Saturday, December 14, 2013

आम आदमी पार्टी स्थापित सत्ता की पार्टियों का विकल्प बन सकती है





शेष नारायण सिंह

दिल्ली में नरेंद्र मोदी ने एडी चोटी का जोर लगा दिया था लेकिन उनकी पार्टी को बहुमत नहीं मिल पाया .दिल्ली विधान सभा का चुनाव वास्तव में शुद्ध रूप से नरेन्द्र मोदी का चुनाव था क्योंकि यहाँ उन्होंने अपने मनमाफिक मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार तैनात करवाया था और खुद ही कई कई सभाएं की थीं लेकिन सरकार बनाने भर को बहुमत नहीं जुटा सके. आम आदमी पार्टी के रूप में एक नई राजनीतिक ताक़त आ गयी .ताज़ा खबर यह  है कि दिल्ली के उप राज्यपाल नजीब जंग ने बीजेपी के नेता डॉ हर्षवर्धन को सरकार बनाने के लिए बुलाया था लेकिन उन्होने मना कर दिया और कहा कि ज़रूरी बहुमत नहीं है इसलिए सरकार नहीं बनायेगें .दिल्ली में सरकार बनाने से भाग रही बीजेपी से आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने एक सवाल पूछा है कि अगर २०१४ के चुनावों में लोकसभा में स्पष्ट बहुमत नहीं मिला तो क्या बीजेपी सरकार बनाने की कोशिश नहीं करेगी. यह सवाल बहुत ही दिलचस्प है और अब इसी तरह के सवाल पूछे जायेगें क्योंकि सूचना क्रान्ति और आम आदमी पार्टी के प्रादुर्भाव ने ऐसा माहौल बना दिया है कि अब मुश्किल सवाल पूछने में कोई भी संकोच नहीं रह गया है .हालांकि आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल से भी पूछा जा सकता है दिल्ली की जनता ने आपको महत्व दिया है और जब  आपकी पार्टी के बाहर के विधायक भी आपका समर्थन देने की बात करते पाए जा रहे हैं तो आप क्यों सरकार  नहीं बनाते .लेकिन उनका घोषित तिकडम की राजनीति  का विरोध करने का है इसलिए उनको अगले अवसर की प्रतीक्षा है और वक़्त ही बताएगा कि वे विरोध की राजनीति विरोध के लिए करते हैं कि उनके मन में राजनीति को सही दिशा देने का कोई सकारात्मक कार्यक्रम है .   
भ्रष्टाचार के आचरण को अपनी नियति मान चुकी राजनीतिक पार्टियों के बीच से आम आदमी पार्टी का उदय एक ऐसी घटना है जिसके बाद लोगों को लगने लगा है कि इस देश के दरवाज़े पर दस्तक दे रही फासिस्ट ताकतों को रोका जा सकता है . यहाँ यह स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि बीजेपी के सभी नेताओं को फासिस्ट कह देना अति सरलीकरण होगा .अभी चार राज्यों के विधानसभा चुनावों में जो देखा गया है वह यह है कि सभी राजनीतिक पार्टियों ने एक दूसरे की ताक़त को सामने से चुनौती दी और सही लोकत्रांत्रिक तरीके से चुनाव प्रचार किया . किसी भी पार्टी ने सत्ता को हथियाने के लिए गठबंधन सरकार के उन तिकडमों का सहारा नहीं लिया जिनके सहारे १९३३ में हिटलर ने जर्मनी की सत्ता पर कब्जा किया था . और जहां खुले आम चुनावी राजनीति का पारदर्शी प्रचार और कार्यक्रम होता है वहाँ फासिस्ट ताक़तें सत्ता नहीं हासिल कर सकतीं . यह भी भरोसा किया जाना चाहिए कि मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह और छत्तीसगढ़ में रमन सिंह ने आम आदमी की राजनीतिक भावनाओं को राजनीतिक शक्ल दी है .उम्मीद की जानी चाहिए कि वे भविष्य में भी उसकी भावनाओं के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं जुटा पायेगें. इन चुनावों के बाद कांग्रेस में हिम्मत हार चुके नेताओं का जमावडा भी साफ़ नज़र आ  रहा है .इसलिए उनसे किसी राजनीतिक लड़ाई की उम्मीद करने का कोई मतलब नहीं है लेकिंन दिल्ली में कांग्रेस और बीजेपी को चुनौती देने वाली आम आदमी पार्टी से उम्मीद की जानी चाहिए. अभी आम आदमी पार्टी के एक वक्तव्यप्रिय नेता  ने घोषणा की है कि वे राहुल गांधी के खिलाफ अमेठी से चुनाव लड़ेगें . उन्होंने कहा है कि उनकी पार्टी देश के किसी भी क्षेत्र में किसी भी पार्टी के बड़े से बड़े नेता को वाक् ओवर देने के पक्ष में नहीं है . यह देश की राजनीति के लिए बहुत ही अच्छा संकेत है . संसद के चुनाव के हर क्षेत्र में सभी नेताओं को बड़ी से बड़ी चुनौती देकर ही लोकतांत्रिक भारत की  रक्षा की जा सकती है . दिल्ली विधान सभा के चुनावों में जिस तरह से आम आदमी पार्टी के उम्मीदवारों ने अपने राजनीतिक  दायित्व का  निर्वाह  किया है वह महत्वपूर्ण है . पिछले एक हफ्ते में ऐसे बहुत सारे राजनीतिक विश्लेषकों से बातचीत हुई है जो कहते हैं कि यह पार्टी चल नहीं पायेगी या कि इसमें ऐसे नेता नहीं है जो साफ़ समझ के साथ राजनीति को दिशा दे  सकें ,आदि आदि . इन बातों का कोई मतलब नहीं है .एक तो यह बात ही बेमतलब है कि आम आदमी पार्टी में सही राजनीतिक सोच के लोग नहीं है . हम जानते हैं कि वहाँ काम करने वाले , आनंद कुमार , योगेन्द्र यादव, गोपाल राय और संजय सिंह ऐसे लोग हैं जिन्होने इसके पहले कई बार स्थापित सत्ता के खिलाफ लोकतांत्रिक सत्ता की बहाली के लिए संघर्ष  किया  है और उनकी  राजनीतिक समझ किसी भी राहुल गांधी या नरेंद्र मोदी से ज़्यादा है .इसलिए इन शंकाओं को गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए . लेकिन इस से भी महत्वपूर्ण बात यह  है कि इस पार्टी का जो मुख्य रोल है उसमें इसने अपने आपको खरा साबित कर दिया है . स्थापित सत्ता के दावेदारों को चुनौती देकर अगर आम आदमी पार्टी  इस बात को पूरे देश में साबित करने में कामयाब हो जाती है कि राजनीति में जनता की इच्छा से बड़ा कुछ नहीं होता तो यह बहुत बड़ी बात होगी .
आज की सच्च्चाई यह  है कि देश के  बड़े भूभाग में जनता दो पार्टियों की साम्राज्यवादी पूंजीवादी राजनीति के बीच पिस रही है . आम आदमी पार्टी ने एक ऐसी खिड़की दे दी है जिसके  रास्ते देश का आम आदमी स्थापित सत्ता की दोनों की पार्टियों को चुनौती दे सकता है . और यह कोई मामूली भूमिका नहीं  है . १९७७ में  जिस तरह से जनता ने चुनाव लड़कर उन लोगों को जिता दिया था जो स्थापित तानाशाही सत्ता के खिलाफ चुनाव लड़ रहे थे ,उसी तरह इस बार दिल्ली विधानसभा में जनता ने आम आदमी पार्टी के उम्म्मीद्वारों को जिता कर यह सन्देश दे दिया है कि अगर राजनीतिक समूह की नीयत साफ़ हो तो जनता के पास ताकत है और वह अपेन बदलाव के  सन्देश को देने के लिए किसी भी ईमानदार समूह का साथ दे देती है .और बदलाव की आंधी को गति दे देती है . १९७७ में तानाशाही ताकतों के खिलाफ हुई लड़ाई में जो नतीजे निकले उनके ऊपर उस दौर की उन पार्टियों के पस्तहिम्मत नेताओं ने कब्जा कर लिया जो इंदिरा गांधी की ताकत का लोहा मान कर हथियार डाल चुके थे . जनता पार्टी का गठन १९७७ के उस चुनाव के बाद हुआ जिसमें इंदिरा गांधी और संजय गांधी की तानाशाही हुकूमत को जनता पराजित कर चुकी थी . लेकिन जनता के उस अभियान का  वह नतीजा नहीं निकला जिसकी उम्मीद की गयी  थी. जेल से छूटकर आये नेताओं को लगने लगा कि उनकी पार्टी की लोकप्रियता और उनकी अपनी राजनीतिक योग्यता के कारण १९७७ की चुनावी सफलता मिली थी . वे लोग भी सत्ता से मिलने वाले कोटा परमिट के लाभ को संभालने में उसी तरह से  जुट गए जैसे उस पार्टी के लोग करते थे जिसको हराकर वे आये थे . नतीजा यह हुआ  कि दो साल के अंदर ही जनता पार्टी टूट गयी और सब कुछ फिर से यथास्थितिवादी राजनीति के हवाले  हो गया और संजय गांधी-इंदिरा गांधी की कांग्रेस फिर से सत्ता पर वापस आ गयी. आम आदमी पार्टी का विरोध कर रहे बहुत सारे लोग यही बात  याद दिलाने की कोशिश करते हैं .
जनता पार्टी के प्रयोग को  असफलता के रूप में पेश करने की तर्कपद्धति में दोष है .१९७७ में जनता पार्टी की चुनावी सफलता किसी राजनीतिक पार्टी की सफलता नहीं थी.  वह तो देश की जनता का आक्रोश था जिसने तनाशाही के खिलाफ एक आन्दोलन चलाया था. जनता के पास अपनी कोई राजनीतिक पार्टी नहीं थी ,उसने जनसंघ ,संसोपा ,मुस्लिम मजलिस, भारतीय लोकदल ,स्वतन्त्र पार्टी आदि राजनीतिक पार्टियों के नेताओं को मजबूर कर दिया था कि इंदिरा गांधी की सत्ता के खिलाफ राजनीतिक लड़ाई कि उसकी मुहिम में सामने आयें . जनता के पास राजनीतिक पार्टी नहीं थी लिहाज़ा जनता पार्टी नाम का एक नया नाम राजनीति के मैदान में डाल दिया गया . और इस तरह से  बिना किसी तैयारी के जनता पार्टी का ऐलान हो गया . चुनाव आयोग के पास जाकर चुनाव  निशान लेने तक का समय नहीं था लिहाजा चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय लोकदल के चुनाव निशान हलधर किसान को जनता पार्टी के उम्मीदवारों का चुनाव निशान बना दिया गया . यह जानना  दिलचस्प होगा कि १९७७ का चुनाव जीतने वाले जनता पार्टी के सभी उम्मीदवार वास्तव में भारतीय लोक दल के  संसद सदस्य के रूप में चुनकर आये थे और उसी पार्टी के सदस्य के रूप में उन्होने लोकसभा में सदस्यता की शपथ ली थी . मोरारजी देसाई जिस सरकार के प्रधानमंत्री बने थे वह भारतीय लोकदल की सरकार थी . सरकार बनाने के बाद इन लोगों ने १ मई १९७७ के दिन सम्मलेन करके जनता पार्टी का गठन किया और फिर हलधर किसान जनता पार्टी का चुनाव निशान बना . सब को मालूम है कि जनता पार्टी जैसी पार्टी उसमें शामिल राजनीतिक नेताओं के स्वार्थ के कारण तहस नहस हो गयी और बाद के कई वर्षों तक कांग्रेस के लोग यह भरोसा दिलाते रहे कि कांग्रेस विरोध की राजनीति का कोई मतलब नहीं होता लेकिन यह सच्चाई है कि  जनता पार्टी के प्रयोग ने संजय गांधी ब्रांड तानाशाही को रोक दिया था और दोबारा १९८० में जब कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई तो एक लोकतांत्रिक पार्टी के रूप में  ही उसकी वापसी हुई थी ,१९७५ की तानशाही की राजनीति को  वह तिलांजलि दे चुकी थी.
१९७५ के जनता के आन्दोलन को उस समय की मौजूदा पार्टियों  ने हडपने में सफलता ग हासिल कर ली थी क्योंकि उन दिनों जनता की तरफ से कोई राजनीतिक  फार्मेशन नहीं था . आम आदमी पार्टी ने उस कमी को पूरा कर दिया है. आज जनता के पास उसका अपना विकल्प है और उसपर यथास्थितिवाद की पार्टियों का प्रभाव बिलकुल नहीं है .३६ साल पुराने जनता पार्टी के सन्दर्भ का ज़िक्र करने का केवल यह मतलब है कि जब जनता तय करती है तो परिवर्तन असंभव नहीं रह जाता .आम आदमी पार्टी के गठन के समय भी देश की जनता आम तौर पर दिशाहीनता का शिकार हो चुकी थी. देश में दो बड़ी राजनीतिक पार्टियां हैं , कुछ राज्यों में बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां तो नहीं हैं लेकिन वहाँ की मुकामी पार्टियों के बीच सारी राजनीति सिमट कर रह गयी है . जनता के सामने कोई विकल्प नहीं है . उसे नागनाथ और सांपनाथ के बीच किसी का चुनाव करना  है लेकिन दिल्ली विधानसभा के चुनाव में जिस तरह से आम आदमी पार्टी ने विकल्प दिया है उसके बाद पूरे देश में राजनीतिक पार्टियों के बीच सक्रियता साफ़ नज़र आ रही है . उम्मीद की जानी चाहिए कि इसके बाद जनता की उन इच्छाओं को सम्मान मिलेगा जिसके तहत वे बदलाव कर देना चाहती हैं .

Thursday, December 5, 2013

एक मनु की औकात नहीं कि वह जाति व्यवस्था की स्थापना कर दे


शेष नारायण सिंह

डा.अंबेडकर के निर्वाण दिवस के मौके पर ज़रूरी है कि उनकी सोच और दर्शन के सबसे अहम पहलू पर गौर किया जाए. सब को मालूम है कि डा. अंबेडकर के दर्शन ने २० वीं सदी के भारत के राजनीतिक आचरण को बहुत ज्यादा प्रभावित किया था . लेकिन उनके दर्शन की सबसे ख़ास बात पर जानकारी की भारी कमी है. यह बात कई बार कही जा चुकी है कि उनके नाम पर राजनीति करने वालों को इतना तो मालूम है कि बाबा साहेब जाति व्यवस्था के खिलाफ थे लेकिन बाकी चीजों पर ज़्यादातर लोग अन्धकार में हैं. उन्हीं कुछ बातों का ज़िक्र करना आज के दिन सही रहेगा. डा. अंबेडकर को इतिहास एक ऐसे राजनीतिक चिन्तक के रूप में याद रखेगा जिन्होंने जाति के विनाश को सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की बुनियाद माना था. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि उनकी राजनीतिक विरासत का सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाली पार्टी की नेता, आज जाति की संस्था को संभाल कर रखना चाहती हैं ,उसके विनाश में उनकी कोई रूचि नहीं है . वोट बैंक राजनीति के चक्कर में पड़ गयी अंबेडकरवादी पार्टियों को अब वास्तव में इस बात की चिंता सताने लगी है कि अगर जाति का विनाश हो जाएगा तो उनकी वोट बैंक की राजनीति का क्या होगा. डा अंबेडकर की राजनीतिक सोच को लेकर कुछ और भ्रांतियां भी हैं . कांशीराम और मायावती ने इस क़दर प्रचार कर रखा है कि जाति की पूरी व्यवस्था का ज़हर मनु ने ही फैलाया था, वही इसके संस्थापक थे और मनु की सोच को ख़त्म कर देने मात्र से सब ठीक हो जाएगा. लेकिन बाबा साहेब ऐसा नहीं मानते थे . उनके एक बहुचर्चित, और अकादमिक भाषण के हवाले से कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था की सारी बुराइयों को लिए मनु को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता .मनु के बारे में उन्होंने कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगें तो बहुत ही हिम्मती रहे होंगें . डा. अंबेडकर का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा कोई एक व्यक्ति बना दे और बाकी पूरा समाज उसको स्वीकार कर ले. उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी कानून बना देगा और पीढियां दर पीढियां उसको मानती रहेंगीं. . हाँ इस बात की कल्पना की जा सकती है कि मनु नाम के कोई तानाशाह रहे होंगें जिनकी ताक़त के नीचे पूरी आबादी दबी रही होगी और वे जो कह देंगे ,उसे सब मान लेंगें और उन लोगों की आने वाली नस्लें भी उसे मानती रहेंगी.उन्होंने कहा कि , मैं इस बात को जोर दे कर कहना चाहता हूँ कि मनु ने जाति की व्यवस्था की स्थापना नहीं की क्योंकि यह उनके बस की बात नहीं था. . मनु के जन्म के पहले भी जाति की व्यवस्था कायम थी. . मनु का योगदान बस इतना है कि उन्होंने इसे एक दार्शनिक आधार दिया. . जहां तक हिन्दू समाज के स्वरुप और उसमें जाति के मह्त्व की बात है, वह मनु की हैसियत के बाहर था और उन्होंने वर्तमान हिन्दू समाज की दिशा तय करने में कोई भूमिका नहीं निभाई. उनका योगदान बस इतना ही है उन्होंने जाति को एक धर्म के रूप में स्थापित करने की कोशिश की . जाति का दायरा इतना बड़ा है कि उसे एक आदमी, चाहे वह जितना ही बड़ा ज्ञाता या शातिर हो, संभाल ही नहीं सकता. . इसी तरह से यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि ब्राह्मणों ने जाति की संस्था की स्थापना की. मेरा मानना है कि ब्राह्मणों ने बहुत सारे गलत काम किये हैं लेकिन उनकी औक़ात यह कभी नहीं थी कि वे पूरे समाज पर जाति व्यवस्था को थोप सकते. . हिन्दू समाज में यह धारणा आम है कि के जाति की संस्था का आविष्कार शास्त्रों ने किया और शास्त्र तो कभी गलत हो नहीं सकते. बाबा साहेब ने अपने इसी भाषण में एक चेतावनी और दी थी कि उपदेश देने से जाति की स्थापना नहीं हुई थी और इसको ख़त्म भी उपदेश के ज़रिये नहीं किया जा सकता.. यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है अपने इन विचारों के बावजूद भी , डा अंबेडकर ने समाज सुधारकों के खिलाफ कोई बात नहीं कही. ज्योतिबा फुले का वे हमेशा सम्मान करते रहे. . हाँ उन्हें यह पूरा विश्वास था कि जाति प्रथा को किसी महापुरुष से जोड़ कर उसकी तार्किक परिणति तक नहीं ले जाया जा सकता.

डा अंबेडकर के अनुसार हर समाज का वर्गीकरण और उप वर्गीकरण होता है लेकिन परेशानी की बात यह है कि इस वर्गीकरण के चलते वह ऐसे सांचों में फिट हो जाता है कि एक दूसरे वर्ग के लोग इसमें न अन्दर जा सकते हैं और न बाहर आ सकते हैं . यही जाति का शिकंजा है और इसे ख़त्म किये बिना कोई तरक्की नहीं हो सकती. सच्ची बात यह है कि शुरू में अन्य समाजों की तरह हिन्दू समाज भी चार वर्गों में बंटा हुआ था . ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र . यह वर्गीकरण मूल रूप से जन्म के आधार पर नहीं था, यह कर्म के आधार पर था .एक वर्ग से दूसरे वर्ग में आवाजाही थी लेकिन हज़ारों वर्षों की निहित स्वार्थों कोशिश के बाद इसे जन्म के आधार पर कर दिया गया और एक दूसरे वर्ग में आने जाने की रीति ख़त्म हो गयी. और यही जाति की संस्था के रूप में बाद के युगों में पहचाना जाने लगा. . अगर आर्थिक विकास की गति को तेज़ किया जाय और उसमें सार्थक हस्तक्षेप करके कामकाज के बेहतर अवसर उपलब्ध कराये जाएँ तो जाति व्यवस्था को जिंदा रख पाना बहुत ही मुश्किल होगा. और जाति के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था का बच पाना बहुत ही मुश्किल होगा.. अगर ऐसा हुआ तो जाति के विनाश के ज्योतिबा फुले, डा. राम मनोहर लोहिया और डा. अम्बेडकर की राजनीतिक और सामाजिक सोच और दर्शन का मकसद हासिल किया जा सकेगा..