Friday, August 30, 2013

नार्वे के चुनाव में यूरोपियन यूनियन और प्रवासी अल्पसंख्यक भी मुद्दा हैं




शेष नारायण सिंह

ओस्लो, २८ अगस्त. नार्वे के चुनाव में नेता भी आम आदमी की तरह रहते हैं . भारत से आये किसी रिपोर्टर के लिए यह सुखद तो है ही लेकिन एक पछतावा भी है कि काश हमारे नेता भी ऐसे होते. शहर के पूर्वी इलाके में आयोजित एक चुनावी सभा में सत्ताधारी लेबर पार्टी का नेता हाफ पैंट पहनकर अपनी साइकिल से आया और हाथ में एक चाकलेट का बार भी था क्योंकि खाने का मौक़ा नहीं मिला था. सत्ताधारी गठ्बंधन की पार्टी सोशलिस्ट लेफ्ट पार्टी की ओस्लो नगर की सबसे महत्वपूर्ण नेता , इन्गुन येरास्ता , मीटिंग शुरू होने के पहले गेट पर खड़े होकर आने वालों से गप्प मार रही थी, .आज की मीटिंग इस इलाके में पर्यावरण की निगरानी रखने वाले एन जी ने किया था और सभी पार्टियों के नेताओं को बुलाया गया था .सभी पार्टियों के नेता समय से पहले हाज़िर थे और एन जी ओ ने शुरुआती वक्तव्य के लिए सबके लिए तीन मिनट का समय तय कर दिया था और समय पूरा होने पर घंटी बजती थी और नेता लोग चुप हो जाते थे .
मीटिंग शुरू होने के पहले आयोजकों  की तरफ से तैनात माडरेटर ने साफ़ बता दिया था कि सारी चर्चा पर्यावरण और सार्वजनिक यातायात की सुविधाओं पर केंद्रित रहेगी. शुरुआती वक्तव्य के बाद लोगों को सवाल पूछने की अनुमति दी जायेगी लेकिन सवाल पूछने वाले केवल सवाल पूछेगें अपनी राय नहीं देगें . सवाल सीधे और डायरेक्ट होने चाहिए . यह भी बताया गया कि मीटिंग के दौरान अगर  कोई आग वगैरह लग जाए तो बाहर जाने का रास्ता किधर से है. इस मीटिंग में लेबर पार्टी के यान ब्योलर और सोशलिस्ट लेफ्ट पार्टी की इन्गुन येरास्ता भी उपस्थित थे . यह अपनी पार्टियों के बड़े नेता हैं . मुख्य विपक्षी दल होयरे की तरफ से निकोलाई आस्त्रुप आये थे जो मामूली स्तर के नेता हैं . होयरे यानी कंज़रवेटिव पार्टी को इस इलाके से किसी खास समर्थन की उम्मीद नहीं है शायद इसलिए उन्होने किसी बड़े नेता को नहीं भेजा था  . नार्वे के चुनाव में शामिल सभी पार्टियों के प्रतिनिधि आये थे और अगर किसी मुद्दे पर सवाल को टालने की कोशिश करते थे तो माडरेटर तुरंत टोक देता था. एक भारतीय के रूप में हमारे लिए यह अहम नहीं है कि लोकल मुद्दों पर किसने क्या कहा लेकिन यह अहम है कि चुनाव के पहले  होने वाली  बैठकों में भी  हर स्तर पर लोकतंत्र का ध्यान रखा जाता है .
सत्ताधारी गठबंधन को शुरुआती सर्वेक्षणों में बहुत कम समर्थन मिलता बताया जा रहा था लेकिन अब हालात सुधर रहे हैं और सोशलिस्ट लेफ्ट और लेबर पार्टी ,दोनों की स्वीकार्यता बढ़ रही है. इसलिए  यहाँ के राजनीतिक पर्यवेक्षकों को अब लगने लगा है कि शायद मौजूदा गठबंधन ही सत्ता पर बना रहे. इसलिए गठबंधन की प्रमुख नेता और ओस्लो इलाके से स्तूर्तिंग ( संसद ) पंहुचने की प्रबल दावेदार  इन्गुन येरास्ता से अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर बात करने की कोशिश की गयी . ओस्लो इलाके से उनकी पार्टी ने चार उम्मीदवार उतारे हैं . आनुपातिक प्रतिनिधित्व के नियम के अनुसार २००५ के चुनाव में सोशलिस्ट लेफ्ट को ओस्लो से ३ सीटें मिली थीं जबकि २००९ में २ सीटें मिलीं थीं . इस बार भी पार्टी कम से कम दो सीटों की उम्मीद कर रही है . पार्टी के लिस्ट में इन्गुन येरास्ता  का नाम दूसरी जगह पर है इसलिए उनकी संसद पंहुचने की संभावना बहुत ज्यादा है. जब उनको बताया गया कि चुनावी सर्वे में तो उनकी पार्टी को पिछडता हुआ  दिखाया गया है तो उन्होंने कहा कि इन सर्वेक्षणों का विश्वास मत कीजिये . यह सारे सर्वे टेलीफोन से बात करके किये जाते हैं और उनकी पार्टी का समर्थन मूल रूप से  प्रवासी समुदाय में है . दक्षिण अमरीका और अफ्रीका से आये लोगों में उनकी पार्टी की मज़बूत ताक़त है और कोई भी सर्वे वाला इन लोगों  को फोन पर संपर्क ही नहीं करता . इसलिए किसी भी चुनाव में चुनाव पूर्व सर्वे करने वाले नतीजों के आसपास भी नहीं पंहुचते . उनकी इस बात से अपने देश के चुनावी पंडितों की याद आ गयी . वे भी तो टी वी स्टूडियो में बैठे ज्ञान देते रहते हैं और नतीजा  उनके ज्ञान से  बिलकुल अलग होता है .उन्होंने बताया कि अल्पसंख्यकों और प्रवासियों में उनकी पार्टी की ताक़त ज्यादा है .सोशालिस्ट लेफ्ट पार्टी ने ओस्लो क्षेत्र से तीसरे नंबर पर ब्राजील मूल की ओलिविया सेलेस  और चौथे नंबर पर मोरक्को के यासीन एजारी को टिकट दिया है . इन दोनों के जीतने की उम्मीद नहीं है क्योंकि पार्टी दो सीटों से ज्यादा की उम्मीद नहीं रख रही  है  . लेकिन लिस्ट में इन दो समुदायों के उम्मीदवार होने का फायदा यह है कि इन की कम्युनिटी के लोग  पार्टी को वोट देगें . मुझे लगा कि जातिवाद की राजनीति के दूसरे रूप में यहाँ भी मौजूद है .
इन्गुन येरास्ता ने बताया कि नार्वे में बजट का एक प्रतिशत विदेशी सहायता के लिए  दिया जाता है . जिस से अफ्रीका और एशिया के देशों में  गरीबी और स्वास्थ्य की समस्याओं से जूझ रहे लोगों को ताक़त मिलती है लेकिन मुख्य विपक्षी पार्टी ,होयरे ,उसको खत्म कर देना  चाहती है . उसके सहयोगी एफ आर पी वाले तो अश्वेत लोगों के प्रति सौतेला व्यवहार अपनाने की राजनीति कर रहे हैं . उन्होंने कहा कि इतने पुरातनपंथी और पिछड़े हुए लोग हैं फिर भी यह पता नहीं क्यों एफ आर पी वाले अपने आप को प्रोग्रेसिव पार्टी कहते हैं . उन्होंने कहा कि नार्वे की सम्पन्नता से इंसानी बिरादरी को लाभ मिलना चाहिए और इसके लिए सबको तरक्की में शामिल करके ही रास्ता निकलेगा.
अपने देश में भी ट्रेड यूनियन अधिकारों को मज़बूत करने की उनकी राजनीति  उनकी पार्टी को देश के शहरी इलाकों  तक ही सीमित रखती है. उनकी पार्टी को डर है कि कंज़रवेटिव पार्टी के नेता यूरोपियन यूनियन  में बढ़ रहे बेरोजगार लोगों की संख्या से चिंतित है लेकिन उसके बाद भी ट्रेड यूनियन अधिकारों की रक्षा की जानी चाहिए .उनकी पार्टी यूरोपियन यूनियन की नार्वे की सदस्यता का विरोध करती रही है . उनका मानना है कि नार्वे अगर यूरोपियन यूनियन का सदस्य होता तो यह परेशानी नहीं होती . लेकिन फिर भी वर्कर को सम्मान मिलना चाहिए . अगर एफ आर पी की चली तो नार्वे के जो नागरिक अश्वेत हैं तो वेह तबाह हो जायेगें और स्वीडन आदि जैसे देशों से श्वेत लोग आकर नार्वे के रोजगारों पर कब्जा कर  लेगें .जहां तक बाकी दुनिया के देशों से संबंध की बात है नार्वे को अपना स्वतंन्त्र अस्तित्व बनाए रखना चाहिए . इन्गुन येरास्ता से बातचीत के बाद लगा कि वे  बाकी यूरोप की गरीबी इम्पोर्ट करने के खिलाफ हैं लेकिन अपने देश के मजदूरों की ताकत से मज़बूत बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं .

Thursday, August 29, 2013

अकादामिक घेरे में फंसने के बाद एक रिपोर्टर का बयान तहरीरी


शेष नारायण सिंह


कल दोपहर बाद जोस्टाइन से मुलाक़ात हुई .उससे मिलकर बहुत अच्छा लगा . ओस्लो विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्र विभाग में शोध छात्र जोस्टाइन की इच्छा है कि वे भारत की राजनीति के विशेषज्ञ बनें.  अमरीका की तरह ही रिसर्च को इन विश्वविद्यालयों में बहुत ही गंभीरता से लिया जाता है .यूरोप के इन हिस्सों में रिसर्च कोई टाइम पास नहीं होता . अपनी जे एन यू में रिसर्च कर रहे लोगों का काम देख कर थोडा बहुत अंदाज़ तो लग जाता है कि उच्च शोध की दिशा कैसे होती है. लेकिन जिन लोगों ने मेरे पुराने विश्वविद्यालयों में शोध छात्रों की दिनचर्या देखी है  और प्रोफ़ेसर के परिवार के लोगों, उनकी गाय भैंसों में रिसर्च स्कालर को ध्यानमग्न होते देखा है , उनको रिसर्च की गंभीरता समझ में आनी थोड़ी मुश्किल है . यह रिसर्च स्कालर मेरे मुख्य सम्पादाक श्री ललित सुरजन के संपर्क में है और उनकी सलाह पर ही इसने मुझसे मुलाकात की  .  मिलने के पहले जोस्टाइन ने मेरे लिखे के तत्व को समझ रखा था , टेलिविज़न में जो कुछ मैंने अंग्रेज़ी में कहा है, उसके बारे में उसे मालूम था . मैं थोडा सकते में आ गया कि भाई यह और क्या क्या जानता है . बहरहाल मुझसे प्रभावित नज़र आया इसलिए लगा कि अच्छी बातें ही जानता है . अपने प्रोफ़ेसर से भी मिलाएगा और दक्षिण भारतीय राजनीति के छात्रों से भी . मैंने जब बताया कि मैं तो एक मामूली रिपोर्टर हूँ ,  बुद्धिजीवी नहीं हूँ . तो उसने भरोसा दिलाया कि चिंता न करें , आप जो बातें मुझसे इम्पिरिकल अनुभव के आधार पर कर रहे हैं , वह यहाँ दूर देश में बैठे हुए  छात्रों के लिए बहुत उपयोगी होंगी. अब हाँ तो कर दिया है आगे जो होगा देखा जाएगा.

Wednesday, August 28, 2013

ओस्लो का नैशनल थियेटर साहित्यिक इतिहास का केन्द्र भी है


शेष नारायण सिंह

ओस्लो,२७ अगस्त . किसी भी शहर के सामाजिक जीवन में किसी थियेटर का कितना महत्व हो सकता है , वह ओस्लो के  नैशनल थियेटर के आसपास की ज़िन्दगी को देखकर समझा जा सकता है . यहाँ पार्लियामेंट बिल्डिंग , ग्रैंड होटल, ओस्लो विश्वविद्यालय का पुराना हाल सबकुछ इसी के आस पास है . नया ओस्लो विश्वविद्यालय तो थोड़ी दूर पर है जैसे मुंबई विश्वविद्यालय की पुरानी बिल्डिंग दक्षिण मुंबई वाली इमारत मानते हैं लेकिन पढाई लिखाई से सम्बंधित अधिकतर काम अब कलीना कैम्पस में होते है .हम दिल्ली में पार्लियामेंट के आसपास की  दो किलोमीटर तक की इमारतों का पता भी संसद भवन के हवाले से बताते हैं लेकिन यहाँ जब मैंने पूछा कि  पार्लियामेंट बिल्डिंग कहाँ है तो बताया गया कि नैशनल थियेटर के बिलकुल करीब है . इसके पास ही राजा का महल है और थोड़ी दूर पर ही  इब्सेन म्यूज़ियम , नोबेल शान्ति पुरस्कार का मुख्यालय ,समुद्रतट आदि हैं लेकिन ओस्लो के रहने वाले सभी इमारतों पता नैशनल थियेटर  के सन्दर्भ से ही बताते हैं .
शेक्सपीयर के किंग लियर का यहाँ आजकल मंचन चल रहा है . लेकिन कई दिनों तक की टिकट बिक चुकी है . अजीब लगा क्योंकि अपने दिल्ली में तो ज़्यादातर नाटक देखने वाले मुफ्त पास के इंतज़ार में रहते  हैं और अगर कोई टिकट लेने पंहुचता है तो आयोजक खुश हो जाते हैं . इसके बाद नार्वेजी समाज से नाटक के सम्बन्ध और नैशनल थियेटर के महत्व जानने की उत्सुकता हुई .उसी उत्सुकता का नतीजा है यह छोटी सी रिपोर्ट .
नैशनल थियेटर के रूप में इस  संस्था  का उदघाटन करीब ११४ साल  पहले १ सितंबर  १८९९ के दिन हुआ था . उसके बाद तीन दिन लगातार यहाँ तीन महान साहित्यकारों के नाटकों का मंचन हुआ .सबसे पहले लुडविग होल्डबर्ग की कुछ चुनिन्दा कृतियों का नाट्य रूपांतर , उसके बाद हेनरिक इब्सेन के ‘ इंसान के दुश्मन ‘ और तीसरे दिन ब्योर्नसन के नाटक का मंचन हुआ . इन तीनों ही महापुरुषों की मूर्तियां नैशनल थियेटर के कैम्पस में लगी हुई हैं . थियेटर की मौजूदा बिल्डिंग की डिजाइन हेनरिक बुल नाम के एक आर्किटेक्ट ने तैयार किया था .
हेनरिक इब्सेन के नाटकों का तो नैशनल थियेटर को नैहर ही माना जाता है . वे रोज ही इसके आस पास देखे जाते थे .आधुनिक थियेटर के संस्थापकों में से एक इब्सेन को वस्तुवादी नाटकों की परंपरा का जनक कहा जाता  है . उनके नाटकों ब्रैंड, एन इनमी आफ द पीपुल, ए डॉल्स हाउस , घोस्ट, और मास्टर बिल्डर का दुनिया भर में बार बार मंचन हुआ है .बीसवी सदी में ‘ए डॉल्स हाउस ‘ नाटक दुनिया के बहुत सारे शहरों में कई कई बार मंचन हुआ है और वह एक तरह से विश्व रिकार्ड है .
इब्सेन को यूरोपीय साहित्य में एक मूर्तिभंजक रचनाकार के रूप में जाना जाता है . अपने समकालीन साहित्यकारों की साँचाबद्ध सोच को उन्होंने चुनौती दी. शालीनता और पारिवारिक जीवन की भद्र्जनोचित व्याख्या को उन्होंने सिर के बल खड़ा कर दिया और आपने समकालीन समाज को ललकारा कि वह वास्तविकता की ज़मीन पर आये और आभिजात्य के फसाड  को अलविदा कहे.  नैतिकता को लागू करने की आदर्शोन्मुखी अवधारणा को इब्सेन ने कहीं का नहीं  छोड़ा और नार्वे में सामाजिक परिवर्तन के लिए चल रही सामूहिक इच्छा को हवा दी. इसी काल में आस्ता हंसतीन भी मानवीय संबंधों की मर्द्वादी व्याख्या को झकझोर रही थीं और महिलाओं के अधिकारों को आदर्श के ढर्रे पर डालने के पुरातनपंथी समुदाय की मान्यताओं को दफन करने की तैयारी कर रही थीं . उन्होंने स्त्री को  सामान मानने की  विचारधारा को इतनी बार झकझोरा की नार्वेजी समाज में लोग इब्सेन के नाटकों से अपने को जोड़कर देखने के लिए मानसिक रूप से तैयार हो चुके थे . इस दौर में नैशनल थियेटर में बीसवीं सदी की शुरुआत में खेले गए इब्सेन के नाटकों ने आग में घी का काम किया . १९१३ में जब नार्वे में महिलाओं को वोट देने का अधिकार मिला तो आस्ता हंसतीन और इब्सेन इस दुनिया में नहीं थे , कुछ ही साल पहले उनकी मृत्यु हो चुकी थी लेकिन उसका जश्न इसी नैशनल थियेटर के कैम्पस में ही मनाया गया था और इब्सेन और आस्ता हंसतीन को याद किया गया था . कृतज्ञ समाज ने इब्सेन के किराए के घर से नैशनल थियेटर और उसके आसपास तक के जिन रास्तों को इब्सेन अपनाया करते तह, वहाँ  उनके नाटकों की कुछ लाइनें पत्थर में जड़कर लगा दी हैं . हालांकि यह कहने वालों की भी कमी नहीं थी कि हेनरिक इब्सेन को बाद के नार्वेजी समाज और राज्य ने इतना महत्व इसलिए दिया कि उनका बेटा देश का प्रधानमंत्री बन गया था. लेकिन यह बात उसी समय खारिज कर दी गयी थी. हेनरिक इब्सेन का प्रभाव बाद के महान नाटककारों , जार्ज बर्नार्ड शा , ओस्कर वाइल्ड, आर्थर मिलर और यूजीन ‘ओ नील पर साफ़ देखा गया है .
नैशनल थियेटर के उद्घाटन के समय ब्योर्नसन के काम को भी नाटक के रूप में पेश किया गया था . उन्होने १९०३ का साहित्य का नोबेल जीता था . वे नार्वे के चार महान लेखकों में शुमार हैं . बाकी तीन हैं हेनरिक इब्सेन,जोनल लाइ और अलेक्जेंडर कीलैंड . यह नार्वेजी राष्ट्रगान के रचाकार भी हैं.
नैशनल थियेटर के कैम्पस में तीसरे महान नार्वेजी साहित्यकार की मूर्ति लुडविग होलबर्ग की है . उन्हें लेखक ,दार्शनिक, इतिहासकार और नाटककार के रूप में जाना जाता है .. उनको आधुनिक नार्वेजी और डैनिश साहित्य का संस्थापक  माना जाता है

Tuesday, August 27, 2013

अमरीकी साम्राज्यवाद का डर दिखाकर इस्लामी देशों में औरतों के प्रति हो रही ज्यादती को सही ठहराने की कोशिश



शेष नारायण सिंह 
ओस्लो,२६ अगस्त. ओस्लो विश्वविद्यालय के धार्मिक अध्ययन विभाग में आज आस्ता हँसतीन  स्मारक व्याख्यान का आयोजन किया  गया . २०११ में शुरू हुए इस लेक्चर का महत्व इसलिए है कि वह आस्ता हँसतीन के नाम पर है . आस्ता हँसतीन नार्वे और यूरोप में महिला अधिकारों  की क्रांतिकारी नेता के रूप में जानी  जाती हैं . नार्वे में महिलाओं को वोट देने का अधिकार सबसे पहले मिला था . १९१३ में मिले इस अधिकार की सौंवी वर्षगाँठ पूरे नार्वे में मनाई जा रही है.हालांकि वे खुद १९०८ में ही मर गयी थीं इसलिए अपनी मेहनत के नतीजों को देख नहीं पाईं .इस साल का लेक्चर दक्षिण अफ्रीका के केप टाउन विश्वविद्याला की सहायक प्रोफ़ेसर सादिया शेख ने दिया . समझ में नहीं आया कि इतने बड़े लेक्चर के लिए सादिया शेख को क्यों  बुलाया गया था क्योंकि उनका अकादमिक स्तर बहुत ही मामूली था और उन्होंने इस्लामोफोबिया के हवाले से ऐसी बहुत सी बातें स्थापित करने की कोशिश की जो इस्लाम में महिलाओं के साथ हो रहे आचरण को बिलकुल सही ठहराने की कोशिश थी और इस्लामी मुल्कों  में जो महिलायें अपनी तकलीफों  को आत्मकथा के रूप में लिख रही हैं उस सारे को अमरीकी साम्राज्यवाद की ओर से प्रायिजित बताकर यह साबित करने की कोशिश की कि इस्लाम में माहिलाओं को जो अधिकार मिले हुए हैं वे बहुत ही काफी हैं .
ओस्लो विश्वविद्यालय में अकादमिक धर्मशास्त्र  विभाग की स्थापना के दो  सौ साल पूरे होने पर २०११ में आस्ता हँसतीन स्मारक व्याख्यान माला की शुरुआत की गयी थी.  इस साल का भाषण भारतीय मूल की सादिया शेख ने दिया . सादिया दक्षिण अफ्रीका में उन लोगों की वंशज हैं जो महात्मा  गांधी के साथ दक्षिण अफ्रीका में आज के सौ साल पहले लाठी गोली खा रहे थे . सादिया ने अपना भाषण एलिजाबेथ कैस्टेली और इब्न अरबी के हवाले से शुरू किया और इतने प्रतिष्ठित भाषण को आधे घंटे में निपटा दिया . उन्होंने इब्न अरबी के अलफुतूहात अलमक्किया का कई बार उल्लेख किया और श्रोताओं  को आठ सौ साल पुराने ज्ञान को आधुनिक सन्दर्भ में इस्तेमाल करने के उपदेश दिया . इबन अरबी १२४० इस्स्वी में इंतकाल फर्मा गए तह .बाद में जब सेमीनार हुआ तो हर मुद्दे की पूरी तरह से ढुलाई हो गयी . लेकिन चर्चा में शामिल  लोगों को यह समझ में आ गया कि अमरीकी साम्राज्यवाद के नाम पर किस तरह अल कायदा और उसकी तरह के इस्लाम का प्रचार किया जा रहा  है और उस काम के  लिए बुद्धिजीवी भी तलाश कर लिए गए हैं .

सादिया शेख ने कहा जब से अमरीका ने इस्लाम पर हमला करने की विदेशनीति का पालन शुरू किया है , बाज़ार में बहुत सारी ऐसी आत्मकथाएँ आ गयी हैं जो इस्लामी देशों में महिलाओं की  दुर्दशा का ज़िक्र करती हैं और अपने अमरीकी मालिकों को इस्लामोफोबिया का माहौल बनाने में मदद करती हैं .अमरीका के आतंक पर जारी युद्ध में इन आत्मकथा लिखने वाली मुखबिरों की आपबीती को बहुत बड़े बहाने के रूप में इस्तेमाल किया जाता है .उन्होने आरोप लगाया कि कई बार यह काम पी आर कंपनियों के ज़रिये भी किया जा रहा है ,उन्होंने लगभग सिरे से यह कह दिया कि अमरीका की तरफ से इराक ,अफगानिस्तान या अन्य इस्लामी देशों में युद्ध को सही साबित करने के लिए इन आत्मकथाओं  का इस्तेमाल किया जा  रहा है .अमरीकी मीडिया में इन किताबों में लिखी जानकारी को खूब प्रचारित किया जाता है लेकिन इस्लामी देशों में अमरीका की तरफ से थोपे गए युद्ध  के कारण मरने वाली महिलाओं  का ज़िक्र नहीं होता . मैंने जब उनसे पूछा कि अमरीकी साम्राज्यवाद का तो हर हाल में विरोध किया जाना चाहिए लेकिन  क्या उसका डर दिखाकर इस्लामी  व्यवस्थाओं में औरतों के प्रति हो रही ज्यादती को सही ठहराया जा सकता है . उनके पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं था . बाद में ज़्यादातर विद्वानों ने उनकी बातों को कट्टरपंथी इस्लाम को सही साबित  करने की एक योजना के रूप में स्थापित करने की कोशिश की सादिया शेख की हर मान्यता की धज्जियां उड़ा दी गयीं .

Monday, August 26, 2013

जिस देश में कैबिनेट मंत्री साइकिल पर चलता है और सड़क पर खड़े होकर चुनावी पर्चे बांटता है


शेष नारायण सिंह

ओस्लो,२५ अगस्तनार्वे की संसद के चुनाव के लिए मतदान में अभी दो हफ्ते से ज़्यादा समय बाकी है .अब तक के संकेतों से साफ़ है कि चुनाव में दोनों ही गठबंधनों के बीच कांटे  का मुकाबला होगा, हालांकि शुरुआती संकेत यही था कि  प्रधानमंत्री येंस स्तूलतेंबर्ग की सरकार की विदाई होने वाली थी लेकिन अब कंज़रवेटिव पार्टी पिछड़ रही है क्योंकि उनकी अति पूंजीवादी राजनीति उनको जनकल्याण की योजनाओं से दूर भगा देती है . नार्वे की राजनीति में जनकल्याण और इंसानियत स्थायी भाव के रूप में स्थापित है . जो उसके खिलाफ जाता है वह यहां के आम आदमी से दूर हो जाता है . यह भी सच है कि आठ साल से चली आ रही लेबर गठबंधन की सरकार से लोग परेशान हैं . कंज़रवेटिव पार्टी और उनके साथी प्रोग्रेस पार्टी वालों को शुरू में जनता का समर्थन इसी कारण से मिला था लेकिन अब वह रोज ही कम हो रहा है . यहाँ चुनाव पूरी तरह से लोकतंत्रीय तरीके से ही लड़ा जाता है . अपने देश के बाहुबली और माफिया टाइप नेता कहीं नहीं दीखते .इसलिए जनमत में बदलाव साफ़ नज़र आने लगता है .
नार्वे के  संसद भवन और नैशनल थियेटर के बीच में जो जगह है वहाँ सभी राजनीतिक दलों ने चुनाव प्रचार के लिए बूथ बना रखा है . नौजवान कार्यकर्ता वहाँ चुनावी पर्चे बाँट रहे होते  है . लेबर पार्टी वालों ने गुलाब के फूल में अपना पर्चा लगा रखा है और हर आते जाते को दे रहे है .अपनी बात कहते देखे जा रहे हैं . सोशलिस्ट-लेफ्ट पार्टी के बूथ के सामने जब मैं कार्यकर्ताओं से बात कर रहा था तो  थोड़े सीनियर एक कार्यकर्ता ने समझाना शुरू कर दिया , उन्होंने अपना परिचय दिया तो पता लगा कि वे मौजूदा सरकार के विदेश मंत्रालय में अंतरराष्ट्रीय डेवेलपमेंट के मंत्री हैं .उनका नाम हायिकी होल्मोस है और वे साइकिल से चलते हैं . यह बात भारतीय रिपोर्टर को अजीब लग सकती है क्योंकि यहान तो मंत्री का चमचा अभी चमचमाती  हुई कीमती  कार में चलता है .जब मुझसे बात शुरू की तो सिर पर हेलमेट थी लेकिन जब उनको बताया गया कि मैं भारतीय रिपोर्टर हूँ तो हेलमेट उतारकर मेरे साथ फोटो खिंचाया. सड़क पर खड़े मंत्री को अपनी पार्टी के चुनाव के पर्चे बाँटते मैंने कभी नहीं देखा था इसलिए उनसे प्र्भावित हुआ और बातों बातों  में उनका इंटरव्यू कर डाला.
सोशलिस्ट लेफ्ट पार्टी यानी एस वी की ओर से मौजूदा संसद में ११ सदस्य है . जब उनसे पूछा गया कि क्या इस बार वे २० सीटें जीतने की उम्मीद कर रहे हैं तो उन्होंने कहा कि अभी तो ११ हैं , इस संख्या को बरकरार रखने की कोशिश की जायेगी लेकिन अगर बहुत अच्छा नतीजा आया तो भी १५ से ज़्यादा की उम्मीद बिलकुल नहीं है . सरकार के वरिष्ठ मंत्री के इस बयान के बाद अपने देश के मंत्री बहुत याद आये जो रिज़ल्ट आते वक़्त जब हार रहे होते हैं तो कहते पाए जाते हैं कि अभी शुरुआती रुझान है , अभी थोड़ी देर तक गिनती चलने दीजिए , सरकार तो उनकी पार्टी की ही बनेगी. हायिकी होल्मोस ने बताया कि उनकी सरकार दक्षिणपंथी पार्टियों की राजनीति का विरोध करती है. उनकी सरकार महिलाओं के स्वास्थ्य और उनके अधिकारों के लिए अपने देश में और दुनिया भर में लीडरशिप की भूमिका में रहना चाहती है  . ९ सितमबर के बाद भी लेबर पार्टी की अगुवाई वाले गठबंधन को बहुमत मिलेगा और यह काम सारी दुनिया में जारी रखेगें . लेबर पार्टी के गठबंधन में सेंटर पार्टी भी है जो नार्वे के देहातों में रहने वाले किसानों और मछली पालन करने वालों की लोकप्रिय पार्टी के रूप में जानी जाती है , उस पार्टी ने भी नार्वेजी जीवन मूल्यों की रक्षा की बात की है जबकि विपक्षी पार्टियां ,होयरे यानी  कंज़रवेटिव और एफ आर पी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को मदद करने के लिए मानवता के आदर्शों की परवाह  नहीं कर रहे हैं .

सोशलिस्ट लेफ्ट पार्टी के इस नेता ने कहा कि उनकी पार्टी गरीबी के खिलाफ है और पूरी दुनिया में गरीबी के कारण हो रहे मानवाधिकारों के हनन का विरोध किया जाएगा .उन्होंने कहा कि दुनिया में ऐसे भी देश हैं , जहां माता पिता अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेज पाते बल्कि कूड़ा बीनने के लिए भेज देते हैं  और वे बच्चे अधजली सिगरेट बीनकर उसमें बची हुई तम्बाकू को रिसाइकिल करके बेचते हैं जिससे उनको कुछ खाने को मिल सके . उनकी पार्टी इस अमानवीय काम का हर स्तर पर विरोध करेगी. और गरीबी के खिलाफ पूरी दुनिया में लड़ाई लड़ी जायेगी . गरीबी से ही मानवाधिकारों का हनन होता है. गरीबी बहुत बड़ी बेइंसाफी है .इस बेइंसाफी के लिए पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ज़िम्मेदार है . उन्होंने कहा कि विश्व की अर्थव्यवस्था आज के पचास साल पहले जिस मुकाम पर थी आज उससे पांच गुनी ज़्यादा संपन्न है और आबादी में दुगुनी वृद्धि हुई है . इस तरह हम देखते हैं  कि दुनिया की पूरी आबादी के लिए धन की कमी  नहीं है . ज़रूरत इस बात की है कि उस संपत्ति को ईमानदारी से लोगों तक पंहुचाया जाए. एक राष्ट्र के रूप में नार्वे का यह कर्तव्य है और विपक्ष उसको खत्म करने पर आमादा है . उन्होंने कहा कि नार्वे के लोग मानवाधिकारों की रक्षा का ज़िम्मा अपनी खुशी से अपने ऊपर लेते हैं कोई उन्हें मजबूर नहीं कर सकता . हमें कोशिश करनी चाहिए कि हम पूरी दुनिया में  मुसीबतज़दा लोगों की मदद कर सकें . जबकि प्रोग्रेस पार्टी वाले विदेशी सहायता की राशि में ७ अरब क्रोनर की कटौती करना चाहते  हैं .इसका नार्वे के लोगों  को विरोध करना चाहिए . प्रोग्रेस पार्टी की मांग है कि अफ्रीका में जाने वाली सहायता में एक अरब क्रोनर की कटौती की जाए . अगर ऐसा हुआ तो वहाँ की एन जी ओ को मिलने वाली रकम बंद हो जायेगी. अफ्रीका के ज्यादातर देशों में एन जी ओ की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि उसी के ज़रिये आम आदमी की जायज़ मांगे सरकार तक पंहुचती हैं .प्रोग्रेस पार्टी वाले चाहते हैं कि संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या फंड को  दिया जाने वाला १२० मिलियन क्रोनर भी न दिया जाए . इस धन का इस्तेमाल महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए इस्तेमाल होता है . अगर यह बंद हो गया तो सीधे सीधे अफ्रीका में महिलाओं के मानवाधिकारों को हमला माना जायेगा .जाहिर है कि नार्वे के लोग इस को पसंद नहीं करेगें और अंत में प्रोग्रेस पार्टी और उनके गठ्बंधन की बड़ी पार्टी कंज़रवेटिव पार्टी को सत्ता से बाहर रखेगी
.

सुरेशचंद्र शुक्ल के साथ नार्वे में घूमना हज़रतगंज जैसा लगता है




शेष नारायण सिंह


नार्वे में पंहुचने के साथ ही काम में जुट गया इसलिए एक मिनट के लिए नहीं लगा कि कुछ बदला है. हालांकि यहाँ भी घर से बाहर निकलने पर तो सब कुछ बिलकुल अलग लगता है ,अजनबी शहर बेगाना लगता है लेकिन जो तीन चार रिपोर्टें अब तक लिखी हैं उनको अपने वतन में लोग पसंद कर रहे हैं . खासकर जब आप नार्वेजियन  भाषा न जानते हों .यहाँ का जुगराफिया न जानते  हों और नार्वे के बारे में कुछ भी न जानते हों . लेकिन रिपोर्ट पढकर शक होता है कि किसी जानकार की रिपोर्ट है . यह इसलिए संभव हुआ कि यहाँ रहने वाले मेरे एक मित्र ने बहुत मदद की .उनके कारण ही यह संभव हुआ . मुझ पर लाजिम है कि मैं ओस्लो के अपने दोस्त सुरेश चन्द्र शुक्ल के व्यक्तित्व के बारे में  कुछ बताऊँ .

२० अगस्त को मैं ओस्लो  पंहुचा था और २१ अगस्त को सुरेश चन्द्र शुक्ल ने मुझे काम पर लगा दिया . मेरे घर के पास के मेट्रो स्टेशन पर मिल गए और मुझे साथ लेकर एक चुनावी सभा में चले गए . उसके पहले अपने घर ले गए थे . वाइतवेत के उनके घर में एक मिनट के लिए भी नहीं लगा कि किसी पराये देश में हैं . हालांकि मैं खाना खाकर गया था लेकिन जब उन्होंने  बिना मुझसे पूछे और बिना किसी पूर्व सूचना के भोजन पर आमंत्रित कर दिया तो मुझे लगा कि अपनी अवधी तहजीब के किसी धाकड़ नमूने के घर आ गया हूँ और किसी भराधी बैठकबाज़ से मुलाक़ात हो गयी है .उनकी पत्नी , माया जी ने सामने लाकर खाना रख दिया ,लगाकि सुल्तानपुर के अपने घर में बैठा हूँ .अपनैती की हद देखने को मिली. पेट में जगह नहीं थी लेकिन आग्रह ऐसा कि मना नहीं कर सका. गले तक भोजन के बाद सुरेश जी के साथ निकल पड़े, ओस्लो के किसी उपनगर में एक चुनावी प्रचार  का जायज़ा लेने . वहाँ  बोली गयी कोई बात समझ में नहीं आई लेकिन  सुरेश शुक्ल के बताने के आधार पर रिपोर्ट लिखी ,साथ घूमते रहे और शाम तक वापस आया गए . आजकल ओस्लो  का मौसम ऐसा है जिसमें करीब आठ बजे सूर्यास्त हो रहा है , रात नौ बजे तक गोधूलि वेला जैसा उजाला रहता है.
सुरेश चन्द्र शुक्ल का एक और नाम शरद आलोक है लेकिन ओस्लो की सडकों पर जो भी उन्हें जानता है वह उन्हें शुक्ला जी ही कहता है . हिंदी और नार्वेजी भाषा के पत्रकार और साहित्यकार होने के अलावा सुरेश शुक्ल नार्वे की राजनीति में भी दखल रखते हैं .ओस्लो की नगर पार्लियामेंट में सोशलिस्ट लेफ्ट पार्टी ( एस वी ) की ओर से सदस्य रह चुके हैं . २००७ में ओस्लो टैक्स समिति के सदस्य थे  और २००५ में हुए पार्लियामेंट के चुनाव में  सोशलिस्ट लेफ्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में राष्ट्रीय चुनाव में शामिल हो चुके हैं . नार्वेजियन जर्नलिस्ट यूनियन और इंटरनैशनल  फेडरेशन और जर्नलिस्ट्स के सदस्य हैं . इसके  अलावा बहुत सारे भारतीय और नार्वेजी संगठनों के भी सदस्य हैं . डेनमार्क और कनाडा के कई साहित्यिक संगठनों से जुड़े हुए हैं.अपनी ही कहानियों पर आधारित टेलीफिल्म ,तलाश , नार्वे और कनाडा की संयुक्त  फिल्म ‘कनाडा की सैर’ ,आतंकवाद पर आधारित हिंदी लघुफिल्म ‘ गुमराह ‘ बना चुके  हैं . एक शिक्षाविद के रूप में भी उनकी पहचान है . ओस्लो विश्वविद्यालय  ,कोपेनहेगन विश्वविद्यालय,अमरीका का कोलंबिया विश्वविद्यालय और महात्मा गांधी संस्थान, मारीशस में विजिटिंग प्रोफ़ेसर के रूप में आमंत्रित किये जा चुके हैं . नार्वे की कई साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर हैं.
साहित्यकार के रूप में भी सुरेश चन्द्र शुक्ल ‘ शरद आलोक ‘ जाने माने नाम हैं. भारत में भी बहुत सारी पत्रिकाओं और अखबारों  में इनके साहित्यिक काम को छापा और सराहा  गया है .इनका पहला काव्य संग्रह १९७६ में ही भारत में छप गया था तब शायद इंटर में पढते थे . उसके बाद हिंदी और नार्वेजी भाषाओं में उनके दस और काव्य प्रकाशित  हुए. १९९६ में उनका पहला कहानी संग्रह छपा था ,अब तक कहानियों के  कई संकलन वे संपादित कर चुके हैं ., नार्वे के सबसे नामवर साहित्यकार हेनरिक इब्सेन के १९४५ के बाद के साहित्य का उन्होंने गहराई से अध्ययन किया है . ओस्लो विश्वविद्यालय के छात्र के रूप में उन्होंने इसी विषय पर विशेष अध्ययन किया था . नार्वे के साहित्य खासकर इब्सेन के  लेखन का सुरेश शुक्ल ने अनुवाद भी खूब किया है .उन्हें बहुत सारे पुरस्कार भी मिल चुके हैं ,भारत में भी और नार्वे में भी .
एक साहित्यकार और राजनीतिक नेता के रूप में ऐसे बहुत से लोग मिल जायेगें जो सुरेश चन्द्र शुक्ल से बड़े होंगें और केवल इस विशेषता के कारण मैं उनसे प्रभावित  नहीं हुआ. यह सारी बातें तो बहुत सारे लोगों में हो सकती हैं , मैं दिल्ली में रहता हूँ और इस तरह के बहुत लोग मिलते हैं जो साहित्यकार भी हैं और राजनेता भी .  लेकिन सुरेश चन्द्र शुक्ल में जो खास बात है वह बिलकुल अलग है और वह है उनका बेबाकपन, अदम्य साहस और किसी भी हाल में मस्त  रहने की क्षमता . मैंने इस बारीकी को समझने  के लिए उनको कुरदने का फैसला किया और सारा रहस्य परत दर परत खुलता चला गया और साफ़ हो गया कि यह आदमी जो मुझे लेकर ओस्लो की सड़कों और ऐतिहासिक स्थलों पर घूमता हुआ गप्प मार रहा है वह कोई मामूली आदमी नहीं है और उसके गैरमामूलीपन की शुरुआत बचपन में ही हो चुकी थी . आपने १९७२ में लखनऊ से हाई स्कूल की परीक्षा पास की थी. दसवीं का तीन साल का कोर्स शुरू तो १९६९ में  ही हो गया था जब आप कक्षा ९ पास करके दसवीं में भरती हुए थे . लेकिन १९७० में फेल हो गए . इनके साथ दो साथी और थे जो इनकी  तरह की बाकायदा फेल हुए थे . बहरहाल तीनों मित्रों ने १९७१ में पास होने के लिए खूब मेह्नत से पढाई शुरू की लेकिन भाग्य  को कुछ और ही मंज़ूर था , सुरेश शुक्ल बीमार हो गए . उनके घनिष्ठ मित्रों ने कहा कि जब हमेशा का साथ  है तो एक साथी को छोड़कर अगली क्लास में  नहीं जायेगें . लिहाजा उन दोनों ने भी इम्तिहान छोड़ दिया और साथ साथ फेल हुए . जब दोस्ती की यह कथा परवान चढ़ रही थी तो इन दोस्तों के माता पिता बहुत दुखी हो रहे थे . सुरेश के पिता ने चेतावनी दे दी कि अब पढाई खत्म करो और नौकरी शुरू करो. सुरेश शुक्ल ने लखनऊ के सवारी डिब्बे के कारखाने में काम शुरू कर दिया और खलासी हो गए. जब १९७२ में दसवीं की परीक्षा हुई तो तीनों ही मित्र पास हो गए थे . तीनों को नौकरी मिल चुकी थी . तो इन लोगों ने तय किया कि अब जो बच्चे तीन साल फेल होने के बाद दसवीं  की परीक्षा  पास करने की कोशिश करेगें उसको यह आर्थिक मदद करेगें . इस काम के लिए इन लोगों ने अपने वेतन से पैसा जोड़कर एक फंड बनाया जिस से तीन बार फेल होने वाले धुरंधरों की मदद की जायेगी . दो एक लोगों को वायदा भी किया . मदद भी की . इस बीच इनके किसी दोस्त की बहन भी तीन बार फेल  हो गयी . फंड के संचालक तीनों मित्र उसके घर पंहुच गए और मित्र की माँ के पास पंहुच गए . और चाची को प्रणाम करके बैठ गए. चाची ने चाय पिलाने के लिए जैसे ही रसोई में प्रवेश किया हमारे शुक्ल की ने उनसे बच्ची के फेल होने पर सहानुभूति जताई और कहा कि आप चिंता मत कीजियेगा . हमने एक फंड बनाया है जिसका उद्देश्य उन बच्चों की पढाई का खर्च उठाना है जो दसवीं में तीन साल फेल हो चुके हों. चाची आगबबूला हो गयीं और चाय भूलकर झाडू हाथ में लेकर  इन तीनों धर्मात्माओं को दौड़ा लिया और जब बाकी लोगों ने इनको समझाया कि महराज आपके इस फंड की कृपा से बच्चों में फेल होने के लिए उत्साह बढ़ेगा तो इनकी समझ में आया कि कहीं कोई गलती हो रही थी और वह फंड अकाल मृत्यु को प्राप्त हुआ . कहने का मतलब  यह है कि लीक से हटकर काम करने की प्रवृत्ति सुरेश चन्द्र शुक्ल के अंदर शुरू से ही थी.
रेलवे में नौकरी करते हुए सुरेश चन्द्र शुक्ल ने लखनऊ के कान्यकुब्ज वोकेशनल कालेज से बी ए पास किया , १९७८ में रेलवे ने इनको कानपुर भेजकर वर्कर-टीचर की ट्रेनिंग करवाया .हालांकि रेलवे में यह तरक्की कर रहे थे ,खलासी से शुरू करके छः साल में फिटर हो गए थे  लेकिन मन नहीं लग रहा था , कोल्हू के बैल की तरह की ज़िंदगी शुक्ल जी को कभी पसंद नहीं थी.और फिर इनकी ज़िंदगी में एक नया अध्याय शुरू होने वाला था . शुक्ल जी ने नौकरी पर अचानक जाना बंद कर दिया और २६ जनवरी १९८० के दिन हवाई जहाज़ से उड़कर ओस्लो पंहुच गए . हवाई जहाज़ इसलिए लिख रहा हूँ कि इनके बड़े भाई साहेब कुछ वर्ष पहले साइकिल से ओस्लो की यात्रा कर चुके थे और यहीं रह रहे थे. नार्वे जाने का इनका कारण केवल यह था उन दिनों भारत से नार्वे आकर कोई भी बिना वीजा के तीन महीने के लिए रह सकता था . इनको कुछ नहीं मालूम था कि यहाँ की ज़िंदगी की शर्तें क्या हैं , भाई से मदद की कोई खास उम्मीद नहीं थी.लेकिन ओस्लो पंहुच कर बिना कोई वक़्त गंवाए आप भारतीय दूतावास पंहुच गए और वहाँ आयोजित गणतंत्र दिवस के कार्यक्रम में दर्शक के रूप में शामिल हो गए. यहाँ आकर सुरेश शुक्ल फ़ौरन काम से लग गए . सबसे पहले नार्वेजी भाषा सीखने के लिए नाम लिखा लिया , दो साल के अंदर यहाँ की भाषा सीख गए. भाषा के सभी पहलू सीखे ,ग्रामर , टाइपोग्राफी,फोनेटिक्स सब सीखा . उसके बाद नार्वेजी साहित्य की पढाई के  लिए ओस्लो विश्वविद्यालय में नाम लिखा लिया . सुरेश चन्द्र शुक्ल १९४५ के बाद के नार्वेजी साहित्य के मास्टरपीस रचनाओं के विशेषज्ञ हैं और नार्वे में उनकी पहचान इसी रूप में है .

ज़िंदगी के हर मोड पर संघर्ष को गले लगाते हुए सुरेश चन्द्र शुक्ल ‘ शरद आलोक ‘ आगे बढते जा रहे थे लेकिन इस आदमी ने अपने सेन्स आफ ह्यूमर को हमेशा साथ रखा . पढाई के साथ साथ ओस्लो से प्रकाशित होने वाली हिंदी की पत्रिका ‘परिचय’ मे  काम करते हुए उनको कुछ आमदनी भी होने लगी थी . शुक्ल जी ने २००० क्रोनर में एक पुरानी कार खरीदी,. इस कार के कारण उन्होंने  कुछ दोस्तों को हमेशा साथ रखने का फैसला किया क्योंकि कार कहीं भी रुक जाती थी तो उसे धकेलने के लिए कुछ वालिंटियर चाहिए होते थे . उसी ज़रूरत के तहत ओस्लो में शुक्ल जी कुछ साथियों के साथ हमेशा ही  घूमते पाए जाते थे. पत्रकार के रूप में ज़िंदगी शुरू हो चुकी थी. २ हज़ार क्रोनर में कार खरीदने वाले शुक्ल जी को वीडियो देखने का शौक़ था और आप ९ हज़ार क्रोनर का वीडियो प्लेयर खरीद लाये  लेकिन टी वी  नहीं था . इस्तेमालशुदा चीज़ों के बाज़ार में जाकर इन्होने एक टी वी खरीदा लेकिन उसमें पिक्चर तो दिखती थी , आवाज़ नहीं आती थी . पुराना सामान इस शहर में वापस नहीं किया जा सकता उसकी कोई गारंटी भी नहीं होती . इसलिए इन्होने तय किया कि अब एक और टी वी खरीदेगें जिसमें आवाज़ सुनायी पड़े. इस तरह से एक वीडियो प्लेयर , और २ टी वी मिलकर नार्वे के राजधानी में गोमती के किनारे से ओलमा नदी के शहर ओस्लो में पंहुचा  पंहुचा यह नौजवान ज़िंदगी की परेशानियों को मुंह चिढा रहा था. बाद में अपनी पत्रिका भी शुरू कर दी .१९८८ में शुरू की गयी उनकी हिंदी और नार्वेजी भाषाओं में छपने वाली पत्रिका स्पाइल दर्पण में आज भी नए लेखकों को महत्व दिया जाता है . हिंदी में लिखने वाले यूरोप में बहुत से साहित्यकार मिल जायेगें जिनकी कृतियाँ इस पत्रिका में सबसे पहले छपी थीं.
ऐसी बहुत सारी कहानियाँ हैं जो सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक को बाकी दुनिया से अलग कर देती हैं .इस सारी लड़ाई में उनकी पत्नी माया जी उनके साथ जमी रहीं और अपने बच्चों को बेहतर ज़िंदगी देने की अपने मकसद में कामयाबी के झंडे फहरते रहे . आज उनके सभी बच्चों में भारत और  नार्वे के संयुक्त संस्कारों के कारण शिष्टाचार की सभी अच्छाइयां हैं . वाइतवेत के उनके घर में हिंदी और उर्दू के बहुत से साहित्यकार आ चुके हैं , कुछ ने तो यहीं पर अपना ओस्लो प्रवास भी  बिताया .हिंदू उर्दू के बड़े साहित्यकारों में शुक्ल जी सबसे ज़्यादा कादम्बिनी के तत्कालीन संपादक राजेन्द्र अवस्थी क एहसान मानते हैं क्योंकि अवस्थी जी ने कादम्बिनी में इनकी रचनाएं छापकर इन्हें प्रोत्साहन दिया था . कमलेश्वर , इन्द्रनाथ चौधरी ,रामलाल ( लखनऊ के उर्दू के अदीब ),कुर्रतुल एन हैदर ,श्याम सिंह शशि,गोपीचंद नारंग ,सत्य नारायण रेड्डी ,भीष्म नारायण सिंह , सरोजिनी प्रीतम बाल्सौरी रेड्डी इनके मेहमान रह चुके हैं . नोबेल शान्ति पुरस्कार का संस्थान ओस्लो में ही है . आपकी मुलाक़ात यहाँ पर नेल्सन मंडेला , दलाई लामा, अमर्त्य सेन, आर्च बिशप डेसमंड टूटू से कई बार हुई है और जब नोबेल शान्ति पुरस्कार के एक सौ साल पूरे होने पर जश्न मनाया गया था तो जिन विभूतोयों को बुलाया गया था उनमें सुरेशचंद्र शुक्ल शरद आलोक भी शामिल थे .
यह है अपना दोस्त जो आज भी जब किसी से मिलता है को उसकी मस्ती और उसका बांकपन लोगों को उसका बना देता है. बातचीत करते हुए लगता ही नहीं कि जिस व्यक्ति से बात कर रहे हैं वह उन्नाव के एक कस्बे अचल गंज से चलकर ओल्मा नदी के तीरे  बसे इस शहर में बहुत लोगों का दोस्त है और यूरोप और अमरीका सहित विश्व हिंदी सम्मलेन में शामिल होने वाले प्रतिष्ठिति लोगों के बीच भी सम्मान से जाना जाता है. लेकिन अपना रिश्ता थोडा अलग है . नार्वे के ऐतिहासिक स्थलों पर उनके साथ गूमकर लगता था  कि जैसे लखनऊ के हजरतगंज में घूम रहे हों . 

Saturday, August 24, 2013

भारत के चुनाव सुधार कार्यक्रम में नार्वे की चुनाव प्रक्रिया से सबक लिया जा सकता है


शेष नारायण सिंह

 नार्वे के संसदीय चुनावों में सत्ताधारी लेबर पार्टी ताज़े चुनाव  चुनाव सर्वेक्षणों में अपनी स्थिति में सुधार कर रही है . अब तक यह मध्यमार्गी-दक्षिणपंथी विपक्षी चुनौती के सामने लड़खड़ा रही थी . प्रधानमंत्री येंस स्तूलतेंबर्ग की लेबर पार्टी अब नार्वे की सबसे लोकप्रिय पार्टी हो गयी है . टी वी २ टेलिविज़न के नए सर्वे के अनुसार प्रधानमंत्री की अपनी पार्टी तो आगे चली गयी  है लेकिन उनकी अगुवाई वाला गठबंधन अभी भी पीछे चल रहा है . इस गठबंधन में लेबर पार्टी के अलावा सेंटर पार्टी और सोशलिस्ट लेफ्ट पार्टी भी शामिल हैं .येंस स्तूलतेंबर्ग की यही स्थिति चार साल पहले हुए चुनावों में भी थी लेकिन बहुत ही आश्चर्यजनक तरीके से उन्होने चुनाव में वापसी की थी और उनका गठबंधन विजयी रहा था .
अभी कुछ दिन पहले हुए सर्वे में  लेबर पार्टी को ३०.२ प्रतिशत वोटरों का समर्थन रिकार्ड किया गया था जबकि ताज़े सर्वे में उसे ३१.८ प्रतिशत का समर्थन मिल रहा है . पिछले सर्वे में सत्ताधारी पार्टी की मुख्य चैलेंजर ,अर्ना सोलबर्ग की कंज़रवेटिव पार्टी को २९.४ प्रतिशत समर्थन मिल रहा था जो कि इस बार घटकर २६.८ प्रतिशत रह गया है . लेकिन लेबर पार्टी के अन्य सहयोगी दल पिछड़ गए हैं .टी वी २ के सर्वे के अनुसार अगर नतीजे आये तो प्रधानमंत्री येंस स्तूलतेंबर्ग के गठबंधन को केवल ७४ सीटें मिलेगीं जबकि सरकार बनाने लायक बहुमत के लिए ८५ सीट ज़रूरी होता है . मौजूदा सर्वे एक अनुसार अर्ना सोलबर्ग की अगुवाई वाले गठबंधन को ९३ सीट मिल सकती है .ऐसी हालत में आठ साल के अंतराल के बाद नार्वे में दक्षिणपंथी सरकार बनेगी . लेकिन अभी बहुत जल्दी है . अभी  वास्तविक मतदान होने में दो हफ्ते बाकी हैं और राजनीतिक हालात के बदलाव के लिए दो हफ्ते बहुत होते हैं .
इस बीच यहाँ ओस्लो में आज एक चुनावी सभा में शामिल होने का मौक़ा मिला. इस चुनावी सभा की तुलना अपने देश की चुनाव सभाओं से  करना बहुत ही दिलचस्प हो सकता है .पुराने ओस्लो के फ्रागनर प्लास की एक चर्च में नार्वेजियन-रूसी सांस्कृतिक केन्द्र ने एक चुनावी सभा का आयोजन किया था . सभा बड़ी थी क्योंकि करीब ४० गंभीर श्रोता नौजूद थे . नार्वे के लिहाज़ से अगर किसी चुनावी सभा में २५ लोग शामिल हो जाएँ तो उसे सफल माना जाता है . नार्वेजियन-रूसी सांस्कृतिक केन्द्र की नेता रईसा सिरुकोवा ने हमें बताया कि उन्होंने अपने इलाके के लोगों के सवालों और शंकाओं के बारे में राजनीतिक नेताओं की राय जानने के लिए इस सभा का आयोजन किया है . नार्वेजियन-रूसी सांस्कृतिक केन्द्र रूसी मूल के उन लोगों की सभा है जो अब बाकायदा नार्वे के नागरिक हैं और कई लोग तो ऐसे थे जिनके पूर्वज यहाँ आकर सदियों पहले बस गए थे .यहाँ संसद का चुनाव जितना  महत्वपूर्ण  राजनीतिक पार्टियों के लिए होता है उससे कम महत्वपूर्ण मतदाताओं के लिए नहीं होता . फ्रागनर प्लास की सभा में अपनी बात रखने के लिए चार प्रमुख पार्टियों के नेताओं को बुलाया गया था .नार्वे के चुनाव में  कोई किसी इलाके का  उम्मीदवार तो होता नहीं क्योंकि नार्वे में निर्वाचन का आनुपातिक प्रतिनिधित्व का तरीका  अपनाया जाता है ,इसलिए सभी राजनीतिक पार्टियां इस तरह की कम्युनिटी आधारित चुनावी सभाओं में अपने  बहुत काबिल लोगों को भेजती हैं . सभी पार्टियों के प्रतिनिधि अपनी बात कहते हैं उसके बाद सवाल जावाब का सिलसिला शुरू होता है . फ्रागनर प्लास की सभा ६ बजे शाम को शुरू  हुई थी और रात के साढ़े आठ बजे तक सवाल जवाब का सिलसिला चलता रहा . इस सभा में लेबर पार्टी की तरफ से उसकी सांसद मारित नीबाक आयी थीं जो स्तूर्तिंग यानी नार्वेजियन संसद की डिप्टी स्पीकर हैं . लेबर पार्टी को यहाँ पर आम तौर पर ए पी नाम से जाना जाता है . मारित नीबाक ,नॉर्डिक कौंसिल की  सलाहकार समिति की अध्यक्ष भी हैं  . नार्डिक काउन्सिल वास्तव में स्कैंडेनेविया के देशों के साथ कुछ अन्य देशों का संगठन भी  है . फ्रागनर प्लास की सभा में सत्ताधारी दल की प्रतिनिधि के रूप में उन्होंने बहुत ही गंभीरता पूर्वक बात की और कहा कि आठ साल पहले २००५ के चुनावों के बाद प्रधानमंत्री येंस स्तूलतेंबर्ग  की सरकार सत्ता में आयी थी . तब से अब तक ३ लाख ४० हज़ार लोगों को रोज़गार मिला है . उन्होंने कहा कि  उनकी पार्टी नार्वेजी मूल्यों की संरक्षण के प्रति पूरी तरह से प्रतिबद्ध है .स्त्री पुरुष की बराबरी की सबसे बड़ी समर्थक राजनीतिक जमात के रूप में अपनी पार्टी के इतिहास को उन्होंने रेखांकित किया और कहा कि लेबर पार्टी आगे भी इसी तरह का काम करती रहेगी . उनकी पार्टी जब भी सत्ता में रही है , प्रवासियों का नार्वे के समाज में सबसे ज़्यादा इंटेग्रेशन हुआ है .लेबर पार्टी बराबरी ,शिक्षा,स्वतंत्रता ,सामूहिक सुरक्षा, सबके लिए सामान स्कूल जैसी लोकतांत्रिक बुनियादी मूल्यों को हमेशा महत्व देती रहेगी.
कंज़रवेटिव पार्टी के प्रतिनिधि मिकायल थेच्नेर ने अर्थव्यस्था में निजी पूंजी को मुक्तिदाता के रूप में पेश किया . कंज़रवेटिव पार्टी को यहाँ होयरे  पार्टी कहते हैं , यही उसका मान्यताप्राप्त नाम है. उनके भाषण को सुनकर लगा कि उन्होंने या उनकी पार्टी के नेताओं ने उसी स्कूल से अर्थशास्त्र की पढाई की है जहां डॉ मनमोहन सिंह और मांटेक अहलूवालिया गए थे .उन्होंने कहा कि सार्वजनिक  निवेश को कम किया जाना चाहिए और निजी पूंजी को बढ़ावा दिया जाना चाहिए . पूंजीवादी,दक्षिणपंथी राजनीतिक अर्थशास्त्र में जो कुछ भी बताया गया है, वह सब इस पार्टी के कार्यक्रम में है . कम से कम सरकारी हस्तक्षेप और अधिक से अधिक बाज़ार की ताक़तों के समर्थन के बाद श्रोताओं में बैठे हुए लोगों में बहुत लोग ऐसे थे जो मिकायल थेच्नेर की बात से असहज महसूस कर रहे थे लेकिन उन्होंने अपनी बात को मजबूती से रखा और टस से मस होने को तैयार नहीं थे. अजीब बात यह है कि उनके इस दृष्टिकोण के बाद भी उनकी पार्टी के गठबंधन को सफलता के शुरुआती संकेत मिल रहे हैं .
कंजर्वेटिव पार्टी के साथ चुनाव पूर्व समझौते में शामिल एफ आर पी ने अपने प्रतिनिधि क्रिस्तियान थीब्रिंग येद्दे को भेजा था . एफ आर पी का दूसरा नाम लिबरल पार्टी भी है लेकिन उस पार्टी के सिद्धांतों में कुछ भी लिबरल नहीं है . शुद्ध रूप से पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की समर्थक एफ आर पी में ऐसा बहुत कुछ है जो उसे कट्टर राष्ट्रवादी पार्टी के रूप में पेश कर देता है लेकिन अपनी बातों के अलोकप्रिय होने के बावजूद भी  लिबरल पार्टी के प्रतिनिधि ने अपनी बात प्रभावी तरीके से रखी. उन्होंने कहा कि यूरोप के बाहर के देशों के लोगों को नार्वे में बसने की अनुमति नहीं दी जायेगी. यह ध्यान रखा जाएगा कि नार्वे में अश्वेत लोगों की भरमार न हो जाए . एफ आर पी के हिसाब से जो अश्वेत यहाँ आकर बस गए हैं और नागरिक बन गए हैं उनको तो नहीं भगाया जाएगा लेकिन अब और लोगों को यहाँ नहीं आने दिया जाएगा . उन्होंने साफ़ कहा कि अब लोगों के वेतन वृद्धि पर पक्का रोक लगाना पडेगा वरना  व्यक्तियों के हाथ में खर्च करने लायक इतनी ज्यादा रकम जमा हो जाती  है कि कम इनकम वालों के लिए मुसीबत पैदा हो जाती है . एफ आर पी का सुझाव है कि जिन की आमदनी कम हो उनसे टैक्स कम लिया जाना चाहिए लेकिन तनखाह बढाने की राजनीति का हर स्तर पर विरोध किया जाना चाहिए .
सोशलिस्ट-लेफ्ट पार्टी सरकार में शामिल है और लेबर पार्टी का दावा है कि चुनाव के बाद भी साथ साथ  रहेगें  . सोशलिस्ट-लेफ्ट  को नार्वे में एस वी कहते हैं . इनकी प्रवक्ता संसद सदस्य ,रानवाई किविफ्ते के भाषण में आम आदमी की खैरियत का संदेश निकल रहा था . उन्होंने चिंता ज़ाहिर की कि देश में अमीर की दौलत बढ़ रही है जबकि गरीब और भी गरीब होता जा रहा है .उन्होंने दावा किया कि इस गडबडी को ठीक करना पडेगा . पर्यावरण के प्रति सजग रहने की  सरकार की जिम्मेदारी को भी उन्होंने जोर देकर उठाया किया . उन्होंने कहा कि कुछ इलाकों में अभी रेलवे की सिंगल पटरियों को देखा जा सकता है . रानवाई किविफ्ते ने दावा किया कि अगर इस बार उनके  गठबंधन की सरकार बनी तो यह समस्या नहीं रह जायेगी. उन्होंने कहा कि पबलिक ट्रांसपोर्ट व्यवस्था को और चुस्त दुरुस्त करने की ज़रूरत है . सरकारी और गैर सरकारी नौकरियों में अभी बहुत लोगों को टेम्परेरी नौकरी मिली हुई है. रानवाई किविफ्ते ने कहा कि सबके पास पक्की नौकरी होनी चाहिए . नार्वे में बच्चों को बहुत महत्व दिया जाता है इसकेलिए ज़रूरी है कि किंडरगार्डन की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए क्योंकि कामकाजी माता-पिता बच्चों को उतना ध्यान नहीं रख पाते जितना कि रखना चाहिए . उन्होंने कहा कि सरकार को चाहिए कि सबके लिए मकान का इंतज़ाम करे लेकिन साथ साथ यह भी सुनिश्चित किया जाए कि अधिक मकान बनाने के चक्कर में केवल बिल्डरों को ही लाभ न मिले .मकान उन लोगों को ही मिलना चाहिए जिनको असल में उसकी ज़रूरत है .
सभी नेताओं के भाषण के बाद श्रोताओं को सवाल करने का मौक़ा दिया गया और सब ने कठिन सवाल पूछे . उसके बादनार्वेजियन-रूसी सांस्कृतिक केन्द्र की नेता रईसा सिरुकोवा ने सभी नेताओं को गुलदस्ता भेंट किया और सब हंसी खुशी के माहौल में अपने अपने घर चले  गए. ४० लोगों की सभा नार्वे में कोई छोटी सभा नहीं मानी जायेगी . ४५ लाख की आबादी वाले देश में ४०-४५ लोगों का वही महत्व है जो १२० करोड आबादी वाले भारत में करीब १ लाख  लोगों का होता है . भारतीय सन्दर्भ में इस सभा को एक लाख की भीड़ माना जाएगा . इस तुलना के बाद भारत में राजनेताओं के आचरण और चुनावी सभा की संस्कृति के बारे में विचार करना ज़रूरी  जाता है . भारत में सुविधाओं के पीछे भागने वाले नेताओं की जमात को लोकशाही की राजनीति में प्रशिक्षित किये जाने की ज़रूरत है . उल जलूल चुनावी वायदे करने वाले नेताओं के लिए यह देखना भी ज़रूरी है कि अलोकप्रिय राजनीति भी अगर पार्टी ने तय कर लिया है तो उसका पालन किया जाना चाहिए . आजकल भारत की दक्षिणपंथी पार्टी और उसके कुछ समर्थकों में यह बात ज़ोरों से चर्चा का विषय है कि जवाहरलाल नेहरू ने संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था को लागू करके बहुत बड़ी गलती की , जो उनको नहीं करना चाहिए था . इसी बहाने यह लोग दक्षिणपंथी अमरीकी चुनाव प्रणाली की मांग की जड़ें पक्की करना चाहते हैं . भारत में दक्षिणपंथी राजनेताओं की गुपचुप तरीकों से लोकतंत्र को खत्म करने की कोशिश पर रोक लगाई जानी चाहिए . नेहरू के खिलाफ अभियान चलाने वालों को आनुपातिक प्रतिनिधित्व का महत्व को समझाया जाना चाहिए और उसके लिए अगर ज़रूरी हुआ तो नार्वे की चुनाव प्रणाली और चुनाव अभियान के तरीकों के बारे में विस्तार से जानकारी दी जानी चाहिए .

Thursday, August 22, 2013

नार्वे के राष्ट्रीय चुनाव के बाद सत्ता परिवर्तन की दस्तक

शेष नारायण सिंह
ओस्लो,२२ अगस्त . नार्वे के संसद , स्तूर्तिंग, के लिए चुनाव प्रचार जोर शोर से चल रहा है . मौजूदा लेबर प्रधानमंत्री , येंस स्तूलतेनबर्ग को कंज़रवेटिव पार्टी के गठ्बंधन से चुनावी चुनौती मिल रही है . पार्टी का चुनावी नारा , अल्ले स्कल में यानी सब साथ रहेगें बहुत असर नहीं दिखा पा रहा है क्योंकि अब तक के चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में उनकी पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी का  गठबंधन पीछे चल रहा है . यहाँ संसद का टर्म चार साल का होता है . और इस बार का वोट  देश के १५८वी संसद का चुनाव करेगा .९ सितम्बर को पूरे देश में १६९ सदस्यों वाली संसद के लिए सदस्यों के चुनाव के लिए वोट डाले जायेगें . नार्वे में पार्टियों के लिए वोट डाले जाते हैं और  मिले हुए वोटों के प्रतिशत के हिसाब से उनके हिस्से में सदस्यों की संख्या आती है . भारत की तरह यहाँ हर चुनाव क्षेत्र में एक दूसरे के खिलाफ पार्टियों के उम्मीदवार नहीं खड़े होते. पार्टियों के चुनावी वायदे होते हैं उनके कार्यक्रम होते हैं और अपने कार्यकर्ताओं की उनकी अपनी लिस्ट होती है जो चुनाव के पहले ही दाखिल की जा चुकी होती  है . बाद में उनको मिले ही वोटों केअनुपात में हर पार्टी के सदस्यों की संख्या घोषित कर दी जाती है .

  निवर्तमान संसद में प्रधानमंत्री येंस स्तूलतेनबर्ग की लेबर पार्टी के ६४ सदस्य हैं . उनको सोशालिस्ट पार्टी के ११ और सेंटर पार्टी के ११ सदस्यों के सहयोग से बहुमत मिल गया था उसके बाद जब चार साल पहले सरकार बनाने की बात आई तो कुछ छोटी पार्टियों का समर्थन भी मिल गया. कंज़रवेटिव पार्टी को अभी तक के सर्वे के हिसाब से चुनावी बढ़त मिली हुई है . माहौल ऐसा  है कि लगता है कि इस बार आठ वर्षों से चली आ रही लेबर पार्टी की अगुवाई वाली येंस स्तूल्तेनबर्ग सरकार की विदाई हो जायेगी.
नार्वे के नामी टी वी चैनल  टी वी २ ने २१ अगस्त की रात राष्ट्रीय नेताओं  का टी वी डिबेट आयोजित किया .  यहाँ के चुनावों में इस बार मुख्य मुद्दा स्वास्थ्य सेवाओं का प्रशासन है .इसी विषय पर  टी वी २ चैनल का एक सर्वे भी आया है . उसी सर्वे को विषय बनाकर डिबेट आयोजित किया गया .बहस में यह बात साफ़ उभर कर आयी कि प्रधानमंत्री येंस स्तूल्तेनबर्ग  ने इस महत्वपूर्ण समस्या को पिछले आठ वर्षों में ज़रूरी गंभीरता से नहीं लिया है . होयरे पार्टी ( कंज़रवेटिव ) की अर्ना सूल्बर्ग ने बात को इस तरह से पेश किया कि  सरकार के  दावे विश्वास के लायक नहीं लगे और श्रीमती सूल्बर्ग की लोकप्रियता में इजाफा होता नज़र आया.  नार्वे पहला देश है जिसने महिलाओं को वोट देने का अधिकार दिया था . इस साल नार्वे में उस ऐतिहासिक फैसले के सौ साल भी मनाये जा रहे हैं. लगता है कि इस चुनाव में जनता ने पुरुष प्रधानमंत्री को बेदखल करके होयरे पार्टी की अर्ना सूल्बर्ग और प्रोग्रेस पार्टी की सीव येन्सेन की संयुक्त टीम को सत्ता सौंपने का मन बना लिया है .टीवी के डिबेट यहाँ की चुनाव प्रक्रिया में एक अति महत्वपूर्ण भूमिका आदा करता है और उसके नतीजों से ४५ लाख की आबादी वाले इस देश की चुनावी दिशा का अंदाज़ लग जाता है . यह भी सच है कि विकसित दुनिया में सबसे अधिक प्रति व्यक्ति आमदनी वाले संपन्न देश में  चुनावी माहौल बनता बिगड़ता रहता  अहि और ९ सितमबर को होने वाले चुनाव तक तस्वीर बदल भी सकती है .
लेबर पार्टी के चुनाव प्रचार को करीब से देखने का मौक़ा मिला. एक व्यापारिक सेंटर पर पार्टी के कार्यकर्ता इकट्ठा हुए . दो दो कार्यकर्ताओं की टोली एक ट्राली में गुलाब के फूल लेकर चल पडी. इलाके के हर घर में गए , जो मिला उससे बात की और लेबर को  वोट देने के लिए कहा . जो नहीं मिला उसके घर के सामने गुलाब का फूल रख दिया और अपना चुनावी पर्चा छोड़ दिया . निजी संपर्क का यह तरीका अपने देश के चुनावों से बिलकुल अलग और सभ्य लगा .अभी और भी टी वी  डिबेट आयोजित किये जायेगें और जनता को अपने फैसले लेने का मौक़ा मिलेगा  . नार्वे के चुनावों में लेबर के येंस स्तूल्तेनबर्ग को आठ साल में पहली बार निर्णायक चुनौती मिल रही है लेकिन ४५ लाख आबादी वाले इस देश में चुनाव का माहौल आख़री दिन तक बदलता है और अगली रिपोर्टों में बात को साफ़ करने की कोशिश की जायेगी.

मेरी पहली विदेश यात्रा ---- दिल्ली से ओस्लो




शेष नारायण सिंह 
ओस्लो,२२ अगस्त. नार्वे की राजधानी ओस्लो पंहुचने पर सुखद अनुभवों का सिलसिला शुरू हो गया. वहाँ मेरी बेटी के एक दिन पहले पैदा हुए बेटे को देखा ,अपने मित्र और मेरी बेटी के ससुर तरुण मित्र के साथ शहर की बुनियादी खासियतों का अंदाज़ लिया . अगले दिन भारतीय मूल के नार्वेजियन पत्रकार सुरेश चन्द्र शुक्ल से भेंट हुई और उन्होंने देश के राष्ट्रीय चुनाव के प्रचार अभियान से शुरुआती परिचय करवा दिया . भारत की पवित्र भूमि के बाहर जाने का यह मेरा पहला मौक़ा है ,इसलिए मित्रों ने बहुत समझाया था,संभावित परेशानियों के हल सुझाए गए थे क्योंकि आम तौर पर यह मानकर चला जाता है कि विदेश यात्रा में परेशानियां होंगीं . बहुत सारे साधारण लोगों की विदेश यात्राओं के बारे में सुन रखा था . सबकी तकलीफों के बारे में विस्तार से जानकारी थी. इसलिए यात्रा की मुसीबतों  को लेकर मन में बहुत सारी आशंकाएं थीं . लगता है कि इस बार मैं भाग्यशाली रहा कि मुझे कोई परेशानी नहीं हुई. दिल्ली हवाई अड्डे पर सारी औपचारिकताएं ऐसे बीत गयीं जैसे हर काउंटर पर बैठा हर अधिकारी हमारा ही इंतज़ार कर रहा था. मेरी पत्नी अब पूरी तरह से गदगद और आश्वस्त हो चुकी थीं कि चिंता की बात नहीं है. लुफ्थांसा की हवाई सेवा का अच्छा नाम है और वह सही साबित हुआ .बहुत ही आराम से विमान में सीट मिली और विमान में यात्रियों की सहायता करने वाले स्टाफ में कुछ जर्मन नागरिक थे और कुछ लडकियां भारतीय थीं. विमान में बैठते ही एक भारतीय लड़की ने मुझे पहचान लिया . वह टाइम्स नाउ के मुख्य संपादक अर्नब गोस्वामी की बहुत बड़ी फैन है और उसने मुझे भी उसी चैनल में हो रही किसी बहस में कभी देखा था. उसने बताया कि उसके घर में टाइम्स नाउ ज़रूर देखा जाता है .बस फिर क्या था ,लड़की अपनी शुभचिंतक बन चुकी थी . हस्बे मामूल मेरी एक बेटी और जन्म ले चुकी थी .इस लडकी ने हमारे बारे में पता नहीं क्या क्या तारीफ़ के पुल बांधे होंगें कि जब हम साढ़े सात घंटे की फ्लाईट के बात म्यूनिख पंहुचे तो वहाँ विमान कंपनी की एक अधिकारी हमारा इंतज़ार कर रही थी. दिल्ली से म्यूनिख तक का टाइम ऐसे बीत गया जैसे जौनपुर में बैठे डॉ अरुण कुमार सिंह से गप मार रहे हों . जर्मनी के शहर म्यूनिख की ख्याति पूरी दुनिया में है. नार्वे और जर्मनी,दोनों देश ,यूरोपियन युनियन के सदस्य हैं इसलिए हमारे शेंगेन वीजा की इमीग्रेशन की औपचारिकता म्यूनिख में ही होनी थी क्योंकि यूरोपियन युनियन में हम वहीं से प्रवेश कर रहे थे . पूरी दुनिया में इमीग्रेशन अधिकारियों की ख्याति लोगों से मुश्किल सवाल पूछने की है . म्यूनिख  में मुझसे जो सवाल पूछा  गया उसके बाद अपनी दिल्ली-म्यूनिख फ्लाईट की  बेटी द्वारा  की गयी प्रशस्ति गाथा का मुझे मामूली सा अंदाज़ लग गया . इमीग्रेशन काउंटर पर शीशे के पीछे  बैठे हज़रत ने सवाल दागा कि मैं क्यों मानूं कि आप पत्रकार हैं . मुझे लगता है कि उनको बता दिया गया था कि मैं कौन हूँ . म्यूनिख में विमान से उतरते ही मुझे और मेरी पत्नी को विशेष गोल्फ कार्ट दे दी गयी. उसी गाड़ी से हम इमीग्रेशन अधिकारी के सामने पेश किये गए थे . उस खिड़की पर हमारे  अलावा कोई और नहीं था . अब अपने आपको  पत्रकार साबित करने के लिए मेरे पास और कोई जरिया नहीं था . मैं कहने ही वाला था कि  दिल्ली –म्यूनिख फ्लाईट की एयर होस्टेस से पूछ लीजिए लेकिन तब तक मेरे पर्स में मेरा पी आई बी कार्ड दिख गया . उसे दिखाया और सरकारी मान्यता प्राप्त पत्रकार को उस सख्त चेहरे वाले इमीग्रेशन अधिकारी ने मुस्कराहट के साथ विदा किया .यह बात दिलचस्प लगी कि कि पी आई बी की मान्यता कहाँ खाना काम आ सकती है . बात करते करते उसने हमारे पासपोर्ट पर ज़रूरी मुहर भी लगा दी .बहुत ही सम्मानपूर्वक हम म्यूनिख से ओस्लो जाने वाले विमान के प्रतीक्षा लाउंज में बैठा दिए गए.  म्यूनिख से ओस्लो की दो घंटे की यह यात्रा भी बहुत ही सुखद रही . ओस्लो हवाई अड्डे पर हमारे दामाद अनिरबान हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे . दिन डूबने के पहले हम ओस्लो के अपने बच्चों के घर पंहुच गए..एक दिन आराम करने के बाद हमने शहर में अपने मित्रों को अपने आने की जानकारी दे दी .उसी दिन ओस्लो के साहित्यकार और नार्वेजियन पत्रकार सुरेशचंद्र शुक्ल  से मुलाक़ात हो गयी . उनका साहित्यिक नाम शरद आलोक है और वे एक बहुत ही दिलचस्प इंसान हैं . मेरी इच्छा  है कि उनके बारे में पूरा एक आलेख लिखूं जो इसके बाद ही लिखने की तमन्ना है . 

Monday, August 19, 2013

एक गाँव जहां औरतें मजदूरी करके अपनी लड़कियों का मुस्तकबिल बदल रही हैं



शेष नारायण सिंह

मागड़ी तहसील के इस गाँव में जो बहुएं बेटा नहीं पैदा करतीं उनकी ज़िंदगी में मुसीबत की शुरुआत हो जाती  है . वैसे भी उनकी ज़िंदगी बहुत खूबसूरत नहीं होती क्योंकि इस गाँव में भी महिलाओं को पुरुषों से इन्फीरियर माना जाता है .गाँव के ज़्यादातर लड़के शराब पीते हैं और उनके घर की औरतें काम करती हैं . बेंगलूरू शहर से इस गाँव की दूरी करीब तीस किलोमीटर है लेकिन आई टी की राजधानी कहे जाने वाले शहर की प्रगति का कोई भी असर इस गाँव में  नहीं पंहुचा है . यहाँ ३५ परिवार रहते हैं . जिनमें से ३३ मराठे हैं और दो वोक्कालिगा  हैं . वोक्कालिगा परिवार के लोग ही  पंचायत से लेकर राज्य की राजनीति के अन्य क्षेत्रों में पहचाने जाते हैं . यहाँ रहने वाले मराठों को शिवाजी के किसी अभियान के दौरान यहाँ लाया गया था . शायद एकाध परिवार ही आया था लेकिन तीन सौ साल बाद उसी परिवार की इतने शाखें बन गयी हैं कि पूरा गाँव बस गया है . गाँव में विधवाएं बहुत ज्यादा हैं क्योंकि जो नौजवान शराब पीकर वाहन चलाते हैं वे हमेशा खतरे से जूझ रहे होते हैं .वैसे भी गाँव के बाहर जाने  वाली सड़क पर ट्रैफिक इतना तेज है कि अगर शराब के नशे में पैदल चल रहा कोई आदमी ज़रा सा भी गाफिल हो गया तो वह मौत का शिकार हो जाता हैं .बिना कंट्रोल चल रही  गाडियां किसी को भी रौंद देने में मिनट नहीं लगातीं . पहले तो गाँव के बाहर की सड़क पर स्पीडब्रेकर भी नहीं था लेकिन करीब आठ महीने पहले स्पीडब्रेकर लग गया है  . स्पीडब्रेकर लगने के बाद से यहाँ ऐसा कोई हादसा नहीं हुआ जिसमें किसी की जान चली जाए. इस गाँव से कुछ दूरी पर एक प्राइमरी स्कूल है इसलिए गाँव के बहुत सारे बच्चे पांचवीं पास हैं लेकिन उसके बाद बच्चों की पढाई पर ब्रेक लग जाती है क्योंकि उसके ऊपर की जमातों के स्कूल मागड़ी या अन्य दूर के कस्बों में हैं और बेंगलूरू से मागड़ी जाने वाली बसों के ड्राइवर इस गाँव में बस नहीं रोकते . ऑटोरिक्शा से भी वहाँ जाया जा सकता है लेकिन आमतौर पर मजदूरी करने वाली महिलाओं के परिवार ऑटो रिक्शा का किराया नहीं दे सकते.लिहाजा पढाई छूट जाती है .
यह कहानी बंगलूरू से लगे हुए रामनगरम जिले के मागड़ी तालुका के ज्योतिपाल्या गाँव की है लेकिन यही कहानी  कर्नाटक के  बहुत सारे गाँवों की भी हो सकती है. एक दिन यहाँ अजीब मुसीबत खड़ी हो गयी . यहाँ के एक किसान, छत्रपति राव का दामाद उसकी बेटी को घर छोड़ गया . साथ में सन्देश भी है कि दो लाख रूपया भेज दो ,तो बेटी भी साथ जायेगी वरना अब संभालो अपनी बेटी. अभी साल भर पहले इस बेटी की शादी करने के लिए , छत्रपति ने अपनी पुश्तैनी ज़मीन का एक टुकड़ा बेच दिया था. अब अगर बेटी को उसके पति के पास भेजना है तो उसे बाकी ज़मीन भी बेचनी पड़ेगी . इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है . छत्रपति को उसकी बेटी ने बताया कि उसे उसके सास ससुर पैसा लाने के लिए परेशान करते हैं और मारपीट भी करते हैं . यह बदकिस्मत किसान बहुत ही गैरजिम्मेदार इंसान हैं या यों कहिए कि पुरुष रूप में पशु हैं . अपनी पत्नी और बेटियों को इसलिए अपमानित करते रहते हैं कि वे स्त्रियाँ हैं .
 इसी गाँव में प्रेमा रहती है जो सरकार के एक ऐसे कार्यक्रम में काम करती है जो अपने कर्मचारियों से कम तनखाह पर काम करवाता है .उसके पति ने उसे मारपीट कर घर से निकाल दिया है और उसके ऊपर तलाक का मुकदमा दायर कर रखा है . उसके ऊपर भी सारी मुसीबत इसलिए आयी है कि उसकी कोख से दो लडकियां पैदा हो गयीं . वह सरकारी काम के साथ साथ घर की मजूरी भी करती थी लेकिन  लडकियां पैदा करने का इस इलाके का सबसे बड़ा अपराध कर बैठी . उसके आदमी को जब किसी ने समझाया कि, भाई लडकियां या लड़के पैदा करने में औरत और मर्द का बराबर का ज़िम्मा है तो उस अहंकारी पुरुष ने समझाने वाले को ही अपमानित कर दिया .
यहाँ पड़ोस के गाँव से आकर एक महिला रहती है . अपने खाने के लिए वह लोगों से भीख मांगती है . उसके अपने गाँव में उसके घर वाले रहते हैं , उसके नाम ज़मीन भी है जिसपर  घर वालों ने कब्जा कर रखा  है . बताया गया है कि उसके घर वाले अक्सर आकर देख जाते हैं कि वह जिंदा है कि नहीं . क्योंकि जब वह मर जायेगी तो उसकी लाश का अंतिम संस्कार कर देगें और इस इलाके के पुरुषप्रधान समाज के लोग उनको उस महिला की ज़मीन का कानूनी मालिक घोषित करवा देगें . यहाँ के समाज में अभी भी लड़की को बोझ माना जाता है . शादी के लिए कोई भी हमउम्र लड़का तलाशा जाता है , चाहे जितना नाकारा हो .लड़की के लिए योग्य वर की तलाश की अवधारणा अभी यहाँ नहीं है . लड़कियों की शिक्षा के बारे में सरकार ने भी बहुत ध्यान नहीं दिया है . सरकारी स्कूलों की खस्ता हालत देखकर लगता ही नहीं कि यह उत्तर प्रदेश या बिहार के सरकारी प्राइमरी स्कूलों से अलग  है .

इतिहास की कोख में सो गए इस गाँव में भी महिलाओं के दृढ निश्चय के सामने परिवर्तन की जुम्बिश साफ़ नज़र आने लगी है .खेत में दिन भर मजदूरी करने वाली एक  विधवा महिला की बच्चियां पास के चित्रकूट कालेज में पढ़ने जाने लगी हैं . यह बच्चियां अंग्रेज़ी में कमज़ोर हैं  लेकिन चित्रकूट के संस्थापक भी फुल जिद्दी आइटम हैं , उन्होंने तय कर लिया है कि बिना किसी अतिरिक्त फीस के इन बच्चियों को अंग्रेज़ी सिखायेगें और उनको भी बाकी बच्चियों और लड़कों के बराबर खडा कर देगें . लेकिन फीस तो देना ही पडेगा . खेत में मजदूरी करने वाली माहिला इतनी फीस भी कहाँ से देगी . ऐसी और भी महिलायें हैं जो अपनी औकात से ज़्यादा पैसा लड़कियों की फीस के लिए देने के लिए आमादा देखी गयीं .इन महिलाओं के दृढ निश्चय की पड़ताल की कोशिश की जाए तो तस्वीर के कुछ आयाम समझ में आने लगते हैं . जहां महिलायें सदियों से अपनी नियत का अनुसरण करने के  लिए अभिशप्त थीं वहाँ की तलाकशुदा, विधवा ,परित्यक्ता महिलाओं ने अपनी बेटियों के भविष्य को बदलने के लिए शिक्षा का सहारा लेने का फैसला कैसे ले लिया . खासतौर से जब वे पुरुष भी जो अपनी लड़कियों की भलाई के बारे में  सजग हैं , वह भी शिक्षा को महत्व नहीं देते . पता चला कि कुछ महीने पहले यहाँ बंगलोर के एक स्कूल में फाइन आर्ट की टीचर महिला ने अपना घर  बनाने का फैसला किया था . जब उन्होंने यहाँ आकर लड़कियों और महिलाओं की ज़िंदगी की मुसीबतें देखीं तो वे सन्नाटे में आ गयीं .  उन्होंने बताया कि समझ में ही नहीं आया कि शिक्षा के बल पर आसमान छू लेने की कोशिश कर रही युवतियों और युवकों के शहर बंगलोर के इतना करीब यह क्या हो रहा था. शुरू में तो यहाँ आकार उनके बस जाने की वजह से कुछ नाराज़गी थी लेकिन जब धीरे धीरे लोगों को मालूम चला कि वे तो सबकी भलाई के लिए काम कर रही हैं तो वे पूरे गाँव की अज्जी हो गयीं .कर्नाटक के इस इलाके में दादी को अज्जी कहते हैं और सफ़ेद बालों और करीब ४० साल  तक पब्लिक स्कूलों में  टीचर के रूप में काम करके उन्होंने कई पीढ़ियों की अज्जी होने का  तजुर्बा हासिल कर लिया  है .
इन अज्जी की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है . दिल्ली के कश्मीरी गेट और अलीगढ में इनका बचपन बीता . इनकी माता जी ने चालीस के दशक में अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में अपने साथ पढ़ने वाली लड़कियों को अपने अधिकारों के बारे में बताना शुरू कर दिया था और कई बार ज्यादतियों के खिलाफ उनको लामबंद भी किया था. इनके परिवार के लोग आज़ादी की लड़ाई में शामिल हुए थे ,इनके पिता जी ने १९४६-४७ में हिंदू कालेज के छात्र के रूप में दिल्ली शहर में मुस्लिम लीग के फैलाए हुए दंगे के खिलाफ मोर्चा लिया था . अज्जी के सभी  भाई बहन अन्याय के खिलाफ मोर्चा लेने में कभी संकोच नहीं करते . दिल्ली के एक बहुत ही नामी पब्लिक स्कूल में  सीनियर टीचर के रूप में काम करते हुए इन्होने बहुत सारे कारनामे किए हैं .स्कूल की इनकी लैब में चपरासी के रूप में काम कर रहे एक दलित लड़के को इन्होने इतना उकसाया किया कि इनको खुश करने के लिए उसने बी ए का पत्राचार का कोर्स किया और बैंक में अफसर का इम्तहान दिया और आज किसी बैंक में मैनेजर है . अपने भाई के एक दोस्त के बच्चों को इन्होने ऐसी दिशा पर डाल दिया कि आज वे सभी मध्यवर्ग की ऊंची पायदान पर विराजमान हैं और जीवन यापन कर रहे हैं . हालांकि यह दोस्त उत्तर प्रदेश के उस इलाके का रहने वाला है जहां अभी बहुत पिछडापन है .यह सब उन्होंने शिक्षा के महत्व का वर्णन करके किया . कई ऐसे केस हैं जहां उन्होने किसी के भी बच्चों की पढाई के लिए ज़रूरी इंतजामात कर दिए थे .उन्होंने रामनगरम जिले के ज्योतिपालया गाँव में देखा कि शिक्षा की कमी के चलते महिलाओं का शोषण हो रहा है तो उन्हें मिशन मिल गया और आज वे इस गाँव में परिवर्तन के लिए जुट पडी हैं . मानसिक रूप से परेशान कुछ पुरुषों के अलावा अब  यहाँ लड़कियों की  शिक्षा का विरोध करने वाले बहुत कम हैं और लगता है कि धीरे धीरे सब कुछ बदल जाएगा क्योंकि अगर लडकी की शिक्षा का सही इंतज़ाम होगा तो असली सामाजिक बदलाव आएगा .



Wednesday, August 7, 2013

पाकिस्तानी फौज, दाऊद इब्राहीम और हाफ़िज़ सईद नहीं चाहते कि भारत और पाकिस्तान के बीच शान्ति कायम हो

 शेष नारायण सिंह
१९८९ में जब मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी और महबूबा मुफ्ती की बहन रुबैय्या सईद का अपहरण हुआ तो पाकिस्तानी आतंकवादी निजाम को लगा था कि भारत की सरकार को मजबूर किया जा सकता है .  तत्कालीन गृहमंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद की बेटी को छुडाने के लिए सरकार ने बहुत सारे समझौते किये जिसके बाद  पाकिस्तानी आतंकवादियों  के हौसले बढ़ गए थे . नियंत्रण रेखा के रास्ते और अन्य रास्तों से आतंकवादी आते रहे , वारदात को अंजाम  देते रहे और सीमा के दोनों तरफ शान्ति को झटका लगता रहा .  उसके बाद सीमावर्ती इलाकों में रहने वालों की जिन्दगी बहुत ही मुश्किल हो गयी.  छिटपुट आतंक की घटनाओं का सिलसिला जारी रहा और आखिर में २००३ के नवम्बर महीने में भारत और पाकिस्तान के बीच सीजफायर का समझौता हुआ . इलाके के किसानों से कोई पूछकर देखे तो पता लग जाएगा कि सीजफायर समझौते के पहले बार्डर के गावों में जिंदा रहना कितना मुश्किल हुआ करता था. सीजफायर लाइन के दोनों तरफ के गाँव वालों की ज़िंदगी बारूद के ढेर पर ही मानी जाती थी . दोनों तरफ के गाँव वालों को पता है कि लगातार होने वाली गोलीबारी में कभी किसी का घर तबाह हो जाता था ,तो कभी कोई किसान मौत का शिकार हो जाता था. लेकिन नवंबर २००३ के बाद सीमावर्ती इलाकों के सैकड़ों गांवों में शान्ति है .सीमा पर कंटीले तार लगे हुए हैं और इन रास्तों से अब कोई आतंकवादी भारत में प्रवेश नहीं करता . सीजफायर समझौते के बाद यहाँ के गांवों में जो शान्ति का माहौल बना है उसे जारी रखने की दुआ इस इलाके के हर घर में होती ,हर गाँव में लोग यही प्रार्थना करते हैं कि सीमावर्ती इलाकों में फिर से झगडा न शुरू हो जाये जाए .

लेकिन दिल्ली और इसलामाबाद में रहकर सत्ता का सुख भोगने वाले एक वर्ग को इन गावं वालों से कोई मतलब नहीं है . उनको तो हर हाल में झगडे की स्थिति चाहिए क्योंकि संघस्ढ़ की स्थिति में मीडिया की दुकानें भी चलती हैं और सियासत का कारोबार भी  परवाना चढता है  . पाकिस्तान में जब भी नवाज़  शरीफ की सरकार बनती है तो पाकिस्तानी फौज में मौजूद उनके पुराने साथियों को लगता है कि अब मनमानी की जा सकेगी लेकिन नवाज शरीफ दोनों देशों के बीच तनाव कम करने के सपने देखने लगते हैं. नवाज शरीफ की इस कोशिश को आई एस आई और फौज में मौजूद उनके साथी धोखा मानते हैं .पाकिस्तान की राजनीति में नवाज़ शरीफ को स्थापित करने के श्रेय पाकिस्तान के पूर्व फौजी तानाशाह, जनरल जिया उल हक को जाता है . नवाजशरीफ अपने शुरुआती राजनीतिक जीवन में जनरल जिया के बहुत बड़े  चेले हुआ करते थे .पाकिस्तानी फौज में भी आजकल टाप पर वही लोग बैठे हैं जो जनरल जिया के वक़्त में नौजवान अफसर होते थे. पाकिस्तानी सेना और समाज का इस्लामीकरण करने की अपनी मुहिम में इन अफसरों का जिया ने पूरी तरह से इस्तेमाल किया था . आज के पाकिस्तानी  सेना के अध्यक्ष जनरल अशफाक कयानी और उनके जूनियर जनरलों ने भारत के हाथों पाकितान को १९७१ में बुरी तरह से हारते देखा है . जब १९७१ में भारत की सैनिक क्षमता के सामने पाकिस्तानी फौज ने घुटने टेके थे ,उसी साल जनरल अशफाक परवेज़ कयानी ने लेफ्टीनेंट के रूप में नौकरी शुरू की थी. उन्होंने बार बार यह स्वीकार किया है कि वे १९७१ का बदला लेना चाहते हैं लेकिन उनकी इस जिद का नतीजा दुनिया के लिए जो भी होउनके अपने देश को भी तबाह कर सकता है . यह बात जनरल अशफाक कयानी को मालूम है कि अगर उन्होंने परमाणु हथियार इस्तेमाल करने की गलती कर दी तो अगले कुछ घंटों में भारत उनकी सारी सैनिक क्षमता को तबाह कर सकता है . अगर ऐसा हुआ तो वह विश्वशान्ति के लिए बहुत ही खतरनाक संकेत होगा . शायद इसीलिये वे कोशिश करते रहते हैं कि भारत और पाकिस्तान के बीच किसी सूरत में रिश्ते सुधरने न पायें और उनको भारत को तबाह करने  के अपने सपने को जिंदा रखने में मदद मिलती रहे .पाकिस्तानी फौजी लीडरशिप की इसी ज़हनियत की वजह से १९९० के बाद से जब भी कोई सिविलियन सरकार दोनों देशों के बीच रिश्ते सुधारने की बात करती है तो पाकिस्तानी फौज या तो आतंकवादियों के ज़रिये और या आई एस आई के ज़रिये कोई ऐसा काम कर देती है जिस से सामान्य होने की दिशा में चल पड़े रिश्ते तबाह हो जाएँ या उस प्रक्रिया में पक्के तौर पर अड़चन ज़रूर आ जाए .जब  तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी बस में बैठकर लाहौर गए थे तो पाकिस्तानी फौज ने कारगिल शुरू कर दिया था . अब तो सबको मालूम है कि कारगिल में जो भी हुआ उसके लिए शुद्ध रूप से उस वक़्त के सेना प्रमुख जनरल परवेज़ मुशर्रफ ज़िम्मेदार थे , प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ को तो पता  भी नहीं था. लेकिन उस घटना के बहुत सारी राजनीतिक नतीजे  निकले थे . नवाज़ शरीफ की  गद्दी चली गयी थी, मुशर्रफ ने सत्ता  हथिया ली थी, कारगिल की लड़ाई हुई थी, भारत ने कारगिल के इलाके से पाकिस्तानी फौज को खदेड़ दिया था और अटल बिहारी वाजपेयी १९९९ के चुनावों विजेता के रूप में  प्रचार  करते हुए पांच साल तक राज करने का जनादेश लाये थे.
जम्मू-कश्मीर के पुंछ इलाके में पांच भारतीय सैनिकों के मारे जाने की घटना को भी जल्दबाजी में पाकिस्तानी हमला मान लेना ठीक नहीं होगा . इस बात की पूरी संभावना है कि पाकिस्तानी फौज ने नई नवाज़ शरीफ सरकार को भारत की तरफ दोस्ती का हाथ बढाने से रोकने के लिए यह काम किया हो . इस  बात में तो शक नहीं हो सकता पाकिस्तानी फौज ने ही भारतीय सैनिकों की जघन्य ह्त्या करवाई है लेकिन यह ज़रूरी नहीं है कि पाकिस्तान की सिविलियन सरकार भी इसमें शामिल हो .इसे मुशर्रफ के उस एडवेंचर से मिलाकर देखना चाहिए जब लाहौर बस यात्रा से पैदा हुए माहौल को खराब करने के लिए मुशर्रफ की पाकिस्तानी फौज ने कारगिल कर दिया था.
पुंछ सेक्टर की ताज़ा घटना  भारत और पाकिस्तान के आपसी संबंधों की परीक्षा लेने के लिए तैयार है . पाकिस्तानी आई एस आई और हाफ़िज़ सईद के अधीन काम करनेवाले आतंकवादी संगठन कभी इस बात को स्वीकार नहीं करेगें कि भारत और पाकिस्तान के बीच किसी तरह के सामान्य सम्बन्ध  कायम हों .  इसका एक नतीजा यह भी  होगा कि मुंबई हमलों के गुनाहगार  हाफ़िज़ सईद को पाकिस्तान भारत के हवाले भी कर सकता है .अगर दोनों देशों में दोस्ती  हो गयी तो भारत दाऊद इब्राहीम के प्रत्यर्पण की मांग भी कर सकता है. सबको मालूम है कि दाऊद इब्राहीम और हाफ़िज़ सईद पाकिस्तानी हुक्मरान की नज़र में कितने ताक़तवर हैं . इसलिए यह दोनों अपराधी किसी भी सूरत में दोनों देशों के बीच  दोस्ती नहीं कायम होने देगें .अजीब बात यह है कि भारत में पब्लिक ओपिनियन के करता धरता भी पाकिस्तानी  आतंकवाद के सूत्रधारों के जाल में फंसते जा रहे हैं .भारत के टेलिविज़न चैनलों की चले तो वे आज ही पाकिस्तान पर भारतीय फौजों से हमला करवा दें . विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी का रवैया भी पुंछ में  हुई भारतीय सैनिकों की निर्मम हत्या के बाद ऐसा है कि वे पाकिस्तानी आतंकवादियों की मंशा  को पूरी करते नज़र आ रहे हैं . बीजेपी के एक नेता ने लोकसभा में कह दिया कि कि भारत के पास ताक़त है ,भारतीय सेना के पास ताक़त है ,भारतीय संसद के पास ताक़त है  कि पाकिस्तान को उसी भाषा में जवाब दिया जाए जो उसकी समझ में आती है .इस तरह की बयानबाजी से दोनों देशों के बीच के रिश्ते और खराब होंगें ,पाकिस्तानी सेना में मौजूद वे लोग मज़बूत होंगें जो भारत से हर हाल में दुश्मनी रखना चाहते हैं और पाकिस्तान में रहकर भारत के खिलाफ काम करने वाला आतंक का तंत्र बहुत मज़बूत होगा. इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि भारत का मीडिया और राजनीतिक बिरादरी पाकिस्तानी आतंकवादियों के जाल में न फंसे और उनके मंसूबों  को नाकाम करने की कोशिश करे . इस मिशन में पाकिस्तानी सिविलियन  सरकार की विश्वसनीयता बढाने की कोशिश भी की जानी चाहिए .
भारत के रक्षा मंत्री ए के एंटोनी ने संसद में बताया कि भारी हथियारों से लैस करीब बीस आतंकवादियों और पाकिस्तानी सेना की वर्दी पहने कुछ लोगों ने पुंछ के इलाके में हमला किया  और पांच भारतीय सैनिकों की जानें गयीं . यू पी ए की अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि भारत को इस तरह के धोखेबाजी के तरीकों से परेशान नहीं किया जा सकता. पाकिस्तान की सरकार ने कहा है कि भारतीय मीडिया ने आरोप लगाया है कि पुंछ की घटना में पाकिस्तान की सेना का हाथ है जिसे पाकिस्तानी सरकार खारिज करती है . पाकिस्तान सरकार की तरफ से जो बयान आया है उसके मुताबिक सीमा पर ऐसा कोई भी काम नहीं हुआ जिसके कारण दोनों देशों के बीच में तनाव  आये.  यह बयान सच्चाई को छुपाता है लेकिन फिर भी यह युद्ध की तरफ बढ़ने वाली कूटनीति को लगाम देने में इस्तेमाल किया जा सकता है . भारत के विदेशमंत्री सलमान खुर्शीद ने कहा है कि इस घटना से दोनों देशों के बीच सामान्य हो रहे रिश्तों में बाधा ज़रूर पड़ेगी  .पाकिस्तान में नवाज़ शरीफ की सरकार आने के बाद उम्मीद बढ़ी थी कि रिश्ते सामान्य होंगें . इसी साल जनवरी में एक भारतीय सैनिक का सिर काटे जाने के बाद रिश्तों में बहुत तल्खी आ गयी थी लेकिन पाकिस्तान में आम चुनाव के बाद आयी नवाज़ शरीफ की नई सरकार आने के बाद उम्मीदें थोडा बढ़ी थीं . सितम्बर में संयुक्त राष्ट्र के सम्मलेन के बहाने दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों की मुलाक़ात की संभावना है लेकिन लगता है कि आई एस आई , पाकिस्तानी फौज और पाकिस्तानी आतंकवादियों की साज़िश के बाद मामला बिगड सकता है . अगर ऐसा हुआ तो इसे पाकिस्तानी ज़मीन पर रहकर ,पाकिस्तानी सरकार की परवाह किये बिना  भारत से रिश्ते खराब करने वालों के मंसूबों की जीत माना जायेगा . ज़ाहिर है इससे  सीमा के दोनों तरफ रहने वाले शान्तिप्रेमी लोगों इच्छाओं को ज़बरदस्त धक्का लगेगा

अमरीकी फेडरल रिज़र्व की मुखिया किसी महिला को बनाने के चर्चा से मर्दवादी परेशान


शेष नारायण सिंह

अमरीका के फेडरल रिज़र्व के अध्यक्ष के रूप में उसके गवर्नारों के बोर्ड की मौजूदा उपाध्यक्ष जेनेट येलेन की  तैनाती की चर्चा है , वे महिला हैं और किसी भी पुरुष से ज़्यादा योग्य हैं लेकिन अमरीकी समाज में पिछडापन की हद ही कही जायेगी कि उनके खिलाफ आभियान चलाया जा रहा है कि वे देश की सबसे बड़ी वित्तीय संस्था की अध्यक्ष न बन जाएँ. एक फटीचर अमरीकी अखबार में उनके महिला होने के कारण फेडरल रिज़र्व के अध्यक्ष पद पर तैनाती के खिलाफ सम्पादकीय लिख दिया गया . अजीब बात है कि देश के बड़े आर्थिक अखबार , वाल स्ट्रीट जर्नल में भी उसी संपादकीय के हवाले से चर्चा कर दी गयी और इस अखबार की मर्दवादी सोच को सही ठहरा दिया गया .

भारत में  लोग नहीं जानते होंगें लेकिन अमरीका में सबसे  बड़े वित्तीय प्रबंधक के रूप में जेनेट येलेन की पहचान है .उन्होंने अमरीका के शीर्ष विश्वविद्यालयों में शिक्षा पायी है . ब्राउन विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद उन्होंने येल विश्वविद्यालय से पी. एचडी किया था. हार्वर्ड विश्वाविद्यालय में अर्थशास्त्र विभाग में सहायक प्रोफ़ेसर के रूप में उन्होंने नौकरी शुरू की और १९७६ तक हार्वर्ड में रहीं . १९७७-७८ में वे इसी फेडरल रिज़र्व में इकानामिस्ट के रूप  में काम किया जिसकी आजकल उपाध्यक्ष हैं  . १९८० में उन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय ,बर्कले के बिजिनेस स्कूल में मैक्रो इकनामिक्स की शिक्षक रहीं .डॉ येलेन बिल क्लिंटन के राष्ट्रपति काल में आर्थिक सलाहकारों की परिषद की अध्यक्ष रहीं . वे हार्वर्ड विश्वविद्यालय और लन्दन स्कूल आफ इकानामिक्स में प्रोफ़ेसर रह चुकी हैं . अमरीका की सबसे प्रतिष्ठित अर्थशास्त्र के विद्वानों की संस्था अमेरिकन इकनामिक एसोशियेशन की उपाध्यक्ष रह चुकी हैं .  फेडरल रिज़र्व सिस्टम के मौजूदा अध्यक्ष  बेन  बर्नान्के को अगर २००९ में फिर से अध्यक्ष न बना दिया गया होता तो उस वक़्त में उनके गंभीर उताराधिकारियों में जेनेट येलेन का नाम  लिया जा रहा था . लेकिन अमरीकी अर्थव्यवस्था का नुक्सान होना था तो पता नहीं किस रौ में बराक ओबामा ने बर्नान्के को फिर से एक और कार्यकाल बख्श दिया .और पांच साल के लिए फेडरल रिज़र्व की मुख्य कुर्सी पर बैठा दिया .

इस बात की पूरी संभावना है कि इतनी काबिल महिला को इस बार फेडरल रिज़र्व सिस्टम का अध्यक्ष बना दिया जाएगा लेकिन अमरीकी समाज में मौजूद पुरातनपंथी और पोंगापंथी राजनेता  और लाबी ग्रुप के लोग उनका विरोध कर रहे हैं . यह विरोध दो स्तरों पर हो रहा है . एक तो घटिया दर्जे की मानसिकता वाले पब्लिक ओपिनियन लीडर लोग कुछ फटीचर और मर्दवादी अखबारों में लिख रहे हैं .जबकि सच्चाई यह है कि आज की तारीख में अमरीका में अगर कोई इस नौकरी लायक है तो उसमें सबसे ऊपर जेनेट येलेन का ही नाम आता है . कुछ ऐसे लोग जो  मर्दवादी तो हैं लेकिन ऐलानियाँ विरोध करने की उनकी हिम्मत नहीं पड़ती , वे येलेन के खिलाफ निंदा अभियान गुप्त रूप से चला रहे हैं .

पिछले हफ्ते  सन अखबार ने उनके खिलाफ एक सम्पादकीय लिखा जिसका  शीर्षक था “ द फीमेल डालर “ .इस सम्पादकीय ने बहुत ही बेशर्मी से ऐलान किया कि पिछले पचास साल से फेडरल रिज़र्व ने ऐसी मुद्रानीति का पालन किया है  जिस से मुद्रास्फीति बढती है और अगर किसी महिला को  फेडरल रिज़र्व का काम सौंप दिया गया तो यह और खराब हो जाएगा. इस सम्पादकीय लेखक को यह भी पता नहीं है कि अमरीकी अर्थव्यवस्था में इस साल की मुद्रास्फीति  पचास वर्षों में सबसे नीचे हैं .सन अखबार का कोई मतलब नहीं होता क्योंकि उसकी कोई औकात नहीं है .अगर अन्य दक्षिणपंथी अखबारों ने इस लाइन को आगे न बढ़ाया होता तो कोई भी परवाह न करता  . लेकिन वाल स्ट्रीट जर्नल समेत कुछ नामी अखबारों ने भी अभियान शुरू कर दिया . जिसकी निंदा की जानी चाहिए .
सवाल यह है कि अगर जेनेट येलेन पुरुष होतीं और जितना दमदार उनका बायोडाटा है तो किसी भी अमरीकी पुरातनपंथी मर्दवादी नेता और बुद्धिजीवी ने उनका विरोध न किया होता .लेकिन ऐसा हो रहा है और इसकी निंदा की जानी चाहिए और राष्ट्रपति बराक ओबामा को चाहिए कि २००९ की गलती न दोहराएँ और जैनेट येलेन को इस बार फेडरल रिज़र्व सिस्टम का अध्यक्ष बनाने में संकोच न करें .

Monday, August 5, 2013

जन्मदिन मुबारक मेरे बेटे





शेष नारायण सिंह

आज हमारे बेटे का जन्मदिन है . इमरजेंसी लगने के करीब डेढ़ महीने बाद सुल्तानपुर जिले के मेरे गाँव में ६ अगस्त के दिन इनका जन्म हुआ. कई साल बाद उनके जन्मदिन के दो दिन पहले मुंबई के उनके घर में साथ थे ,उनकी अम्मा ने कहा कि चलो एक बहुत अच्छी कमीज़ खरीद कर लाते हैं . बातों बातों में मेरे मुंह से निकल गया तो उन्होंने कहा कि मेरे जन्मदिन पर कपडे तो कभी नहीं आये . उनकी इस बात के बाद ऐसा लगा कि पिछले अडतीस साल का एक एक दिन नज़रों के सामने से गुज़र गया . आज वे एक बड़ी विदेशी बैंक में बड़े पद पर काम करते हैं ,उच्च मध्य वर्ग की अच्छी ज़िंदगी जीते  हैं , एक बहुत ही ज़हीन लड़की उनकी पत्नी है और एक निहायत ही काबिल लड़का उनका बेटा है . स्कूल जाता है और बहुत बड़ा पाटी करता है ,बाबा  को उसे साफ़ करने का मौक़ा देता है और  अपनी दादी को बुलाने के लिए सप्तम सुर में दादी दादी कहकर आवाज़ लगाता है .अगर अच्छे मूड में होता है तो दादी को भी पाटी देखने का मौक़ा देता है . उनकी दादी धन्य हो जाती हैं .
अपने बेटे के लिए पहली बार जन्मदिन का गिफ्ट लेने हम १९८१ में गए थे . उसके पहले गाँव में  रहते थे ,किसी को पता भी नहीं होता था कि जन्मदिन क्या होता है लेकिन दिल्ली में जब यह स्कूल गए तो हर महीने कुछ बच्चों का जन्मदिन होता था, लिहाजा इनका जन्मदिन भी  इनकी क्लास में और घर में सबको पता लगा . जन्मदिन का गिफ्ट लेने के चक्कर में कई दुकानों में गए लेकिन समझ में कुछ नहीं आया . जिस गिफ्ट पर भी हाथ डाला ,वह खरीद की सीमा के बाहर था . शाम तक वापस आ गए . अगले दिन जे एन यू जाना हुआ और गीता बुक सेंटर पर खड़े हुए दूकान के मालिक दादा से भी ज़िक्र कर दिया . उसके बाद तो लगा कि सारी राहें आसान हो गयीं . दादा ने प्रगति प्रकाशन मास्को की कई किताबें पैक कर दीं और कहा कि जब तक बच्चा बड़ा न हो जाए उसे हर साल किताब ही देते रहना .  वह सारा गिफ्ट दस रूपये में आया था. उसके बाद जब तक हम साथ रहे हर साल किताबों का गिफ्ट देते रहे. उनके जन्मदिन पर दी  गयी किताबों ने उनकी ज़िंदगी को खूबसूरत बनाने में अहम  भूमिका निभाई वर्ना एक अनिश्चित आमदनी वाले माँ बाप के बच्चों की जिन्दगी में वह स्थिरता नहीं होती जो इनकी ज़िंदगी में है और इनकी बहनों की जिन्दगी में है . जन्मदिन की किताबें खरीदने के लिए हम कई बार गोलचा सिनेमा के पास बिकने वाली पुरानी किताबों को देखने फुटपाथ पर भी गए ,कई बार बुक आफ नालेज लाये और कई बार डिक्शनरियां लाये .किताबों के प्रति उनके मन में आज भी बहुत सम्मान है और जब भी कहीं टाइम पास करना होता है किताबें खरीद लेते हैं .

आज जब पीछे  मुड़कर देखता हूँ तो लगता  है कि दादा की सलाह ने मेरे और और मेरे बच्चों के भविष्य को बदल दिया . मैं जानता हूँ  कि हमारा बेटा जहां भी होता है उसको लोग बहुत सम्मान देते हैं , पढ़ा लिखा इंसान माना जाता  है. आमतौर पर शांत रहने वाला हमारा यह बेटा एक बेहतरीन पति और बहुत अच्छा बाप है . मुझे मालूम है कि वह अपनी अम्मा को बहुत सम्मान करता  है और मेरी हर परेशानी को समझता है लेकिन मेरे सिद्धार्थ ने मुझे कभी बेचारा नहीं माना . जैसे ही  हमारी किसी  परेशानी का पता चलता है मेरा बेटा उसको हल करने के लिए तड़प उठता है लेकिन जब तक हम कह न दें कोई पहल नहीं करता . जन्मदिन मुबारक मेरे बेटे अम्मा की तरफ से भी और पापा की तरफ से भी .

उत्तर प्रदेश ने हमेशा ही देश की राजनीति को दिशा दी है


शेष नारायण सिंह

उत्तर प्रदेश में आज अराजकता का माहौल है ,कानून व्यवस्था की हालत बहुत खराब है लेकिन राजनीतिक रूप से राज्य की ताक़त कभी कम नहीं हुई ,आज भी राजनीतिक हैसियत कम नहीं है . गंगा नदी के प्रवाह के इस मुख्य क्षेत्र में हमेशा से भारतीय राजनीति की दिशा तय होती रही है . आज़ादी के लिए पहली  बार जब इस देश की जनता उठ खड़ी हुई थी तो मई १८५७ की मुख्य लड़ाइयां उत्तर प्रदेश में ही लड़ी गयी थीं.  महात्मा गांधी के नेतृत्व में भी आधुनिक भारत की स्थापना और अंग्रेजों से राजनीतिक स्वतंत्रता की जो लड़ाई लड़ी गयी उसमें उत्तर प्रदेश का महत्वपूर्ण स्थान है . १९२० में आज़ादी की इच्छा रखने वाला हर भारतवासी महात्मा गांधी के साथ था, केवल अंग्रेजों के कुछ खास लोग उनके खिलाफ थे .आज़ादी  की लड़ाई में एक ऐतिहासिक मुकाम तब आया जब चौरीचौरा की हिंसक घटना के बाद महात्मा गांधी ने आंदोलन वापस ले लिया . उस वक़्त के हर बड़े नेता ने महात्मा गांधी से आन्दोलन जारी रखने का आग्रह किया लेकिन महात्माजी ने साफ़ कह दिया कि भारतीयों की सबसे बड़ी ताक़त अहिंसा थी .  सच भी है कि अगर हिंसक  रास्ते अपनाए जाते तो अंग्रेजों ने तो़प खोल दिया होता और जनता की  महत्वाकांक्षाओं की वही दुर्दशा होती जो १८५७ में हुई थी. १९२९ और १९३० में जब जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया तो लाहौर की कांग्रेस में पूर्ण स्वराज का नारा दिया गया . १९२९ में  कांग्रेस और स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व उत्तर प्रदेश के हाथ आया तो वह कभी नहीं हटा. ११९३० के दशक में भारत में जो राजनीतिक परिवर्तन हुए वे किसी भी देश के लिए पूरा इतिहास हो सकते हैं . गवर्नमेंट आफ इन्डिया एक्ट १९३५ के  बाद की अंग्रेज़ी साजिशों का सारा पर्दाफाश  यहीं  हुआ. १९३७ में लखनऊ में  हुए मुस्लिम  लीग के सम्मेलन में ही मुहम्मद अली जिन्ना ने अंग्रेजों की शह पर द्विराष्ट्र सिद्धांत का प्रतिपादन किया और  तुरंत से ही उसका विरोध शुरू हो गया . उस वक़्त के मज़बूत संगठन ,हिंदू महासभा के  राष्ट्रीय अध्यक्ष विनायक दामोदर सावरकार ने भी अहमदाबाद में हुए अपने वार्षिक अधिवेशन में द्विराष्ट्र सिद्धांत का नारा दे दिया  लेकिन उत्तर प्रदेश में उसी साल हुए चुनावों में इस सिद्धांत की धज्जियां उड़ चुकी थीं क्योंकि  यहाँ की जनता ने सन्देश दे दिया था कि भारत एक है और वहाँ दो राष्ट्र वाले  सिद्धांत के लिए कोई जगह  नहीं है . मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा को चुनावों में  जनता ने नकार दिया था . कांग्रेस के अंदर जो समाजवादी रुझान शुरू हुई और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के ज़रिये आतंरिक लोकतंत्र को और मजबूती देने की जो कोशिश की गयी उसके दोनों बड़े नेता आचार्य नरेंद्र देव और डॉ राम मनोहर लोहिया उत्तर प्रदेश के ही मूल निवासी थे .  
भारतीय राजनीति में  कांग्रेस के विकल्प को तलाशने की  कोशिश भी यहीं शुरू हुई . जब डॉ  राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद की अपनी राजनीतिक सोच को अमली जामा पहनाया तो तीन बड़े नेताओं ने उत्तर प्रदेश के कन्नौज, मुरादाबाद और जौनपुर में १९६३ के लोकसभा के उपचुनावों में हिस्सा लिया . डॉ लोहिया  कन्नौज ,आचार्य जे बी कृपलानी मुरादाबाद और दीनदयाल उपाध्याय जौनपुर से गैर कांग्रेसवाद के उम्मीदवार बने . इसी प्रयोग के बाद  गैरकांग्रेसवाद ने एक शकल हासिल की और १९६७ में हुए आम चुनावों में अमृतसर से कोलकता तक के  इलाके में वह कांग्रेस चुनाव हार गयी और  विपक्षी पार्टी बन  गयी जिसे जवाहर लाल  नेहरू के जीवनकाल में अजेय माना जाता रहा था . १९६७ में संविद सरकारों का जो प्रयोग हुआ उसे शासन  पद्धति का को बहुत बड़ा उदाहरण तो नहीं माना जा सकता लेकिन यह पक्का है कि उसके बाद से ही यह बात आम  जहनियत का हिस्सा बन गयी कि कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया जा सकता है . सभी मानते हैं कि देश में लोकप्रिय सरकार बनाने के लिए ज़रूरी है कि उत्तर प्रदेश में राजनीतिक हैसियत बनायी जाए. अगर उत्तर प्रदेश में किसी राजनीतिक पार्टी की ताक़त नहीं है तो दिल्ली में सरकार बना पाना असंभव माना जाता है .
अब तक की सच्चाई यही है कि जो भी केन्द्र में सरकार बनाएगा उसे उत्तर प्रदेश में जीत दर्ज करना ज़रूरी है . जो उत्तर प्रदेश में हार गया उसे दिल्ली में सरकार बनाने  का हक भी साथ साथ छोड़ना पड़ता है . १९७७ में पहली बार केन्द्र में गैरकांग्रेस सरकार बनी थी . इस सरकार में उत्तर प्रदेश में जीती गयी जनता पार्टी की ८५ सीटों  का मुख्य योगदान था .उस चुनाव में कांग्रेस पार्टी के सभी उम्मीदवार उत्तर प्रदेश में चुनाव हार गए थे ,प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी खुद चुनाव हार गयी थीं . लेकिन जब १९८० में हुए चनाव में काँग्रेस ने लगभग सभी सीटें जीत लीं  तो उनकी सरकार बन गयी और इंदिरा गांधी  फिर प्रधानमंत्री बनीं.  राजनीतिक पार्टियों के भाग्योदय में  भी उत्तर प्रदेश की राजनीति एक मानदंड का काम करती है . आज का मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी है . लेकिन १९८४ में हुए लोकसभा चुनाव में उसे उत्तर प्रदेश में नकार दिया गया था . नतीजा  हुआ कि पार्टी पूरे देश में केवल दो सीटों पर सिमट गयी थी. लेकिन जब उत्तर प्रदेश में उसे सफलता मिली तो १९८९ में बीजेपी एक महत्वपूर्ण पार्टी बनी और उसे  केन्द्र में वी पी सिंह की सरकार को बनवाने का मौका मिला . बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में ही बाबरी मसजिद-रामजन्म भूमि विवाद को राजनीतिक स्वरूप दिया और उसी के बल पर केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी . अयोध्या  के विवाद को फिर से मुख्यधारा में लाने की चर्चा आजकल भी है और जानकार बताते हैं  कि २०१४ में बीजेपी , अगर सत्ता में आने में सफल होती है तो उसमें उत्तर प्रदेश का सबसे ज़्यादा योगदान होगा . शायद इसीलिये बीजेपी में  राष्ट्रीय अध्यक्ष के बाद के सबसे महत्वपूर्ण नेता और मुख्य चुनाव प्रचारक नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश में सबसे ज़्यादा ध्यान दिया है . उन्हें मालूम है कि अगर दिल्ली में राज करना  है तो उत्तर प्रदेश में मजबूती के साथ आना होगा . इसीलिये नरेंद्र मोदी ने अपने सबसे भरोसेमंद साथी ,अमित शाह को बीजेपी की तरफ से उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनवाया है . बताते हैं कि गुजरात में  नरेंद्र मोदी के चुनाव का सारा प्रबंध अमित शाह ही करते हैं  . बीच में कुछ दिनों के लिए वे गुजरात के राजनीतिक पटल से हटे थे जब उनको  कोर्ट के आदेश पर गुजरात में घुसने से मना कर दिया गया था .
केन्द्र की मौजूदा सरकार  हो या अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ,उसे उत्तर प्रदेश के  नेताओं ने ही जीवनदायिनी शक्ति बख्शी है . केन्द्र की मौजूदा सरकार का अस्तित्व केवल इसलिए बचा है कि उसे मुलायम सिंह यादव और मायावती का समर्थन हर बुरे वक़्त में मिल  जाता है . मायावती जी ने अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को बचा रखा था और जब उनकी सरकार के मंत्री जगमोहन ने ताज कारिडोर मामला शुरू किया तो मायावती की धमकी के बाद बीजेपी के राजनीतिक प्रबंधकों को बहुत मुश्किल का सामना करना पड़ा था .
इसलिए उत्तर प्रदेश के राजनीतिक महत्व को कभी भी कमतर करके नहीं आँका जा सकता . दिल्ली की सरकार का हर रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर ही गुज़रता है शायद इसी लिए २०१४ के लोकसभा चुनाव के लिए भी दोनों ही मुख्य पार्टियां उत्तर प्रदेश को बहुत गंभीरता से ले  रही हैं . मुलायम सिंह यादव और मायावती भी सारी ताक़त के साथ जुटे हैं कि अगर केन्द्र की सरकार में महत्वपूर्ण बने रहना है तो अपने राज्य में उन्हें मजबूती से जीतना पडेगा .

( नवभारत टाइम्स से साभार )