Thursday, December 27, 2018

सहमत : संस्कृति के क्षेत्र में जनपक्षधर हस्तक्षेप के तीस साल


शेष नारायण सिंह  

सफदर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट ( सहमत ) के तीस साल पूरे हो गए . इन तीस वर्षों में सहमत ने संस्कृति के मोर्चे पर फासिस्ट ताक़तों के खिलाफ एक बहुत बड़े वर्ग को मंच दिया है . इस साल भी १ जनवरी २०१९ को सहमत की तरफ से एक सांस्कृतिक उत्सव का आयोजन किया गया है . सहमत  एक सांस्कृतिक संगठन है और वामपंथी राजनीतिक सांस्कृतिक सोच के अलमबरदार के रूप में सहमत ने हमेशा ही देश की राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन को प्रभावित किया है . सहमत के  कर्ता धर्ता ,राजेन्द्र प्रसाद ने बताया कि जब देश की राजनीति में कुछ वर्गों ने बहुमतवाद की अधिनायकवादी रूढ़िवादी सोच को सांस्कृतिक आचरण का पैमाना बनाने का अभियान छेड़ रखा है और समाज और संस्कृति को एक साम्प्रदायिक व्याकरण में लपेटने की  कोशिश चल रही है,सहमत ने तय किया है कि इस बार ऐसा हस्तक्षेप  किया जाए जैसा  नब्बे के  दशक में अपने जन्म के समय से होता रहा है . सांस्कृतिक राष्ट्र्रवाद को देश की मुख्यधारा में  लाने की कोशिश कर रही राजनीतिक ताक़तों को लगाम देने के  इरादे से सहमत अपने तीस साल पूरे होने पर जनपक्षधर सांस्कृतिक अभियान चलाने  की योजना पर काम कर रहा है .  
तीस  साल पहले सफ़दर हाशमी को दिल्ली के पास एक औद्योगिक इलाके में मार डाला गया था .वे बाएं बाजू के संगठनजन नाट्य मंच के संयोजक थे ,मार्क्सवादी कमुनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता थे  और चौंतीस साल की उम्र में ही दिल्ली की सांस्कृतिक दुनिया के एक महत्वपूर्ण  हस्ताक्षर  थे . उनको मारने वाला एक मुकामी गुंडा था और किसी लोकल चुनाव में उम्मीदवार था. अपने गिरोह के साथ मिलकर उसने सफ़दर के साथियों पर हमला किया था .अपनी मौत के समय सफ़दर एक नाटक प्रस्तुत कर रहे थे . सफ़दर हाशमी ने इस हमले के कुछ साल पहले से राजनीतिक लामबंदी के लिए सांस्कृतिक आन्दोलन बनाने की कोशिश  करना शुरू किया था. कलासाहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में काम करने वाले बहुत सारे नामवर लोगों को एक मंच पर लाने की कोशिश कर रहे थे . सफ़दर की मौत के बाद  पूरे देश में ग़म और गुस्से की एक लहर देखी गयी थी . जो काम सफ़दर करना चाहते थे ,उसे पूरा करने में कई साल लगते लेकिन उनकी मौत के बाद वह स्वतः स्फूर्त तरीके से बहुत जल्दी हो गया. देश के हर हिस्से में संस्कृति के क्षेत्र में काम करने वाले लोग इकठ्ठा होते गए और सफ़दर की याद में बना संगठनसफ़दर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट ,'सहमतएक ऐसे मंच के रूप में विकसित हो गया जिसके झंडे के नीचे खड़े हो कर हिन्दू पुनरुत्थानवाद को संस्कृति का नाम दे कर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करने वाले आर एस एस के मातहत संगठनों को चुनौती देने के लिए सारे देश के प्रगतिशील संस्कृतिकर्मी लामबंद हो गए. जो मुहिम सफ़दर हाशमी की मौत के बाद शुरू हुई थी ,वह आज पूरी दुनिया में विस्तार  पा चुकी है. सहमत आज एक ऐसे माध्यम के रूप में स्थापित हो चुका है कि दक्षिणपंथी राजनीति और संस्कृति के संगठन उसकी परछाईं बचा कर भाग लेते हैं ..उसका कारण शायद यह है कि सहमत के गठन के पहले बहुमत के अधिनायकत्व की सोच की बुनियाद  पर चल रहे आर एस एस के अभियान से लोग ऊब चुके थे और जो भी सहमत ने कहा उसे दक्षिणपंथी दादागीरी से मुक्ति के रूप में अपनाने को उत्सुक थे . शयद यही वजह है कि हर रंग के लिबरल सोच वाले लोग १ जनवरी के सहमत के दिन भर चलने वाले कार्यक्रमों में देखे जाते हैं . सहमत के वार्षिक कार्यक्रमों में ही , ऐतिहासिक रूप से फासीवाद की पक्षधर रही शास्त्रीय संगीत की परम्परा को अवामी प्रतिरोध का हाथियार बनाया गया और उसे गंगा-जमुनी साझा विरासत की पहचान के रूप में पेश किया गया. जो अब तक जारी है या यूं भी कहा जा सकता है कि भारत की सांस्कृतिक विरासत के प्रति गर्व करना सहमत के आयोजनों का स्थाई भाव है .

इस साल के कार्यक्रमों में जलियांवाला बाग़  के सौ साल पूरे होने पर एक कैलेण्डर जारी किया जाएगा सफ़दर के साथी  कार्यक्रम प्रस्तुत करेंगेमहात्मा गांधी के जन्म के १५० साल  पूरे होने के उपलक्ष में कला प्रदर्शनी लगाई जायेगी . बड़े कलाकारों  के काम के एक सौ पोस्ट कार्ड जारी किये जायेंगे. अपनी स्थापना के समय से ही सहमत ने देश की सांस्कृतिक धरोहर को दिल्ली में १ जनवरी को स्थापित करने का काम नियमित  तरीके से किया है . कार्यक्रम सफ़दर हाशमी की याद में आयोजित किये जाते  हैं इन कार्यक्रमों में  देश का बड़े से बड़ा कलाकार समय समय पर शामिल हो  चुका है . यह काम पिछले तीस साल से लगातार जारी है . सफदर हाशमी पर जब हमला हुआ तो वे अपना एक नाटक प्रस्तुत कर रहे थे . हमले में जब वे बुरी तरह से घायल हो गए तो उनको दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में इलाज के लिए लाया गया ,जहां १ जनवरी १९८९ को उनकी मृत्यु हो गयी . उसी दिन उनके साथियों ने तय किया कि सफ़दर के मिशन को छोड़ा नहीं जाएगा वह जारी रहेगा . जिस जगह पर सफ़दर पर हमला हुआ था १ जनवरी १९८९ को उनके साथियों ने वहीं जाकर नाटक का मंचन किया ,दहशत फैलाने वाली जमातों को बिलकुल सामने से चुनौती दी और  इस तरह से सहमत की स्थापना की बुनियाद पडी. तब से अब तक हर साल सहमत के कार्यक्रम ऐतिहासिक रहे हैं . उसके  सारे आयोजन संस्कृति की दुनिया में बहुत ही सम्मान से देखे जाते रहे  हैं .  साम्प्रादायिक सद्भाव में लोकप्रिय हस्तक्षेप.  सूफी संगीतअनहद गरजै दांडी मार्चमहात्मा गांधी१८५७ का पहला स्वतंत्रता संग्राम ,हबीब तनवीरबलराज साहनी और मंटो फैज़भीषम साहनीजवाहरलाल नेहरू ,आज़ादी के सत्तर साल जैसे विषयों पर कार्यक्रम आयोजित करके  सहमत ने देश की सांस्कृतिक जमातोंन को लामबंद भी किया अहै और उनको एकजुट  होने का अवसर भी दिया है . आजकल सहमत के तत्वावधान में महात्मा गांधी के जन्म के १५० साल के अवसर पर  भाषणों की एक श्रृंखला चलाई जा रही है .

संस्कृति के क्षेत्र में वामपंथी विचारधारा का हमेशा से सक्रिय योगदान रहा है . अपने देश में वामपंथी राजनीतिक सोच के लोगों ने संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय होने के लिए पहली बार १९३६ में कोशिश की . प्रगतिशील लेखक संघ का गठन हुआ और उसके पहले अध्यक्ष ,हिन्दी और उर्दू के बड़े लेखक , प्रेमचंद को बनाया गया.इसी दौर में रंगकर्मी भी सक्रिय हुए और नाटक के क्षेत्र में वामपंथी सोच के बुद्धिजीवियों की भागीदारी शुरू हुई. इप्टा का गठन करके थियेटर के क्षेत्र में इन लोगों ने बहुत काम किया . लेकिन यह जागरूकता १९४७ में कमज़ोर पड़ गयी क्योंकि कांग्रेस के नेतृत्व में जो आज़ादी मिली थी उसकी वजह से आम आदमी की सोच प्रभावित हुई. वैसे भी राष्ट्रीय चेतना के निगहबान के रूप में कांग्रेस का उदय हो चुका था.. जनचेतना में एक मुकम्मल बदलाव आ चुका था लेकिन वामपंथी उसे समझ नहीं पाए और इसमें बिखराव हुआ.उधर गाँधी की हत्या में  आर एस एस के प्रमुख एम एस गोलवलकर को हिरासत में ले लिया  गया . हालांकि वे तफ्तीश के स्तर पर ही छोड़ दिए गए लेकिन अपने मुखिया का नाम हत्या के केस में आ जाने की वजह से आर एस एस वाले भी ढीले पड़ गए थे . १९६४ में विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना करके आ एस एस ने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और हिन्दू पुनरुत्थानवाद की राजनीति के स्पेस में काम करना शुरू कर दिया था  लेकिन उनके पास कोई अपनी बात को एक आन्दोलन बनाने के लिए कोई विषय नहीं था .किसी तरह खीच खांच कर काम चलता रहा . बात करीब बीस साल बाद बदली . १९८४ के चुनावों में बी जे पी की हार के बाद आर एस एस ने भगवान राम के नाम पर हिंदुत्व की राजनीति को सांस्कृतिक आन्दोलन का केंद्र बनाकर आगे करने का फैसला किया . भगवान् राम का हिन्दू समाज में बहुत सम्मान है,उनकी पूजा होती है .उसी के बल पर आर एस एस ने बी जे पी को राजनीति में सम्मानित मुकाम दिलाने की कोशिश शुरू कर दी. सफ़दर हाशमी और उनकी पार्टी को आर एस एस  की इस योजना  का शायद अंदाज़ लग गया था. लगभग उसी दौर में सफ़दर ने कलाकारों को लामबंद करने की कोशिश शुरू कर दी. सफ़दर की मौत ऐसे वक़्त पर हुई जब आर एस एस ने राम के नाम पर हिन्दू जनमानस के एक बड़े हिस्से को अपने साथ  कर रखा था .  सहमत के गठन के बाद संस्कृति के स्पेस में संघ को बाकायदा चुनौती दी जाने लगी . सहमत की उस दौर की करता धर्ता , सफदर की छोटी बहन शबनम हाशमी थीं . जिन्होंने अयोध्या के मोर्चे पर हीविश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को रोका  और उनकी बढ़त को रोकने में काफी हद तक सफलता पायी. बीजेपी की सरकार बन जाने के बाद अब आर एस एस के मातहत संगठनों ने संस्कृति के हर क्षेत्र में  भारी दखल देना शुरू कर दिया है . आज़ादी की लडाई के नायकों को दरकिनार करने की कोशिशें हो रही  हैं . जवाहरलाल नेहरू की विरासत को  बेकार बताने की कोशिश की जा रही है नेहरू का चरित्र हनन करने का अभियान भी चलाया जा  रहा है . सरदार पटेल और महात्मा गांधी को आज के शासक वर्ग इस तरह से प्रस्तुत कर रहे हैं  जैसे वे आर एस एस के ही सदस्य रहे हों.इन हालात में सहमत की ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है . सहमत के  ट्रस्टी ,राजेन्द्र प्रसाद से बात  करके ऐसा लगा कि वे आज देश और समाज के सामने मौजूद चुनौतियों से विधिवत वाकिफ हैं और उस दिशा में  कम चल रहा है . सहमत के तीस साल के आयोजनो में इस बात को देखने की कोशिश की जायेगी . 

कश्मीरनामा' इतिहास भी है और साहित्य भी - एक मुकम्मल किताब



शेष नारायण सिंह

हिंदी  में कश्मीर के बारे में एक मुकम्मल किताब . जब वर्धा के अशोक मिश्र ने नामी कवि और लेखक ,अशोक कुमार पाण्डेय की किताब 'कश्मीरनामा ' को पढ़कर कुछ लिखने के लिए कहा तो बहुत उत्साहित नहीं था. 'कश्मीरनामा' बहुत पहले से चर्चा में थी लेकिन मैं  पढ़ नहीं पाया था .अशोक मिश्र के आग्रह को मना कर पाना असंभव था. और जब पढ़ना शुरू किया तो पढता ही गया . कश्मीर के मामले में एक सामान्य व्यक्ति को जो कुछ भी जानना चाहिए सब एक ही किताब में लिख दिया गया  है . हिंदी में बहुत अच्छे गद्य की जो कुछ किताबें उपलब्ध हैं , अशोक कुमार पाण्डेय की कश्मीरनामा उसमें सरे-फेहरिस्त मानी जायेगी . मेरे लिए इस किताब का पढ़ना उस यात्रा से गुज़र जाना भी है जब आज से करीब ३५ साल पहले मैंने, स्व बलराज पुरी के साथ दक्षिण दिल्ली के गुलमोहर पार्क में शुरू की थी . वे जब भी दिल्ली आते थे ,उनकी ज़बानी कश्मीर के समकालीन इतिहास की बहुत सारी घटनाओं को ध्यानमग्न होकर मैंने सुना था. बलराज पुरी कश्मीरी मामलों के आला मेयार के जानकार थे . शेख अब्दुल्ला के साथ काम किया था और बहुत सारी घटनाओं को उन्होंने देखा तो था ही , कुछ में बाकायदा शामिल भी हुए थे. वे  पंजाबी के साहित्यकार प्यारा सिंह सहराई के दोस्त थे और हम  सहराई जी के भांजे क्योंकि मेरी पत्नी को सहराई जी अपनी भांजी मानते हैं . अशोक कुमार पाण्डेय की किताब  को पढने के बाद मैं इसको एक बेहतरीन किताब  मानता हूँ . यह एक लोकप्रिय किताब है और साल भर बीतने के पहले ही इसका दूसरा संस्करण आ चुका है . हमारे समकालीन  जनबुद्धिजीवी( Public Intellectual) पुरुषोत्तम अग्रवाल ने किताब के आमुख में बहुत अच्छी बातें लिखीं  हैं . शुरू में लगा कि उन्होंने कुछ ज़्यादा तारीफ़ लिख दिया है लेकिन अब मैं मुतमइन हूँ कि अपनी प्रकृति के हिसाब से ही पुरुषोत्तम ने लिखा है . कश्मीर की संस्कृति ,इतिहास ,समाज आदि के बारे में उपलब्ध सामग्री को अशोक कुमार पाण्डेय की पारखी नज़र ने  इतिहास की किताब को साहित्य की किताब भी बना दिया है. पूरी किताब में इतिहास की कसौटी पर परखी गयी सच्चाइयों को वे एक दास्तानगो की तरह बयान करते  जाते हैं  और आप कठोर से कठोर सत्य  आत्मसात करते रहते हैं. हिंदी  साहित्य की बारीकियों की समझ मुझे बिलकुल नहीं है लेकिन एक आम पाठक के रूप में मैंने इस किताब को बहुत पसंद किया  . अशोक कुमार पाण्डेय की शैली के अनुभव के लिए किताब के कुछ अंश देखना उपयोगी होगा .शेख अब्दुल्ला की राजनीति की शुरुआत को जिस तरह से चित्रित किया  गया  है वह  लाजवाब है . १९३१ के जनविद्रोह के बारे में 'कश्मीरनामा' के पृष्ठ २३५ में लिखा है .,". 29 अप्रैल, 1931 को जम्मू में वह घटना हुई जिसने बारूद में तीली लगाने का काम किया. ईद के समारोह के दौरान जब इमाम ख़ुतबा पढ़ने लगे तो खेम चंद नामक एक पुलिस अधिकारी ने उन्हें ऐसा करने से रोकाजबकि ख़ुतबा परम्परा से हमेशा इस मौक़े पर पढ़ा जाता था. मुसलमानों ने इसे अपने धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप क़रार दिया और विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए. अभी इस मुद्दे की आग बुझी भी नहीं थी कि जुलाई में जम्मू की पुलिस लाइन में एक और घटना घटी. प्रेमनाथ बज़ाज़ बताते हैं कि एक हिन्दू हेड कॉन्स्टेबल लाभो राम ने अपने अधीनस्थ एक मुस्लिम कॉन्स्टेबल के समय से काम पर न आने के कारण उसका बिस्तर उठा कर फेंका जिसमें उसके बिस्तर में रखा पंजसुरा (क़ुरान का एक हिस्सा) भी फिंक गया. लेकिन ख़ुतबा वाली घटना पर सभी लेखक जहाँ एकराय हैं वहीं इस घटना को लेकर उनमें पर्याप्त मतभेद है. हसनैन ने बिस्तर फेंकने की घटना का ज़िक्र न करते हुए मुस्लिम कांस्टेबल के नमाज़ पढ़ते समय हिन्दू हेड कॉन्स्टेबल द्वारा क़ुरान (पंजसुरा नहीं) फेंके जाने की बात कही है. एम जे अकबर ने लाहौर के आल-कश्मीर मुस्लिम कांफ्रेंस के सालाना जलसे से लौटते युवाओं के आन्दोलन के दौरान एक कांस्टेबल के क़ुरान फेंकने की बात कही है. शेख़ अब्दुल्ला ने अपनी जीवनी में लिखा है कि लाभो राम ने अपने एक साथी के झोले से क़ुरान निकाल कर फाड़ दी. मृदु राय पुलिस विभाग की तत्कालीन पाक्षिक रिपोर्ट के हवाले से बताती हैं कि उस समय अफ़वाह थी कि एक हिन्दू पुलिस हेड कांस्टेबल ने अपने अधीनस्थ कांस्टेबल को नमाज़ पढ़ने से रोका और फिर क़ुरान का अपमान किया गयापाया गया कि घटना को बहुत बढ़ा चढ़ा के बयान किया गया है. 

ऐसा लगता है कि वे अफवाहें कभी नहीं थमीं. प्रेस और छापेखाने पर पूरी तरह से पाबंदी के कारण लोगों ने जो जाना वह अफ़वाहों या फिर पंजाब से छपने वाले हिन्दू/मुस्लिम अख़बारों से ही जाना. यह वह जगह है जहाँ से एजेंडा सेट होने शुरू होते हैं अपने-अपने एजेंडे के अनुसार इस तरह के मतभेदघटनाओं की चयनित प्रस्तुति और अप्रस्तुति बहुत सामान्य होती चली जाती है. यह वह जगह से जहाँ से कश्मीर का आधुनिक इतिहास शुरू होता हैजहाँ से घटनाएँ बिजली की गति से आकार लेना शुरू करती हैं और उस हाथी की तरह होती जाती हैं जिसके अलग-अलग हिस्सों को छू-छू कर लोग उसके आकार का अनुमान लगाते हैं- फ़र्क बस इतना है कि यहाँ देखने वाले अंधे नहीं हैंउन्होंने आँखें मूँदना और खोलना चुना है. इसीलिए इन्हें पढ़ते हुए पाठकों को और अधिक सावधान होने की ज़रूरत है.  
यह शायद कोई कभी नहीं जान पायेगा कि उस पुलिस लाइन में उस दिन हुआ क्या थालेकिन उसकी जिस तरह की प्रक्रिया हुई उसे देखने-समझने के पहले एक और तथ्य को जान लेना आवश्यक है. गोलमेज़ सम्मेलन के दौरान हरि सिंह के भाषणों ने ब्रिटिश शासन को काफी चौंकाया था. उन्होंने ख़ुद को पहले भारतीय ही नहीं बताया था बल्कि कुछ ऐसी बातें कही थीं जो ब्रिटिश शासन के लिए सहनीय नहीं थीं. यही नहीं अपने शासकीय व्यवहार में वह प्रताप सिंह से उलट ब्रिटिश रेजीडेंसी को वह महत्त्व नहीं देते थे. ज़ाहिर है अंग्रेज़ ऐसे व्यवहार से नाख़ुश थे. इधर सविनय अवज्ञा आन्दोलन से बाहर रहे साम्प्रदायिक मुस्लिम संगठन उन्हें कांग्रेस के ख़िलाफ़ अपने तत्कालीन सहयोगी के रूप में मिले थे. प्रेमनाथ बज़ाज़ सहित कई लेखकों का मानना है कि अपनी इसी नीति के तहत अंग्रेज़ों ने न केवल इस आन्दोलन को नियंत्रित करने में समुचित सहयोग नहीं दिया बल्कि जम्मू-कश्मीर में साम्प्रदायिकता को बढ़ावा भी दिया. यह भी सच है कि देश के अनेक हिस्सों और ख़ासतौर पर पंजाब से विभिन्न संगठनों और अखबारों ने इस आन्दोलन को भड़काने में अहम भूमिका निभाई. यह कहना बलराज मधोक या फिर उनके वैचारिक सहयोगियों के लिए बेहद सुविधाजनक भी है. लेकिन क्या यह उन अत्याचारों और साम्प्रदायिक नीतियों की उपस्थिति में संभव था जिसकी वज़ह से कश्मीरी मुसलमान ख़ुद को लगातार उपेक्षितपीड़ित और हिन्दू आबादी के सम्मुख भेदभाव से ग्रसित व्यवहार का शिकार महसूस कर रहे थेअगर कश्यप बन्धु जैसे पंडित अपनी बिरादरी को सत्ता के समरूप कह रहे थे तो उस सत्ता के ख़िलाफ़ खड़े कश्मीरी मुसलमान उन्हें अपना साथी कैसे मान सकते थेआज जब हम कश्मीर में पाकिस्तान के हस्तक्षेप की बात करते हैंवहाँ साम्प्रदायिकता के बढ़ने की बात करते हैं और बलराज मधोक के वैचारिक उत्तराधिकारी इसके लिए कश्मीरियों को ही दोषी ठहराते हुए कड़ी कार्यवाहियों की वक़ालत करते हैं तो इस घटना का ऐतिहासिक महत्त्व और बढ़ जाता है और यह एहसास भी कि इतिहास का सबसे बड़ा सबक यही है कि हम उससे कोई सबक नहीं सीखते.

इसके पहले कश्मीर के बारे में सारी ज़रूरी जानकारी है .वे सभी दस्तावेज़ भी किताब में संलगन हैं जिनको कश्मीर का समकालीन इतिहास समझने के लिए ज़रूरी माना जाता  है . १६ मार्च १८४६ की अमृतसर संधि ,स्टैंडस्टिल समझौता,  ताशकेंत समझौता, शिमला समझौता सब कुछ एक जगह पर इकट्ठा कर दिया  गया है . इतिहास में शेख अब्दुल्ला की  सही भूमिका को बहुत ही वस्तुवादी तरीके से रिकार्ड किया गया है . कश्मीर  के समकालीन इतिहास के बारे में  बहुत सारी भ्रांतियां हैं और यह किताब उनको साफ़ करने में अहम भूमिका निभाती है .अक्टूबर १९४७ में जब जम्मू-कश्मीर के राजा ने भारत में अपने राज्य के विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत किया था तो पूरा राज्य शेख अब्दुल्ला के साथ था . विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत सरदार पटेल की राजनीतिक ताकत के कारण ही हुआ लेकिन वे बहुत उत्साहित  नहीं थे. वे हरी सिंह के पाकिस्तानियों के साथ हुए स्टैंडस्टिल समझौते से बहुत नाराज़ थे .हालांकि यह भी सच है कि उस दौर में  जम्मू-कश्मीर का हर नागरिक भारत के साथ विलय का पक्षधर था . महात्मा गाँधी ,जवाहरलाल नेहरू सरदार पटेल और शेख अब्दुल्ला ने ही जोर दिया था कि राज्य की जनता की राय लेना ज़रूरी है लेकिन जिस पाकिस्तान  जनता की राय लेने के खिलाफ था . पाकिस्तान ने हर मोर्चे पर कश्मीरी अवाम की बात को न मानने का खेल रचा था . बाद में पाकिस्तान ने जनमत संग्रह का समर्थन करना शुरू कर दिया . अब पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर में अपने एजेंट छोड़ रखे हैं जिन्होंने वहां पर माहौल को बिलकुल बिगाड़ रखा है .बहुत बड़े पैमाने पर पाकिस्तानी घुसपैठ हुई है . इसलिए पाकिस्तानी सेना की मर्जी से वहां जनमत संग्रह कराने की बात को कोई नहीं स्वीकार कर सकता . 

देश के बँटवारे के वक़्त अंग्रेजों ने देशी रियासतों को भारत या पाकिस्तान के साथ मिलने की आज़ादी दी थी. बहुत ही पेचीदा मामला था . ज़्यादातर देशी राजा तो भारत के साथ मिल गए लेकिन जूनागढ़हैदराबाद और जम्मू-कश्मीर का मामला विवादों के घेरे में बना रहा . कश्मीर में ज़्यादातर लोग तो आज़ादी के पक्ष में थे . कुछ लोग चाहते थे कि पाकिस्तान के साथ मिल जाएँ लेकिन अपनी स्वायत्तता को सुरक्षित रखें. इस बीच महाराजा हरि सिंह के प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान की सरकार के सामने एक स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट का प्रस्ताव रखा जिसके तहत लाहौर सर्किल के केंद्रीय विभाग पाकिस्तान सरकार के अधीन काम करेगें . १५ अगस्त को पाकिस्तान की सरकार ने जम्मू-कश्मीर के महाराजा के स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जिसके बाद पूरे राज्य के डाकखानों पर पाकिस्तानी झंडे फहराने लगे . भारत सरकार को इस से चिंता हुई और जवाहर लाल नेहरू ने अपनी चिंता का इज़हार इन शब्दों में किया."पाकिस्तान की रणनीति यह है कि अभी ज्यादा से ज्यादा घुसपैठ कर ली जाए और जब जाड़ों में कश्मीर अलग थलग पड़ जाए तो कोई बड़ी कार्रवाई की ." नेहरू ने सरदार पटेल को एक पत्र भी लिखा कि ऐसे हालात बन रहे हैं कि महाराजा के सामने और कोई विकल्प नहीं बचेगा और वह नेशनल कान्फरेन्स और शेख अब्दुल्ला से मदद मागेगा और भारत के साथ विलय कर लेगा.अगर ऐसा हो गया गया तो पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर किसी तरह का हमला करना इसलिए मुश्किल हो जाएगा कि उसे सीधे भारत से मुकाबला करना पडेगा.अगर राजा ने इस सलाह को मान लिया होता तो कश्मीर समस्या का जन्म ही न होता..इस बीच जम्मू में साम्प्रदायिक दंगें भड़क उठे थे . बात अक्टूबर तक बहुत बिगड़ गयी और महात्मा गाँधी ने इस हालत के लिए महाराजा को व्यक्तिगत तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया पाकिस्तान ने महाराजा पर दबाव बढाने के लिए लाहौर से आने वाली कपडे,पेट्रोल और राशन की सप्प्लाई रोक दी. संचार व्यवस्था पाकिस्तान के पास स्टैंडस्टिल एग्रीमेंट के बाद आ ही गयी थी. उसमें भी भारी अड़चन डाली गयी.. हालात तेज़ी से बिगड़ रहे थे और लगने लगा था कि अक्टूबर १९४६ में की गयी महात्मा गाँधी की भविष्यवाणी सच हो जायेगी. महात्मा ने कहा था कि अगर राजा अपनी ढुलमुल नीति से बाज़ नहीं आते तो कश्मीर का एक यूनिट के रूप में बचे रहना संदिग्ध हो जाएगा. 

ऐसी हालत में राजा ने पाकिस्तान से रिश्ते सुधारने की कोशिश शुरू कर दी. . नतीजा यह हुआ कि उनके प्रधान मंत्री मेहर चंद महाजन को कराची बुलाया गया. जहां जाकर उन्होंने अपने ख्याली पुलाव पकाए. महाजन ने कहा कि उनकी इच्छा है कि कश्मीर पूरब का स्विटज़रलैंड बन जाए स्वतंत्र देश हो और भारत और पाकिस्तान दोनों से ही बहुत ही दोस्ताना सम्बन्ध रहे. लेकिन पाकिस्तान को कल्पना की इस उड़ान में कोई दिलचस्पी नहीं थी. उसने कहा कि पाकिस्तान में विलय के कागजात पर दस्तखत करो फिर देखा जाएगा . इधर २१ अक्टूबर  १९४७ के दिन राजा ने अगली चाल चल दी. उन्होंने रिटायर्ड जज बख्शी टेक चंद को नियुक्त कर दिया कि वे कश्मीर का नया संविधान बनाने का काम शुरू कर दें.पाकिस्तान को यह स्वतंत्र देश बनाए रखने का महाराजा का आइडिया पसंद नहीं आया और पाकिस्तान सरकार ने कबायली हमले की शुरुआत कर दी. राजा मुगालते में था और पाकिस्तान की फौज़ कबायलियों को आगे करके श्रीनगर की तरफ बढ़ रही थी. लेकिन बात चीत का सिलसिला भी जारी था . पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के संयुक्त सचिव मेजर ए एस बी शाह श्रीनगर में थे और राजा के अधिकारियों से मिल जुल रहे थे. जिनाह की उस बात को सच करने की तैयारी थी कि जब उन्होंने दावा किया था कि , " कश्मीर मेरी जेब में है."

कश्मीर को उस अक्टूबर में गुलाम होने से बचाया इस लिए जा सका कि घाटी के नेताओं ने फ़ौरन रियासत के विलय के बारे में फैसला ले लिया. कश्मीरी नेताओं के एक राय से लिए गए फैसले के पीछे कुछ बात है जो कश्मीर को एक ख़ास इलाका बनाती है जो बाकी राज्यों से भिन्न है. कश्मीर के यह खासियत जिसे कश्मीरियत भी कहा जाता है पिछले पांच हज़ार वर्षों की सांस्कृतिक प्रगति का नतीजा है. कश्मीर हमेशा से ही बहुत सारी संस्कृतियों का मिलन स्थल रहा है . इसीलिये कश्मीरियत में महात्मा बुद्ध की शख्सियत वेदान्त की शिक्षा और इस्लाम का सूफी मत समाहित है. बाकी दुनिया से जो भी आता रहा वह इसी कश्मीरियत में शामिल होता रहा .. कश्मीर मामलों के बड़े इतिहासकार मुहम्मद दीन फौक का कहना है कि अरबइरान,अफगानिस्तान और तुर्किस्तान से जो लोग छ सात सौ साल पहले आये थे वे सब कश्मीरी मुस्लिम बन चुके हैं .उन की एक ही पहचान है और वह है कश्मीरी . इसी तरह से कश्मीरी भाषा भी बिलकुल अलग है . और कश्मीरी अवाम किसी भी बाहरी शासन को बर्दाश्त नहीं करता. 

कश्मीर को मुग़ल सम्राट अकबर ने १५८६ में अपने राज्य में मिला लिया था . उसी दिन से कश्मीरी अपने को गुलाम मानता था. और जब ३६१ साल बाद कश्मीर का भारत में अक्टूबर १९४७ में विलय हुआ तो मुसलमान और हिन्दू कश्मीरियों ने अपने आपको आज़ाद माना. इस बीच मुसलमानोंसिखों और हिन्दू राजाओं का कश्मीर में शासन रहा लेकिन कश्मीरी उन सबको विदेशी शासक मानता रहा.अंतिम हिन्दू राजाहरी सिंह के खिलाफ आज़ादी की जो लड़ाई शुरू हुयी उसके नेताशेख अब्दुल्ला थे. . शेख ने आज़ादी के पहले कश्मीर छोडो का नारा दिया था .इस आन्दोलन को जिनाह ने गुंडों का आन्दोलन कहा था क्योंकि वे राजा के बड़े खैरख्वाह थे जबकि जवाहर लाल नेहरू कश्मीर छोडो आन्दोलन में शामिल हुए और शेख अब्दुल्ला के कंधे से कंधे मिला कर खड़े हुए . इसलिए कश्मीर में हिन्दू या मुस्लिम का सवाल कभी नहीं था .वहां तो गैर कश्मीरी और कश्मीरी शासक का सवाल था और उस दौर में शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के इकलौते नेता थे. लेकिन राजा भी कम जिद्दी नहीं थे . उन्होंने शेख अब्दुल्ला के ऊपर राजद्रोह का मुक़दमा चलाया . और शेख के वकील थे इलाहाबाद के बैरिस्टर जवाहर लाल नेहरू .. १ अगस्त १९४७ को महात्मा गांधी कश्मीर गए और उन्होंने घोषणा कर दी कि जिस अमृतसर समझौते को आधार बनाकर हरि सिंह कश्मीर पर राज कर रहे हैं वह वास्तव में एक बैनामा है . और अंग्रेजों के चले जाने के बाद उस गैरकानूनी बैनामे का कोई महत्व नहीं है . गाँधी जी ने एक और बात कहीं जो सबको बहुत अच्छी लगी. उन्होंने कहा कि सता का असली हक़दार कश्मीरी अवाम हैं जबकि जिन्नाह कहते रहते थे कि देशी राजाओं की सत्ता को उनसे छीना नहीं जा सकता .राजा के खिलाफ संघर्ष कर रहे कश्मीरी अवाम को यह बात बहुत अच्छी लगी. जबकि राजा सब कुछ लुट जाने के बाद भी अपने आप को सर्वोच्च्च मानते रहे. इसीलिये देशद्रोह के मुक़दमे में फंसाए गए शेख अब्दुल्ला को रिहा करने में देरी हुई क्योंकि राजा उनसे लिखवा लेना चाहता था कि वे आगे से उसके प्रति वफादार रहेगें. शेख अब्दुल्ला ऐसा कुछ भी लिखकर देने को तैयार नहीं थे . शेख कश्मीरी अवाम के हीरो थे . कश्मीरी अवाम के हित के लिए उन्होंने भारत और पाकिस्तान से बातचीत का सिलसिला जारी रखा अपने दो साथियोंबख्शी गुलाम मुहम्मद और गुलाम मुहम्मद सादिक को तो कराची भेज दिया और खुद दिल्ली चले गए . वहां वे जवाहरलाल नेहरू के घर पर ठहरे . कराची गए शेख के नुमाइंदों से न तो जिन्ना मिले और न ही कश्मीरी प्रधानमंत्री लियाक़त अली ने उनको समय दिया . शेख ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि कश्मीरी अवाम के नेता वहां दूसरे दर्जे के पाकिस्तानी नेताओं से बात कर रहे थे और इधर कश्मीर में पाकिस्तानी सेना के साथ बढ़ रहे कबायली कश्मीर की ज़मीन और कश्मीरी अधिकारों को अपने बूटों तले रौंद रहे थे. तेज़ी से बढ़ रहे कबायलियों को रोकना डोगरा सेना के ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह के बस की बात नहीं थी. . पाकिस्तान के इस हमले के कारण कश्मीरी अवाम पाकिस्तान के खिलाफ हो गया . क्योंकि महत्मा गांधी और नेहरू तो जनता की सत्ता की बात करते हैं जबकि पाकिस्तान उनकी आज़ादी पर ही हमला कर रहा था. इस के बाद कश्मीर के राजा के पास भारत से मदद माँगने के अलावा कोई रास्ता नहीं था.. महाराजा के प्रधान मंत्रीमेहर चंद महाजन २६ अक्टूबर को दिल्ली भागे. उन्होंने नेहरू से कहा कि महाराजा भारत के साथ विलय करना चाहते हैं . लेकिन एक शर्त भी थी. वह यह कि भारत की सेना आज ही कश्मीर पंहुच जाए और पाकिस्तानी हमले से उनकी रक्षा करे वरना वे पाकिस्तान से बात चीत शुरू कर देगें. नेहरू आग बबूला हो गए और महाजन से कहा '" गेट आउट " बगल के कमरे में शेख अब्दुल्ला आराम कर रहे थे. बाहर आये और नेहरू का गुस्सा शांत कराया . . इसके बाद महाराजा ने विलय के कागज़ात पर दस्तखत किया और उसे २७ अक्टूबर को भारत सरकार ने मंज़ूर कर लिया. भारत की फौज़ को तुरंत रवाना किया गया और कश्मीर से पाकिस्तानी शह पर आये कबायलियों को हटा दिया गया .कश्मीरी अवाम ने कहा कि भारत हमारी आज़ादी की रक्षा के लिए आया है जबकि पाकिस्तान ने फौजी हमला करके हमारी आजादी को रौंदने की कोशिश की थी. उस दौर में आज़ादी का मतलब भारत से दोस्ती हुआ करती थी लेकिन अब वह बात नहीं है. 

कश्मीर का मसला बाद में संयुक्त राष्ट्र में ले जाया गया और उसके बाद बहुत सारे ऐसे काम हुए कि अक्टूबर १९४७ वाली बात नहीं रही. संयुक्त राष्ट्र में एक प्रस्ताव पास हुआ कि कश्मीरी जनता से पूछ कर तय किया जाय कि वे किधर जाना चाहते हैं . भारत ने इस प्रस्ताव का खुले दिल से समर्थन किया लेकिन पाकिस्तान वाले भागते रहे शेख अब्दुल्ला कश्मीरियों के हीरो थे और वे जिधर चाहते उधर ही कश्मीर जाता . लेकिन १९५३ के बाद यह हालात भी बदल गए. . बाद में पाकिस्तान जनमत संग्रह के पक्ष में हो गया और भारत उस से पीछा छुडाने लगा . इन हालात के पैदा होने में बहुत सारे कारण हैं.बात यहाँ तक बिगड़ गयी कि शेख अब्दुल्ला की सरकार बर्खास्त की गयीऔर शेख अब्दुल्ला को ९ अगस्त १९५३ के दिन गिरफ्तार कर लिया गया.उसके बाद तो फिर वह बात कभी नहीं रही. बीच में राजा के वफादार नेताओं की टोली जिसे प्रजा परिषद् के नाम से जाना जाता थाने हालात को बहुत बिगाड़ा . अपने अंतिम दिनों में जवाहर लाल ने शेख अब्दुल्ला से बात करके स्थिति को दुरुस्त करने की कोशिश फिर से शुरू कर दिया था. ६ अप्रैल १९६४ को शेख अब्दुल्ला को जम्मू जेल से रिहा किया गया और नेहरू से उनकी मुलाक़ात हुई. शेख अब्दुल्ला ने एक बयान दिया जिसे लिखा कश्मीरी मामलों के जानकार बलराज पुरी ने था . शेख ने कहा कि उनके नेतृत्व में ही जम्मू कश्मीर का विलय भारत में हुआ था . वे हर उस बात को अपनी बात मानते हैं जो उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के पहले ८ अगस्त १९५३ तक कहा था. नेहरू भी पाकिस्तान से बात करना चाहते थे और किसी तरह से समस्या को हल करना चाहते थे.. नेहरू ने इसी सिलसिले में शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान जाकर संभावना तलाशने का काम सौंपा.. शेख गए . और २७ मई १९६४ के ,दिन जब पाक अधिकृत कश्मीर के मुज़फ्फराबाद में उनके लिए दोपहर के भोजन के लिए की गयी . लंच में उनके पुराने दोस्त मौजूद थेजवाहरलाल नेहरू की मौत की खबर आई. बताते हैं कि खबर सुन कर शेख अब्दुल्ला फूट फूट कर रोये थे. नेहरू के मरने के बाद तो हालात बहुत तेज़ी से बिगड़ने लगे . कश्मीर के मामलों में नेहरू के बाद के नेताओं ने कानूनी हस्तक्षेप की तैयारी शुरू कर दी,..वहां संविधान की धारा ३५६ और ३५७ लागू कर दी गयी. इसके बाद शेख अब्दुल्ला को एक बार फिर गिरफ्तार कर लिया गया. इस बीच पाकिस्तान ने एक बार फिर कश्मीर पर हमला करके उसे कब्जाने की कोशिश की लेकिन पाकिस्तानी फौज ने मुंह की खाई और ताशकेंत में जाकर रूसी दखल से सुलह हुई. 

कश्मीर के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है. उसमें से जो भरोसे लायक है , 'कश्मीरनामा ' में उसका हवाला लिया  गया है . मूल स्रोतों का भी वैज्ञानिक तरीके से इस्तेमाल किया गया है . संस्कृत पर फारसी में भी कश्मीर के इतिहास के बारे में बहुत सारी मूल सामग्री है जिसका अशोक पाण्डेय ने  सम्यक इस्तेमाल किया  है .

 

सुप्रीम कोर्ट में राफेल पर गलतबयानी के आरोप में सरकार फंसी ,कहीं यह सेल्फगोल तो नहीं



शेष नारायण सिंह
 राफेल लड़ाकू विमानों का सौदा अब एक बड़े विवाद का रूप ले चुका है . १४ दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आने के बाद बीजेपी ने दावा किया था कि मोदी सरकार को सुप्रीम कोर्ट ने क्लीन चिट दे दिया है . लेकिन अब पता चल रहा है कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बंद लिफाफे में जो जानकारी दी थी ,उसें कुछ गड़बडी थी. सुप्रीम कोर्ट का फैसला उसी जानकारी के आधार पर आया था . सुप्रीम कोर्ट ने सरकार कि बात पर विश्वास करके  अपने आर्डर में लिख दिया था कि सरकार ने सी ए जी से राफेल की कीमत संबंधी जानकारी शेयर किया है ,  सी ए जी की रिपोर्ट की जांच संसद की लोकलेखा समिति ( पी ए सी ) ने कर लिया है. अब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक चिट्ठी लिखकर कहा है कि फैसले में कुछ गलतियां आ गयी हैं . दावा किया गया है कि सरकार ने यह नहीं कहा  था कि सी ए जी की रिपोर्ट की जांच पी ए सी द्वारा कर ली गयी है . सरकार ने तो बस यह कहा था कि जब  सी ए जी की रिपोर्ट तैयार  होती है तो पी ए सी उसकी जांच करती है . सरकारी दावा यह है कि उसने तो सुप्रीम कोर्ट को प्रक्रिया की जानकारी दी थी ,यह  नहीं कहा था कि ऐसा हो चुका है. उसकी मंशा केवल कोर्ट को यह बताने की थी कि ऐसा होता है .
सरकार की इस सफाई के बाद मामला बहुत बिगड़ गया है . कांग्रेस ने आरोप लगा दिया है कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के सामने गलत जानकारी दी और माननीय सुप्रीम कोर्ट को अँधेरे में रखकर गलत तथ्यों के आधार पर फैसला होने की स्थिति पैदा की . कांग्रेस का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले और तथाकथित क्लीन चिट की बुनियाद ही  यही है कि सी ए जी और पी ए सी ने  मामले को देख लिया है और वे संतुष्ट  हैं . अब फैसला आ जाने के बाद सरकार की तरफ से सुप्रीम कोर्ट को व्याकरण का पाठ पढ़ाना माननीय सुप्रीम कोर्ट का अपमान है . कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु  सिंघवी ने कहा कि यह कोर्ट की अवमानना , पर्जरी और कोर्ट को गुमराह करने का केस है और इस पर सुप्रीम कोर्ट को नोटिस लेना चाहिए और सरकार को दण्डित करना चाहिए .
अब सुप्रीम कोर्ट के फैसला सरकार और बीजेपी के लिए बड़ी मुसीबत बन गया है . सरकार की चिट्ठी ने साफ़ कर दिया है कि  सी ए जी और पी ए सी के हवाले से कही गयी  बातों पर सुप्रीम कोर्ट फिर से विचार करेगा और क्लीन चिट वाली बात हवा हो जायेगी .सत्ताधारी पार्टी का उत्साह भी अब कुछ कम होगा . १४ दिसम्बर को फैसला आने के बाद बीजेपी पूरी तरह से विजयी मुद्रा में थी . बीजेपी अध्यक्ष  अमित शाह ने एक विशेष प्रेस कान्फरेंस की और कांग्रेस अध्यक्ष  राहुल गांधी पर ज़बरदस्त हमला बोला. उन्होंने आरोप लगाया कि राहुल गांधी झूठ बोल रहे हैं और उनको प्रधानमंत्री  से माफी मांगनी चाहिए क्योंकि उन्होंने चुनाव अभियान के दौरान प्रधानमंत्री को राफेल सौदे के हवाले से बार बार चोर कहा था. संसद में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने भी कांग्रेस अध्यक्ष से माफी की मांग की और कहा कि  जब सुप्रीम कोर्ट ने  राफेल सौदे पर क्लीन चिट दे दी है  तो कांग्रेस अध्यक्ष को प्रधानमंत्री और देश से माफी मांगना चाहिए . राहुल गांधी अपनी बात पर अड़े हुए हैं . उनका कहना है कि राफेल में भ्रष्टाचार हुआ है .  उन्होंने फैसला आने के बाद बाकायदा प्रेस कान्फरेन्स की और कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने किसी को कोई क्लीन चिट नहीं दी है . भ्रष्टाचार के जो मुद्दे हैं वे ज्यों के त्यों हैं. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद यह ज़रूरी हो गया है कि संयुक्त संसदीय  समिति ( जे पी सी ) से सारे मामले की जांच करा ली जाए और दूध का दूध ,पानी का पानी हो जाए.अब सरकार की तरफ से यह स्वीकार कर लेने के बाद कि सी ए जी की कोई रिपोर्ट नहीं आई है और पी ए सी ने उसपर कोई राय नहीं दी है , राहुल गांधी की दावे को मजबूती मिल गयी है .
सुप्रीम कोर्ट के फैसले में सी ए जी और पी ए सी का ज़िक्र आया है . सी ए जी भारत के संविधान के अनुच्छेद १४८ के तहत स्थापित की गयी एक संवैधानिक संस्था है . भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक ( सी ए जी ) का काम है कि वह केंद्र और राज्य सरकारों और उनकी संस्थाओं के  राजस्व यानी जमा खर्च की जांच करती है . सरकारी धन का अगर कहीं दुरूपयोग हुआ है तो सी ए जी की तरफ से उसको पकड़कर उसकी रिपोर्ट सरकार को देनी होती है . सरकार की  पाबंदी यह  है कि वह सी ए जी की र्रिपोर्ट को संसद को देती है और संसद की पी ए सी उस पर बहस करके उसको लोकसभा में  प्रस्तुत करती है . जब तक सी ए जी की रिपोर्ट संसद में पेश नहीं होती तब तक उसका कोई महत्व नहीं है और वह  पब्लिक दस्तावेज़ के रूप में इस्तेमाल नहीं की जा सकती . पी ए सी संसद की एक बहुत ही ताकतवर समितिलोकलेखा समिति का सूक्ष्म नाम है और उसका प्रमुख विपक्ष का कोई बड़ा नेता होता है . सभी पार्टियों के  सांसद इस समिति  के सदस्य हो सकते हैं लेकिन अध्यक्ष का पद विपक्ष के पास ही रहता है .आजकल पी ए सी के अध्यक्ष कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन  खाडगे हैं .
सुप्रीम कोर्ट के  फैसले में सी ए जी और पी ए सी का ज़िक्र आया है . फैसले के पृष्ठ २१ पर लिखा है कि,” राफेल की कीमत के डिटेल  भारत के नियंत्रक महालेखा परीक्षक ( सी ए  जी )के साथ शेयर किए गए हैं और सी ए जी की  रिपोर्ट की जांच पी ए सी ( लोकलेखा समिति ) ने कर लिया है . “ . माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश के इसी वाक्य पर सरकार बीजेपीकांग्रेस प्रधानमंत्री राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खडगे की प्रतिष्ठा दांव पर लग गयी है . पी ए सी के अध्यक्ष माल्लिकार्जुन खडगे ने  साफ़ कह दिया है पी ए सी को राफेल के सम्बन्ध में कोई रिपोर्ट नहीं मिली है . सी ए जी से भी पता लगा है कि राफेल से सम्बंधित रिपोर्ट जनवरी के अंत तक सरकार को दी जायेगी  क्योंकि अभी रिपोर्ट तैयार नहीं है. सवाल यह उठता  है कि अगर रिपोर्ट तैयार ही नहीं है तो सरकार के अटार्नी जनरल ने कौन से रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट में जमा की है जिसकी बुनियाद पर ही सुप्रीम कोर्ट  का  फैसला दे दिया गया है . राहुल गांधी ने अपनी प्रेस कान्फरेंस में साफ़ साफ़ कहा कि पी ए सी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड्गे को जब कोई रिपोर्ट नहीं मिली और पी ए सी ने उस पर बहस नहीं की तो यह कौन से रिपोर्ट है जिसकी बात फैसले में की गयी है .उनका आरोप है कि सरकार ने झूठ बोला है .
 सी ए जी की तरफ से भी साफ़ संकेत हैं कि उनकी रिपोर्ट जनवरी के अंत तक आयेगी  . यानी उनकी कोई रिपोर्ट कहीं है ही नहीं  .अब झूठ का ज़िम्मा केवल दो  पार्टियों पर आकर  टिक जाता है . या तो पी ए सी केअध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड्गे पर यह आरोप लगेगा और या सरकार पर . यह तय है कि उन दोनों में से कोई एक निस्श्चित तौर पर झूठ बोल रहा है . जहां तक पी ए सी की बात  है उसके पास झूठ  बोलने के विकल्प नहीं हैं क्योंकि सी ए जी की रिपोर्ट पी ए सी के अधिकारियों के पास आती है और वही उसको अध्यक्ष के सामने प्रस्तुत करता है . कोई भी अफसर अपनी नौकरी दांव पर  लगाना नहीं चाहेगा . अब तो सरकार ने ही स्वीकार कर लिया है कि सुप्रीम कोर्ट में उन्होंने प्रकिया की सूचना दी थी , उन्होंने यह नहीं कहा था कि सी ए जी ने जांच कर लिया है और पी ए सी ने उसका परीक्षण कर लिया है  . साफ़ लगता है कि सरकार की  तरफ से ही सारा कनफ्यूज़न फैलाया गया है .

Sunday, December 9, 2018

एग्जिट पोल करने वाली कंपनियों को अपनी पेशेवर विश्वसनीयता को बहाल करना चाहिए


शेष नारायण सिंह  


पांच राज्यों के विधान सभा चुनाव के लिए वोट पड़ चुके हैं. नतीजे ११ दिसंबर को आयेंगे. लेकिन ७ दिसंबर को आखिरी वोट पड़ने के तुरंत बाद टीवी चैनलों पर एग्जिट पोल की बहार  आ गयी .  इन पांच चुनावों में बीजेपी,कांग्रेस मिज़ो नैशनल फ्रंट और तेलंगाना राष्ट्र समिति  मुख्य खिलाड़ी हैं . बसपा,सपातेलुगु देशम ,कम्युनिस्ट पार्टी जैसी कुछ पार्टियाँ साइड रोल में हैं . आख़िरी वोट के बाद एग्जिट पोल के उत्सव के साथ ही नतीजों के इंतज़ार का काम शुरू हो गया. तरह तरह के बुकराती से परिपूर्ण ज्ञान का अजीर्ण  आजकल दिल्ली की सडकों दफ्तरोंरेस्तराओं में  डंके की चोट पर देखा जा सकता है .जो एग्जिट पोल आये हैं उनसे नतीजों के बारे में कोई तस्वीर साफ़ नहीं हो रही है .साफ़ होने की बात तो दूर माहौल और भी पेचीदा हो गया है . राजस्थान में तो सभी चैनलों ने कांग्रेस की जीत का दावा किया है  लेकिन उसके अलावा हर राज्य में तस्वीर  बिलकुल घालमेल हो गयी है . किसी सर्वे में कांग्रेस जीत रही है तो  किसी अन्य में बीजेपी . एक ही राज्य की अलग अलग भविष्यवाणियां कर दी गयी हैं . एक चैनल ने तो बहुत ही मनोरंजक एग्जिट पोल अपने  दर्शकों को दिखाया . उसने दो एजेंसियों से एग्जिट पोल करवाया . एक एग्जिट पोल में बीजेपी की जीत दिखाई जा रही थी तो उसी चैनल पर दिखाए जा रहे दूसरे  एग्जिट पोल में कांग्रेस की जीत का मौसम था . समर्पित पत्रकारिता की दिशा में इस चैनल का यह कारनामा निश्चित रूप से एक नया पैमाना है. नतीजों के दिन इस चैनल के बहुत ही ऊंची आवाज़ वाले सर्वज्ञ एंकर घोषित करेंगे कि उनके चैनल पर दिखाया गया एग्जिट पोल बिलकुल सही है . क्योंकि उनका चैनल तो दोनों ही पार्टियों की जीत का एग्जिट पोल दिखा चुका  है.
लेकिन एग्जिट पोल वाली एजेंसियों की भी बात निराली ही है . किसी  ने बीजेपी की जीत बतायी तो किसी ने कांग्रेस की . पिछले कई चुनावों का तजुर्बा है कि एजेंसी की भविष्यवाणी या डेटा का विश्लेषण सच्चाई से काफी दूर होता है .लेकिन एजेंसी के ज़िम्मेदार लोग हिम्मत नहीं हारते . वे रिज़ल्ट के दिन टीवी पर विराजते हैं और बाकायदा समझाते हैं कि उनकी भविष्यवाणी बिलकुल सही थी ,बस थोडा सा आंकड़ों में छुपे हुए कुछ तथ्य सीटों की भविष्यवाणी करते समय  नज़रंदाज़ हो गए थे . कुछ चैनलों ने तो जो भविष्यवाणी दिखाई उसके लघुत्तम और महत्तम में इतना फर्क था कि कोई भी उस भविष्यवाणी  को कर सकता था. एक चैनल पर दिखाया जा रहा था कि बीजेपी किसी राज्य में १०२-१२२ सीट लायेगी और कांग्रेस १०४-१२४ सीट . अब बताइये इसका क्या मतलब है . इससे भी ज़्यादा दिलचस्प बात यह है कि टीवी चैनलों में जो कुछ ऐसे एंकर हैं जिनकी किसी पार्टी के साथ पक्षधरता उनके गले में मैडल के तरह लटकती रहती है ,वे भी  बहुत दुखी थे और अपने  तरीके से व्याख्या कर रहे थे .एक बानगी देखिये : एक एंकर ने कहा कि बीजेपी ने राजस्थान में भारी उछाल दर्ज की  है . उन्होंने फरमाया कि जब पहला चुनाव पूर्व  सर्वेक्षण आया  था तो राजस्थान में बीजेपी को २०-२५ सीटें बतायी जा रही थीं और आज एग्जिट पोल के दिन वह संख्या ७०-८० तक पंहुच गयी है . इसका श्रेय  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह की ज़बरदस्त चुनाव जीतने की रणनीति को  जाता है . उन्होंने दावा किया कि दुनिया जानती है कि जितनी मेहनत अमित शाह चुनाव को जीतने के लिए करते हैं , उतनी मेहनत किसी पार्टी का कोई भी नेता नहीं कर सकता . कांग्रेस के प्रति आस्था रखने वाले एक एंकर ने बताया कि  विधानसभा चुनाव २०१८ का सीधा मतलब यह है कि लोकसभा २०१९ का नतीजा यही होगा .  अब इनसे कोई पूछे कि  इतने तूफानी बयानों का क्या मतलब है . अपनी पूर्वाग्रही कुंठाओं को टीवी पर ऐलानियां व्यक्त नहीं करना चाहिए इससे पत्रकारिता के पेशे का बहुत नुक्सान होता है .
टी वी पर एग्जिट पोल की बहस के दौरान पिछले कई  हफ़्तों से चुनावी प्रचार टाइप टीवी बहसों को झेल रही देश की जनता के लिए मौसम थोडा बदला हुआ था . हिन्दू-मुस्लिम, मंदिर –मस्जिद, पाकिस्तान आदि  विषयों से पक चुके लोगों ने हालाते हाजेरह पर  तथ्यात्मक टिप्पणी करते हुए नेताओं और पत्रकारों को देखकर निश्चित रूप से राहत की  सांस ली होगी. लेकिन वहां भी विरोधभासी बयानों की कमी नहीं थी. बीजेपी वाले पिछले चार पांच साल से हर चुनाव के बाद टुडेज़ चाणक्य के विश्लेषण की जय जयकार करते रहते थे लेकिन इस बार वे उसको गलत बताते पाए गए , एक प्रवक्ता ने तो उसकी क्षमता पर गंभीर अनियमितता का आरोप भी लगा दिया . लेकिन  मज़ा  दूसरी तरफ था . इस बार वही कांग्रेसी जो एग्जिट पोल के दिन टुडेज़ चाणक्य को बंकम बताते थे, इस बार उसकी शान में कसीदे पढ़ते देखे  गए. शायद  ऐसा इसलिए था कि टुडेज़ चाणक्य ने राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी बहुमत का तखमीना पेश कर दिया है.
कुछ मिलाकर  एग्जिट पोल के दिन की व्याख्या यह  है कि  उसके भांति भांति के आंकड़ों ने तस्वीर को बिलकुल धुंधला कर दिया है. चुनाव नतीजों के बारे में सच्चाई की आहट ले  सकने में इंसानी क्षमता को इन आंकड़ों ने  बुरी तरह से झकझोर दिया  है . इस बीच राजनीतिक  गलियारों में तरह तरह  की गपशप चल रही है . राजनेताओं का तो इन नतीजों पर बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है . कई अति उत्साही एंकरों ने प्रचारित कर रखा था कि विधानसभा २०१८  वास्तव में लोकसभा २०१९ का सेमी फाइनल है और अब एग्जिट पोल के बाद उनकी बोली बदल रही है लेकिन सच्चाई यह  है कि यह २०१९ का सेमी फाइनल है इसमें कोई दो राय नहीं है .  ७ दिसम्बर को हुए एग्जिट पोल ने दिल्ली के राजनीतिक दरबारों में होने वाली बातचीत में काफी नरमी का तडका दे दिया है ,इस बात से कोई इनकार नहीं किया जा सकता , लेकिन यह भी अब बहुत ज़रूरी है कि  अपने आपको मजाक का विषय बनाने से रोकने के लिए सर्वे वालों को चाहिए कि अपने काम को और भी पेशेवराना अंदाज़ में करने की कोशिश करें . यूरोप और अमरीका की कम्पनियां भी एग्जिट पोल करती हैं और उनके नतीजे सच से इतने दूर नहीं होते जितने हमारे होते  हैं . इन एजेंसियों की क्षमता पर एक  ज़बरदस्त तमाचा  सट्टा बाज़ार से भी आता  है जो फलोदी और इंदौर की अंधेरी कोठरियों में बैठकर ,गैरकानूनी तरीके से चुनावी बतीजों के बारे में लगभग सही आकलन करते है . दुनिया लागातार छोटी होती जा रही है और अगर प्रतिस्पर्धा में रहना है तो चुनाव का सर्वे करने वाली कंपनियों को अपनी  पेशेवराना काबिलियत को बढ़ाना  होगा . 

Wednesday, December 5, 2018

सावधान ! हम कहीं अमरीका के फ्रंटमैंन तो नहीं बन रहे हैं .



शेष नारायण सिंह


इस बार बीस देशों के समूह , जी-20 का शिखर सम्मलेन अर्जेंटीना में  हुआ . मौजूदा चुनौतियों को हल करने के लिए दुनिया के प्रमुख आर्थिक शक्तियों का एक संगठन बनाया गया है . कभी केवल अति विकसित देशों को अपना सदस्य बनाने वाला यह संगठन ग्रुप आफ  सेवेन कहलाता था लेकिन धीरे धीरे अब लगभग वे सभी अर्थव्यवस्थाएं इसमें शामिल हो गयी हैं जो या तो  विकसित हैं या बड़ी आर्थिक शक्ति बनने की कोशिश कर रही हैं . अभी इसमें उन्नीस देश शामिल हैं  . अर्जेंटीना, आस्ट्रेलिया, ब्राजील, कनाडा,चीन ,जर्मनी,,फ़्रांस,भारत, इंडोनेशिया,इटली,जापान,मेक्सिको,रूस,साउदी अरब, दक्षिण अफ्रीका,,दक्षिण कोरिया, टर्की, ब्रिटेन और अमरीका इस के सदस्य देश हैं . यूरोपीय संघ बीसवें  प्रतिभागी के रूप में शमिल होता है . पहले यह अमरीका के मित्र देशों का संगठन हुआ करता था लेकिन अब दुनिया के हर रंग की आर्थिक शक्तियां इसमें हैं . शीत युद्ध के बाद एक अलग तरह की बिरादारना सोच के तहत अमरीका के दोस्तों में  रूस भी शामिल माना जाता था  लेकिन पुतिन के रूस ने सब कुछ बदल दिया है. अब रूस और चीन अमरीका के दोस्त  तो किसी भी हालत में नहीं माने जा सकते , शीत युद्ध की यादें ताज़ा करने वाले रूसी राष्ट्रपति पुतिन अब अपने को अमरीका से किसी भी तरह से कम नहीं मानते. चीन भी आज व्यापार के दुनिया में अमरीका को ज़बर्दस्त चुनौती दे रहा है . चीन तो अमरीका के प्रभाव क्षेत्र के हर इलाके में अपनी आर्थिक ताक़त  के सहारे अमरीका की विदेशनीति की बड़ी चुनौती  है.   एशिया और  अफ्रीका में  चीन ने बहुत बड़ी पूंजी  लगा रखी है . अफ्रीका के कुछ देशों की तो सरकारी इमारतें तक चीन ने बनवाई हैं . हिन्द महासगार क्षेत्र और एशिया के देशों में चीन ने भारत के मित्र  राष्ट्रों को भी अपने प्रभाव में लेने की  रणनीति पर अपना रखी  है .चीन ने जापान को हमेशा से ही दबाने की रणनीति अपनाई है .जब भी मौक़ा मिलता है उन योजनाओं को कार्यरूप देने की कोशिश करता रहता है.

चीन के बढ़ते प्रभाव के मद्दे-नज़र   अर्जन्टीना की राजधानी ब्यूनस आयर्स में एक अलग तरह की गुटबाजी  बनती नज़र आयी . जापान , अमरीका और भारत के  शासन प्रमुख गले मिले और लम्बी उम्र वाली दोस्ती की बुनियाद रखने का दावा किया . भारत के प्रधानमंत्री ,नरेंद्र मोदी ने इस त्रिगुट को जय ( JAI) नाम दे दिया  जो तीनों देशों के नामों के पहले अक्षर को मिलाकर बनाया गया है. अमरीकी राष्ट्रपति ,डोनाल्ड ट्रंप, जापान के प्रधानमंत्री  शिंजो एबे और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक नए ध्रुवीकरण की बुनियाद रखी. भारत के विदेश मंत्रालय ने बताया कि तीनों  नेताओं ने आपसी हित के मुद्दों पर विचार विमर्श किया . अमरीका को प्रशांत और हिन्द महासागर के  क्षेत्र में  चीन से भारी चुनौती मिल रही है और उसकी इच्छा  है कि यह त्रिगुट इस इलाके में  चीन के  लगातार बढ़ रहे प्रभाव पर लगाम लगाने का काम करे . तीनों नेताओं की मुलाक़ात के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने  कहा  कि तीनों नेता बहुत अच्छे दोस्त हैं और तीनों अब  विश्वशांति, सम्पन्नता और स्थिरता के लिए मिलकर काम करेंगे. डोनाल्ड ट्रंप बहुत  खुश थे क्योंकि उनके हिसाब से भारत ,जापान और अमरीका के बीच इतने अच्छे सम्बन्ध कभी नहीं रहे और इस दोस्ती के बाद व्यापार बढेगा और सबसे अच्छा तो यह होगा कि फौजी साजो सामान की  खूब बिक्री होगी.  यानी आर्थिक मंदी की मात झेल रहे अमरीकी हथियार उद्योग को एक बाज़ार मुहैया हो जाएगा .तीनों देशों की मुलाक़ात का सन्दर्भ इसलिए और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि चीन अब हिन्द-प्रशांत के  क्षेत्र में बड़े पैमाने पर लाठी भांज रहा  है और अमरीका सहित जापान और  भारत के प्रभाव क्षेत्र लगातार सिकुड़ रहे हैं .  
अमरीका को चीन के मुकाबले एशिया में  किसी मज़बूत साथी की ज़रूरत है . एक ज़माना होता था जब कुछ देशों को छोड़कर एशिया के अधिकतर देश अमरीका के भक्त हुआ करते थे लेकिन अब सब कुछ बदल गया है . उसका सबसे भरोसेमंद देश, पाकिस्तान अब चीन की गोद में बैठा है . इसी तरह से दक्षिण कोरिया के अलावा हिन्द-चीन में भी कोई देश अब चीन के खिलाफ अमरीका का साथ देने के लिए तैयार नहीं है . मध्य एशिया के कई देशों में रूसी  राष्ट्रपति पुतिन अमरीका को बेदखल कर चुके हैं  . ऐसी स्थिति में अमरीका को भारत को अपना बहुत करीबी दोस्त बनाने की ज़रूरत थी . और अर्जेन्टीना की इस मुलाक़ात के बाद इस बात पर मुहर लग गयी है कि भारत अब चीन के खिलाफ अमरीका का  फ्रंट मैन बन गया है . सवाल यह पैदा होता है कि अपनी स्वतंत्र  विदेश नीति का पालन करने वाले  भारत के लिए अमरीका चेला बनना कितना हानिकर होगा यह लाभकर होगा . इस विषय को समझना ज़रूरी है .

भारत के प्रधानमंत्री की अर्जेंटीना में हुई मीटिंग के बाद अपने  देश ने वह ओहदा प्राप्त कर लिया जिसकी कोशिश भारतीय प्रशासन लंबे समय से कर रहा था.  हम अमेरिका के रणनीतिक साझेदार तो पहले ही बन चुके थे .अब  हम उसकी विदेश नीति को चीन के खिलाफ लागू करने के फ्रंट राष्ट्र बन गए हैं . यह साझेदारी क्या गुल खिला सकती है यह समझना दिलचस्प होगा . भारत अमरीका का राजनीतिक पार्टनर हो गया है इसलिए अब भारत वही करेगा जो अमेरिका चाहेगा. अमरीकी राष्ट्रपति ने बार-बार इस बात का ऐलान किया और तीनों ही नेताओं ने ही कहा कि अब उनकी दोस्ती का एक नया अध्याय शुरू हो रहा है। आतंकवाद की मुखालिफतजलवायु परिवर्तनकृषि और शिक्षा के क्षेत्र में नई पहल की बात तो डॉ मनमोहन सिंह ही कर गए थे अब  फौजी साजो  सामान की बात जिस तरीके से डोनाल्ड ट्रंप ने की है उससे साफ़ ज़ाहिर है अमरीकी  हथियार उद्योग को भारत के रूप में एक बड़ा खरीदार मिल गया है .

पहले के ज़माने में भारत की लगातार शिकायत रहती थी कि अमरीका का रुख पाकिस्तान की तरफ सख्ती वाला नहीं रहता। लेकिन अब ऐसा नहीं है . पाकिस्तान बाकायदा चीन का मातहत देश बन चुका है और उसकी काट के लिए भारत के मौजूदा नेतृत्व ने अमरीका की  शरण में जाना ठीक समझा . वक़्त ही बताएगा कि यह रणनीति कितनी कारगर साबित होती है .  विदेशनीति के कर्ता धर्ताओं को सोचना चाहिए कि कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत की वाहवाही करके अमरीकी कोशिश चल रही है कि भारत अपने आपको परमाणु अप्रसार संधि की मौजूदा भेदभावपूर्ण व्यवस्था के हवाले कर दे। जहां तक भारत की विदेशनीति के गुट निरपेक्ष स्वरूप की बात है उसको तो खत्म करने की कोशिश 1998 से ही शुरू हो गई थी जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने थे। उनके विदेश मंत्री जसवंत सिंह तो अमरीकी विदेश विभाग के मझोले दर्जे के अफसरों तक के सामने नतमस्तक रहते  थे। डॉ मनमोहन सिंह के दौर में भी यही राग चलता रहा था .और अब तो लगता है कि भारत अपने को अमरीकी विदेशनीति के उस मुकाम पर लाकर  पटक रहा  है जहां कभी पाकिस्तान विराजता था. 

अमरीका की हमेशा से ही कोशिश थी कि भारत को अपना सदबहार पार्टनर बना लिया जाय। 1966 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी थीं तो तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति लिंडन बी जानसन ने कोशिश की थी। बाद में रिचर्ड निक्सन ने भी भारत को अर्दब में लेने की कोशिश की थी। इंदिरा गांधी ने दोनों ही बार अमरीकी राष्ट्रपतियों को मना कर दिया था। उन दिनों हालांकि भारत एक गरीब मुल्क था लेकिन गुटनिरपेक्ष आंदोलन के संस्थापक के रूप में भारत की हैसियत कम नहीं थी। लेकिन वाजपेयी से वह उम्मीद नहीं की जा सकती थीजो इंदिरा गांधी से की जाती थी। बहरहाल 1998 में शुरू हुई भारत की विदेश नीति की फिसलन अब पूरी हो चुकी है और भारत अमरीका का रणनीतिक पार्टनर बन चुका है। अमरीका का रणनीतिक पार्टनर बनना कोई खुशी की बात नहीं है। एक जमाने में पाकिस्तान भी यह मुकाम हासिल कर चुका है . कभी अमरीकी विदेश नीति के आकाओं की नज़र में पाकिस्तान की हैसियत एक कारिंदे की हुआ करती थी , उससे ज्यादा कुछ नहीं। इसलिए ताकतवर देश का रणनीतिक पार्टनर होना बहुत ही खतरनाक हो सकता है। और यह बात भारत को ज़रूर समझना चाहिए . 

अब भारत भी राष्ट्रों की उस बिरादरी में शामिल हो गया है जिसमें ब्राजीलदक्षिण कोरियाअर्जेंटीनाब्रिटेन वगैरह आते हैं। इसका मतलब यह भी नहीं है कि कल से ही अमरीकी फौजें भारत में डेरा डालने लगेंगी। अमरीका की विदेश नीति अब एशिया या बाकी दुनिया में भारत को इस्तेमाल करने की योजना पर काम करना शुरू कर देगा और उसे अब भारत से अनुमति लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी। भारत सरकार को चाहिए जब अमरीका के सामने समर्पण कर ही दिया है तो उसका पूरा फायदा उठाए। अमरीकी प्रभाव का इस्तेमाल करके भारत की विदेशनीति को चलाने वालों को चाहिए कि सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता की बात को फाइनल करे। बहुत दिनों  तक अमरीकी हुक्मरान भारत और पाकिस्तान को बराबर मानकर काम करते रहे हैं। जब भी भारत और अमरीका के बीच कोई अच्छी बात होती थी तो पाकिस्तानी शासक भी लाइन में लग लेते थे। यहां तक कि जब भारत और पाकिस्तान के बीच परमाणु समझौता हुआ तो पाकिस्तान के उस वक्त के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ भी पूरी कोशिश करते पाए गए थे कि अमरीका उनके साथ भी वैसा ही समझौता कर ले। पाकिस्तानी विदेश नीति की बुनियाद में भी यही है कि वह अपने लोगों को यह बताता रहता है कि वह भारत से मजबूत देश है और उसे भी अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में वही हैसियत हासिल है जो भारत की है। जबकि सच्चाई इससे बिल्कुल पलट है। 

भारत एक विकासमान और विकसित देश हैविश्वमंच पर उसकी हैसियत रोज ब रोज बढ़ रही है ऐसी स्थिति में अमरीका की साजिश में फंसने से बचना चाहिए था . क्योंकि अगर हम अपने आप को पूरी तरह से अमरीका की चेलाही में डाल देंगें तो अमरीका हमको वह इज्ज़त नहीं देगा जो उसको देना चाहिए .क्योंकि दुनिया ने देखा है कि अमरीका अपने सहयोगियों को अपना अधीन देश ही मानने लगता है .अब हमारे लिए अमरीकी कूटनीतिक और रणनीतिक साझेदारी की बात एक सच्चाई है और उसके जो भी नतीजे होंगे वह भारत को भुगतने होंगे लेकिन कोशिश यह की जानी चाहिए कि भारत की एकताअखण्डता और आत्मसम्मान को कोई ठेस न लगे।

गौरक्षा के नाम पर भीड़ हुकूमत की पगड़ी उछाल रही है


शेष नारायण सिंह

बुलंदशहर के स्याना थाना क्षेत्र की हिंसक घटना बहुत सारे सवाल के साथ हमारी राजनीतिक व्यवस्था पर नाज़िल   हो गयी है . एक भीड़ ने स्याना के  थानेदार सुबोध कुमार सिंह को उस वक़्त मार दिया जब वे सड़क पर जाम लगाने से रोकने के  लिए अपने  इलाके के एक गाँव में  गए हुए थे .  वह भीड़ इस अफवाह के बाद इकठ्ठा  हुई थी कि किसी खेत में मांस का एक टुकड़ा मिला था जो गाय का  मांस था . आस पास के लोग इकठ्ठा हो गए और सड़क पर जाम कागा दिया , जब इंस्पेक्टर सुबोध कुमार  मौक़ा-ए-वारदात पर पंहुचे तो भीड़ उग्र रूप ले चुकी थी लेकन उन्होंने शांत कराया .  जब वे भीड़ को समझा बुझाकर वापस  आने के लिए अपनी जीप में बैठे तो फिर हिंसा शुरू हो गयी और उसका एक नतीजा  यह हुआ कि थानेदार साहब की मौत हो  गयी. उसी घटना में शायद एक आवारा  गोली से राह चलते एक नौजवान की भी मौत हो गयी .शुरुआती जांच में पता चला   है  कि इंस्पेक्टर सुबोध की ह्त्या ३२ बोर के असलहे से की गयी है . अभी और जांच होना बाकी है . पुलिस ने करीब सत्तर लोगों को जाँच की ज़द में लिया है और कुछ लोगों की गिरफ्तारियां भी हुयी  हैं . अपराध में जिन लोगों के शामिल होने का शक है  उनमें  योगेश राज नाम का एक नौजवान है . उसके बारे में पुलिस को पता चला  है  कि वह बजरंग दल के जिला संयोजक  है. उसके परिवार के लोगों ने भी इस बाद की पुष्टि की है कि वह बजरंग  दल से  सम्बंधित है .परिवार से यह भी पता चला है कि वह हिंसा की घटना वाले  स्थान पर ही गया था . लेकिन उसके परिवार वालों का   दावा है कि उसकी पुलिस अधिकारी की ह्त्या में कोई भूमिका  नहीं है . इसी तरह से ज़्यादातर लोगों के बारे में मुकामी पुलिस को जानकारी है और ज्यादातर योगेश राज की मंडली के लोग ही बताये जाते हैं जो भीड़ का हिस्सा थे और मरने मारने पर उतारू थे .जिस एफ आई आर में इन लोगों को नामज़द किया गया है वह स्याना थाने के सब इंस्पेक्टर सुभाष चन्द्र ने लिखवाई  है . एफ आई आर में शिखर अग्रवाल का भी नाम है जो बीजेपी के युवा मोर्चा के शहर अध्यक्ष हैं .  वी एच पी के शहर अध्यक्ष उप्रेंद्र राघव का भी नाम है . पुलिस ने उनका नाम लिखा है लेकिन उनके संगठन और उनके  पदों के बारे में कोई जानकारी एफ आई आर में नहीं है . योगेश राज ने वारदात के पहले कुछ मुसलमानों के  खिलाफ गौहत्या करने की शिकायत भी थाने में लिखवाई थी. रिपोर्ट में लिखा गया है कि योगेश राज ने अपने कुछ दोस्तों के साथ महाव गाँव के जंगलों में कुछ मुसलमानों को गाय काटते देखा था. जो उसको देख कर भाग गए .

उधर  लखनऊ में मौजूद पुलिस के आला अधिकारी मामले को संभालने में जुट गए हैं. कानून व्यवस्था के अतिरिक्त महानिदेशक ने बयान दिया है कि वारदात में किसी संगठन के शामिल होने के बारे में कोई जानकारी नहीं है .उन्होंने कहा कि योगेश राज पर तो मुक़दमा कायम किया गया है लेकिन उनके लिए यह कहना सही नहीं होगा कि वह किस संगठन से सम्बंधित है . घटना की निंदा सभी कर रहे  हैं . लेकिन जो बात अभी आम तौर पर   रेखांकित नहीं की जा रही है वह यह है कि उत्तर प्रदेश की शासन व्यवस्था पर एक ज़बरदस्त सवालिया निशान लग गया है . पुलिस का थानेदार हुकूमत के इक़बाल का प्रतिनिधि होता है . जब उसको भी कोई भीड़ घेर कर मार दे तो यह शासन को  लाखों  सवालों के घेरे में लपेट लेने के  लिए काफी है . सरकार को अपनी पगड़ी संभालने के लिए अब बहुत ही अधिक यत्न करना पडेगा . मामले की जाँच को पुलिस ने नौकरशाही की अंगीठी पर चढ़ा दिया है. हस्बे मामूल एस आई टी वगैरह बना दी गयी हैं . ज़ाहिर  है जांच होगी और नतीजे भी  आयेंगें लेकिन तब तक प्रशासन की पगड़ी उछल चुकी होगी . एक बात हमेशा सवालों के घेरे में रहेगी कि मुकामी पुलिस की जांच कर पाने की क्षमता पर क्यों  भरोसा नहीं किया और  कानून द्वारा स्थापित सरकार पर हमला करने के जुर्म में मुक़दमा बुक करके स्याना थाने को काम करने से रोकने के लिए क्यों एस आई टी आदि का  टालू कार्यक्रम क्यों शुरू कर दिया गया.
इस बीच इस घटना पर राजनीति शुरू हो गयी है .  उत्तर प्रदेश के  कैबिनेट मंत्री ,ओम प्रकाश राजभर ने अपनी ही सरकार को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश कर दी है . उन्होंने कहा है कि यह घटना बीजेपी और उसके सहयोगी संगठनों द्वारा मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने की कोशिश है . राजभर ने कहा है कि ," यह दुर्भाग्यपूर्ण  है कि  वी एच पी, बजरंग दल और बीजेपी के कुछ लोग वहां हिन्दू-मुस्लिम के बीच दंगा  कराने के लिए   गए और पुलिस का एक इन्स्पेक्टर मार दिया  गया " . यह  राजभर के निजी विचार हो सकते हैं . हम अभी जांच की प्रतीक्षा  करेंगें और जांच के नतीजे आने के पहले बीजेपी या उसके सहयोगी संगठनों के शामिल होने के पर्याप्त संकेत  होने के बावजूद भी बीजेपी या  किसी भी अन्य संगठन के बारे में कोई बात नहीं करेंगें .
एक बात  और भी दिलचस्प है . जब भी हिन्दू  मुसलमान के बीच विवाद होता है तो राजनीतिक लाभ हिन्दू आधिपत्यवाद  स्थापित करने की कोशिश कर  रहे संगठनों का ही होता  है . दंगा फैलाने में  पिछ्ले दो ढाई सौ वर्षों में गाय के बारे में  शुरू हुए झगड़ों की महत्वपूर्ण भूमिका रहती रही है . भारत पाक बंटवारे के दौरान हुए  दंगों में भी गाय की रक्षा की बात केन्द्रीय थी. गाय का ऐतिहासिक  महत्व है . महाभारत काल में ज़मीन पहली बार संपत्ति की पहचान की रूप में देखी जाती  है. उसके पहले ज़मीन खूब थी और उसपर आश्रित रहने वाले जानवर , गोधन  ,गजधन और बाजिधन संपत्ति की पहचान और यूनिट थे. महाभारत में पहली जब ज़मीन के बंटवारे की बात हुई तो दुर्योधन ने कहा कि ," सूच्यग्रम न दास्यामि" यानी सुई की नोक के बराबर  भी पांडवों  को नहीं दूंगा .महाभारत के पहले तो गाय, हाथी  और घोड़े की संपत्ति की यूनिट हुआ करते थे . विषय बहुत विषद है लेकिन  जब मुसलमान इस देश के शासक हुए तो उनके लिए गाय खाद्य पदार्थ था और देश की स्थानीय आबादी   शासकों की तरफ से गाय की  ह्त्या का हमेशा विरोध करती रही. उसका विधिवत रिकार्ड नहीं मिलता लेकिन १८५७ के बाद  गौवध के कारण हुए संघर्षों का मामूली ही सही , रिकार्ड है .हिन्दू , बौद्ध, जैन और सिख गौहत्या का विरोध  हमेशा से करते रहे .हैं.  आर्यसमाज के जन्म के बाद उत्तर भारत के कई इलाकों में गौहत्या के  विरोध के बाद संघर्ष की बातें इतिहास को   मालूम हैं . उसी दौरान गाय की ह्त्या के कारण पंजाब , और संयुक्त प्रांत ( यू पी ) में  दंगे हुए .
गौरक्षा के  नाम पर स्वतंत्र भारत में राजनीतिक लाभ की परिपाटी शुरू हुयी . आजादी के बाद अपनी राजनीतिक ज़मीन खो चुकी पार्टियों ने १९४८ और १९५१ के बीच आजमगढ़, अकोला, पीलीभीत, कटनी, नागपुर अलीगढ़, धुबरी,  दिल्ली और कलकत्ता में दंगे करवाए . सभी दंगों के मूल में गौकशी ही थी. लेकिन इन दंगों का चुनावी फ़ायदा  किसी को नहीं हुआ क्योंकि आजादी की लड़ाई के ज्यादातर हीरो जिंदा थे और देश की राजनीति के भाग्य  विधाता भी  थे. वोटों का लाभ १९६६ के गौरक्षा आन्दोलन और उसके बाद हुए दंगों के बाद जनसंघ को हुआ.  उत्तर प्रदेश  में जनसंघ के मामूली पार्टी थे लेकिन १९६७ के चुनावों में वह ९८ सीटों के साथ कांग्रेस के बाद सबसे बड़ी पार्टी बनी .दिल्ली प्रशासन में  उसकी सरकार बनी . संसद भवन पर हुए गौरक्षा आन्दोलन  में हुए झगड़े में लाठी  गोली चली , बहुत लोग मारे गए और गौरक्षा एक महत्वपूर्ण राजनीतिक हथियार के रूप में विकसित हो गया. स्वामी करपात्री जी ने फूलपुर में जवाहरलाल नेहरू को संसद की सीट से बेदखल करने की कोशिश की थी और नाकाम रहे थे लेकिन १९६६ के आन्दोलन का  नेतृत्व करके उनकी बेटी को कमज़ोर कर दिया . इंदिरा गांधी की पार्टी १९६७ के चुनाव में उत्तर भारत के सभी राज्यों में चुनाव हार गयीं .
१९९८ में  केंद्र में बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार के आने के बाद तो  गौरक्षा के नाम पर नौजवानों के समूह दलितों और मुसलमानों को निशाने पर लेते ही रहे  हैं . आजकल तो गौरक्षा के नाम पर  पुलिस और सरकार की इज्ज़त को भी घेर लिया जाता है .  बुलंदशहर उसी का  नमूना है . हो सकता है कि इससे राजनीतिक लाभ देने लायक ध्रुवीकरण भी हो जाए लेकिन सरकार की अथारिटी को जो चुनौती  मिलेगी उसको संभाल पाना मुश्किल होगा .