Friday, June 22, 2018

कश्मीर को सियासी तिकड़म के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए




शेष नारायण सिंह


जम्मू और कश्मीर की  गिर गयी है . महबूबा मुफ्ती अब पूर्व मुख्यमंत्री हो  गयी हैं . इस सरकार को वहां होना ही नहीं चाहिए था क्योंकि भारत के संविधान की क़सम खाकर मुख्यमंत्री बनी महबूबा मुफ्ती वास्तव में एक अलगवावादी नेता है और उनकी सहानुभूतियाँ ऐलानियाँ पाकिस्तान के साथ हैं .  इस सरकार को स्थापित करने के लिए सबसे ज्यादा ज़िम्मेदार बीजेपी के नेता ,राम माधव हैं . जब नरेंद्र मोदी और अमित शाह के हुकुम के बाद जम्मू-कश्मीर के बीजेपी  विधायकों ने समर्थन वापसी का फैसला लिया तो इन्हीं राम माधव को प्रेस के सामने पेश किया गया . उन्होंने जो भी तर्क दिए वे सारे देश को मालूम हैं . मुफ्ती सरकार फेल हो गयी है ,यह सबको पता है लेकिन लेकिन उस असफलता के लिए जितना महबूबा मुफ्ती ज़िम्मेदार हैं उतना ही राम माधव भी ज़िम्मेदार हैं.

दर असल कश्मीर एक ऐसा मसला है जिसमें किसी  एक पार्टी की मनमानी नहीं चलती .जब भी मनमानी होती है ,मामला बिगड़ जाता है . कश्मीर के मामले में सारे देश की राजनीतिक पार्टियों की आम राय से ही बातें  बनती हैं . कश्मीर की समस्या भी कोई  नई समस्या नहीं है . कश्मीर में आज़ादी के  मायने भी बाकी दुनिया की आज़ादी से अलग हैं . कश्मीरी  अवाम ने अपने आपको तब गुलाम माना था जब  मुग़ल सम्राट अकबर ने १५८६ में कश्मीर को अपने राज्य में मिला लिया था . उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था. और गाहे बगाहे आज़ादी की बात होती रहती थी. जब ३६१ साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर १९४७ में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना. इस बीच मुसलमानोंसिखों और डोगरा राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा.अंतिम हिन्दू राजाहरी सिंह के खिलाफ आज़ादी की जो लड़ाई शुरू हुयी उसके नेताशेख अब्दुल्ला थे. शेख ने आज़ादी के पहले कश्मीर छोडो का नारा दिया.इस आन्दोलन को पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैरख्वाह थे . जब सरदार पटेल ने राजा को साफ़ बता दिया कि जब तक विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत नहीं कर देंगे तब तक भारतीय सेना  तुम्हारी मदद नहीं करेगी.  कबायलियों के पोशाक में आई पाकिस्तानी सेना से सरदार  पटेल ने कश्मीर को बचा लिया था . और शेख अब्दुल्ला को देश की एक राय से वहां का वजीरे-आज़म बना दिया गया था.

तब से ही कश्मीर में देश की आम राय चलती है .जब भी कोई अरुण नेहरू या कोई जगमोहन या कोई राम माधव अपनी मर्जी चलाने की कोशिश करता है ,गड़बड़ होती है . जम्मू-कश्मीर की जब भी बात होगी ,  जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला  को भारत के पक्षधर के रूप में याद किया जाएगा .लेकिन देश में नेताओं और बुद्धिजीवियों का एक वर्ग जवाहरलाल नेहरू को बिलकुल गैर ज़िम्मेदार राजनेता मानता  है . मौजूदा सरकार में इस तरह के लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है .  नेहरु की नीतियों की हर स्तर पर निंदा की जा रही है . जवाहरलाल ने तय कर रखा था कि कश्मीर को भारत से अलग कभी नहीं होने देगें लेकिन अदूरदर्शी नेताओं को नेहरू अच्छे नहीं लगते थे . जम्मू-कश्मीर की अभी  अभी गिरी सरकार में भी ऐसे लोग थे जो  भारत के संविधान की बात तो करते हैं लेकिन भारत की एकता और अखण्डता के नेहरूवादी ढांचे को नामंजूर कर देते थे  . मुख्यमंत्री ऐसी थीं   जो पाकिस्तान परस्त अलगाव वादियों से दोस्ती के रिश्ते रखती थीं.  उस सरकार में कुछ ऐसे लोग भी थे जो १९४६-४७ में कश्मीर के राजा हरि सिंह के समर्थकों के राजनीतिक  वारिस हैं . इस  सरकार ने थोक में गलतियाँ कीं और जब मामला हाथ से निकल गया तो केंद्र सरकार से फ़रियाद की कि  जम्मू-कश्मीर के मामलों में दख़ल दो. लेकिन केंद्रीय हस्तक्षेप तभी कारगर होता  है जब  मुकामी नेता मज़बूत हो. हमने देखा है जब भी जम्मू-कश्मीर में मुख्यमंत्री कमज़ोर रहा है और केंद्रीय हस्तक्षेप से सहारे राज करने की कोशिश करता है तो  नतीजे भयानक हुए हैं . शेख अब्दुल्ला की १९५३ की सरकार हो या फारूक अब्दुल्ला को हटाकर गुल शाह को मुख्यमंत्री बनाने की बेवकूफीकेंद्र की गैर ज़रूरी दखलंदाजी के बाद कश्मीर में हालात खराब होते रहे हैं . कश्मीर में केन्द्रीय दखल के नतीजों के इतिहास पर नज़र डालने से तस्वीर और साफ़ हो जायेगी. सच्ची बात यह है कि जम्मू-कश्मीर की जनता हमेशा से ही बाहरी दखल को गैरज़रूरी मानती रही है .

यह  भी समझने की कोशिश की जानी चाहिए कि जिस कश्मीरी अवाम ने कभी पाकिस्तान और उसके नेता मुहम्मद अली जिन्ना को धता बता दी थी और जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राजा की पाकिस्तान के साथ मिलने की कोशिशों को फटकार दिया थाऔर भारत के साथ विलय के लिए चल रही शेख अब्दुल्ला की कोशिश को अहमियत दी थी , आज वह भारतीय नेताओं से इतना नाराज़ क्यों है. कश्मीर में पिछले २५ साल से चल रहे आतंक के खेल में लोग भूलने लगे हैं कि जम्मू-कश्मीर की मुस्लिम बहुमत वाली जनता ने पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय नेताओंमहात्मा गाँधी , जवाहर लाल नेहरू और जयप्रकाश नारायण को अपना रहनुमा माना था. पिछले ७०  साल के इतिहास पर एक नज़र डाल लेने से तस्वीर पूरी तरह साफ़ हो जायेगी.
देश के बँटवारे के वक़्त अंग्रेजों ने देशी रियासतों को भारत या पाकिस्तान के साथ मिलने की आज़ादी दी थी. बहुत ही पेचीदा मामला था . ज़्यादातर देशी राजा तो भारत के साथ मिल गए लेकिन जूनागढ़हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर का मामला विवादों के घेरे में बना रहा . कश्मीर में ज़्यादातर लोग तो आज़ादी के पक्ष में थे . कुछ लोग चाहते थे कि पाकिस्तान के साथ मिल जाएँ लेकिन अपनी स्वायत्तता को सुरक्षित रखें. इस बीच महाराजा हरि सिंह के प्रधान मंत्री ने पाकिस्तान की सरकार के सामने एक स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का प्रस्ताव रखा जिसके तहत लाहौर सर्किल के केंद्रीय विभाग पाकिस्तान सरकार के अधीन काम करेगें . १५ अगस्त को पाकिस्तान की सरकार ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा के स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसके बाद पूरे राज्य के डाकखानों पर पाकिस्तानी झंडे फहराने लगे . भारत सरकार को इस से चिंता हुई और जवाहर लाल नेहरू ने अपनी चिंता का इज़हार इन शब्दों में किया."पाकिस्तान की रणनीति यह है कि अभी ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ कर ली जाए और जब जाड़ों में कश्मीर अलग थलग पड़ जाए तो कोई बड़ी कार्रवाई की ." नेहरू ने सरदार पटेल को एक पत्र भी लिखा कि ऐसे हालात बन रहे हैं कि महाराजा के सामने और कोई विकल्प नहीं बचेगा और वह नेशनल कान्फरेन्स और शेख अब्दुल्ला से मदद मागेगा और भारत के साथ विलय कर लेगा.अगर ऐसा हो गया गया तो पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर किसी तरह का हमला करना इस लिए मुश्किल हो जाएगा कि उसे सीधे भारत से मुकाबला करना पडेगा.अगर राजा ने इस सलाह को मान लिया होता तो कश्मीर समस्या का जन्म ही न होता..इस बीच जम्मू में साम्प्रदायिक दंगें भड़क उठे थे . बात अक्टूबर तक बहुत बिगड़ गयी और महात्मा गाँधी ने इस हालत के लिए महाराजा को व्यक्तिगत तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बढाने के लिए लाहौर से आने वाली कपडेपेट्रोल और राशन की सप्प्लाई रोक दी. संचार व्यवस्था पाकिस्तान के पास स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के बाद आ ही गयी थी. उसमें भी भारी अड़चन डाली गयी.. हालात तेज़ी से बिगड़ रहे थे और लगने लगा था कि अक्टूबर १९४६ में की गयी महात्मा गाँधी की भविष्यवाणी सच हो जायेगी. महात्मा ने कहा था कि अगर राजा अपनी ढुलमुल नीति से बाज़ नहीं आते तो कश्मीर का एक यूनिट के रूप में बचे रहना संदिग्ध हो जाएगा.
उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता . लेकिन १९५३ के बाद यह हालात भी बदल गए. . बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त की गयीऔर शेख अब्दुल्ला को ९ अगस्त १९५३ के दिन गिरफ्तार कर लिया गया.उसके बाद तो फिर वह बात कभी नहीं रही. . अपने अंतिम दिनों में जवाहर लाल ने शेख अब्दुल्ला से बात करके स्थिति को दुरुस्त करने की कोशिश फिर से शुरू कर दिया था. ६ अप्रैल १९६४ को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई. शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया .उन्होंने  कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था . वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले ८ अगस्त १९५३ तक कहा था. नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे.. नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा.. शेख गए . लेकिन और २७ मई १९६४ के ,दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थेजवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई.और कोशिश स्थगित कर  दी गयी 

कश्मीर की समस्या में इंदिरा गाँधी ने एक बार फिर हस्तक्षेप किया , शेख साहेब को रिहा किया और उन्हें सत्ता दी. . उसके बाद जब १९७७ का चुनाव हुआ तो शेख अब्दुला फिर मुख्य मंत्री बने . उनकी मौत के बाद उनके बेटे फारूक अब्दुल्ला को मुख्य मंत्री बनाया गया. लेकिन अब तक इंदिरा गाँधी बहुत कमज़ोर हो गयी थीं ,. अपने परिवार के करीबी , अरुण नेहरू पर वे बहुत भरोसा करने लगी थीं, . अरुण नेहरू ने जितना नुकसान कश्मीरी मसले का किया शायद ही किसी ने नहीं किया हो . उन्होंने डॉ फारूक अब्दुल्ला से निजी खुन्नस में उनकी सरकार गिराकर उनके बहनोई गुल शाह को मुख्यमंत्री बनवा दिया . यह कश्मीर में केंद्रीय दखल का सबसे बड़ा उदाहरण माना जाता है . हुआ यह था कि फारूक अब्दुल्ला ने श्रीनगर में कांग्रेस के विरोधी नेताओं का एक सम्मलेन कर दिया .और अरुण नेहरू नाराज़ हो गए . अगर अरुण नेहरू को मामले की मामूली समझ भी होती तो वे खुश होते कि चलो कश्मीर में बाकी देश भी इन्वाल्व हो रहा है लेकिन उन्होंने पुलिस के थानेदार की तरह का आचरण किया और सब कुछ खराब कर दिया .
ऐसा बार बार हुआ है लेकिन आज बात बहुत ही संजीदा है.आज फिर कश्मीर का मामला एक दोराहे पर आ गया है . केंद्र सरकार पर ज़िम्मा है कि मामले को संभाले . इस मामले पर किसी को राजनीतिक  तिकड़म नहीं करना चाहिए और कश्मीर में भारत की शान को बनाये रखने के लिए  कोशिश की जानी चाहिए .

Sunday, June 17, 2018

जब जब महंगाई को गंभीरता से नहीं लिया गया तब तब सरकारें बदल दी गयी हैं .



शेष नारायण सिंह 
जब राजनीतिक दल  विपक्ष में होते हैं तो उनको चारों तरफ महंगाई ही दिखती है लेकिन सत्ता में आने के बाद जब उनके नेता सरकार बन जाते हैं तो महंगाई की बात अकादमिक  तरीकों से करने लगते हैं . यह नियम  अपने देश में हमेशा से ही लागू है. जब आज की सरकारी पार्टी को संसद में मुख्य  विपक्षी पार्टी होने का  रूतबा हासिल था तो इसके नेताओं के महंगाई को  फोकस में रखकर दिए गए  भाषण बहुत ही आकर्षक शब्दावली और बहुत ही सही आंकड़ों से भरपूर होते थे . लेकिन सरकार में आने के बाद वे नेता महंगाई की बात नहीं करते. उन नेताओं की कृपा से  दिल्ली के जीवन को सुर्खरू बना रहे पत्रकार भी आजकल महंगाई की बात उस तरह से नहीं करते  जैसे उस समय किया करते थे. अब अगर किसी कारण से सरकारी पार्टी के नेताओं को पत्रकार वार्ता या संसद में महंगाई पर बात करने के  लिए मजबूर होना पड़ा तो  वे महंगाई के अर्थशास्त्र की व्याख्या करने लगते हैं और  यह साबित करने की कोशिश करते  हैं कि पिछली सरकार में भी महंगाई थी और कुछ अति उत्साही नेता और उनके समर्थक पत्रकार तो यहाँ तक साबित करने की कोशिश करते हैं कि मंहगाई के मूल कारण को तलाशने के लिए जवाहरलाल  नेहरू की गलत नीतियों  को ज़िम्मेदार ठहराना पडेगा . यह देश  और समाज का दुर्भाग्य है कि राजनेता गरीब और साधारण वर्ग के लोगों की परेशानी को तर्क की शक्ति से रफा दफा करने की विलासिता करते रहते हैं .

आम तौर पर सरकारें  महंगाई पर बात करने से बचती हैं . मौजूदा सरकार भी महंगाई को गंभीरता से नहीं ले रही है. जो सरकारें गरीब आदमी की मजबूरियों को दरकिनार करती हैं ,वे चुक जाती हैं . यह गलती पिछले ज़माने में कई सरकारें कर चुकी हैं और नतीजा भोग चुकी हैं . जनता पार्टी १९७७ में सत्ता में आई थी . पार्टी क्या थी ,पूरी शंकर जी की बारात थी. भांति भांति के नेता शामिल हुए थे उसमें. इसमें दो राय नहीं कि इंदिरा गाँधी के कुशासन के खिलाफ जनता पार्टी को चुनकर  आम आदमी ने अपना राजनीतिक जवाब दिया था . लोकशाही पर मंडरा रहे खतरे को जनता ने उस वक़्त तो निर्णायक शिकस्त दी थी लेकिन सरकार से और भी बहुत सारी उम्मीदें की जाती हैं . जनता पार्टी के मंत्री लोग यह मान कर चल रहे थे कि अब इंदिरा गाँधी की दुबारा वापसी नहीं होने वाली है इसलिए वे आपसी झगड़ों में तल्लीन हो गए. उसमें शामिल समाजवादियों ने सोचा कि जनता पार्टी में भर्ती हुए जनसंघ( आज की भारतीय जनता पार्टी ) के नेताओं को मजबूर किया जाए कि वे आर एस एस से अलग हो जाएँ जबकि जनसंघ वाले सोच रहे थे कि गाँधी हत्या में फंस जाने के कारण लगे कलंक को साफ़ कर लिया जाए . हालांकि सरकारी जाँच और बाद की अदालती कार्यवाही के बाद साफ हो गया था कि महात्मा गांधी की हत्या में आर एस एस का डाइरेक्ट इन्वाल्वमेंट नहीं था लेकिन उसके सबसे बड़े नेता, एम एस गोलवलकर की गिरफ्तारी तो हुयी ही थी और उसके चलते देश की अवाम में उस संगठन के  पार्टी एक राय तो बन ही  चुकी थी. जनसंघ को आर एस एस की राजनीतिक शाखा माना जाता था . बताते हैं कि उस दौर के आर एस  एस और जनसंघ के नेताओं की इच्छा थी कि जनता पार्टी की जनमानस में स्वीकार्यता के सहारे अपने को फिर से मुख्यधारा में लाया जाए. उस वक़्त के प्रधानमंत्री , मोरारजी देसाई ने ऐलान कर दिया था कि इंदिरा राज के कूड़े को साफ़ करने के लिए उन्हें १० साल चाहिए और समाजवादी नेता लोग अपनी स्टाइल में लड़ने झगड़ने लगे थे . व्यापारी वर्ग बेलगाम हो गया . दिल्ली में तो ज्यादातर व्यापारी जनसंघ के समर्थक होते थे और कहते हैं कि उसकी  सत्ता में भागीदारी  की वजह से वे खुद ही सरकार बन गए थे और खूब मुनाफ़ा कमा रहे थे . महंगाई आसमान पर पंहुच गयी . इंदिरा गाँधी के सलाहकारों ने माहौल को ताड़ लिया और १९७९ में जब जनता पार्टी टूटी तो महंगाई को ही मुद्दा बना दिया . उस साल प्याज की कीमतें बहुत बढ़ गयी थीं और इंदिरा गांधी के चुनाव प्रबंधकों ने १९७७ के फरवरी माह और १९७९ के नवम्बर माह के प्याज के दामों को एक चार्ट में डालकर पोस्टर बनाया और चुनाव में झोंक दिया . महंगाई जनता की दुखती रग थी और उसने नौकर बदल दिया . जनता पार्टी वाले निकाल बाहर किये गए और इंदिरा गाँधी की सत्ता में वापसी हो गयी. १९८० में चुनाव हार कर लौटे जनता पार्टी के नेता कहते पाए जाते थे कि नयी कांग्रेसी सरकार प्याज के छिलकों के सहारे बनी है और प्याज के छिलकों जैसे ही ख़त्म हो जायेगी. ऐसा कुछ नहीं हुआ और सरकार चलती रही जबकि जनता पार्टी के नेता लोग तरह तरह की पार्टियां बनाते रहे और सब जीरो होने के कगार पर पंहुच गए. 

उसके बाद की सरकारों ने भी महंगाई को सही तरीके से हल करने की कोशिश नहीं की.  जब इंदिरा गांधी की वापसी के बाद सरकार ने काम सम्भाला तो उनके  कुछ मूर्ख मंत्री और नेता कहते पाए जाते थे कि महंगाई अच्छी बात है. इससे पता लगता है कि देश तरक्की कर रहा है. बाद की ज़्यादातर सरकारें महंगाई को तर्कशक्ति से ठीक करने पर ही अमादा रहीं और आम जन  बढ़ती कीमतों की चक्की के नीचे पिसता रहा ,पिसता रहा .
डॉ मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली यू पी ए  सरकारें भी महंगाई को काबू करने में नाकाम रही हैं .लेकिन एक फर्क है . जनता पार्टी के वक़्त में महंगाई इसलिए बढ़ी थी कि सरकार में आला दर्जे पर बैठे नेता लोग गैरजिम्मेदार थे.उनकी बेवकूफी की नीतियों की वजह से महंगाई बढ़ी थी लेकिन यू पी एम के दौर में  मामला बहुत गंभीर था. उस  सरकार में बहुत सारे ऐसे मंत्री थे जिनपर महंगाई बढाने वाले औद्योगिक घरानों के लिए काम करने का आरोप लगता रहता था. महंगाई के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार ईंधन की कीमतों में हो रही वृद्धि होती है . आम आदमी के लिए सबसे दुखद बात यह है कि पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में वृद्धि से जिन वर्गों को सबसे ज्यादा लाभ होता है उनके खिलाफ बोलने की हिम्मत न तो कांग्रेस के किसी मंत्री में थी और  न ही  उस वक़्त की मुख्य  विपक्षी पार्टी के किसी नेता में . आज भी स्थिति वही है . राहुल गांधी तो ऐलानियाँ आरोप लगाते  हैं कि कुछ औद्योगिक समूहों को  लाभ पंहुचाने के लिए सरकार की हर नीति को बनाया जा रहा  है . हालांकि यह भी सच है कि उनकी पार्टी की अगुवाई वाली सरकारों के समय भी उन्हीं औद्योगिक घरानों को लाभ पंहुचाने के लिए  सारे उपक्रम किये जाते थे लेकिन आज की सरकार के सामने उस इतिहास के पीछे छुपने का विकल्प नहीं है .महंगाई को  कम करने के लिए फ़ौरन से पेशतर कोशिश करनी पड़ेगी वर्ना देश के गरीब और मध्य वर्ग की त्योरियों में बल साफ़  नज़र आने लगे  हैं . अगर आज के सत्ताधीशों को  सत्ता में २०१९ के  बाद भी आना  है तो महंगाई को काबू करने की ईमानदार कोशिश करनी पड़ेगी .
आज की स्थिति यह है कि महंगाई कमरतोड़ है और उस से निजात दिलाना सरकार की ज़िम्मेदारी है . अगर ऐसा तुरंत न किया गया तो मौजूदा सरकार का भी वही हाल होगा जो १९७९ में जनता पार्टी की सरकार का हुआ था.देश का दुर्भाग्य यह भी है कि निजी लाभ के चक्कर में रहने वाले नेताओं से ठुंसे हुए राजनीतिक स्पेस में जनता की पक्षधर कोई जमात नहीं है . महंगाई के खिलाफ राजनीतिक आन्दोलन ही नहीं है . २००९ से लेकर २०१४ तक महंगाई के खिलाफ आन्दोलन की अगुवाई कर रही बी जे पी के लगभग सभी बड़े नेता आज सरकार में हैं.  बीजेपी के नेताओं को चाहिए वे उन्हीं पूंजीपतियों की हित साधना न करें हीं जिनकी हित साधना में लगकर कांग्रेस ने अपनी राजनीतिक हैसियत गँवा दी है . गैर बीजेपी और गैर कांग्रेस राजनीति के नाम पर १९८९ से  तीसरे मोर्चे के नाम पर गाहे ब गाहे संगठित होकर  क्षेत्रीय पार्टियों के नेता भी केंद्र की सत्ता में आते रहे हैं . उनके बारे में तो आम धारणा यह है कि वे शुद्ध रूप से लूट मचाने की नीयत से ही दिल्ली आते हैं . वे कभी कांग्रेस के साथ होते हैं तो कभी बी जे पी के साथ लेकिन एजेंडा वही लूट खसोट का ही होता है . स्पेक्ट्रम वाली लूट जिस पार्टी के नेता ने की थी उसकी पार्टी उन दिनों कांग्रेस के साथ थी  लेकिन कभी यही लोग बी जे पी के ख़ासम ख़ास हुआ करते थे. अभी कुछ  साल पहले जिन नेताओं के पास रोटी के पैसे नहीं होते थे वे आज अरबों के मालिक हैं . अफ़सोस की बात यह है कि इन बे-ईमान नेताओं के बारे में कोई निजी बातचीत में भी दुःख नहीं जताता . इस तरह के नेता दिल्ली के लुटियन बंगलो ज़ोन की हर सड़क पर विराजते हैं.  नरेंद्र मोदी ने केंद्र की सत्ता संभालने के बाद कहा  था कि वे दिल्ली को नहीं जानते थे . क्या वे इन लोगों को जान पाए हैं कि नहीं और अगर जान पाए हैं तो इनकी लालच भरी हित साधना पर काबू करके आम जनता को मुंह बाए खडी महंगाई से कब मुक्ति दिलाएंगे. महंगाई पर काबू करना बहुत ही ज़रूरी है .

Wednesday, June 13, 2018

अखिलेश यादव का ' त्याग ' उत्तर प्रदेश में बीजेपी की मुश्किल बढ़ा सकता है .



शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली ,१२ जून .समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने २०१९ में बीजेपी की जीत के सपने को एक ज़बरदस्त झटका दिया है . पिछले कुछ हफ़्तों में उत्तर प्रदेश में चार महत्वपूर्ण उपचुनाव हुए हैं . सभी चुनावों में बीजेपी को अखिलेश यादव की रणनीति के सामने हार का मुंह देखना पड़ा है . चारों ही उपचुनाव महत्वपूर्ण माने जाते हैं . गोरखपुर और फूलपुर में तो राज्य के मुख्यमंत्री ,योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की हार ही मानी जा रही है जबकि कैराना और नूरपुर में हिंदुत्व की राजनीति के कमज़ोर पड़ने के संकेत आ रहे हैं . उन उपचुनावों में हार के बाद बीजेपी के आला नेता इस उम्मीद में थे कि यह झटका अस्थाई है, २०१९ में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का समझौता नहीं होगा . इमकान था कि मायावती और अखिलेश यादव के बीच सीटों की संख्या को लेकर विवाद हो जाएगा और दोनों पार्टियां एकजुट होकर बीजेपी का मुकाबला नहीं करेंगी. अगर ऐसा हुआ तो बीजेपी विरोधी वोटों के बिखराव से नरेंद्र मोदी के अभियान को फायदा होगा और बेडा पार हो जाएगा .

अखिलेश यादव के बयान के बाद उत्तर प्रदेश में बीजेपी विरोधी वोटों के बिखराव की सम्भावना अब बहुत ही कम हो गयी है . मैनपुरी की एक सभा में अखिलेश यादव ने ऐलान कर दिया है कि अगर ज़रूरत पड़ी तो कुछ सीटों का त्याग करके भी सपा-बसपा की एकता को बनाए रखा जाएगा. और २०१९ में राज्य में बीजेपी की हार सुनिश्चित की जायेगी .अखिलेश यादव के इस बयान के साथ ही उत्तर प्रदेश में संयुक्त विपक्ष की सम्भावना बहुत बढ़ गयी है .

बीजेपी विरोधी ताक़तों की एकता में कमजोरी तलाश रही सत्ताधारी पार्टी को मायावती के उस बयान से कुछ उम्मीद बढ़ी थी जिसमें उन्होंने कहा था कि बहुजन समाज पार्टी किसी भी अन्य पार्टी से उसी हालत में सीटों का तालमेल करेगी जब उसके हिस्से में आने वाली सीटों की संख्या सम्मानजनक हो. मायावती के इस बयान के बाद बीजेपी वैकल्पिक रणनीति पर काम करने लगी थी .पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में बीजेपी के कार्यकर्ता बसपा सुप्रीमो के बयान की प्रतियां बांटते देखे भी गए थे लेकिन अखिलेश यादव ने अपने हिस्से की सीटों की कुर्बानी की बात करके बीजेपी के हलकों में फिर से निराशा के भाव जगा दिए हैं.

अखिलेश यादव ने यह कहकर कि राज्य की जनता एकजुट हो गयी है और राजनीतिक पार्टियों के पास एक साथ होकर चुनाव लड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है. एक राजनीतिक सन्देश भी दिया है . अखिलेश यादव ने निषाद पार्टी के नेता संजय निषाद को अपने साथ कर लिया है और उनके बेटे को गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव में सपा उम्मीदवार बनाकर मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के घर में उनको शिकस्त दी थी. अब खबर यह है कि संजय निषाद के साथ सपा गठबंधन बना रहेगा और निषाद पार्टी के अध्यक्ष ने तो यहाँ तक कह दिया है कि उनकी पार्टी को जौनपुर से भी टिकट चाहिए . उन्होंने जौनपुर से अपनी पार्टी के उम्मीदवार के रूप में धनञ्जय सिंह के नाम की घोषणा भी कर दी है .

अखिलेश यादव ने निषाद पार्टी के अलावा , कांग्रेस और अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोकदल को भी साथ ले लिया है . कैराना उपचुनाव में हालांकि उमीदवार मायावती की पसंद की थी लेकिन उसको राष्ट्रीय लोक दल के चुनाव निशान दिया गया था . इस तरह अगर देखा जाए तो उत्तर प्रदेश में ,अपना दल और ओम प्रकश राजभर की पार्टी के साथ गठबंधन कर चुकी बीजेपी को अखिलेश-मायावती गठबंधन से मुश्किलें पेश आ सकती हैं . पिछले दिनों ओम प्रकाश राजभर भी बीजेपी से नाराज़ देखे गए हैं. उनकी नाराज़गी का कारण ऐसा है जिसके गंभीर राजनीतिक परिणाम हो सकते हैं. उन्होंने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ ही मोर्चा खोल दिया था . उन्होंने कहा था कि अगर पिछड़ी जाति के नेता, केशव प्रसाद मौर्य को मुख्यमंत्री बनाया गया होता तो बीजेपी के हाथों फूलपुर और गोरखपुर में उतनी अपमानजनक हार न लगी होती. उनका यह तर्क अगर आगे बढ़ाया गया तो बीजेपी को ज़बरदस्त नुकसान हो सकता है .

कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश में २०१९ के लोकसभा के चुनाव के लिए जो मोर्चेबंदी तैयार हो रही है उसने सताधारी पार्टी की मुश्किलें बढ़ा दी हैं . पार्टी के छुटभैया नेताओं के पार्टी की कमियाँ गिनाने वाले छिटपुट बयानों के मद्दे नजर मोदी के जादू के कमज़ोर होने की संभावना जोर पकड़ रही है . बीजेपी के लिए जीत की संभावना का एक ही सहारा है . ज्यादातर नेता कहते हैं कि उनके पास जीत की निश्चित योजना है और बीजेपी के तत्कालीन महामंत्री और वर्तमान अध्यक्ष , अमित शाह ने जिस तरह से 2014 में उत्तर प्रदेश में जीत का झंडा फहराया था,उसी तरह इस बार भी सफलता उनकी पार्टी की ही होगी.

Thursday, June 7, 2018

किसानों को सत्ताधीशों से अपना हक लेने के किये लामबंद होना पडेगा






शेष नारायण सिंह
मंदसौर के किसानों पर पिछले साल छः जून को गोलियाँ चली थीं और कई नौजवान किसान मार डाले गए थे. उस घटना को एक साल हो गए. पिछले साल भी वारदात के बाद राहुल  गांधी ने  वहां जाने की कोशिश   की थी. लेकिन रास्ते में रोक लिए गए थे. इस बार वहां जाकर उन्होंने भाषण दिया और किसानों के घाव पर मरहम लगाने की कोशिश की. मंदसौर में किसानों की नाराज़गी को लेकर मध्यप्रदेश की राज्य सरकार का रुख हमेशा से ही गैरजिम्मेदाराना रहा है. हालांकि यह भी सच है कि सरकार में बैठे स्थापित सत्ता के आका लोग पूरे देश में किसानों के प्रति देखी जा सकती है .  पूरे देश में किसान आंदोलित हैं . कई जगह तो विरोध बहुत ही उग्र रूप संवेदन हीन आचरण करते हैं . इसके बावजूद भी सरकार और उनकी हर गतिविधि के बारे में खबर देने वाले मीडिया को किसानों के आन्दोलन में केवल वही बात खबर लायक लगती है जिसके कारण अब शहरों में सब्जी और दूध की किल्लत हो जायेगी या कीमतें बढ़ जायेंगीं .  उसको पैदा करने वाले किसान पर क्या गुज़र रही है ,यह बात एकाध चैनलों को छोड़कर कहीं  भी चर्चा का विषय नहीं बन रही है. सरकारी अफसर, मंत्री , सत्ताधारी पार्टियों के नेता जब न्यूनतम समर्थन मूल्य की बात करते हैं तो उनकी शब्दावली बहुत ही तकलीफदेह होती है . उनकी बात इस तर्ज पर होती है कि हमने किसानों को  बहुत अधिक न्यूनतम समर्थन मूल्य दे दिया है . कई बार तो ऐसे लगता है जैसे किसी अनाथ को या भिखारी को कुछ देने की बात की जा रही हो. यह किसान का अपमान है और उसकी गरीबी  का मजाक है . इस प्रवृत्ति को खतम किया जाना चाहिए लेकिन यह उम्मीद करना ठीक नहीं है कि शासक वर्ग इस  संवेदनहीनता से बाज़ आयेगा . वह अपने को दाता समझने लगा है और वह किसान को प्रजा समझता रहेगा . मैंने  सभी पार्टियों के बहुत सारे नेताओं को जनता को प्रजा कहते देखा और  सुना है . यह लोग डेमोक्रेसी को  लोकतंत्र नहीं ,प्रजातंत्र कहते हैं . इस तरह के संवेदनहीन  राजनीतिक नेताओं से सभ्य आचारण की उम्मीद करने का कोई मतलब नहीं है . इसका मतलब यह  नहीं कि इस हालत को दुरुस्त नहीं किया जा सकता है , लेकिन उसके लिए मौलिक रूप से कुछ सोचने की ज़रूरत है .
राजनीतिक नेता और मंत्री जनता के वोट  की मदद से सत्ता पाते हैं . अजीब बात है कि जिस देश में सत्तर प्रतिशत आबादी   किसानों की है वहां यह  सत्ताधीश सबसे ज़्यादा उसी किसान को बेचारा बना देते हैं . इसका कारण यह  है कि सरकार चुनते हुए इस देश में  कहीं भी कोई भी इंसान किसान नहीं रह जाता . वह जातियों में बंट जाता है और  कहीं जाट, कहीं राजपूत,कहीं दलित ,कहीं यादव , कहीं ब्राहमण और भी बहुत सी जातियों में बंट कर वोट देता है. उसके बिखराव का नतीजा यह होता है कि उसके हितों की अनदेखी करके सरकारें उसके वर्ग शत्रु के  हित में काम करती हैं . अभी खबर आई है कि सरकार ने गन्ना किसानों के लिए साढ़े आठ हज़ार करोड़ रूपये के  पैकेज की घोषणा की है . इस खबर को पेश इस तरह से किया जा रहा है जैसे किसानों को उनकी मुसीबत से उबार लिया गया है .सच्चाई यह है यह साढ़े आठ हज़ार करोड़ रूपये वास्तव में चीनी मिल मालिकों के लिए हैं . शायद ऐसा इसलिए है कि चीनी मिल  मालिकों के संगठन  बहुत ही ताकतवर हैं और  वे सरकार पर दबाव डालने की हर तरकीब जानते हैं जबकि किसानों के संगठन संघर्ष के समय तो साथ  रहते हैं लेकिन वोट डालते समय जातियों में बंट जाते हैं .इसलिए वे किसान के रूप किसी भी चुनावी नतीजे को प्रभावित नहीं कर पाते .
किसानों के हित के लिए सरकार में जो भी योजनायें बनती  हैं वे किसानों को अनाज और खाद्य पदार्थों के उत्पादक के रूप में मानकर चलती  हैं . नेता लोग किसान को सम्पन्न नहीं बनने देना चाहते. इस मानसिकता में बदलाव की ज़रूरत है.  किसानों के लिए सबसे बड़ी मुसीबत यह  है कि किसान को उसकी लागत का मूल्य नहीं मिलता . इसका कारण यह है कि किसान के लिए बनी हुयी संस्थाएं  उसको प्रजा समझती हैं . न्यूनतम मूल्य देने के लिए बने संगठन , कृषि लागत और मूल्य आयोग का तरीका वैज्ञानिक नहीं है .वह पुराने लागत के आंकड़ों की मदद से आज की फसल की कीमत तय करते हैं जिसकी वजह से किसान ठगा रह जाता है .फसल बीमा भी बीमा कंपनियों के लाभ के लिए डिजाइन किया गया है .. खेती की लागत की चीज़ों की कीमत लगातार बढ़ रही है लेकिन किसान की बात को कोई भी सही तरीके से नहीं सोच रहा है जिसके कारण इस देश में किसान तबाह होता जा रहा है .सरकारी आंकड़ों में जी डी पी में तो वृद्धि हो रही है जबकि खेती की विकास दर  बहुत कम हैं ,कभी कभी तो नकारात्मक हो जाती हैं . किसानों को जो सरकारी समर्थन मूल्य मिलता है वह भी लागत मूल्य से कम है और ज़्यादातर जिलों में सरकारी खरीद ही नहीं हो रही है . निजी हाथों में फसल बेचने पर जो दाम  मिलता है बहुत कम होता है .

किसानों की सम्पन्नता के लिए कैश क्राप की बातें की गयी थीं . इन फसलों के लिए किसानों को लागत बहुत ज्यादा लगानी पड़ती है . कैश क्राप के किसान पर देश के अंदर हो रही उथल पुथल का उतना ज्यादा असर नहीं पड़ता जितना कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रही अर्थव्यवस्था के उतार-चढाव का पड़ता है . जब उनके माल की कीमत दुनिया के बाजारों में कम हो जाती है तो उसके सामने संकट पैदा हो जाता है .वह अपनी फसल में बहुत ज़्यादा लागत लगा चुका होता है. लागत का बड़ा हिस्सा क़र्ज़ के रूप में लिया गया होता है . माल को रोकना उसके बूते की बात नहीं होती. सरकार की गैर ज़िम्मेदारी का आलम यह है कि खेती के लिए क़र्ज़ लेने वाले किसान को छोटे उद्योगों के लिए मिलने वाले क़र्ज़ से ज्यादा ब्याज देना पड़ता है.एक बार भी अगर फसल खराब हो गयी तो दोबारा पिछली फसल के घाटे को संभालने के लिए वह अगली फसल में ज्यादा पूंजी लगा देता है . अगर लगातार दो तीन साल तक फसल खराब हो गयी तो मुसीबत आ जाती है. किसान क़र्ज़ के भंवरजाल में फंस जाता है . जिसके बाद उसके लिए बाकी ज़िंदगी बंधुआ मजदूर के रूप में क़र्ज़ वापस करते रहने के लिए काम करने का विकल्प रह जाता है . किसानों की आत्म हत्या के कारणों की तह में जाने पर पता चलता है कि ज़्यादातर समस्या यही है . इसलिए ज़रूरी यह है कि सरकार की तरफ से किसानों को जीरो ब्याज दर पर क़र्ज़ देने की व्यवस्था तुरंत कराई जाए .अगर ज़रूरी हो तो क़र्ज़ देने वाली बैंकों को ब्याज की रकम सरकार अदा कर दे . आखिर मलय,मोदी,चौकसी  तो सारा ही हड़प करके बैठे  हैं और सबको मालूम है उनका हड़पा हुआ  धन डूब चुका है .

सच्ची बात यह है  कि जब तक इस देश के किसान खुशहाल नहीं होगा तब तक  अर्थव्यवस्था में किसी तरह की तरक्की के सपने देखना बेमतलब है .इसके लिए जब तक  खेती में सरकारी निवेश नहीं बढाया जाएगाभण्डारण और विपणन की सुविधाओं के ढांचागत निवेश का बंदोबस्त नहीं होगा तब तक इस देश में किसान को वही कुछ झेलना पड़ेगा जो अभी वह झेल रहा है . एक बात बिलकुल अजीब लगती  है कि शहरी मध्यवर्ग के लिए हर चीज़ महंगी मिल रही है जिसको किसान ने पैदा किया है . उस चीज़ को   पैदा करने वाले किसान को उसकी वाजिब कीमत नहीं मिल रही है . किसान से जो कुछ भी सरकार खरीद रही है उसका लागत मूल्य भी नहीं दे रही है .. किसान को उसकी लागत नहीं मिल रही है और शहर का उपभोक्ता कई गुना ज्यादा कीमत दे रहा है. इसका मतलब यह हुआ कि बिचौलिया मज़े ले रहा है . किसान और शहरी मध्यवर्ग की मेहनत का एक बड़ा हिस्सा वह हड़प रहा है.और यह बिचौलिया गल्लामंडी में बैठा कोई आढ़ती नहीं है . वह देश का सबसे बड़ा पूंजीपति भी हो सकता है और किसी भी बड़े नेता का व्यापारिक पार्टनर भी .इस हालत को संभालने का एक ही तरीका है कि जनता अपनी लड़ाई खुद ही लड़े. उसके लिए उसे मैदान लेना पड़ेगा और सरकार की पूंजीपति परस्त नीतियों का हर मोड़ पर विरोध करना पड़ेगा..

लेकिन यह बहुत ही कठिन डगर है . सरकार को किसानों का नुकसान करने से  रोकने के लिए ज़रूरी है कि सरकार को उसकी ज़िम्मेदारी का एहसास कराया जाए . सत्ताधीशों के मन में यह डर पैदा हो कि अगर किसान की अनदेखी की गयी तो सत्ता ही हाथ से निकल जायेगी . इस मकसद को हासिल करने के लिए किसानों को किसान  जाति के रूप में संगठित होना पड़ेगा. किसान को लामबंद होना पडेगा . जो सरकारें अपने मित्र  पूंजीपतियों के लिए बैंकों से बड़ी से बड़ी रक़म क़र्ज़ में लेने के लिए उत्साहित करती हैं और नेता लोग सरकार में रहने पर बाद में उसको माफ़ कर देते हैं या भुला देते हैं लेकिन  किसान के लिए उनके पास  कमाई की कीमत भी उपलब्ध  करवाना संभव नहीं होता . किसान संगठनों को सरकार को मजबूर करना पडेगा कि  खेती में सरकारी निवेश बढाया जाएगाभण्डारण और विपणन की सुविधाओं का पुख्ता इंतज़ाम किया जाए और किसान अपनी फसल का सही दाम ले और किसान को खेती से सम्पन्नता का रास्ता खुले .


Monday, June 4, 2018

उपचुनावों में बीजेपी की हार के बाद सहयोगी दलों के तेवर बदल रहे हैं



शेष नारायण सिंह 

उत्तर प्रदेश और बिहार में बीजेपी उम्मीदवारों की हार के बाद मौसम वैज्ञानिक टाइप नेताओं के यहाँ टोह लेने की गतिविधियाँ शुरू हो गयी हैं. पार्टी के अन्दर और बाहर लोग सवाल पूछ रहे हैं . जो लोग अपने घर के अंदर भी बीजेपी के बड़े नेताओं का नाम लेते समय माननीय जैसे शब्दों का प्रयोग करते नहीं थकते थे ,वे अब बीजेपी को राजनीति के मन्त्र बता रहे हैं . ऐसा लगता  है कि उनके दिमाग में यह बात बैठना शुरू हो गयी है कि बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव लड़ना अब जीत की उतनी बड़ी  गारंटी नहीं है जितनी पहले हुआ करती थी. सहयोगी दलों के नेताओं की तरफ से भी अलग तरह की आवाजें आना शुरू हो गयी है

सबसे ज़बरदस्त आवाज़ बीजेपी के कभी  रुष्टा ,कभी तुष्टा साथी नीतीश कुमार के दरबार से आ रही है .. उनके  पटना आवास पर रविवार को जेडी ( यू) के बड़े नेताओं की एक अहम बैठक हुयी जिसके बाद पार्टी के राष्ट्रीय महसचिव और प्रवक्ता ,के सी त्यागी ने बताया कि लोकसभा चुनाव २०१९ के समय बिहार में एन डी ए को नीतीश कुमार  को पार्टी के चेहरे के रूप में प्रस्तुत करना  चाहिए . नीतीश कुमार की तरफ से यह संकेत आ रहे हैं कि २०१४ और २०१९ के बीच गंगा में बहुत पानी बह गया है . अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर वैसी जीत नहीं दर्ज की जा सकती जो २०१४ में देखी गयी थी. वैसे भी जेडी( यू) के नेताओं को शिकायत है कि दस महीने पहले जब से  नीतीश कुमार ने बीजेपी की कृपा से सरकार बनाई तब से बीजेपी के नेता उनको आवश्यक सम्मान नहीं दे रहे हैं .
यह बीजेपी के लिए बड़ा झटका है क्योंकि बीजेपी पूरे भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर चुनाव लड़ने की योजना पर काम कर रही है .ज़ाहिर है बिहार में भारतीय जनता  पार्टी  नीतीश कुमार को वह वह स्पेस कभी नहीं देगी . जबकि नीतीश कुमार की बात से  साफ़ समझ में आ रहा है कि वे यह सूंघ चुके हैं कि २०१९ में बीजेपी को वैसा बहुमत नहीं मिलने वाला है  जैसा २०१४ में मिला था . उस दशा में विकल्पों की तलाश शुरू होगी . नीतीश कुमार जब बीजेपी के विरोध में थे तब भी वह  कांग्रेस से अलग संभावित  प्रधानमंत्री की बात करते थे और विपक्ष के कई कुछ  दिग्गज  उनके नाम को आगे बढ़ाने की बात करते रहते थे.  नीतीश कुमार को यह भी उम्मीद है कि अगर ज़रूरत पड़ी तो वे विपक्ष की कुछ पार्टियों से  भी सहयोग लेने की स्थिति में रहेंगे .

हालांकि बीजेपी नेताओं का यह कहना है कि नीतीश कुमार का यह रुख  वास्तव में २०१९ में सीटों में ज़्यादा हिस्सा लेने के लिए अपनाया गया है . पार्टी ने फ़ौरन कार्रवाई की और तीश कुमार की महत्वाकान्क्षा पर लगाम लगाने के लिए बीजेपी ने एन डी ए की बैठक बुला  लिया है .अब तक एन डी ए के नेताओं को मौजूदा सरकार में फैसला लेने के मामले में कोई ख़ास अहमियत नहीं दी जा रही थी. यही कारण है कि चन्द्र बाबू नायडू, ,के चंद्रशेखर राव ,शिव सेना आदि की नाराज़गी के मामले सामने आये थे . लेकिन नीतीश कुमार की एक घुडकी के बाद सत्ताधारी गठबंधन में तेज़ी से काम शुरू हो गया  है .
एन डी ए के एक और घटक दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष , ओम प्रकाश राजभर भी बीजेपी को कुछ नया बताने के लिए तैयार नज़र आने लगे हैं . उत्तर प्रदेश में चार विधायकों  वाली इस पार्टी के मालिक  श्री राजभर राज्य में कैबिनेट मंत्री हैं और ओबीसी राजनीति के ज्ञाता बताये जाते हैं . कैराना और नूरपुर की हार के बाद  उन्होने हार के कारणों पर रोशनी डाली .  आप ने  फरमाया कि हार का मुख्य कारण यह है कि पिछड़ी जातियां बीजेपी से बहुत नाराज़ हो गयी हैं क्योंकि पार्टी ने केशव प्रसाद मौर्य को मुख्यमंत्री नहीं बनाया .उनका दावा है कि केशव प्रसाद मौर्य के नाम पर बीजेपी ने विधानसभा चुनाव लड़ा जबकि मुख्यमंत्री किसी और को बना दिया .ओबीसी जातियों में इसके बाद गुस्से की लहर दौड़ गयी और उन्होंने उपचुनावों में बीजेपी को हराकर आपने गुस्से का इज़हार किया .

अपने इस बयान के बाद ओम  प्रकाश राजभर एन डी ए के उन सहयोगी दलों की लाइन पर चल पड़े  हैं जो बीजेपी के काम करने के तरीके से नाराज़ हैं . शिव सेना, तेलुगु देशम, आदि पार्टियों के आलावा बिहार की एक पार्टी के मुखिया और केंद्रीय राज्यमंत्री , उपेन्द्र कुशवाहा भी बीजेपी को  राजनीतिक कौशल की शिक्षा देते पा जा चुके हैं . वे जेल में लालू प्रसाद यादव से मिल भी चुके हैं . राम विलास पासवान ने भी केंद्र सरकार को दलित एक्ट के हवाले से कुछ राजनीतिक  मांगें पेश कर  दी हैं . जाहिर  है कि२०१८ में जगह जगह हुए उपचुनावों की हार के बाद बीजेपी के घटक दलों में  नई मंजिलों की तलाश का सिलसिला शुरू हो चुका है .

Sunday, June 3, 2018

कैराना के नतीजे साम्प्रदायिकता के खिलाफ अवाम का सन्देश हैं .




शेष नारायण सिंह

लोकसभा और विधानसभा के उपचुनावों का एक दौर और  पूरा हो गया.  इस बार भी बीजेपी को इन उपचुनावों में भारी नुकसान हुआ. राजनीतिक  विश्लेषकों में कैराना और नूरपुर के  उपचुनावों  को समझने समझाने का दौर दौरा चल रहा है . जाति के समीकरण सबसे प्रमुख हैं . लेकिन मुझे लगता है कि कैराना चुनाव ने जाति और धर्म के आधार पर चुनाव की व्याख्या को नकार दिया है . कैराना को धार्मिक आधार पर राजनीतिक ध्रुवीकरण की प्रयोगशाला माना जाता है . २०१३ का भयानक दंगा  इसी  इलाके में  हुआ था जिसके बल पर पूरे देश में २०१४ के चुनावों के पहले बहुत बड़े पैमाने पर राजनीतिक ध्रुवीकरण हुआ था. उसी का नतीजा था कि देश भर में धार्मिक बहुसंख्या वाद की राजनीति परवान चढी थी . लेकिन इस बार  बहुसंख्यावाद की राजनीति झटका लगा है .. कैराना और नूरपुर के नतीजों के बाद यह बात बहुत ही  भरोसे के साथ कही जा सकती है कि अभी यह देश धार्मिक बहुसंख्यावाद की राजनीति को स्वीकार नहीं करेगा. जिस राज्य में चुनाव जीतेने के लिए   यह लगभग सभी पार्टियां कहने लगी थीं कि मुसलमानों के पक्षधर के रूप में दिखने से चुनावी नुकसान होता है, उसी राज्य में दो मुस्लिम उम्मीदवारों ने केंद्र और राज्य में सरकार चलाने वाली पार्टी के खिलाफ चुनाव जीतकर  यह साबित कर दिया है कि इस देश में हिन्दू एकता का   नारा देकर सत्ता पर काबिज़ होने का युग अभी नहीं  आया है . २०१३ और २०१४ के बारे में यह बात अब साफ़ तौर पर कही जा सकती है कि वह नार्मल नहीं था, आम जन गाफिल पड़ गया था और जब पता चला कि २०१३ के दंगे को क्यों इतनी व्यवस्था पूर्वक चलाया गया  था, तब तक बहुत देर हो चुकी थी.
२०१४ के लोकसभा चुनाव के पहले देश में बड़े पैमाने पर राजनीतिक शक्तियों का ध्रुवीकरण हो रहा था.  २०१४ के लोक सभा चुनाव के पहले देश के सामने एक नई राजनीतिक बिरादरी तैयार करने की कोशिश की जा रही थी. भारतीय जनता पार्टी के नेता हर कीमत पर राजनीतिक लड़ाई , धार्मिक एकता के आधार पर जीतने की कोशिश कर रहे थे. बीजेपी में वही माहौल था  जो  पार्टी की १९८४ की हार के बाद बना था. उन दिनों हर कीमत पर चुनाव जीतने के लिए पार्टी कमर कसती नज़र आती थी. उसी दौर में बाबरी मस्जिद का मुद्दा पैदा किया गयाविश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को चुनावी संघर्ष का अगला दस्ता बनाया गया और गाँव गाँव में साम्प्रदायिक दुश्मनी का ज़हर घोलने की कोशिश की गयी. नतीजा यह हुआ कि १९८९ में बीजेपी की सीटें बढीं. बाबरी मस्जिद के हवाले से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होता  रहा और बीजेपी एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में स्थापित होती रही  . उस दौर में कांग्रेस ने भी अपने धर्मनिरपेक्ष   स्वरूप से बहुत बड़े समझौते किये . नतीजा यह हुआ कि साम्प्रदायिक शक्तियां बहुत आगे बढ़ गयीं.और धर्मनिरपेक्ष राजनीति कमज़ोर पड़ गयी . उन दिनों लाल कृष्ण आडवाणी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के बहुत ही महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हुआ करते थे १९९० की सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा के बाद तो उन्होंने देश के कई राज्यों में अपनी पार्टी की मौजूदगी सुनिश्चित कर दी थी. २०१३ के मुज़फ्फरनगर दंगे के पहले बीजेपी में वही माहौल बन रहा था और साम्प्रदायिक एजेंडे को आगे करके ही सत्ता हासिल करने की  तैयारी थी. लाल कृष्ण आडवाणी  प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की उम्मीद लगाए हुए थे लेकिन उनके अपने लोगों ने उन्हें पीछे कर दिया .उस समय तक नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में सामने नहीं आये थे लेकिन चर्चा ज़ोरों पर थी . उन दिनों गुजरात के बाहर चुनावों को प्रभावित कर सकने की उनकी क्षमता कुछ ख़ास नहीं थी लेकिन वे आक्रामक हिंदुत्व की राजनीति के नेताओं के प्रिय बन चुके थे . देश में बहुत बड़े पैमाने पर धर्मिक आधार पर राजनीतिक ध्रुवीकरण हो रहा था . धर्मनिरपेक्ष ताक़तों में एकता की बात तो  कहीं थी ही नहीं ज्यादातर पार्टियों को मुगालता था कि वे ही बीजेपी को हरा लेगें . लेकिन जब २०१४ का चुनाव हुआ तो उत्तर प्रदेश में बीजेपी गैर मुस्लिम वोटों के बल पर बहुत ही मजबूती से सत्ता में आ गयी और अपने को उत्तर प्रदेश की राजनीति का नियंता समझने वाली पार्टियां बुरी तरह से हार गईं .
कैराना और नूरपुर उपचुनावों का महत्व  इसलिए भी है कि २०१३ के पहले और उसके बाद देश में जो साम्प्रदायिक माहौल इसी इलाके की घटनाओं के एतबार से बनाया गया था उसको इसी ज़मीन पर न केवल चुनौती दी गयी ,बल्कि उसको हरा भी दिया गया .  इस चुनाव में उत्तर प्रदेश के नए नेता, अखिलेश यादव की राजनीतिक सोच की क्षमता का भी इम्तिहान हुआ . सबको मालूम है कि फूलपुर और गोरखपुर उपचुनावों के पहले  उन्होंने ही बहुत सारी अडचनें तोड़कर मायावती से समझौता किया था और समाजवादी पार्टी के साथ बहुजन समाज  पार्टी के जनाधार को  जोड़ दिया था. नतीजा यह हुआ कि राज्य के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री की सीटों से बीजेपी के उम्मीदवार हार गए थे. कैराना और फूलपुर में अखिलेश यादव की राजनीतिक समझदारी का असली इम्तिहान हुआ . जहां तक मायावती के साथ चुनाव लड़ने की बात है वह तो ,  फूलपुर और गोरखपुर में तय हो ही गया था , उसको अखिलेश यादव ने राज्यसभा और विधान सभा के चुनावों में और मजबूती प्रदान कर दी .  बीजेपी ने विधायकों में तोड़फोड़ कर के बहुजन समाज पार्टी के  उम्मीदवार भीमराव आंबेडकर को राज्यसभा में पंहुचने से तो रोक दिया लेकिन अखिलेश  यादव ने जिस तरीके से उनको जिताने के लिए काम किया उससे मायावती प्रभावित हुईं और उन्होंने मीडिया के ज़रिये अखिलेश यादव की तारीफ़ की . उसके तुरंत बाद हुए विधानपरिषद के चुनावों में उन्होंने भीमराव आंबेडकर को जिताकर उस विश्वास को और पुख्ता कर दिया .  मायावती के साथ उनका विश्वास का रिश्ता बन चुका था  इसलिए जब उन्होंने मायावती के सामने अजित सिंह और जयंत चौधरी को साथ लेने की राजनीतिक महत्ता की बात की तो  उनका विश्वास किया गया और कैराना से तबस्सुम बेगम को आजित सिंह की पार्टी की  उम्मीदवार बना दिया गया .
तबस्सुम बेगम को उम्मीदवार बनाकर अखिलेश यादव ने बड़ा रिस्क  लिया था . जिस इलाके में अभी एक साल पहले तक मुसलमान से दूरी बनाकर  रखना चुनाव  जीतने के  लिए ज़रूरी माना जाता था , वहीं पर मुसलमान उम्मीदवार को उतारना निश्चित रूप से अन्दर की राजनीतिक मजबूती का लक्षण है . नतीजे आने के बाद सभी कह  रहे हैं लेकिन उसके पहले यह  बात नहीं थी. बहरहाल उपचुनाव के  नतीजों ने एक बार फिर साबित कर दिया  है कि देश अभी बहुसंख्यवाद की राजनीति को अपनाने को तैयार नहीं है . चुनावों के नतीजों के मतप्रतिशत को देखने से समझ में आ जाता  है कि कैराना और नूरपुर में जनता ने सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ वोट दिया है . नूरपुर में  समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार नईम उल हसन को पचास  प्रतिशत वोट मिले  जो  क्षेत्र की मुस्लिम आबादी से   बहुत ज़्यादा  है .यह इस बात का संकेत है कि धर्म की राजनीतिक करने वालों के हाथ निराशा लगी है .   . सत्ताधारी पार्टी की तरफ से २०१३ के दंगों, अलीगढ में जिन्ना  का तस्वीर और अन्य बहुत सारे मुद्दे उछाले  गए लेकिन सभी बेअसर रहे . किसानों की समस्याओं पर सत्ताधारी पार्टी से सवाल पूछे गए ,  नौजवानों की नौकरियों के बारे में सवाल पूछे गए और दुनिया जानती है कि इन  मुद्दों पर सरकार के पास कोई जवाब  नहीं है. आम आदमी के सवालों पर जब जनता एकजुट होती है तो देश की आज़ादी की बुनियादों पर बन रही इमारत और भी मज़बूत होती है . और सभी जानते हैं कि महात्मा गांधी ने शुरू में ही स्पष्ट कर दिया था कि देश में सामाजिक एकता होगी तभी देश का विकास होगा .