Friday, October 19, 2018

धर्म का उद्देश्य सबका कल्याण है , धर्म में परपीड़ा की कोई जगह नहीं



शेष नारायण सिंह
नौ दिन के नवरात्र बीत गए . आसपास का पूरा माहौल धर्ममय था . चारों तरफ श्रद्धा और आस्था का माहौल था .. दुर्गा जी के अलग अलग रूपों की पूजा अर्चना होती रही . बच्चे बूढ़े सभी भक्ति में सराबोर रहे. मेरे जैसे लोग भी बच्चों के साथ  पूजा पंडाल में जाते रहे . विद्वान पत्रकार और अग्रणी साहित्यकार विष्णु नागर ने अपनी दुर्गापूजा की अनुभूतियों को बहुत ही दिव्य भाषा में लिखा : "आज इस अधार्मिक व्यक्ति ने धर्म का लाभ उठाने में चूक नहीं की,बिल्कुल नेताओं की तरह।हमारे इलाके में बांग्लाभाषी बड़ी संख्या में हैं और दुर्गा पूजा एकदम आसपास के इलाके में तीन जगह होती है।आज सप्तमी को खिचड़ी और लाबड़ा(मिक्स सब्जी) बनता है।कुछ साल पहले यहाँ की कालीबाड़ी में बेटा -बहू और पोते समेत रौनक और सांस्कृतिक कार्यक्रम देखने गये तो वहाँ खिचड़ी और लाबड़ा वितरण चल रहा था। शायद दिन का बच गया था।खाया तो खूब आनंद आया।फिर पता चला कि सप्तमी को दिन में बाकायदा भोजन मिलता है।अगले साल से जाने लगे और खिचड़ी का स्वर्गिक आनंद लेने लगे।यहाँ लाइन में लगकर थाली लेना चाहें तो वह व्यवस्था भी है और बाकायदा बैंच और टेबल पर खाना चाहें तो वह भी।हमने आज सभ्यता का चोलाधारण कर भोजन ग्रहण किया।खिचड़ी,लाबड़ापत्तागोभी की सब्जी भरपेट खाई और फिर खीर और गुलाबजामुन प्राप्त किया।सब उत्कृष्ट।डटकर खाया।सोचा कि जब देवी के नाम पर इतनी बढ़िया खिचड़ी का भोजन किया है तो देवी को नमस्कार भी कर दें,सो मानवी मानकर वह भी कर दिया।कल पास में हमारे पड़ोस की एक बच्ची का कथक नृत्य देखने जाना था तो दुर्गा कथा का भी लाभ मिल गया।क्या तैयारी और क्या सामूहिक गायन था।इतना सुदीर्घ न होता तो इसके संगीत पक्ष का आनंद और अधिक ले पाता।नवमी तक हमारे इलाके में जैसी रौनक शाम- रात को होती है,वैसी सालभर तक कभी देखने को नहीं मिलती।"
धर्म का अर्थ वास्तव में मानव जीवन में आनंद की स्थिति उत्पन्न करना है . नास्तिक और अधार्मिक होते ही भी विष्णु जी ने अपने बच्चों के साथ अपने सामजिक परिवेश में धार्मिक माहौल का आनंद लिया . धर्म के और भी बहुत सारे उद्देश्य होंगें लेकिन यह भी एक महत्वपूर्ण  उद्देश्य है.  अपने देश में बहुत सारे ऐसे दर्शन हैं जिनमें ईश्वर की अवधारणा ही  नहीं है . ज़ाहिर है उन दर्शनों पर  आधारित धर्मों में में ईश्वर की पूजा का कोई विधान नहीं होगा. देश में नास्तिकों की भी बहुत बड़ी संख्या है . उनके लिए भी किसी देवी देवता का पूजन बेमतलब है . लेकिन सामाजिक स्तर पर धार्मिक गतिविधियां होती रहती हैं और  नास्तिक भी उसमें शामिल होते हैं .  ऐसा इसलिए होता  है कि अपनी मूल डिजाइन में कोई भी धर्म समावेशी होता है , वह अधिकतम संख्या को अपने आप में शामिल करने में विश्वास करता है .
धर्म के सम्बन्ध में बहस राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में भी चली थी. उस दौर में राष्ट्रीय आन्दोलन के अंदर जो प्रगतिशील आन्दोलन की धारा थी उसके लिए धर्म की  मार्क्सवादी व्याख्या को भारतीय   सन्दर्भ में समायोजित करने की  चुनौती थी . आखिर में  तय हुआ कि धर्म का जो सांगठनिक पक्ष है वह तो कर्मकांडी लोगों का ही क्षेत्र है लेकिन धर्म से  जुडी जो  सांस्कृतिक गतिविधियाँ हैं उनका धर्म के कर्मकांड से कोई लेना देना नहीं है .वह वास्तव में जनसंस्कृति का हिस्सा है . ऐसा इसलिए भी  है कि पूजा पद्धति में वर्णित पूजा विधियां तो लगभग सभी जगह  एक ही होती हैं और उनका निष्पादन धार्मिक कार्य करने वाले करते हैं . यह सभी धर्मों में  अपने अपने तरह से संपादित किया जाता  है लेकिन उसके साथ वे कार्य जिसमें आम जनता पहल करती है और शामिल होती है वह जनभावना होती है .उसमें मुकामी संस्कृति अपने  रूप में प्रकट होती है .बंगाल में दुर्गापूजा तो धार्मिक जीवन का हिस्सा है लेकिन उसी स्तर पर वह लोकजीवन का भी  हिस्सा है . पूजा पंडालों  में देश -काल के हवाले से हमेशा ही बदलाव होते रहते हैं . उसी तरह से पूजा के अवसर पर होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम भी  हालाँकि धार्मिक होते हैं लेकिन उनका स्थाई और संचारी भाव लोकजीवन और क्षेत्रीय संस्कृति से  जुड़ा हुआ होता  है .
पश्चिम बंगाल में जब १९७७ में लेफ्ट फ्रंट की सरकार बनी तो  विचारधारा के स्तर पर यह चर्चा एक बार फिर हुयी और यही सही पाया गया कि संस्कृति की रक्षा अगर करनी है तो उससे जुड़े  आम आदमी के काम को महत्व देना ही होगा .जहां तक धर्म के शुद्ध रूप की बात है उसमें भी किसी तरह के झगड़े का स्पेस नहीं होता .दर्शन शास्त्र के लगभग सभी विद्वानों ने धर्म को परिभाषित करने का प्रयास किया है। धर्म दर्शन के बड़े ज्ञाता गैलोबे की परिभाषा लगभग सभी ईश्वरवादी धर्मों पर लागू होती है। उनका कहना है कि -''धर्म अपने से परे किसी शक्ति में श्रद्धा है जिसके द्वारा वह अपनी भावात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है और जीवन में स्थिरता प्राप्त करना है और जिसे वह उपासना और सेवा में व्यक्त करता है। इसी से मिलती जुलती परिभाषा ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में भी दी गयी है जिसके अनुसार ''धर्म व्यक्ति का ऐसा उच्चतर अदृश्य शक्ति पर विश्वास है जो उसके भविष्य का नियंत्रण करती है जो उसकी आज्ञाकारिताशीलसम्मान और आराधना का विषय है।"

भारत में भी कुछ ऐसे धर्म हैं जो सैद्धांतिक रूप से ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। जैन धर्म में तो ईश्वर की सत्ता के विरुद्ध तर्क भी दिए गये हैं। बौद्ध धर्म में प्रतीत्य समुत्पाद के सिद्धांत को माना गया है जिसके अनुसार प्रत्येक कार्य का कोई कारण होता है और यह संसार कार्य-कारण की अनन्त श्रंखला है। इसी के आधार पर दुख के कारण स्वरूप बारह कडिय़ों की व्याख्या की गयी है। जिन्हें द्वादश निदान का नाम दिया गया है।इसीलिए धर्म वह अभिवृत्ति है जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र कोप्रत्येक क्रिया को प्रभावित करती है। इस अभिवृत्ति का आधार एक सर्वव्यापक विषय के प्रति आस्था है। यह विषय जैन धर्म का कर्म-नियमबौद्धों का प्रतीत्य समुत्पाद का सिद्धांत  या वैष्णवोंईसाइयों और मुसलमानों का ईश्वर हो सकता है। आस्था और विश्वास में अंतर है। विश्वास तर्क और सामान्य प्रेक्षण पर आधारित होता है लेकिन आस्था तर्क से परे की स्थिति है। पाश्चात्य  दार्शनिक इमैनुअल  कांट ने आस्था की परिभाषा की है। उनके अनुसार ''आस्था वह है जिसमें आत्मनिष्ठ रूप से पर्याप्त लेकिन वस्तुनिष्ठ रूप से अपर्याप्त ज्ञान हो।"आस्था का विषय बुद्धि  या तर्क के बिल्कुल विपरीत नहीं होता लेकिन उसे तर्क की कसौटी पर कसने की कोशिश भी नहीं की जानी चाहिए। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि जो धार्मिक मान्यताएं बुद्धि के विपरीत होंवे स्वीकार्य नहीं। धार्मिक आस्था तर्कातीत है तर्क विपरीत नहीं। सच्चाई यह है कि धार्मिक आस्था का आधार अनुभूति है। यह अनुभूति सामान्य अनुभूतियों से भिन्न है। इसी अनुभूति को रहस्यात्मक अनुभूति या समाधिजन्य अनुभूति कहा सा सकता  है। धार्मिक मान्यता है कि यह अनुभूति सबको नहीं होती केवल उनको ही होती है जो अपने आपको इसके लिए तैयार करते हैं।


इस अनुभूति को प्राप्त करने के लिए धर्म में साधना का मार्ग बताया गया है। इस साधना की पहली शर्त है अहंकार का त्याग करना। जब तक व्यक्ति तेरे-मेरे के भाव से मुक्त नहीं होगातब तक चित्त निर्मल नहीं होगा और दिव्य अनुभूति प्राप्त नहीं होगी। इस अनुभूति का वर्णन नहीं किया जा सकता क्योंकि इस अनुभूति के वक्त ज्ञाताज्ञेय और ज्ञान की त्रिपुरी नहीं रहती। कोई भी साधक जब इस अनुभूति का वर्णन करता है तो वह वर्णन अपूर्ण रहता है। इसीलिए संतों और साधकों ने इसके वर्णन के लिए प्रतीकों का सहारा लिया है। प्रतीक उसी परिवेश के लिए जाते हैंजिसमें साधक रहता है इसीलिए अलग-अलग साधकों के वर्णन अलग-अलग होते हैंअनुभूति की एकरूपता नहीं रहती।
लेकिन इस बात में बहस नहीं है कि इस दिव्य अनुभूति का प्रभाव सभी देशों में रहने वाले साधकों पर एक सा पड़ता है। यही नहीं यह सर्वकालिक भी है .
आध्यात्मिक अनुभूति की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि सन्त चरित्र है। सभी धर्मों के संतों का चरित्र एक सा रहता है। सन्तों का जीवन के प्रति दृष्टिïकोण बदल जाता हैऐसे सन्तों की भाषा सदैव प्रतीकात्मक होती है। इसका उद्देश्य किसी वस्तुसत्ता का वर्णन करना न होकरजिज्ञासुओं तथा साधकों में ऊंची भावनाएं जागृत करना होता है। सन्तों में भौतिक सुखों के प्रति उदासीनता का भाव पाया जाता है। लेकिन यह उदासीनता नकारात्मक नहीं होती। पतंजलि ने साफ साफ कहा है कि योग साधक के मन में मैत्रीकरुणा एवं मुदिता अर्थात दूसरों के सुख में संतोष के गुण होने चाहिये।
धर्म की बुलंदी यह  है कि जो वास्तव में धार्मिक होते हैं वे मानवीय तकलीफों के प्रति उदासीन नहीं होते। रामचरित मानस के अरण्यकांड के अंत मे संत तुलसीदास ने सन्तों के स्वभाव की विवेचना की है। कहते हैं-संत सबके सहज मित्र होते हैं-श्रदधा , क्षमामैत्री और करुणा उनके स्वाभाविक गुण होते हैं। मैत्रीकरुणामुदिता और सांसारिक भावों के प्रति उपेक्षा ही संत का लक्षण है .किसी भी धर्म की सर्वोच्च उपलब्धि सन्त का चरित्र ही है।
धर्म के किसी भी कार्य में संकीर्णता के लिए कोई जगह नहीं होती . जब घोषित रूप से धर्म का उद्देश्य ' दूसरों के सुख में संतोष' ही है तो धर्म के नाम पर हिंसा तो किसी तरह से धर्म का काम हो ही नहीं सकती . इसलिए वर्तमान धार्मिक नेताओं और धर्म के नाम अपर राजनीति करने वाले राजनीतिक नेताओं को यह तय करना पडेगा कि जब धर्म में ' मैत्रीकरुणा एवं मुदिता' सबसे ज़रूरी शर्त है तो अपने समर्थकों को हिंसक गतिविधियों से दूर रहने की प्रेरणा दें . यह बात सबरीमाला में भी लागू होनी चाहिए और अयोध्या में भी . संत तुलसीदास ने भी कह दिया है :' परहित सरिस धर्म नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई ' पाकिस्तान में बैठे जो लोग धर्म के नाम पर देश की एक बड़ी आबादी को  अधार्मिक काम करने को प्रेरित कर रहें ,उनको नियम कानून के हिसाब से दण्डित किया जाना चाहिए .  

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