Monday, March 26, 2018

नरेंद्र मोदी को २०१९ में किसी एक नेता से चुनौती नहीं मिलेगी

   
शेष नारायण सिंह
कांग्रेस का एक और अधिवेशन समाप्त हो गया . अध्यक्ष के रूप में राहुल गांधी का यह पहला अधिवेशन था .उनके परिवार में कांग्रेस  का अध्यक्ष होने की परम्परा रही है . आज से करीब एक सौ साल पहले उनके  पूर्वज मोतीलाल नेहरू को १९१९ में अमृतसर में  हुए कांग्रेस अधिवेशन में अध्यक्ष बनाया गया था .  वह भारतीय राजनीति का बहुत ही महत्वपूर्ण दौर है . महात्मा गांधी का भारतीय राजनीति में आगमन  हो चुका था.  उन दिनों कभी कभी साल में दो बार कांग्रेस का अधिवेशन होता था .मसलन १९१८ और १९२० में कांग्रेस का सत्र दो बार बुलाया  गया . १९२९ औत १९३० में जवाहरलाल नेहरू लगातार कांग्रेस के अध्यक्ष बनाए  गए थे. इसी अधिवेशन में पूर्ण स्वराज और दांडी मार्च के फैसले लिए गए थे.
लेकिन तब से अब तक यमुना में बहुत पानी बह चुका है. गांधी-नेहरू-पटेल की कांग्रेस का पूरा कायाकल्प हो चुका  है. जब १९६९ में कांग्रेस में पहली टूट हुयी थी,तो इंदिरा गांधी के युग की शुरुआत हो गयी थी. उसके बाद तो उन्होंने कांग्रेस को अपने नाम से ही चलाया . इंदिरा कांग्रेस  बनने तक कांग्रेस अध्यक्ष बनना बहुत बड़ी बात मानी जाती थी.  इंदिरा जी के बाद तो उनकी मर्जी का कोई नेता या उनके परिवार का कोई सदस्य कांग्रेस अध्यक्ष बनता रहा. कांग्रेस का मौजूदा अधिवेशन भी करीब आठ साल बाद बुलाया   गया है .  राहुल गांधी अध्यक्ष बन गए और उन्होने ज़ोरदार भाषण दिया . लोग उम्मीद कर रहे हैं कि उनका कार्यकर्ता इसके बाद बहुत उत्साहित होगा . उत्साहित होगा भी ,जहाँ कांग्रेस एक मज़बूत राजनीतिक पार्टी के रूप में पहचानी जाती है लेकिन कई राज्यों में तो कांग्रेस बहुत ही कमज़ोर राजनीतिक दल के रूप में पहचानी जाती है . इसलिए उन राज्यों में कांग्रेस कार्यकर्ता उत्साहित कहाँ होगा  . इन राज्यों में  कांग्रेस कार्यकर्ता  हर गली मोहल्ले में मौजूद ही नहीं है . उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों से तो कांग्रेस कार्यकर्ता गायब ही है .पूर्वोत्तर भारत में कभी हर राज्य में कांग्रेस की सरकार हुआ करती थी लेकिन अब एकाध राज्य के अलावा कहीं नहीं है .आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना में भी कांग्रेस हाशिये पर है .इसलिए राहुल गांधी वाली कांग्रेस वर्तमान सत्ताधारी पार्टी ,बीजेपी को चुनौती नहीं दे सकती है . लेकिन अजीब बात है कि राहुल गांधी अभी भी भावी प्रधानमंत्री के रूप में आचरण करते पाए जाते हैं. यही नहीं बीजेपी भी उनको मुख्य विपक्षी मानकर कांग्रेस को ही लक्ष्य बनाकर हमला कर रही है . हालांकि  यह भी सच है कि राहुल गांधी के भाषणों में आजकल बीजेपी को प्रभावशाली तरीके से निशाना बनाया जाता है . बीजेपी  सरकार के चार साल के कामकाज पर जब राहुल गांधी हिसाब मांगते हैं तो सरकारी पार्टी में चिंता साफ देखी जा सकती है .कांग्रेस अधिवेशन में उठाये गये उनके सवालों का जवाब देना बीजेपी के लिए बहुत ही मुश्किल पड़ रहा है.  अक्सर देखा गया  है कि राहुल गांधी के सवालों का जवाब देने के लिए कई कई मंत्रियों को उतारा जाता है और मीडिया में बाकायदा अभियान चलाया जाता है लेकिन महंगाईहर साल दो करोड़ नौकरियाँ , राफेल सौदा  आदि ऐसे सवाल हैं जिनपर बीजेपी किंकर्तव्यविमूढ़ नज़र आ रही है . इस सब के बावजूद  भी यह तय  है कि राहुल गांधी की  कांग्रेस सत्ताधारी बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती नहीं दे सकती .
इसका मतलब  यह कतई नहीं  है कि बीजेपी को २०१९ में चुनौती नहीं मिलेगी . २७२ का लक्ष्य हासिल करने के लिए पार्टी को उत्तर प्रदेश ,बिहारमध्य प्रदेशराजस्थानमहाराष्ट्र  आदि ज़्यादा एम पी भेजने वाले राज्यों में कठिन मेहनत करनी पड़ेगी . लेकिन फूलपुर और गोरखपुर उपचुनावों एक बाद जो संकेत मिल रहे हैंवह भारतीय जनता पार्टी के लिए  बहुत ही चिंताजनक हैं. गोरखपुर में बीजेपी का उम्मीदवार नहीं हारा है , वहां  शुद्ध रूप से  राज्य का मुख्यमंत्री हारा है. बीजेपी उम्मीदवार का तो नाम भी बहुत कम लोगों को मालूम था . फूलपुर में भी हारने वाला कोई कार्यकर्ता या छुटभैया नेता नहीं , राज्य का उपमुख्यमंत्री है. दोनों ही उपचुनावों में सत्ताधारी पार्टी की सारी ताक़त लगी हुयी थी. संकेत साफ़ है कि अगर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी  एक साथ मिलकर चुनाव लड़ेगें तो उत्तर प्रदेश से बीजेपी के उतने सांसद नहीं जीतेंगें जितने २०१९ में जीते थे. . एक बात और सच है कि इन दोनों ही चुनावों में कांग्रेस की औकात रेखांकित हो गयी है . यह तय है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की चुनावी हैसियत  नगण्य है. जिस फारमूले से यह दोनों उपचुनाव  विपक्ष ने जीता है , अगर वही तरीका २०१९ में भी अपना लिया गया तो  बीजेपी के लिए अपनी मौजूदा  ७३ सीटों की  संख्या तक पंहुचना मुश्किल होगा. समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने अगर सीटों का तालमेल कर लिया तो उत्तर प्रदेश में बीजेपी को बड़ा घाटा हो सकता है . यही हाल बिहार का भी है . बिहार में भी बीजेपी को कांग्रेस से कोई चुनौती नहीं मिलने वाली है . कांग्रेस की वहां भी स्थिति उत्तर प्रदेश जैसी ही है . लालू यादव के जेल में होने के बाद हुए उपचुनावों में उनकी पार्टी ने जिस  तरह से अपनी सीटें बरक़रार  रखा है ,उससे साफ  है कि नीतीश कुमार को तोड़कर बीजेपी राज्य सरकार में शामिल तो भले ही हो गयी हो  लेकिन २०१९ में यह साथ बहुत फायदा नहीं पंहुचाने वाला है . ओडीशा में  भी बीजेपी का मुकाबला वहाँ के लोकप्रिय मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से होगा . वहां कांग्रेस को मुख्य विपक्षी दल के रूप में चुनाव लड़ना पडेगा .ज़ाहिर  है , वहां से  भारतीय जनता पार्टी को बहुत उम्मीद रखना अति आशावाद ही माना जाएगा . कर्णाटक में बीजेपी ने  पूर्व मुख्यमंत्री येदुरप्पा को कमान सौंपी है लेकिन वहां भी राजनीतिक खेल बहुत उलझ गया है .  उन्होंने पिछले चुनावों में  बीजेपी से  अलग होकर चुनाव लड़ा था और भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों को हराने में योगदान किया था . इसी वजह से  उनके प्रति बीजेपी के कार्यकर्ताओं में  खासी नाराज़गी   है . येदुरप्पा पर आरोप लग रहे हैं  कि वे उन बीजेपी कार्यकर्ताओं को टिकट आदि में ज्यादा महत्व दे सकते हैं  जो उनके  साथ बीजेपी छोड़कर चले गए थे और येदुरप्पा की जेबी पार्टी से चुनाव लड़ गए थे .उनके मुकाबले कांग्रेस के सिद्दरमैया हैं जो चुनावी  गणित के उस्ताद हैं . ताज़ा जानकारी यह है कि उन्होंने बीजेपी के  सबसे मज़बूत वोट बैंक लिंगायत समुदाय को अपने पक्ष में करने के लिए  ज़बरदस्त शतरंजी चाल चल दी  है . लिंगायत उनके साथ आते  हैं कि नहीं ,यह तो वक़्त ही बताएगा लेकिन यह तय है कुछ न कुछ उठापटक तो होगी ही और बीजेपी की मुश्किलें बढेंगी .  अभी तक कर्णाटक में बी एस येदुरप्पा लिंगायतों के सबसे बड़े राजनीतिक नेता हैं. माना जाता है कि लिंगायतों के चक्कर में ही बीजेपी आलाकमान ने उनको दोबारा पार्टी में लाकर मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार बना दिया था .  येदुरप्पा आजकल बहुत ही चिंतित व्यक्ति हैं . लिंगायतों की बहुत पुरानी मांग को ऐन चुनाव के पहले मुद्दा बनाकर सिद्दरमैया ने  उनकी मुश्किलें बहुत बढ़ा दी हैं. बीजेपी की कर्णाटक में संभावित जीत के लिए पार्टी को लिंगायतों का एक मुश्त वोट मिलना चाहिए लेकिन सिद्दरमैया  ने लिंगायतों को अल्पसंख्यक धर्म बनाने के पासा  फेंककर खेल  को जटिल बना दिया है .
लिंगायत धर्म के मानने वाले अपने धर्म को विकसित और वैज्ञानिक  धर्म कहते  हैं . पारंपरिक  हिंदू धर्म में  वर्णाश्रम धर्म की व्यवस्था है . जिसमें उंच नीच का भाव समाहित है .  ब्राह्मण , क्षत्रिय ,वैश्य  और शूद्र में बंटा हिन्दू समाज एक नहीं रह गया था . इस  समाज व्यवस्था में लिंगायतों के बारहवीं सदी के ऋषि  बसवेश्वर ने बदल दिया और वर्गीकरण की व्यवस्था को  हटा दिया। उनके अनुयायियों को ही लिंगायत मना जाता है . इस तरह जातियों की राजनीति के ज़रिये सिद्दरमैया करनाटक में कांग्रेस की जीत सुनिश्चित करना चाहते हैं . अगर ऐसा हुआ तो कर्नाटक से भी बीजेपी को मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है .करनाटक के अलावा बीजेपी को मध्य प्रदेशराजस्थान ,पंजाब , महाराष्ट्र ,गुजरात और कश्मीर में कांग्रेस से चुनौती मिल सकती है. जबकि उत्तर प्रदेश ,बिहारआंध्र प्रदेश ,तेलंगानामें  क्षेत्रीय पार्टियां बीजेपी को दिल्ली की सत्ता तक पंहुचने से रोकने की कोशिश करेंगीं.इसलिए यह साफ़ तरीके से कहा जा सकता है  कि २०१९ में बीजेपी के खिलाफ कांग्रेस की भूमिका एक राष्ट्रीय दल की नहीं क्षेत्रीय दल की होगी. हालांकि राहुल गांधी अभी भी अपने चेलों को मुख्य भूमिका देने के चक्कर में रहते देखे जा रहे हैं लेकिन अब सोनिया गांधी ने रणनीतिक दखल देनी शुरू कर दिया है और इस बात का अंदाज़  लगने लगा  है  कि सत्ताधारी पार्टी को अलग अलग इलाकों में अलग अलग पार्टियों और अलग तरीकों से  चुनौती  मिलने वाली है . कुछ भी हो फूलपुर और गोरखपुर उपचुनावों ने २०१९ के लिए राजनीतिक विमर्श की दिशा बदल दी है . और अब दिल्ली में विपक्ष की राजनीति के पुरोधा यह बात मंद मंद ही सही लेकिन कहने लगे हैं  कि अलग अलग राज्यों में  वहां की मज़बूत पार्टियां बीजेपी को घेरेंगी और सत्ता की तिकड़मबाज़ी नतीजे आने के बाद होगी . पी वी नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व में  कांग्रेस की चुनावी हार के बाद जिस तरह से देवेगौड़ा जैसे नेता को प्रधानमंत्री बाण दिया गया था , उस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता . जहां तक नरेंद्र मोदी की बात है ,कांग्रेस के कमज़ोर और सिमट जाने के बाद यह लगभग तय है कि उनको  पूरे भारत में कोई एक नेता चुनौती नहीं दे सकता .

Monday, March 12, 2018

जन्मदिन मुबारक साथी जयशंकर गुप्त


शेष नारायण सिंह 

आज ( ५ मार्च  ) जयशंकर गुप्त का जन्मदिन है. जयशंकर मेरे बहुत ही प्रिय हैं . इसलिए कि उन्होंने वे सभी काम किये जो जीवन में मैं करना चाहता था . एक प्रखर समाजवादी के रूप में जीवन शुरू किया ,छात्र जीवन में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इमरजेंसी के खिलाफ ज़बरदस्त छात्र नेता रहे. मधु लिमये, जार्ज फर्नांडीज़, राज नारायण ,लाडली मोहन निगम, मधु दंडवते , जनेश्वर मिश्र जैसे समाजवादियों के सत्संग में उनका नाम बहुत ही सम्मान से लिया जाता था. उनके पिता जी डॉ लोहिया के मित्र थे. उत्तर प्रदेश में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के विधायक रहे. जयशंकर गुप्त और उनके साथ इंदिरा गांधी की तानाशाही को चुनौती देने वाले नौजवानों की हिम्मत का ही जलवा था कि पूरे उत्तर भारत में इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी चुनाव हारी और केंद्र में पहली गैर कांग्रेस सरकार की स्थापना हुई. जनता पार्टी की सरकार उसी आन्दोलन की सरकार थी जिसमें देश के नौजवान जेल गए थे. लेकिन अपनी सरकार आने के बाद भी अन्याय के खिलाफ जयशंकर संघर्ष करते रहे. जनता पार्टी के राज में भी जेल गए . इन नौजवानों की समझ में उसी दौर में आ गया था कि केवल सत्ता बदली है शासक की मनोदशा नहीं बदली.
बहरहाल उसके बाद जयशंकर को सद्बुद्धि मिली और उन्होंने गीता जी से शादी कर ली , देश के शीर्ष पत्रकारिता संस्थाओं में काम किया , तीन बहुत ही अच्छे बच्चों के माता-पिता बने और जहां भी जाते हैं , इज्ज़त से पहचाने जाते हैं . मेरा उनसे कुछ ज़्यादा अपनापन इसलिए भी है कि मेरे गुरु ,स्व मधु लिमये उनको बहुत मानते थे, उनका बहुत ही सम्मान से नाम लेते थे.
जन्मदिन मुबारक जयशंकर, बहुत बहुत मुबारक 

जब तक लड़कियों को उचित शिक्षा नहीं मिलेगी ,समाज नहीं बदलेगा

शेष नारायण सिंह 

महिला दिवस पर मेरी इच्छा है कि मेरे गाँव की लड़कियों को भी कम से कम अपनी शिक्षा के अनुसार काम करने और अपनी पसंद की शादी करने का अधिकार मिले.
महिला दिवस के दिन अच्छे भविष्य का संकल्प लेने की ज़रूरत सबसे ज्यादा गाँव में होती है . मेरे बचपन में मेरे गाँव में महिलाओं की इज्ज़त कोई नहीं करता था. लड़कियों को बोझ माना जाता था. उनके जन्म के बाद से ही उनकी शादी की बातें शुरू हो जाती थीं. चौदह पंद्रह साल की होते होते शादी हो जाती थी. मेरे गाँव की ज़्यादातर लड़कियों की शादी सरुवार में होती थी. माना जाता था कि अयोध्या में जब स्टीमर से सरजू पार करके लकड़मंडी पंहुचते थे तो सरुवार का इलाका शुरू हो जाता है . अब तो सरजू नदी पर पुल बन गया है . लकड़मंडी से गोंडा और बस्ती की सवारी मिलती थी. वहीं हमारे गाँव की लडकियां ब्याही जाती थीं. लेकिन जब से मैंने होश सम्भाला सरुवार में शादी ब्याह लगभग ख़त्म हो गया है . अब फैजाबाद, प्रतापगढ़ और रायबरेली में लडकियां ब्याही जाती हैं. उतनी दूर अब कोई भी लडकियां भेजने को तैयार नहीं है .
शादी के तीन साल के अन्दर गौना किया जाता था.गौने में जाती हुयी लडकियां जितना रोती थीं ,उसको सुनकर दिल दहल जाता था. मुझे याद है कि जब मैंने अपनी माई से पूछा कि लडकियां रोती क्यों हैं तो उन्होंने बताया कि अपने माता पिता ,भाई-बहन, सही सहेलर को छोड़ने का दुख बहुत बड़ा होता है . लडकी किसी की विदा हो रही हो पूरे गाँव की औरतें रोती थीं. उनको अपनी बेटी की विदाई याद आती रहती थी . अपनी खुद की विदाई याद आती थी. माहौल में पूरा कोहराम होता था. रोते बिलखते लडकी चली जाती थी . ससुराल से लौटकर आई लड़कियां जब वहां की कठिन ज़िंदगी की बात अपनी मां को बताती थीं तो बहुत तकलीफ होती थी लेकिन गाँव वालों को अच्छी ससुराल की कहानी बताई जाती थी.
ग़रीबी के तरह तरह के आयाम का अनुभव मुझे उन्हीं लड़कियों की शादी और उसकी तैयारी में देखने को मिला . दहेज़ का आतंक अब जैसा तो नहीं था लेकिन जो भी अतिरिक्त खर्च शादी में किया जाता था , गिरस्त पर भारी पड़ता था. उसी गरीबी में अंदर छुपी खुशियों को तलाशने की जो कोशिश की जाती थी , उन दिनों मुझे वह सामान्य लगती थी . अब लगता है कि अशिक्षा के आतंक के चलते लोगों को मालूम ही नहीं चलता था कि वे घोर गरीबी में जी रहे हैं .
जिन लोगों के घर की लडकियां थोडा बहुत पढ़ लेती थीं, उनकी हालत बदल जाती थी. मसलन मेरी क्लास में पढने वाली लड़कियों ने जब मिडिल पास कर लिया तो उनको सरकारी कन्या पाठशाला में नौकरी मिल गयी और उनका दलिद्दर भाग गया . आस पड़ोस की गाँवों में लड़कियों में पढने का रिवाज़ था .नरिन्दापुर और बूधापुर की लडकियां प्राइमरी तो पास कर ही लेती थीं. इन गाँवों में पुरुष शिक्षित थे सरकारी काम करते थे लेकिन बाकी गाँवों की हालत बहुत ख़राब थी.
सोचता हूँ कि अगर उस वक़्त के मुकामी नेताओं ने महात्मा गांधी की तरह लड़कियों की शिक्षा की बात की होती तो हालात इतने न बिगड़ते . आज भी हालात बहुत सुधरे नहीं हैं . अपने उद्यम से ही लोग लड़कियों को पढ़ा लिखा रहे हैं लेकिन उद्देश्य सब का शादी करके बेटी को हांक देना ही रहता है . जब तक यह नहीं बदलता मेरे जैसे गाँवों में महिला दिवस की जानकारी भी नहीं पंहुचेगी .
इसी माहौल में मेरी माई ने एड़ी चोटी का जोर लगाकर अपनी बेटियों को पढ़ाने की कोशिश की थी. नहीं कर पाईं. लेकिन अपने चारों बच्चों के दिमाग में शिक्षा के महत्व को भर दिया था . नतीजा यह है कि उनकी सभी लड़कियों ने उच्च शिक्षा पाई और सब अपनी अपनी लडाइयां लड़ रही हैं . आज महिला दिवस पर मेरी इच्छा है कि मेरे गाँव की लड़कियों को भी कम से कम अपनी शिक्षा के अनुसार काम करने और अपनी पसंद की शादी करने का अधिकार मिले. फिर उनकी नहीं तो उनकी लड़कियों की जिंदगियां बाकी दुनिया की महिलाओं जैसी हो जायेगी .

Sunday, March 11, 2018

लेनिन का विरोध बीजेपी की राजनीति है.राम विरोधी पेरियार का जयकारा लगना बीजेपी की राजनीतिक मजबूरी

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शेष नारायण सिंह


देश के  कई हिस्सों में मूर्तिभंजकों का  आतंक है . अपने  बुलडोज़रों  और छेनी-हथौड़ों से वे सब कुछ नष्ट कर देना चाहते हैं . भारत का संविधानभारत की एकताभारत की आस्था और  भारत की विवधता सब कुछ उनके निशाने पर है . मूर्तिभंजन के रास्ते राजनीतिक विरोधी को अपमानित करने का खेल त्रिपुरा से शुरू हुआ और अब बंगाल होते हुए तमिलनाडु के  रास्ते उत्तर प्रदेश के मेरठ तक पंहुच चुका है . त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति ढहाई गयी बंगाल में  जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखार्जी की  मूर्ति पर कालिख पोती गयी मेरठ में भीमराव आंबेडकर की मूर्ति तोडी गयी और तमिलनाडु में   पेरियार की मूर्ति से छेड़छाड़ करके उनके अनुयायियों को औकात बताने की कोशिश की गयी .त्रिपुरा में  कम्युनिस्टों को चुनाव में हराने के बाद बीजेपी  वालों ने वहां लेनिन की मूर्ति को जेसीबी लगाकर ज़मींदोज़ कर दिया . अजीब बात यह थी कि वहां के राज्यपाल ने भी इसको उचित  ठहराने  की कोशिश की और कहा कि नई सरकार आती है तो पुरानी सरकार के कम को बदल देती है . उनकी यह बात अजीब लगी क्योंकि अभी राज्यपाल महोदय  ने नई सरकार को शपथ तक  नहीं दिलवाई थी और नई सरकार की बात कर रहे  थे. तो क्या वे उन सब लोगों को सरकार समझ रहे हैं जिन्होंने पिछली सरकार को हराने के लिए बीजेपी को वोट दिया थाक्या राज्यपाल महोदय भीड़ को ही  सरकार  मान बैठे थे . उसके बाद दिन भर बीजेपी और आर एस एस के प्रवक्ता टीवी चैनलों पर त्रिपुरा के हुडदंग को उचित ठहराते रहे . उनके तर्क ऐसे थे जिनको हास्यास्पद मानना भी ज्यादती होगी . केंद्र सरकार भी बिलकुल चुप रही जैसे कहीं कुछ हुआ ही नहीं . शायद संविधान की रक्षा की ज़िम्मेदारी के ऊपर चुनावी जीत हार का गणित भारी पड़ रहा था. लेकिन जब अगले दिन पेरियार ,आंबेडकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी की मूर्तियों से छेडछाड हो गयी तो  केंद्र सरकार की समझ में  आ गया कि मामला केवल  लेनिन तक ही नहीं है . मूर्ति भंजकों को अगर लगाम न लगाई गयी तो देश  में अराजकता फैल सकती है . कम्युनिस्ट विरोधी  वोट को एकजुट करने की  कोशिश में पेरियार और आंबेडकर के समर्थक वोट भी उनकी  पार्टी के खिलाफ जा सकते   हैं . लेनिन की मूर्ति की वारदात के बाद चुप्पी साधे केंद्र सरकार में एकाएक गतिविधियाँ तेज़ हो गईं . प्रधानमंत्री ने गृहमंत्री से बात की और राज्य सरकारों को एडवाइज़री जारी कर दी गयी कि इस तरह की घटनाओं पर रोक लगायें . पेरियार की मूर्ति वाली घटना से केंद्र सरकार और बीजेपी ख़ास तौर से चिंतित नज़र आये क्योंकि अब बीजेपी  अपने आपको गरीबों ,दलितों और ओबीसी की पार्टी के रूप में प्रस्तुत कर रही  हैहर जगह ओबीसी प्रधानमंत्री की बात की जाती है .ओबीसी और दलित वोटों को अपनी तरफ लाने की बड़ी योजना पर काम हो रहा है . ऐसे माहौल में अगर  पेरियार और आंबेडकर के अपमान को नज़रंदाज़ किया गया तो मुश्किल हो सकती  है . पेरियार के मामले में तो बीजेपी की तमिलनाडु इकाई के एक नेता ने ही फेसबुक पर लिख दिया था कि त्रिपुरा  में लेनिन की मूर्ति ढहाना सही था ,उसके बाद तामिलनाडू में पेरियार का वही हाल किया जाएगा . उन नेता  की फेसबुक पोस्ट के सामने आते ही पेरियार की मूर्ति पर हमला हो गया . जिन दो  लोगों को पकड़ा गया उमें एक बीजेपी का कार्यकार्ता भी है . उसके बाद उस नेता ने फेसबुक पोस्ट तो हटा लिया लेकिन तब तक  नुक्सान  हो चुका था,  कर्नाटक में  बीजेपी  को रोकने के अभियान में जुटे सिद्दरमैया ने बात को तूल दे दिया था .
लेनिन की मूर्ति का अपमान तो बीजेपी का एजेंडा हो सकता है लेकिन पेरियार और आंबेडकर का अपमान पार्टी पर भारी  पड़ सकता है . पेरियार को  दलित और पिछड़ी जातियों के योद्धा के रूप में देखा जाता है . करीब  एक सौ साल पहले तमिलनाडु में शुरू हुए पिछड़ों और दलितों के आत्मसम्मान आन्दोलन  के वे जनक माने  जाते हैं . उनको अपमानित करने की कोई भी कोशिश बीजेपी को दक्षिण में तो नुक्सान  पंहुचायेगी हीबाकी देश में भी  भारी पड़ सकती है . पेरियार ब्राह्मणवादी  व्यवस्था के घोर विरोधी थे नास्तिक थे और ब्राह्मणों को आर्यों की संतान और उत्तर भारतीय मानते थे . तमिलनाडु में कोने कोने में उनकी मूर्तियाँ लगी हैं  . उनमें से  एक मूर्ति पर  जो अभिलेख लिखा है ,उसपर  भारी विवाद हो  चुका है .लिखा है ," कहीं कोई ईश्वर नहीं हैजिसने ईश्वर की रचना की वह बेवकूफ था ,जो ईश्वर का प्रचार करता है वह दुष्ट है  और जो उसकी पूजा करता है वह जंगली है ." इस अभिलेख के खिलाफ  इमरजेंसी के दौरान मद्रास हाई कोर्ट में एक मुक़दमा दाखिल हुआ था लेकिन अदालत ने पेटीशन को खारिज कर दिया . कोर्ट ने कहा कि पेरियार की मूर्तियों पर उनके  कथन को लिखने में कोई गलती नहीं है .  २०१२ में भी पेरियार की मूर्ति स्कूलों में लगाये जाने के खिलाफ मद्रास हाई कोर्ट में एक मुक़दमा आया  था. इस मुकदमे में भी फैसला पेरियार की मूर्तियों के पक्ष में ही था . माननीय हाई कोर्ट ने संविधान के बुनियादी कर्तव्यों वाले अनुच्छेद ५१ ए( एच) का हवाला  दिया और फैसला   सुना दिया . आदेश में लिखा है कि ,"  स्कूल में पेरियार की मूर्ति लगाने से बच्चे अपने आप नास्तिक नहीं हो  जायेंगे . इस तरह के व्यक्ति के दर्शन को समझने से बच्चों को वैज्ञानिक सोच ,मानवता,और सवाल पूछने की भावना  विकसित करने का मौक़ा लगेगा . "

पेरियार की राजनीतिक और सामाजिक मान्यताएं आम तौर पर मूर्ति भंजक श्रेणी में ही आयेंगी . उनको स्वीकार कर पाना हिन्दुकेंद्रित राजनीतिक दलों के बस का नहीं है . अपनी  राजनीति को धर्मनिरपेक्ष और समावेशी बताने वाली कांग्रेस पार्टी  तमिलनाडु में  सत्ता से पैदल हो गयी . जवाहरलाल नेहरू के दौर में तो तमिलनाडु में कांग्रेस की सरकार बनती रही लेकिन उनकी मृत्यु के बाद हुए पहले आम चुनाव में ही कांग्रेस वहां से सदा के लिए विदा कर दी गयी. पेरियार   तो चुनावी राजनीति से हमेशा बाहर रहे लेकिन उनके शिष्य , सी एन अन्नादुराई ने द्रविड़ मुन्नेत्र कजगम की स्थापना करके कांग्रेस को तमिलनाडु से  स्थाई   रूप से विदा कर दिया .कांग्रेस के लिए किसी ऐसी राजनीति में शामिल होना संभव नहीं  था जो महात्मा गांधी को उत्तर भारत के हितों  के प्रतिनिधि के रूप में देखती हो. और उनको सम्मान न देती हो.दक्षिण भारत में बीजेपी वह स्थान लेना चाहती है जो कांग्रेस के पास नेहरू-शास्त्री युग तक तो थी लेकिन बाद में  खिसक गयी. बीजेपी के आज के सर्वोच्च नेता  , नरेंद्र मोदी  हैं, वे खुद ओबीसी समुदाय के हैं. उनके लिए दक्षिण भारत के दलित और ओबीसी बहुल राजनीतिक मतदाताओं में पैठ बनाना संभव  है लेकिन यह भी तय है कि  दक्षिण भारत में  पेरियार के खिलाफ बयान देकर या उनको अपमानित करके वोट की उम्मीद करना बहुत दूर की कौड़ी है .  इसीलिये बीजेपी के  तमिलनाडु के नेता, एच राजा ने पार्टी का भारी नुक्सान किया है . शायद इसीलिये कुछ मिनटों के अन्दर  प्रधानमंत्री , बीजेपी अध्यक्ष और गृहमंत्री की राय को मीडिया के ज़रिये प्रचारित प्रसारित किया गया . जल्दी इसलिए भी की गयी कि  एच राजा के बयान से तो शायद उतना नुक्सान नहीं हुआ था  लेकिन दिन रात टीवी चैनलों पर ज्ञान दे  रहे पार्टी   प्रवक्ताओं ने बात को और भी बिगाड़ दिया . पार्टी को उम्मीद है कि ओबीसी और दलित भारतीयों की नज़र में सम्मानित पेरियार के अपमान से हुए नुक्सान पर काबू पा लिया जाएगा . 
पेरियार के राजनीतिक विचार ऐसे हैं जो किसी भी उत्तर भारतीय  राजनीतिक नेता के लिए पचा पाना असंभव है .  देश की राजनीतिक चर्चा जातियों के इर्द गिर्द घूमती है . उन्होंने कहा  था कि बहुत ही शातिर और बहुत ही कम  संख्या  के लोगों ने समाज पर आधिपत्य बनाये रखने के लिए जाति की संस्था की स्थापना की  है . उन्होंने कहा  कि दक्षिण भारत में जाति प्रथा , आर्यों  की देन है .वे आर्यों को हेय दृष्टि से देखते थे. कहते थे कि  जब उत्तर से ब्राह्मण लोग तमिलनाडु आए तो उन्होंने ही जातिप्रथा की स्थापना की . ब्राह्मणवाद के वे घोर विरोधी थे . वे सारी धार्मिक कुरीतियों को ब्राह्मणों की देन मानते थे और हिन्दू धर्म और ईसाई धर्म के घोर विरोधी थे .उन्होंने इस्लाम की आलोचना कभी नहीं की .ऐसे व्यक्ति को स्वीकार कर पाना  बीजेपी के लिए राजनीतिक रूप से उपयोगी नहीं होगा .  अब तक बीजेपी वाले पेरियार की धुनाई करते  थे लेकिन जब दक्षिण भारत में नींव जमानी है तो उनका विरोध संभव नहीं है .
पेरियार कहते थे कि हिन्दू   धर्म की स्थापना और प्रचार प्रसार  ब्राह्मणों को सुपीरियर साबित करने के लिए किया गया है . हिन्दू धर्म को वे ब्राह्मण अधिनायकवाद का धर्म मानते थे. १९५५ में उन्होंने सार्वजनिक रूप से भगवान राम की तस्वीरें जलाई थीं . उन्होंने राम और कृष्ण की तस्वीरों को जूतों से पिटवाया था . उनका कहना था कि यह दोनों ही उत्तर भारतीय देवता  हैं जो द्रविड़ों को शूद्र मानते हैं. यह जवाहरलाल नेहरू का ज़माना था और वे राजनीतिक हानि लाभ का लेखा जोखा किये बिना काम करते थे . उनके  सुझाव पर ही राज्य की कांग्रेस सरकार ने पेरियार को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया था.  जब उनकी मृत्यु हुयी तो १९७३ में तमिलनाडु में उनके चेलों की सरकार थी .हफ्ते पूरे राज्य में सभा सेमीनार होते रहे . उनके बाद उनकी पत्नी मनिअम्मा ने द्रविड़ कजगम का काम संभाला और मद्रास में भगवान राम ,सीता  और लक्ष्मण के पुतले जलाए . उनका तर्क था कि उत्तर भारत में   रावण,कुम्भकर्ण और इन्द्रजीत के पुतले जलाकर तमिलों का अपमान किया जाता है .
इस  तरह की राजनीति को अपनाना बीजेपी के  लिए बहुत मुश्किल है लेकिन उनका विरोध करके तो दक्षिण भारत में राजनीतिक  सपने ही नहीं देखे जा सकते .पेरियार का प्रभाव सभी द्रविड़ नेताओं पर है. उनकी विचारधारा को  द्रविड़ मुन्नेत्र कजगम के संस्थापक ,सी एन अन्नादुराई तो मानते ही थे ,करूणानिधि, एम जी रामचंद्रन,से लेकर आज के द्रविड़ राजनीति के सभी नेता मानते है .
इस तरह से साफ़ देखा जा सकता है कि बीजेपी वाले लेनिन को विदेशी कहकर तो पार पा सकते  हैं लेकिन  अगर उनके समर्थक पेरियार और आंबेडकर को अपमानित करेंगे तो सारे भारत की राजनीतिक पार्टी बनने के सपने धरे रह जायेंगे .

Thursday, March 8, 2018

महिला दिवस पर मेरी इच्छा है कि मेरे गाँव की लड़कियों को भी कम से कम अपनी शिक्षा के अनुसार काम करने और अपनी पसंद की शादी करने का अधिकार मिले



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शेष नारायण सिंह 
महिला दिवस के दिन अच्छे भविष्य का संकल्प लेने की ज़रूरत सबसे ज्यादा गाँव में होती है . मेरे बचपन में मेरे गाँव में महिलाओं की इज्ज़त कोई नहीं करता था. लड़कियों को बोझ माना जाता था. उनके जन्म के बाद से ही उनकी शादी की बातें शुरू हो जाती थीं. चौदह पंद्रह साल की होते होते शादी हो जाती थी. मेरे गाँव की ज़्यादातर लड़कियों की शादी सरुवार में होती थी. माना जाता था कि अयोध्या में जब स्टीमर से सरजू पार करके लकड़मंडी पंहुचते थे तो सरुवार का इलाका शुरू हो जाता है . अब तो सरजू नदी पर पुल बन गया है . लकड़मंडी से गोंडा और बस्ती की सवारी मिलती थी. वहीं हमारे गाँव की लडकियां ब्याही जाती थीं. लेकिन जब से मैंने होश सम्भाला सरुवार में शादी ब्याह लगभग ख़त्म हो गया है . अब फैजाबाद, प्रतापगढ़ और रायबरेली में लडकियां ब्याही जाती हैं. उतनी दूर अब कोई भी लडकियां भेजने को तैयार नहीं है .
शादी के तीन साल के अन्दर गौना किया जाता था.गौने में जाती हुयी लडकियां जितना रोती थीं ,उसको सुनकर दिल दहल जाता था. मुझे याद है कि जब मैंने अपनी माई से पूछा कि लडकियां रोती क्यों हैं तो उन्होंने बताया कि अपने माता पिता ,भाई-बहन, सही सहेलर को छोड़ने का दुख बहुत बड़ा होता है . लडकी किसी की विदा हो रही हो पूरे गाँव की औरतें रोती थीं. उनको अपनी बेटी की विदाई याद आती रहती थी . अपनी खुद की विदाई याद आती थी. माहौल में पूरा कोहराम होता था. रोते बिलखते लडकी चली जाती थी . ससुराल से लौटकर आई लड़कियां जब वहां की कठिन ज़िंदगी की बात अपनी मां को बताती थीं तो बहुत तकलीफ होती थी लेकिन गाँव वालों को अच्छी ससुराल की कहानी बताई जाती थी.
ग़रीबी के तरह तरह के आयाम का अनुभव मुझे उन्हीं लड़कियों की शादी और उसकी तैयारी में देखने को मिला . दहेज़ का आतंक अब जैसा तो नहीं था लेकिन जो भी अतिरिक्त खर्च शादी में किया जाता था , गिरस्त पर भारी पड़ता था. उसी गरीबी में अंदर छुपी खुशियों को तलाशने की जो कोशिश की जाती थी , उन दिनों मुझे वह सामान्य लगती थी . अब लगता है कि अशिक्षा के आतंक के चलते लोगों को मालूम ही नहीं चलता था कि वे घोर गरीबी में जी रहे हैं .
जिन लोगों के घर की लडकियां थोडा बहुत पढ़ लेती थीं, उनकी हालत बदल जाती थी. मसलन मेरी क्लास में पढने वाली लड़कियों ने जब मिडिल पास कर लिया तो उनको सरकारी कन्या पाठशाला में नौकरी मिल गयी और उनका दलिद्दर भाग गया . आस पड़ोस की गाँवों में लड़कियों में पढने का रिवाज़ था .नरिन्दापुर और बूधापुर की लडकियां प्राइमरी तो पास कर ही लेती थीं. इन गाँवों में पुरुष शिक्षित थे सरकारी काम करते थे लेकिन बाकी गाँवों की हालत बहुत ख़राब थी.
सोचता हूँ कि अगर उस वक़्त के मुकामी नेताओं ने महात्मा गांधी की तरह लड़कियों की शिक्षा की बात की होती तो हालात इतने न बिगड़ते . आज भी हालात बहुत सुधरे नहीं हैं . अपने उद्यम से ही लोग लड़कियों को पढ़ा लिखा रहे हैं लेकिन उद्देश्य सब का शादी करके बेटी को हांक देना ही रहता है . जब तक यह नहीं बदलता मेरे जैसे गाँवों में महिला दिवस की जानकारी भी नहीं पंहुचेगी .
इसी माहौल में मेरी माई ने एड़ी चोटी का जोर लगाकर अपनी बेटियों को पढ़ाने की कोशिश की थी. नहीं कर पाईं. लेकिन अपने चारों बच्चों के दिमाग में शिक्षा के महत्व को भर दिया था . नतीजा यह है कि उनकी सभी लड़कियों ने उच्च शिक्षा पाई और सब अपनी अपनी लडाइयां लड़ रही हैं . आज महिला दिवस पर मेरी इच्छा है कि मेरे गाँव की लड़कियों को भी कम से कम अपनी शिक्षा के अनुसार काम करने और अपनी पसंद की शादी करने का अधिकार मिले. फिर उनकी नहीं तो उनकी लड़कियों की जिंदगियां बाकी दुनिया की महिलाओं जैसी हो जायेगी 

Thursday, March 1, 2018

मध्य प्रदेश और राजस्थान से कांग्रेस की बहाली के संकेत आ रहे हैं .



शेष नारायण सिंह


 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बार बार यह दावा किया था कि वे देश को कांग्रेस मुक्त करने की योजना पर काम  कर रहे  हैं और चुनाव में सबसे पुरानी  पार्टी को लगातार हराकर वे देश को कांग्रेस मुक्त कर देंगें . लेकिन आज चार साल बाद लगता है कि मोदी  जी भारत को कांग्रेस मुक्त नहीं करवा पायेंगे . राजस्थान और मध्य प्रदेश के संकेत  बिलकुल साफ़ हैं .  मध्य प्रदेश की विधानसभा के दो उप चुनावों के  नतीजे आ गए हैं . यह दोनों ही  सीटें कांग्रेस के पास थीं.  कांग्रेस ने फिर जीत लीं. एक तरह से  इसमें  कोई जीत नहीं है लेकिन जब चुनाव प्रचार को देखा जाए तो समझ में आ जाता है कि इन दोनों  सीटों पर बीजेपी की हार असाधारण हार है. मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान इन क्षेत्रों में पूरे लाव लश्कर के साथ लगे रहे थे. कई गाँवों में रात भी रुके. लेकिन अजीब इत्तफाक है कि जिन गाँवों में वे रुके,  खाना खाया सोये और लोगों से अपनैती की बात की ,उन सभी  गाँवों में बीजेपी हार गयी . बीजेपी के दिल्ली नेतृत्व के भी नुमाइंदे वहां चुनाव प्रचार कर रहे थे. प्रभात झा और नरेंद्र सिंह तोमर इन उपचुनावों की जीत  के लिए दिन  रात मेहनत कर  रहे थे. लेकिन बीजेपी चुनाव हार गयी . इसके पहले भी मध्य प्रदेश में बीजेपी कुछ चुनाव हार चुकी है .यानी मध्य प्रदेश में उनकी हालत बहुत अच्छी नहीं है . यही हाल राजस्थान में भी है . वहां भी लोकसभा के दो उपचुनावों में बीजेपी के उमीदवार उन सीटों पर हार गए जहां २०१४ में बीजेपी के उम्मीदवार जीते थे. पंजाब विधान सभा तो पुरानी हो रही है लेकिन अभी हुए नगर पालिका चुनावों में भी कांग्रेस ने पंजाब में जीत दर्ज की है .   पिछले वर्ष हुए गोवा और मणिपुर के चुनावों के बाद बीजेपी ने वहां सरकार बना ली थी . इन दोनों राज्यों में भी चुनाव में कांग्रेस का पलड़ा भारी था .लेकिन विधान सभा  चुनाव जीतकर आये नेताओं की बुनियादी राजनीतिक अवसरवादिता को केंद्र में रख कर बीजेपी ने वहां सरकार बनाई यानी उन राज्यों में भी कांग्रेस की मुक्ति की बात को वोट देने वाली जनता ने गंभीरता से नहीं लिया .वहां बड़ी   संख्या में लोगों ने कांग्रेस को वोट दिया .गुजरात विधान सभा के चुनाव के नतीजे भी साफ़ ऐलान कर चुके हैं कि  भारत कांग्रेस मुक्त नहीं होने वाला है .
मध्य प्रदेश और राजस्थान के संकेत  भी बीजेपी के लिए  बिलकुल संतोषजनक नहीं हैं . अभी कुछ महीने के अन्दर इन राज्यों में  आम चुनाव होने हैं .ऐसी हालत में यह चुनाव निश्चित रूप से शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व  की क्षमता पर सवालिया निशान लगाते हैं .मध्य प्रदेश की मुंगावली और कोलारस विधान सभा सीटों के लिए मध्य प्रदेश के लगभग सभी मंत्री चुनाव प्रचार कर रहे थे. वहां का चुनाव प्रचार  देख  कर  अमेठी के चुनावों की याद ताज़ा हो  गयी जब राजीव गांधी  प्रधानमंत्री हुआ करते थे .  उन दिनों  किसी भी चुनाव में कांग्रेस के   बहुत सारे बड़े नेता  अमेठी के गाँवों में भटकते देखे जा सकते थे.  इस बार मध्य प्रदेश के इन दो उपचुनावों में मध्य प्रदेश के मंत्री तो थे ही, नई दिल्ली की भी ताकत लगी हुई थी.  कांग्रेस के लिए भी यह सीटें प्रतिष्ठा की सीट थीं . यह दोनों ही सीटें ,राहुल गांधी के दोस्त और ग्वालियर के राजा के बेटे ज्योतिरादित्य सिधिया के संसदीय  क्षेत्र का हिस्सा हैं . बेजीपी ने योजना बना  रखी है कि मध्य प्रदेश में  इस बार ज्योतिरादित्य सिंधिया और कमल नाथ को हराना है . इसलिए पार्टी  ने इस सेमी फाइनल में सारी ताक़त झोंक दिया था . लेकिन चुनाव हार गए.

इन चुनावों में हार के बाद शिवराज सिंह चौहान के लिए मुख्यमंत्री के रूप में अपने अस्तित्व के औचित्य को सही ठहरा पाना बहुत ही मुश्किल   होगा.   दिल्ली के नेताओं में चर्चा यह है कि उनके सहारे मध्य प्रदेश विधान सभा  के इसी साल होने वाले  चुनाव को जीत पाना मुश्किल है . उनके खिलाफ राज्य में ज़बरदस्त माहौल है लेकिन   अब उनको बदलना बीजेपी के लिए रानीतिक रूप ठीक  नहीं होगा . वैसे भी मुख्यमंत्री शिवराज  सिंह को  संभावित हार का अनुमान लग गया था .उन्होंने इसके संकेत भी दे दिए थे . उन्होंने कुछ दिन पहले ही कह दिया था कि मुंगावली और कोलरस दोनों ही सीटें २०१३ चुनाव  में कांग्रेस के पास ही थीं. लेकिन फिर भी उनको अपनी सारी ताकत लगानी पडी क्योंकि उनकी पार्टी के अध्यक्ष किसी भी कीमत पर हार स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे. इस चुनाव में बड़े नेताओं की फौज लगा दी गयी थी . सरकारी तंत्र के साथ सारी सुविधाएं उपलब्ध थीं. कहीं भी पैसा कौड़ी की कमी भी नहीं थी  , गुना के सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया के  पिता जी की बहन यशोधरा राजे सिंधिया को बीजेपी ने  एक विधान सभा चुनाव में प्रचार कर इंचार्ज बनाया था .उन्होंने कुछ उल जलूल बातें भी कीं जिसके बाद उनको चुनाव आयोग से फटकार भी मिली थी लेकिन कहीं कोई असर नहीं हुआ. जनता  ने बीजेपी को नकार दिया .
कांग्रेस में भी सब कुछ ठीक  नहीं है . अपनी ही  लोकसभा सीट के अंदर पड़ने वाली  दो सीटों पर उपचुनाव में जीत के  बाद सिंधिया के चेला लोग उनको  कांग्रेस की   और से  मुख्यमंत्री का दावेदार पेश करने की बात करने लगे हैं .  कांग्रेस आलाकमान ने अभी किसी को मुख्य मंत्री का दावेदार बनाने की बात को गंभीरता से नहीं लिया है .यह अलग बात  है कि उनके समर्थक दिल्ली में कांग्रेस मुख्यालय तक 'अबकी बार सिंधिया सरकार ' की मांग लेकर पंहुच गए थे . अगर इस बात को कांग्रेस आलाकमान गंभीरता से लेता  है तो वह वही गलती कर रहा होगा जो अब तक करता आया है . सच्ची बात यह है कि जब से  सोनिया गांधी ने राहुल गांधी को कांग्रेस की बागडोर सौंपने का फैसला  किया है तब से कांग्रेस के सभी फैसले राहुल  गांधी के मर्जी से ही होते हैं  . मनमोहन  सिंह की सरकार थी तो राहुल गांधी कई फैसले इस तरह  से करते   थे जैसे वे चक्रवर्ती सम्राट हों और जिसके कंधे पर हाथ रख देंगे वह नेता हो जाएगा .यह गलती उन्होंने इसी मध्य प्रदेश में २०१३ के चुनावों  में भी किया था . .
उस चुनाव में राहुल गांधी की उस राजनीति को भी नकार दिया  गया था  जिसमें वे किसी से मिलते ही नहीं थे. २०१४ के चुनाव और उसके बाद के चुनावों के बाद नरेंद्र मोदी ने यह  साबित कर दिया है कि अब जनता रियल लोगों से सीधी बातचीत करना चाहती है .इस चुनाव में कांग्रेस का चुनाव प्रबंधन एक नेता के साथ सही तरीके से चला है लेकिन गुजरात विधान सभा चुनाव के पहले के सभी चुनाव में कांग्रेस अभियान कुप्रबंधन का शिकार हुआ करता था .कांग्रेस पार्टी के नेताओं ने अपनी पार्टी को बहुत मेहनत से विनाश की तरफ धकेला है . २००८ के विधान सभा चुनाव में राजस्थान में जिस दिन सी पी जोशी एक वोट से हारने के बाद राज्य के  मुख्यमंत्री पद की दावेदारी से बाहर हुए थे ,उसी दिन से उन्होने  मुख्यमंत्री अशोक गहलौत को औकात बताने के प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू का दिया था . तुर्रा यह कि दिल्ली में उनके आका राहुल गांधी को कभी पता नहीं लगा कि जोशी जी राजस्थान में कांग्रेस की जड़ों में मट्ठा डाल रहे हैं . उनके बारे में राहुल गांधी को आखीर तक यह भरोसा रहा कि जोशी जी सब कुछ संभाल लेगें . इसीलिये २०१३ के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले उनको राजस्थान का करता धरता बनाकर फिर भेज दिया . जोशी जी ने भी अशोक गहलौत को कभी माफ़ नहीं किया .पूरे चुनाव अभियान के दौरान उनकी हार की माला जपते रहे और कामयाब हुए . यह अलग बात है कि अशोक गहलौत के साथ ही कांग्रेस भी हार गयी . अशोक गहलौत को हराने  के काम में स्व सीसराम ओला गिरिजा व्यास और सचिन पायलट भी लगे हुए थे .सबको सफलता मिली और कांग्रेस वहां तबाह हो गयी. मज़बूत नेता को दरबारी लोग कमज़ोर करते हैं  और यह कांग्रेस की राजनीति का संचारी भाव है. दिल्ली का ही उदाहरण लिया जा सकता  है . वहां शीला दीक्षित ने अच्छा काम किया था लेकिन वहां भी अजय माकन और जयप्रकाश अग्रवाल लगातार उनके खिलाफ काम करते रहे . अजय माकन तो राहुल गांधी की कृपा से अपना काम चलाते रहे और आखीर में सफल हुए और दिल्ली में कांग्रेस उसी पोजीशन पर पंहुच गयी जिस पर १९५७ के चुनावों में जनसंघ हुआ करती थी. छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की स्थिति मज़बूत थी लेकिन वहां भी अजीत जोगी को पूरा मौक़ा दिया गया कि वे अपने मित्र और मददगार रमन सिंह की ताजपोशी फिर से करवा सकें . बताते हैं की रमन सिंह की मदद करने के चक्कर में जोगी जी ने कांग्रेस को राज्य में धूल चटाने में भारी योगदान किया . उनके सतनामी सम्प्रदाय के लोगों ने तय कर लिया था कि किसी भी सूरत में रमन सिंह को वोट नहीं देना है . ज़ाहिर है यह सारे वोट कांग्रेस को मिलते . रायपुर में सबको मालूम था कि अजीत जोगी  के दिमाग का ही कमाल था कि २०१३ के चुनावों में  सतनामी सेना बन गयी और उसके आध्यात्मिक गुरु ने हेलीकाप्टर पर सवार होकर सतनामी सम्प्रदाय के सारे वोट ले लिए . इस तरह से जो वोट कांग्रेस को मिलने थे वे कांग्रेस के खिलाफ पड़ गए और हर उस सीट पर जहां सतनामियों की मदद से कांग्रेस को जीतना था ,वहां बीजेपी जीत गयी. मध्य प्रदेश में भी २००८ में जब तत्कालीन कांग्रेस के आला नेत्ता सुरेश पचौरी ने टिकटों की कथित हेराफेरी करके शिवराज सिंह की जीत के लिए माहौल बनाया था तो उनको दरकिनार कर दिया गया था और राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री  दिग्विजय सिंह को आगे किया गया था. लेकिन बाद में उनको भी दरकिनार कर दिया गया .
इसी तरह अन्य  महत्वपूर्ण राज्यों में भी कांग्रेस ने जिस तरह से राजनीतिक प्रबंधन किया है वह उसको कई साल से तबाही की तरफ ले जा रहा  है .उत्तर  प्रदेश में कांग्रेस की कभी तूती बोलती थी. सबसे ज़्यादा सांसद लोकसभा में भेजने वाले राज्य में कांग्रेस के चुनाव प्रबंधन का ज़िम्मा मधुसूदन मिस्त्री नाम के एक अजीबोगरीब व्यक्ति को दे दिया गया था . राज्य के कांग्रेस अध्यक्ष निर्मल खत्री बना दिए गए थे जिनका अपने जिले में भी कोई प्रभाव नहीं था . १९८० से विधान सभा का हर चुनाव जीत रहे राज्य कांग्रेस के बड़े नेता और एक वर्ग के पत्रकारों के चहेते प्रमोद तिवारी को कोई भूमिका नहीं दी गयी तो उन्होने  मुलायम सिंह यादव की टीम की तरफ क़दम  बढ़ाना शुरू कर दिया . आज वे मुलायम सिंह यादव की कृपा से राज्य सभा के सदस्य हैं .नतीजा यह  है कि आज उत्तर प्रदेश  में जो कांग्रेस शून्य की स्थिति में पंहुच गयी   है .राज्य में जो कांग्रेसी  बच गए हैं वे भारी कन्फ्यूज़न के शिकार हैं .
मुराद यह है कि कभी देश की सबसे बड़ी पार्टी रही कांग्रेस आज ऐसी स्थिति में पंहुच गयी  है कि बीजेपी के  एक प्रवक्ता ने उसको केवल पंजाब तक सीमित पार्टी बता दिया  है . लेकिन मध्य प्रदेश और  राजस्थान से आ रहे संकेत कांग्रेस को उसकी खोई प्रतिष्ठा दिलाने की दिशा में एक क़दम हो सकते हैं शर्त यह है कि उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए राहुल गांधी को वे गलतियाँ दुहराने से बचना पडेगा जो वे अब तक करते रहे हैं .

संवैधानिक मशीनरी के ब्रेक डाउन के हवाले से दिल्ली सरकार को गिराना अलोकतांत्रिक होगा



शेष नारायण सिंह

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली की सरकार ने अपने आपको एक मुसीबत में डाल लिया है .दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने अपनी मौजूदगी में अपनी ही सरकार के मुख्य सचिव के साथ अभद्रता करने वाले विधयाकों को संरक्षण देकर एक ऐसी स्थिति पैदा कर दिया है जिसको संविधानिक व्यवस्था के ब्रेकडाउन  का नाम दिया जा रहा है . संवैधानिक मशीनरी के ब्रेक डाउन की स्थिति  में केंद्र सरकार के पास बहुत  सारे अधिकार आ जाते  हैं.  संविधान के अनुच्छेद ३५५ में केंद्र सरकार का यह ज़िम्मा है कि संवैधानिक मशीनरी के ब्रेक डाउन की स्थिति में वह  राज्य को आतंरिक या  बाहरी  हमले या  आतंरिक गड़बड़ी की स्थिति में बचाए . ऐसी स्थिति में केंद्र सरकार बाकायदा संविधान की व्यवस्था लागू रखने के लिए निर्देश भी दे सकती है. संविधान के अनुच्छेद ३६५ में व्यवस्था है कि अगर कोई राज्य सरकार केंद्र सरकार के निर्देशों का पालन नहीं करती  या उनको लागू नहीं करती  और भारत के राष्ट्रपति को यह  राय बनाने का अधिकार है कि एक ऐसी स्थिति पैदा  हो गयी है जिसके बाद संविधान के अनुसार राज्य की सरकार चलाया जाना संभव नहीं है . ऐसी स्थिति आने के बाद संविधान के अनुच्छेद ३५६ लागू हो जाता है . ३५६ में ऐसी व्यवस्था है कि राष्ट्रपति महोदय सम्बंधित  राज्य के  राज्यपाल से रिपोर्ट मंगवा सकते हैं और उस रिपोर्ट के आधार पर अगर पता चले कि ऐसी हालात पैदा हो गए हैं कि राज्य सरकार को संविधान के हिसाब से चलाना असंभव हो गया है तो वे संवैधानिक मशीनरी के ब्रेक डाउन  की घोषणा करके राज्य सरकर के  संचालन का ज़िम्मा अपने हाथ में ले सकते हैं .ऐसी सूरत में राष्ट्रपति राज्य सरकार की सभी शक्तियों को ले सकते हैं . राष्ट्रपति के पास यह भी अधिकार है कि वे राज्य की विधान सभा को निलंबित कर सकते  हैं या उसको भंग कर सकते हैं .३५६ लागू रहने पर राज्य के सारे विधायी कार्य देश की संसद में किये  जाने का भी प्रावधान इस अनुच्छेद में है .
मुख्य सचिव ने  पुलिस में शिकायत की है कि उनको दिल्ली राज्य के कुछ  विधायकों ने मुख्य मंत्री आवास पर मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री के सामने  अपमानित किया और मारा पीटा. बताया गया है कि उनको देर रात को मुख्यमंत्री आवास पर किसी काम से बुलाया गया था और मतभेद होने के बाद विधायकों ने उनके साथ धक्का मुक्की की. आम आदमी पार्टी के नेता और प्रवक्ता विधायकों को  निर्दोष बता रहे  हैं .आम आदमी पार्टी ने बाकायदा प्रेस कान्फरेंस करके बताया कि सब बीजेपी की चाल है . उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि  राज्य के मुख्य सचिव झूठ बोल रहे हैं. उनके साथ कोई मारपीट नहीं हुयी . उनकी  डाक्टरी जांच में जिन  चोटों के सबूत हैं ,वे हेराफेरी करके लिखवाये गए हैं . जब उनसे पूछा जाता  है कि जिस अस्पताल  में उनकी डाक्टरी जांच हुई थी वह दिल्ली सरकार का सरकारी अस्पताल है तो क्या अपनी सरकार  के ही डाक्टरों पर उन लोगों को भरोसा नहीं है .इसका कोई जवाब नहीं आता . वे  बताने लगते हैं कि दिल्ली में लोगों को राशन नहीं मिल रहा है और मुख्य सचिव कोई भी काम नहीं कर रहे  हैं. आम आदमी  पार्टी ने यह भी आरोप लगाया  है कि मुख्य सचिव के पत्र पर जिन विधायकों  के खिलाफ कार्रवाई हुई है वे दलित और मुसलमान  हैं. इस तरह गृह मंत्रालय  ने भेदभावपूर्ण तरीके से काम किया है. मुख्य सचिव का कहना है कि उनकी सरकार के तीन साल पूरा होने पर कोई सरकारी विज्ञापन  मीडिया में दिया जाना था. उस   विज्ञापन में कुछ ऐसी  बातें भी थीं जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा  जारी किये गए आदेश के हिसाब से सही नही थीं .इसलिए  सरकार के लिए उस   विज्ञापन को जारी करना संभव  नहीं था .इसी बात पर कहासुनी हो गयी और उनके अगल  बगल बैठे दोनों विधयाकों ने हाथ उठा दिया . राशन आदि के बारे में कोई बात नहीं हुई .ऐसा लगता है कि राशन वाली बात का आविष्कार किया गया है क्योंकि शायद मुख्यमंत्री और उनके साथियों को यह अंदाज़ नहीं रहा होगा कि  मामला ऐसा रुख ले लेगा कि मुख्य सचिव बात को पब्लिक डोमेन में ला देंगें . राशन की बात,  तो लगता  है इस वारदात से हो गए नुक्सान को कंट्रोल करने के लिए ही चलाई गयी है .बहरहाल अब कोशिश यह हो रही है कि पानी को इतना गन्दला कर दिया  जाए कि सच्चाई कहीं बहुत नीचे दब जाए और मुख्य सचिव को झूठा साबित करके अपने विधायकों को दण्डित होने से बचा लिया  जाए.
लेकिन बात विधायकों को सज़ा से बचाने से बहुत आगे जा चुकी है .सबको मालूम है कि केंद्र सरकार को चलाने वाली भारतीय जनता पार्टी ,अरविन्द केजरीवाल की  दिल्ली विधान सभा के चुनाव में हुई भारी भरकम जीत से बहुत परेशान है . वह उनको किसी भी कीमत पर औकातबोध कराने के चक्कर में रहती है . इसी कड़ी में लगता है कि अब वह दिल्ली की  अरविन्द केजरीवाल सरकार को बर्खास्त करने के विकल्पों पर काम कर रही है .
 खबर  है कि दिल्ली के उप राज्यपाल अनिल बैजल ने गृहमंत्रालय के पास दिल्ली सरकार की मौजूदा स्थिति के बारे में रिपोर्ट भी दी है . मुख्य सचिव के साथ हुई वारदात में जो आपराधिक कार्य है उसके बारे में तो दिल्ली पुलिस जांच कर रही है जबकि आई ए एस अधिकारी के साथ हुई मारपीट और  अफसरों के काम  कर सकने के माहौल से सम्बंधित हालात पर गृहमंत्रालय की नज़र है .  उपराज्यपाल की रिपोर्ट में अगर  संवैधानिक मशीनरी के ब्रेक डाउन की बात कही  गयी होगी तो केंद्र सरकार के पास  निर्वाचित सरकार को बर्खास्त करने के अधिकार हैं . इस बात की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि केंद्र की सरकार यह क़दम उठा भी सकती है .. आम आदमी पार्टी को नीचा दिखाने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं . अरविन्द केजरीवाल और उनकी सरकार ने उनको मौक़ा भी दे दिया है . जहां तक केंद्र की बीजेपी सरकार का अब तक का रिकार्ड है ,उससे तो बिलकुल साफ़ है कि वह आम आदमी पार्टी को परेशान करने का कोई भी अवसर छोड़ने वाली नहीं है .
केंद्र सरकार के लिए भी यह  इम्तिहान का वक़्त है . संविधान के अनुसार वह एक निर्वाचित सरकार को बर्खास्त तो कर सकती है लेकिन क्या ऐसा करना उसके लिए और देश के लिए नैतिक कार्य माना जाएगा . जहां तक दिल्ली भाजपा के मुकामी नेताओं की बात है ,वे तो पूरे जोशो खरोश के साथ लगे हुए हैं कि किसी तरह से दिल्ली की  विधान सभा का जल्दी से जल्दी चुनाव हो और दिल्ली भाजपा  पिछले  चुनाव में हुई अपनी हार का बदला चुकाए . केंद्र में भी कई नेता इस तरह की बात करते पाए जाते हैं . अपने  चुनावी  गणित को ठीक करने के लिए ऐसा करना तकनीकी रूप से तो संभव है लेकिन  यह संविधान की वास्तविक मंशा को लागू करने के एतबार से सही क़दम नहीं माना जाएगा.  इस बात में शक नहीं है कि मुख्यमंत्री की   मौजूदगी में  उनकी पार्टी के ही विधायाकों  ने राज्य सरकार के  सबसे बड़े अफसर की पिटाई करके बहुत ही मुश्किल स्थिति पैदा कर दी है लेकिन क्या और विकल्प उपलब्ध नहीं हैं . क्योंकि संविधान का अनुच्छेद ३५६  राह चलते नहीं लगाया जा सकता . उसको तभी लगाया जाना चाहिए जब राज्य सरकार के  संचालन की और कोई सूरत न बची हो. संविधान में केंद्र सरकार को देश की लोकशाही की रक्षा करने का सबसे  ज़रूरी प्रावधान है . किसी असुविधाजनक नेता या उसकी सरकार को सबक सिखाने का अधिकार संविधान नहीं देता इसलिए संवैधानिक मशीनरी के ब्रेक डाउन वाला विकल्प इस्तेमाल करने के पहले केंद्र सरकार को सौ बार सोचना चाहिए .

सिविल सर्विस सरदार पटेल की विरासत है , इसको नष्ट मत करो


 शेष नारायण सिंह

दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव ने पुलिस में शिकायत की है कि उनको दिल्ली राज्य के कुछ  विधायकों ने मुख्य मंत्री आवास पर मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री के सामने  अपमानित किया और मारा पीटा. बताया गया है कि उनको देर रात को मुख्यमंत्री आवास पर किसी काम से बुलाया गया था और मतभेद होने के बाद विधायकों ने उनके साथ धक्का मुक्की की. आम आदमी पार्टी के नेता और प्रवक्ता विधायकों को  निर्दोष बता रहे  हैं .आम आदमी पार्टी ने बाकायदा प्रेस कान्फरेंस करके बताया कि सब बीजेपी की चाल है . उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि  राज्य के मुख्य सचिव झूठ बोल रहे हैं. उनके साथ कोई मारपीट नहीं हुयी . उनकी  डाक्टरी जांच में जिन  चोटों के सबूत हैं ,वे हेराफेरी करके लिखवाये गए हैं . जब उनसे पूछा जाता  है कि जिस अस्पताल  में उनकी डाक्टरी जांच हुई थी वह दिल्ली सरकार का सरकारी अस्पताल है तो क्या अपनी सरकार  के ही डाक्टरों पर उन लोगों को भरोसा नहीं है .इसका कोई जवाब नहीं आता . वे  बताने लगते हैं कि दिल्ली में लोगों को राशन नहीं मिल रहा है और मुख्य सचिव कोई भी काम नहीं कर रहे हैं. आम आदमी  पार्टी ने यह भी आरोप लगाया  है कि मुख्य सचिव के पत्र पर जिन विधायकों  के खिलाफ कार्रवाई हुई है वे दलित और मुसलमान  हैं. इस तरह गृह मंत्रालय  ने भेदभावपूर्ण  तरीके से काम किया है. मुख्य सचिव का कहना है कि उनकी सरकार के तीन साल पूरा होने पर कोई सरकारी विज्ञापन  मीडिया में दिया जाना था. उस  विज्ञापन में कुछ ऐसी  बातें भी थीं जो सुप्रीम कोर्ट द्वारा  जारी किये गए आदेश के हिसाब से सही नही थीं .इसलिए सरकार के लिए उस   विज्ञापन को जारी करना संभव  नहीं था .इसी बात पर कहासुनी हो गयी और उनके अगल बगल बैठे दोनों विधयाकों ने हाथ उठा दिया . राशन आदि के बारे में कोई बात नहीं हुई .ऐसा लगता है कि राशन वाली बात का आविष्कार किया गया है क्योंकि शायद मुख्यमंत्री और उनके साथियों को यह अंदाज़ नहीं रहा होगा कि मामला ऐसा रुख ले लेगा कि मुख्य सचिव बात को पब्लिक डोमेन में ला देंगें . राशन की बात,  तो लगता  है इस वारदात से हो गए नुक्सान को कंट्रोल करने के लिए ही चलाई गयी है .बहरहाल अब कोशिश यह हो रही है कि पानी को इतना गन्दला कर दिया  जाए कि सच्चाई कहीं बहुत नीचे दब जाए और मुख्य सचिव को झूठा साबित करके अपने विधायकों को दण्डित होने से बचा लिया  जाए.
इस बीच खबर  है कि दिल्ली के उप राज्यपाल अनिल बैजल ने गृहमंत्रालय के पास दिल्ली सरकार की मौजूदा स्थिति के बारे में रिपोर्ट भी दी  है . मुख्य सचिव के साथ हुई वारदात में जो आपराधिक कार्य है उसके बारे में तो दिल्ली पुलिस जांच कर रही है जबकि आई ए एस अधिकारी के साथ हुई मारपीट और  अफसरों के काम  कर सकने के माहौल से सम्बंधित हालात की जांच गृहमंत्रालय करेगा  .  उपराज्यपाल की रिपोर्ट में अगर  संवैधानिक मशीनरी के ब्रेक डाउन की बात कही  गयी होगी तो केंद्र सरकार के पास  निर्वाचित सरकार को बर्खास्त करने के अधिकार हैं . इस बात की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि केंद्र की सरकार यह क़दम उठा भी सकती है . पूरे देश में जीत रही भारतीय जनता पार्टी के लिए यह बहुत मुश्किल  हालत है कि दिल्ली में  ही उनकी पार्टी बुरी तरह से हार गयी है . यह बीजेपी के  नेताओं की दुखती रग है .. आम आदमी पार्टी को नीचा दिखाने के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं . अरविन्द केजरीवाल और उनकी सरकार ने  उनको मौक़ा भी दे दिया है . जहां तक केंद्र की बीजेपी सरकार का अब तक का रिकार्ड है ,उससे तो बिलकुल साफ़ है कि वह आम आदमी पार्टी को परेशान कारने का कोई भे अवसर छोड़ने वाली नहीं है .

आम आदमी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी की आपसी तकरार में सरकार का एक  बहुत ही मज़बूत स्तम्भ  दांव पर लग गया है .  आम आदमी पार्टी और उसकी  सरकार का आरोप है कि  बीजेपी , केंद्र सरकार और नौकरशाही के ज़रिये जनता द्वारा चुनी हुई सरकार पर नकेल कस रही है जबकि बीजेपी के नेता कहते हैं कि अपना काम ठीक से न कर पाने के कारण अरविन्द केजरीवाल अपनी नाकामी को ढंकने के लिए  बहाना ढूंढते रहते हैं  इसलिए यह सारी कारस्तानी की गयी है . ऐसा लगता है कि इन लोगों को मालूम  नहीं है कि अपने  मामूली हित साधन के लिए दोनों  ही पार्टियां लोकशाही की एक ऐसी संस्था को तबाह कर रहे   हैं जिसका  विधायिका के फैसलों को लागू करने में बहुत अधिक योगदान है . इनके काम से  सिविल सर्विस की अथारिटी कमज़ोर हो  रही है . अक्सर देखा गया है कि मुकामी प्रशासन में नेता लोग अफसरों से बहुत नाराज़ रहते हैं लेकिन जब उन्हीं नेताओं के पास सरकार का काम आ जाता  है तो उनको सरकार चलाने के लिए जिस मशीनरी की ज़रूरत है ,उससे नाराज़ रहने  का विकल्प  ख़त्म हो जाता है . उनको सिविल सर्विस  को साथ लेकर चलना पड़ता है. जो साथ लेकर चलते हैं वे सफल हो जाते हैं . लेकिन आजकल तो सिविल सर्विस को बिलकुल रीढविहीन बना देने का एक तरह से अभियान ही चल रहा है . हर  प्रदेश से ख़बरें आ रही हैं कि नेताओं ने  बड़े अफसरों के साथ मारपीट की लेकिन मुख्य मंत्री के कमरे में उनकी मौजूदगी में राज्य के सबसे बड़े प्रशासनिक अधिकारी के पिटने की यह पहली घटना है . अगर सही और कारगर क़दम उठाकर इस नुकसान को तुरंत से ही काबू न कर लिया गया तो इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि आगे भी ऐसी घटनाएं होंगीं .यह  जनहित में है और राष्ट्रहित में है कि नौकरशाही को तबाह न किया जाए क्योंकि यह हमारी आज़ादी  की लड़ाई के महान कारीगर , सरदार वल्लभ भाई पटेल की विरासत है .
१९४७ में जब देश आज़ाद हुआ  तो उस आज़ादी को मज़बूत करने का काम सरदार पटेल ने किया . आज़ादी की लड़ाई में उनका  योगदान महात्मा गांधी के बाद सबसे ज़्यादा है . महात्मा गांधी ही वास्तव में आज़ादी की लड़ाई के नेता थे . उनके सारे कार्यक्रमों  को संगठित करने का  जिम्मा सरदार पटेल का ही रहता  था.  महात्मा गांधी को सरदार पटेल पर बहुत भरोसा था . यह भरोसा १९२५ के बाद और  भी मज़बूत हो गया जब  १९२५ में गांधी जी , बेलगाम में हुए कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष बने .उस अधिवेशन की   स्वागत समिति के अध्यक्ष सरदार पटेल थे. सरदार ने जिस तरह से अधिवेशन की व्यवस्था की उसके बाद महात्मा गांधी को पक्का भरोसा हो गया कि सरदार पटेल में अद्भुत संगठन क्षमता है .इसी  का नतीजा था कि बाद के गांधी जी के बाम्बे प्रेसिडेंसी में हुए कर कार्यकर्म की व्यवस्था सरदार ने ही की . बाद में उन्होंने देश की एकजुटता के लिए जो काम किया वह दुनिया भर में आदर्श है . आज़ादी को जिस तरह से सरदार पटेल ने समेकित किया वह दुनिया भर में कहीं देखने को नहीं मिलता. लेनिन ,माओ,फिदेल कास्त्रो ,नेल्सन मंडेला आदि ने भी अपनी अपनी आज़ादी के लिए लड़ाई की अगुवाई की थी लेकिन उसको विधिवत समेकित करने  काम और लोगों ने किया . भारत की आज़ादी की लड़ाई में सरदार पटेल सबसे अगली कतार में थे लेकिन आज़ादी मिलने के बाद उन्होंने आराम नहीं किया .वे ,गृह मंत्रालय के अलावा सूचना और प्रसारण मंत्रालय का काम भी देखते थे . देशी राज्यों के एकीकरण का काम तो था ही .  आज़ादी के साथ साथ ही देश  में भारी अराजकता आ गयी थी . हर जगह दंगे हो रहे थे.  जंगल राज का माहौल था .ऐसी मुश्किल हालात में सरदार  पटेल ने पूरे देश में कानून का राज कायम किया . यह बहुत ही कठिन काम था . इसको सफल बनाने में उन्होंने ब्रिटिश राज की मशीनरी का ही उपयोग किया . उन्होंने आई सी एस अफसरों को भरोसा दिला दिया कि अंग्रेजों के जाने के बाद भी उनकी सेवाएँ सुरक्षित  हैं. बस फर्क यह पड़ा है कि पहले वे शासन करते थे अब सेवा करना होगा . इस तरह सरदार पटेल ने अंग्रेज़ी राज को चलाने के सबसे मज़बूत स्तम्भ को अपना बना लिया . आज की नौकरशाही ,उसी आई सी एस की  वारिस है . और यह देश को सुचारु रूप से  सञ्चालन के लिए सरदार पटेल की विरासत है . नौकरशाही को  जनहित में  इस्तेमाल करना आज के नेताओं के लिए बहुत ज़रूरी है लेकिन उनका  अपमान  करने का अधिकार उनको नहीं है .

जब देश के नेता आजादी के जश्न मना  रहे थे  सरदार पटेल अपने काम में  जुट गए थे. वे  बहुत ही दूरदर्शी थे  . उन्होने साफ़ देख लिया कि  एक मज़बूत सिविल  सर्विस बहुत ज़रूरी  है . अक्टूबर १९४९ में  संविधान सभा के अपने भाषण में सरदार पटेल ने इस बात को जोर देकर कहा भी था  . उन्होंने कहा कि ,"   अगर आपके पास अखिल भारतीय  सेवा के अफसरों की ऐसी जमात नहीं है जो बेझिझक अपनी बात को कह सकें तो आप एकजुट भारत  नहीं रख पायेंगे ." उन दिनों आई सी एस को स्टील फेम कहा  जाता था. आई सी एस को  स्टील फ्रेम नाम १९२२ में ब्रिटिश संसद में दिए गए लायड जार्ज के एक भाषण के बाद दिया गया . उन्होंने कहा था ," अगर आप कपडे के ताने बाने से स्टील फ्रेम को  अलग कर दें तो वह गिर जाएगा . एक संस्था ऐसी है जिसको हम लुंज पुंज नहीं कर सकते, यह एक ऐसी संस्था है जिसको हम काम करने के उसके विशेषाधिकार से मुक्त नहीं कर सकते . वही संस्था  जिसने भारत में ब्रिटिश
राज को बनाया है और वह संस्था है , भारत की  सिविल सर्विस ". सरदार पटेल को यह मालूम था और उनकी भी इच्छा  थी कि राष्ट्रीय स्तर पर इसी तरह की सर्विस की  स्थापना की जाए .. सरदार पटेल ने अपनी यह इच्छा महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू को भी बताया था और उनको दोनों ही नेताओं का पूरा समर्थन मिला . इसके बाद ही सरदार पटेल ने आई सी एस को सुरक्षा की गारंटी दी और भारतीय प्रशासनिक सेवा की बुनियाद रखी. सरदार पटेल के इन प्रस्तावों को ज़बरदस्त विरोध का सामना भी करना पड़ा  लेकिन सरदार पटेल की सुविचारित नीति का विरोध धीरे धीरे ख़त्म हो  गया .सरदार पटेल ने कोई जोर ज़बरदस्ती नहीं की . लोगों को समझा बुझाकर उन्होंने उस  वक़्त के आई सी एस को  तब तक बचाए रखने की सरकारी  गारंटी दे दी जब तक वे अफसर  रिटायर नहीं हो जाते .साथ साथ ही  अपनी नई आखिल भारतीय सेवा की बुनियाद  डाल दी. सरदार पटेल की मृत्यु १९५० में  ही हो गयी थी लेकिन तब तक आल इण्डिया सर्विसेज़ एक्ट १९५१ को अंतिम रूप दिया जा चुका था और  उसी की बुनियाद पर आज का आई ए एस बनाया गया है . देश को एक रखने में और राजनीतिक इच्छा को कार्यरूप देने में सिविल सर्विस का बहुत ही अधिक योगदान है .इसलिए उसको अपमानित करना या उसके  हौसले पस्त करना न देश हित में है और न जनहित में है . दिल्ली सरकार  के मुख्यमंत्री को चाहिए कि अब तक उनके विधायकों ने इतनी महत्वपूर्ण संस्था का जो नुक्सान किया  उसको जल्द से जल्द संभलाने की कोशिश  शुरू कर दें .

आतंकी धन पर फिनांशल ऐक्शन टास्क फोर्स का फैसला पाकिस्तान को तबाह कर सकता है



शेष नारायण सिंह

पाकिस्तान फिर मुसीबत में है . संयुक्त  राष्ट्र में जब उस पर दबाव पड़ता  है तो सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य  चीन उसको बचा लेता है और सुरक्षा परिषद में पाकिस्तान के खिलाफ कभी भी कोई  प्रस्ताव पास नहीं हो पता . लेकिन इस बार अमरीका ने दूसरा रास्ता अपनाया है जिससे पाकिस्तान को  आतंक को पैसा देने वाले मुल्क के रूप में घोषित करने की योजना है . अमरीका ,इंग्लैण्डजर्मनी और फ्रांस पाकिस्तान को घेरने की योजना पर काम कर रहे हैं . इस बार दुनिया के आर्थिक रूप से सबसे ताक़तवर देशों के वैश्विक निकाय फिनांशल ऐक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ)  में एक प्रस्ताव गया  है जिसके बाद पाकिस्तान को आतंक का कारोबार करने वालों के लिए धन का इंतज़ाम करने वाला देश बनाया जा सकता है . फिनांशल ऐक्शन टास्क फोर्स  बहुत ही प्रभावशाली संगठन है .इसके सदस्यों में अमरीकाफ्रांस,जर्मनीइंग्लैण्डजापानदक्षिण कोरिया, और  पश्चिमी यूरोप के विकसित देशों के अलावा भारत और चीन भी शामिल हैं . पाकिस्तान के सबसे बड़े शुभचिंतक साउदी अरब भी इसमें आब्ज़र्वर के रूप में शामिल हैं. अगर इस सूची में नाम आ गया तो पाकिस्तान को दुनिया के किसी भी संपन्न देश से कोई भी कारोबार करना लगभग असंभव हो जाएगा .
अमरीका और उसके यूरोपीय सहयोगियों ने पकिस्तान को इसी मुसीबत में डालने का  मंसूबा बना लिया है . पाकिस्तान सरकार में पूरी तरह से हडकंप मचा हुआ है. पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के  वित्त और आर्थिक मामलों के सलाहकार मिफताह इस्माइल ने  अफ़सोस जताया है कि अमरीका और इंग्लैण्ड ने पाकिस्तान का नाम आतंकी धन के प्रायोजक के रूप में नामज़द  करने की पेशकश की थी. उन्होने दावा किया कि इस काम में भारत का भी हाथ है. इस्माइल ने अपने देश के अखबारों  को बताया कि अव्वल तो अमरीका से प्रार्थना की जायेगी कि वह पाकिस्तान का नाम वापस ले ले लेकिन अगर वापस नहीं लेता तो कोशिश की जायेगी कि आंतक की लिस्ट में नाम होने के  बावजूद अमरीका इस को लागू न करे . फिनांशल ऐक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ)   की पांच दिवसीय बैठक इसी अठारह फरवरी को पेरिस में हो रही है .इमकान है कि पाकिस्तान के खिलाफ प्रस्ताव उसी बैठक में पारित हो जाएगा .हालांकि इस संगठन के पास ऐसे अधिकार नहीं है कि किसी मुल्क पर प्रतिबन्ध लगा सके लेकिन एक बार निगरानी सूची में नाम आ जाने के बाद  कोई भी देश पाकिस्तान से कोई भी आर्थिक सम्बन्ध बनाने के पहले सौ बार सोचेगा . इसके बाद पाकिस्तान के आयात और  निर्यात पर बहुत उलटा असर पडेगा . अमरीका पिछले कई  वर्षों से पाकिस्तान को चेता रहा है कि आतंकवादी संगठनों पर लगाम लगाए लेकिन पाकिस्तान कोई कार्रवाई नहीं कर रहा है . अमरीका का आरोप है कि पाकिस्तान पर जब दबाव बढ़ाया जाता है तो वह कुछ मामूली से आतंकवादियों को पकड़ लेता है . आरोप यह भी है कि  पाकिस्तान हाफ़िज़ सईद जैसे खतरनाक आतंकवादियों की सेवाओं को भारत के खिलाफ इस्तेमाल भी करता है . जानकार  बताते हैं कि अमरीका की इसी  सख्ती के चलते पकिस्तान ने  हाफ़िज़ सईद के आतंकी संगठन जमातुद्दावा पर पाबंदी लगाई है . हालांकि यह भी सच है कि वह दिखावे के  लिए कई बार इस तरह के काम कर चुका है . पाकिस्तान को पता है कि फिनांशल ऐक्शन टास्क फोर्स  की लिस्ट में नाम आने का क्या मतलब है क्योंकि वह छः साल पहले भी इस लिस्ट में डाला जा चुका है . करीब तीन साल पहले उसको लिस्ट से हटाकर एक मौक़ा दिया गया था लेकिन पाकिस्तान फिर फिसड्डी साबित हुआ और इस बात की पूरी संभावना है कि इसी माह पाकिस्तान को दोबारा निगरानी सूची में डाल दिया जाएगा.

अमरीका इस बार गंभीर है कि पकिस्तान इमानदारी से हाफ़िज़ सईदपाकिस्तानी तालिबान और हक्कानी जैसे खूंखार संगठनों पर लगाम लगाए .  दिखावे से काम नहीं चलने वाला है .अमरीका और यूरोपीय देशों की ताज़ा पहल से पाकिस्तानी सरकार सकते में है . एफ ए टी एफ की प्रस्तावित  बैठक के  नतीजों से घबडाए हुए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री,जो अभी एक हफ्ते पहले तक कहते  फिर रहे थे  कि “ हाफ़िज़ सईद  ‘ साहब ‘ के खिलाफ पाकिस्तान में कोई अभियोग नहीं चल रहा है और न ही कोई आरोप है”  ,अब वही प्रधानमंत्री जी आर्डिनेंस के ज़रिये हडबडी में कार्रवाई कर रहे हैं . पाकिस्तानी राष्ट्रपति मामून हुसैन को उन्होंने सलाह देकर एक  आर्डिनेंस जारी करवाया है जिसके तहत पकिस्तान  के एंटी टेररिज्म एक्ट  १९९७ में बदलाव लाया गया है . इसी बदलाव का नतीजा है कि अब हाफ़िज़ सईद के जमातुद्दावा सहित फलाह-ए-ए इंसानियत फाउंडेशन ,अल अख्तर और अल रशीद ट्रस्ट का भी बहिष्कार कर दिया जाएगा .यह सारे संगठन संयुक्त राष्ट्र की आतंकी लिस्ट में मौजूद हैं लेकिन पाकिस्तान आतंक को हथियार के रूप में इस्तेमाल  करने की अपनी भारत और अफगानिस्तान विरोधी नीति के कारण इनको इस्तेमाल करता रहा है . पाकिस्तान में घबडाहट का आलम यह है कि पाकिस्तानी गृहमंत्री अहसान इक़बाल भी मैदान में आ गए और उन्होंने अमरीका को  ही चेतावनी दे दी कि अगर अमरीका अपने प्रस्ताव को आगे बढाता है तो दोनों देशों के आपसी संबंधों पर बहुत उलटा असर पडेगा . उन्होंने दावा किया कि पाकिस्तानी लोग बहुत ही गौरवशाली लोग हैं और उनको अगर अमरीका  अर्दब में लेने की कोशिश करेगा तो उसको ही नुक्सान होगा . ज़ाहिर है अमरीका ने इस बडबोलेपन का बहुत बुरा माना और विदेश विभाग के एक अफसर के बयान के ज़रिये पाकिस्तानी  गृह मंत्री को उनकी और उनके देश की औकात बता दी गयी .

पकिस्तान में आजकल यह कहने फैशन चल पड़ा है कि पाकिस्तान खुद ही आतंकवाद का शिकार है और यह भी कि दुनिया में ऐसा कोई देश नहीं है जिसने आतंकवाद से लड़ने के लिए उतनी कुर्बानियां की हों जितनी कि पाकिस्तान ने की है . अहसान इकबाल कहते हैं कि आतंकवाद से लड़ाई में पाकिस्तान के करीब साठ हज़ार लोग  मारे गए हैं और करीब पचीस अरब  अमरीकी डालर का  नुक्सान हुआ है . पाकिस्तान को यह भी मुगालता है कि वह अमरीका का बराबर का  पार्टनर है और उसको उसी तरह से सम्मान मिलना चाहिए . लेकिन अहसान इकबाल का यह धुप्पल चलने वाला नहीं है क्योंकि पाकिस्तान सहित पूरी दुनिया को  मालूम है कि इस इलाके में आतंकवाद को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने का काम पाकिस्तान में ही शुरू हुआ था . बंटवारे के बाद देश  के अन्दर ही  हिन्दू आबादी को धर्म परिवर्तन करने के लिए आतंक का इस्तेमाल हुआ , अहमदिया मुसलमानों को देश निकाला देने के लिए भी आतंक का इस्तेमाल हुआ था. १९६५ में तत्कालीन पाकिस्तानी तानशाह ,जनरल अय्यूब ने  पाकिस्तानी सेना की एक टुकड़ी को लोकल लोगों जैसे कपडे पहनाकर कश्मीर में भेज दिया था . उनकी मंशा थी कि   कश्मीर के स्थानीय लोगों को भड़काकर भारत के खिलाफ बगावत करा दी  जायेगी और वे कश्मीर पर कब्जा कर लेगें . इस कारनामे को उन्होंने आपरेशन जिब्राल्टर नाम दिया था लेकिन उनके सपने खाक में मिल गए क्योंकि  कश्मीरी जनता ने घुसपैठियों को पकड कर खूब पिटाई की थी. उसके बाद ही १९६५ की लड़ाई शुरू हुई  थी.  उनके बाद हुए एक  अन्य तानाशाह  जनरल जिया उल हक ने ऐलानियाँ कहा कि वे भारत के खिलाफ  आमने सामने की लड़ाई में नहीं टिक पायेंगे लिहाज़ा उन्होंने कश्मीर और पंजाब में अपने आदमी भेजकर आतंक को सरकारी नीति के रूप में लागू किया था . आजतक वही चल रहा है . आज तो आलम है कि दुनिया में कहीं भी कोई आतंकवादी हमला होता है उसकी जड़ें पाकिस्तान में  ही मिलती हैं . इसलिए पाकिस्तान सरकार की अपने आपको आतंकवाद से पीड़ित राष्ट्र बताने की कोशिश उसको कोई भी लाभ नहीं पंहुचाने वाली है .लोग हँसते हैं .
फिनांशल ऐक्शन टास्क फोर्स  की  अट्ठारह फरवरी को होने वाली बैठक में पाकिस्तान को निगरानी सूची में रखा जाना बिलकुल तय लग रहा  है . शायद इसीलिए पाकिस्तान सरकार की तरफ से हाफ़िज़ सईद के खिलाफ दिखावे के लिए ज़बरदस्त अभियान चल रहा है .उसके आतंकी ठिकाने , मुरीदके,  को सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया है . लेकिन लगता है कि अमरीकी और यूरोपीय खुफिया एजेंसियों को सब कुछ पता है . उनके रुख में अभी  बदलाव की खबर नहीं है .   हाफ़िज़  सईद वास्तव में अमरीका का भी गुनहगार है क्योंकि जिस मुंबई हमले का वह सरगना है उसमें कई अमरीकी नागरिक भी मारे गए थे  इसीलिये वह अमरीकी अदालतों की नज़र में भगोड़ा है और उसको पकड़कर लाने वालों के लिए कई करोड़ रूपये के इनाम की घोषणा अमरीकी सरकार ने कर  रखी  है . ज़ाहिर है अमरीका उसको अपने यहाँ ले जाकर  उसपर मुक़दमा चलाना चाहता है .  पाकिस्तान में सबको मालूम है कि  सरकार की हिम्मत नहीं है कि उसको अमरीका के हवाले करे क्योंकि वह पाकिस्तानी फौज की पैदावार है और अगर  सिविलियन सरकार ने ऐसी कोई कोशिश की तो फौज   बगावत कर सकती है .
हाफ़िज़  सईद के अलावा  और भी आतंकवादी  संगठन पाकिस्तान में हैं . हक्कानी गैंग और पाकिस्तानी तालिबान भी वहीं हैं  .पाकिस्तान को फिनांशल ऐक्शन टास्क फोर्स की निगरानी लिस्ट से बचने के लिए इन सबके खिलाफ भी कार्रवाई करनी पड़ेगी . अजीब बात है कि जिन आतंकवादी  गिरोहों के कारण पाकिस्तान ने कश्मीर और अफगानिस्तान  में युद्ध जैसी स्थिति बना रखा है उनको ही बंद करने का दबाव उस पर पड़ रहा है . अगर इन गिरोहों को  पाकिस्तान ने अपनी ज़मीन पर कमज़ोर कर दिया तो वह खुद ही कमज़ोर हो जाएगा . यह बात लगभग तय है कि अगर  लश्कर-ए-तय्यबा ,हिजबुल मुजाहिदीन , हरकतुल मुजाहिदीन  जैसे गिरोह  निष्क्रिय हो गए तो कश्मीर में फिर से अमन चैन स्थापित हो जाएगा और इन गिरोहों के लिए काम करने वाले भाड़े के सैनिक जो अपने को हुर्रियत कान्फरेंस कहते हैं ,किसी काम के नहीं रह जायेगें . पाकिस्तान के डर से भारत के खिलाफ कुछ न कुछ बोलती रहने वाली मुख्यमंन्त्री जी के ऊपर भी सही असर पडेगा और वे बिना आतंकवादियों के डर के काम कर सकेंगीं . इस तरह से हम देखते हैं कि फिनांशल ऐक्शन टास्क फोर्स के पाकिस्तानी सरकार को निगरानी सूची में रखने का फायदा पूरी दुनिया में आतंक को कमज़ोर करने की दिशा में तो होगा ही. भारत को भी होगा .
फिनांशल ऐक्शन टास्क फोर्स ऐसा संगठन है जो आतंकवाद और काले धन को सफ़ेद करने के अपराध को रोकने की दिशा में बहुत बड़ी पहल  कर रहा  है.  यह ३७ सरकारों और यूरोपीय संघ जैसी संस्थाओं का एक मंच है . इसकी स्थापना १९८९ में हुई थी .इसके सुझावों के आधार पर ही  विश्व के देशों  में आतंकवाद और अन्य मानवता विरोधी कार्यों के लिए धन मुहैया  कराने वालों के खिलाफ कानून बनाये जाते हैं . पाकिस्तान की हालत  सांप-छछूंदर की हो गयी है क्योंकि पाकिस्तान ने अगर सहयोग किया और आतंकवादी धन पर लगाम लगाई तो  उसकी फौज द्वारा इस्तेमाल किये जा रहे आतंकवादी बेकार हो जायेंगे और उसकी मर्जी से कश्मीर में वारदात  नहीं कर पायेगें . ज़ाहिर है इससे पाकिस्तान की विदेश नीति के उद्देश्यों को  घाटा होगा . और अगर सहयोग न किया तो  अन्तर राष्ट्रीय स्तर  पर कोई भी देश उसके साथ व्यापार नहीं करेगा . वैसे यह भी सच है कि पाकिस्तान को आज नहीं तो कल आतंक को सरकारी नीति बनाने के अपने रुख बाज आना ही पडेगा ,वरना उसकी  पहले से ही खस्ताहाल उसकी अर्थव्यवस्था तबाह हो जायेगी .

बाबरी मस्जिद की राजनीति में सबसे ज़्यादा नुक्सान मुसलमानों का हुआ है .


शेष नारायण सिंह

अयोध्या की बाबरी  मस्जिद  के विध्वंस के पचीस साल पूरे हो चुके हैं . इस बीच अपने देश में बहुत कुछ बदल गया है . आज़ादी के बाद जिस तरह की राजनीति शुरू हुई थी वह अब नहीं है . जिस संविधान की बुनियाद पर भारत पूरी दुनिया में इज्ज़त  का हकदार है ,उसको बदल देने की बात शुरू हो गयी है . मुसलमान को हर तरह से निशाने पर लिया जा रहा है. उनके दीनी मामलों में ऐसे लोग चर्चा कर रहे हैं  जिनको  धर्म की कोई जानकारी नहीं  है. इस बीच छः दिसंबर १९९२ को अयोध्या में हुए विनाश के हर पहलू पर नए सिरे से बहस हो रही है . वहां की ज़मीन का जो विवाद चल रहा था उस पर इलाहाबाद हाई कोर्ट का विवादित फैसला सुप्रीम कोर्ट अपील में  है . सुप्रीम कोर्ट ने इसी हफ्ते साफ़ कह दिया है कि केस में धार्मिक आस्था नहीं , उपलब्ध सबूत के आधार पर फैसला लिया जाएगा  .  सबूत तो सुन्नी वक्फ बोर्ड के दावे को ही सही ठहराते हैं  क्योंकि विश्व हिन्दू परिषद और उसके  सहयोगी  संगठन तो आस्था के नाम पर राजनीतिक और कानूनी अभियान चला रहे हैं  . आर एस एस और बीजेपी के नेता अक्सर दावा करते पाए जाते हैं कि आस्था के सवाल पूरी तरह से कानून की सीमा के बाहर होते हैं . सुप्रीम कोर्ट में  माननीय जज की टिप्पणी के बाद यह तय है कि वहां आस्था पर आधारित कोई भी फैसला नहीं किया जाएगा . मुक़दमा ज़मीन के मालिकाना हक से सम्बंधित है ,इसलिए फैसला भी वही होगा .
बाबरी मस्जिद की तबाही का आपराधिक मामला अलग से चल रहा है . उसमें भी फैसला आना है , जो पता नहीं कब आयेगा .  ज़मीन की मिलकियत के मूल पक्षकार , हाशिम अंसारी की मृत्यु हो चुकी है , निर्मोही अखाडा में भी अब  नए लोग  आ चुके हैं . सच्ची बात यह है कि बाबरी मस्जिद को विवाद में लाने की आर एस एस की जो मूल  योजना थी वह परवान चढ़ चुकी है. आज  केंद्र सहित अधिकतर राज्यों में आर एस   एस के राजनीतिक संगठन ,बीजेपी की सरकार है. यह सरकारें धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति का नतीजा  हैं . यह कारनामा एक दिन में नहीं हासिल किया गया है . १९८४ में बीजेपी को लोकसभा में केवल दो सीटें  मिली थीं . उसके  बाद तय हो गया कि आगे  की राजनीति में  हिन्दू भावनाओं को एकमुश्त करके ही चुनाव मैदान में  बीजेपी को जाना पडेगा .अटल बिहारी वाजपेयी के गांधियन समाजवाद से सीटें बढ़ने वाली नहीं है . दुनिया जानती है कि उसके बाद आर एस एस ने बाबरी मस्जिद के मुद्दे को हवा दी. कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमान उनके हाथों में खेलने लगे.. बीजेपी के बड़े नेता लाल कृष्ण आडवानी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा की. गाँव गाँव से नौजवानों को भगवान राम के नाम पर इकट्ठा किया गया और माहौल पूरी तरह से साम्प्रदायिक बना दिया गया. उधर बाबरी मस्जिद के नाम पर मुनाफा कमा रहे कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों ने वही किया जिस से आर एस एस को फायदा हुआ. हद तो तब हो गयी जब मुसलमानों के नाम पर सियासत कर रहे लोगों ने २६ जनवरी के बहिष्कार की घोषणा कर दी. बी जे पी को इस से बढ़िया गिफ्ट दिया ही नहीं जा सकता था. उन लोगों ने इन गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों के काम को पूरे मुस्लिम समाज के मत्थे मढ़ने की कोशिश की . बाबरी मस्जिद के नाम पर हिन्दू-मुसलमान के बीच बहुत बड़ी खाई बनाने की  कोशिश की गयी और उसमें आर एस एस को बड़ी सफलता मिली. अब तो   टीवी की बहस में  भावनाओं को भड़का लिया जाता है लेकिन ख़बरों के चौबीस घंटे के टीवी के शुरू होने  के पहले धार्मिक ध्रुवीकरण करवाने के लिए दंगे करवाए जाते थे. दंगे अभी  भी होते हैं और उनका उद्देश्य हमेशा की तरह  राजनीतिक होता  है .बस फर्क यह पड़ा है कि पहले अफवाह फैलाकर बाकी देश में उनकी चर्चा होती थी. अब टीवी के डिबेट के जारिए की जाती है .इन दंगों को रोका जाना चाहिए  . दंगों को रोकने के लिए ज़रूरी यह है कि लोगों को जानकारी दी जाए कि दंगें होते कैसे हैं . जिन लोगों ने भीष्म साहनी की किताब तमस पढी है या उस पर बना सीरियल देखा है . उन्हें मालूम है १९४७ के बंटवारे के पहले  किस तरह से एक गरीब आदमी को पैसा देकर मस्जिद में सूअर फेंकवाया गया था. भीष्म जी ने बताया था कि वह एक सच्ची घटना पर आधारित कहानी थी. या १९८० के मुरादाबाद दंगों की योजना बनाने वालों ने ईद की नमाज़ के वक़्त मस्जिद में सूअर हांक दिया था . दंगा करवाने वाले इसी तरह के काम कर सकते हैं . हो सकता है कि कुछ नए तरीके भी ईजाद करें . कोशिश की जानी चाहिए कि मुसलमान इस तरह के किसी भी भड़काऊ काम को नज़र अंदाज़ करें . क्योंक दंगों में सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमान का ही होता है . जहां तक फायदे की बात है वह बी जे पी का होगा क्योंकि साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के बाद वोटों की खेती लहलहाती है .इस लिए दंगों को रोकने की किसी भी योजना को नाकाम करना आज की सबसे बड़ी  प्राथमिकता होनी चाहिए .
धार्मिक ध्रुवीकरण का सबसे ज़्यादा नुकसान  मुसलमानों को ही होता है . बाबरी मस्जिद की तबाही के बाद बहुत सारे दंगे कराये गए . लेकिन अभी  तक  कानून की तरफ से सज़ा किसी को  नहीं मिली .संविधान में पूजा स्थल को नुकसान पहुंचाने को अपराध माना गया है और भारतीय दंड संहिता में इस अपराध की सजा है। अदालत में मुकदमा चलता  है लेकिन अपराधियों को माकूल सजा कभी नहीं मिलती . बाबरी मस्जिद के नाम पर राजनीति करने वालों ने बहुत सारे ऐसे अपराध किए हैं जिनकी सजा इंसानी अदालतें नहीं दे सकतीं। बाबरी मस्जिद को ढहाने वालों ने परवरदिगार की शान में गुस्ताखी की हैउसके बंदों की भावनाओं को ठेस पहुंचाई है। आर.एस.एस. से जुड़े जिन लोगों ने बाबरी मस्जिद को शहीद करने की साजिश रचीउनको न तो इतिहास कभी माफ करेगा और न ही राम उन्हें माफी देंगे।देश की हिंदू जनता की भावनाओं को भड़काने के लिए आडवानी और उनके साथियों ने भगवान राम के नाम का इस्तेमाल किया। उन्हीं राम का जो सनातनधर्मी हिंदुओं के आराध्य देव हैं जिन्होंने कहा है कि 'पर पीड़ा सम नहिं अधमाई। यानी दूसरे को तकलीफ देने से नीच कोई काम नहीं होता। राम के नाम पर रथ यात्रा निकालकर सीधे सादे हिंदू जनमानस को गुमराह करने का जो काम आडवाणी ने किया था जिसकी वजह से देश दंगों की आग में झोंक दिया गया था उसकी सजा आडवाणी को अब मिल चुकी  है। प्रधानमंत्री बनने के अपने सपने को पूरा करने के उद्देश्य से आडवाणी ने पिछले तीस वर्षों में जो दुश्मनी का माहौल बनाया उसका उनको राजनीतिक लाभ  नहीं मिला . प्रधानमंत्री पद का सपना एक खौफनाक ख्वाब बन गया है।वे प्रधानमंत्री तो नहीं ही बन सके,उनका नाम अब किसी को  अपमानित करने के मुहावरे की  तरह  इस्तेमाल होता है .
बाबरी मस्जिद के नाम पर मुसलमानों की  सियासत करने वालों का भी कहीं अता पता 
नहीं है . बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के ज्यादातर नेता आज गुमनामी की जिंदगी बिता रहे हैं हालांकि उन्होंने सियासी बुलंदी हासिल करने के लिए एक ऐतिहासिक मस्जिद के इर्द-गिर्द अपने तिकड़म का ताना बना बुना था। मुसलमानों के स्वयंभू नेता बनने के चक्कर में इन तथाकथित नेताओं ने उन हिंदुओं को भी नाराज करने की कोशिश की थी जो मुसलमानों के दोस्त हैं। शुक्र है उस पाक परवरदिगार का जिसने इस देश के धर्मनिरपेक्ष हिंदुओं को यह तौफीक दी कि वे आर.एस.एस. के चक्कर में  नहीं फंसे वरना इन लोगों ने तो कोई कसर नहीं छोड़ी थी। सच्चाई यह है कि बाबरी मस्जिद अयोध्या में चार सौ साल से मौजूद थीलेकिन उसके नाम पर सियासत का सिलसिला 1948 से शुरू हुआ जो मस्जिद की शहादत के बाद भी जारी है।  इस सियासत का सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमानों को  हुआ है .  देश की राजनीति में पहली बार ऐसा हुआ है कि सत्ताधारी पार्टी  मुसलमानों  के विरोध को राजनीतिक अभियान की बुनियाद बनाकर चुनाव  जीत  रही है .  इसलिए मुसलमानों के असली नेताओं को सामने  आना पडेगा और देश की सियासत में हाशिये पर धकेले जा रही कौम को एकजुट करके  सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक  तरक्की की राह को आसान करना पडेगा .अगर संविधान बदलने में  आर एस एस को सफलता मिली तो मुसलमानों का सबसे ज्यादा नुक्सान होगा