Wednesday, October 10, 2018

किसानों को सम्मान न दिया तो बात बिगड़ जायेगी

  

शेष नारायण सिंह

१८५७ में ईस्ट इण्डिया कंपनी के सिपाही जिस रास्ते मेरठ से दिल्ली आये थे ,उसी  रास्ते दिल्ली आ रहे  किसानों को दिल्ली की पुलिस ने शहर में नहीं घुसने दिया .आज़ादी की पहली लड़ाई के लिए जो सिपाही दिल्ली आ रहे थे ,वे सभी किसानों के बेटे थे . इस बार भी किसान ही आ रहे थे और उन पर आंसू गैस के  गोलेपानी की तोप और लाठियां बरसाने वाले दिल्ली पुलिस के सभी सिपाही  किसानों के ही बेटे थे . दिल्ली के भद्र जनों  की सुरक्षा में लगे यह सिपाही दिल्ली पुलिस में नौकरी करके गाँव में रहने वाले अपने माता पिता और गाँव की खेती और उस पर आश्रित  परिवार  का पेट पालते हैं. कॉल आफ ड्यूटी के चक्कर  में उन्होंने इस बार अपने परिवार जैसे लोगों के ऊपर पुलिस का कर्त्तव्य किया और किसानों को घायल करने पर मज़बूर हुए . दिल्ली -यूपी सीमा पर जिन  लोगों की  हड्डियां तोडी गयी हैं ,उनको २०१४ और २०१७ के चुनावों के पहले दिल्ली और यूपी की सरकार बनाने की कोशिश कर रहे राजनेताओं ने वायदा किया था कि किसानों की आमदनी दुगुनी कर दी जायेगी स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट लागू कर दी जायेगी और उनको बहुत ही खुशहाल कर दिया जाएगा .लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.
सच्ची बात यह है कि सरकारें जो दिल्ली में जम जाती हैं वे किसानों को लोकतंत्र का कच्चा माल मानने लगती हैं . उनकी नज़र में किसान का काम केवल वोट देना रह जाता है और अन्नदाता बने रहने का कर्तव्य निभाना होता है . अपनी मेहनत की कीमत जब भी किसान  मांगेगा वह स्वार्थी साबित कर दिया जाएगा . अभी तो बीजेपी की सरकार  है. पूंजीवादी अर्थशास्त्र की समर्थक बीजेपी के लिए किसानों की हितैषी होना संभव ही नहीं है क्योंकि पूंजी के बल पर अपनी शक्ति को मज़बूत कर रहे वर्गों के लिए ज़रूरी है कि वे किसान और मजदूर का शोषण करें . उनकी मेहनत का जो सरप्लस होता  है वही तो पूंजीवादी अर्थशास्त्र में उद्यमी का मुनाफ़ा कहलाता है . मुनाफे की पक्षधर जमातें कभी भी गरीब की पक्षधर नहीं हो सकतीं . यह अलग बात है कि मज़बूत  विपक्ष की  गैर मौजूदगी में सत्ताधारी पक्ष के प्रवक्ता लोग हर तीसरे चौथे वाक्य में गरीब शब्द का प्रयोग  करते रहते हैं . इसका मतलब यह नहीं है कि कांग्रेस या सत्ताधारी वर्ग की अन्य पार्टियां किसानों की या गरीबों की भलाई की राजनीति को महत्व देती हैं. अभी कुछ दिन पहले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल का बयान आया था कि दिल्ली में ठीक से सरकार चलाना इसलिए मुश्किल होता है कि बाहर  के राज्यों के लोग यहाँ आ कर बस जाते हैं. या काम की तलाश में आये उत्तर प्रदेश, बिहार ,मध्य प्रदेश और राजस्थान के लोग दिल्ली की व्यवस्था को गड़बड़ा देते हैं .
जहां तक कांग्रेस की बात है , ग्रीन रिवोल्यूशन के बाद कांग्रेस ने कोई ऐसा काम नहीं किया है जिससे किसानों की इज्ज़त और उनकी कमाई में  वृद्धि हो. बीजेपी की सरकार तो साढ़े चार साल पहले आई  है ,उसके पहले दस साल तक देश में कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार थी . उस सरकार के गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने तो कई बार दिल्ली में बाहर से आने वाले और मजदूरी तलाशने वाले लोगों को दिल्ली के बढ़ते अपराध के आंकड़ों के लिए ज़िम्मेदार बता दिया था . दिसम्बर २०१० में एक बार नई दिल्ली नगर परिषद के सिटी सेंटर का उद्घाटन करने आये तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदंबरम ने  यह बातें जोर देकर कही थीं और  उसकी विधिवत व्याख्या की थी . उन्होंने दावा किया कि दिल्ली में बहुत बड़ी संख्या में अनधिकृत कालोनियां हैं .बाहर से आकर जो लोग इन कालोनियों में रहते हैं . उनका आचरण एक आधुनिक शहर में रहने वालों को मंज़ूर नहीं है और इसकी वजह सी अपराध में वृद्धि होती है . बाद में राजनीतिक कारणों से चिदंबरम को यह बयान वापस लेना पड़ा था लेकिन उनके बयान ने शासक वर्गों की नकारात्मक सोच की पोल तो खोल ही दी थी .

दिल्ली में सत्ता के गलियारों में विराजने वाले लोग ऐसे ही सोचते हैं . इसी सोच का नतीजा है कि दिल्ली में चौधरी चरण सिंह की समाधि तक आ आ रहे किसानों को रोकने का ज़िम्मा पुलिस को दिया गया क्योंकि दिल्ली के आकाओं को शक था कि जो लोग गाँव से आ रहे हैं और किसान हैं , वे अपराधी भी होंगे.इन लोगों की यह सोच खोटी है .शासकों  को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि दिल्ली वास्तव में बाहर से आये हुए लोगों का शहर है . कुछ लोग बाद में आये और कुछ लोग पहले आ चुके थे .अगर वे १९५१ की जनगणना की रिपोर्ट पर नज़र डालें तो उन्हें पता लग जाएगा कि उस साल दिल्ली की आबादी चार लाख पैंसठ हज़ार थी जबकि कानपुर की आबादी चार लाख पचहत्तर हज़ार थी . कांग्रेस की औद्योगिक और आर्थिक नीति में कमियों के कारण आज कानपुर शहर उजड़ गया और दिल्ली शहर की आबादी तब से पच्चीस गुना से भी ज्यादा बढ़ गयी. १९५१ में दिल्ली में तीन मिलें थीं जबकि कानपुर में सैकड़ों मिलें थीं और इतना बड़ा औद्योगिक तंत्र था कि उसे मैनचेस्टर ऑफ़  ईस्ट कहते थे. कानपुर में आ कर अपनी रोजी रोटी कमाने के अवसर सूख गए तो लोग दिल्ली आने लगे. गाँवों के विकास के लिए केंद्र और राज्यों की किसी सरकार ने कुछ नहीं किया . आज गाँव में रहने वाला आदमी भरी पूरी खेती के बावजूद भी गरीब ही बना रहने के लिए अभिशप्त है . हद तो यह है कि जब वह सरकार से अपने अधिकारों की मांग करता है तो उसे लाठी ,आंसू गैस और पानी की तोप से मारा जाता है.
खेती से भाग रहे इन्हीं लोगों के कारण बड़े शहरों में गाँव से आया सस्ता मजदूर ठोकर खाता है बड़े शहर की आबादी बढाता है . इसके  लिए देश के गाँवों में विकास की शून्यता ही ज़िम्मेदार है . भारत गाँवों का है . लेकिन गाँवों के विकास के लिए सरकारी नीतियों में बहुत ही तिरस्कार का भाव रहता है .पहली पंचवर्षीय योजना में जो कुछ गाँवों के लिए तय किया गया था , वह भी नहीं पूरा किया जा सका जबकि शहरों के विकास के लिए नित ही नयी योजनायें बनती रहीं . नतीजा यह हुआ कि गाँवों और शहरों के बीच की खाईं लगातार बढ़ती रही. सत्तर के दशक में तो ग्रामीण विकास का ज़िम्मा पूरी तरह से उन लोगों के आर्थिक योगदान के हवाले कर दिया गया तो शहरों में रहते थे और अपने गाँव में मनी आर्डर भेजते थे . गाँवों के आर्थिक विकास के लिए पहली पंच वर्षीय योजना में ब्लाक की स्थापना की गयी और ब्लाक को ही विकास की यूनिट मान लिया गया . यह महात्मा गांधी की सोच से बिलकुल अलग तरह की सोच का नतीजा था . गाँधी जी ने कहा था कि गाँव को विकास की इकाई बनाया जाय और ग्रामीण स्तर पर उपलब्ध संसाधनों को गाँव के विकास में लगाया जाय . उन्होंने अपनी किताब ग्राम स्वराज के हवाले से भारत की आज़ादी के बाद के भारत के विकास के लिए एक विचार प्रस्तुत किया था . उन्हें उम्मीद थी आज़ादी के बाद गाँवों के विकास को प्राथमिकता दी जायेगी . महात्मा जी की इच्छा थी कि पंचायती राज संस्थाओं को इतना मज़बूत कर दिया जाय कि ग्रामीण स्तर पर ही बहुत सारी समस्याओं का हल निकल आये लेकिन ऐसा नहीं हुआ और ब्लाक डेवलपमेंट के खेल में देश के गाँवों के आर्थिक विकास को फंसा दिया गया  . कांग्रेस ने जो दोषपूर्ण विकास का माडल १९५२  में बनाया था , गाँवों में रहने वाला व्यक्ति उसी का शिकार हो रहा है.उत्तर प्रदेश और बिहार के गाँवों में रोज़गार के अवसर बिलकुल नहीं हैं .नेताओं के साथ जुड़कर कुछ युवक ठेकेदारी वगैरह में एडजस्ट हो जाते हैं . बड़ी संख्या में नौजवान लोग मुकामी नेताओं के आस पास मंडराते रहते हैं और उम्मीद लगाए रहते हैं कि शायद कभी न कभी कोई काम हो जाएगा .उनमें न तो हिम्मत की कमी है और न ही उद्यमिता की . सरकारी नीतियों की गड़बड़ी की वजह से उनके पास अवसर की भारी कमी रहती है.और इस अवसर की कमी के लिए गलत राजनीतिक फैसले जिम्मेवार रहते हैं. एक उदाहरण से बात और साफ़ हो जायेगी . जब से ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के तहत गाँवों में काम शुरू हुआ है उत्तर प्रदेश और बिहार से पंजाब जा कर खेतिहर मजदूर बनने वालों की संख्या में भारी कमी आई है .इसका मतलब यह हुआ कि अगर गाँवों में रोज़गार के नाम पर मजदूरी के अवसर भी मिलें तो नौजवान दिल्ली जैसे बड़े शहरों में आने के बारे में सोचना बंद कर देगें . तकलीफ की बात यह है कि अपना घर बार और परिवार छोड़कर दिल्ली आने वाला नौजवान यहाँ दिल्ली में उन लोगों की ज़बान से अपराध के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाता है जिनकी पार्टी के गलत नीतियों के कारण उसके गाँवों की दुर्दशा हई है .

ध्यान देने की बात यह है कि किसानों के लिए लाल बहादुर शास्त्री की सरकार के बाद किसी ने कुछ नहीं सोचा . किसान अपने तरकीबों के सहारे छोड़ दिया गया और आज किसानी की हालत ऐसी स्थिति में पंहुच गयी है  कि   ज़्यादातर किसान खेती से भागना चाहते हैं . जो  किसानी के काम में लगा हुआ है उसको सरकारें अपमानित करती हैं , उसको केवल वोट देने की मशीन मानती हैं . इन हालात को जल्द से जल्द सुधारना पडेगा वरना देश की बड़ी आबादी सत्ता तंत्र से अलग थलग पड़ सकती है .

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