . ब्रिटेन से चलकर कोरोना का एक नया स्ट्रेन आ गया है . चौतरफा डर और दहशत का  आलम है .कोरोना के कारण किसी न  किसी प्रियजन की मृत्यु हो चुकी है . मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से यह साल बहुत ही बुरा रहा है . मेरे शुभचिंतक ललित सुरजन की मृत्यु मेरे लिए एक निजी आघात है . पिछले सात आठ वर्षों में मैंने जो भी अच्छी किताबें पढी हैं उनका ज़िक्र ललित जी ने ही किया था . मुझसे करीब चार साल  बड़े थे लेकिन सही अर्थों में बड़े भाई की भूमिका थी उनकी.  मैं उनके अखबार में काम करता हूँ लेकिन एक कर्मचारी के रूप में उन्होंने मुझे कभी नहीं देखा . उनकी विचारधारा लिबरल और डेमोक्रेटिक थी . सबको अवसर देने के पक्षधर थे . सामाजिक  पारिवारिक संबंधों को निभाने के जो सबसे बड़े मुकाम हैं ,ललित जी वहां विराजते थे . कोरोना काल में जब उनके कैंसर का पता चला तो विमान सेवाएँ बंद थीं. रायपुर में  कैंसर के इलाज की  वह व्यवस्था नहीं थी जो दिल्ली या मुंबई में उपलब्ध है  . उनके बच्चे उनको चार्टर्ड विमान से दिल्ली लाये. बीमारी की हालत में भी वे लगातार अपना काम करते रहे, लिखते रहे और पोडकास्ट के ज़रिये अपनी कवितायें देश को सुनाते रहे . कैंसर से मुक्त होने की दिशा में चल पड़े थे . उम्मीद हो गयी थी कि फिर सब कुछ पहले जैसा ही हो जाएगा  लेकिन  एकाएक  ब्रेन स्ट्रोक हुआ और बीती दो दिसंबर को चले गए . ललित सुरजन की मृत्यु का घाव 2020 का वह  घाव है  जो अगर भर भी गया तो निशान गहरे छोड़ जाएगा . मेरे मित्रों में राजीव  कटारा, दिनेश तिवारी , मगलेश डबराल कुछ ऐसे लोग इस मनहूस साल में छोड़ गए जिनकी कमी हमेशा खलेगी .

 

ग्रेटर नोयडा की अपनी कॉलोनी  से मैंने हज़ारों  मजदूरों को पैदल अपने  गाँव जाते देखा है . उन लोगों के दर्द को बयान करने की मैंने कई बार कोशिश की  है लेकिन बयान नहीं कर पाया . उन मजदूरों के पलायन के कुछ बिम्ब तो ऐसे हैं  जिनके बारे में अगर रात में याद आ जाये तो नींद नहीं  आती.  जिन तकलीफों से लोग घर गए हैं उसमें सरकारी गैरजिम्मेदारी साफ़ नज़र आती  है. अगर सरकार ने थोडा दिमाग लगाकर योजना बनाई होती तो शायद उतना बुरा न होता ,जितना हुआ . जो लोग  अपने घर नहीं गए , यहीं  रह गए उनके खाने पीने की जो तकलीफें हैं उनकी भी याद शायद ही  भुलाई जा सके . सरकारी राशन का इंतजार करते लोग, एकाध दर्ज़न केला देकर उनके साथ फोटो खिंचवाते असहिष्णु नेता , गरीबों के लिए आये राशन से चोरी करते छुटभैया नेता इस साल के कुछ ऐसे दृश्य हैं जो किसी को भी  विचलित कर  देगें .

 

कुछ बातें सकारात्मक भी हुई हैं .कोरोना के संकट के दौर में डरे हुए लोगों ने कुछ ऐसे काम भी किये हैं जिनको अगर जीवन की पद्धति में ढाल लें तो उनका अपना और समाज का बहुत भला होगा .  खामखाह बाज़ारों में घूमना बंद हुआ  है, शादी ब्याह के नाम पर फालतू के खर्च पर भी नियंत्रण देखा गया है . धार्मिक आयोजनों में जो भीड़  जुटाई जाती थी उसपर भी लगाम लगी  है . और भी बहुत सी सामाजिक आर्थिक बुराइयों से लोगों किनारा किया है .अगर लोग इसी को अपनी जीवन शैली के रूप में अपना लें तो चीजें सुधरेंगी .इस कोरोना काल में  जो सबसे ज़रूरी बात हुई  है वह यह कि स्वस्थ रहने को प्राथमिकता देने की जो तमीज कोरोना ने सिखाई है उसको अगर लोग अपनी आदत में शामिल कर  लें उसको स्थाई करने की ज़रूरत है . कोरोना की दहशत का नतीजा यह था कि लोग संभलकर रहे , ऊलजलूल चीज़ें नहीं खाईं और बहुत  लोगों से मिलना जुलना नहीं रखा . शायद इसी वजह से  इस साल वे  तथाकतित सीज़नल  बीमारियाँ नहीं हुईं.  खाने पीने में भी लोगों ने किफ़ायत बरती , फालतू की खरीदारी नहीं हुई शापिंग के शौक़ पर भी लगाम लगी रही . कोरोना के संकट के दौरान  मजबूरी में  सीखी गयी इन बातों का पालन करने से बहुत फायदा हो सकता है .

  वैश्विक स्तर पर 2020 में लोकतांत्रिक मूल्यों का जो ह्रास हुआ है वह अपना स्थाई प्रभाव छोड़ने वाला है .  दुनिया भर में तानाशाही ताकतें मज़बूत हुई हैं .  आज दुनिया में कम से कम पचास देश  ऐसे हैं जहां सत्ता पर  तानाशाहों का क़ब्ज़ा है. बहुत सारे शासकों के बीच तानाशाही प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं. साफ़ नज़र आ रहा है कि चुनाव  के वर्तमान तरीके लिबरल डेमोक्रेसी की स्थापना में नाकाम हो रहे  हैं . तुर्की का  उदाहरण दिया जा सकता  है .  वहां का शासक बाकायदा चुनाव जीतकर आया है लेकिन काम तानाशाहों वाला कर रहा है . ब्राजील में भी यही हाल है . असली या काल्पनिक संकट के नाम पर तानाशाही प्रवित्ति वाले सात्ताधीश मनमानी  करने लगते  हैं. कहने का मतलब यह है कि मौजूदा चुनाव पद्धति  सही अर्थों में लोकशाही निज़ाम  कायम करने में असफल साबित हो रही है .

 

राजनीतिक इतिहास पर  डालने पर पता चलता है कि  किसी भी राजनीतिक विचारधारा पर आधारित कोई भी शासन पद्धति  सत्तर साल के आसपास ही चल पाती है .1917 में लेनिन की अगुवाई में रूसी क्रान्ति हुयी थी लेकिन सत्तर साल बीतते बीतते वह सत्ता और राजनीति की एक कारगर विचारधारा के रूप में फेल हो गयी .बोल्शेविक क्रान्ति की विचारधारा पेरेस्त्रोइका और ग्लैसनास्त की बलि चढ़ गयी . जो वामपंथी विचारधारा आधे यूरोप और एशिया के एक हिस्से में राजकाज की विचारधारा थी ,वह खतम हो गयी . आज कहने को तो चीन में वामपंथी विचारधारा है लेकिन वह मार्क्सवाद के बुनियादी   सिद्धांतों से परे है.    शी जिनपिंग अपने को आजीवन तानाशाह पद पर स्थापित कर लिया है . आज जो  भी शासन व्यवस्था चीन में है वह आम आदमी के लिए तानाशाही  व्यवस्था ही है . सर्वहारा का अधिनायकत्व उसमें कहीं नहीं है .रूसी क्रान्ति के बाद लोकतंत्र के ज़रिये  सत्ता पाने का सिलसिला दूसरे विश्वयुद्ध के बाद शुरू  हुआ . दुनिया भर फैले राजशाही , तानाशाही और उपनिवेशवादी सत्ताधीशों के खात्मे का दौर शुरू हो गया . एशिया और अफ्रीका में गुलाम देशों की आजादी की बाढ़ सी आ गयी थी .आज की जो चुनाव पद्धति है वह बहुत  सारे  देशों ने उसी कालखंड में अपनाई और उसी के ज़रिये लोकतंत्र की स्थापना की . लेकिन अब सब कुछ बदल रहा है .लोकप्रिय चुनाव के बाद भी बहुत सारे शासक तानाशाह बन रहे हैं .  इसका मतलब यह हुआ कि वर्तमान चुनाव  पद्धति लोकशाही स्थापित करने में नाकाम साबित हो रही है .  इतिहास को मालूम है कि  फ्रांसीसी क्रान्ति के बाद यूरोप में सामंती व्यवस्था पर कुठाराघात हुआ था  और औद्योगिक क्रान्ति का प्रादुर्भाव हुआ था , लोगों में बराबरी की संस्कृति का विकास हुआ लेकिन शताब्दी बीतने के साथ साथ राजनीतिक परिवर्तन की बातें माहौल में आना  शुरू हो गयी थीं. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद भी बड़े बदलाव हुए थे . कोरोना ने भी  दुनिया भर की आर्थिक हालात पर ज़बरदस्त असर डाला है , इसके बाद भी बड़े बदलाव की   आहट साफ़ सुनाई पड़ रही है . शुरुआती दौर में चुनकर आये सत्ताधीशों की प्राथमिकता  जनकल्याण हुआ करती थी . लेकिन कोरोना काल में देखा जा रहा है कि चाहे तुर्की का अर्दोगन हो या चीन का शी  जिनपिंग  , सभी अपने आपको  शासन पद्धति  के केंद्र में रखने की  कोशिश कर रहे हैं .  यहाँ तक कि अमरीका में भी शासक में स्थाई  होने की बीमारी जोर पकड चुकी है .डोनाल्ड ट्रंप चुनाव हार चुके हैं लेकिन सत्ता छोड़ने को तैयार नहीं हैं . ज़ाहिर है बदलाव होगा .  बड़ा बदलाव होगा .  आगामी बदलाव दुनिया को किस दिशा में ले जाएगा उसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता . उम्मीद की जानी चाहिए कि निर्वाचित शासकों में जो तानाशाही की प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं ,अगला बदलाव उसको नाकाम करेगा और कोई अन्य बेहतर व्यवस्था  लागू होगी जिसका स्थाई भाव  लिबरल डेमोक्रेसी ही होगा  .

 

 

 

  

 

Monday, December 28, 2020

कांग्रेस नेता के रूप में राहुल गांधी अक्सर गैरजिम्मेदार काम करते रहते हैं

 

 


शेष नारायण सिंह

कांग्रेस के  आला नेता   राहुल गांधी फिर विदेश यात्रा पर चले गए . अक्सर जाते रहते हैं लेकिन इस  बार उनकी विदेश यात्रा बहुत बड़ी उत्सुकता का विषय बनी हुयी है . कांग्रेस की  स्थापना के 135 साल पूरे होने पर   कांग्रेस पार्टी ने एक  बड़े आयोजन की योजना बनाई थी लेकिन कार्यक्रम के ठीक एक दिन पहले राहुल गांधी विदेश निकल लिए . कांग्रेस ने इस बार  स्थापना दिवस को बड़े पैमाने पर मनाने का फैसला इसलिए किया था  कि  दिल्ली की सीमा पर आन्दोलन कर रहे किसानों की समस्याओं को बड़ा मुद्दा बनाना चाहती थी लेकिन पार्टी की योजना धरी की धरी रह गयी और कांग्रेस का आला अफसर यूरोप निकल गया .आज स्थिति यह है कि किसानों का मुद्दा तो पीछे चला गया और आज छोटे बड़े सभी कांग्रेसियों के एक ही सवाल पूछा  जा रहा है कि उनका सबसे बड़ा नेता कहाँ है. कुछ  कांग्रेसियों के अलावा साधारण कांग्रेसी चुप रहने  में ही भलाई समझ रहा है . दिल्ली में कांग्रेस मुख्यालय में आज जब झंडा फहराया जा रहा था तो प्रियंका गांधी से जब पत्रकारों ने उनके  भाई और आला नेता , राहुल गांधी के बारे में पूछा तो उनके पास कोई जवाब नहीं था . बेचारी चुपचाप चली गयीं क्योंकि इस सवाल का क्या जवाब देतीं कि  कांग्रेस के कैलेण्डर में सबसे मह्त्वपूर्ण तारीख के ठीक एक दिन पहले उनके भाई साहब कहाँ  चले  गए हैं . राहुल गांधी के क़रीबी और कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला अपनी शैली में सवालों के जवाब दे रहे हैं कि राहुल गांधी किसी निजी यात्रा पर विदेश चले  गए हैं .

 कांग्रेस ने नई कृषि नीति के खिलाफ आन्दोलन कर रहे  किसानों के साथ अपने आपको जोड़ने की पूरी कोशिश की है . राहुल खुद राष्ट्रपति के यहाँ गए , दो करोड़ किसानों से दस्तखत करवाकर ट्रक में लादे हुए कागजों को मीडिया के सामने पेश किया . हमेशा ही किसानों के साथ सहानुभूति के बयान दिए लेकिन जब किसानों की एक बार फिर केंद्र सरकार से 29 दिसंबर को बात होने वाली  है तो   कांग्रेस पार्टी फिर से रक्षात्मक मुद्रा में आने के लिए मज़बूत कर दी गयी  है . अब कोई भी कांगेसी नेता कोई भी बात करने की कोशिश करेगा तो उससे राहुल गांधी के बारे में ही सवाल पूछा जाएगा . ज़ाहिर है कांग्रेस के सामने अपने कार्यकर्ताओं को मोबिलाइज करने का एक अवसर था  और उसको राहुल  गांधी के विदेश यात्रा के मोह की बलिबेदी पर कुर्बान करना पडा है .

2004 में राहुल गांधी  कांग्रेस पार्टी में औपचारिक रूप से शामिल हुए थे .2013 में कांगेस के जयपुर चिंतन शिविर में कांग्रेस की दरबारी संस्कृति  के मठाधीशों ने उनको पार्टी का उपाध्यक्ष बनवा लिया था . उसी के साथ ही चुनावों में कांग्रेस  पार्टी के  कमज़ोर पड़ने का सिलसिला शुरू  हो गया था . उसके बाद से पार्टी  में उन नेताओं का वर्चस्व बढना शुरू हो गया  जो लुटियन बंगलो ज़ोन की शोभा बढाते हैं  . इनमें से ज्यादातर ज़मीनी मजबूती के कारण नेता नहीं बने हैं . इन सब पर इंदिरा गांधी परिवार की कृपा बरसती रही है और  उसी के इनाम के रूप में यह लोग राजनीतिक सत्ता का लाभ  उठाते  रहते हैं. उसी के साथ ज़मीनी नेताओं को  दरकिनार किये जाने का सिलसिला भी  शुरू हो गया .राहुल गांधी के  नेतृत्व में  कांग्रेस पार्टी में ऐसे लोग बड़े नेता बने बैठे हैं जिसमें कभी पूरे भारत के गाँवों और शहरों से आये  जनाधार वाले नेता कांग्रेस के नीतिगत फैसले लिया करते  थे. .2013 में  संपन्न हुये  जयपुर की चिन्तन शिविर में जब राहुल गांधी को कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनाया गया  उसी दिन से जनाधार वाले नेताओं का  पत्ता कटना शुरू हो गया था .यह अलग बात है कि राहुल गांधी ने उस शिविर में जो बातें कहीं थीं अगर वे लागू हो  गई होतीं तो  कांग्रेस की दिशा  ही बदल गयी  होती. कांग्रेस के उपाध्यक्ष रूप में राहुल गांधी के नाम की घोषणा होने के बाद उन्होंने जयपुर  चिंतन शिविर की समापन सभा में कहा था कि “ हम टिकट की बात करते हैंजमीन पे हमारा कार्यकर्ता काम करता है यहां हमारे डिस्ट्रिक्ट प्रेसिडेंट बैठे हैंब्लॉक प्रेसिडेंट्स हैं ब्लॉक कमेटीज हैं डिस्ट्रिक्ट कमेटीज हैं उनसे पूछा नहीं जाता  हैं .टिकट के समय उनसे नहीं पूछा जातासंगठन से नहीं पूछा जाताऊपर से डिसीजन लिया जाता है .भइया इसको टिकट मिलना चाहिएहोता क्या है दूसरे दलों के लोग आ जाते हैं चुनाव के पहले आ जाते हैं,  चुनाव हार जाते हैं और फिर चले जाते हैं और हमारा कार्यकर्ता कहता है भइयावो ऊपर देखता है चुनाव से पहले ऊपर देखता हैऊपर से पैराशूट गिरता है धड़ाक! नेता आता हैदूसरी पार्टी से आता है चुनाव लड़ता है फिर हवाई जहाज में उड़ के चला जाता है।

यह भावपूर्ण भाषण देने के बाद राहुल गांधी ने वही काम शुरू कर दिया जिसकी उन्होंने भरपूर शिकायत की थी . उनके जयपुर भाषण से कांग्रेसियों में उम्मीद बंधी थी कि कांग्रेस को एक ऐसा नेता मिल गया  है जो अगर  सत्ता में रहा तो कांग्रेस पार्टी के  आम कार्यकर्ता  को पहचान दिलवाएगा .और  अगर  विपक्ष में रहा तो  ज़मीनी सच्चाइयां बाहर आयेंगीं. लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं हुआ .राहुल गांधी ने जो फैसले लिए उनसे कांग्रेस को  बहुत नुक्सान ही हुआ . पंजाब में अमरिंदर सिंह की मर्जी के खिलाफ किसी बाजवा जी को अध्यक्ष बनाया , हरियाणा में भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के खिलाफ अशोक तंवर को चार्ज दे दिया . वे बाद में बीजेपी उम्मीदवारों के लिए प्रचार करते पाए गए . मध्यप्रदेश में सोनिया गांधी की पसंद दिग्विजय सिंह को दरकिनार करने के  चक्कर में  ज्योतिरादित्य सिंधिया को आगे किया , वही सिंधिया  मध्यप्रदेश में कांग्रेस की  सरकार के पतन के कारण बने . मुंबई कांग्रेस के मुख्य मतदाता  उत्तर भारतीय , दलित और अल्पसंख्यक हुआ करते थे लेकिन वहां पूर्व शिवसैनिक संजय निरुपम को  अध्यक्ष बनाकर पार्टी को बहुत  पीछे धकेल दिया . उत्तर प्रदेश का चार्ज किन्हीं मधुसूदन मिस्त्री को दे दिया जिनके जीवन का  सबसे बड़ा राजनीतिक काम यह था कि वे वडोदरा में एक बार किसी बिजली के खम्बे पर चढ़कर वे नरेंद्र मोदी का कोई पोस्टर सफलता पूर्वक उतार चुके थे .नैशनल हेराल्ड जैसे राष्ट्रीय आन्दोलन के अखबार को ख़त्म करके निजी संपत्ति बनाने की कोशिश की . सबसे बड़ी बात यह कि उनके उपाध्यक्ष बनने के साथ ही  नरेंद्र मोदी गुजरात को छोड़कर  राष्ट्रीय राजनीति में आये . कहा जाता है कि नरेंद्र मोदी के प्रचार में सबसे बड़ा योगदान राहुल गांधी का ही रहता रहा है क्यंकि वे ऐसा कुछ ज़रूर  बोलते या करते रहे हैं जिससे  बीजेपी को  कांग्रेस की धुनाई करने का अवसर  मिल जाता है .

आज कांग्रेस के स्थापना दिवस पर विदेश के लिए उड़नछू हो कर  जो काम राहुल गांधी ने किया है ,वह उनके लिए कोई नई बात नहीं है .जब से वे कांग्रेस के कर्ताधर्ता बने हैं तब से यही कर रहे हैं. लेकिन दिल्ली में उनके परिवार की गणेश परिक्रमा करने वाले नेता उनके काम को सही  ठहराते रहते  हैं . प्रियंका गांधी से लेकर मल्लिकार्जुन खड्गे तक सभी नेता राहुल गांधी के स्थापना दिवस पर गायब रहने की बात से  शर्मिंदा नज़र आये . लेकिन यह सच्चाई है कि राहुल गांधी ऐसे काम करते रहते हैं जिससे उनकी पार्टी के बड़े नताओं से कोई जवाब देते नहीं बनता .

 

 

Thursday, December 24, 2020

जम्मू-कश्मीर में डी डी सी के सफल चुनावों के बाद पाकिस्तानी सत्तातंत्र में हडकंप

 

 शेष नारायण सिंह

 जम्मू-कश्मीर में सफलता पूर्वक चुनाव आयोजित करके भारत ने यह सिद्ध कर दिया है कि वहां पाकिस्तान की भूमिका केवल आतंकवाद फैलाने की  ही है. जिस  बड़े पैमाने पर कश्मीरी अवाम ने जिला विकास परिषद ( डी डी सी ) के चुनावों में हिस्सा लिया उससे पाकिस्तानी शासकों की वह बात एक बार फिर पंक्चर हो गयी जिसमें  कहा  जाता था कि कश्मीर के लोग भारत के साथ नहीं हैं . जम्मू-कश्मीर के चुनावों में लोगों ने मतदान में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया वह इस बात की  सनद है कि जम्मू-कशमीर में पाकिस्तान की लाइन को मानने वाले कुछ आतंकी  संगठन हैं और पाकिस्तान से पैसा लेकर वहां सियासत करने वाले कुछ लोग  हैं.बाकी  कश्मीरी अवाम पूरी तरह से भारत के साथ है .नरेंद्र मोदी की कश्मीर नीति में नई पहल की सफलता के बाद पाकिस्तानी सत्तातंत्र  खिसिया गया है और उसी की प्रतिक्रिया में भारत की तरफ से सर्जिकल स्ट्राइक की आशंका को लेकर दहशत फैलाई जा रही है . हालांकि भारत की ओर से इस तरह का कोई संकेत नहीं दिया गया है लेकिन पाकिस्तान के प्रधानमंत्री और सेना प्रमुख लगातार भारत की संभावित सर्जिकल स्ट्राइक की ख़बरें अखबारों में छपवा रहे हैं . 24 अगस्त को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की और से जारी एक बयान में बताया गया कि अगर भारत से किसी तरह का हमला हुआ तो उसको जवाब दिया जाएगा .

 

 सवाल यह उठता है कि जब भारत की सेना किसी हमले की योजना ही नहीं बना रही है तो इस तरह से युद्ध का माहौल बनाकर अपने खिलाफ उठ रहे पाकिस्तानी अवाम के जनांदोलन को दबाने की यह कोई कोशिश तो नहीं है .पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ( पी पी पी ) और नवाज़ शरीफ की खानदानी पार्टी पाकिस्तान मुस्लिम लीग ( नवाज़ ) एक  दूसरे के राजनीतिक विरोधी हैं लेकिन इमरान खान जिस तरह से फौज के हुक्म के गुलाम बन गए हैं उससे पाकिस्तानी अवाम में बहुत नाराजगी है . उसी नाराज़गी को भुनाने की गरज से बेनजीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ की खानदानी पार्टियां एक मंच पर हैं . उनके साथ ही पाकिस्तानी मुल्लातंत्र की कुछ पार्टियां भी शामिल हैं. विपक्ष की पार्टियों ने इकट्ठा होकर पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंट ( पी डी एम ) नाम का एक  फ्रंट बना लिया है जिसमे देश की दोनों बड़ी विपक्षी पार्टियों की मुख्य भूमिका है लेकिन उसका अध्यक्ष जमियत उलेमा ए  इस्लाम ( एफ ) के मुखिया मौलाना फ़ज़लुर्रहमान को बनाया  गया  है . पी डी एम का उद्देश्य इमरान खान की भ्रष्ट सरकार को  उखाड़ फेंकना  है . उसके बाद सभी पार्टियां चुनाव लड़ेंगी .कराची की विशाल सभा में पाकिस्तान मुस्लिम लीग ( नवाज़ ) की उपाध्यक्ष मरियम नवाज़ ने ऐलान किया कि जब भी चुनाव  होगा तो पी डी एम में शामिल पार्टियां एक दूसरे के खिलाफ मैदान में होंगी. अभी फिलहाल  पी डी एम  ने पाकिस्तानी शहरों सभाएं करके साफ बता दिया  है कि इमरान खान और सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा के हटने तक उनका आन्दोलन मुसलसल जारी रहेगा .पाकिस्तानी   सत्ताधीश  विपक्ष के आन्दोलन से इतना डर गए हैं कि खबरें आ रही हैं कि पी डी एम की सबसे  प्रभावशाली नेता और  पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ की बेटी मरियम नवाज़ पर जानलेवा हमला भी किया  जा सकता है . कठपुतली प्रधानमंत्री इमरान खान बुरी तरह से डरे हुए  हैं. कोरोना से मुकाबले के मैदान में भी  पाकिस्तान पूरी तरह से नाकाम है . देश की आर्थिक  स्थिति बहुत ही खराब है . इन सब कारणों से पाकिस्तानी जनता में बहुत ही गुस्सा है .

 

अपनी इस दुर्दशा से जनता का ध्यान भटकाने के लिए पाकिस्तानी सरकार भारत के संभावित हमले की बोगी चला रही है .देश के नामी अंग्रेज़ी अखबार डॉन में छपी खबर के अनुसार इस्लामाबाद में प्रधानमंत्री की घर पर सेना प्रमुख जनरल बाजवा और आई एस आई के  डाइरेक्टर जनरल ले. जनरल फैज़ हमीद की  एक बैठक में भारत से संभावित हमले को मुद्दा बनाने  का फैसला किया गया .इसके पहले दुबई की यात्रा पर गए पाकिस्तानी विदेशमंत्री शाह महमूद कुरेशी ने दावा किया था कि भारत ने पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक करने का फैसला कर लिया   है और कभी भी पाकिस्तान को निशाना बनाया जा सकता है .यही नहीं  इस हफ्ते की  शुरुआत में जनरल बाजवा ने नियंत्रण रेखा के पाकिस्तानी साइड में तैनात सैनिकों से बात कर ते हुए भी भारत से संभावित हमले की बात  की थी और डींग मारी थी कि भारत के किसी हमले का मुंहतोड़ जवाब दिया जाएगा .पाकिस्तानी  विदेशनीति और आंतरिक सुरक्षा की सभी नीतियों में कश्मीर का ज़िक्र प्रमुख रूप से होता है . वह उनका स्थाई भाव है .पाकिस्तान में भारत के संभावित हमले की बोगी हर सरकारी मंच से चलाई जा रही है . उनके विदेशी मामलों के दफ्तर के प्रवक्ता , ज़ाहिद हफीज़ चौधरी ने सारी दुनिया से अपील कर डाली कि विश्व के नेताओं को चाहिए कि भारत को  पाकिस्तान पर हमला करने से रोके .

जम्मू-कश्मीर में डी डी सी चुनावों में बड़े पैमाने पर कश्मीरी अवाम और राजनीतिक दलों की शिरकत के बाद पाकिस्तान के शासक वर्ग में चिंता बहुत बढ़   गयी है . अब तक हर मोर्चे पर कश्मीर की बोगी चलाकर अपनी जनता और अपने विदेशी  मित्रों को भटकाने की कोशिश करने वाली  पाकिस्तान सरकार को अपनी नाकामियाँ छुपाने के लिए और कोई रास्ता नहीं दिख रहा है. ऐसी हालत में भारत के हमले का ज़िक्र करके अपनी  खिसियाहट छुपाने की कोशिश के अलावा इसको कुछ और नहीं मना जा सकता क्योंकि भारत की तरफ से  पाकिस्तान पर कोई हमला नहीं होने वाला है . हां, यह तय है कि पाकिस्तानी आतंकवादी संगठनों की लाख कोशिश के बाद जिला स्तर पर राजनीतिक नेताओं की जो फैज़ खडी हो गयी है ,वह आने वाले दिनों में पाकिस्तान के हर झूठ का जवाब देने के लिए तैयार है .

Wednesday, December 23, 2020

गद्दी से चिपके रहने के चक्कर में डोनाल्ड ट्रंप ने लोकतंत्र का भारी नुकसान किया

 

शेष नारायण सिंह

अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप चुनाव में बुरी  तरह से  हार चुके  हैं लेकिन उन्होंने अभी उम्मीद नहीं  छोड़ी है . उन्होंने अमरीका  के पांच बैटिलग्राउंड राज्यों में चुनावी  धांधली के मुक़दमे दायर करवाए थे लेकिन उनके पक्ष में कहीं  से  फैसला नहीं आया .विस्कसिन राज्य का  फैसला आज ही आया है . न्यायपालिका से बहुत उम्मीद थी क्योंकि उन्होंने फेडरल सुप्रीम कोर्ट में एक जज हड़बड़ी  में इसी योजना के तहत भर्ती किया था कि ज़रूरत पड़ने पर उनके पक्ष में  फैसला आ जाएगा लेकिन उन्हें वहां भी हार  ही मिली. अमरीका में सभी राज्यों के अलग अलग चुनावी क़ानून होते हैं और अलग तरह की न्याय प्रणाली  होती है . मसलन अमरीका के पचास राज्यों में से 37 राज्यों में जज भी चुनाव लड़कर पदासीन होते हैं . वे बाकायदा पार्टी के टिकट पर चुनकर आते हैं . ट्रंप की नवीनतम हार विस्कासिन राज्य में हुई है .  वहां के जिस जज ने उनके खिलाफ फैसला दिया है वह ट्रंप की पार्टी ,रिपब्लिकन पार्टी के टिकट पर चुनकर आया था . जब उसने कानून के हिसाब से सही फैसला दे दिया तो ट्रम्प महोदय उसको भी गाली देने लगे. उसके खिलाफ ट्वीट किया और उनके अंधभक्तों ने उसके खिलाफ ट्रोल अभियान शुरू कर दिया . अब लगता है कि वे अपनी हार को न्यायपालिका की मदद से जीत में बदलवाने की उम्मीद छोड़ चुके हैं . लेकिन अभी भी जुटे हुए हैं.  14 दिसंबर को  विभिन्न राज्यों के निर्वाचकों ने वोट डाले  जिसमें नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन और उनकी साथी कमला हैरिस को 306 वोट मिले जबकि डोनाल्ड ट्रंप और उनके साथी माइक पेंस को 232 वोट मिले. उसके बाद ज़्यादातर अमरीकियों ने यह मान लिया कि डोनाल्ड ट्रंप  हार चुके हैं लेकिन ट्रंप ने  कोर्ट के फैसलों के सहारे चुनावी नतीजों को पलट देने की उम्मीद को जिंदा रखा . अब सब गड़बड़ हो गयी  है .न्यायपालिका ने उनको साफ़ बता दिया है कि उनकी सनक के आधार पर फैसला नहीं दिया  जा सकता , कानून ही  किसी भी फैसले की बुनियाद होता है .

चारों तरफ से निराश होने के बाद अब  ट्रंप को उम्मीद है कि जब 6 जनवरी को अमरीकी संसद में वोटों  की गिनती होगी तो उनके पक्ष में फैसला आ जाएगा . उनकी इस उम्मीद का भी कोई आधार  नहीं है क्योंकि उनकी पार्टी के ही सदस्य मिच मैकानिल सेनेट  के मेजारिटी लीडर हैं.उन्होंने 14  दिसम्बर के वोट के बाद जो बाइडेन को बधाई दे दी .इसका मतलब यह हुआ कि उन्होंने ट्रंप को हराने वाले जो बाइडेन को नया राष्ट्रपति स्वीकार कर लिया है . ज़ाहिर है वे 6  जनवरी को सेनेट में ट्रंप के समर्थकों के साथ नहीं खड़े होंगे . अमरीका में इस बात की बड़ी चर्चा है कि ट्रंप सेनेट में हल्ला गुल्ला करवाकर चुनाव की प्रक्रिया को बाधित करने की कोशिश करेंगे.  लेकिन उन्हीं की पार्टी के ताक़तवर नेता और मेजारिटी लीडर मिच मैकानिल के साथ न होने से वहां भी किसी ख़ास सफलता की उम्मीद नहीं  है . सेनेट में गिनती के बाद ट्रंप के एक और सहयोगी के उनके खिलाफ जाने की उम्मीद जताई जा रही है . अमरीकी  सेनेट की  बैठकों के पीठासीन अधिकारी देश के उपराष्ट्रपति होते हैं . अपने भारत में भी उपराष्ट्रपति ही राज्य सभा के अध्यक्ष होते हैं. जब 6 जनवरी को सेनेट में वोटों की गिनती होगी तो अपने  संवैधानिक दायित्व का निर्वाह करते हुए , उपराष्ट्रपति माइक पेंस नतीजों की घोषणा करेंगे . उसके बाद ट्रंप के पास कोई रास्ता नहीं  बचेगा . लेकिन इस सब के बाद भी  20 जनवरी  2021 को  अगर वे व्हाइट हाउस को खाली नहीं कर देते  तो उनको मार्शल ज़बरदस्ती वहां से निकाल देगा . उसके बाद उनको वहीं व्हाइट हाउस के पड़ोस में बने ट्रंप होटल में जाकर सामान रखने के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचेगा .

डोनाल्ड ट्रंप के इस रवैये के बाद बाकी दुनिया में लोकतंत्र के अस्तित्व के बारे में शक होने  लगा है . सवाल यह  है कि अगर अमरीका जैसे देश में जहां पब्लिक ओपिनियन पूरी तरह से जागरूक है , मीडिया निष्पक्ष है , सरकार की संस्थाएं न्याय की  सीमा में रहकर काम  कर रही हैं , सेना में राजनीति का  दखल बिलकुल नहीं है और वहां का राष्ट्रपति चुनाव हार जाने के बाद भी गद्दी से चिपके रहने की जिद पर  अड़ा हुआ है  तो एशिया और अफ्रीका के उन देशों का क्या होगा जहां  अभी भी ज़्यादातर शासक सत्ता में बने रहने के लिए तरह तरह के  तिकड़म करते रहते हैं . जहाँ तक ट्रंप की बात है  उनको तो जाना  ही पडेगा लेकिन एशिया और अफ्रीका के देशों में लोकतंत्र के अस्तित्व पर शंका के बादल घूमने  लगे हैं. अभी यह बात भी  समझ में नहीं आ रही है कि जिन सात करोड़ लोगों ने ट्रंप को चुनाव में वोट दिया था, वे अभी भी उनको जीता हुआ क्यों मानते हैं और ट्रंप के उस प्रलाप को गंभीरता से ले रहे हैं जिसमें वे कहते हैं कि  राष्ट्रपति पद उनका  ही थी लेकिन  विपक्ष ने उसको चुरा लिया है . वे लोग हर उस व्यक्ति के खिलाफ बोलना या  लिखना शुरू कर देते हैं जो अमरीकी  राष्ट्रपति चुनाव में निष्पक्ष होने की कोशिश करता है . इस सिलसिले में डेमोक्रेटिक पार्टी, अमरीकी न्यायपालिका, विभिन्न राज्यों की सरकारें , सच्चाई बोलने वाले  रिपब्लिकन तो  ट्रंप के भक्तों के निशाने पर थे ही, मीडिया के खिलाफ भी विधिवत अभियान चलाया जा रहा है . एक अमरीकी भक्त की फेसबुक वाल पर यह लिखा है .लिखते हैं , ” अगर  देशद्रोही मीडिया ट्रम्प के दावे को निराधार मानता  है तो  उनके दावों को रिपोर्ट क्यों कर रहे हैं ? ऐसा लगता है कि बहुत से पत्रकार अगर जेल जाने से बच गए तो उनको फिर से पत्रकारिता पढने के लिए स्कूल में दाखिल होना पड़ेगा “ ट्रंप के भक्तों के यह दावे बहुत ही डरावने  हैं लेकिन साथ ही यह साफ़ कर देते हैं कि भक्त चाहे जहां हों, उतने ही मूर्ख होते  हैं.

इस बीच ट्रंप के कुछ काम  ऐसे संकेत देने लगे हैं कि वे राष्ट्रपति पद छोड़ने के बारे में विचार कर रहे हैं. अमरीका में यह रिवाज़ है कि राष्ट्रपति अपराधियों को माफी दे देता है .जिसको माफी मिल जाती है उसके ऊपर उसी केस में  दोबारा मुक़दमा नहीं चलाया जा सकता है . रिचर्ड निक्सन सत्तर के दशक में अमरीका के राष्ट्रपति थे . उन्होंने तरह तरह के अपराध किये थे . उनके ऊपर वाटरगेट स्कैंडल के कारण महाभियोग की तैयारी हो चुकी थी . लेकिन उन्होंने अपने उपराष्ट्रपति जेराल्ड फोर्ड से सौदा किया कि वे इस्तीफ़ा दे देंगें और अमरीका के संविधान के अनुसार फोर्ड बिना कोई चुनाव लडे राष्ट्रपति बन जायेगें . उसके बदले में उनको  राष्ट्रपति के रूप में रिचर्ड  निक्सन के अपराधों के लिए माफी देनी पड़ेगी. ऐसा ही हुआ और फोर्ड अगस्त 1974 से जनवरी 1977 तक राष्ट्रपति रहे . अब ट्रंप ने भी अपने ख़ास लोगों को माफी देने का सिलसिला शुरू कर दिया है . अंधाधुंध माफी देने के चक्कर में वे ऐसे अपराधियों को भी माफी दे रहे हैं जिनके अपराध जघन्य हैं और कुछ मामलों में तो अपराधी ने अपने जुर्म को कोर्ट के सामने कबूल भी कर लिया है .

इन माफियों के सिलसिले में सबसे ज़रूरी बिंदु है कि क्या राष्ट्रपति ऐसे अपराधों के  लिए भी माफी दे सकते हैं जो अपराध हुए ही न हों. जानकर बताते हैं कि ट्रंप और उनके क़रीबी लोगों ने इतने अपराध किए हैं कि उनके ऊपर मुक़दमा चलना तो तय  है . इमकान  है कि कानून अपना काम करेगा और अगर कानून इमानदारी से काम करता है तो ट्रंप की बेटी इवांका ट्रंप  ,दामाद और उनके सबसे करीबी वकील रूडी जुलियानी पर मुक़दमा ज़रूर चलेगा. अभी इन लोगों पर मुकदमा दायर नहीं हुआ है . बहस इसी विषय पर हो रही है कि क्या राष्ट्रपति एडवांस में  किसी को माफी दे सकते हैं . एक कानूनी चर्चा और भी हो रही है कि क्या राष्ट्रपति अपने आपको माफ़ कर सकते हैं . उनके ऊपर तो कई केस दर्ज भी हैं . रिचर्ड  निक्सन ने तो अपने आप को माफ़ नहीं किया था क्योंकि माफी लेने के लिए उन्होंने अपने उपराष्ट्रपति को राष्ट्रपति बनाकर माफी  हासिल की थी. बहरहाल राष्ट्रपति ट्रंप की माफी देने की कारस्तानी के बाद लोगों को लग रहा है कि लगता है कि ट्रंप को  भी इस बात का एहसास हो चुका है कि उनको अब तो जाना ही पडेगा और पद से हटने के बाद उनको मुक़दमों का सामना भी करना पड़ेगा . अगर उनकी खुद को दी गयी माफी को जायज़ भी  मान लिया जाएगा तो भी राष्ट्रपति की माफी केवल उन्हीं मामलों के  लिए होती है जो  फेडरल न्याय क्षेत्र में होते हों. राज्यों के  मामलों के लिए राष्ट्रपति किसी को माफी नहीं दे सकते . डोनाल्ड ट्रंप के ऊपर न्यूयॉर्क राज्य में टैक्स चोरी के  कुछ मामले दर्ज हैं . उनमें किसी माफी का प्रावधान नहीं है. जी भी हो बीस जनवरी के बाद तो ट्रंप को जाना ही होगा लेकिन उसके  पहले उन्होंने बेशर्मी की सभी सीमाएं पार कर ली हैं .

.

Monday, December 21, 2020

माँ तो चली गयीं ,अब यादें ही हैं

 

 


शेष नारायण सिंह

 

हमारी माई की पुण्यतिथि २३ दिसंबर को पड़ती  है . वैसे तो उनकी याद हमेशा आती रहती है लेकिन  दिसंबर में कुछ ज़्यादा ही आती है . आज १५ साल हो गए उनको विदा हुए . किस्मत में नहीं था,वरना २० से २२  दिसंबर २००५ को मैं कानपुर था. उन दिनों गाँव में फोन नहीं था .जब मां का बी पी बहुत ज़्यादा बढ़ गया तो लम्भुआ पी सी ओ से मेरा  भतीजा उज्जवल फोन करने की कोशिश कर रहा था लेकिन आवाज़ ही नहीं आई. अगर बात हो गयी होती तो मैं चार घंटे के अन्दर गाँव पंहुच गया होता. लेकिन बात नहीं हुई. दिल्ली आने के  लिए उसी  शाम ट्रेन ले ली. जब दिल्ली पंहुचा तब  पता लगा कि मां नहीं रहीं . पछतावा हुआ ,आज तक है .बहरहाल हम तुरंत चल पड़े और  अगले दिन घर पंहुच गया .माई के बालगोपाल सब इकठ्ठा हुए और उनके अंतिम संस्कार की सारी विधियां पूरी हुईं . मेरी मां की मृत्यु उनकी प्रिय  संतान ,मेरे छोटे भाई सूबेदार सिंह की गोद में हुई. भरा पूरा परिवार था उनका . चार संताने हैं उनकी और सब के बच्चे उच्च शिक्षित  हैं , सब अपना काम कर रहे हैं .  लेकिन मेरी मां का जीवन अभावों में ही बीता. हालांकि ज़मींदारों के यहाँ  ब्याहकर आई थीं लेकिन सम्पन्नता नहीं थी. अपने हौसले के बल पर जिंदा रहीं, किसी के सामने सर नहीं झुकाया , उनकी अपनी ज़िंदगी में बहुत मुसीबतें आईं लेकिन कभी किसी के सामने झुकी नहीं . ज़मींदारी उन्मूलन के बाद गाँव के कुछ परिवारों में नौकरी चाकरी के कारण मामूली सम्पन्नता आ गयी लेकिन मूल रूप से गाँव गरीबों का ही रहा . आज स्थिति यह है कि एकाध परिवार को छोड़कर किसी के पास एक एकड़  से ज्यादा ज़मीन नहीं है यानी हमारा गाँव , सीमान्त किसानों का गाँव है . उसी गाँव में रहते हुए सबके दुखदर्द में  शामिल होते हुए उन्होंने अपनी उम्र के ८२ साल पूरे किये और चली गयीं .

इस बार माई की पुण्यतिथि पर अपने दो दोस्तों की माताओं का सन्दर्भ भी बार बार याद आ रहा है . इसी साल दीवाली के आसपास चंचल सिंह की माई की भी मृत्यु हुयी. दीवाली के  बाद उनसे मेरी मुलाक़ात की तारीख तय थी लेकिन उसके पहले ही चली गयीं. मैं नियत समय पर गया लेकिन उनसे मिल नहीं सका .उनकी तेरहवीं में शामिल हुआ. उनकी भी वही पृष्ठभूमि थी जो मेरी माई की थी. दोनों ही १९२४ की जन्मी थीं .जब भी मैं उनसे मिला तो मुझे  अपनी ही माई की याद आ गयी. शानदार शख्सियत , आस पड़ोस के लोगों की संकट मोचक ,अपने  बच्चों की  बुलंदी के सपने देखती और उनको पूरा  होते उन्होंने भी देखा था . हालांकि उनके जीवन में भी एकाध वज्रपात ऐसे हैं जिनको सोचकर सिहर जाता हूँ लेकिन जब भी उन्होंने मुझे अपनी गोद में लिया लगा कि सारी दुनिया की ममता और वात्सल्य वहीं केन्द्रित हो गया है . उनकी तेरहवीं से अपने दोस्त  शीतल सिंह की कार में  वापस आना था. उनके साथ रात उनके फार्म पर सूरापुर के पास तौकलपुर गया . रात वहां सो गए और सुबह उनके पैतृक गाँव , महमदाबाद आया . कादीपुर तहसील मुख्यालय के करीब गोमती नदी की उपजाऊ ज़मीन में बसा हुआ गाँव . गाँव में जहां शीतल का पुराना घर है ,उसके साथ ही एक मंदिर है.  उसी मंदिर के साथ ,चबूतरे के ठीक बाहर शीतल सिंह ने मां की एक मूर्ति लगा दी है . जब उनके घर पंहुचा तो धक से रह गया . शीतल के गाँव पहली बार गया था लेकिन ऐसा लगा कि वह जगह तो मेरी जानी पहचानी है .उनकी मां  ने उनके घर के चारों तरफ जिस तरह की हरियाली कर रखा है वह बिलकुल स्नेह की छाया लगती है. सरकारी सेवा से छुट्टी मिलने पर वे अपने गाँव आ गयी थीं . वहां उन्होंने जिस तरह के पेड़ पौधे लगाए उनको देखकर वहां से आने  का मन ही नहीं कहता. बहुत गझिन अपनापा था उस ज़मीन पर , पाजिटिव शक्ति का पुंज लगा उनका पुराना घर .उसी महमदाबाद गाँव में उनकी  मां राजकुमार ठाकुरों के एक सम्पन्न परिवार में ब्याहकर आयी थीं , कई हल की खेती थी लेकिन परिवार बढ़ता गया और खेती बंटती गयी . माँ की बड़ी इच्छा थी कि उतनी ही ज़मीन  रहती तो अच्छा था .  भाग्यशाली थीं क्योंकि उनकी बच्चे उनकी हर इच्छा को ईश्वरीय कानून मानते हैं .शीतल और उनके भाई ने जितनी बड़ी ज़मीन वाले घर में वे आई थीं ,लगभग उतनी  ही ज़मीन खरीद लिया  है . परिवार के कई टुकड़ों के अलग होने के बाद उन्होंने अपने और अपने बच्चों के लिए जो घर बनवाया था उसी घर को विकसित कर एक शानदार आधुनिक सुविधाओं से लैस घर बन रहा है . माँ की बहू वहीं शिफ्ट कर गयी हैं और घर बनवा रही हैं . उम्मीद है कि  शिवरात्रि तक घर बन जाएगा .

जिन तीन माताओं का मैंने  ज़िक्र किया  है उनमें से अब कोई इस दुनिया में नहीं है लेकिन उनकी छाया ,उनका आशीर्वाद उन हवाओं में देखा जा सकता  है जहाँ वे सब दुलहिन के रूप में आई  थीं और आज उनकी दुलहिनें और उनकी संतानें उनकी विरासत हो संभालने में लगी हुई हैं .  ( दुलहिन यानी बहू ). इन तीन माताओं जैसी  ही रतनलाल शरशार की माँ रही होगी जब उन्होंने कहा कि , “ कहते हैं , माँ के पाँव के नीचे बहिश्त है “.

 

 

Thursday, December 17, 2020

Old model of agriculture is a drag on the economy, rural living. New farm laws offer a way out

 


The next revolution — Green Revolution 2.0 — will come through in-depth research, better investment opportunities and access to the market. The three farm laws are a revolutionary step in that direction.

Written by Shesh Narayan Singh | Updated: December 15, 2020 8:45:33 am
Protesting farmers block NH-1 near Ladowal toll plaza in Ludhiana. (Express Photo by Gurmeet Singh/File)

Farmers are protesting at the Delhi border. Most of the leaders are from Punjab and Haryana. A group of large landholding farmers from western Uttar Pradesh is also part of the protests. The farmers are dissenting against the three new farm laws.

In its 2019 election manifesto, the BJP had promised to create a countrywide market for the selling and purchasing of foodgrain and other agricultural produce. These laws are a crucial link in that direction.

It would be apt to discuss the historic need to have these laws for the betterment of the farm sector in the country. For the rich farmers of Punjab, Haryana and western Uttar Pradesh, things are different; but for crores of small landholders in Uttar Pradesh, Bihar, Rajasthan, Madhya Pradesh, West Bengal, Odisha, etc., it is now possible to feed their families.

Landholdings in many states have shrunk. In eastern UP, the cultivators are largely marginal farmers now. Generally, farmers with less than an acre of arable land are identified as marginal farmers. Small farmers are those with landholdings between 1 acre and 2.5 acres. In my village, all the farmers except two families are marginal farmers. It is difficult for a farming family to sustain themselves with just an acre of arable land. The farmer will have to explore other avenues to improve his financial position.

After Independence, there was no concrete effort to uplift the farm sector for almost two decades. After the China war, when India was standing at the precipice of economic destruction, Pakistan attacked India. There was an acute scarcity of foodgrain in the country. The then Prime Minister, Lal Bahadur Shastri, asked his agriculture minister, C Subramaniam, to do something. Subramaniam, with the help of M S Swaminathan, invited scientist Norman Borlaug to India, who had brought a revolutionary change in the farm sector in Mexico with his semi-dwarf varieties of rice and wheat.

Borlaug analysed the farm sector in Punjab and concluded that production can be doubled. But none of the farmers was ready to use his methods of farming. Then, Subramaniam promised the farmers that if they implement the new farming techniques, the central government will compensate them. This scheme was initially implemented in around 150 farm holdings with the assistance of Punjab Agriculture University, Ludhiana. Thus began the “Green Revolution”. Farm produce more than doubled, and, subsequently, all the farmers in Punjab and Haryana joined the programme. The Green Revolution worked on three fronts — better seeds, irrigation and optimum use of fertilisers. Soon, rest of the country’s farmers followed the lead of their brethren in Punjab.

After more than 50 years, now there has been some movement worth appreciating in the farm sector. The latest steps initiated by the Modi government could again usher in revolutionary changes in India’s agriculture sector.

When India opened up its market to the world in 1991, Manmohan Singh bid adieu to Jawaharlal Nehru’s policy of economic development based on socialistic principles and brought the country on the path to economic development. At that time, he had talked about major changes in the farm sector but could not move ahead due to coalition politics. Today, Narendra Modi is also talking about reforming the agriculture sector. The Congress party is against the reforms implemented by the Modi government. There is also a section of farmers who are opposed to the laws. Although this is political, it is pertinent to understand the sociological and economic aspects behind farm sector reforms.

The latest farm policy reforms of the government are also called agrarian transition development and were implemented in Europe and the US early on. Today, around 45 per cent of the country’s workforce is involved in agriculture. When India attained Independence, the contribution of agriculture to the country’s GDP was huge, which today has come down to around 15 per cent. The old model has been a drag on the economy as well as the villages.

To have a sustainable farm economy, about 20 per cent of the agriculture workforce must find better means of employment in cities. Ideally, they should be absorbed in the industrial sector. Today, India’s service sector is a big employer and these 20 per cent of farmers can be absorbed there. We cannot allow such a huge chunk of the population to be dependent on farming because if such a practice continues, the number of poor will continue to rise. Therefore, it is time to develop models of contract farming. It is an avenue to develop an organised corporate model of agriculture in the country. This, in turn, will speed up urbanisation in the villages and the development of industries and the service sector there. These sectors will be able to absorb the excess workforce in the farm sector.

Various views are circulating with respect to contract farming, but it is important to understand its structure and potential. For instance, if a village has a thousand farmers who have an acre of arable land, then, through contract farming, someone can sow crops on the entire 1,000 acres of land. The land continues to belong to the farmer, while on the other hand, he/she will earn the profit from the sale of produce generated from his/her part of the landholding. This also frees him/her to pursue other employment opportunities.

The Green Revolution changed the face of India’s agriculture through seeds, irrigation and fertilisers. The next revolution — Green Revolution 2.0 — will come through in-depth research, better investment opportunities and access to the market. The three farm laws are a revolutionary step in that direction.

नई कृषि नीति को जनहितकारी बनाना होगा, उद्योगपति की हितकारी नहीं


 

शेष नारायण सिंह  

 

नई कृषि नीति के खिलाफ किसानों का आन्दोलन दिल्ली की सीमाओं पर ही तीन हफ्ते से ज़्यादा हो गया है . केंद्र सरकार के नेता और मंत्री आन्दोलन को वह गंभीरता नहीं दे रहे है जो देनी चाहिये थी . शुरू में तो इस आन्दोलन को भी शाहीन बाग़ के आन्दोलन से जोड़ने की कोशिश की गयी ,कुछ नेताओं ने इस आन्दोलन को भी शाहीन बाग़ की तरह का आन्दोलन बता दिया लेकिन  जल्दी ही सद्बुद्धि आ गयी और उस अभियान को लगाम दे दी गयी.  शाहीन बाग़ में शामिल लोगों से केंद्र की सत्ताधारी पार्टी को कोई चुनावी नुक्सान नहीं होना था क्योंकि सी ए ए और एन आर सी के खिलाफ आन्दोलन कर रहे लोगों में बीजेपी का कोई  वोटर नहीं था. उसमें शामिल ज्यादातर मुसलमान थे, लेफ्ट थे और लिबरल थे. इन वर्गों में कोई भी बीजेपी को वोट नहीं देगा. उनको देशद्रोही और पाकिस्तानी एजेंट या टुकड़े टुकड़े गैंग बताकर चुनावी फायदा लिया जा सकता था . लेकिन पंजाब से आये किसान आन्दोलनकारियों को खालिस्तानी कहना बहुत बड़ी भूल थी क्योंकि पंजाब का संपन्न किसान राज्य की सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक जीवन की मुख्यधारा होता है . सिख आन्दोलनकारियों को जैसे ही खालिस्तान समर्थक कहने की कोशिश की गई ,  सताधारी एन डी ए का सबसे पुराना सहयोगी अकाली दल अपनी इज्ज़त बचाने के लिए  सरकार से अलग हो गया. किसान आन्दोलन में शामिल एक गुट ने विभिन्न मुक़दमों में जेलों में बंद किये गए लिबरल और वामपंथियों को रिहा करने की मांग भी अपनी लिस्ट में जोड़ दिया . किसान संघर्ष समिति ने उस गुट  को तुरंत अपने आन्दोलन से दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया . मुराद यह है कि पंजाब के आन्दोलनरत किसानों को देशद्रोही  सांचे में फिट करने की कोई भी कोशिश बहुत ही गलत राजनीति का उदाहरण बन सकती थी लिहाजा उससे सरकार ने अपने आपको अलग कर  लिया . अब फिर बातचीत का सिलिसला शूरू करने की कोशिश चल रही है जो ठीक  है क्योंकि इस आन्दोलन को  शांत करने का रास्ता बातचीत की गलियों से ही गुजरता है .  सच्चाई यह  है कि हर आन्दोलन के हल का रास्ता बातचीत से ही  होता है . यह सरकार की सोच पर   निर्भर करता है कि बातचीत शुरू में ही कर ली जाए या  विवाद के बढ़ जाने के बाद की  जाये.

सरकार ने आन्दोलन में जमे हुए किसानों के अलावा बहुत सारे  किसान वर्गों से भी बातचीत शूरू कर दिया है . बातचीत के इस सिलसिले से बहुत लाभ  नहीं होने वाला है .समस्या का हल तो असली किसान नेताओं से बात करने से  ही निकलेगा   .अच्छी बात  यह है कि बातचीत के  वे  रास्ते बंद नहीं हुए हैं. इस बीच   एक ऐसी खबर आ गयी जिसका  किसान आन्दोलन की वापसी पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है . करनाल के एक  गुरुद्वारा साहब के एक आदरणीय संत बाबा राम सिंह ने  सिंघू बार्डर के पास बनाए गए आन्दोलन स्थल पर आत्महत्या कर ली .उनको सम्मान से उनके अनुयायी नानकसर वाले बाबा कहते थे . हालांकि पुलिस आत्महत्या के कारणों की जांच कर रही है लेकिन पता चला है कि उन्होंने एक सुसाइड नोट भी लिखा है जिसमें किसान आन्दोलन  के साथ हमदर्दी  जताई है . किसी संत का  आत्महत्या करके आन्दोलन का समर्थन करना एक ऐसा संकेत है जिसे सरकार को फ़ौरन नोटिस करना चाहिए और भाईचारे के माहौल में बातचीत करने की अर्जेंट पहल करनी चाहिए .

 

जहां तक किसान आन्दोलन की ज़रूरत की बात है उस पर बहस हो   सकती है लेकिन नई  कृषि नीति की आवश्यकता   को बहुत समय से महसूस किया जा रहा था .डॉ मनमोहन सिंह ने जब वित्तमंत्री के रूप में औद्योगिक  क्षेत्र में उदारीकरण का रास्ता खोला था तब से ही कृषि को अर्थव्यवस्था में बड़ा भागीदार बनाने की बात चल रही थी . वैसे भी १९६५-६६ की हरित क्रान्ति के बाद खेती  की तरफ सरकार की तरफ से कोई बड़ा  नीतिगत हस्तक्षेप नहीं हुआ था जिसकी  ज़रूरत बहुत बड़े पैमाने पर महसूस की  जा रही थी .  पता  नहीं क्यों  ऐसा हो नहीं पा रहा था क्योंकी गठबन्धन सरकार की  मजबूरियां बहुत सारे फैसलों में बाधक हो जाती हैं .मौजूदा सरकार ने हिम्मत करके नई कृषिनीति की घोषणा कर दी . ऐसा लगता है कि फैसला लेने के पहले ज़रूरी सलाह मशविरा नहीं हुआ .इसे सरकार की चूक मानी जायेगी क्योंकि उसने नीति को बनाने के पहले स्टेकहोल्डरों के साथ ज़रूरी सुर सलाह नहीं किया . उसी का नतीजा है कि इतना बड़ा आन्दोलन खड़ा हो गया . आज देखा जा  रहा है कि सरकार के मंत्री और सत्ताधारी पार्टी के बड़े  नेता ग्रामीण क्षेत्रों में  चौपाल करके किसानों को साथ लेने की कोशिश कर रहे हैं . अगर यही काम  पहले कर लिया गया होता तो न तो आन्दोलन की नौबत आती और  न ही सरकार के संसाधनों का इस्तेमाल करके इतने बड़े पैमाने  पर लोगों  को समझाने बुझाने का अभियान  चलाना होता. वैसे सरकार के कृषि मंत्री एक और बड़ी गलती  कर रहे हैं . तरह तरह के लोगों को किसान नेता बताकर दिल्ली बुला रहे हैं और उनके साथ मीटिंग करके मीडिया के ज़रिये प्रचार कर रहे हैं . यह बेकार का आयोजन है . जिन लोगों के साथ यह बातचीत की जा रही है ,वे तो पहले से ही सरकार के साथ हैं . असली काम तो आन्दोलन कर रहे  किसानों को साथ लेने का है . जिसके लिए ज़रूरी  कोशिश  होनी चाहिए  . उनको भरोसे में लेकर ही बात आगे बढ़ सकती  है .अभी फिलहाल इस स्थिति को हासिल करने में समय लग  सकता  है. किसानों के आन्दोलनकारी नेताओं ने साफ़ कह  दिया है कि वे नई कृषि नीति के तीनों कानूनों की वापसी तक आन्दोलन  जारी रखेंगे और सरकार ने भी मजबूती से कह दिया है कि कानून तो किसी  हालत में वापस नहीं किये जायेंगे. यानी मामला बहुत ही मुश्किल दौर में हैं . हालांकि यह भी सच है कि दुनिया में कोई भी आन्दोलन  अनन्त काल तक नहीं चल  सकता .उसको ख़त्म करने के लिए दोनों पक्ष थोडा थोडा नरम पड़ते  हैं और आन्दोलन  समाप्त हो जाता है .

 

 किसानों के आन्दोलन को समाप्त करने और भाईचारे का माहौल  बनाने के  लिए पहल सरकार को ही  करनी पड़ेगी .नई कृषि नीति के तीनों कानूनों में थोड़ी बहुत खामियां हैं उनको ठीक  करने के बारे में सरकार को गंभीरता से विचार करना पडेगा .मुझे लगता है कि नई नीति में तीन ऐसे मुद्दे हैं जिनपर अगर सरकर विचार करे तो बात बन जायेगी . पहला मुद्दा तो यही है कि जो खेती अब  अलाभदायक हो चुकी है या कम लाभदायक हो चुकी है उसकी जगह अधिक  आर्थिक लाभ देने वाली खेती की  संस्कृति को शुरू किया  जाये. पंजाब और हरियाणा के किसानों ने खेती के ज़रिये सम्पन्नता  हासिल की है . बाज़ार आधारित खेती  के लिए एम एस पी  जैसी व्यवस्थाओं को ख़त्म करना पड़ेगा . बहुत अधिक पानी से उपजाई जाने वाली फसलों की जगह ऐसी फसलों को  पैदा करना होगा जिसमें पानी कम लगे लेकिन आर्थिक लाभ ज्यादा हो . इसके लिए पंजाब और और हरियाणा के किसानों को धान और  गेहूं की खेती से शिफ्ट करके ऐसी बागवानी और खेती की तरफ ले जाना होगा जहां पानी कम लगे और फसल की कीमत जायदा मिले .उनको गेहूं और धान से शिफ्ट करने के लिए कम से कम तीन साल देना पडेगा .उस तीन साल तक उनको आर्थिक रूप से दण्डित न करके किसी तरह की अस्थाई सब्सिडी देने की बात सरकार को स्वीकार कर लेना चाहिए . तीन साल बाद वही  किसान  गेहूं और धान छोड़कर अन्य फसलों को उपजाने में स्वयं  ही लग जायेगा .

मौजूदा कृषि नीति में  दूसरी बड़ी गलती है  यह है कि वह किसान और उद्योगपति को एक  दूसरे के  सामने खड़ा कर देती है . बाज़ार की अनिश्चिताओं  को झेलने के लिए  किसान को आगे करना  ठीक नहीं है . इस नीति में जो  अंतरनिहित तत्व हैं वे व्यापारी वर्ग को लाभ पंहुचाने के लिए बनाये गए लगते  हैं जब कि पूंजीवादी मानकों से भी यह सही नहीं है . इस नीति के ज़रिये ऐसा माहौल बनाना चाहिए बाज़ार को खुली छूट मिलती कि  वह अपना रास्ता खुद तय करके और कान्ट्रेक्ट की खेती की  दुनिया में नए उद्यमी पैदा हों . पुराने उद्यमियों को ही लाभ देने के मकसद से बनाया गया कोई भी क़ानून न्याय  नहीं दे सकता .

 

तीसरी बात ,इस नीति में कान्ट्रेक्ट की खेती को बढ़ावा देने की बात कही गयी है . कान्ट्रेक्ट की खेती की सबसे बड़ी ज़रूरत है कि ज़मीन के मालिक के  हितों की सुरक्षा में न केवल सरकार  खडी हो  बल्कि यह  नज़र भी आये कि सरकार किसान के साथ है .उसके लिए प्रशासनिक और क़ानूनी  सुरक्षा कवच की व्यवस्था ज़रूरी है . ज़मीन के विवाद के मामले में  सरकार ने  एस डी एम की  अदालत का प्रावधान किया है .किसानों से कानूनी कार्रवाई का अधिकार  छीन लिया गया है .  यह बहुत सारे  झगड़ों को जन्म देगा . ग्रामीण भारत की जिसको मामूली जानकारी भी है उसे मालूम  है ज़मीन से जुड़े विवाद पीढ़ी दर पीढ़ी चलते हैं और बहुत सारी कानून व्यवस्था की समस्याएं भी उसी से जन्म लेती हैं .इसलिए बातचीत के ज़रिये सरकार की तरफ से जो प्रस्ताव जाए उसमें यह व्यवस्था होनी चाहिए कि एस डी एम नहीं , सही न्यायिक  अदालतों में मामलों का निपटारा होने की व्यवस्था की जाए. अगर सरकार शुद्ध अंतःकरण से  नई कृषि नीति के कानूनों में यह तीन ज़रूरी बदलाव कर दे तो समस्या का समाधान  निकाला जा सकता है .

ग्रीन रिवोल्यूशन के पांच दशक बाद कृषि नीति में सरकारी पहल लेकिन कुछ सुधार ज़रूरी

 शेष नारायण सिंह

दिल्ली की सीमाओं पर किसानों का आन्दोलन चल रहा है . आन्दोलन की अगुवाई मूल रूप से पंजाब और हरियाणा के किसान कर रहे हैं . पश्चिमी उत्तर प्रदेश के संपन्न किसानों का एक वर्ग भी  आन्दोलन में शामिल है . इनके आन्दोलन का कारण यह है कि केंद्र सरकार ने खेती के औद्योगीकरण के लिए जून में सरकार ने तीन अध्यादेश जारी किये थे ,संसद के मानसून सत्र में उनको क़ानून की शक्ल दे दी गयी. किसानों का आन्दोलन उन्हीं कानूनों के खिलाफ है .बीजेपी ने २०१९ के अपने चुनावी घोषणापत्र में  वायदा किया था कि अगर नरेंद्र मोदी की सरकार बनती है तो भोजन के राष्ट्रीय बाज़ार की स्थापना करेंगे. यह कानून उसी दिशा में महत्वपूर्ण क़दम हैं .

इन तीनों कानूनों में क्या लिखा है उसके विस्तार में गए बिना खेती में सुधार के लिए लाये गए इन कानूनों की ऐतिहासिक ज़रूरत के के बारे में  बात करना उपयोगी होगा. पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के  संपन्न किसानों की बात अलग है लेकिन बाकी उत्तर प्रदेश , बिहार , राजस्थान ,मध्यप्रदेश बंगाल,  उडीसा आदि राज्यों में  खेती के सहारे अब परिवार चलाना असंभव हो गया है . किसानों की ज़मीन का साइज़ बिलकुल  छोटा हो गया है . पूर्वी उत्तर प्रदेश में ज्यादातर गावों में बड़ी संख्या में किसान अब सीमान्त किसान  हैं . भारत में उस किसान को मार्जिनल या सीमान्त किसान कहा जाता है जिसके पास एक एकड़ से कम ज़मीन हो . एक एकड़ से ढाई एकड़ की  ज़मीन के मालिक को छोटा किसान कहा जाता है . मेरे गाँव में दो परिवारों को छोड़कर बाकी सभी किसान मार्जिनल  किसान हैं क्योंकि उनके पास एक एकड़ से कम ज़मीन है   कृषि अर्थशास्त्र ( एग्रीकल्चर इकनामिक्स ) के किसी भी सिद्धांत के हिसाब से एक एकड़ से कम ज़मीन पर खेती करने वाला परिवार खेती के सहारे अपने परिवार का भरण पोषण नहीं कर सकता . ज़ाहिर है उसको किसी और तरीके से अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने का प्रयास करना पडेगा . उसको कहीं और रोज़गार तलाशना होगा . यह कृषि सुधार संबंधी क़ानून उसी तरह के रोज़गार के अवसर उपलब्ध कराने की दिशा  बहुत देर से आई लेकिन ज़रूरी पहल हैं ..

आज़ादी के बाद देश में  करीब बीस साल तक खेती में कोई भी सुधार नहीं किया गया . १९६२ में  चीन के हमले के समय पहले से ही  कमज़ोर अर्थव्यवस्था तबाही के कगार पर खडी थी तो पाकिस्तान का भी हमला हो गया . खाने के अनाज की भारी कमी थी . उस समय के प्रधानमंत्री लाल बहादुर  शास्त्री ने अपने कृषिमंत्री सी  सुब्रमण्यम से कुछ करने को कहा . सी सुब्रमण्यम ने डॉ एस स्वामीनाथन के सहयोग से मेक्सिको में बौने किस्म के धान और गेहूं के ज़रिये खेती में क्रांतिकारी बदलाव ला चुके डॉ नार्मन बोरलाग ( Dr Norman Borlaug )  को भारत आमंत्रित किया . उन्होंने पंजाब की खेती को देखा और  कहा कि इन खेतों में गेहूं की उपज को दुगुना किया जा सकता है . लेकिन कोई भी किसान उनके प्रस्तावों को लागू करने को तैयार नहीं था . कृषि मंत्री सी सुब्रमण्यम ने गारंटी दी कि आप इस योजना को लागू कीजिये ,केंद्र सरकार  सब्सिडी के ज़रिये किसी तरह का घाटा नहीं होने देगी. शुरू में शायद डेढ़ सौ फार्मों पर पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना के सहयोग से यह स्कीम लागू की गयी. और ग्रीन रिवोल्यूशन की शुरुआत हो गयी.  पैदावार दुगुने से भी ज़्यादा हुई और पूरे पंजाब और हरियाणा के किसान इस स्कीम में शामिल हो गए . ग्रीन रिवोल्यूशन के केवल तीन तत्व थे . उन्नत बीज, सिंचाई की गारंटी और रासायनिक खाद का सही उपयोग . उसके बाद तो पूरे देश से किसान लुधियाना की  तीर्थयात्रा पर यह देखने जाने लगे  कि पंजाब में क्या हो रहा है कि पैदावार दुगुनी हो रही है . बाकी देश में भी किसानों ने वही किया .उसके बाद से खेती की दिशा में सरकार ने कोई पहल नहीं की है .आज पचास साल से भी ज़्यादा वर्षों के बाद खेती की दिशा में ज़रूरी पहल  की गयी है .मोदी सरकार की मौजूदा  पहल में भी खेती में क्रांतिकारी बदलाव लाने की क्षमता है .

 

1991 में जब डॉ मनमोहन सिंह ने जवाहरलाल नेहरू के  सोशलिस्टिक पैटर्न के आर्थिक विकास को अलविदा कहकर देश की अर्थव्यवस्था को मुक़म्मल विकास के ढर्रे पर डाला था तो उन्होंने कृषि में भी बड़े सुधारों की बात की थी . लेकिन कर नहीं पाए क्योंकि गठबंधन की सरकारों की अपनी मजबूरियां  होती हैं . अब नरेंद्र मोदी ने  खेती में जिन ढांचागत सुधारों की बात की है डॉ मनमोहन सिंह वही सुधार लाना  चाहते थे लेकिन राजनीतिक  दबाव के कारण नहीं ला सके.  मोदी सरकार ने उन सुधारों का कांग्रेस भी विरोध कर रही है ,  किसानों का एक वर्ग भी विरोध कर रहा है . वह राजनीति है लेकिन कृषि सुधारों के अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को समझना ज़रूरी है . सरकार ने जो कृषि  नीति घोषित की है उसको आर्थिक विकास की भाषा में agrarian transition development यानी कृषि संक्रमण विकास का माडल कहते हैं . यूरोप और अमरीका में यह बहुत पहले लागू हो चुका है . आज देश का करीब 45  प्रतिशत  वर्कफ़ोर्स खेती में लगा हुआ है .  जब देश आज़ाद हुआ तो जीडीपी में खेती का एक बड़ा योगदान हुआ करता था . लेकिन आज जीडीपी में खेती का योगदान केवल 15 प्रतिशत ही रहता है . यह आर्थिक विकास का ऐसा माडल है  जो एक तरह से  अर्थव्यवस्था और ग्रामीण जीवनशैली पर बोझ बन चुका है .

आर्थिक रूप से टिकाऊ ( sustainable ) खेती के लिए ज़रूरी है कि खेती में लगे वर्कफोर्स का  कम से कम बीस प्रतिशत शहरों की तरफ  भेजा जाय  जहां उनको समुचित रोज़गार दिया जा सके. आदर्श स्थिति यह होगी कि उनको औद्योगिक क्षेत्र में लगाया  जाय. आज सर्विस सेक्टर भी एक बड़ा सेक्टर है .गावों से खाली हुए उस बीस  प्रतिशत वर्कफोर्स को सर्विस सेक्टर में काम दिया जा सकता है . खेती में  जो 25  प्रतिशत लोग रह जायेंगें उनके लिए भी कम होल्डिंग  वाली खेती के सहारे कुछ ख़ास  नहीं हासिल किया जा सकता . खेती पर  इतनी  बड़ी आबादी को निर्भर नहीं छोड़ा जा सकता ,अगर ऐसा होना जारी रहा तो गरीबी बढ़ती रहेगी .इसलिए खेती में संविदा खेती ( contract farming ) की अवधारणा को  विकसित करना पडेगा . संविदा की खेती  वास्तव में कृषि के औद्योगीकरण का माडल है .खेती के  औद्योगीकरण के बाद गावों में भी शहरीकरण की प्रक्रिया तेज़ होगी और वहां भी औद्योगिक और सर्विस सेक्टर का विकास होगा . इस नवनिर्मित औद्योगिक और सर्विस सेक्टर में बड़ी संख्या में खेती से खाली हुए लोगों को लगाया जा सकता  है .

संविदा खेती के बारे में तरह तरह के प्रचार किये जा रहे हैं . लेकिन उसके सही स्वरुप को समझना ज़रूरी  है . मसलन अगर एक गाँव  में एक एक एकड़ की होल्डिंग वाले  एक हज़ार किसान हैं तो उनके खेतों को मिलाकर संविदा पर खेती करने वाला व्यक्ति एकमुश्त एक हज़ार एकड़ पर  फसल लगाएगा . उस ज़मीन का मालिक किसान ही रहेगा लेकिन  उपज के अपने  हिस्से का लाभ  पा जाएगा . खाली समय में वह अन्य कोई काम कर सकता है. हरित क्रान्ति के दौरान तो बीज, खाद और पानी के ज़रिये क्रान्ति आई थी ,इस बार की क्रांति नए शोध,  बेहतर निवेश और बेहतर बाज़ार के ज़रिये आयेगी. मौजूदा तीनों कानून उसी दिशा में क्रांतिकारी पहल  माने  जा सकते है