Saturday, October 19, 2019

कश्मीर : नेहरू, शेख अब्दुल्ला और श्यामा प्रसाद मुखर्जी



शेष नारायण सिंह

आज जम्मू-कश्मीर की सियासत में बहुत बड़ा उथल पुथल चल रहा है  संविधान के अनुच्छेद ३७० के असर को ख़त्म कर दिया गया है और  राज्य को किसी और राज्य की तरह बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गयी है . अभी फिलहाल लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग कर दिया गया है और पूरे राज्य की जगह पर दो केंद्र शासित राज्य बना दिए गए  हैं . जम्मू-कश्मीर ऐतिहासिक रूप से हमेशा से भारत का हिस्सा रहा है . हालांकि यह भी सच है कि राजनीतिक एकता समय समय पर नहीं रही लेकिन सांस्कृतिक एकता रही  है. कल्हण की राजतरंगिणी के समय से तो कश्मीर का भारत से बहुत ही क़रीबी सम्बन्ध रहा है . १९४७ में जो समस्याएं पैदा हुईं उनकी जड़ में जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन महाराजा हरिसिंह की सबसे गैर ज़िम्मेदार भूमिका रही है . हालांकि बाद में शेख अब्दुल्ला का भी रवैया बहुत ही अजीब हो गया था और जो जवाहरलाल नेहरू उन पर पूरी तरह से विश्वास कर रहे थे उनको ही शेख अब्दुल्ला के खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी पड़ी और उनको गिरफ्तार भी करना पडा . जम्मू-कश्मीर की राजनीति में  आजादी  का सन्दर्भ बिलकुल अलग है . राजा हरसिंह के राज में भी जनता अपने को गुलाम  मानती थी और रणजीत सिंह के राज में भी . लेकिन जब सरदार पटेल ने राजा से जम्मू -कश्मीर के विलय के दस्तावेजों पर दस्तखत करवा लिया तो वहां के हिन्दू,मुसलमान और बौद्धों ने अपने को आज़ाद माना था. जम्मू-कश्मीर अंग्रेजों के डायरेक्ट अधीन तो कभी रहा नहीं इसलिए उनकी आज़ादी १५ अगस्त १९४७ के दिन नहीं हुई. उनकी आज़ादी तब हुयी जब अक्टूबर १९४७ में राजा हरिसिंह ने उनका पिंड छोड़ दिया और जम्मू-कश्मीर आज़ाद  भारत का हिस्सा हो गया .लेकिन आज हालात बिलकुल अलग हैं .जिस कश्मीरी अवाम ने कभी पाकिस्तान और उसके नेता मुहम्मद अली जिन्नाह को धता बता दी थी और जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राजा की पाकिस्तान के साथ मिलने की कोशिशों को फटकार दिया थाऔर भारत के साथ विलय के लिए चल रही शेख अब्दुल्ला की कोशिश को अहमियत दी थी आज वह भारतीय नेताओं से इतना नाराज़ है. कश्मीर में पिछले ३० साल से चल रहे आतंक के खेल में लोग भूलने लगे हैं कि जम्मू-कश्मीर की मुस्लिम बहुमत वाली जनता ने पाकिस्तान के खिलाफ भारतीय नेताओंमहात्मा गाँधी जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल को अपना माना था. पिछले ७० साल के इतिहास पर एक नज़र डाल लेने से तस्वीर पूरी तरह साफ़ हो जायेगी.

देश के बँटवारे के वक़्त अंग्रेजों ने देशी रियासतों को भारत या पाकिस्तान के साथ मिलने की आज़ादी दी थी. बहुत ही पेचीदा मामला था . ज़्यादातर देशी राजा तो भारत के साथ मिल गए लेकिन जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर का मामला विवादों के घेरे में बना रहा . कश्मीर में ज़्यादातर लोग तो आज़ादी के पक्ष में थे . कुछ लोग चाहते थे कि पाकिस्तान के साथ मिल जाएँ लेकिन अपनी स्वायत्तता को सुरक्षित रखें. इस बीच महाराजा हरि सिंह के प्रधान मंत्री ने पाकिस्तान की सरकार के सामने एक स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का प्रस्ताव रखा जिसके तहत लाहौर सर्किल के केंद्रीय विभाग पाकिस्तान सरकार के अधीन काम करेगें . १५ अगस्त को पाकिस्तान की सरकार ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा के स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसके बाद पूरे राज्य के डाकखानों पर पाकिस्तानी झंडे फहराने लगे . भारत सरकार को इस से चिंता हुई और जवाहर लाल नेहरू ने अपनी चिंता का इज़हार इन शब्दों में किया."पाकिस्तान की रणनीति यह है कि अभी ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ कर ली जाए और जब जाड़ों में कश्मीर अलग थलग पड़ जाए तो कोई बड़ी कार्रवाई की ." नेहरू ने सरदार पटेल को एक पत्र भी लिखा कि ऐसे हालात बन रहे हैं कि महाराजा के सामने और कोई विकल्प नहीं बचेगा और वह नेशनल कान्फरेन्स और शेख अब्दुल्ला से मदद मागेगा और भारत के साथ विलय कर लेगा.अगर ऐसा हो गया गया तो पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर किसी तरह का हमला करना इस लिए मुश्किल हो जाएगा कि उसे सीधे भारत से मुकाबला करना पडेगा.अगर राजा ने इस सलाह को मान लिया होता तो कश्मीर समस्या का जन्म ही न होता..इस बीच जम्मू में साम्प्रदायिक दंगें भड़क उठे थे . बात अक्टूबर तक बहुत बिगड़ गयी और महात्मा गाँधी ने इस हालत के लिए महाराजा को व्यक्तिगत तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया . पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बढाने के लिए लाहौर से आने वाली कपडे, पेट्रोल और राशन की सप्प्लाई रोक दी. संचार व्यवस्था पाकिस्तान के पास स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के बाद आ ही गयी थी. उसमें भी भारी अड़चन डाली गयी.. हालात तेज़ी से बिगड़ रहे थे और लगने लगा था कि अक्टूबर १९४६ में की गयी महात्मा गाँधी की भविष्यवाणी सच हो जायेगी. महात्मा ने कहा था कि अगर राजा अपनी ढुलमुल नीति से बाज़ नहीं आते तो कश्मीर का एक यूनिट के रूप में बचे रहना संदिग्ध हो जाएगा.

ऐसी हालत में राजा ने पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने की कोशिश शुरू कर दी. . नतीजा यह हुआ कि उनके प्रधान मंत्री मेहर चंद महाजन को कराची बुलाया गया. जहां जाकर उन्होंने अपने ख्याली पुलाव पकाए. महाजन ने कहा कि उनकी इच्छा है कि कश्मीर पूरब का स्विटज़रलैंड बन जाए , स्वतंत्र देश हो और भारत और पाकिस्तान दोनों से ही बहुत ही दोस्ताना सम्बन्ध रहें . लेकिन पाकिस्तान को कल्पना की इस उड़ान में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उसने कहा कि पाकिस्तान में विलय के कागजात पर दस्तखत करो फिर देखा जाएगा . इधर २१ अक्टूबर १९४७ के दिन राजा ने अगली चाल चल दी. उन्होंने रिटायर्ड जज बख्शी टेक चंद को नियुक्त कर दिया कि वे कश्मीर का नया संविधान बनाने का काम शुरू कर दें.कश्मीर को  स्वतंत्र देश बनाने का  महाराजा का आइडिया जिन्ना को पसंद नहीं आया और पाकिस्तान सरकार ने कबायली हमले की शुरुआत कर दी. राजा को अंधरे में रख कर  पाकिस्तान की फौज़ कबायलियों को आगे करके श्रीनगर की तरफ बढ़ रही थी.  बातचीत का सिलसिला भी जारी था . पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव मेजर ए एस बी शाह श्रीनगर में थे और राजा के अधिकारियों से मिल जुल रहे थे. जब हमले का पता चला तब राजा हरिसिंह की समझ में जिन्नाह की  तिकड़मबाज़ी आई . उनके प्रधान मंत्री, मेहर चंद महाजन २६ अक्टूबर को दिल्ली भागे. उन्होंने नेहरू से कहा कि महाराजा भारत के साथ विलय करना चाहते हैं . लेकिन एक शर्त भी थी. वह यह कि भारत की सेना आज ही कश्मीर पंहुच जाए और पाकिस्तानी हमले से उनकी रक्षा करे वरना वे पाकिस्तान से बात चीत शुरू कर देगें. नेहरू ने गुस्से में उनको भगा दिया . शेख अब्दुल्ला दिल्ली में ही थे .उन्होंने नेहरू का गुस्सा शांत कराया . मेहरचंद महाजन को औकातबोध हुआ और सरदार पटेल ने वी पी मेनन को भेजकर राजा से  विलय के कागज़ात पर दस्तखत करवाया जिसे  २७ अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया.  सरदार पटेल ने हवाई ज़हाज से भारत की फौज़ को तुरंत रवाना कर दिया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया . कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी. उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी लेकिन अब वह बात नहीं है.
यहाँ तक तो सब कुछ ठीक था लेकिन उसके बाद बातें बिगड़ना शुरू हो गयीं . लड़ाई चल ही रही थी कि भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन की सलाह पर पाकिस्तानी हमले का मामला जवाहरलाल नेहरू १ जनवरी १९४८ के दिन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ले गए . अपने इस फैसले पर खुद वे भी बाद में पछताए . एक देश के रूप में तो भारत आज  तक अफसोस कर रहा है .पाकिस्तान  इसी मौके का इंतज़ार कर रहा था. उसने भारत पर तरह तरह के आरोप लगाना शुरू कर दिया . जवाहरलाल नेहरू को अपनी गलती  का अंदाजा हो गया . ब्रिटेन की सरकार ने मामले को बहुत बड़ा विस्तार दे दिया . बात पाकिस्तानी हमले की हो रही थी लेकिन ब्रिटेन की सरकार ने संयुक्त राष्ट्र में अपने प्रभाव और अमरीका की मदद लेकर इसको भारत-पाकिस्तान  विवाद की शक्ल दे दिया .सरदार पटेल इसके पक्ष में नहीं थे लेकिन जवाहरलाल नेहरू को अंगेजों की इन्साफ भावना पर बहुत भरोसा था  . २१ अप्रैल १९४८ के दिन एक प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने पास कर दिया . इस प्रस्ताव में पाकिस्तान को अपने कबायली लड़ाके वापस लेने को नहीं कहा गया . भारत को अपमानित करने के लिए भारत और पाकिस्तान को बराबर माना  गया .भारत में  चारों तरफ तल्खी ला माहौल बन गया . उन दिनों संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत के स्थाई प्रतिनिधि एन गोपालस्वामी अय्यंगर हुआ करते थे .उन्होंने सरकार के पास जो नोट भेजा उसमें लिखा है कि ," मैं अपनी सरकार को यह सलाह कभी नहीं दूंगा कि वह कोई मामला सुरक्षा परिषद में लाये  " जवाहरलाल नेहरू को इस बात की गंभीरता का अनुमान पूरी तरह से हो गया था . बहुत बाद में  जब अमरीका की सरकार भारत को कुछ  दोस्ती के संकेत देने की कोशिश कर रही थी और अमरीका में भारत की राजदूत विजयलक्ष्मी पंडित के ज़रिये कुछ सन्देश भेजने की कोशिश कर रही थी तो नेहरू ने एक सख्त सात टेलीग्राम विजयलक्ष्मी पंडित के पास १० नवम्बर १९५२ को भेजा. उसमें लिखा था , " किसी गलत बुनियाद पर कोई भी सही फैसला नहीं हो सकता . अमरीका ने  हमारे साथ अन्याय किया है पहले उस अन्याय को ठीक करें तब आगे की बात की जायेगी ." अमरीकी  विदेश विभाग को भी जवाहरलाल ने बहुत ही साफ शब्दों में  समझा दिया था कि भारत के प्रति अमरीकी रवैय्या  दुश्मनी पूर्ण रहा है .हम सबकी इच्छा है कि दोनों देशों के बीच  दोस्ती कायम हो लेकिन इस अमरीकी रुख के बीच वह संभव नहीं है . ( नेहरू का पत्र ,जी एल मेहता के नाम ) .

कश्मीर के मामले में शेख अब्दुल्ला एक स्थाई तत्व  हमेशा से ही रहे  हैं. शुरू में वे पूरी तरह से महात्मा गांधी जवाहरलाल नेहरू और सरदार पटेल के साथ थे . लेकिन बाद में उनके नज़रिए में  भारी बदलाव आ गया . सबको मामूल है कि शेख अब्दुल्ला पर जवाहरलाल को बहुत ही अधिक भरोसा था.  शेख अब्दुल्ला कश्मीरी हिन्दू मुसलमान सबके  हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता था  . लेकिन  बाद में उनमे भारी बदलाव आ गया . वे खुद को  बहुत ही बड़ा मानने लगे थे . एक समय था जब नेहरू मानते थे कि शेख अब्दुल्ला ही कश्मीर को संभाल सकते थे .जवाहरलाल नेहरू १३ नवम्बर १९४७ को राजा हरसिंह को लिखा था कि ," अगर कोई आदमी कश्मीर में सब  कुछ ठीक कर सकता है तो वह  है शेख अब्दुल्ला . उनकी विश्वसनीयता और दिमाग के संतुलन पर मुझे पूरा भरोसा है. मामूली बातों में तो  वे छोटी मोटी गलती कर सकते हैं लेकिन बड़े फैसलों में वे  चूकेंगें नहीं  ऐसा मुझे विश्वास है .कश्मीर की  किसी परेशानी का हल शेख के बिना नहीं हासिल किया जा सकता ."
शुरू में ऐसा लगता  था कि  शेख अब्दुल्ला भारत और उसके प्रधानमंत्री के प्रति पूरी तरह समर्पित थे .यह नेहरू का भी सोचना था लेकिन  नेहरू को अनुमान ही नहीं था कि शेख साहब एक ऐसे कश्मीर की कल्पना कर रहे थे तो भारत से पूरी तरह आज़ाद होगा. इस बात की संभावना इसलिए भी जोर पकड रही थी कि दिल्ली में कुछ अमरीकी अधिकारियों से बातचीत में उन्होंने कहा था कि आज़ादी अच्छी चीज़ है. इसी बातचीत में उन्होंने ब्रिटेन और अमरीका को कश्मीर के विकास में सहभागी के रूप में आमंत्रित करने के भी संकेत दिए थे . हद तो तब हो गयी जब नेहरू को पता लगा कि शेख अब्दुल्ला सरदार पटेल और नेहरू के बीच मतभेद पैदा करने की कोशिश कर रहे थे . हुआ यों कि शेख ने कहीं बयान दे दिया कि कुछ लोग कश्मीर को पाकिस्तान के हवाले कर देना चाहते  थे. सरदार पटेल ने इस बात का बहुत बुरा माना और अपनी नाराजगी जताई . लेकिन नेहरू अभी भी बात को टालते नज़र आये . उन्होंने ४ अक्टूबर १९४८ को सरदार पटेल को एक चिट्ठी लिखकर बात को संभालने की कोशिश की . चिट्ठी में लिखा कि ," मुझे विश्वास है कि शेख  अब्दुल्ला बहुत ही साफगोई से बात करते हैं . उनकी सोच में स्पष्टता की कमी है और बहुत सारे नेताओं की तरह तरह बोलते बोलते कुछ भी बोल जाते  हैं .वे इस बात से बहुत चिंतित रहते हैं कि कहीं उनके लोग पाकिस्तानी प्रोपेगैंडा के शिकार होकर पाकिस्तान के प्रभाव में न आ जाएँ .मैंने उनको साफ़ कह दिया है कि उनकी यह समझ अपनी जगह  ठीक है लेकिन उनको अपनी बात को संभाल कर कहना चाहिए ."
 शेख अब्दुल्ला  नेहरू की बात को समझने के लिए तैयार नहीं थे . अब तो उनके और जवाहरलाल के बीच मतभेद इस क़दर बढ़ गए कि जनवरी १९४९ में जवाहरलाल को उनसे अपील करनी पडी कि हर बात को प्रेस में बोलने से बाज़ आयें और किसी विवाद को बातचीत से हल करने की आदत  डालें. " लेकिन इसके बाद भी हालात सुधरे नहीं . नेहरू ने  फरवरी १९४९ में कृष्ण मेनन को लिखा कि शेख अब्दुल्ला और केंद्र सरकार के बीच कोई समझदारी ही नहीं है . भारत में अमरीकी  राजदूत ने  इसी समय के आसपास श्रीनगर की यात्रा की और उनसे बातचीत के बाद तो शेख अब्दुल्ला को लगने लगा कि ब्रिटेन और अमरीका कश्मीर को स्वत्रन्त्र देखना चाहते  हैं. अमरीकी राजदूत की पत्नी श्रीमती लॉय हेंडरसन और सी आई ए के भारत में तैनात कुछ अफसरों ने शेख अब्दुल्ला की महत्वाकांक्षा को खूब हवा दी .शेख अब्दुल्ला ने १९५० में  संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनधि सर ओवन डिक्सन को यह सुझाव दिया था कि उनकी इच्छा है  कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के नेताओं से बातचीत करके स्वतंत्र कश्मीर की  बात को वे आगे बढ़ाएंगे .यह सब बातें पब्लिक डोमेन में आ चुकी थीं और चर्चा हो रही थी. शेख अब्दुल्ला प्रेस से बात करने से बाज़ नहीं आ रहे थे और कृष्ण मेनन भी तुरंत जवाब दे रहे थे . नेहरू बहुत ही खिसिया गए थे . उन्होंने कहा कि जब इस तरह के दोस्त हों तो बात कैसे संभल सकती है . लेकिन शेख अब्दुल्ला बात को आगे बढाते जा रहे थे . उनको भारत सरकार से सलाह लेना भी मंज़ूर नहीं था. . खीजकर जवाहरलाल ने उनको ४ जुलाई १९५० के दिन एक पत्र लिखा . यह पत्र उपलब्ध है . लिखते हैं ,"  मैं समझता हूँ कि मैंने आपको पहले भी बताया था कि अगर आपके और हमारे बीच किसी मुद्दे पर कोई महत्वपूर्ण मतभेद हो तो मैं विवाद से अलग हो  जाउंगा . ... मुझे बहुत अफसोस है कि आपने ऐसी पोजीशन ले ली  है कि हमारी किसी दोस्ताना सलाह को भी आप कोई महत्व नहीं देते और उसको दखलंदाजी मानते हैं. अगर ऐसी बात है को व्यक्तिगत रूप से मुझे कुछ नहीं कहना है ." शेख अब्दुल्ला सरदार पटेल के मातहत अफसरों की शिकायत जवाहरलाल से करते रहते थे और सरदार की शिकायत जवाहरलाल नेहरू को बर्दाश्त नहीं थी. 

शेख अब्दुल्ला की अपनी जिद के चलते बात  बिगडती जा रही थी . गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी ने नेहरू से बताया कि वल्लभ भाई ( सरदार पटेल ) सोचते  हैं कि शेख अब्दुल्ला को डील करना नेहरू का ही काम है. सच्ची बात यह है  दिल्ली के हर अधिकारी और नेता यही समझता था . शेख दिन पर दिन मुश्किल पैदा करते जा रहे थे .उन्होंने ११ अप्रैल १९५२ के  दिन  रणबीरसिंह पुरा में एक भाषण दे दिया जिसमें जवाहरलाल और उनके मतभेद बहुत ही खुलकर सामने आ गए . भाषण में उन्होंने भारत और पाकिस्तान को एक दूसरे के बराबर साबित करने की कोशिश की और भारतीय अखबारों को खूब कोसा . जवाहरलाल नेहरू ने उनके इस गैरजिम्मेदार बयान पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दीएक तरह से उसको नज़रंदाज़ ही किया . जब नेहरू की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई तो शेख की समझ में आ गया कि प्रधानमंत्री नेहरू नाराज़ हैं . उसके बाद उन्होंने अपनी तरफ से ही सफाई देना शुरू कर दिया . एक बयान जारी करके कहा कि प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इण्डिया ने उनके बयान को तोड़ मरोड़ कर पेश किया है .  उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि प्रेस ट्रस्ट वालों  ने उनकी सरकार से कुछ आर्थिक सहयोग माँगा था . जब मना कर दिया गया तो उनके पीछे पड़ गए हैं .  शेख अब्दुल्ला के इस के बाद के  बयान भी इसी तर्ज के हैं . इन सबके कारण जवाहरलाल को बहुत  दिक्क़तें पेश आईं. इतने परेशान हो गए कि उन्होंने शेख को २५ अप्रैल १९५२ के दिन एक चिट्ठी लिखी और उसमें लिखा कि वे शेख साहब से इस सम्बन्ध में कोई  बात नहीं करना चाहते . उन्होने यहाँ तक कह दिया कि वे उनसे किसी भी मसले पर बात नहीं करना चाहते . लिखा कि मेरी नज़र में आप ही कश्मीरी अवाम के प्रतिनिधि थे लेकिन आपने इस तरह के बयानात देकर मुझे  बहुत तकलीफ पंहुचाई है . व्यक्तिगत रूप से शेख अब्दुल्ला इस सबके बाद भी दोस्ती की बात करते थे  लेकिन  अपनी गैरजिम्मेदार राजनीति  के लिए बिलकुल अफ़सोस नहीं जताते थे . नेहरू की परेशानी यह  थी कि सरदार  पटेल का स्वर्गवास हो चुका था. जब तक सरदार जीवित थे कश्मीर के राजा या शेख अब्दुल्ला की ऊलजलूल बातों को संभाल लेते  थे लेकिन अब नेहरू अकेले पड़ गए थे . अगस्त १९५२ तक कश्मीर की हालत यह हो  गयी थी कि वह न तो स्वतंत्र थान वहां शान्ति थी और न ही वहां के हालात सामान्य थे.  उथल पुथल का माहौल था .
शेख अब्दुल्ला के अजीबोगरीब  रुख का नतीजा था कि जम्मू के इलाकों में हिन्दू सांप्रदायिक शक्तियों को शेख के बहाने जवाहरलाल पर हमला करने का मौक़ा मिल रहा था . १९५२ के दिसंबर तक यह बात साफ़ नज़र आ रही थी कि देश भर में शेख अब्दुल्ला मुद्दा बनते जा रहे थे . जम्मू में प्रजा परिषद का शेख अब्दुल्ला और उनकी सरकार के खिलाफ  आन्दोलन चल रहा  था. वह पूरी तरह साम्प्रदायिक आन्दोलन था . प्रजा परिषद को हिन्दू महासभा के  पुराने नेता  श्यामा प्रसाद मुखर्जी  की नई पार्टी  जनसंघअकाली दल हिन्दू महासभा और आर एस एस का समर्थन मिल रहा था. हालत बहुत ही नाजुक हो गयी थी . अब इस आन्दोलन के निशाने पर जवाहरलाल नेहरू आ गए थे . शेख के हवाले  से बढ़ रहे आन्दोलन में गौहत्या और  पूर्वी बंगाल ( अब बंगलादेश ) से आये शरणार्थियों के मुद्दे भी जोड़ दिए गए थे . सिख नेता सरदार तारा सिंह ने एक ऐसा बयान दे दिया था जिससे लगता था कि वे नेहरू की ह्त्या का आह्वान कर रहे थे .  ऐसा लगने लगा था कि एक बार फिर वही हालात पैदा हो  जायेंगें जो बंटवारे के वक़्त थे और क़त्लो-गारद का माहौल बन जाएगा . अगर फौरन कार्रवाई न की गयी और हालात के और भी बिगड़ने का खतरा रोज़ ही बढ़ रहा था .  जवाहरलाल ने खुद संकेत दिया कि वे हर मोर्चे पर असफल नज़र आ रहे थे . उनके आदेशों का पालन नहीं हो रहा था . उन्होंने आदेश दिया कि जहां भी उपद्रव हो रहा हो उसको फ़ौरन रोका  जाए लेकिन कोई असर नहीं हो रहा था क्योंकि नए गृहमंत्री  कैलाशनाथ काटजू  में वह बात नहीं थी जी सरदार पटेल में थी . बहुत सारे अफसर काटजू साहब की बात ही नहीं सुनते थे .  सोशलिस्ट पार्टी के लोग भी जवाहरलाल के खिलाफ हो गए थे. उन्होंने  सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं आचार्य जे बी कृपलानी और जयप्रकाश नारायण से अपील किया कि इस आन्दोलन का समर्थन मत करो क्योंकि यह धर्मनिरपेक्ष राजनीति के खिलाफ है . जयप्रकाश नारायण ने  टका सा जवाब दे दिया कि साम्प्रदायिकता के विरोध का मतलब यह नहीं है कि समस्या के निदान की नेहरू की तरकीब का समर्थन किया जाए . उन दिनों जयप्रकाश नारायण अपने को नेहरू से ज्यादा काबिल समझते थे. उधर नेहरू ने जो बुनियादी ग़लती की वह यह थी कि वे साम्प्रदायिक आन्दोलन को रोकने के लिए शेख अब्दुल्ला की सरकार को  सेकुलर और राष्ट्रहित में बता रहे थे  .उनके अलावा  और कोई भी  इस बात को मानने के लिए  तैय्यार नहीं था. जम्मू के आन्दोलन को श्यामा प्रसाद मुखर्जी बहुत ही सलीके से  जवाहरलाल की धुलाई करने के लिए इस्तेमाल कर रहे थे और उन्होंने  संसद के उस अधिकार को चुनौती देना शुरू कर दिया था जिसके कारण जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्ज़ा और अधिकार दिया गया था . श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने  जवाहरलाल को ३ फरवरी १९५३ को  एक बहुत ही सख्त चिट्ठी लिखी जिसमें लिखा था कि ,” आपकी गलत नीतियों और अपने विरोधियों की राय को नज़रन्दाज़ करने की आपकी आदत के कारण ही आज देश बर्बादी के मुहाने पर खड़ा है .” इस मौके पर जवाहरलाल खुद जम्मू का दौरा करना चाहते थे लेकिन शेख साहब ने इस बात को पसंद नहीं किया .नेहरू ने शेख अब्दुल्ला से कहा कि समस्या विकराल है और उसका समाधान लोगों के दिल और दिमाग को जीत कर हासिल किया जाना चाहिए . दमन का रास्ता ठीक नहीं है .लेकिन शेख उनकी बात मानने को तैयार नहीं  थे. एक मुकाम ऐसा भी आया जब साफ़ लगने लगा कि शेख अब्दुल्ला बुरी तरह से कन्फ्यूज़ हो गए हैं . नेहरू ने १ मार्च ,१९५३ को मौलाना अबुल कलाम आज़ाद को एक पत्र में बताया कि शेख साहब कन्फ्यूज़ हो गए हैं . उनके ऊपर तरह तरह के दबाव पड़ रहे हैं और वे उसी में बुरी तरह से फंसते जा रहे हैं . वे किसी पर विश्वास नहीं कर रहे  हैं लेकिन ऐसे लोगों के बीच घिर गए हैं जो उनको उलटा सीधा पढ़ा रहे हैं . हालांकि वे उनपर विश्वास नहीं करते लेकिन उनकी बात  को मानकर कोई न कोई गलत क़दम उठा लेते हैं . मुझे डर है कि इस दिमागी हालत में शेख कोई ऐसा काम कर बैठेंगे जो बात को और बिगाड़ देगा .’  मौलाना आज़ाद को  पत्र लिखने के बाद जवाहरलाल ने शेख अब्दुल्ला को भी उसी दिन एक बहुत ज़रूरी पत्र लिखा . उन्होंने लिखा कि ,” केवल इतना ही काफी नहीं है कि हम यह इच्छा करें कि सब ठीक हो  जाए . उसके लिए कुछ करना भी चाहिए . नतीजा अपने हाथ में नहीं है लेकिन समस्या के हल की कोशिश करना तो हमारे   हाथ में है .” शेख अब्दुल्ला ने इस पत्र का कोई जवाब ही नहीं दिया .
नेहरू की सबसे बड़ी कमजोरी उस वक़्त का लाचार गृह मंत्रालय था .गृहमंत्री कैलाशनाथ काटजू भी अपने प्रधानमंत्री की सलाह मानने को तैयार नहीं थे . इस आशय का एक पत्र भी उन्होंने १९ अप्रैल १९५३ को नेहरू के पास भेज दिया था . उधर श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपने आंदोलन को बहुत ही तेज़ कर दिया था .  गृहमंत्री   काटजू कुछ भी करने को तैयार नहीं थे  . यहाँ तक कि उनके भरोसे के मित्र और केंद्रीय मंत्री ,रफ़ी अहमद किदवई ने नेहरू को लिखा कि आपने अपने इर्द गिर्द ऐसे लोगों को जमा कर रखा है जिनको सभी रिजेक्ट कर चुके हैं .उनका संकेत कैलाशनाथ काटजू की तरफ था. इस बीच श्यामा प्रसाद मुखर्जी बिना किसी परमिट के जम्मू-कश्मीर चले गए . और शेख अब्दुल्ला ने नेहरू की एक न मानी और उनको गिरफ्तार कर लिया . उन्होंने नेहरू को श्रीनगर आने की दावत दी. जवाहरलाल वहां गये और शेख अब्दुल्ला ने उनको समझाया कि पूरी  स्वायत्तता और पूर्ण विलय के बीच का कोई रास्ता नहीं है . जम्मू-कश्मीर का  भारत में पूर्ण विलय कम्मू-कश्मीर के लोग मानेगें नहीं इसलिए केवल एक रास्ता बचता है कि राज्य को पूर्ण स्वायत्तता दे दी जाए. पूर्ण स्वायत्तता से शेख अब्दुला का मतलब आज़ादी ही था. नेहरू ने समझाया कि और भी बहुत से रास्ते हैं लेकिन शेख अब्दुल्ला और कुछ भी सुनने को तैयार नहीं  थे जबकि उनकी वह हैसियत नहीं थी जो पहले हुआ करती थी  शेख  साहब अपनी पार्टी में भी अलग थलग पड़ रह  थे . नेहरू ने उनको और अन्य कश्मीरी नेताओं को समझाया कि वे कामनवेल्थ सम्मलेन में जा रहे हैं . उनके लौटने तक यथास्थिति बनाये रखा जाए. लेकिन भविष्य में कुछ और लिखा था . काहिरा में नेहरू को पता लगा कि २३ जून’५३ को श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जेल में ही मृत्यु हो गयी . उसके बाद तो सब कुछ बदल गया .  शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त हुयी और वे भी गिरफ्तार हुए . लेकिन जवाहरलाल के मन में किसी के लिए तल्खी नहीं थी. बाद में उनको जब लगा कि कश्मीर की  समस्या का समाधान शेख अब्दुल्ला के बिना नहीं हो सकता तो उन्होंने शेख को रिहा किया और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर जाकर वहां के नेताओं से बात करने की प्रेरणा दी लेकिन भाग्य को कुछ और ही मंज़ूर था  . शेख साहब पाकिस्तान गए . २७ मई १९६४ के दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी व्यवस्था में उनके पुराने दोस्त मौजूद थेजवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई. बताते हैं कि खबर सुन कर शेख अब्दुल्ला फूट फूट कर रोये थे. लेकिन इसके साथ ही नेहरू युग भी ख़त्म हो गया .

Monday, October 14, 2019

१९७६ की दिल्ली में मेरे शुरुआती कुछ महीने


शेष नारायण सिंह

चालीस साल किसी शहर की ज़िंदगी में कुछ नहीं होते लेकिन इंसान की ज़िंदगी में चालीस साल में ही सब कुछ हो जाता है .२० साल के आदमी की ज़िंदगी में सपनों की भरमार होती है , सब कुछ हासिल कर लेने की ललक होती है . अपने समय के सबसे अच्छे लोगों से भी बेहतर कुछ कर गुजरने की इच्छा होती है लेकिन जब वही इंसान चालीस साल बाद साठ का हो जाता है तो तरह तरह की यादें उसको घेर घेर कर उसकी गलतियाँ बता रही होती हैं .उसको याद दिला रही होती हैं कि कहां चूक हुई और वह बेचारा कुछ नहीं कर सकता . भारत के ग्रामीण इलाकों से दिल्ली और मुंबई में बहुत बड़े सपने लेकर आने वाले हमेशा इसी भ्रमजाल के शिकार होते मिल जाते हैं . मुंबई की खासियत यह है कि वह उस स्वप्नदर्शी इंसान को ज़्यादा भटकने नहीं देती क्योंकि बहुत कम समय में लोगों को पता लग जाता है कि उसके सपने ही गलत थे . उसको अपने सपने फिर से एडजस्ट करने की ज़रूरत का एहसास मुंबई शहर बहुत ही कठोरता से दिलवा देता है. नतीजा यह होता है कि वहां सडकों पर पागल जैसे दिखने वालों की संख्या अपेक्षाकृत होती है . जो लोग मुंबई की व्यापारिक दुनिया में कुछ बहुत बड़ा करने के सपने लेकर पंहुचे होते हैं उनको उनके गाँव जवार के लोग जो मुंबई में ही संघर्ष करके दो जून की रोटी कमा रहे होते हैं , ढर्रे पर ला देते हैं . कोई ड्राइविंग सीखकर टैक्सी चलाने लगता है , कोई ऑटो रिक्शा चलाने लगता है, कोई थोक बाज़ार में बोझा ढोने लगता है , कोई किसी दूकान पर कुछ काम करने लगता है. सिनेमा में हीरो बनने गए लोग किसी स्टूडियो में काम पा जाते हैं. कहीं स्पॉट ब्वाय हो जाते हैं , कहीं सेट बनाने वाले ठेकदार के यहाँ काम पा जाते हैं. कुछ लोग गोदी में छोटे मोटे काम करने लगते हैं . मुराद यह है कि अपनी रोटी कमाने लगते हैं . लेकिन दिल्ली में सब के लिए काम नहीं होता . उनके सपने मरते हैं , लेकिन फिर जिंदा हो जाते हैं . दिल्ली के कनाट प्लेस और संसद के आस पास के इलाकों में ऐसे बहुत सारे लोग मिल जाते हैं जो कभी दिल्ली फ़तेह कर लेने के इरादे से शहर में आये थे और आज अजीबो गरीब ज़िंदगी जी रहे होते हैं. १९७६ में दिल्ली के नार्थ एवेन्यू में एक रेड्डी साहब घूमते रहते थे . नार्थ एवेन्यू में सांसदों के लिए फ्लैट बनाए गए हैं जो उनको तब एलाट होते हैं जब वे चुनाव जीतकर यहां आते हैं. १९७६ में रेड्डी साहब दो फ्लैटों के बीच बनी हुयी सीढ़ियों के बीच की खाली जगह में एक खटिया बिछाकर पड़े रहते थे . लेकिन जब बाहर निकलते थे तो सफ़ेद पैंट, सफ़ेद कमीज़ और टाई पहन लेते थे . उन्होंने एक बार बताया था कि क़रीब बाईस साल पहले जब १९५४ में वे तिरुपति के सांसद अनंतशयनम अयंगर के साथ दिल्ली आये थे तो वे दिल्ली में कोई बड़ी नौकरी करने के लिए आये थे . जब अयंगर लोकसभा के अध्यक्ष हो गए तो उन तक रेड्डी साहब की पंहुच पर ही पाबंदी लग गयी . लेकिन वे हिम्मत नहीं हारे .उन्होंने दिल्ली को ही अपना स्थाई ठिकाना बनाने के मंसूबा बना लिया और यहीं के होकर रह गए . उन दिनों आंध्र प्रदेश नाम का कोई राज्य नहीं था , आज का आंध्र प्रदेश और तेलंगाना उन दिनों मद्रास राज्य का हिस्सा हुआ करते थे . अयंगर साहब के बाद में उधर से आने वाले किसी न किसी एम पी के साथ अटैच होते रहे लेकिन एक ऐसा मुकाम आया जब उनको लोगों ने दुत्कारना शुरू कर दिया . उसके बाद तो टाई बांधे नेता मंडी में घूमते रहना ही उनका धंधा हो गया . कभी कोई कुछ दे देता था ,उसी से गुज़र करते थे .इस तरह के बहुत सारे लोग राजनीति के इस बाज़ार में घूमते मिल जाते हैं. सुल्तानपुर से एक लड़का शायद १९७८ में दिल्ली आया था . ज़हीन समझदार लड़का. बी ए पास था , कहीं भी काम मिल सकता था लेकिन क्रांतिकारी विचारों से लैस था और क्रान्ति के काम में ही जीवन समर्पित कर दिया . जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के परिसर में दिन रात रहने लगा और वहीं अपनी इहलीला समाप्त कर दी.
चालीस साल पहले दिल्ली का कनाट प्लेस बहुत ही फैशनेबल बाज़ार हुआ करता था, आज भी है लेकिन अब चारों तरफ माल आदि खुल गए हैं , कनाट प्लेस के अलावा भी फैशन है . उन दिनों साउथ एक्सटेंशन और ग्रेटर कैलाश मार्केट भी फैशनबल होना शुरू हो चुके थे . करोल बाग़ और लाजपतनगर घरेलू सामन के बड़े ठिकाने थे , आज भी हैं . कनाट प्लेस में प्लाज़ा, रीगल , ओडियन और रिवोली सिनेमा बहुत ही महत्वपूर्ण लैंडमार्क हुआ करते थे . कनाट प्लेस आने वाली बसें रीगल या प्लाज़ा आया करती थीं. इसके अलावा मद्रास होटल और सुपर बाज़ार बसों के डेस्टिनेशन हुआ करते थे . इन जगहों पर भी बेमतलब घूम रहे लोगों की भरमार होती थी .ऐसे सैकड़ों लोगों को मैंने देखा है. १९७६-७७ में मुझे भी लगता था कि अगर कहीं कोई काम न मिला तो अपनी भी हालत ऐसी ही हो जायेगी . हम भी दिल्ली इसलिए आये थे कि अपने बच्चों को बेहतर ज़िंदगी देंगे , मेहनत मजूरी करके उनको ऐसी शिक्षा देगें जिसके बाद उनको आसानी से नौकरी मिल जाए और मेरी तरह की मजबूर ज़िंदगी जीने के लिए मजबूर न हों. हालांकि तब तक अपनी शिक्षा में भी कोई खोट नहीं दिखती थी क्योंकि १९७३ में एम ए पास करते ही एक मान्यताप्राप्त डिग्री कालेज में नौकरी मिल गयी थी ,उस दौर की अच्छी तनखाह थी .जब उस काम को छोड़कर दिल्ली आये तो समझ में आया कि शिक्षा कहाँ से ली गयी है , उसका भी महत्व है . जिन मंत्री जी ने मुझे सुल्तानपुर में वायदा किया था कि दिल्ली आ जाओ सब ठीक हो जाएगा , उनसे मुलाक़ात ही असंभव हो गयी. जब कभी उनके पी ए या अनुसुइया प्रसाद सिंह के सौजन्य से उनसे मुलाक़ात होती तो समझाते कि आर्ट साइड से एम ए की पढ़ाई का कोई मतलब नहीं है . बेकार है . दिल्ली में भारतीय विद्या भवन से कोई और पढ़ाई कर लो, फिर आसान हो जाएगा . अपने सपने भी बेवकूफी से भरे हुए थे . लेक्चरर की नौकरी छोड़कर आया था और जिद थी कि फिर मास्टरी नहीं करेंगे. वरना १९७७ में जब जनता पार्टी की सरकार आयी तो वह अवसर आया था कि जिन लोगों को इमरजेंसी के दौरान किन्हीं कारणों से इस्तीफा देना पड़ा था ,वे दरखास्त दे दें तो उनकी बात पर विचार करके नौकरी बहाल हो सकती थी लेकिन उस अवसर को भी मैंने कोई अवसर नहीं माना. मंत्री जी को मैंने अपनी मदद करने के काम से मुक्ति दे दी और हमने अपने सपने एडजस्ट कर लिया . उसके बाद मैंने अनुवाद करके रोटी कमाने का काम शुरू कर दिया .
शिवाजी स्टेडियम मेट्रो स्टेशन ( गुरुद्वारा बंगला साहिब ) से सेन्ट्रल पार्क पैदल जाते हुए , ४३ साल पहले की उसी रास्ते पैदल जाने की यादें ताज़ा हो गयीं. वही सड़क लेकिन ज़्यादा चमक दमक वाली , जहां बहुत पुराने कुछ क्वार्टर थे ,वहां आज एक बहुत ही बड़ी व्यापारिक इमारत खडी है . सड़क तक ग्रेनाईट लगी हुई है . उस सड़क पर लगे ग्रेनाईट पर , भीड़भाड़ और शोरगुल के बीच गरीब आदमी सो रहा है . शायद रात में कोई काम किया हो , सो न पाया हो लिहाज़ा सो गया है . मैंने देखा कि इन चार दशकों में गरीब आदमी पहले की तरह फुटपाथ पर ही जमा हुआ है . उन सब के सपने होंगें. मेरे दोस्त फूल चंद बताया करते थे कि इन फुटपाथों पर सो रहे लोग यहाँ फटेहाल ज़िंदगी बिताने नहीं आये थे लेकिन जब साल दो साल ठोकर खाने और मांगकर खाने से ऊब गए तो कहीं कोई भी काम करके अपनी रोटी कमाने के लिए अपने उपाय कर रहे हैं . सपनों को एडजस्ट नहीं कर पाए तो इस हाल में आ गए हैं . फूलचंद मुझसे करीब दस साल पहले इस शहर में आये थे . फूलचंद भी दिल्ली में अपने परिवार की गरीबी घटाने और कमाकर दो पैसे घर भेजने के लिए ही आये थे . अपने बुलंद हौसलों के बल पर उसने तय किया कि अब अपनी मेहनत करके ही रास्ते तय किए जायेंगे. उन्होंने पान लगाने का सामान खरीदा , सब कुछ सौ रूपये से कम में ही आ गया , सारा सामान एक डेलरी ( टोकरी ) में रखा और कनाट प्लेस में घूम घूमकर पान बेचने लगे. रोज़ इतना कमाने लगे कि अपना खर्चा निकल जाए .१९७६ में जब मैं दिल्ली आया तो वे एक जमे हुए कारोबारी बन चुके थे , एन डी एम सी में घूस देकर पान का एक थड़ा ले चुके थे और उसी के सहारे अच्छी खासी आमदनी हो रही थी .मद्रास होटल के पीछे उनकी दूकान थी. वहीं से मैं रोज़ बस लेकर पटेल नगर उतर कर अपने ठिकाने पर जाया करता था. उनकी प्रेरणा से ही मैंने मंत्री जी की मदद न लेने का संकल्प लिया .मंत्री की मदद से किसी प्राइवेट कंपनी में मैनेजर बनने के अपने सपनों को वहीं ,उनकी दुकान के सामने बह रही नाली में दफन कर दिया था . वहीं उनकी दुकान पर ही एक दिन मुझे मेरे बचपन के दोस्त घनश्याम मिश्र मिल गए थे जिनको मैं वास्तव में तलाश रहा था . घनश्याम जे एन यू में रहते थे , हिंदी में एम ए की पढ़ाई कर रहे थे .उन्होंने मुझे बहुत लोगों से मिलवाया और मैं दिल्ली में पढ़े लिखे लोगों में घूमने घामने लगा. उनके साथ ही मैं अपने पुराने परिचित देवी प्रसाद त्रिपाठी से मिलने कोर्ट गया. डी पी त्रिपाठी , उन दिनों जे एन यू यूनियन के अध्यक्ष थे , इमरजेंसी में जेल में बंद थे , पेशी के लिए जहां आजकल संसद मार्ग थाना है , वहीं आते थे . उन दिनों वहां कोर्ट हुआ करती थी. वहीं पर पेशी के लिए मदनलाल खुराना और अरुण जेटली भी आते थे . इन लोगों को भी मैं पहले से जानता था , इनसे भी मुलाक़ात हो जाती थी . वहीं कोर्टयार्ड में सबके मिलने वाले आते थे . घनश्याम के साथ जे एन यू के बहुत सारे छात्र छात्राएं भी होते थे. कोर्ट की पेशी के बाद हम लोग यू एन आई कैंटीन में आकर दक्षिण भारतीय खाना खाते थे .
उसी समय के आस पास हिंदी की सरिता पत्रिका में एक लेख छपा था जिसका शीर्षक था , " हिन्दू समाज के पथभ्रष्टक तुलसीदास " .उस लेख को पढ़कर घनश्याम बहुत नाराज़ हुए और उसके बारे में झगडा करने के लिए मिश्र जी दिल्ली प्रेस गये थे. मुझे भी साथ ले गए . दिल्ली प्रेस के मालिक, विश्वनाथ जी से ही उनकी बात चीत हुई और बात बढ़ गयी . सेठ ने चुनौती दी कि आप इसका खंडन लिख कर लाइए , हम उसको भी छापेंगे और उसका पैसा भी देंगे. इसी बात पर मामला शांत हुआ लेकिन विश्वनाथ जी के व्यक्तित्व से मैं प्रभावित हुआ. इतनी बड़ी संस्था के मालिक थे ,करीब साठ साल की उम्र थी और पचीस साल के घनश्याम मिश्र से तुर्की बी तुर्की ऐसी बहस कर रहे थे जैसे दोनों एक ही क्लास के विद्यार्थी हों. उनके लिखकर लाने की चुनौती को मिश्र जी ने स्वीकार किया और मुझसे कहा कि, इस लेख को तैयार कर दो. मुझे अपने साथ जे एन यू ले गए . अपने कमरे में ही रखा , खाना खिलाया और रात भर में मैंने जो भी समझ में आया लिख दिया . अगले दिन हम दोनों फिर वहीं पंहुंच गए . हाथ से लिखे करीब छः पृष्ठ थे . लेखक का नाम घनश्याम मिश्र . विश्वनाथ जी को लेख पसंद आया . उन्होंने कहा कि उस लेख को वे अगले ही अंक में छाप देंगे. उसका मेहनताना उन्होंने तुरंत ही दे दिया एडवांस. हम लोग बहुत खुशी खुशी बाहर आये . थोड़ी दूर आने के बाद घनश्याम मिश्र ने अपने आपको गाली दी और बिना कुछ बोले फिर वापस विश्वनाथ जी के पास पंहुच गए . उनसे कहा कि लेख में कुछ गलती रहा गयी है . लाइए ठीक करना है . लेख वहीं मेज़ पर रखा था , मिश्र जी जी लेखक का नाम बदल दिया . अपना नाम काटकर मेरा नाम लिख दिया . और कहा कि रात भर जागकर इन्होने लिखा है . विश्वनाथ जी बहुत खुश हुए और उन्होंने दोबारा मेहनताना दिया . मिश्रा जी ने पहले वाला पैसा वापस करना चाहा लेकिन उन्होंने नहीं लिया . उन्होंने कहा कि आपका भी पैसा बनता है . बहस तो आपने ही किया था .बस वहीं मैंने फैसला कर लिया कि अब किसी नेता या मंत्री से मदद लिए बिना दिल्ली में ज़िंदगी गुजारी जायेगी . हालांकि घनश्याम मेरे सहपाठी १९६५ में नवीं कक्षा में ही थे लेकिन हाई स्कूल पास होने के बाद मुलाक़ात नहीं हुई थी . दिल्ली में आकर ही मिले जब मैं तिनके का सहारा ढूंढ रहा था .दिल्ली शहर में जिस तरह से वह आदमी मेरे मददगार के रूप में खड़ा रहा , वह मैं आजीवन नहीं भूलूंगा . बाद में तो लिख पढ़कर ही रोटी कामने के सिलसला शुरू हुआ तो वह आज तक जारी है . उसी समय आज के नामवर प्रकाशक हरिश्चंद्र शर्मा से भी हम और घनश्याम मिलने गए . तब हरीश भी , राधाकृष्ण प्रकशन में स्व ओम प्रकाश जी के सहयोगी के रूप में काम करते थे. आजकल तो एक प्रकाशन संस्थान के मालिक हैं . मेरी बदकिस्मती है कि पचास साल की उम्र में ही चौकिया पोस्ट ग्रेजुएट कालेज के रीडर डॉ घनश्याम मिश्र का स्वर्गवास हो गया था . अगर वे जिंदा होते तो मैं उनके बारे में काफी बड़ा संस्मरण लिखने का सपना पाले हुए हूँ लेकिन अब नहीं लिखूंगा क्योंकि उनकी मंजूरी के बिना अपने दोस्त की सारी सच्च्चाइयां नहीं लिख सकता .
दिल्ली में अपने पहले कुछ महीनों का वर्णन मैंने लिख दिया है . अगर लोगों को अच्छा लगा तो दिल्ली में अपने अनुभवों के उन हिस्सों को लिख सकता हूं जिससे किसी की शान में बट्टा न लगे. देखिये क्या होता है . सोचा था अपने प्रकाशक को दिखाऊंगा लेकिन अब खल्के-खुदा के दरबार में ही हाज़िर कर दे रहा हूँ .
१९७६ की दिल्ली में मेरे शुरुआती कुछ महीने
शेष नारायण सिंह
चालीस साल किसी शहर की ज़िंदगी में कुछ नहीं होते लेकिन इंसान की ज़िंदगी में चालीस साल में ही सब कुछ हो जाता है .२० साल के आदमी की ज़िंदगी में सपनों की भरमार होती है , सब कुछ हासिल कर लेने की ललक होती है . अपने समय के सबसे अच्छे लोगों से भी बेहतर कुछ कर गुजरने की इच्छा होती है लेकिन जब वही इंसान चालीस साल बाद साठ का हो जाता है तो तरह तरह की यादें उसको घेर घेर कर उसकी गलतियाँ बता रही होती हैं .उसको याद दिला रही होती हैं कि कहां चूक हुई और वह बेचारा कुछ नहीं कर सकता . भारत के ग्रामीण इलाकों से दिल्ली और मुंबई में बहुत बड़े सपने लेकर आने वाले हमेशा इसी भ्रमजाल के शिकार होते मिल जाते हैं . मुंबई की खासियत यह है कि वह उस स्वप्नदर्शी इंसान को ज़्यादा भटकने नहीं देती क्योंकि बहुत कम समय में लोगों को पता लग जाता है कि उसके सपने ही गलत थे . उसको अपने सपने फिर से एडजस्ट करने की ज़रूरत का एहसास मुंबई शहर बहुत ही कठोरता से दिलवा देता है. नतीजा यह होता है कि वहां सडकों पर पागल जैसे दिखने वालों की संख्या अपेक्षाकृत होती है . जो लोग मुंबई की व्यापारिक दुनिया में कुछ बहुत बड़ा करने के सपने लेकर पंहुचे होते हैं उनको उनके गाँव जवार के लोग जो मुंबई में ही संघर्ष करके दो जून की रोटी कमा रहे होते हैं , ढर्रे पर ला देते हैं . कोई ड्राइविंग सीखकर टैक्सी चलाने लगता है , कोई ऑटो रिक्शा चलाने लगता है, कोई थोक बाज़ार में बोझा ढोने लगता है , कोई किसी दूकान पर कुछ काम करने लगता है. सिनेमा में हीरो बनने गए लोग किसी स्टूडियो में काम पा जाते हैं. कहीं स्पॉट ब्वाय हो जाते हैं , कहीं सेट बनाने वाले ठेकदार के यहाँ काम पा जाते हैं. कुछ लोग गोदी में छोटे मोटे काम करने लगते हैं . मुराद यह है कि अपनी रोटी कमाने लगते हैं . लेकिन दिल्ली में सब के लिए काम नहीं होता . उनके सपने मरते हैं , लेकिन फिर जिंदा हो जाते हैं . दिल्ली के कनाट प्लेस और संसद के आस पास के इलाकों में ऐसे बहुत सारे लोग मिल जाते हैं जो कभी दिल्ली फ़तेह कर लेने के इरादे से शहर में आये थे और आज अजीबो गरीब ज़िंदगी जी रहे होते हैं. १९७६ में दिल्ली के नार्थ एवेन्यू में एक रेड्डी साहब घूमते रहते थे . नार्थ एवेन्यू में सांसदों के लिए फ्लैट बनाए गए हैं जो उनको तब एलाट होते हैं जब वे चुनाव जीतकर यहां आते हैं. १९७६ में रेड्डी साहब दो फ्लैटों के बीच बनी हुयी सीढ़ियों के बीच की खाली जगह में एक खटिया बिछाकर पड़े रहते थे . लेकिन जब बाहर निकलते थे तो सफ़ेद पैंट, सफ़ेद कमीज़ और टाई पहन लेते थे . उन्होंने एक बार बताया था कि क़रीब बाईस साल पहले जब १९५४ में वे तिरुपति के सांसद अनंतशयनम अयंगर के साथ दिल्ली आये थे तो वे दिल्ली में कोई बड़ी नौकरी करने के लिए आये थे . जब अयंगर लोकसभा के अध्यक्ष हो गए तो उन तक रेड्डी साहब की पंहुच पर ही पाबंदी लग गयी . लेकिन वे हिम्मत नहीं हारे .उन्होंने दिल्ली को ही अपना स्थाई ठिकाना बनाने के मंसूबा बना लिया और यहीं के होकर रह गए . उन दिनों आंध्र प्रदेश नाम का कोई राज्य नहीं था , आज का आंध्र प्रदेश और तेलंगाना उन दिनों मद्रास राज्य का हिस्सा हुआ करते थे . अयंगर साहब के बाद में उधर से आने वाले किसी न किसी एम पी के साथ अटैच होते रहे लेकिन एक ऐसा मुकाम आया जब उनको लोगों ने दुत्कारना शुरू कर दिया . उसके बाद तो टाई बांधे नेता मंडी में घूमते रहना ही उनका धंधा हो गया . कभी कोई कुछ दे देता था ,उसी से गुज़र करते थे .इस तरह के बहुत सारे लोग राजनीति के इस बाज़ार में घूमते मिल जाते हैं. सुल्तानपुर से एक लड़का शायद १९७८ में दिल्ली आया था . ज़हीन समझदार लड़का. बी ए पास था , कहीं भी काम मिल सकता था लेकिन क्रांतिकारी विचारों से लैस था और क्रान्ति के काम में ही जीवन समर्पित कर दिया . जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के परिसर में दिन रात रहने लगा और वहीं अपनी इहलीला समाप्त कर दी.
चालीस साल पहले दिल्ली का कनाट प्लेस बहुत ही फैशनेबल बाज़ार हुआ करता था, आज भी है लेकिन अब चारों तरफ माल आदि खुल गए हैं , कनाट प्लेस के अलावा भी फैशन है . उन दिनों साउथ एक्सटेंशन और ग्रेटर कैलाश मार्केट भी फैशनबल होना शुरू हो चुके थे . करोल बाग़ और लाजपतनगर घरेलू सामन के बड़े ठिकाने थे , आज भी हैं . कनाट प्लेस में प्लाज़ा, रीगल , ओडियन और रिवोली सिनेमा बहुत ही महत्वपूर्ण लैंडमार्क हुआ करते थे . कनाट प्लेस आने वाली बसें रीगल या प्लाज़ा आया करती थीं. इसके अलावा मद्रास होटल और सुपर बाज़ार बसों के डेस्टिनेशन हुआ करते थे . इन जगहों पर भी बेमतलब घूम रहे लोगों की भरमार होती थी .ऐसे सैकड़ों लोगों को मैंने देखा है. १९७६-७७ में मुझे भी लगता था कि अगर कहीं कोई काम न मिला तो अपनी भी हालत ऐसी ही हो जायेगी . हम भी दिल्ली इसलिए आये थे कि अपने बच्चों को बेहतर ज़िंदगी देंगे , मेहनत मजूरी करके उनको ऐसी शिक्षा देगें जिसके बाद उनको आसानी से नौकरी मिल जाए और मेरी तरह की मजबूर ज़िंदगी जीने के लिए मजबूर न हों. हालांकि तब तक अपनी शिक्षा में भी कोई खोट नहीं दिखती थी क्योंकि १९७३ में एम ए पास करते ही एक मान्यताप्राप्त डिग्री कालेज में नौकरी मिल गयी थी ,उस दौर की अच्छी तनखाह थी .जब उस काम को छोड़कर दिल्ली आये तो समझ में आया कि शिक्षा कहाँ से ली गयी है , उसका भी महत्व है . जिन मंत्री जी ने मुझे सुल्तानपुर में वायदा किया था कि दिल्ली आ जाओ सब ठीक हो जाएगा , उनसे मुलाक़ात ही असंभव हो गयी. जब कभी उनके पी ए या अनुसुइया प्रसाद सिंह के सौजन्य से उनसे मुलाक़ात होती तो समझाते कि आर्ट साइड से एम ए की पढ़ाई का कोई मतलब नहीं है . बेकार है . दिल्ली में भारतीय विद्या भवन से कोई और पढ़ाई कर लो, फिर आसान हो जाएगा . अपने सपने भी बेवकूफी से भरे हुए थे . लेक्चरर की नौकरी छोड़कर आया था और जिद थी कि फिर मास्टरी नहीं करेंगे. वरना १९७७ में जब जनता पार्टी की सरकार आयी तो वह अवसर आया था कि जिन लोगों को इमरजेंसी के दौरान किन्हीं कारणों से इस्तीफा देना पड़ा था ,वे दरखास्त दे दें तो उनकी बात पर विचार करके नौकरी बहाल हो सकती थी लेकिन उस अवसर को भी मैंने कोई अवसर नहीं माना. मंत्री जी को मैंने अपनी मदद करने के काम से मुक्ति दे दी और हमने अपने सपने एडजस्ट कर लिया . उसके बाद मैंने अनुवाद करके रोटी कमाने का काम शुरू कर दिया .
शिवाजी स्टेडियम मेट्रो स्टेशन ( गुरुद्वारा बंगला साहिब ) से सेन्ट्रल पार्क पैदल जाते हुए , ४३ साल पहले की उसी रास्ते पैदल जाने की यादें ताज़ा हो गयीं. वही सड़क लेकिन ज़्यादा चमक दमक वाली , जहां बहुत पुराने कुछ क्वार्टर थे ,वहां आज एक बहुत ही बड़ी व्यापारिक इमारत खडी है . सड़क तक ग्रेनाईट लगी हुई है . उस सड़क पर लगे ग्रेनाईट पर , भीड़भाड़ और शोरगुल के बीच गरीब आदमी सो रहा है . शायद रात में कोई काम किया हो , सो न पाया हो लिहाज़ा सो गया है . मैंने देखा कि इन चार दशकों में गरीब आदमी पहले की तरह फुटपाथ पर ही जमा हुआ है . उन सब के सपने होंगें. मेरे दोस्त फूल चंद बताया करते थे कि इन फुटपाथों पर सो रहे लोग यहाँ फटेहाल ज़िंदगी बिताने नहीं आये थे लेकिन जब साल दो साल ठोकर खाने और मांगकर खाने से ऊब गए तो कहीं कोई भी काम करके अपनी रोटी कमाने के लिए अपने उपाय कर रहे हैं . सपनों को एडजस्ट नहीं कर पाए तो इस हाल में आ गए हैं . फूलचंद मुझसे करीब दस साल पहले इस शहर में आये थे . फूलचंद भी दिल्ली में अपने परिवार की गरीबी घटाने और कमाकर दो पैसे घर भेजने के लिए ही आये थे . अपने बुलंद हौसलों के बल पर उसने तय किया कि अब अपनी मेहनत करके ही रास्ते तय किए जायेंगे. उन्होंने पान लगाने का सामान खरीदा , सब कुछ सौ रूपये से कम में ही आ गया , सारा सामान एक डेलरी ( टोकरी ) में रखा और कनाट प्लेस में घूम घूमकर पान बेचने लगे. रोज़ इतना कमाने लगे कि अपना खर्चा निकल जाए .१९७६ में जब मैं दिल्ली आया तो वे एक जमे हुए कारोबारी बन चुके थे , एन डी एम सी में घूस देकर पान का एक थड़ा ले चुके थे और उसी के सहारे अच्छी खासी आमदनी हो रही थी .मद्रास होटल के पीछे उनकी दूकान थी. वहीं से मैं रोज़ बस लेकर पटेल नगर उतर कर अपने ठिकाने पर जाया करता था. उनकी प्रेरणा से ही मैंने मंत्री जी की मदद न लेने का संकल्प लिया .मंत्री की मदद से किसी प्राइवेट कंपनी में मैनेजर बनने के अपने सपनों को वहीं ,उनकी दुकान के सामने बह रही नाली में दफन कर दिया था . वहीं उनकी दुकान पर ही एक दिन मुझे मेरे बचपन के दोस्त घनश्याम मिश्र मिल गए थे जिनको मैं वास्तव में तलाश रहा था . घनश्याम जे एन यू में रहते थे , हिंदी में एम ए की पढ़ाई कर रहे थे .उन्होंने मुझे बहुत लोगों से मिलवाया और मैं दिल्ली में पढ़े लिखे लोगों में घूमने घामने लगा. उनके साथ ही मैं अपने पुराने परिचित देवी प्रसाद त्रिपाठी से मिलने कोर्ट गया. डी पी त्रिपाठी , उन दिनों जे एन यू यूनियन के अध्यक्ष थे , इमरजेंसी में जेल में बंद थे , पेशी के लिए जहां आजकल संसद मार्ग थाना है , वहीं आते थे . उन दिनों वहां कोर्ट हुआ करती थी. वहीं पर पेशी के लिए मदनलाल खुराना और अरुण जेटली भी आते थे . इन लोगों को भी मैं पहले से जानता था , इनसे भी मुलाक़ात हो जाती थी . वहीं कोर्टयार्ड में सबके मिलने वाले आते थे . घनश्याम के साथ जे एन यू के बहुत सारे छात्र छात्राएं भी होते थे. कोर्ट की पेशी के बाद हम लोग यू एन आई कैंटीन में आकर दक्षिण भारतीय खाना खाते थे .
उसी समय के आस पास हिंदी की सरिता पत्रिका में एक लेख छपा था जिसका शीर्षक था , " हिन्दू समाज के पथभ्रष्टक तुलसीदास " .उस लेख को पढ़कर घनश्याम बहुत नाराज़ हुए और उसके बारे में झगडा करने के लिए मिश्र जी दिल्ली प्रेस गये थे. मुझे भी साथ ले गए . दिल्ली प्रेस के मालिक, विश्वनाथ जी से ही उनकी बात चीत हुई और बात बढ़ गयी . सेठ ने चुनौती दी कि आप इसका खंडन लिख कर लाइए , हम उसको भी छापेंगे और उसका पैसा भी देंगे. इसी बात पर मामला शांत हुआ लेकिन विश्वनाथ जी के व्यक्तित्व से मैं प्रभावित हुआ. इतनी बड़ी संस्था के मालिक थे ,करीब साठ साल की उम्र थी और पचीस साल के घनश्याम मिश्र से तुर्की बी तुर्की ऐसी बहस कर रहे थे जैसे दोनों एक ही क्लास के विद्यार्थी हों. उनके लिखकर लाने की चुनौती को मिश्र जी ने स्वीकार किया और मुझसे कहा कि, इस लेख को तैयार कर दो. मुझे अपने साथ जे एन यू ले गए . अपने कमरे में ही रखा , खाना खिलाया और रात भर में मैंने जो भी समझ में आया लिख दिया . अगले दिन हम दोनों फिर वहीं पंहुंच गए . हाथ से लिखे करीब छः पृष्ठ थे . लेखक का नाम घनश्याम मिश्र . विश्वनाथ जी को लेख पसंद आया . उन्होंने कहा कि उस लेख को वे अगले ही अंक में छाप देंगे. उसका मेहनताना उन्होंने तुरंत ही दे दिया एडवांस. हम लोग बहुत खुशी खुशी बाहर आये . थोड़ी दूर आने के बाद घनश्याम मिश्र ने अपने आपको गाली दी और बिना कुछ बोले फिर वापस विश्वनाथ जी के पास पंहुच गए . उनसे कहा कि लेख में कुछ गलती रहा गयी है . लाइए ठीक करना है . लेख वहीं मेज़ पर रखा था , मिश्र जी जी लेखक का नाम बदल दिया . अपना नाम काटकर मेरा नाम लिख दिया . और कहा कि रात भर जागकर इन्होने लिखा है . विश्वनाथ जी बहुत खुश हुए और उन्होंने दोबारा मेहनताना दिया . मिश्रा जी ने पहले वाला पैसा वापस करना चाहा लेकिन उन्होंने नहीं लिया . उन्होंने कहा कि आपका भी पैसा बनता है . बहस तो आपने ही किया था .बस वहीं मैंने फैसला कर लिया कि अब किसी नेता या मंत्री से मदद लिए बिना दिल्ली में ज़िंदगी गुजारी जायेगी . हालांकि घनश्याम मेरे सहपाठी १९६५ में नवीं कक्षा में ही थे लेकिन हाई स्कूल पास होने के बाद मुलाक़ात नहीं हुई थी . दिल्ली में आकर ही मिले जब मैं तिनके का सहारा ढूंढ रहा था .दिल्ली शहर में जिस तरह से वह आदमी मेरे मददगार के रूप में खड़ा रहा , वह मैं आजीवन नहीं भूलूंगा . बाद में तो लिख पढ़कर ही रोटी कामने के सिलसला शुरू हुआ तो वह आज तक जारी है . उसी समय आज के नामवर प्रकाशक हरिश्चंद्र शर्मा से भी हम और घनश्याम मिलने गए . तब हरीश भी , राधाकृष्ण प्रकशन में स्व ओम प्रकाश जी के सहयोगी के रूप में काम करते थे. आजकल तो एक प्रकाशन संस्थान के मालिक हैं . मेरी बदकिस्मती है कि पचास साल की उम्र में ही चौकिया पोस्ट ग्रेजुएट कालेज के रीडर डॉ घनश्याम मिश्र का स्वर्गवास हो गया था . अगर वे जिंदा होते तो मैं उनके बारे में काफी बड़ा संस्मरण लिखने का सपना पाले हुए हूँ लेकिन अब नहीं लिखूंगा क्योंकि उनकी मंजूरी के बिना अपने दोस्त की सारी सच्च्चाइयां नहीं लिख सकता .
दिल्ली में अपने पहले कुछ महीनों का वर्णन मैंने लिख दिया है . अगर लोगों को अच्छा लगा तो दिल्ली में अपने अनुभवों के उन हिस्सों को लिख सकता हूं जिससे किसी की शान में बट्टा न लगे. देखिये क्या होता है . सोचा था अपने प्रकाशक को दिखाऊंगा लेकिन अब खल्के-खुदा के दरबार में ही हाज़िर कर दे रहा हूँ .

महात्मा गांधी लोक कला में ' गन्ही महत्मा ' बनकर प्रवेश करते थे


शेष नारायण सिंह


अवध में पहले हर  जाति की नाच  होती थी. गाँव में खेती बारी करने वाले लोग ही उसमें कलाकार होते थे . शादी ब्याह में खुद ही नाच लेते थे . पुरुष कलाकार ही गुज़रिया ( स्त्री कलाकार ) का रोल  करते  थे. आजकल दलित कहते  हैं  लेकिन आज के   साठ  साल पहले हरिजन शब्द सम्मान सूचक शब्द था लेकिन मेरे गाँव के बाबू साहबान चमार शब्द से ही काम चलाते थे.  नाऊ, कहार, धोबी सब जातियों की नाच होती थी लेकिन मुझे सतई बाबा की नाच ही सबसे अच्छी लगती थी . वे मृदंग बजाते थे . उनको सभी मिरदंगी कहते थे. उसी नाच में हमारे हलवाहे दूलम करेंगा बनते थे . उनका नाम हमने कभी नहीं लिया . उनको मेरे सभी भाई बहन   केवल फुफ्फा संबोधन से बुलाते भी थे और हमारी नज़र में  उनका नाम भी वही था.   वे मेरे गाँव के दामाद थे . हुआ यह कि गाँव के सबसे रईस दलित,  दुकछोर की बड़ी बिटिया जग्गी फुआ उनको ब्याही गयी थीं  . शादी तो चार साल की उम्र में  हो गयी थी लेकिन जब पन्द्रह साल की होने पर गौने गईं, यानी पहली बार ससुराल गईं तो उनको गाँव पसंद नहीं आया. दो चार दिन में वापस आ गईं . अपने दादा ( पिताजी ) को बता दिया कि अब हम  ससुरे न जाब. दुक्छोर बाबा गए और अपने दामाद को लेकर यहीं आ गए. घर के सामने वाले बाग़ में उनका भी घर बन गया . कोटे की हरवाही लगवा दी गई और हमारी जग्गी फुआ अपने घर में ही रह गईं. हरवाही में दो बिगहा जगीर मिल गयी . यानी खेतिहर भी हो गए. बखरी के हल से ही अपनी जगीर भी जोत लेने की सुविधा थी. इस तरह से वे गाँव के  दामाद हुए . बड़ी उम्र के लोग उनको गंवहियाँ कहते थे और छोटी उम्र के लोगों के फुफ्फा. बड़े ही खुशमिजाज़ इंसान थे . गाँव की नाच में करेंगा का काम मिला तो इज्ज़त भी खूब मिली. जब उनकी पीठ पर बोलवाई पड़ती थी तो बहुत तेज़ आवाज़ होती थी . हम लोगों को लगता था कि हमारे फुफ्फा को क्यों मारा जा रहा है लेकिन उसमें कलाकारी का कमाल था कि आवाज़ तो होती थी लेकिन चोट नहीं लगती थी. बोलवाई वास्तव में चमड़े का बना एक कोड़ा होता था लेकिन वह बिलकुल चपटा होता था. करेंगा की  जो मिर्जई होती थी, वह  मारकीन या गाढे के कपडे की होती थी .उसकी पीठ वाले हिस्से को काटकर गोल चमड़े की एक चकती लगा दी जाती थी . इस  सावधानी के चलते ही चोट नहीं लगती होगी लेकिन हमको गुस्सा लगता था कि हमारे फुफ्फा मारे जा रहे हैं. बहरहाल फुफ्फा को हम लोग बहुत मानते थे और वे भी हमको बहुत मानते थे. उनके अलावा पूरी नाच में  हमको सतई बाबा अच्छे लगते थे . जब मिरदंग बजाते थे तो हमारा बाल मन भी मुग्ध हो जाता था. 
मैंने पहली बार  गन्ही महत्मा का नाम उनसे ही   सुना था. वे मृदंग पर गन्ही महत्मा बजाते थे . बड़े होने पर और जौनपुर में स्व. मुखराम सिंह के साथ संगीत सुनने पर पता लगा कि जिसको  सतई बाबा गन्ही महत्मा कहते थे  वास्तव में  वह , " ता धिन धिन्ना " था . लेकिन महात्मा गांधी का नाम  ज़मींदारी के दौर में गरीबों के बीच मुक्तिदाता के रूप में स्थापित हो   चुका था और समाज के सबसे दलित और वंचित समाज ने अपनी कला के सबसे नायाब नमूने को  महात्माजी को समर्पित कर दिया था . ज़मींदारों के घरों में तो  आज़ादी की लड़ाई में शामिल लोगों को उत्पाती माना जाता था लेकिन गरीब लोग उनको सन बयालीस के बाद से ही मुक्तिदाता के रूप में स्वीकार कर चुके थे .  दरअसल दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान war efforts के बहाने  अंग्रेजों ने ज़मींदारों के ज़रिये गाँवों में  खूब लूट मचाया था. शोषित पीड़ित जनता को उम्मीद थी कि गांधी जी उस लूट से मुक्ति दिलवा देंगें इसीलिये उनका प्रवेश लोक कलाओं में बड़े पैमाने पर हो चुका था. गाँव में सारंगी बजाकर भीख मांगने वाले जोगियों को भी मैंने बचपन में गांधी जी की शान में भजन गाते  सुना है . खलील की नौटंकी में भी गांधी बुड्ढे पर पूरा एक कसीदा पढ़ा जाता था .
आज़ादी के बाद जब पहला चुनाव हुआ तो इसी गरीब वर्ग ने अपनी उम्मीदों को साकार करने की उम्मीद में कांग्रेस के चुनाव निशान "  दो बैलों की  जोड़ी  " पर लगभग एकतरफा वोट दिया था. बडमनई की पार्टी उन दिनों स्वतंत्र पार्टी और जनसंघ थी . हमारे इलाके में इन पार्टियों के उम्मीदवारों का कोई पुछत्तर नहीं था. मुझे बचपन की दुन्धली याद है जब , गाँव में भोंपू पर कांग्रेसी गाते  हुए निकल  जाते थे . नारा था ,  
" दी आज़ादी कांगरेस ने,  जंज़ीर गुलामी की तोड़ी,
मोहर हमारी वहीं लगेगी ,जहां बनी  बैलों की जोड़ी "
सन बासठ के चुनाव तक स्वतन्त्र पार्टी तो  भुला दी गयी थी लेकिन जनसंघ का उम्मीदवार नोटिस होता था . पार्टी बढ़ रही थी  .  लोकसभा और विधान सभा के चुनाव साथ साथ होते थे . बेचू सिंह लोकसभा और उदय प्रताप सिंह विधानसभा के लिए जनसंघ के उम्मीदवार थे . ठाकुरों के गाँव में इन्हीं लोगों को वोट दिए गए थे . कुछ बकलोल टाइप ठाकुरों को उम्मीद थी कि  जनसंघ जीत जायेगी तो ज़मींदारी फिर वापस आ जायेगी और उनको शूद्रों पर मनमानी करने का फिर मौक़ा मिलेगा . लेकिन उन दिनों आज़ादी के सभी हीरो कांग्रेस या सोशलिस्ट पार्टियों ही हुआ करते थे . अन्य किसी पार्टी के उम्मीदवार को ऊंची जातियों के अलावा कहीं  कोई पूछने वाला नहीं था.
१९६२ में चीन की लड़ाई और उसके बाद ६३ और  ६४ का सूखा चारों तरफ निराशा लेकर आया . इस बीच दिल्ली में १९६६ में गौहत्या विरोधी आन्दोलन हुआ , कुछ बाबा लोग मरे भी . उसके बाद अयोध्या, प्रयाग और धोपाप के तीर्थस्थानों में बाबाओं ने कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा  खोल दिया . उधर कांग्रेस भी कमज़ोर पड़ चुकी थी. जवाहरलाल नेहरू और शास्त्री जी की मृत्यु हो चुकी थी . इंदिरा गांधी को सिंडिकेट वाले कांग्रेसी मठाधीश गूंगी गुडिया के रूप में स्थापित कर चुके थे . अटल बिहारी वाजपेयी एक प्रभावशाली वक्ता और नेता के  रूप में स्थापित हो चुके थे . इस सबके बाद भी लोकसभा या विधानसभा चुनाव १९६७ में  हमारे यहाँ जनसंघ को कुछ हाथ नहीं लगा . बाद में  कांग्रेस को चौधरी चरण सिंह ने तोड़ दिया . कांग्रेस में अक्खड़ लोग किनारे किये जाने लगे .बड़े पैमाने पर  चापलूस भर्ती होने लगे और १९६९ के चुनाव में जनसंघ को पहली बार विधानसभा चुनाव में जीतने का मौक़ा मिला.  इस तरह गांधी जी का प्रभाव आम जन के दिमाग से बाहर हुआ . वैसे इसमें  सबसे बड़ा योगदान कांग्रेसियों का ही है . इन लोगों ने महात्मा गांधी , जवाहरलाल नेहरू , लाल बहदुर शास्त्री  का नाम लेना ही बन्द कर दिया . बैंको के सरकारीकरण के नाम पर कुछ दिन तो इंदिरा गांधी से फायदा हुआ लेकिन बाद  में कांग्रेस में चापलूस  कल्चर ने जड़ पकड लिया . आज जो  दुर्दशा है उसके लिए यही सब ज़िम्मेदार है .



राम जेठमलानी को एक बहादुर इंसान और जीनियस वकील के रूप में याद किया जाएगा



शेष नारायण सिंह

राम जेठमलानी चले गए. करीब 96 साल की ज़िन्दगी पाई. १७ साल की उम्र में वकालत शुरू कर दी थी लिहाजा  करीब आठ दशक तक वकालत का काम किया . करीब दो साल पहले ऐलान कर दिया था कि अब वकालत नहीं करना . लेकिन जब तक अदालतों में पेश होते रहे  , उनकी मौजूदगी की धमक महसूस की जाती रही.  पंगा लेना उनकी आदत थी . कानून की बारीकियों को समझना उनकी फितरत थी . जिसके साथ कोई नहीं हो उसके साथ राम जेठमलानी खड़े हो जाते थे . सैकड़ों ऐसे लोग मिल जायेंगें जिनके पक्ष में  राम जेठमलानी खड़े पाए जाते थे ,हालांकि उनकी हैसियत नहीं होती थी कि वे जेठमलानी की फीस दे सकें .लेकिन राम जेठमलानी को इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता था . वे जिस बात को ठीक समझते थे , करते थे . सबसे पहली बार तो वे वकील के रूप में चर्चा में अठारह साल की उम्र में ही आ गए जब उन्होंने  सरकार के उस फैसले को चुनौती दी जिसके हिसाब से कोई भी आदमी तब तक वकालत नहीं कर सकता जब तक कि उसकी उम्र बाईस साल न हो  जाए. जेठमलानी खुद तो १७ साल में एल एल. बी पास कर चुके थे . अपना ही मुक़दमा लेकर पेश हो गए और  आदालत ने उनके पक्ष में फैसला सुनाया. वह दिन है और आज का दिन . और आखिर तक लड़ते रहे .
राम जेठमलानी का जन्म  सिंध में हुआ था . वह इलाका अब पाकिस्तान में है . बंटवारे के समय १९४७ में वे कराची में ही जमे रहे . तब तक वकील हो चुके थे .वकालत चल भी रही थी लेकिन छह महीने के अन्दर ही वहां बहुत बड़ा दंगा हो गया और वे भागकर मुंबई आ गए . मुंबई में एक शरणार्थी शिविर में पनाह लिया . उनके पास कोई काम या मुक़दमा नहीं था लेकिन उन्होंने तुरंत मौक़ा तलाश लिया . शरणार्थी शिविरों में पनाह लने वाले लोगों की बहुत दुर्दशा थी . बॉम्बे   रिफ्यूजी एक्ट के तहत पाकिस्तान से भागकर आये लोगों को रहने की जगह दी गयी थी . तब गुजरात और महाराष्ट्र मिलाकर एक ही राज्य था . बॉम्बे के मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई थे . बहुत ही जिद्दी इंसान थे . शरणार्थी शिविरों में रहने वाले लोगों के साथ अपराधी की तरह व्यवहार किया जाता  था. कानून ही ऐसा था . राम जेठमलानी  ने सरकार के ऊपर ही मुक़दमा कर दिया . और बॉम्बे रिफ्यूजी एक्ट में सरकार को बदलाव करना पड़ा. शहर के शरणार्थियों में उनकी इज्ज़त  बढ़ गयी. सिंध से अपना घर बार छोड़कर आये लोगों के बीच उनकी  पोजीशन मज़बूत होने लगी और मुंबई शहर के नए वकीलों में उनका नाम गिना जाने लगा .
वकील के रूप में पूरी दुनिया में उनका नाम १९५९ में मशहूर हो गया . जब वे नेवी के कमांडर कवास मानेकशा नानावती के खिलाफ अभियोजन पक्ष के वकील बने. सरकार बनाम के एम नानावती  केस  कानूनी इतिहास का एक बहुत बड़ा  दस्तावेज़  है. हुआ यह था कि कमांडर नानावती ने अपनी पत्नी के के दोस्त , प्रेम भगवान आहूजा को गोली मार दी थी. ज्यूरी ट्रायल हुआ जिसमें ज्यूरी ने कमांडर नानावती को अपराधी नहीं  माना और उनको बरी कर दिया . मामला हाई कोर्ट में पंहुचा जहां ज्यूरी के फैसले को नामंजूर कर दिया गया और मुक़दमा शुरू हुआ . उस केस में कमांडर नानावती के खिलाफ सरकारी वकील वाई वी चंद्रचूड थे . उनके साथ मकतूल के परिवार ने  राम जेठमलानी को भी वकील बनाने की अर्जी दे दी. बाद में वाई वी चंद्रचूड भारत के मुख्य न्यायाधीश भी बने. उस केस ने समाज को अजीब तरीके से बाँट दिया था .  प्रेम आहूजा सिन्धी थे तो मुंबई का पूरा  सिंधी समाज उनकी तरफ था. कवास नानावती पारसी थे तो पूरा पारसी समाज कमांडर साहब को सही मानता था. उनके वकील कार्ल खंडालावाला पारसी थे और प्रेम आहूजा की बिरादरी वालों ने  सिंधी वकील राम जेठमलानी  को खड़ा कर दिया था . उन दिनों का नामी साप्ताहिक अखबार  ब्लिट्ज भी मैदान में था और पूरे देश में नानावती के पक्ष में माहौल बना रहा था  .  अखबार के मालिक संपादक , रूसी करंजिया भी  पारसी थे . हालांकि वे बिरादरीवाद की किसी बात से ऊपर थे लेकिन उन्होंने इस तर्क को आगे बढाया कि अपनी पत्नी के प्रेमी को मारकर नानावती ने कोई गलती नहीं की है . बल्कि सामाजिक मूल्यों को ताकता दी है . लेकिन राम जेठमलानी  ने कहा कि क़त्ल किसी का भी भी वह क़त्ल होता है और कातिल पर ३०२ का मुक़दमा चलना चाहिए . उन्होंने मुक़दमे की ज़बरदस्त पैरवी की और साबित कर दिया कि नानावती ने क़त्ल सोच समझकर किया था .नानावती को उम्रक़ैद की सज़ा हुई.   मुंबई के पारसी समाज और नेहरू परिवार से दोस्ती के चलते नानावती के सज़ा राज्य की राज्यपाल और जवाहरलाल नेहरू की बहन विजयलक्ष्मी पंडित ने माफ़ कर दी लेकिन राम जेठमलानी  ने  नानावती को क़ानून के रास्ते से बचने नहीं दिया . उसी  मुक़दमे को लेकर राम जेठमलानी  सुप्रीम कोर्ट आये थे और यहीं के होकर रह गए.
राम जेठमलानी ने हर ताकतवर इंसान से  मोर्चा लिया और शोषित पीड़ित जनता का साथ दिया . इंदिरा गांधी की इमरजेंसी के खिलाफ भी उन्होंने अभियान चलाया . जब उनकी गिरफ्तारी की आशंका पक्की हो गयी तो बहुत नादे वकील एन ए पालकीवाला करीब तीन सौ वकीलों के साथ अदालत में राम जेठमलानी के वकील के रूप में पेश हो गए और उनकी गिरफ्तारी रुक गयी लेकिन उनके बाद जेठमलानी कनाडा चले गए और वहां इमरजेंसी के खिलाफ माहौल बानने में लग गए . इमरजेंसी ख़त्म होने पर वापस आये और जनता पार्टी के टिकट पर मुंबई से चुनाव जीतकर छठी लिक्सभा में १९७७ में सदस्य के रूप में प्रवेश किया . उनके मंत्री बनने की भी बात थी लेकिन मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री थे और जिद पर अड़ गए . उनको राम जेठमलानी  की जीवनशैली नहीं पसंद  थी.  उसके बाद तो वे कई बार लोक सभा और राज्य सभा में सदस्य के रूप में जाते रहे . अटल बिहारी वाजपयी की सरकार में मंत्री भी बने और बाकायदा उनसे  इस्तीफ़ा भी लिया गया . एक समय तो बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रहे लेकिन पार्टी से निकाले भी गए . अटल जी ने उनको मंत्री बनाया था लेकिन जब  उनसे नाराज़ हो गए तो लखनऊ से उनके खिलाफ २००४ में चुनाव भी लड़ने पंहुच गए .
राम जेठमलानी एक ज़बरदस्त इंसान थे .  अगर केस उनकी समझ में आ जाता  था तो वे वकील के रूप में   किसी के साथ भी खड़े होने में संकोच नहीं करते थे . कुख्यात तस्कर हाजी मस्तान के वकील के रूप में पूरी दुनिया ने उनको जाना . सत्तर के दशक में मुंबई के अंडरवर्ल्ड में हाजी मस्तान का आतंक था लेकिन राम जेठमलानी  की समझ में आ गए उसके ऊपर जो मुक़दमा था वह गलत था . बस वे हाजी मस्तान के वकील बन गए . हर्षद मेहता शेयर बाज़ार घोटाले का सरगना था . उसके खिलाफ मीडिया में ई ख़बरों के बाद ऐसा लगता था कि पूरा देश ही उसके  खिलाफ था लेकिन राम जेठमलानी  उसके वकील बने और कानून के पक्ष में खड़े होने का अपना दह्र्म निभाया . राजीव गांधी के हत्यारों के खिलाफ चले मुक़दमे में वे अभियुक्तों के वकील थे . इंदिरा गांधी की हत्या के अभियुक्त को भी बचाने के लिए वे आगे आये.  सोहराबुद्दीन की मुठभेड़ के मामले में वे अमित शाह के वकील थे . उन्होंने कई बार कहा  था कि अमित शाह को सोह्राबुद्द्दीन केस में गलत  फंसाया गया था इसलिए वे उनकी तरफ से वकील बने थे . उन्होंने लालू प्रसाद यादव,  लाल कृष्ण अडवानी , जयललिता , कनिमोज़ी ,रामदेव आदि के मुश्किल मुक़दमों में वे वकील के रूप में  खड़े होते रहे .

राम जेठमलानी के चाहने वाले पूरी दुनिया में हैं. लेकिन उनसे नफरत करने वालों की भी कमी नहीं . देश के प्रधानमंत्री भी उनका बहुत सम्मान कारते हैं .उनके निधन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी दुख व्यक्त किया है. अपने ट्वीट में उन्होंने कहा कि ," राम जेठमलानी जी के निधन से, भारत ने एक असाधारण वकील और प्रतिष्ठित सार्वजनिक व्यक्ति को खो दिया. राम जेठमलानी ने न्यायालय और संसद दोनों में समृद्ध योगदान दिया है. वह मजाकिया, साहसी और कभी भी किसी भी विषय पर साहसपूर्वक बोलने से नहीं कतराते थे.श्री राम जेठमलानी जी के सबसे अच्छे पहलुओं में से एक उनके मन की बात कहने की क्षमता थी और, उन्होंने बिना किसी डर के ऐसा किया. आपातकाल के काले दिनों के दौरान, उनकी स्वतंत्रता और सार्वजनिक स्वतंत्रता के लिए लड़ाई को याद किया जाएगा. जरूरतमंदों की मदद करना उनके व्यक्तित्व का एक अभिन्न हिस्सा था. मैं खुद को सौभाग्यशाली मानता हूं कि मुझे राम जेठमलानी के साथ बातचीत करने के कई अवसर मिले."
राम जेठमलानी को श्रद्धांजलि देने गृह मंत्री अमित शाह उनके घर पहुंचे. यहां उन्होंने राम जेठमलानी को श्रद्धांजलि दी और राम जेठमलानी के निधन पर दुख प्रकट किया. अमित शाह ने ट्वीट किया, हमने एक प्रतिष्ठित वकील के साथ एक महान मानव को खो दिया"

इस बात में दो राय नहीं है की राम जेठमलानी एक बहादुर और निडर  इंसान थे.


छत्तीस साल पहले पैदा हुयी मेरी बेटी जो अब मेरी दादी हो गयी है .

आज ( 6 जून )हमारी सबसे छोटी बेटी का जन्मदिन है . १९८३ में जब से इनका जन्म हुआ ,संयोग ऐसा हुआ कि उसके बाद हमें कभी हमें फाक़े नहीं करने पड़े.  इनके बड़े भाई बहनों ने इनको हमेशा ही सबसे महत्वपूर्ण इंसान माना. मेरी आर्थिक हैसियत तो नहीं थी लेकिन आप शिशुवन गईं, द श्रीराम स्कूल गईं,  दिल्ली विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में आनर्स किया, जे एन यू से एम ए किया और स्कालरशिप मिल गयी तो अमरीका के एक टाप विश्वविद्यालय से पी एच डी किया , विश्व बैंक में  नौकरी की और अब दुनिया के महत्वपूर्ण युवा अर्थशास्त्रियों में इनका नाम सम्मान से लिया जाता है. इस सारी प्रक्रिया में यह कब मेरी दादी बन गईं, मुझे पता ही नहीं लगा.जब छोटी थीं तो पापा की गोद में बैठी रहती थीं , इनकी पढ़ाई लिखाई हमारे पूरे परिवार की प्राथमिकता रहती थी . हमेशा बच्ची के रूप में ही इनको देखता रहा.  २०१६ में जब मैं बीमार हुआ और करीब डेढ़ महीने अस्पताल में पड़ा रहा तो मैंने देखा कि हमारी बच्ची एकदम से दादी हो गयी है . अस्पताल में मेरी देखभाल का ज़िम्मा पूरी तरह से इनके जिम्मे हो गया . इनके बड़े भाई मुंबई से लगभग हर शनिवार को आ जाते थे , इनकी बड़ी बहन के घर इनका बेटा दिन भर रहता था. देश के एक शीर्ष मैनेजमेंट स्कूल में इनकी नौकरी थी ,वहां से छुट्टी लेकर आप अपने बाप की देखभाल करती रहीं, अपनी मां का सहारा बनी रहीं और मौत के मुंह से अपने पिता को खींचकर लाईं.दवा समय से देना, अम्मा को सहारा देना, भाई बहनों को मेरी बीमारी और स्वास्थ्यलाभ के बारे में अपडेट रखना, अस्पताल में आये मेरे भाई बहन का पूरा ख्याल रखना ऐसे कम थे जिसको आपने  बिना किसी  तनाव के पूरा किया . मेरे हज़ारों टेस्ट हुए होंगे ,सबका डिटेल आपको याद हो गया था.

हम बीमार थे, ठीक हो गए , घर आ गए , काम शुरू कर दिया और ज़िंदगी एक बार फिर से सामान्य हो गयी . सब कुछ नार्मल हो गया लेकिन इस सारी प्रक्रिया में हमारी सबसे छोटी बिटिया कहीं खो गयी . मेरी टीनी चा जिसने बीमारी के दौरान ,मेरी दादी  का रोल स्वीकार किया था वह उसी मुकाम पर जम  गयी . अब वह फुल दादी है . मैं कोई भी बात कहना चाहूँ तो उसका आशय उनको आधी बात सुनकर ही पता लग जाता है और बात पूरी होने के पहले ही पापा टोक दिए जाते हैं . अगर कोई ज़रूरत है तो उसको पूरा कर देती हैं . दक्षिण भारत में हमसे बहुत दूर रहती हैं लेकिन  हर परेशानी की लिस्ट उनके पास रहती है . उसका समाधान भी करती रहती हैं . उनकी बड़ी बहन दिल्ली में रहती हैं, वे हमारे राशन पानी की इंचार्ज हैं , मेरी उम्र और औकात से  ज़्यादा कपडे हमको मिलते रहते हैं . इन लोगों की अम्मा तो इनके साथ ही खेल में शामिल हैं और इनकी तरह की खर्च बर्च करती हैं लेकिन पापा बेचारे अब बुढऊ हो गए हैं , उनको कुछ नहीं मालूम , उनको क्या करना है वह तो दादी जी ही तय  करेंगी. पापा के बारे में सारे फैसले आप ही करती हैं. मेरी प्रार्थना है कि ऐसी बेटी परवरदिगार सबको दे .  

पत्रकारिता की संवादहीनता को ख़त्म करने के लिए महात्मा गांधी जीवन से प्रेरणा लेनी होगी

  

शेष नारायण सिंह

आज के सौ साल पहले असहयोग आंदोलन की शुरुआत हो गयी थी. उस समय महात्मा गांधी की उम्र पचास साल थी . दुनिया के जनांदोलनों के इतिहास में असहयोग आन्दोलन का मुकाम बहुत ऊंचा  है. अंग्रेजों की वादाखिलाफी को रेखांकित  करने के  लिए महात्मा  गांधी ने पूरे देश को तैयार कर दिया था  लेकिन कुछ  वक़्त बाद आन्दोलन  हिंसक हो गया और चौरी चौरा का हिंसक काण्ड हो गया , आन्दोलन के नेता खुद महात्मा गांधी थे . उन्होंने बिना कोई वक़्त गँवाए  आन्दोलन को वापस  ले लिया . उस फैसले के बाद  लोगों की मनोभावना पर बहुत  ही उलटा असर पड़ा लेकिन गांधी जी को मालूम था कि हिंसक आन्दोलन को दबा देना और उसको ख़त्म कर देना  ब्रिटिश सत्ता के लिए बाएं हाथ का खेल है . १८५७ में जिस तरह से हिंसक विरोध को अंग्रेजों ने नेस्तनाबूद  किया था , वह  १९१९ के नेता को मालूम था . उसके बाद से  गांधी जी लगातार प्रयोग करते रहे. कांग्रेस जो  सीमित आबादी तक की पंहुच वाली पार्टी  थी उसको गांधीजी जनसंगठन का रूप दे रहे थे . इस के लिए वे  शास्वत संवाद की स्थिति में रहते थे. १९१९ के आन्दोलन की तैयारी में भी उनकी सभी से संवाद स्थापित कर लेने की क्षमता को बहुत ही बारीकी से देखा और समझा गया है . असहयोग आन्दोलन के गांधीजी के प्रस्ताव  का कांग्रेस के कलकत्ता सम्मेलन में देशबंधु चितरंजन दास ने ज़बरदस्त विरोध किया था. उसके बाद नागपुर में उस प्रस्ताव को पक्का किया जाना था. सी आर दास ने  तय कर लिया था कि गांधीजी के प्रस्ताव को हर हाल में फेल करना है. इसीलिये  नागपुर जाने के पहले उन्होंने कांग्रेस के  बहुत सारे डेलीगेट बनाए और सब को कलकत्ता से लेकर नागपुर गए . सबको गांधी जी के प्रस्ताव का विरोध करना था लेकिन जब गांधी जी ने अपना प्रस्ताव रखा तो वही सी आर दास गांधी के प्रस्ताव के  पक्ष में हो गए और उन सारे लोगों से गांधी के पक्ष में मतदान करने के लिए कहा जिनको नागपुर  लाये थे. ज़ाहिर है प्रस्ताव लगभग सर्वसम्मति से पास हो गया क्योंकि कलकत्ता से नागपुर के बीच में गांधी के सबसे बड़े विरोधी मुहम्मद अली जिन्ना की भूमिका ख़त्म हो चुकी थी. और अब सी आर दास अब गांधी के समर्थक थे .
हमने देखा है कि लोगों को अपनी बात समझा देने की क्षमता , गांधी की शख्सियत  की सबसे बड़ी ताक़त थी. गांधी ,  संवाद की विधा के सबसे बड़े ज्ञाता हैं . उनके कार्य के हर पहलू के बारे में खूब लिखा गया है  ,बहुत सारे  शोध हुए हैं  लेकिन यह एक पक्ष ऐसा है जिसपर उतना शोध नहीं हुआ जितना होना चाहिए था. महात्मा गांधी के हर आन्दोलन की बुनियाद में अपनी बात को कह देने और सही  व्यक्ति  तक उसको पंहुचा देने की क्षमता की सबसे प्रमुख भूमिका होती थी . गांधी जी को पत्रकार के रूप में  तो पूरी दुनिया जानती है ,उस विषय पर बातें भी बहुत हुई  हैं .  उन्होंने  जिन अखबारों का संपादन किया  , वे किसी भी जन आन्दोलन के बीजक के रूप में जाने जाते हैं लेकिन पत्रकारिता से इतर  भी महात्मा ने  सम्प्रेषण के क्षेत्र में काम किया है. संवाद की तरकीबों को उन्होंने ललित कला  के रूप में  विकसित किया लेकिन उनके इस पक्ष के बारे में जानकारी अपेक्षाकृत कम है .  हालांकि उनके व्यक्तित्व का यह पक्ष  भारत में उनके क़दम रखने के साथ ही देखी जा सकती है . उनकी भारत दर्शन की यात्राएं ,देश की जनता से संवाद स्थापित करने के सन्दर्भ में ही देखी जानी चाहिए . भारत में  उनकी राजनीति की शुरुआत  चम्पारण के उनके प्रयोगों से मानी जाती है . उन्होंने वहां तरह तरह के प्रयोग किये . उस इलाके की  किसी भी भाषा को गांधी जी नहीं जानते थे . मैथिलीभोजपुरीहिंदी ,मगही , कैथी आदि की जानकारी  गांधी जी को बिलकुल नहीं थी लेकिन उस चंपारण में एक ऐसा भी समय आया जब उस इलाके की जनता और वहां के नेतावहां के अँगरेज़ अफसर , वहां के नील के कारोबारी , वहां के किसान वही  समझते थे जो गांधी जी उनको समझाना चाहते थे.  अभी कुछ साल पहले देश के बड़े पत्रकार और गान्धीविद , अरविन्द मोहन ने  मोतिहारी में  रहकर  गांधी जी के चम्पारण के प्रयोगों  का गंभीर अध्ययन किया है . उस अध्ययन को उन्होंने कुछ किताबों के ज़रिये सार्वजनिक भी किया है . अभी शायद और भी कुछ लिखा जाना है लेकिन जितना काम सार्वजनिक डोमेन में आ चुका है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि उनका काम  अपने आप में एक बेहतरीन अकादमिक धरोहर है . महात्मा गांधी की रोज़ की गतिविधियों ,चिट्ठी पत्रीबातचीत ,सन्देश आदि को आधार बनाकर  महात्मा गांधी की जिस  डायरी की अरविन्द मोहन ने पुनर्रचना की है वह राजनीतिक अध्ययन प्रणाली के लिए मील का पत्थर है . उस डायरी को पढ़कर महात्मा जी की संवाद को सबसे बुलंद मुकाम तक  पंहुचाने की क्षमता को जानने का जो अवसर मुझे मिला ,वह मेरे जीवन का बहुत ही अच्छा अनुभव है . कई बार ऐसा हुआ कि गांधी मार्ग में नियमित रूप से छप रही डायरी को पढ़ते हुए ऐसा लगता  था कि जैसे महात्मा गांधी ने खुद ही उस डायरी को  वहीं कहीं मोतीहारी में बैठकर लिखा हो. अरविन्द के चंपारण प्रोजेक्ट के बाद उनकी  जो भी पुस्तकें आदि छपी हैं वे आने वाली पीढ़ियों को बहुत सहायता करेंगीं और वे गांधी जी को अच्छे तरीके से समझ सकेंगे . ऐसा मुझे  विश्वास है .    अरविन्द मोहन की भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित किताब, " प्रयोग चंपारण " की कई  प्रतियां  मैंने नौजवानों को जन्मदिन आदि पर भेंट की हैं और उन सब का कहना है कि गांधी जी को अब वे पहले से अच्छी तरह से समझ सकते हैं .  मोतीहारी जाकर गांधी जी को  वहां जाकर उनको बिहार के सबसे बड़े वकीलोंब्रज किशोर प्रसादराजेन्द्र प्रसाद आदि का जो साथ मिला वह अपने आप में  गांधी की संवाद शैली का उदाहरण है . ब्रजकिशोर बाबू , उस इलाके के सबसे बड़े वकीलों में शुमार थे . एक मुक़दमा लेने के पहले उसको सुनने के  लिए भी फीस लेते थे . और वह फीस १९१६ में दस हज़ार रूपये होती थी . इतिहास और अर्थशास्त्र के  विद्यार्थी इस बात का अनुमान लगा सकते हैं कि आज के रूपयों में अगर इस रक़म को बदला जाए तो यह कितना होगा. वही बृजकिशोर प्रसाद मोतीहारी में बैठकर  नील की खेती करने  वाले किसानों के बयान लिखा करते थे . जब वे गांधी के यहां गए तो सारे नौकर चाकर उनके साथ गए थे. लेकिन तीन महीने के अन्दर  गांधी ने उनको समझा दिया और सब वापस भेज दिए गए . राजेन्द्र प्रसाद ,आचार्य जे बी कृपलानी ,रामनवमी प्रसाद, धरणीधर प्रसाद जैसे लोग अपनी आरामदेह ज़िंदगी छोड़कर महात्मा गांधी के साथ लगे रहे और वह सभी काम करते थे जो  गांधी जी कहते थे . वहां अपना खुद का सारा काम सबको खुद ही करना पढता था  जिसमें बर्तन मांजने से लेकर कपडे धोने तक का काम शामिल था.  इन सभी लोगों के पास वापस जाकर अपनी ज़िंदगी को आराम से बसर करने का विकल्प था लेकिन गांधी  का सबसे ऐसा संवाद स्थापित हो गया  कि कोई भी वापस जाने की बात सोच ही नहीं सकता  था.  यह सारी जानकारी अरविन्द मोहन की चंपारण वाली किताबों में है और मुझे लगता  है कि  गांधी की राजनीति और उनकी शैली को समझने की कोशिश करने वाले हर व्यक्ति को उन किताबों पर एक  नज़र ज़रूर   डाल लेना चाहिए .
जो  गांधीजी ने चंपारण में किया वह स्थापित  ब्रितानी सत्ता को दी गयी चुनौती थी . स्थापित  सत्ता ही तानाशाही को चुनौती देने का गांधी जी का तरीका हर कालखंड में रामबाण की तरह असर करता है . आज़ादी की लड़ाई में १९१९ से १९४७ तक के इतिहास ने हर मोड़ पर देखा गया है कि उनकी बात को हमेशा ही बहुत ही गंभीरता से लिया जाता रहा है . १९२० ,१९३० और १९४२ के उनके आंदोलनों को देखा जाए तो उनके समर्थकों में ही एक बड़ा वर्ग था जो उनके नतीजों के बारे में सशंकित था . उनको लगता था कि जिन नतीजों की उम्मीद महात्मा गांधी कर रहे थे उनको  हासिल  नहीं किया जा सकता था . लेकिन जब १९२० का आन्दोलन शुरू हुआ और हिन्दू मुसलमान , सिख , ईसाई सभी उनके साथ जुड़ गए , किसान मजदूर  गांधी के साथ खड़े हो गए . अकबर इलाहाबादी ने गांधी के इसी दौर में कहा था कि , " मुश्ते-खाक हैं मगर आंधी के साथ हैं/ बुद्धू मियां भी हजरते गांधी के साथ हैं ."
१९२० के आन्दोलन के बाद अंग्रेजों को आम भारतीय जनमानस के बीच गांधी की अपील की ताक़त समझ में आ गई थी . अँगरेज़ ने साफ़ देखा कि हिन्दू-मुसलमान एक  हो गया है , मजदूर किसान एक हो गया है . शहरी ग्रामीण सब  गांधी के साथ हैं . जिस बांकपन से गांधी ने चौरी चौरा के बाद आन्दोलन को वापस लिया था वह अपने आप में गांधी के आत्मविश्वास और अपनी बात को स्वीकार करवाने की क्षमता का परिचायक है . १९३० के आन्दोलन में जब उन्होंने दांडी यात्रा की योजना बनाई तो देश के  गांधी समर्थक  बुद्धिजीवियों का एक वर्ग भी शंका से भरा हुआ था कि  क्या नमक  सत्याग्रह से वे नतीजे निकलेंगें जिसकी कल्पना  गांधी जी ने की थी. उनके बड़े समर्थक मोतीलाल  नेहरू ने करीब  बीस पृष्ठ की चिट्ठी लिखी और  दावा किया कि दांडी यात्रा से कुछ नहीं होने वाला है . गांधीजी ने पोस्टकार्ड पर एक लाइन का जवाब लिख दिया कि " आदरणीय मोतीलाल जी, करके देखिये " उसके बाद मोतीलाल  नेहरू ने इलाहाबाद में नमक क़ानून तोड़ने की घोषणा की और गिरफ्तार कर लिए गए . उन्होंने गांधीजी को तार भेजा जिसमें लिखा  था, " आदरणीय गांधी जी, करने के पहले ही देख लिया ."  बाद में तो खैर , पूरी दुनिया ने देखा कि उस  सत्याग्रह ने ब्रितानी सत्ता को इतना बड़ा आइना दिखा दिया कि उनको गवर्नमेंट ऑफ़ इण्डिया एक्ट लाकर मामले को शांत करने की कोशिश करनी पड़ी . इस बीच भारत के नेताओं में जो लोग अंग्रेज़ी राज के वफादार लोग थे उन सबको   भी गांधी को नाकाम करने के लिए सक्रिय कर दिया गया था लेकिन जनता ने वही  सुना जो गांधी  सुनाना चाहते थे . बाकी लोग उस  समय के इंटेलिजेंस ब्यूरो के अफसरों के हुक्म के गुलाम ही बने रहे . १९४२ में भी भारत  छोड़ो के नारे की उपयोगिता पर भी कांग्रेस के अंदर से ही सवाल उठाए जा  रहे थे . लेकिन गांधी जी ने किसी की नहीं  सुनी . आज़ादी की लड़ाई के सभी बड़े नेताओं को अहमदनगर किले की  जेल और महात्मा गांधी को पुणे के आगा खान पैलेस में बंद कर दिया  गया . १९४५ में जब  जेल  से लोग बाहर आये तो कई नेताओं की हिम्मत चुनाव में जाने की नहीं थी लेकिन जब लोग भारत के शहरों और गाँवों में निकले  तो उन्होंने देखा कि लगता था कि  गांधी ने हर घर में सन्देश  पंहुचा दिया था कि अंगेजों को भारत छोड़कर जाना है . कुछ इलाकों में  अंग्रेजों की कृपापात्र मुस्लिम लीग को भी सफलता मिली लेकिन  पूरे देश में गांधी का डंका बज रहा  था. पूरा देश गांधी के साथ खड़ा हो गया था .
इतना बड़ा जनांदोलन महात्मा गांधी इसलिए चला सके क्योंकि उनकी जनता से संवाद स्थापित करने की क्षमता अद्भुत थी . संवाद स्थापित करने की दिशा में तरह तरह के प्रयोग महात्मा गांधी की विरासत का हिस्सा  है . उनके जाने के बाद उसका प्रयोग बार बार होता रहा . महात्मा गांधी के बाद के दो दशकों तक तो पत्रकारिता के क्षेत्र में ऐसे बहुत सारे दिग्गज थे जिन्होंने उनके काम को रिपोर्ट किया था , उनके जीवनकाल में  उनके बारे में लिखा पढ़ा था लेकिन सत्तर का दशक आते आते  राजनीति में भी और पत्रकारिता में भी महात्मा गांधी के साथ काम कर चुके लोग हाशिये पर जाने लगे थे . राजनीति  में भी और पत्रकारिता में भी सत्ता के केंद्र की  चाटुकारिता  का फैशन चल पड़ा था . इंडिया इज इंदिराइंदिरा इज इंडिया एक संस्कृति के रूप में विकसित हो रहा था और चापलूसी का फैशन  राजनीतिक आचरण में प्रवेश कर  चुका था . इमरजेंसी के बाद जेल से बाहर आये और जनता पार्टी के सूचना प्रसारण मंत्री लाल  कृष्ण आडवानी की  बात उस वक़्त की मीडिया को रेखांकित भी कर देती  है. इमरजेंसी में जब सेंसरशिप की बात हुयी तो उन्होंने पत्रकारों से मुखातिब होकर कहा था कि आपसे स्थापित सत्ता की तरफ से झुकने को कहा गया था और आप रेंगने लगे थे ( You were asked to bend but you started crawling ) . गांधी के रास्ते से दूर हो रहे   समाज और राजनीति के इसी दौर में इमरजेंसी लगी थी. लेकिन उसके पहले गांधी के चम्पारण के साथी  बृजकिशोर बाबू के दामाद और गांधी के असली अनुयायी , जयप्रकाश नारायण ने स्थापित  सत्ता के खिलाफ आन्दोलन शुरू कर दिया था . उस आन्दोलन ने  बिहार की सरज़मीन से देशव्यापी रूप पकड़ना शुरू किया था . आज के बिहार के बहुत सारे वरिष्ठ नेता उन दिनों छात्र  थे . उन लोगों ने जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुए आन्दोलन के हरावल  दस्ते में शिरकत की थी. अठारह मार्च १९७५ के दिन एक हज़ार आदमियों का जो जुलूस पटना की सडकों पर निकला था उसमें आज के हमारे मनीषी ,कुमार प्रशांत भी शामिल हुए थे .  मैंने पटना में इंसानी बुलंदी के उस पर्व को नहीं देखा था लेकिन करीब पांच साल पहले कुमार प्रशांत ने उस वक़्त के माहौल को कलमबंद करके जनसत्ता अखबार में छापा था . मेरा मन तो कहता है कि उनके पूरे लेख को ही यहाँ उद्धृत कर दूं .बहरहाल  उसके कुछ अंश उद्धृत किये बिना अपनी बात नहीं कह पाउँगा . कुमार प्रशांत के उस कालजयी लेख की  शुरुआती  पंक्तियाँ देश के उस समय के माहौल को साफ़ बयान करती हैं . लिखते हैं ,"  छब्बीस जून, 1975 वह तारीख है जहां से भारतीय लोकतंत्र का इतिहास एक मोड़ लेता है। सत्ता की चालें-कुचालें थीं सब ओर और सभी हतप्रभ थेलेकिन कोई बोलता नहीं था। राजनीति चाटुकारों से और समाज गूंगों से पट गया था। 1973-74 में गुजरात में युवकों ने एक चिनगारी फूंक तो डाली थी लेकिन वह रोशनी कम और आग ज्यादा फैला रही थी। बिहार में भी युवकों ने ही इस सन्नाटे को भेदने का काम किया था लेकिन सन्नाटा टूटा कुछ इस तरह कि पहले से भी ज्यादा दमघोंटू सन्नाटा घिर आया! तब कायर चुप्पी थीअब भयग्रस्त घिघियाहट भर थी। और ऐसे में उस बीमारबूढ़े आदमी ने कमान संभाली थी। वर्तमान उसे कम जानता थाइतिहास उसे जयप्रकाश के नाम से पहचानता था और राष्ट्रकवि दिनकर उसके लिए यही गाते हुए इस दुनिया से विदा हुए थे: कहते हैं उसको जयप्रकाश जो नहीं मरण से डरता है/ ज्वाला को बुझते देख कुंड में स्वयं कूद जो पड़ता है! 
वैसा ही हुआ! वह मौत के बिस्तर से उठ करहम समझ पाए कि न समझ पाएहमें साथ लेकर क्रांति-कुंड में कूद पड़ा! अठारह मार्च को पटना की सड़कों पर बमुश्किल हजार लोग ही तो उतरे थे- हाथ पीछे बंधे थे और मुंह पर पट्टी बंधी थी। उन हजार लोगों ने भी अपना-अपना शपथपत्र भरा था जिसकी पूरी जांच जयप्रकाश ने की थी। पहली लक्ष्मण-रेखा तो यही खींची थी कि उन्होंने कि आपका संबंध किसी राजनीतिक दल से नहीं होना चाहिए। तो कांग्रेसी सत्ता की अपनी कुर्सी से और विपक्षी विपक्ष की अपनी कुर्सी से बंध कर रह गए थे। पटना शहर की मुख्य सड़कों से गुजर करसत्ता की हेकड़ी और प्रशासन की अकड़ को जमींदोज करकोई तीन घंटे बाद जब क्षुब्ध ह्रदय है/ बंद जबान की तख्ती घुमा कर हम सभी जमा हुए तो मुंह पर बांधी अपनी पट्टी  खोल कर साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु लंबे समय तक खामोश ही रह गए! मैंने पानी का गिलास लेकर कंधा छुआ तो कुछ देर मुझे देखते ही रहेफिर बोले: प्रशांतजीऐसा निनाद करता सन्नाटा तो मैंने पहली बार ही देखा और सुना! और खामोशी में लिपटा वह निनाद अगले ही दिन जिस गड़गड़ाहट के साथ फटाक्या उसकी कल्पना थी किसी को! मतलब तो क्या पता होताजिस शब्द से भी किसी का परिचय नहीं था वह क्रांति शब्द- संपूर्ण क्रांति- सारे माहौल में गूंज उठा। उस वृद्ध जयप्रकाश नारायण ने न जाने कौन-सी बिजली दौड़ा दी थी कि सब ओर रोशनी छिटकने लगी थी।´"
जयप्रकाश नारायण ने महात्मा गांधी की संवाद स्थापित करने की केवल एक तरकीब पटना की सडकों पर मार्च १९७५ की उस शाम प्रयोग किया था और हमारे  साहित्य की एक आला और नफीस आवाज़ ने  बात को समझा दिया था . जब  फणीश्वर नाथ ' रेणु ' ने कहा कि," प्रशांतजीऐसा निनाद करता सन्नाटा तो मैंने पहली बार ही देखा और सुना! " तो वे गांधी की संवाद शैली की ही बात कर रहे थे . यही सन्नाटा , चौरी चौरा के बाद भी महसूस किया गया था ,यही सन्नाटा दांडी गाँव में जब एक मुट्ठी नमक उठाया  गया  थातब भी था और यही सन्नाटा जब १९४२ में जब आगा खान पैलेस में  इस पृथ्वी के सबसे बड़े मर्दे-मोमिन ने अपने साथी और सचिव महादेवभाई देसाई की अंत्येष्टि की  थी तब भी था .  ९ अगस्त १९४२ को महात्मा गांधी और अन्य स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी गिरफ्तार हुए थे , महादेवभाई देसाई और कस्तूरबा गांधी को महात्मा गांधी के साथ पुणे के आगा खान पैलेस में रखा गया था . हफ्ते भर बाद ही महादेवभाई देसाई की मृत्यु हो गयी थी . महात्मा गांधी ने उनका  अंतिम संस्कार अपने  हाथों से किया , चारों तरफ सन्नाटा था लेकिन मुझे लगता  है कि वहीं तय हो गया था कि गांधी ने पूरे देश को सन्देश दे दिया था कि अँगरेज़ को अब जाना ही पडेगा .
 महात्मा गांधी ने अपनी बात हमेशा बिना किसी बाजे गाजे के , बिना किसी  भाषाई श्रृंगार के कही . साधारण भाषा में जो भी उन्होंने कहा .उसका वही असर हुआ जो वे चाहते थे .स्व हरिदेव शर्मा ने  तीन मूर्ति पुस्तकालय में अपने पास आने वाले लोगों को बार बार यह  बात बताई थी कि  महात्मा गांधी की बातें साधारण से साधारण भाषा में कही जाती थी लेकिन उनका भावार्थ उस तक बहुत ही  ज़बरदस्त तरीके  से पंहुचता था   जिसको लक्ष्य करके वह बात कही गयी थी . उन्होंने ही बताया था कि जलियांवाला  बाग़ के नरसंहार की जांच करने के लिए कांग्रेस ने  एक कमेटी गठित की थी. उस कमेटी के  सेक्रेटरी गांधी जी थे. वहां से आकर जो रिपोर्ट उन्होंने  लिखी वह ब्रितानी संसद और समाज तक  पंहुची ,उसके आधार पर लन्दन के अखबारों में ख़बरें लिखी गयीं और जनरल  डायर जैसे आततायी की सारी पोल खुल गयी . मुराद यह कि महात्मा गांधी जब जो कहना चाहते थे उसको उसी तरीके से कहते थे और उसका असर बहुत ही सटीक होता था.
फणीश्वर नाथ 'रेणुने जिसको निनाद करता सन्नाटा नाम दिया था ,वह वास्तव में गांधी के सत्याग्रह का स्थाई और  संचारी भाव , दोनों ही था.  इस निनाद करते सन्नाटे को जहां भी आततायी और अहंकारी सत्ता के मुकाबिल  संघर्ष करना पड़ा  ,वहां इस्तेमाल  किया गया है . दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मंडेला का  उदाहरण दुनिया के सामने है . लेकिन अमरीका में जो रंगभेद के खिलाफ संघर्ष हुआ उसमें भी गांधी के संवाद स्थापित करने के तरीकों का बार  बार बार इस्तेमाल हुआ है . गांधी के जाने के करीब पन्द्रह साल बाद अमरीका में भी प्रयोग में लाया गया . अमरीका में रंगभेद के खिलाफ बहुत समय से आन्दोलन चलता रहा था  . लेकिन पचास और साठ  के दशक में रेस्तराओंबसों और शिक्षा संस्थाओं में गैरबराबरी के खिलाफ ज़बरदस्त आन्दोलन चला . कई बार आन्दोलन हिंसक हो जाता था और क्लू,क्लाक्सक्लान नाम के दक्षिणपंथी  श्वेतों के संगठन के गुंडे ,बदमाशी करते थे . जवाब में  अफ्रीकी-अमरीकी भी हिंसक हो जाते थे . नतीजा यह होता था कि आन्दोलन को हिंसा के नाम पर तोड़ दिया जाता था .   साठ के दशक के शुरुआती वर्षों में यह आन्दोलन अपने निर्णायक दौर में पंहुच गया . अमरीका के दक्षिणी राज्य ,टेनेसी  की राजधानी नैशविल का  वैंडरबिल्ट  विश्वविद्यालय श्वेत अहंकार का केंद्र हुआ करता था. उसमें काले लोगों को प्रवेश तक  नहीं किया जाता था . सरकारी हस्तक्षेप के कारण कुछ छात्रों का प्रवेश होता था लेकिन उनको बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता था .. उसी विश्वविद्यालय में अफ्रीकी मूल के अमरीकी छात्रों ने  रंगभेद के खिलाफ आन्दोलन की  शुरुआत की . नैशविल शहर में ही फिस्क विश्वविद्यालय है जहां केवल काले लोग पढ़ते थे .  इन दोनों विश्वविद्यालय के छात्रों के आन्दोलन चल रहे थे लेकिन सरकार में श्वेत प्रभुता के चलते इनको हिंसक करार देकर सरकारी कार्रवाई का शिकार बना दिया जाता था . इस बीच नागपुर से मोहनदास करमचंद गांधी के विचारों का अध्ययन करके वापस अमरीका  गए जेम्स मोरिस लॉसन जूनियर  ने   आन्दोलन को पूरी तरह से गांधी के विचारों में रंग दिया . वे धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने के सिलसिले में भारत आये थे लेकिन जब लौटकर गए तो पूरी तरह से महात्मा गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा की ताक़त के जानकार बनकर लौटे थे  . नैशविल जाकर उन्होंने वैंडरबिल्ट  विश्वविद्यालय के डिविनिटी स्कूल में दाखिला ले  लिया था और धार्मिक शिक्षा में शोध कार्य कर रहे थे  यहां उन्होंने सदर्न क्रिश्चियन लीडरशिप कांफ्रेंस के माध्यम से अहिंसक आन्दोलन की शिक्षा देना शुरू किया .यहाँ उन्होंने छात्रों के आदोलन के नेताओं  डियान नैशजेम्स बेवेलबर्नार्ड लाफायेटमैरियन बैरी  और जॉन लेविस को बाकायदा अहिंसक आदोलन चलाने के गांधीवादी तरीकों की   शिक्षा दी . इन्हीं  छात्र छात्राओं ने १९५९ और ६० में नैशविल की दुकानों में नैशविल सिट-इन का आन्दोलन  चलाया  .  इस बीच जेम्स लासन  को वैंडरबिल्ट विश्वविद्यालय से निकाल दिया  गया . इन्हीं  छात्र नेताओं ने संयुक्त राज्य अमरीका के दक्षिण  में चले फ्रीडम राइडमिसीसिपी फ्रीडम समर,१९६३ के बर्मिंघम चिल्ड्रेन्स   क्रुसेड , १९६३ के सेल्मा वोटिंग राइट्स आन्दोलन१९६६ के वियतनाम युद्ध  विरोधी आन्दोलन आदि का नेतृत्व किया . इन छात्रों के  नेतृत्व  में हुए बहुत  ही महत्वपूर्ण आन्दोलनों में एक १९६३ का वाशिंगटन मार्च का आन्दोलन  है. इसी आन्दोलन में इन   छात्रों  ने मार्टिन लूथर किंग जूनियर को आमंत्रित किया था उसके बाद वे आन्दोलन का सहयोग करते रहे . जेम्स लासन  ने ही कमिटी ऑफ़  मूव टू इक्वलिटी की स्थापना की और इसी कमिटी के तहत हुए कार्यक्रम में मार्टिन लूथर किंग ने अपना आखिरी भाषण ,माउन्टेनटॉप स्पीच दिया था . मुराद यह है कि अमरीका में गैरबराबरी का जो संघर्ष पचास और  साठ के  दशक में हुआ उसमें पूरी तरह से महात्मा गांधी के सत्याग्रह और  अहिंसा की धमक देखी जा सकती है . इतने बड़े आन्दोलन के बारे में दुनिया भर में  जानकारी एक पत्रकार ने पंहुचायी . डेविड हल्बर्ट्सम  नाम के इस पत्रकार ने  हारवर्ड विश्वविद्यालय से पढ़ाई पूरी करने के बाद कुछ दिन किसी अखबार में काम किया लेकिन बाद में उन्होंने नैशविल टेनेसियन नाम के अख़बार में रिपोर्टर का काम   शुरू कर दिया . नैशविल में सिट-इन का आन्दोलन शुरू हो चुका था . जेम्स लासन जूनियर के चेलों के साथ रहते हुए उन्होंने ख़बरें लिखना शुरू किया . वे वहीं अपनी खबरों के निर्माताओं के  बीच में रहते थे और सौ फीसदी सच्ची ख़बरें दुनिया तक पंहुच रही थी. वहां के छात्र नेता धीरे धीरे बड़े होते गए , वाशिंगटन की राजनीति में सक्रिय होते गए , कुछ लोग तो  सेनेट और अमरीकी कांग्रेस के सदस्य भी हुए लेकिन उनके बीच रहकर जो ख़बरें लिखी गयीं वे भावी इतिहास की गवाह बनने वाली थीं. बाद में  अपनी उन्हीं रिपोर्टों के आधार पर डेविड हल्बर्ट्सम ने एक उपन्यास भी लिखा जो उनकी ख़बरों को अमर करने की क्षमता रखता है .चिल्ड्रेन ' नाम का यह उपन्यास आज भी अमरीकी उपन्यासों में बहुत ही  सम्मान से देखा जाता है . यह एक उदाहरण है कि संवाद की स्थिति बनाये रखने  से पत्रकारिता अमर होने की क्षमता रखती है . 

 अपने देश में भी आज़ादी की लड़ाई के दौरान  और  उसके बाद के वर्षों  में पत्रकारिता में संवाद की स्थिति शास्वत बनी रही . बहुत सी ऐसी  रिपोर्टें हैं जिन्होंने उसके बाद की राजनीति को बदल कर रख दिया . ऐसी ही एक रिपोर्ट असम के नेल्ली के नरसंहार की है .इंडियन एक्सप्रेस के एक रिपोर्टर शेखर गुप्ता और हेमेन्द्र नारायण की उस रिपोर्ट ने असम में घुसपैठियों के खिलाफ चल रहे असम के छात्रों के आन्दोलन को देश की  राजनीति के केंद्र में ला दिया था . कहते हैं कि असम समझौते के करीब दो साल पहले आई इस अखबारी रिपोर्ट ने पूर्वोत्तर भारत की राजनीति को एक नई दिशा दी थी. भागलपुर में लोगों को अंधा किये जाने वाली रिपोर्ट भी पत्रकारिता के एक मानदंड के रूप में देखी जाती है . महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री , अब्दुल रहमान अंतुले की इंदिरा प्रतिभा प्रतिष्ठान की रिपोर्ट , बिहार आन्दोलन की १९७४ की दिनमान में छपने वाली रिपोर्टेंहिन्दू अखबार में छपी बोफर्स की ख़बरें  सही और ऐतिहासिक ख़बरों की श्रेणी में आती हैं  . आज़ादी के बाद से अब तक ऐसी हजारों ख़बरें हैं जो डूबकर लिखी गयी हैं और रिपोर्टर और उसके विषय के बीच संवाद की स्थिति का नतीजा हैं .लेकिन इन दिनों अजीब स्थिति है . पत्रकारिता एकतरफा दिशा में बह रही है . चुनावों के दौरान देश में राजनीतिक गतिविधियाँ सबसे ज्यादा होती हैं लेकिन चौबीस  घंटे की टेलिविज़न खबरों के दौर में हालांकि समाचार तो हमेशा आते रहते हैं लेकिन अधिकतर समाचार एकतरफा होते हैं. ज़मीन की सच्चाई की खबर आमजन तक पंहुचती ही नहीं है . इसके कारणों पर गौर करना पडेगा. पहले के चुनावों में ज़मीन से रिपोर्टिंग खूब होती थी . हर क्षेत्र में अखबारों के संवाददाता होते थे . उनका आम आदमी से लगातार संवाद बना रहता था .  देश की राजधानी और राज्यों की राजधानियों में होने वाली सभी गतिविधियों पर मुकामी स्तर पर चर्चा होती थी और सच्ची ख़बरें अखबार तक पंहुचती थीं लेकिन अब वैसा नहीं है . अब टेलिविज़न चैनल के मुख्यालय से कुछ स्टार पत्रकार हर महत्वपूर्ण केंद्र पर जाते हैं  , वहां सेट लगाए जाते हैं . कुछ लोगों को श्रोता के रूप में बुला लिया जाता है . और दिल्ली से गए पत्रकार या एंकर अपना ज्ञान सुनाते हैं. जनता की आवाज़ के नाम पर आस पास की बाज़ारों आदि में  घूम घाम रहे कुछ  लोगों की बाईट रिकार्ड कर ली जाती है और उसी के आधार पर देश दुनिया की जानकारी परोस दी जाती है . यह उचित नहीं है और पत्रकारिता के नीतिशास्त्र के  हिसाब से अक्षम्य है .सामाजिक स्तर पर भी संवादहीनता आज की पत्रकारिता का स्थाई भाव होता जा रहा है .बंधुआ मजदूरी आदि के बारे में   जानकारी उस समय के पत्रकारों के कारण ही सामने आई थीं. महिलाओं का शोषणबच्चों की शोषण की ख़बरें भी आजकल चुन कर लिखी जा रही हैं . यह इसलिए है कि खबरों के काम में लगे  लोग संवादहीनता की स्थिति के शिकार हो चुके  हैं और एकतरफा मनमानी की शैली में ख़बरों का निर्माण कर रहे हैं . ख़बरों के निर्माण करने की इस आदत से  बचना होगा . इस देश की आज़ादी के साथ साथ बहुत सारे सामाजिक परिवर्तनों के पुरोधा महात्मा गांधी के जीवन को आदर्श मानने से बात बन  सकती है क्योंकि गांधी ने बार बार कहा था कि ." मेरा  जीवन ही मेरा सन्देश है ". महात्मा गांधी जीवन भर आम आदमी से संवाद की स्थिति में बने रहे .  शायद इसीलिये जब दिल्ली में देश आज़ाद हो रहा थाअंगेजों का यूनियन जैक उतर कर तिरंगा स्थापित हो रहा था तो महात्मा गांधी बंगाल के उन गाँवों में मौजूद थे जहां आजादी के बाद का खूनी इतिहास लिखा जा रहा था . उन लोगों से उन्होंने संवाद बनाए रखा था . और जब अंग्रेजों ने भारतीयों को सत्ता सौंप पर अपना रास्ता पकड़ा तो दिल्ली में अपने प्रार्थना प्रवचनों के माध्यम से गांधी जी  संवाद की स्थिति को  बनाए रखा .
 संवादहीनता आज की पत्रकारिता निश्चित रूप से मौजूद है .उसको समाप्त करके एकतरफा संवाद की बीमारी से बचना पड़ेगा . और हर स्तर पर संवाद का माहौल बनाना पड़ेगा . उसको समाप्त करके अगर शास्वत संवाद की स्थिति बनाने के लिए प्रयास किया जाए तो महात्मा गांधी के जन्म १५० वर्ष पूरे होने पर उनके प्रति पत्रकारिता जगत की सबसे महत्वपूर्ण श्रद्धांजलि होगी .