Thursday, January 30, 2020

पत्रकारिता के चारणों पर लगाम पत्रकार बिरादरी को ही लगाना पडेगा



शेष नारायण सिंह

आजकल नागरिकता कानून के हवाले से देश भर में जगह जगह आन्दोलन की हवा चल रही है . कुछ लोग इस कानून का विरोध कर रहे हैं जिनके साथ दिल्ली की एक बस्ती शाहीन बाग़ का नाम जुड़ गया है . कुछ शहरों में कुछ लोग नागरिकता कानून में संसद द्वारा किये गए संशोधन का समर्थन कर रहे हैं . समर्थन करने वालों में आम तौर पर सरकार के समर्थक हैं . शाहीन बाग़ का आन्दोलन अब सरकार के खिलाफ प्रतिरोध का पर्याय बन गया है . डेढ़  महीने से ज़्यादा समय से चल रहे इस सत्याग्रह की ख़बरें देश के मीडिया में तो हैं ही , दुनिया के प्रतिष्ठित अखबारों में  भी शाहीन बाग़ में धरने पर बैठी औरतों की हिम्मत और अज्म की खबरें प्रमुखता से छापी और प्रसारित की जा  रही हैं . दिल्ली के चुनाव में भी शाहीन बाग़ एक मुहावरा बन गया है . शाहीन  बाग़ को मुसलमानों द्वारा प्रायोजित  प्रतिरोध बताकर हिन्दुओं को अपने पक्ष में लार लेने और वोट देने की बात भी चल रही है . शाहीन बाग़ को धार्मिक ध्रुवीकरण के लिए इस्तेमाल करने के आरोप भी लग  रहे  हैं .देश की राजनीति ऐसे मुकाम पर पंहुच चुकी है कि अपनी कमियाँ छुपाने के लिए राजनीतिक दल कुछ भी कर सकते हैं और यह  बात अब देश की जनता को मालूम है . चिंता की बात यह है कि अब इस विवाद में मीडिया ने एक पक्षकार के रूप में इंट्री ले ली है और उसकी  विश्वनीयता पर एक बार फिर बहस शुरू हो गयी है .
मीडिया की विश्वनीयता का सवाल  अब एक गंभीर रूप ले चुका है . दिल्ली में काम करने वाले बहुत सारे गंभीर पत्रकारों से बात करने पर पता लगता  है कि ज्यादातर लोग  एकाध बार वहां हो आये है . मैं भी अपने संपादक के साथ वहां गया था . हम लोग  धरनास्थल और उसके आसपास  घूमते रहे , लोगों से बातचीत करते रहे और चले आये . वहां टीवी के कुछ कैमरे दिख रहे थे, रिपोर्टर अपना काम कर   रहे थे ,किसी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था . वहां एक दादी थीं जो शायद मीडिया से बात करने के लिए अधिकृत थीं , उनसे लोग बात करते थे और   औरों से भी ज़रूरी बाईट लेकर अपना काम कर के जा रहे थे . उसके पहले भी हमारे सम्पादक एक रात १२  बजे से तडके  तीन बजे तक वहां एक पत्रकार के रूप में कैमरा लेकर घूम चुके थे . कहीं कोई दिक्क़त नहीं थी . हमारी यात्रा के अगले दिन ही खबर आई कि एक टीवी चैनल के सम्पादक को वहां रिपोर्टिंग के दौरान मारपीट का सामना करना पडा . उनको  वहां से  भगाया गया . हमने  शाहीन बाग़ में मौजूद उन लोगों की निंदा की जिन्होंने पत्रकार पर हमला किया . मैंने यह कहा कि किसी रिपोर्टर की निष्पक्ष रहने की क्षमता और  योग्यता  पर सवाल उठाने के  बाद भी किसी को यह हक नहीं है कि  उसको रिपोर्ट करने से रोकने के लिए मारा पीटा जाए. आप उससे असहमत  हो सकते है , आप उससे बात करने से मना कर सकते हैं लेकिन अगर आपने पत्रकार पर हाथ उठाया तो आपको  पत्रकार बिरादरी और सभ्य समाज के क्रोध का सामना करना पड़ेगा . जिस पत्रकार को शाहीन बाग़ में पीटा गया था वह एकाध दिन बाद अपने  प्रतिद्वंदी चैनल के एक सम्पादक को लेकर अगले दिन पूरी तैयारी से वहां पंहुच गए और उन्होंने डंके की चोट पर रिपोर्टिंग का ऐलान कर दिया . उनके खिलाफ वहां नारे लगे , उन्होंने शाहीन बाग़ की अपनी समझ को  मीडिया में हाईलाईट किया और बात एक बार फिर चर्चा में आ गयी . मुझसे भी भी अपनी राय रखने को कहा गया , मैंने राय दे दी कि मैं पत्रकार की पिटाई वाली बात की निंदा करता हूँ. हां , वहां मौजूद लोगों को किसी के विरोध में या किसी के पक्ष में नारे लगाने का अधिकार है और उनके बारे की  व्याख्या करने का अधिकार मीडिया को भी है . उसमें मुझे कोई दिक्क़त नहीं है . आरोप लगाया गया कई टीवी चैनलों के दोनों की सम्पादक सरकार की बात को सही साबित करने के लिए वहां आये थे इसलिए हमने उनका बहिष्कार किया .  बहिष्कार करिए ,वह तो आपका आधिकार है .इसमें मीडिया या सभ्य समाज को कोई दिक्क़त नहीं है  लेकिन मारपीट करना या होने देना सरासर गलत है .
मीडिया के बहिष्कार की बात लोकतांत्रिक तो हो सकती  है लेकिन मीडिया की विश्वसनीयता पर पक्का सवाल उठाती है . तेरा मीडिया , मेरा मीडिया का माहौल बनाती है जो सामाजिक और लोकतांत्रिक विकास के लिए बहुत बड़ी बाधा  है .  मीडिया की विश्वसनीयता पर  सवाल उठेगा तो लोकतन्त्र के लिए  अच्छा नहीं होगा . लोकतंत्र की सफलता के लिए मीडिया की विश्वनीयता बहुत ही ज़रूरी है . प्रेस की आज़ादी किसी भी देश की लोकतांत्रिक शक्ति का पैमाना होती है . आज  भारत की स्थिति लोकतंत्र के इंडेक्स में बहुत नीचे है . मीडिया की आज़ादी के बारे में भी भारत का नम्बर बहुत ही नीचे है . ऐसा क्यों हो रहा है इसको समझना ज़रूरी है. इमरजेंसी में देश में सेंसर लागू हो गया था . टीवी चैनल तो निजी क्षेत्र के थे नहीं , अखबारों पर सरकार की नाकामियों को रेखांकित करने वाली ख़बरें नहीं छपती थीं .उन पर रोक लगी  हुयी थी . नतीजा यह हुआ कि देश की बहुत सारी लोकतांत्रिक संस्थाएं  विश्वसनीयता के संकट से गुज़र रही थीं . इमरजेंसी हटी, १९७७ का चुनाव हुआ और कांग्रेस की इंदिरा गांधी सरकार सत्ता से बेदखल हो गयी , जनता पार्टी की सरकार बनी और उस सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्री लाल कृष्ण आडवानी ने मीडया को आइना दिखा दिया .  उन्होंने पत्रकारों की एक हाउसिंग सोसाइटी का उद्घाटन करते हुए कहा कि पत्रकारों को इंदिरा जी की सरकार में झुकने के लिए कहा गया था लेकिन उनमें से ज्यादातर रेंगने लगे . उन्होंने सपष्ट किया कि सरकार की तरफ से जो सेंसर के आदेश दे दिए थे उसमें कहीं भी सत्ताधारी पार्टी की जयजयकार का आदेश नहीं था लेकिन पत्रकार उनकी प्रशंसा में कसीदे पढने लगे . जब कसीदे पढ़े जायेंगें तो पत्रकारिता की विश्वसनीयता रसातल को जायेगी . अगर सत्ताधारी पार्टी के पक्ष में मीडिया  संस्थान और पत्रकार  ढिंढोरची का काम करेंगें तो उनकी पहचान पत्रकार के रूप में नहीं रासोकार  और के रूप में होगी . यह मीडिया  को तय करना है कि वह चंद बरदाई  बनकर सरकार से इनाम आदि लेना चाहता है या महात्मा गांधी जैसा पत्रकार बनकर सच को सामने लाना चाहता है .
मीडिया की विश्वसनीयता के बारे में  एक निजी अनुभव भी है  . २०१३ के छतीसगढ़ विधानसभा चुनावों के  दौरान मैंने नक्सल प्रभावित बस्तर की यात्रा की थी . जगह जगह सी आर पी एफ की बैरीकेड लगे थे .अपना परिचय देने के बाद ही आप आगे जा सकते थे .मैं अपना पी आई बी कार्ड दिखा देता था . जिसमें केंद्र सरकार का निशान बना हुआ है . मेरा नाम और मेरे अखबार का नाम भी उसमें लिखा हुआ है .  मैं उस इलाके में दो तीन दिन रहा . पहले ही दिन एक अफसर ने  सुझाव दिया कि इस कार्ड को न दिखाकर अगर आप अपने अखबार का परिचय पत्र  दिखाएं तो आपके लिए आसान होगा . इस इलाके में देशबन्धु की बहुत विश्वसनीयता है . बाबा लोग ( नक्सल नेता ) कहते हैं कि देशबन्धु अखबार सरकार का भोंपू नहीं  है . इसीलिये जब अखबार नक्सलियों की निंदा भी करता है तो वे जानते हैं कि वह किसी  दुर्भावना से नहीं कर रहा है . अपने अखबार की  निष्पक्षता की चर्चा सुनकर अच्छा तो लगता ही है लेकिन उसी हवाले आजकल के मीडिया पर ,खासकर टीवी मीडिया पर उठ रहे सवालों से चिंता भी होती है .

अपने देश में मीडिया की विश्वसनीयता की एक लम्बी परंपरा  रही है .  देश का पहला अखबार ' द बंगाल गजट 'माना जाता है .जिसका प्रकाशन १७८० में कलकत्ता से शुरू हुआ था.  जेम्स आगस्टस हिकी उसके संपादक थे .  ईस्ट इंडिया  कंपनी का राज था .अखबार आने से  शुरू में अँगरेज़ बहुत खुश हुआ लेकिन जब हिकी साहब ने असली पत्रकारिता शुरू कर दी तो अंग्रेजों ने उनको प्रताड़ित करना शुरू कर दिया . सज़ा भी दी और आखिर में हिकी साहब को अखबार बंद करना पडा . पत्रकारिता के जो मानदंड उस दौर में स्थापित हुए थे उनको ही ऊंचा रखते हुए आज़ादी की लड़ाई लड़ी गई, कांग्रेस की सत्ता आने पर जहां भी ज़रूरी हुआ उसका , विरोध हुआ .  अभी कुछ वर्ष पहले तक  सरकार की नीतियों पर नुक्ताचीनी होती रही है . लेकिन आजकल माहौल बदल गया है . सरकार की नीतियों  या  सत्ताधारी राजनीतिक पार्टियों के नेताओं की जायज आलोचना करने पर भी सत्ताधारी पार्टी के  समर्थक लोग  पत्रकार को ही निशाना बनाते हैं . अजीब बात  है कि वे पत्रकारों के ही एक बड़े  वर्ग से समर्थन पाते हैं .इससे बचने की ज़रूरत है . अगर न बच सके तो मीडिया की विश्वसनीयता पर लगातार उठ रहे सवाल मीडिया को ही  समाप्त करने का  माद्दा रखते हैं . विश्वसनीयता की बात को  बनाये रखने के लिए ईमानदार पत्रकारों को अगर कुछ चारण टाइप पत्रकारों का बहिष्कार करना पड़े या उनके खिलाफ टिप्पणी करनी पड़े तो संकोच नहीं करना चाहिए क्योंकि अगर अब नहीं चेते तो बहुत देर हो   जायेगी .
 आज़ादी की लड़ाई और आज़ादी के बाद के शुरुआती दौर में देश के मीडिया पर जूट उद्योग के  मालिकों का क़ब्ज़ा हुआ करता था इसीलिये बड़े अखबारों को जूट प्रेस कहा जाता था .  आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के बाद मीडिया पर आम तौर पर कारपोरेट कंपनियों का कब्जा है . जूट प्रेस के दौरन भी छोटे अखबारों ने लोकतंत्र को बचाए रखने की  सत्य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता बनाये रखने की कोशिश की . नतीजा यह हुआ कि  सत्ताधारी पार्टियां सच को उजागर होने से रोक नहीं पाईं .आज कारपोरेट  मीडिया के युग में भी यह काम वही अखबार कर रहे हैं जिन्होंने कभी जूट प्रेस से लोहा लिया था . उसके अलावा आजकल वेब मीडिया भी सूचना के लोकतंत्रीकरण में अपना योगदान कर रहा है . ज़ाहिर है चापलूस पत्रकार और कथित गोदी मीडिया के मठाधीश पत्रकारिता को दफ़न तो नहीं कर   पायेंगें लेकिन प्रायोजित पत्रकारिता पर लगाम लगाने की कोशिश  तो हर हाल में करनी  चाहिए  क्योंकि अपने देश में गेहूं के साथ घुन पीसे जाने की परम्परा रही  है .

संविधान में लिखा हुआ 'सेकुलर' शब्द आज़ादी की विरासत है



शेष नारायण सिंह  


सत्तर साल पहले हम भारत के लोगों ने  भारत के सविधान को अंगीकार कर लिया था ..इन सत्तर वर्षों में संविधान की स्थाई भावना को बदलने की कई बार कोशिश की गयी. लेकिन सुप्रीम कोर्ट चौकन्ना रहा और जब भी कार्यपालिका और विधायिका ने  संविधान  की  मूल भावना से छेड़छाड़ करने की कोशिश की , सुप्रीम कोर्ट ने उनको सही  रास्ता दिखा दिया . गोलकनाथ केस और केशवानंद भारती केस के ऐतिहासिक मुक़दमे इस बात का पक्का सबूत हैं कि संविधान को बदलने की कोशिश सफल नहीं होने दी गयी .अब स्थिति बदलती नज़र आ रही है .  इस बार संविधान की भावना  को भटकाने की  कोशिश कार्यपालिका ने बिना किसी संविधान  संशोधन ही करने का मन बना  लिया है  . अनुच्छेद ३७० और  नागरिकता कानून में  बदलाव के लिए कोई भी संविधान संशोधन नहीं किया गया   है . संसद के साधारण बहुमत के  ज़रिये सरकार ने अपनी मंशा को राष्ट्र पर थोप दिया है .  अभी बात सुप्रीम कोर्ट में है लेकिन उसके पहले ही देश की जनता मैदान ले चुकी है . संविधान के केंद्रीय तत्व को बदलने की सरकार की कोशिशों का विरोध कुछ शिक्षा  संस्थाओं में शुरू  हुआ  लेकिन अब वह पूरे देश में फैल गया  है . दिल्ली के शाहीन बाग़ में इकठ्ठा हुयी कुछ औरतों का विरोध अब संविधान  संरक्षण का एक आन्दोलन बन चुका है .  यह सच है कि सेकुलर शब्द को संविधान की मूल प्रति में शामिल नहीं किया गया था . इसी बात को आगे करके आर एस एस और बीजेपी के नेता, विचारक और पत्रकार कहते पाए जाते हैं कि यह शब्द सविधान की प्रस्तावना में १९७६ में बयालीसवें संशोधन के ज़रिये लिखा गया . लेकिन  इस तर्क में कोई दम नहीं है क्योंकि महात्मा गांधी की अगुवाई में लड़ी गयी देश की आज़ादी की लड़ाई का स्थाई भाव ही सेकुलर था .  चंपारण में पीर  मुहम्मद मूनिस, असहयोग आन्दोलन में देवबंद की भूमिका, बंटवारे के दौरान कांग्रेस को हिन्दुओं की पार्टी साबित करने की जिन्ना की कोशिश का मुंहतोड़ जवाब ऐसी  घटनाएँ हैं जो इस बात को  स्थापित कर देती  हैं कि आज़ादी की लड़ाई एक सेकुलर भारत की स्थापना के लिए लड़ी गयी थी . संविधान की प्रस्तावना में सेकुलर शब्द का न होना ऐसा ही है जैसे उसमें यह न लिखा होना कि गंगा भारत की मुख्य नदी है . जिस तरह गंगाजी  भारत के लिए स्वाभाविक हैं ,उसी तरह  सेकुलर भी भारत के लिए  स्वाभाविक है . आज देश  भर के लगभग सभी शहरों में जो लोग संविधान और  तिरंगा झंडा हाथ में लेकर निकल पड़े हैं और जनगण मन का पाठ कर रहे हैं वे उसी संविधान की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं जिसका आज की सत्ताधारी पार्टी की संस्थापक  संस्था , आर एस एस ने कभी सम्मान नहीं किया . वे तो संविधान को ही सही नहीं मानते तह , उसको बदल डालने की कसमें खाया करते थे . आज उनकी सरकार है तो संविधान को तोड़ने मरोड़ने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन  देश की सेकुलर जनता उनको हर मोड़ पर जवाब देने के लिए सर पर कफ़न बांध कर निकल पडी है .

बीजेपी और आर एस एस के  ऐसे बहुत सारे लोग मिल जायेंगें जो आपसे बतायेंगें कि जब उनको किसी को  गाली देनी होती है तो वे उसे धर्मनिरपेक्ष कह देते हैं . उनकी  सरकार के  काम से यहब साबित हो गया है कि यह उनकी पार्टी की राय है . देश के लोगों की समझ में यह बात आ जानी चाहिए थी अब इनकी सरकार है  और यह  लोग सब कुछ बदल डालेगें . अभी तक की स्थिति तो यह  है कि भारत एक संविधान के अनुसार चलता रहा है . यह बात प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने के बाद नरेंद्र मोदी ने भी स्वीकार किया था लेकिन दोबारा चुनकर आयी उनकी सरकार उस रस्ते से भटकती नज़र आ रही है .बीजेपी के नेता और लेखक अब खुले आम लिखने लगे हैं कि संविधान को सेकुलर रहने की ज़रूरत नहीं है वे उस सविधान की  प्रस्तावना को बदलने की बात रोज़ ही कारने लगे हैं जिसमें ही लिखा है कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है . प्रस्तावना में लिखा है कि ," हमभारत के लोगभारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्नसमाजवादीधर्म निरपेक्षलोकतान्त्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्यायविचारअभिव्यक्ति,विश्वासधर्म और उपासना की स्वतंत्रताप्रतिष्ठा और अवसर की समताप्राप्त करने के लिएतथा उन सब मेंव्यक्ति की गरिमा एवं राष्ट्र की एकता एवं अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख २६ नवम्बर १९४९ को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृतअधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं. ।" . इस देश में मौजूद एक बहुत बड़ी जमात धर्मनिरपेक्ष है और उस जमात को अपने राष्ट्र को उसी तरीके से चलाने का हक है जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान तय हो गया था.
देश की सबसे बड़ी पार्टी आज बीजेपी  है लेकिन उन दिनों कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी हुआ करती थी . महात्मा गांधी कांग्रेस के सबसे बड़े नेता थे और मुहम्मद अली जिन्ना ने एडी चोटी का जोर लगा दिया कि कांग्रेस को हिन्दुओं की पार्टी के रूप में प्रतिष्ठापित कर दें लेकिन नहीं कर पाए . महात्मा जी और उनके  उत्तराधिकारियो ने कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष पार्टी बनाए रखा .आज देश में बीजेपी का राज  है और बीजेपी धर्मनिरपेक्षता के संविधान  में बताये गए बुनियादी सिद्धांत के खिलाफ जाने की फ़िराक में है . उसके कुछ नेता यह कहते देखे गए हैं की देश ने बीजेपी को अपनी मर्जी से राज करने के अधिकार दिया है लेकिन यह बात बीजेपी के हर नेता को साफ तौर पर पता होनी चाहिए की संविधान को बदल  देना उनके  जनादेश में शामिल नहीं था  

संविधान बदलने की इन कोशिशों के बीच संविधान के स्थाई तत्व धर्मनिरपेक्षता के अहम पहलुओं पर एक बार फिर से गौर करने की ज़रूरत है . आजादी की लड़ाई का उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। महात्मा गांधी ने १९०९ में लिखी अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराजमें ही  देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ दिया था . और वही बात अंत तक चलती रही.   हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिएतो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहेंतो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदूमुसलमानपारसीईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैंएक देशीएक-मुल्की हैंवे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"
आजकल आर एस एस और बीजेपी के बड़े नेता यह बताने की कोशिश करते हैं की सरदार पटेल महात्मा गांधी के असली अनुयाई थे और वे हिन्दू राष्ट्रवादी थे . लेकिन यह सरासर गलत  है . भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने 16दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)
बीजेपी आजकल सरदार पटेल को अपना बताने लगी है लेकिन सरदार ,महात्मा  गांधी की परम्परा के सेकुलर थे और उन्होंने बंटवारे के बाद  मुसलमानों की  रक्षा के लिए सत्ता का पूरा प्रयोग किया.

महात्मा गांधी के साथी कांग्रेस के नेताओं के चले जाने के बाद कांग्रेस में भी कुछ ऐसे लोगों की आवाज़ सुनाई पड़ने लगी जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था। उसके बाद कांग्रेस में भी बहुत नेता ऐसे  हुए जो निजी बातचीत में  मुसलमानों को पाकिस्तान जाने की नसीहत देते पाए जाते हैं . सत्तर के बाद की कांग्रेस वह नहीं रह गयी जो आज़ादी की लड़ाई और उसके बाद के दो  दशकों तक रही थी . नेहरू युग में तो कांग्रेस ने कभी भी धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत से समझौता नहीं किया लेकिन   इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी अपने छोटे बेटे की राजनीतिक समझ को महत्त्व  देने लगी थीं . नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस भी हिंदूवादी पार्टी के रूप में पहचान बनाने की दिशा में  चल पडी .बाद में राजीव गांधी  युग में उनके अनुभव की कमी को लाभ उठाकर कांग्रेस में छुपे साम्प्रदायिक तत्वों ने संविधान की मूल भावना का बहुत नुकसान किया .

 राजीव गांधी के युग में कारपोरेट संस्कृति से आये उनके सलाहकारों ने पार्टी और देश को उसी तरह की एक संस्था की तरह चलाने का  प्रयास किया .इस प्रक्रिया में वे लोग कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की मूल सोच भी बैकबर्नर पर चली गयी. अरुण  नेहरू के निर्देशन में इस सुनियोजित तरीके से  दिल्ली के कुछ कांग्रेसी नेताओं ने सिखों का कत्ले आम कियावह धर्मनिरपेक्षता पर बहुत ही ज़बरदस्त हमला था . दो सिखों द्वारा इंदिरा गांधी की हत्या करने देने का बदला लेने की कोशिश में कांग्रेस नेताओं का संरक्षण  पाए हुए गुंडों ने बदले की राजनीति  को देश की राजनीति में घुसाने की कोशिश की . उसका खामियाजा देश को बार बार भोगना पड़ा. १९९२ में बाबरी मस्जिद के विनास के बाद मुंबई और अन्य शहरों में हुए हमले उसी बदले की राजनीति की उपज थे . उन हमलों के नेता हालांकि कांग्रेस विरोधी पार्टियों के  लोग थे लेकिन बदले को सही ठहराने की कोशिश तो १९८५ में ही शुरू हो गयी थी. कांग्रेस का इतिहास देश की आज़ादी का इतिहास भी भी है लेकिन राजीव गांधी के साथ राज कर रहे नेताओं को कांग्रेस के इतिहास की भी  जानकारी नहीं थी। उन्हीं कारपोरेट कांग्रेसियों  ने अयोध्या की विवादित बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया और आयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास करवाया। ऐसा लगता है कि उन्हें हिन्दू वोट बैंक को झटक लेने की बहुत जल्दी थी और उन्होंने वह कारनामा कर डाला जो बीजेपी वाले भी असंभव मानते थे।
कांग्रेस में आये इसी भटकाव का नतीजा है कि आज देश में ऐसी ताकते सत्ता एन हैं जो भारत की एकता के सबसे बड़े सूत्र संविधान में  वर्णित  धर्मनिरपेक्षता को ही समाप्त कर देना चाहती है लेकिन संतोध यह है कि इन कोशिशों को जनता की चनौती मिल रही है.

अरुण कुमार त्रिपाठी ,प्रदीप कुमार सिंह और राम किशोर की किताब राष्ट्रवाद , देशभक्ति और देशद्रोह की भूमिका



शेष नारायण सिंह 


राजनीतिक आचरण के एक महत्वपूर्ण तत्व के रूप में राष्ट्रवाद  हमेशा से ही चर्चा में रहा है . इतिहास के विभिन्न कालखंड यह तय करते रहे हैं कि राष्ट्रवाद का  स्वरूप क्या होगा . बड़े भूभाग पर शासन करने की आवश्यकता के हिसाब से शासक वर्ग राष्ट्रवाद की नई नई  परिभाषाएं गढ़ते रहे हैं . यूरोप में राष्ट्र राज्य  की विचारधारा के साथ साथ  राष्ट्रवाद की तरह तरह की कल्पनाएँ हैं . यूरोप में ही राष्ट्रवाद की अलग अलग  अवधारणा को शासक अपने हिसाब से परिभाषित  करते रहे हैं . अपने देश में भी आजकल हर मोड़ पर राष्ट्रवाद की बात की जा रही है . पिछले एक सौ वर्षों में राष्ट्रवाद ने मानवता को कई तरीकों से प्रभावित किया है .  राष्ट्रवाद की एक अजीबोगरीब सोच के चलते ही एक सिरफिरे ने दुनिया को महायुद्ध की आग  में झोंक दिया था . उसके दिमाग में  जर्मनी की  सर्वोच्चता की बात इतने गहरे पैठ गयी थी कि बाकी देश उसको अपनी अधीन लगते थे. राष्ट्रवाद के इतिहास में हिटलर की राष्ट्रवाद की समझ सबसे खूंखार  उदाहरण के रूप में याद की जाती है . इसलिए  राष्ट्रवाद की बहस में बहुत ही सावधान रहने की ज़रूरत है . अरुण कुमार त्रिपाठी ,प्रदीप कुमार सिंह और राम किशोर की किताब राष्ट्रवाद देशभक्ति और  देशद्रोह में  इन महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहुत ही गंभीरतापूर्वक विचार किया है . इन मानयताओं की विकृतियों की चर्चा भी की गयी है . जनसंचार और साहित्य संस्कृति की भूमिका भी राष्ट्रवाद को एक दिशा देने में बहुत ही ज़रूरी और कई बार निर्णायक होती है . यह स्थापित सत्य है कि  किसी भी राजनीतिक विचाधारा के प्रचार प्रसार में मीडिया की भूमिका बहुत बड़ी होती है . आज भी   राष्ट्रवाद को  राजनीतिक सत्ता के केंद्र में रखने में मीडिया बहुत ही महत्वपूर्ण रोल अदा कर रहा है . उम्मीद है कि इस पुस्तक से  राष्ट्रवाद और देशभक्ति की बारीकियों को समझने में हिंदी के बड़े पाठक वर्ग को लाभ होगा .
भारत में आई संचार क्रान्ति के बाद जनसंचार का एक नया व्याकरण लिखा गया . अभी उसके विकास की प्राक्रिया जारी है .भारत में राजनीतिक विवाद और प्रचार की तरकीब में  भी बड़ा बदलाव आया है .पारंपरिक मीडिया तो था ही , सोशल मीडिया की भूमिका बहुत बढ़ गयी है . इस माध्यम  का प्रयोग भारत में नफरत फैलाने के लिए भी खूब हो रहा है .इसकी शुरुआत मुजफ्फरनगर के २०१३ के दंगों के दौरान हो गयी थी . उन दंगों में दंगाइयों ने इस तरकीब  का इस्तेमाल किया था.  पिछले कुछ वर्षों में नफरत के  काम में लगे लोगों ने इंसानों को जिंदा जलाया ,उनका वीडियो बनाया और सोशल मीडिया के ज़रिये पूरी दुनिया में प्रचारित किया . एक ऐसे व्यक्ति  को हीरो के रूप में पेश करने की  कोशिश किये जाने की घटना भी सार्वजनिक चर्चा में आई जिसने किसी को जलाकर मार डाला और उसका वीडियो बनाकर सोशल  मीडिया के ज़रिये खूब प्रचार भी किया . नफरत और कट्टरता का आलम यह है कि इस तरह की हरकतों को भारत की आबादी का एक बड़ा वर्ग सही ठहरता है , उसमें अपने ब्रैंड के राष्ट्रवाद को परवान चढ़ते देखता है . यह बहुत ही निराशाजनक स्थिति है  लेकिन  इसका मतलब यह नहीं है कि सब कुछ ख़त्म हो गया है . अभी आशा की एक किरण बाकी है . वह किरण है की देश में अभी भी लिबरल राजनीति के मानने वालों की बहुत बड़ी संख्या है . हालांकि यह भी सच है कि देश में  लिबरल राजनीति और चिंतन का दायरा सिकुड़ तो गया है लेकिन अभी ख़त्म बिलकुल नहीं हुआ है . लिबरल तरीके से सोचने वाले मुखर नहीं  हैं लेकिन उनकी संख्या अच्छी खासी है .अभी भी सार्वजनिक जीवन में जब राष्ट्रवाद के हवाले से कट्टरता की वकालत करने वाले सामने आते  हैं तो  देश की आबादी का एक बड़ा वर्ग उनको आइना दिखाने के लिए तैयार हो जाता  है .
यह पुस्तक बहुत ही सही समय पर आयी है क्योंकि आज इसकी जितनी ज़रूरत है उतनी शायद एक साल पहले नहीं थी .  नागरिकता कानून में २०१९ में हुए संशोधन के बाद राष्ट्र, राष्ट्रीयता ,राष्ट्रवाद ,राष्ट्रप्रेम और  नागरिकता से जुड़े सवाल बहुत ही बड़े पैमाने पर चर्चा में आ गए हैं .  मुसलमानों को केंद्र में रखकर एक राष्ट्रीय बहस शुरू करने की कोशिश भी की गयी . इस प्रयास में  सत्ताधारी पार्टी के कई के नेता भी शामिल हुए लेकिन राष्ट्रवाद को हिन्दू-मुस्लिम रंगत देने में  कोई ख़ास सफलता नहीं  मिली .इस बात में दो राय नहीं है कि  कानून पास होने के बाद जब उसका विरोध शुरू हुआ तो पहली कतार में मुसलमान थे . पहला विरोध मुसलमानों की तरफ से ही हुआ लेकिन बहुत कम समय में  नागरिकता कानून का विरोध धर्म ,जाति राज्य ,आयु  आदि की सीमायें पार कर गया .अलीगढ़ और जामिया विश्वविद्यालय में हुए विरोध प्रदर्शन को  मीडिया की  बहसों और सत्ताधारी नेताओं के बयाओं के रास्ते एक निश्चित दिशा देने की कोशिश की गयी लेकिन ऐसा हो नहीं सकता . नागरिकता कानून का विरोध सभी धर्मों के लोग करने  लगे . संसद में इस कानून को पास करवाने में मदद करने के बाद अकली दल ने किनारा कर लिया और जनता दल यूनाईटेड में भी नए सिरे से विचार शुरू हो गया . नतीजा  यह हुआ  कि विमर्श बिलकुल अलग रास्ते चल निकला .देश के अलग अलग हिस्सों में नागरिकता कानून में ही बदलाव का विरोध शुरू हो गया .  

इस   विरोध का केंद्र दिल्ली का  शाहीन बाग़ नाम का मोहल्ला बन गया .  नागरिकता एक्ट १९५५ में हुए संशोधन के खिलाफ दिसंबर २०१९ में सबसे पहले दिल्ली के जामिया विश्वविद्यालय में छात्रों का विरोध प्रदर्शन हुआ था . पुलिस ने कैम्पस और पुस्तकालय में घुसकर छात्रों पर हिंसक हमला किया . पुलिस का दावा  है कि उस विरोध प्रदर्शन में बहुत सारे बाहरी लोग भी आ गए थे और उनको  हटाने के लिए बलप्रयोग हुआ था  लेकिन ज़मीनी सच्चाई बिलकुल अलग थी . मौके पर मौजूद पत्रकारों ने रिपोर्ट किया और कुछ चैनलों में दिखाया भी गया  कि मारपीट का शिकार  जामिया के छात्र ही हुए थे . यहाँ तक की विश्वविद्यालय में पढने वाली लड़कियों को भी पुलिस के बलप्रयोग का निशाना बनाया गया था . जामिया में पीटने वाले छात्रों में सभी धर्मों के  छात्र छात्राएं  शामिल थे .पुलिस की उस कार्रवाई के खिलाफ देश भर में  विरोध हुआ  . जामिया विश्वविद्यालय से थोड़ी दूरी पर स्थित  शाहीन बाग़ मोहल्ले की एक सड़क पर  कुछ महिलाएं  विरोध करने के लिए जमा हो गयीं .  शायद  उनको उम्मीद थी कि सरकार उनसे बातचीत करेगी और  जामिया में पुलिस की ज्यादती के खिलाफ कोई जाँच करेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ . करीब एक महीने बाद वह धरना नागरिकता कानून १९५५ में ही संशोधन के  खिलाफ एक  आन्दोलन बन गया . उसके बाद देश भर में  शाहीन बाग़ की औरतों के आन्दोलन का नाम जाना पहचाना जाने लगा . जब प्रतिष्ठित अमरीकी अखबार न्यूयार्क टाइम्स और वाशिंगटन पोस्ट ने भी  शाहीन बाग़ के  विरोध  को अपनी प्रमुख ख़बरों में स्थान दे दिया तो बात पूरी दुनिया में चर्चा में आ गयी  .
 राष्ट्रीयता और नागरिकता  के सवाल पर शाहीन बाग़ में शुरू हुआ आन्दोलन इस देश के इतिहास में एक बहुत ही महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना बन गया .. महात्मा गांधी के सत्याग्रह के प्रयोग को शाहीन बाग़ के ज़रिये नए तरीके से फैलाया गया ..यह अजीब   इत्तिफाक है कि जहाँ शाहीन बाग़ की बस्ती आबाद है वह   गांधी जी की याद से जुड़ा हुआ विश्वविद्यालय है .जब असहयोग आन्दोलन के   महात्मा गांधी ने अँगरेज़ परस्त शिक्षा का बहिष्कार राष्ट्रीय आन्दोलन के एजेंडे में शामिल किया तो जामिया मिलिया इस्लामिया की स्थापना हुई थी . एक तरह से जामिया की स्थापना ही ब्रिटिश आधिपत्य को चुनौती के एक प्रतीक के रूप में की गयी थी. गांधी के राष्ट्रवाद की अवधारणा में देश की भौगोलिक सीमा के साथ  भारत की   सभी संस्कृतियाँ  और सभी इंसान  समाहित थे . महात्मा गांधी ने जब   १९२० के आन्दोलन के दौरान अंग्रेजों की शिक्षा संस्थाओं के बहिष्कार का आवाहन किया तो जामिया मिलिया इस्लामिया काशी विद्यापीठ  ,गुजरात विद्यापीठ जैसी कुछ संस्थाओं की स्थापना हुई. जामिया की स्थापना तो मूल रूप से  अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कैम्पस में ही कर दी  गयी थी . भारत के राजनीतिक इतिहास में १९२० के असहयोग आन्दोलन की भूमिका बहुत ही क्रांतिकारी मानी जाती है . तब  तक कांग्रेस के नेता रह चुके मुहम्मद अली जिन्ना गांधीजी और कांग्रेस के अन्य नेताओं से नाराज़ होकर बाहर होने की धमकी दे चुके थे. राजनीतिक हलकों में यह इमकान था कि जिन्ना के नाराज़ होने के बाद मुसलमान आजादी की लड़ाई से अलग हो जायेगा लेकिन ऐसा नहीं हुआ . देवबंद के मौलाना महमूद हसन ने महात्मा   गांधी के असहयोग आन्दोलन में बहुत ही बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था.  मौलाना साहब के साथ होने के कारण  पूरे देश में बड़ी  संख्या में मुसलमानों ने  जिन्ना का  विरोध किया और गांधी जी के साथ हो गए  . हालांकि उस दौर में जिन्नाह ने मुसलमानों को अलग राष्ट्र के रूप में   चिन्हित नहीं किया था लेकिन मुसलमानों को गांधी से अलग करने की कोशिश शुरू कर दी थी .उनकी लाख कोशिश के बाद भी मुसलमान जिन्ना के साथ जाने को तैयार नहीं था. लगभग उसी समय जेल से रिहा हो चुके  वी डी सावरकर ने अपनी किताब हिंदुत्व के ज़रिये हिन्दू राष्ट्रवाद की अवधारणा को एक राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन की शक्ल देने की कोशिश  शुरू कर दिया था .  राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद की नई  परिभाषा महात्मा  गांधी ने लिख दी थी और उनके राष्ट्रवाद में हिन्दू मुसलमान समेत सभी शामिल थे  .  राष्ट्रवाद की इसी नई  परिभाषा को मूर्त रूप देने के लिए गांधी जी ने अंग्रेज़ी सोच के हर मानदंड को चुनौती दी . अंग्रेज़ी  कपड़ों के  बहिष्कार किया . जिसका नतीजा  हुआ कि ब्रिटेन की बहुत सारी कपडा  मिलों का उत्पादन घाट गया . अंग्रेज़ी शिक्षा के बहिष्कार का बड़ा कार्यक्रम चलाया . उसी राष्ट्रप्रेम की आंधी में जामिया की  स्थापना की गयी थी . इसलिए जामिया को भारत की आज़ादी की लड़ाई की  धरोहर माना जाता  है . डॉ जाकिर हुसैन कहा करते थे कि जामिया मिलिया  इस्लामिया वास्तव में शिक्षा और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के एक  संघर्ष का आन्दोलन है . उन्होंने दावा किया था कि यह  भारतीय मुसलमानों के लिए एक ब्लूप्रिंट तैयार करेगा जिसके केंद्र में तो इस्लाम होगा लेकिन वह सभी भारतीयों के लिए एक राष्ट्रीय संस्कृति के विकास का मार्ग तय करेगा ." उसी राष्ट्रीय संस्कृति को मानने वाले भारतीय राष्टवाद को गांधी जी के तरीके से एक आकार देने की कोशिश कर रहे थे . महात्मा गांधी के सत्याग्रह के तरीकों का  इस्तेमाल  करते हुए जामिया की संस्कृति के चलते शाहीन बाघ का इतना बड़ा आन्दोलन खडा हो गया कि स्थापित सत्ता  को उसको तोड़ने के तरीके बहुत समय बाद तक  समझ में नहीं आये .
 गांधी जी की उसी राष्ट्रवाद की अवधारणा को तहस नहस करने के लिए अल्लामा इकबाल के हवाले से मुसलमानों को  अलग राष्ट्र के रूप में स्थापित करने की  कोशिश की गयी और उस मुहिम के नेता मुहम्मद अली जिन्ना बनाए गए .  हिन्दुओं को अलग राष्ट्र बताने की कोशिश भी वी डी सावरकर ने पूरी मेहनत से किया लेकिन उनको आज़ादी की लडाई के दौरान कोई सफलता नहीं मिली. गांधी जब तक जिंदा रहे राष्ट्रवाद को  धर्म से  जोड़ने की सारी कोशिशों को सफल नहीं होने दिया .इसीलिये  जब राष्ट्र और मानवता के किसी मुद्दे को बहुत ही सावधानी से समझने की ज़रूरत  पड़ती है तो महात्मा गांधी की बातें ही कसौटी का काम करती हैं. उनकी बातें ही खरा सोना साबित होती हैं . राष्ट्रवाददेशप्रेम और मानवता के बारे में महात्मा गांधी ने अपनी किताब  'मेरे सपनों का भारत में  लिखा है,कि   मेरे लिए देशप्रेम और मानव-प्रेम में कोई भेद नहीं हैदोनों एक ही हैं। मैं देशप्रेमी हूँक्‍योंकि मैं मानव-प्रेमी हूँ। देशप्रेम की जीवन-नीति किसी कुल या कबीले के अधिपति की जीवन-नीति से भिन्‍न नहीं है। और यदि कोई देशप्रेमी उतना ही उग्र मानव-प्रेमी नहीं हैतो कहना चाहिए कि उसके देशप्रेम में उतनी न्‍यूनता है.जिस तरह देशप्रेम का धर्म हमें आज यह सिखाता है कि व्‍यक्ति को परिवार के लिएपरिवार को ग्राम के लिएग्राम को जनपद के लिए और जनपद को प्रदेश के लिए मरना सीखना चाहिएउसी तरह किसी देश को स्‍वतंत्र इसलिए होना चाहिए कि वह आवश्‍यकता होने पर संसार के कल्‍याण के लिए अपना बलिदान दे सके। इसलिए राष्‍ट्रवाद की मेरी कल्‍पना यह है कि मेरा देश इसलिए स्‍वाधीन हो कि प्रयोजन उपस्थित होने पर सारा  ही देश मानव-जाति की प्राणरक्षा के लिए स्‍वेच्‍छापूर्वक मृत्‍यु का आलिंगन करे। उसमें जातिद्वेष के लिए कोई स्‍थान नहीं है। मेरी कामना है कि हमारा राष्‍ट्रप्रेम ऐसा ही हो। हमारा राष्‍ट्रवाद दूसरे देशों के लिए संकट का कारण नहीं हो सकता क्‍योंकि जिस तरह हम किसी को अपना शोषण नहीं करने देंगेउसी तरह हम भी किसी का शोषण नहीं करेंगे। स्‍वराज्‍य के द्वारा हम सारी मानव-जाति की सेवा करेंगे।
महात्मा गांधी ने साफ़ कहा है कि राष्ट्रवाद में जातिद्वेष का कोई स्थान नहीं है . इसीलिये उन्होंने जिन्ना और सावरकर के राष्ट्रवाद को  सिरे से खारिज कर दिया था .उनकी राष्ट्रवाद की अवधारणा उसको संकीर्णता से बहुत दूर ले जाती है और सही मायनों में यही राष्ट्रवाद की सही तस्वीर है.  राष्ट्रवाद के उनके विचारों में कहीं भी धर्म या जाति को कोई भी स्थान नहीं दिया गया है .इस किताब में इन विचारधाराओं को समझने के लिए जिस वैविध्य की ज़रूरत  होती  है , वह मौजूद है . अरुण त्रिपाठी और उनके साथियों की किताब में देश भर के उन विद्वानों के लेख हैं जिनकी बात को गंभीरता से लिया जाता है . महात्मा गांधी ,जवाहरलाल नेहरू भगत सिंह ,राममनोहर लोहिया बी आर आंबेडकर ,मुंशी प्रेमचंद,  दीनदयाल उपाध्याय वी डी सावरकर आदि की राष्ट्रवाद से सम्बंधित अवधारणा को एक ही पुस्तक में इकठ्ठा करके संपादकों ने इस महत्वपूर्ण विषय से सम्बंधित पूरा कैनवास सामने रख दिया है . चिंतकों और राजनेताओं के ऐतिहासिक लेखों के साथ ही राष्ट्रवाद की अपरिभाषित ज़मीन की कंटीली राह को समझाने की कोशिश भी की गयी है . किताब में आज के उन विद्वानों और चिन्तक राजनेताओं के लेख भी हैं जिनको पढ़ या सुनकर आज की पीढी राष्ट्रवाद राष्ट्रीयता , राष्ट्रप्रेम  जैसी मान्यताओं को समझने की कोशिश करती है . किशन पटनायक आनंद कुमार रघु ठाकुर ,सच्चिदानंद सिन्हारोमिला थापर ,लाल्टूजयशंकर पाण्डेय भगवान स्वरूप कटियार शम्भूनाथ शुक्ल के लेख समझ को एक सही सन्दर्भ में रख देते हैं . अंग्रेज़ी में तो इन  विषयों पर काफी कुछ लिखा गया है लेकिन  हिंदी में एक ही जगह पर इतना सब कुछ  आसानी से  उपलब्ध नहीं है . अंग्रेज़ी  विश्व के एक बड़े हिस्से की अकादमिक शोध और विमर्श की भाषा हो चुकी है . ब्रिटेन के पुराने उपनिवेशों में आज भी ज्यादातर सरकारी काम और शोध का माध्यम अंग्रेज़ी ही है .इसके अलावा अमरीका अंग्रेज़ी में हो रहे शोध का सबसे बड़ा केंद्र है . संयुक्त राष्ट्र में भी मुख्य भाषा अंग्रेज़ी ही है हालांकि वहां छः भाषाओं  को मान्यताप्राप्त  भाषा के रूप में स्वीकार किया  गया है . अरबीचीनीअंग्रेज़ीफ़्रांसीसीरूसी और स्पेनी  संयुक्त राष्ट्र की मान्यताप्राप्त भाषाएँ हैं लेकिन वहां भी कामकाज के   संचालन की भाषा में मुख्य रूप से अंग्रेज़ी ही है .अंग्रेज़ी के अलावा फ्रांसीसी भाषा को भी संचालन के लिए इस्तेमाल करने का प्रावधान है. इन्हीं ऐतिहासिक कारणों से अकादमिक  और राजनीतिक विचारों के शोध आदि में भी अंग्रेज़ी की प्रमुख भूमिका रहती है . यह किताब उन लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण निधि है जो हिंदी के माध्यम से राष्ट्रवाद और उससे सम्बंधित  विषयों को गंभीरता से पढ़ना चाहते हैं  .
 किताब की शुरुआत में ही संपादकों की बात के ज़रिये  राष्ट्रवाद के विषय पर लिखने वाले दुनिया के नई विद्वानों के सन्दर्भ के साथ अरुण त्रिपाठी ने एक बेहतरीन टिप्पणी की है . उसको पढ़कर स्व हरिदेव  शर्मा की याद आ गयी . कई दशकों तक आधुनिक और समकालीन इतिहास के इनसाइक्लोपीडिया के रूप जाने पहचाने गए शर्मा जी ने दिल्ली के नेहरू समारक पुस्तकालय और शोध केंद्र के अधिकारी के रूप में काम किया था  . बहुत सारे विद्वानों को उन्होंने बहुत मदद की जिसके परिणामस्वरूप वे लोग ऐसी किताबें  लिख सके जिनको आज हम सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में जानते हैं . हरिदेव शर्मा जी  स्वयं बहुत कम लिखा . लेकिन जो भी लिखा वह ऐसा  लिखा वह संभालकर रखने लायक बन गया . असहयोग आन्दोलन के बारे में उनका शोधप्रबंध पढने केबाद १९२० के आन्दोलन के बहुत सारे  सवालों के जवाब अपने आप मिल जाते हैं . डॉ राम मनोहर लोहिया के  सहयोगी के रूप में इतिहास की उन घटनाओं के भी वे  चश्मदीद रहे जो कहीं लिखी या रिपोर्ट नहीं की गयीं . उन्होंने अपने अंतिम समय में  आचार्य नरेद्र देव के लेखन और  भाषणों का एक संकलन संपादित किया .  यह संकलन चार  खण्डों में उपलब्ध है. पहले खंड की शुरुआत में  हरिदेव शर्मा जी  ने आचार्य नरेंद्र देव की एक संक्षिप्त जीवनी लिखी  है . ४२ पृष्ठों में छपी हुयी उस  जीवनी को पढ़ लेने से राष्ट्रीय आन्दोलन के  बहुत सारे धागे अपने आप खुल जाते हैं . अंग्रेज़ी गद्य का ऐसा धाराप्रवाह तारतम्य  बहुत कम लोगों के लेखन में मिलता है ने लिखा है . अरुण त्रिपाठी और उनके साथियों की यह किताब पढ़ते हुए ऐसा लगा कि राष्ट्रवाद राष्ट्रीयता और देशप्रेम के सवाल पर दुनिया  भर में हुए शोध को एक ही जगह पर रख दिया गया  है  . संपादकों की बात  को जिन १८ पृष्ठों में लिखा गया है उसमें वे  सारी बातें हैं जो इस विषय के विद्यार्थी के लिए जानना ज़रूरी है . मुझे व्यक्तिगत रूप से उम्मीद है कि अन्य लोगों को भी इस किताब से वही लाभ होगा जो मुझको हुआ है .
शेष नारायण सिंह
२१-०१-२०२०
नई दिल्ली 

Saturday, January 18, 2020

शाहीन बाग़ का सत्याग्रह महात्मा गांधी की परंपरा की नवीनतम कड़ी है



शेष नारायण सिंह

( देशबंधु के लिए )

दिल्ली के शाहीन बाग़ में  करीब एक महीने से कुछ औरतें धरने पर बैठी हैं .यमुना नदी के किनारे बसा  हुआ शाहीन बाग़ दिल्ली और नोयडा को जोड़ने वाली एक महत्वपूर्ण  सड़क पर स्थित है . जामिया मिलिया इस्लामिया  इसी इलाके में है. नागरिकता एक्ट १९५५ में हुए संशोधन के खिलाफ दिसंबर २०१९ में केंद्र सरकार के खिलाफ जामिया विश्वविद्यालय में छात्रों का विरोध प्रदर्शन हुआ था . पुलिस ने कैम्पस और पुस्तकालय में घुसकर छात्रों पर हिंसक हमला किया था . पुलिस का आरोप है कि उस विरोध प्रदर्शन में बहुत सारे बाहरी लोग भी आ गए थे लेकिन मारपीट का शिकार मूल रूप से जामिया के छात्र ही हुए थे . उस सरकारी ज्यादती के खिलाफ देश भर में  विरोध हुआ था . जामिया के शाहीन बाग़ में भी कुछ महिलाएं  विरोध करने के लिए जमा हो गयी थीं . उनको शायद  उम्मीद थी कि सरकार उनसे बातचीत करेगी और  जामिया में पुलिस की ज्यादती के खिलाफ कोई कार्रवाई करेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ . वह धरना नागरिकता कानून १९५५ में ही संशोधन के  खिलाफ एक  आन्दोलन की शक्ल ले चुका है और आज पूरी दुनिया में  शाहीन बाग़ की औरतों के आन्दोलन का नाम जाना पहचाना जा रहा है .
शाहीन बाग़ का  आन्दोलन इस देश के इतिहास में एक बहुत ही महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना बन चुका है . महात्मा गांधी के सत्याग्रह के प्रयोग को शाहीन बाग़ के ज़रिये पूरी दुनिया में नए तरीके से फैलाया जा रहा है .यह अजीब   इत्तिफाक है कि जहाँ शाहीन बाग़ की बस्ती आबाद है वह   गांधी जी की याद से जुड़ा हुआ विश्वविद्यालय है .यहाँ  १९३५ तक यमुना के किनारे बसा हुआ एक बहुत ही छोटा सा गाँव ओखला हुआ करता था. महात्मा गांधी की प्रेरणा से स्थापित जामिया मिलिया को यहाँ डॉ जाकिर हुसैन १९३५ में लाये . उसके पहले जामिया मिलिया का कैम्पस दिल्ली के करोल  बाग़ में हुआ करता था .  वहां जगह बहुत कम थी इसलिए १९३५ में इसे ओखला  लाया गया.  यहाँ ज़मीन आसानी से  उपलब्ध हो गयी .महात्मा गांधी ने जब   १९२० के आन्दोलन के दौरान अंग्रेजों की शिक्षा संस्थाओं के बहिष्कार का आवाहन किया तो जामिया मिलिया इस्लामिया , काशी विद्यापीठ  ,गुजरात विद्यापीठ जैसी कुछ संस्थाओं की स्थापना हुई. जामिया की स्थापना तो मूल रूप से  अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कैम्पस में ही कर दी  गयी थी . देवबंद के मौलाना महमूद हसन ने महात्मा   गांधी के असहयोग आन्दोलन में बहुत ही बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था. उस आन्दोलन का मुस्लिम लीग और जिन्ना ने विरोध किया था लेकिन मौलाना साहब के साथ होने के कारण  पूरे देश में बड़ी  संख्या में मुसलमानों ने  जिन्ना का  विरोध किया और गांधी के साथ हो लिए . उसी राष्ट्रप्रेम की आंधी में जामिया की  स्थापना की गयी थी . इसलिए जामिया को भारत की आज़ादी के आन्दोलन की एक पवित्र संस्था के रूप में याद किया जाता है क्योंकि यह आजादी की लड़ाई की  धरोहर  है .

जामिया मिलिया इस्लामिया की  स्थापना करने वालों में शैखुल हिन्द मौलाना महमूद हसन  ,मौलाना मुहम्मद अली जौहर , हकीम अजमल खान , डॉ मुख़्तार अंसारी, ख्वाजा अब्दुल मजीद और डॉ जाकिर हुसैन  प्रमुख थे . जामिया की स्थापना १९२० में हो गयी थी लेकिन अपना कैम्पस नहीं था . १९२५ में हकीम अजमल खां के सौजन्य से जामिया को करोल बाग़ में जगह मिल गयी लेकिन वह बहुत छोटी जगह थी . जब डॉ जाकिर हुसैन साहब इस विश्वविद्यालय को उस वक़्त के ओखला गाँव में लाये तब खूब जगह मिली और आज यूनिवर्सिटी खासी बड़ी  जगह में है . शुरू में तो यहाँ जामिया के स्टाफ के लोगों ने ही घर आदि बनवाए लेकिन आज यह मुसलमानों की एक बड़ी आबादी है . उसी आबादी में  शाहीन बाग़ भी एक मोहल्ला है . इसलिए शाहीन बाग़ में जो महिलाएं आज इकठ्ठा हुई हैं वे महात्मा गांधी की आज़ादी के लड़ाई वाली उसी विरासत का हिस्सा हैं. डॉ जाकिर हुसैन कहा करते थे कि जामिया मिलिया  इस्लामिया वास्तव में शिक्षा और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के एक  संघर्ष का आन्दोलन है . उन्होंने दावा किया था कि यह  भारतीय मुसलमानों के लिए एक ब्लूप्रिंट तैयार करेगा जिसके केंद्र में तो इस्लाम होगा लेकिन वह सभी भारतीयों के लिए एक राष्ट्रीय संस्कृति के विकास का मार्ग तय करेगा ." उसी राष्ट्रीय संस्कृति के केंद्र  में आज महात्मा गांधी के सत्याग्रह के तरीकों का  इस्तेमाल  करते हुए इतना बड़ा आन्दोलन खडा हो गया है कि स्थापित सत्ता  की समझ में नहीं आ रहा  है कि स्थिति को कैसे संभाला जाए .
शाहीन  बाग़ का  धरना शुरू हुए एक महीने से ऊपर हो गया है . उसी की प्रेरणा से देश के बहुत   सारे शहरों में नागरिकता संशोधन विधेयक ( सी ए ए )के खिलाफ औरतों के धरने शुरू हो चुके हैं .  मुख्यधारा के  मीडिया में सी ए ए के विरोध में चल रहे आन्दोलन को ख़ास  स्थान नहीं मिल रहा है लेकिन आन्दोलन बहुत ही अधिक जोर पकड चुका है .इलाहाबाद , मुंबई , कोटा , बेगूसराय, पटना , भोपाल ,  कोलकता आदि में शाहीन बाग़ की तर्ज पर लोग जमा हो रहे हैं और विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं . सरकार की कोशिश  है कि आन्दोलन को अब शान्ति पूर्वक समाप्त किया जाये लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है . दिल्ली के जामा मस्जिद, सीलम पुर और जामिया में शुरू हुए सी ए ए के विरोध को ख़त्म करने के लिए बल प्रयोग करने और उसे मूल रूप से मुसलमानों  का आन्दोलन साबित करने की सरकार की कोशिश उल्टी पड़ चुकी है . अब यह साबित हो चुका है कि आन्दोलन केवल मुसलमानों का नहीं है बल्कि सभी धर्म और समुदाय के लोग इसमें शामिल हैं . सबसे दिलचस्प बात यह  है कि सी ए  ए के  विरोध में हुए आन्दोलन ने एक बार फिर पूरी ताक़त से स्थापित कर दिया है कि सत्ता का विरोध करने के लिए असहयोग और  सत्याग्रह नाम के जो हथियार महात्मा गांधी ने दिया था वे अभी भी उतने ही कारगर हैं जितने तब थे . सत्ता की तोप बन्दूक के  सामने  निहत्थे इंसान की ताकत का इस्तेमाल का गांधी जी का जो तरीका  था ,अब पूरी दुनिया में सफलता पूर्वक अपनाया जा रहा है . सत्ता की दौड़ में शामिल भारतीयों में एक तरह का शक  पैदा हो रहा था कि कहीं गांधी जी के हथियार भोथरे तो नहीं हो रहे हैं .  शाहीन बाग़ की निहत्थी औरतों  ने उसको एक बार फिर  सही  सन्दर्भ में रख दिया है .
जब सत्ता बहुत भारी बहुमत से राज करती  है तो उसके मुगालता हो  जाता है कि संसद का बहुमत उसको कुछ भी कर डालने की अनुमति दे देता है . लेकिन लोकतंत्र की बुनियादी अवधारणा बहुमतवाद का समर्थन नहीं करती . संसद का बहुमत केवल सरकार बनाने की एक विधि है लेकिन  सरकार बनने के बाद उसका कर्त्तव्य है कि सभी विचारधाराओं को साथ लेकर चले , देश के हर इन्सान खासकर अंतिम  पायदान पर बैठे हुए इंसान के हित में काम  करे . यह भी संभव है कि  देश का  अंतिम व्यक्ति उस की सरकार का मतदाता न हो लेकिन उसके हित की चिंता करना सरकार का फ़र्ज़  है . अगर  सरकार अपने इस बुनियादी कर्त्तव्य से विमुख होती  है तो महात्मा गांधी का  सविनय अवज्ञा और असहयोग का हथियार अपने आप चल जाता है . वह कालखंड चाहे १९२० हो, १९७५  हो या २०१९ हो . आज शाहीन बाग़ में वही हो रहा है जो कभी महात्मा  गांधी के शिष्य  जयप्रकाश नारायण  ने १९७५ में किया था .देश की जनता की  बात दिल्ली के सत्ताधीशों को सुनाने के लिए अठारह मार्च १९७५ के दिन एक जुलूस पटना की सडकों पर निकला था .उस जुलूस में मुश्किल से हजार लोग रहे होंगे .हाथ पीछे बंधे थे और मुंह पर पट्टी बंधी थी .पटना शहर की मुख्य सड़कों से गुजर कर सभी लोग एक जगह जमा हुए . उस जुलूस में महान गांधीवादी कुमार प्रशांत और हिंदी के महान साहित्यकार  फणीश्वरनाथ रेणु भी शामिल थे . कुमार प्रशांत बताते हैं  कि जब मुंह से पट्टी हटी तो रेणु जी लंबे समय तक खामोश रहे . कुछ देर बाद  बोले: "  प्रशांतजीऐसा निनाद करता सन्नाटा तो मैंने पहली बार ही देखा और सुना! "
यह निनाद करता सन्नाटा ही महात्मा गांधी का सत्याग्रह  है . यही सन्नाटा , चौरी चौरा के बाद भी महसूस किया गया था ,यही सन्नाटा दांडी गाँव में जब एक मुट्ठी नमक उठाया  गया  थातब भी था . इस निनाद करते सन्नाटे को अमरीका में रंगभेद के खिलाफ  हुए संघर्ष में  बार  बार बार इस्तेमाल हुआ . अमरीका में रंगभेद के खिलाफ बहुत समय से आन्दोलन चलता रहा था  . आन्दोलन हिंसक हो जाता था और क्लू,क्लाक्सक्लान नाम के दक्षिणपंथी  श्वेतों के संगठन के गुंडे शोषित पीडित जनता के साथ बदमाशी करते थे . जवाब में  अफ्रीकी-अमरीकी भी हिंसक हो जाते थे . नतीजा यह होता था कि सत्ता के मालिक लोग आन्दोलन को हिंसा के नाम पर तोड़ देते थे .सरकार में श्वेत प्रभुता के चलते इनको हिंसक करार देकर सरकारी कार्रवाई का शिकार बना दिया जाता था . इस बीच भारत से  गांधी जी के विचारों का अध्ययन करके वापस  गए एक धर्मशास्त्र के अमरीकी  जेम्स मोरिस लॉसन  ने   आन्दोलन को पूरी तरह से गांधी के विचारों में रंग दिया . वे धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने के सिलसिले में भारत आये थे लेकिन जब लौटकर गए तो पूरी तरह से महात्मा गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा की ताक़त के जानकार बनकर लौटे थे  .उनके  अनुयायी  इन्हीं  छात्र छात्राओं ने १९५९
और ६० में टेनेसी राज्य  की दुकानों में नैशविल सिट-इन का आन्दोलन  चलाया  .   इन्हीं  छात्र नेताओं ने संयुक्त राज्य अमरीका के दक्षिण  में चले फ्रीडम राइडमिसीसिपी फ्रीडम समर,१९६३ के बर्मिंघम चिल्ड्रेन्स   क्रुसेड , १९६३ के सेल्मा वोटिंग राइट्स आन्दोलन१९६६ के वियतनाम युद्ध  विरोधी आन्दोलन आदि का नेतृत्व किया . इन छात्रों के  नेतृत्व  में हुए बहुत  ही महत्वपूर्ण आन्दोलनों में एक १९६३ का वाशिंगटन मार्च का आन्दोलन  है. इसी आन्दोलन में इन   छात्रों  ने मार्टिन लूथर किंग जूनियर को आमंत्रित किया था उसके बाद वे आन्दोलन का सहयोग करते रहे .

शाहीन बाग़ के सिट-इन में भी नैशविल सिट-इन के गांधी के तरीके की अनुभूति होती है .सत्ता को देखना  होगा कि अपनी बात को शान्तिपूर्वक कहने की कोशिश कर रहे लोगों को नज़र अंदाज़ करने का जोखिम न उठायें  क्योंकि निहत्थे इंसान के पास अगर  गांधी का आत्मविश्वास आ जाये तो उसको पराजित करना असभव होता है .

अब शाहीन बाग़ में औरत के माथे का आँचल एक परचम बन चुका है



शेष नारायण सिंह
( उर्दू इन्किलाब के लिए )

बहुत अरसा हुआ मजाज़ लखनवी ने हिंदुस्तान की औरतों का आवाहन किया था कि तेरे माथे पे ये आँचल बहुत ही खूब है लेकिन,तू इस आँचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था . बात आयी हो गयी . लेकिन आज उन औरतों ने बात को दिल पे ले लिया है . दिल्ली के शाहीन बाग़ में  करीब एक महीने से कुछ औरतें धरने पर बैठी हैं . नागरिकता एक्ट १९५५ में हुए संशोधन के खिलाफ दिसंबर २०१९ में केंद्र सरकार के खिलाफ जामिया विश्वविद्यालय में छात्रों का विरोध प्रदर्शन हुआ था . पुलिस ने कैम्पस और पुस्तकालय में घुसकर छात्रों पर हिंसक हमला किया था . उस सरकारी ज्यादती के खिलाफ देश भर में  विरोध हुआ  . जामिया के शाहीन बाग़ में भी कुछ महिलाएं  विरोध करने के लिए जमा हो गयी थीं . उनको शायद  उम्मीद थी कि सरकार उनसे बातचीत करेगी और  जामिया में पुलिस की ज्यादती के खिलाफ कोई कार्रवाई करेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ . वह धरना नागरिकता कानून १९५५ में ही संशोधन के  खिलाफ एक  आन्दोलन की शक्ल ले चुका है और आज पूरी दुनिया में  शाहीन बाग़ की औरतों के आन्दोलन का नाम जाना पहचाना जा रहा है  . वे पर्दानशीं ख़वातीन जो मजाज़ की अपील से आगे नहीं आई थीं , जो औरतें कैफ़ी  आज़मी के आवाहन को  कभी का नज़रंदाज़ कर चुकी थीं , वे आज मैदान ले चुकी हैं . कैफ़ी ने जंगे आज़ादी के दौरान ही अपील कर  दी थी कि
तोड़ ये अज़्म-शिकन, दग़दग़ा-ए-पंद भी तोड़
तेरी ख़ातिर है जो ज़ंजीर वो सौगंद भी तोड़
तौक़ ये भी है ज़मुर्रद का गुलू-बंद भी तोड़
तोड़ पैमाना-ए-मर्दान-ए-ख़िरद-मंद भी तोड़
बन के तूफ़ान छलकना है उबलना है तुझे

लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा था . लेकिन आज जब केंद्र सरकार ने भारतीय जनमानस के एकता को तोड़ने की गरज से उनकी नगरिकता के सवाल को बहस की ज़द में ला दिया है तो और उठ खडी हुई हैं . उनको माम्लूम हैं कि ,” औरतें उट्ठी नहीं तो ज़ुल्म बढ़ता जाएगा “ आज दिल्ली के  शाहीन बाग़ में औरतों की क़यादत में एक सियासी ताक़त ने कूच कर दिया है और उनकी अज्म को देखकर लगता है कि अब उनके डेरे मंजिल पर ही डाले जायेंगे.  शाहीन बाग़ में धरने पर बैठी औरतें इतिहास लिख रही हैं. पूरे देश में उनकी बात को समझने के लिए लोग तैयार बैठे हैं और अब लगता है कि सरकार की समझ में धीरे धीरे ही सही आने लगा है कि गरीब आदमी के अस्तित्व को सवालों को घेरे में लाने की उनकी गलती उनके लिए बहुत ही मुश्किल पैदाकर चुकी है . शाहीन बाग़ के महिलाओं का  आन्दोलन इस देश के इतिहास में एक बहुत ही महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना बन चुका है . महात्मा गांधी के सत्याग्रह के प्रयोग को शाहीन बाग़ के ज़रिये पूरी दुनिया में नए तरीके से फैलाया जा रहा है .यह अजीब   इत्तिफाक है कि जहाँ शाहीन बाग़ की बस्ती आबाद है वह   गांधी जी की याद से जुड़ा हुआ विश्वविद्यालय है .यहाँ  १९३५ तक यमुना के किनारे बसा हुआ एक बहुत ही छोटा सा गाँव ओखला हुआ करता था. महात्मा गांधी की प्रेरणा से स्थापित जामिया मिलिया को यहाँ डॉ जाकिर हुसैन १९३५ में लाये . उसके पहले जामिया मिलिया का कैम्पस दिल्ली के करोल  बाग़ में हुआ करता था .  वहां जगह बहुत कम थी इसलिए १९३५ में इसे ओखला  लाया गया.  यहाँ ज़मीन आसानी से  उपलब्ध हो गयी .महात्मा गांधी ने जब   १९२० के आन्दोलन के दौरान अंग्रेजों की शिक्षा संस्थाओं के बहिष्कार का आवाहन किया तो जामिया मिलिया इस्लामिया काशी विद्यापीठ  ,गुजरात विद्यापीठ जैसी कुछ संस्थाओं की स्थापना हुई. जामिया की स्थापना तो मूल रूप से  अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कैम्पस में ही कर दी  गयी थी . देवबंद के मौलाना महमूद हसन ने महात्मा   गांधी के असहयोग आन्दोलन में बहुत ही बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था. उस आन्दोलन का मुस्लिम लीग और जिन्ना ने विरोध किया था लेकिन मौलाना साहब के साथ होने के कारण  पूरे देश में बड़ी  संख्या में मुसलमानों ने  जिन्ना का  विरोध किया और गांधी के साथ हो गए .आज़ादी की लड़ाई में इतने बड़े पैमाने पर मुसलमानों के शामिल होने के बाद ही अँगरेज़ हुक्मरान को लग गया था कि हिन्दू-मुस्लिम इत्तिहाद उनकी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए लामबंद हो चुका है . उसी  घबडाहट के दौर में अँगरेज़ ने अपने ख़ास लोगों की मदद से कुछ ऐसे  संगठन  तैयार किये जो हिन्दू और मुसलमान के बीच झगडे करवा सके . उसी राष्ट्रप्रेम की आंधी के दौर में में जामिया मिलिया इस्लामिया  की  स्थापना की गयी थी . इसलिए जामिया को भारत की आज़ादी के आन्दोलन की एक पवित्र संस्था के रूप में याद किया जाता है क्योंकि यह आजादी की लड़ाई की  धरोहर  है .

जामिया मिलिया इस्लामिया की  स्थापना करने वालों में शैखुल हिन्द मौलाना महमूद हसन  ,मौलाना मुहम्मद अली जौहर हकीम अजमल खान डॉ मुख़्तार अंसारीख्वाजा अब्दुल मजीद और डॉ जाकिर हुसैन  प्रमुख थे . जामिया की स्थापना १९२० में हो गयी थी लेकिन अपना कैम्पस नहीं था . १९२५ में हकीम अजमल खां के सौजन्य से जामिया को करोल बाग़ में जगह मिल गयी लेकिन वह बहुत छोटी जगह थी . जब डॉ जाकिर हुसैन साहब इस विश्वविद्यालय को उस वक़्त के ओखला गाँव में लाये तब खूब जगह मिली और आज यूनिवर्सिटी खासी बड़ी  जगह में है . शुरू में तो यहाँ जामिया के स्टाफ के लोगों ने ही घर आदि बनवाए लेकिन आज यह मुसलमानों की एक बड़ी आबादी है . उसी आबादी में  शाहीन बाग़ भी एक मोहल्ला है . इसलिए शाहीन बाग़ में जो महिलाएं आज इकठ्ठा हुई हैं वे महात्मा गांधी की आज़ादी के लड़ाई वाली उसी विरासत का हिस्सा हैं. डॉ जाकिर हुसैन कहा करते थे कि जामिया मिलिया  इस्लामिया वास्तव में शिक्षा और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के एक  संघर्ष का आन्दोलन है . उन्होंने दावा किया था कि यह  भारतीय मुसलमानों के लिए एक ब्लूप्रिंट तैयार करेगा जिसके केंद्र में तो इस्लाम होगा लेकिन वह सभी भारतीयों के लिए एक राष्ट्रीय संस्कृति के विकास का मार्ग तय करेगा ." उसी राष्ट्रीय संस्कृति के केंद्र  में आज महात्मा गांधी के सत्याग्रह के तरीकों का  इस्तेमाल  करते हुए इतना बड़ा आन्दोलन खडा हो गया है कि स्थापित सत्ता  की समझ में नहीं आ रहा  है कि स्थिति को कैसे संभाला जाए .
शाहीन  बाग़ का  धरना शुरू हुए एक महीने से ऊपर हो गया है . उसी की प्रेरणा से देश के बहुत   सारे शहरों में नागरिकता संशोधन विधेयक ( सी ए ए )के खिलाफ औरतों के धरने शुरू हो चुके हैं .इलाहाबाद मुंबई कोटा बेगूसरायपटना भोपाल ,  कोलकता आदि में शाहीन बाग़ की तर्ज पर लोग जमा हो रहे हैं और विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं . सरकार की कोशिश  है कि आन्दोलन को अब शान्ति पूर्वक समाप्त किया जाये लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है . दिल्ली के जामा मस्जिदसीलम पुर और जामिया में शुरू हुए सी ए ए के विरोध को ख़त्म करने के लिए बल प्रयोग करने और उसे मूल रूप से मुसलमानों  का आन्दोलन साबित करने की सरकार की कोशिश उल्टी पड़ चुकी है . अब यह साबित हो चुका है कि आन्दोलन केवल मुसलमानों का नहीं है बल्कि सभी धर्म और समुदाय के लोग इसमें शामिल हैं . सबसे दिलचस्प बात यह  है कि सी ए  ए के  विरोध में हुए आन्दोलन ने एक बार फिर पूरी ताक़त से स्थापित कर दिया है कि सत्ता का विरोध करने के लिए असहयोग और  सत्याग्रह नाम के जो हथियार महात्मा गांधी ने दिया था वे अभी भी उतने ही कारगर हैं जितने तब थे . सत्ता की तोप बन्दूक के  सामने  निहत्थे इंसान की ताकत का इस्तेमाल का गांधी जी का जो तरीका  था ,अब पूरी दुनिया में सफलता पूर्वक अपनाया जा रहा है . सत्ता की दौड़ में शामिल भारतीयों में एक तरह का शक  पैदा हो रहा था कि कहीं गांधी जी के हथियार भोथरे तो नहीं हो रहे हैं .  शाहीन बाग़ की निहत्थी औरतों  ने उसको एक बार फिर  सही  सन्दर्भ में रख दिया है .

Thursday, January 9, 2020

सबीहा हाशमी जिन्होंने मेरी ज़िंदगी बदल दी .


 ( विभा जी की प्रस्तावित किताब के लिए लिखा गया लेख )



शेष नारायण सिंह

इस बार मुंबई की यात्रा में साहित्यकार, रंगकर्मी, संस्कृति की संरक्षक ,संगीतकार विभा जी ने बताया कि एक किताब छाप रही हैं जिसमें कुछ लेखकों आदि के संस्मरण छापे जायेंगें .  आजकल मुझे  भी  संस्मरणों के लेखक के रूप में मेरे मित्रों के बीच में मान्यता मिलना शुरू हो गयी है .शायद इसीलिये उन्होंने मुझको भी उस किताब में कुछ लिखने के लिए आमंत्रित कर दिया और वही सन्देश जो सब को भेजा गया था ,मेरे पास भी भेज दिया .  अपने जीवन में सबसे अहम भूमिका निभाने वाली स्त्री के बारे में लिखना है . मेरे लिए बहुत आसान था क्योंकि अपनी माताजी के बारे में बात करते हुए उनकी महानता की बात करके  मैं कभी नहीं अघाता .लेकिन उन्होंने कहाकि माताजी के बारे में नहीं लिखना है क्योंकि सबकी माताजी महान  होती हैं . जो मेसेज उन्होंने लिखने  वालों के लिए भेजा था , उसको ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर रहा हूँ :----------
" आप सबके जीवन में कोई एक ऐसी स्त्री आई होगी, जो आपकी जिंदगी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर चली गई होगी। वह कौन थी, क्या थी, उसकी फितरत क्या थी? कैसे वह आपकी जिंदगी में आई? आपके जीवन में क्या बदलकर चली गई? क्या आपको देकर गई? क्या आपसे लेकर गई

मेरी स्त्री ! 

इसके तहत आप अपने जीवन की किसी एक स्त्री के बारे में 2000 से 2500 शब्दों में हमें लिखकर भेजें। बस, ध्यान यह रहे कि यह स्त्री आपकी सगा सम्बन्धी न हो। माने वह आपकी मां, बेटी, पत्नी, सास आदि न हो। समाज की स्त्री। समाज से ली गई स्त्री । यह स्त्री आपकी  नायिका भी हो सकती हैं या खलनायिका भी।
पंद्रह दिन के भीतर आपका आलेख मिल जाने से हम आपके आभारी होंगे। "


विभा जी  इस मेसेज के बाद यह तय हो गया कि अपनी बेटियों , बहनों  ,पत्नी या अन्य किसी संबंधी के बारे में नहीं लिखना है . माताजी के बारे में तो नहीं ही लिखना है .
उनके आदेश के बाद मैंने अपने बचपन से लेकर अब तक की महिलाओं के बारे में सोचना  शुरू किया . अपने घर की स्त्रियों के अलावा  किसी से कोई परिचय तक नहीं था. प्राइमरी स्कूल में तो शायद एकाध लडकियां पढ़ती थीं लेकिन हाई स्कूल और  इंटरमीडिएट की कक्षा में न ही कोई लडकी सहपाठी थी और न ही कोई  स्त्री शिक्षक  के रूप में तैनात  थी .  बी ए में महिला शिक्षक तो थीं लेकिन मेरे क्लास में जो एकाध लडकियां थीं , उनसे किसी तरह का कोई संवाद नहीं था . एम ए की क्लास में  कई  लडकियां सहपाठी थीं. उनमें से  कुछ से दोस्ती भी हुयी लेकिन करीब डेढ़ साल में ऐसी कोई घटना नहीं है जिसके बारे में कहा जा सके कि ," :----------" आप सबके जीवन में कोई एक ऐसी स्त्री आई होगी, जो आपकी जिंदगी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाकर चली गई होगी " .  दिल्ली  आने  के बाद  ऐसी महिलाओं से मेरा परिचय होना शुरू हुआ जो सामान्य पारिचय की श्रेणी में रखा जा सकता है . जे एन यू की कई छात्राओं ने बहुत मदद की .  वह ऐसा विश्वविद्यालय  है जहां इंसानी  रिश्ते सम्मान पाते हैं .  अपने शुरुआती वर्षों में जे एन यू का स्तर  इतना ऊंचा था कि आई ए एस जैसी नौकरियों  का इम्तिहान देना उस कैम्पस में तौहीन माना जाता था .अस्सी के दशक में कुछ लड़कों ने चुपचाप आई ए एस की परीक्षा दी और लगभग सभी सफल हुए . उसके बाद वहां प्रवेश के लिए देश के उन इलाकों से आने  वाले छात्रों की भीड़ आने लगी जो आई ए एस या उसी स्तर की अन्य केंद्रीय नौकरियों में जाना अपने जीवन का उद्देश्य मानते थे . कुछ  लड़कों को प्रवेश मिल  जाता था , बहुतों को नहीं मिलता था . आज जो लोग जे एन यू के बारे में उल्टी सीधी बकवास करते पाए जाते हैं , उनमें बड़ी संख्या उन लोगों  की है जो कम से कम  एक बार जे एन  यू में प्रवेश की परीक्षा में शामिल हो चुके हैं  और फेल हो चुके हैं . उनमें से कई आई ए एस  आदि में भी हैं , कुछ नेता हैं और कुछ पत्रकार हैं . उनकी अपनी कुंठाएं  हैं और उनकी अपनी मजबूरियां जिसके चलते वे  जवाहारलाल नेहरू विश्वविद्यालय के बारे में ऊल जलूल बातें करते रहते हैं . उनकी अपनी कुंठाएं उनको  अभी तक नहीं  छोड़ रही हैं जबकि उनमें से बहुत सारे तो अब चौथेपन को प्राप्त हो चुके  हैं.
इसी विश्वविद्यालय के सौजन्य से मुझे उस स्त्री से मुलाक़ात का सौभाग्य मिला जिसका मेरे ऊपर बहुत ही  एहसान है . मेरे एक बेहद  करीबी दोस्त की बड़ी  बहन हैं वे . उनकी अम्मा हमारे सभी दोस्तों की अम्मा थीं लेकिन पूरा परिवार  ऐसा है जिसने   किसी भी शोषित पीड़ित की मदद करने में हमेशा पहल की . दिल्ली के एक करखनदार परिवार में उसका जन्म हुआ था . मुल्क  के बंटवारे की तकलीफ को उनके  परिवार ने  बहुत करीब से झेला था. उनके परिवार के लोग जंगे-आज़ादी की अगली कतार में रहे थे. उनके पिता ने  हिन्दू कालेज के छात्र के रूप में बंटवारे के दौर में इंसानी बुलंदियों को रेखांकित किया था लेकिन बंटवारे के बाद  परिवार टूट गया . कोई पाकिस्तान चला गया और कोई हिन्दुस्तान में रह गया . उसके दादा मौलाना अहमद सईद ने पाकिस्तान के चक्कर में पड़ने से मुसलमानों को आगाह किया था और जिन्ना का विरोध किया था . मौलाना अहमद सईद देहलवी ने 1919 में अब्दुल मोहसिन सज्जाद , क़ाज़ी हुसैन अहमद , और अब्दुल बारी फिरंगीमहली के साथ मिल कर जमीअत उलमा -ए - हिंद की स्थापना की थी. जो लोग बीसवीं सदी के भारत के इतिहास को जानते हैं ,उन्हें मालूम है कि जमियत उलेमा ए हिंद ने महात्मा गाँधी के १९२० के असहयोग आन्दोलन को इतनी ताक़त दे दी थी कि अंग्रेज़ी साम्राज्य की बुनियाद हिल गयी थी .उसके बाद ही अंग्रेजों ने  हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट डालने के अपने प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर दिया था. 

जमीअत उस समय के उलेमा की संस्था थी . खिलाफत तहरीक के समर्थन का सवाल जमीअत और कांग्रेस को करीब लाया था . जमीअत ने हिंदुस्तान भर में मुसलमानों को आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित किया और  बाद में जब मुहम्मद अली जिन्नाह ने पाकिस्तान की मांग की तो उसका ऐलानियाँ विरोध किया . मौलाना अहमद सईद साहेब भारत में ही रहे और परिवार का एक बड़ा हिस्सा भी यहीं रहा लेकिन कुछ लोगों के चले जाने से परिवार  तो बिखर गया ही था.

इसी परिवार में आठ नवम्बर ११९४९ को दिल्ली के  कश्मीरी गेट मोहल्ले में सबीहा हाशमी का जन्म  हुआ था. बंटवारे के बाद परिवार पर आर्थिक संकट का पहाड़ टूट पड़ा था लेकिन उनके माता  पिता ने हालात का बहुत ही बहादुरी से मुकाबला किया  अपनी पाँचों औलादों को इज्ज़त की ज़िंदगी देने की पूरी कोशिश की और कामयाब हुए. उनके सारे भाई बहन बहुत ही आदरणीय लोग हैं . १९४७ के बाद जब दिल्ली में कारोबार लगभग ख़त्म हो गया तो डॉ जाकिर हुसैन और प्रो नुरुल हसन की   प्रेरणा से उनके पिताजी अपने बच्चों के साथ अलीगढ़ शिफ्ट हो गए . बाद में उनकी माँ को  दिल्ली में नौकरी मिल गयी तो बड़े बच्चे अपनी माँ के पास दिल्ली में आकर पढाई लिखाई करने लगे . छोटे बच्चे अलीगढ में ही  रहे. कुछ साल तक परिवार  दिल्ली और  अलीगढ के बीच झूलता रहा . बाद में सभी दिल्ली आ  गए . इसी दिल्ली में आज से  चालीस साल  पहले मेरी उनसे मुलाक़ात हुयी थी.

जो लोग सबीहा को  जानते हैं उनमें से कोई भी बता देगा  कि उन्होंने सैकड़ों ऐसे लोगों की जिंदगियों को जीने लायक बनाने में योगदान किया है जो  अँधेरे भविष्य की ओर ताक  रहे  थे. वह किसी भी परेशान इंसान की  मददगार के रूप में अपने असली  स्वरुप में आ  जाती  हैं . लगता है कि  आर्थिक अभाव में बीते अपने बचपन ने उनको एक ऐसे इंसान के रूप में स्थापित कर दिया है जो किसी भी मुसीबतजदा इंसान को दूर से ही पहचान लेता है और वे फिर बिना उसको बताये उसकी मदद की योजना पर काम करना शुरू कर देती हैं .   सबीहा हाशमी ने  सैकड़ों लोगों पर एहसान किया है लेकिन उसको वे कभी किसी से बताती नहीं हैं . उनकी शख्सियत की यह खासियत मैंने पिछले चालीस  वर्षों में बार बार देखा  है . गांधी जी के प्रिय भजन , "  वैष्णव जन तो तेने कहिये जो पीर पराई जाने रे, पर दुक्खे उपकार करे ,मन अभिमान न माने रे ."  वाली पंक्तियाँ उन पर बिलकुल सटीक बैठती हैं . उन्होंने कभी किसी से नहीं बताया कि किसी की उन्होंने मदद की है , कभी नहीं .
दिल्ली के एक बहुत ही विख्यात  पब्लिक  स्कूल में आप आर्ट पढ़ाती थींएक दिन उनको पता लगा कि बहुत ही कम उम्र के किसी बच्चे को कैंसर हो गया है . कैंसर की शुरुआती स्टेज थी . डाक्टर ने बताया कि अगर  बच्चे का इलाज तुरंत हो जाये तो उसकी ज़िंदगी बच सकती थी. अगले एक घंटे के अंदर आप अपने शुभचिंतकों से बात करके प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर चुकी थीं. बच्चे का इलाज हो गया . अस्पताल में ही जाकर जो भी करना होता था , किया . बच्चे की इस मदद को अपनी ट्राफी नहीं बनाया . यहाँ  तक कि उनको मालूम भी नहीं कि वह बच्चा कहाँ है . ऐसी अनगिनत मिसालें हैं . किसी की क्षमताओं को पहचान कर उसको बेहतरीन अवसर दिलवाना उनकी पहचान का हिस्सा है . उनके स्कूल में एक लड़का  उनके विभाग में चपरासी का काम करता था. पारिवारिक परेशानियों के कारण पढाई पूरी नहीं कर सका था . उसको  प्राइवेट फ़ार्म भरवाकर पढ़ाई पूरी करवाया और  बाद में वही लड़का बैंक के प्रोबेशनरी अफसर की परीक्षा में  बैठा और आज बड़े  पद पर  है .  उनके दफ्तर के  एक  अन्य सहयोगी की मृत्यु के बाद उसके घर गईं, आपने भांप लिया कि सहयोगी की विधवा को उस  परिवार में परेशानी ही परेशानी होगी. अपने दफ्तर में उसकी  नौकरी  लगवाई. उसकी आगे की पढ़ाई करवाई और आज वह महिला एक बहुत बड़े स्कूल में  शिक्षिका है . ऐसे  बहुत सारे मामले हैं ,लिखना शुरू करें तो किताब बन जायेगी . आजकल आप बंगलौर के पास के जिले रामनगर के एक गाँव में विराजती हैं और वहां भी  कई लड़कियों को अपनी
ज़िंदगी बेहतर बनाने के लिए प्रेरित कर रही हैं .   उस गाँव की कई बच्चियों के माता पिता  को हडका कर सब को शिक्षा पूरी करने का माहौल बनाती हैं और उनकी फीस  आदि का इंतज़ाम  करती रहती हैं . अपने लिए सबीहा ने कभी  किसी से कोई आर्थिक मदद नहीं ली लेकिन अगर किसी  मुसीबतज़दा को मदद करना हो तो अपने बच्चों , पुराने  छात्रों आदि से बेझिझक मदद लेती हैं .  
सबीहा अपनी औलादों के लिए कुछ भी कर सकती हैं , कुछ भी . दिल्ली के पास गुडगाँव में उनके बेटे ने अच्छा ख़ासा  घर बना दिया था लेकिन जब उनको लगा कि उनको बेटे के पास बंगलौर रहना ज़रूरी है तो उन्होंने यहाँ से सब कुछ ख़त्म करके बंगलोर शिफ्ट करना उचित   समझा लेकिन  बच्चों के सर  पर बोझ नहीं बनीं, उनके घर में रहना पसंद नहीं किया .अपना अलग घर बनाया और आराम से  रहती हैं. इस मामले में खुशकिस्मत हैं  कि उनकी सभी औलादें अब बंगलौर में ही हैं . सब को वहीं काम मिल गया है .आपने वहां एक ऐसे गाँव में ठिकाना  बनाया है जहां जाने  के लिए सड़क भी नहीं है.अब सत्तर साल की उम्र हो गयी है , उनके बाल सफ़ेद हैं ,गाँव का हर इंसान उनको अज्जी कहता है . मुख्य सड़क से  काफी दूर पर उनका घर है लेकिन वहां से हट नहीं सकतीं क्योंकि गाँव का हर परेशान परिवार अज्जी की तरफ उम्मीद की नज़र  से देखता है . अपने इस नए  गाँव की बच्चियों से हस्तशिल्प के आइटम बनवाती हैं , खुद  भी लगी रहती हैं और बंगलौर शहर में जहां भी कोई प्रदर्शनी लगती है उसमें बच्चों के काम को प्रदर्शित करती हैं , सामान की बिक्री से  जो भी आमदनी होती है उसको उनकी फीस के डिब्बे में डालती रहती  हैं . उसमें से  अपने लिए एक पैसा नहीं लेतीं .उनके तीनों ही बच्चे यह जानते हैं और अगर कोई ज़रूरत पड़ी तो हाज़िर रहते हैं.  
मेरे जीवन में उनकी भूमिका बहुत ही बड़ी है. मैं उनके भाई का दोस्त ही तो हूं लेकिन मुझे उन्होंने रास्ता दिखाया  और सिस्टम से ज़िंदगी जीने की तमीज सिखाई .मैं एक ऐसा आदमी था जो  रोज़गार की  तलाश में दिल्ली तो आ गया था लेकिन इस महानगर में पूरी तरह से कनफ्यूज़ था . छोटे शहर और गाँव से आया मैं दिल्ली में दिशाहीनता की तरफ बढ़ रहा था . रोज़गार  तो छोटा मोटा मिल गया था लेकिन परिवार गाँव में था. मैं अपनी पत्नी और दो  बच्चों को इसलिए दिल्ली नहीं ला रहा था कि रहेंगे कहाँ . सबीहा ने मुझे  डांट डपट कर इस बात पर राजी किया कि बच्चों और अपनी पत्नी को दिल्ली लेकर आऊँ . किराये के मकान में  रखवाया और बच्चों को  तुरंत स्कूलों में प्रवेश दिला दिया . दिल्ली के पब्लिक स्कूलों में प्रवेश बहुत कठिन मंजिल होती है लेकिन वे दिल्ली के एक बहुत ही ठसकेदार पब्लिक स्कूल में  बाइज्ज़त  टीचर थीं इसलिए शहर के बहुत संपन्न लोगों के बच्चों के मातापिता भी उनका बहुत सम्मान करते थे . मेरी तीसरी औलाद बेटी है. जब वह दिल्ली में  पैदा हुई तो मेरी पत्नी इंदु की देखभाल का पूरा ज़िम्मा उन्होंने ले लिया . जिस दिन मेरी बेटी पैदा हुई, मेरी पत्नी को लेकर अस्पताल  गयीं और सारा इंतज़ाम किया . मेरे वही बच्चे अब उच्च शिक्षित हैं और अपनी ज़िन्दगी संभाल रहे  हैं, अच्छी पढाई लिखाई कर चुके हैं  . मैं सुल्तानपुर से डिग्री कालेज के लेक्चरर की नौकरी  छोड़कर आया  था. मुझे मुगालता था कि उसी स्तर का काम मिलेगा तो करूंगा . उन्होंने मुझे  समझाया कि जो भी काम मिले , कर लो . बंधी बंधाई तनख्वाह मिलेगी  तो गृहस्थी चल निकलेगी .आज सोचता हूँ कि अगर उनकी बात न मानी होती तो पता नहीं किस रूप में ज़िंदगी चल  रही होती .मैं आज पत्रकारिता के कई हल्कों  में पहचाना जाता हूँ लेकिन  रोज़ लिखने की प्रेरणा  मुझे सबीहा  हाशमी ने ही दिया था .

सबीहा में हिम्मत और हौसला बहुत ज्यादा है . आपने चालीस साल की उम्र में रॉक क्लाइम्बिंग सीखा और  बाकायदा एक्सपर्ट बनीं, अडतालीस साल की उम्र में कार चलाना सीखा .  चालीस की उम्र पार करने के बाद चीनी भाषा में  उच्च शिक्षा ली.  नई दिल्ली के नैशनल म्यूज़ियम इंस्टीच्यूट ( डीम्ड यूनिवर्सिटी ) से पचास साल की उम्र में पी एच डी किया . जब मैंने पूछा कि इतनी उम्र के बाद पी एच डी से क्या फायदा होगा आपने कहा कि ,"यह मेरी इमोशनल  यात्रा है . मेरे अब्बू की इच्छा थी कि मैं  पी एच डी करूं. उनके जीवनकाल में तो नहीं कर पाई लेकिन अब जब भी मैं उसके लिए पढ़ाई  करती हूँ तो लगता है उनको श्रद्धांजलि दे रही हूँ ." सबीहा कहती हैं कि उनके दिमाग में एक फ़िल्टर  लगा है जिसके कारण वे  उन  बातों को भूल जाती हैं  जो तकलीफ देने  वाली होती हैं . उनके साथ ज़िंदगी में बहुत सारे धोखे हुए  हैं  लेकिन  कभी किसी का उल्लेख नहीं करतीं.   उनकी किसी भी बात को मैं आज भी दरकिनार नहीं कर सकता .