Wednesday, February 10, 2021

 हिमालय को तबाही बचाने को राष्ट्रीय प्राथमिकता बनाया जाना चाहिए

 

शेष नारायण सिंह

 

हिमालय की छाती पर एक बार और मूंग दला गया . चमोली जिले में ग्लैसियर फटने से तबाही आयी. सबसे बड़ी तबाही का कारण एक बिजली परियोजना और उसके तथाकथित विकास के कारण आई है . हिमालय को उजाड़ने का  सारा काम विकास के लिए और विकास के नाम पर किया जा रहा है लेकिन उसके चक्कर में प्रकृति की सबसे बड़ी धरोहर,  हिमालय को ही तबाह किया जा  रहा है . हिमालय में आज  विकास के नाम पर अजीबोगरीब कारनामे हो रहे  हैं . दुर्भाग्य यह है कि सत्तर के  दशक में शासक वर्गों ने यह समझना शुरू कर दिया था कि हिमालय के क्षेत्र में भी विकास उसी तरह का किया जाना चाहिए जैसा कि मैदानी क्षेत्रों में सड़क बिजली पानी की व्यवस्था करके किया जाता है .  आज य्तक वही सोच जारी है . सत्ता पर बैठे लोगों को समझना चाहिए कि हिमालय हमारे विकास का प्रहरी है , रक्षक है . वह  जीवंत बना रहे ,यही बहुत बड़ी बात है . पूरे देश को चाहिए कि हिमालय में वैसा विकास न होने दें जैसा कि मैदानी इलाकों में होता है . हिमालय प्रेमी लोगों की एक बड़ी जमात यह मानती है कि हिमालय के कारण ही भारत के उत्तरी भाग में विकास होता  है . हिमालय से ही देश में नदियों की कई बड़ी श्रृंखलाएं चलती हैं. गंगा और यमुना  नदी का भारत के  आर्थिक , सांस्कृतिक ,राजनीतिक, सामरिक ,धार्मिक और साहित्यिक विकास में योगदान अद्वितीय है . ज़रूरत इस बात की है कि हिमालय को उसकी अपनी गति से , अपनी लय से भारत के रक्षक के रूप में बने रहने दिया जाए . लेकिन अजीब बात यह  है कि जो भी शासक होता है वह विकास के वही पैमाने अख्तियार करने लगता है जिसका विरोध लगातार करता रहा होता है .

 

हिमालय अपनी मौजूदगी से ही देश के बहुत बड़े भूभाग पर विकास की  धारा बहा रहा है लेकिन उसके अस्तित्व को ही खतरे में डालकर विकास की इबारत रखना बहुत बड़ी गलती होगी . अपने कालजयी महाकाव्य कुमारसंभव में महान कवि कालिदास ने पहला ही श्लोक हिमालय की महिमा में लिखा है . लिखते  हैं कि

अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा ,हिमालयो नाम नगाधिराजः ।

पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्यस्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः॥

 

दुर्भाग्य की बात यह है कि आज इस देवतात्मा ,नगाधिराज और पृथ्वी के मानदंड को हम वह सम्मान नहीं दे पा रहे हैं जो उसे वास्तव में मिलना चाहिए .हिमालय को पृथ्वी की बहुत नई पर्वत श्रृंखला माना जाता है . भारत के लिए तो हिमालय जीवनदायी है . गंगा और यमुना समेत बहुत सारी नदियाँ हिमालय से निकलती हैं . प्रगति के नाम पर में समय समय पर सरकारें हिमालय को नुक्सान  पंहुचाती रहती हैं . केदारनाथ में  प्रकृति के क्रोध और तज्जनित विनाशलीला को दुनिया  ने देखा है . उसके पहले उत्तरकाशी में एक  भूकम्प के चलते पहाड़ के दुर्गम इलाक़ों से किसी तरह का संपर्क महीनों के लिए रुक गया था. समय समय पर हिमालय से प्रेम करने वाले और दुनिया भर के पर्यावरणविद  चिंता जताते रहते हैं लेकिन कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता . गंगा और हिमालय की रक्षा के लिए बहुत सारे महामना संतों ने अपने जीवन का  बलिदान भी किया है . लेकिन आजादी के बाद से ही हिमालय के दोहन की प्रक्रिया शुरू हो गयी है जो अभी तक जारी है . इस कड़ी में एक  ‘ विकास का प्रोजेक्ट ‘ चारधाम परियोजना है .कुछ वर्ष पूर्व सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में आया था कि सड़क यातयात और हाईवे मंत्रालय की चार धाम परियोजना  के कारण हिमालय के जंगलों और वन्यजीवन को भारी नुकसान हो रहा है . सुप्रीम कोर्ट ने सही जानकारी के लिए रवि चोपड़ा  की अगुवाई में  एक हाई पावर कमेटी नियुक्त की थी ..उसकी  कुछ रिपोर्टें आ चुकी हैं .कमेटी की राय में  उत्तराखंड में चल रही  चार धाम परियोजना के कारण हिमालय के पर्यावरण को भारी नुक्सान हो रहा है .जिसके दूरगामी परिणाम बहुत ही भयानक होंगे.  इस कमेटी ने  पर्यावरण मंत्रालय से तुरंत कार्रवाई करने की मांग की है .. कमेटी की रिपोर्ट किसी भी पर्यावरण  प्रेमी को चिंता  में  डाल देगी .  रवि चोपड़ा ने पर्यावरण  मंत्रालय को लिखा है कि वहां अंधाधुंध पेड़ काटे जा रहे हैं ,पहाड़ को तोड़ा जा रहा है . बिना किसी सरकारी मंजूरी के जगह जगह खुदाई की   जा रही है और कहीं भी मलबा  फेंका जा रहा है .

चारधाम परियोजना के तहत उत्तराखंड राज्य के प्रमुख धार्मिक केन्द्रों को  सड़क मार्ग से जोड़ने के लिए कई सौ किलोमीटर की सड़क तैयार करने की योजना है .  हिमालय के पर्यावरण को बिना कोई नुक्सान पंहुचाये इस महत्वाकांक्षी योजना को पूरा करने का लक्ष्य रखा गया था लेकिन वहां  खूब मनमानी  हुई . उच्च अधिकार प्राप्त कमेटी ने आगाह किया था कि इस मनमानी को फौरन रोकना पडेगा . 2017 से ही   बिना अनुमति लिए पेड़ों की कटाई का सिलसिला जारी है .जब यह बात वहां के अखबारों में छप गयी  तो 2018 में तत्कालीन राज्य सरकार से बैक डेट में  अनुमति ली गयी . रिपोर्ट में लिखा  है कि  चारधाम   प्रोजेक्ट प्रधानमंत्री की एक महत्वाकांक्षी और  महत्वपूर्ण योजना को लागू करने के लिए शुरू किया गया है . परियोजना के  ड्राफ्ट में बहुत साफ़ बता दिया गया है कि हिमालय के पर्यावरण को कोई नुक्सान नहीं पंहुचाया  जाएगा .लेकिन वहां  फारेस्ट एक्ट और एन जी टी एक्ट का सरासर उन्ल्लंघन करके अंधाधुंध विकास का तांडव जमकर हुआ . क़ानून और सरकारी आदेशों को तोडा मरोड़ा भी खूब गया . रक्षा मंत्रालय के सीमा सड़क संगठन ने 2002 और 2012 के बीच कोई आदेश दिया  था . उसी के सहारे बड़े पैमाने पर  पहाड़ों को तबाह किया जा रहा है जबकि उस आदेश में इस तरह की कोई बात  नहीं थी . राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड के दिशानिर्देशों की भी कोई परवाह  नहीं की गयी . केदारनाथ वन्यजीव अभयारण्य राजाजी नैशनल पार्क और फूलों के घाटी नैशनल पार्क के इलाके में हिमालय को भारी नुक्सान पंहुचाया  जा रहा है .  सबको मालूम है कि हिमालय के पर्यावरण की रक्षा देश की सबसे बड़ी अदालत की हमेशा से ही प्राथमिकता रही है . लेकिन यह भी देखा गया है और चारधाम परियोजना में भी देखा जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट की मंशा को तोड़ मरोड़कर अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने वाले बिल्डर-ठेकेदार-नौकरशाह-नेता माफिया  कोई न कोई रास्ता निकाल लेते हैं . ऐसी हालत में उत्तराखंड के आज के प्रभावशाली नेताओं को राजनीतिक पार्टियों की सीमा के बाहर  जाकर काम करना होगा. मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावतसांसद अनिल बलूनी ,पूर्व मुख्यमंत्री  हरीश रावत जैसे नेताओं की अगुवाई में पहाड़ की राजनीतिक बिरादरी को आगे आना चाहिए और अपने संरक्षक हिमालय की रक्षा के लिए लेकिन ज़रूरी राजनीतिक प्रयास करना  चाहिए .

अगर राजनेता तय  कर ले तो उनकी  मर्जी के खिलाफ जाने की किसी भी माफिया  की हिम्मत नहीं पड़ती है .  हरीश रावत के कार्यकाल में हिमालय को कई बार नुक्सान हुआ  है लेकिन अब पानी सर के ऊपर जा रहा है . सत्ता और राजनीतिक पार्टी तो आती जाती रहेगी लेकिन अगर हिमालय को नुक्सान पंहुचाने का सिलसिला जारी रहा  तो आने वाली पीढ़ियां इन नेताओं को माफ़ नहीं करेंगी.

 

 हिमालय के चमोली  जिले में आया मौजूदा संकट भी  हिमालय को सम्मान  न देने के कारण ही आया है .लेकिन लगातार चल रही हिमालय के असम्मान की दिशा में वः एक कड़ी मात्र है . वहां भी अगर वह बिजली उत्पादन केंद्र न होता तो इतना ज्यादा नुक्सान न होता , जितना हुआ है . इसलिए ज़रूरी है कि  हिमालय से छेड़छाड़ फ़ौरन बंद की जाय. हिमालय को उसके मूल  स्वरूप में रहने दिया जाय. अपनी   नदियों, पेड़  पौधों ,पशुपक्षियों के साथ हिमालय एक देवतात्मा की तरह खड़ा रहे और देश की  निगहबानी करता रहे. हिमलाय के विकास के लिए ,वहां रहने वालों के लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को अतिरिक्त धन की व्यवस्था करनी चाहिए , ज़रूरत पड़े तो हिमालय के नाम  पर अतितिक्त टैक्स लगाया जा सकता है और हिमलाय के गाँवों में रहने वालों को मैदानी विकास के लालच से मुक्त किया जा सकता है . पर्यावरण प्रबंधन के बहुत सारी संस्थान बनाये  जा सकते हैं और पूरी दुनिया में पर्यावरण  संरक्षण के हिमालयी विशेषज्ञ भेजे जा सकते हैं .  हमारे आई आई एम और आई आई टी के  स्नातकों ने दुनिया भर में  इंजीनियरिंग और प्रबंधन के क्षेत्र में जो मुकाम बनाया है वह काम हिमालय  के संस्थाओं से निकले पर्यावरणविद कर सकते हैं . नरेंद्र मोदी सख्त  फैसले लेने के लिए विख्यात हैं इसलिए मौजूदा दौर में यह संभव है कि हिमालय की रक्षा के लिए ऐसे  फैसले लिए जाएँ जिससे हिमालय की रक्षा की गारंटी हो सके. पूरे देश को इस बात के लिए तैयार होना पड़ेगा कि हिमालय की इंसानी आबादी को सब्सिडी देने की किसी भी सरकारी स्कीम का पूरी तरह से स्वागत  किया जाय.  उत्तराखंड की सरकार की ड्यूटी यह बना दी जाय कि वह हिमालय में इंसानी लालच से पैदा हुयी किसी प्रगति को घुसने न दें. वह केवल हिमालय की रक्षा करें. सरकार चलाने एक लिए केंद्र और गंगा नदी के क्षेत्र में आने वाले राज्य उनको आर्थिक योगदान करें . केंद्र सरकार में हिमालय के संरक्षण के लिए अलग मंत्रालय बनाया जाना चाहिए . पिछले कुछ वर्षों में देखा गया  है कि उत्तराखंड के सांसद अनिल बलूनी हिमालय के विकास के लिए समय समय पर पहल करते रहते हैं . उनको मेरे इन सुझावों को तार्किक परिणति तक ले जाने के लिए सक्रिय होना चाहिए . हिमालय की रक्षा आज हमारे अस्तित्व से जुड़ गया है . किसी भी  इंसानी गलती को उसकी तबाही में शामिल होने से रोकना एक राष्ट्रीय  प्राथमिकता होनी चाहिए .

 

हिमालय को बचाना सभी सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए

 

 

 

    

 

शेष नारायण सिंह

 

उत्तर दिशा में स्थित देवतात्मा हिमालय नाम के नगाधिराज पर प्रकृति का एक और आक्रोश फूटा है. ल  यह इंसान की गलत नीतियों का खामियाजा हिमालय को भोगना पड़ता है .नतीजतन  हिमालय पर प्रकृति का एक और कहर बरपा हो गया . उत्तराखंड के चमोली जिले में एक ग्लेशियर फटने से ऋषि गंगा क्षेत्र में तबाही आयी है .  वहां के एक बिजली उत्पादन केंद्र पर मुख्य रूप से असर पड़ा है . अपने देश में बिजली के उत्पादन को  विकास से जोड़ा जाता है .अपने देश में नेताओं ने और पूंजी के बल पर राज करने वाले लोगों के एक वर्ग ने विकास की अजीब परिभाषा प्रचलित कर दी है . ग्रामीण इलाकों को शहर जैसा बना देना विकास माना जाता है . इकनामिक फ्रीडम के  बड़े चिन्तक डॉ मनमोहन सिंह और बीजेपी, कांग्रेस और शासक वर्गों की अन्य  पार्टियों में मौजूद उनके ताक़तवर चेले पूंजीपति वर्ग की आर्थिक तरक्की के लिए कुछ भी तबाह कर देने पर आमादा हैं . इसी चक्कर में अब  उत्तराखंड के पहाड़ तबाही की ज़द में हैं .इस बार की चमोली की घटना  में लगातार गर्म होते जा रहे  पर्यावरण का भी योगदान है . विश्व  के नेता क्लाइमेट चेंज को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं. पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति ,डोनाल्ड ट्रंप जैसे गैरजिम्मेदार नेता तो पेरिस समझौते से अमरीका को बाहर ले गए थे . यह तो गनीमत है कि नए राष्ट्रपति जो बाइडेन ने फिर से अमरीका को पेरिस वार्ता से जोड़ दिया है. क्लाइमेट चेंज का खामियाजा दुनिया भर को झेलना पड़ेगा .भारत ने चमोली में झेल लिया . सफलता के लिए इस दिशा में दुनिया भर के देशों के साथ मिलकर चलना पडेगा . भारत अकेले कुछ नहीं कर सकता . लेकिन अकेले यह तो किया ही जा सकता है कि अपने हिमालय को बचाने के लिए जो ज़रूरी उपाय हों और अपने बस में हिन्, वे किये जाएँ.अब हिमालय को निजी और पूंजीपति वर्ग के स्वार्थों और मैदानी तर्ज के विकास की सोच के कारण इतना कमज़ोर कर दिया गया है कि वह बारिश को भी संभाल नहीं पाता, ग्लेशियर फटने की बात तो अलग है .  आज उत्तराखंड ,खासकर गढ़वाल क्षेत्र में हिमालय नकली तरीके के विकास की साज़िश का शिकार हो चुका है और वह प्रकृति के मामूली  गुस्से को भी नहीं झेल पा रहा है .

 

हिमालय के प्रति अपमान का आलम यह है कि गंगा  नदी को उसके उद्गम के पास ही बांध दिया गया है . बड़े बाँध बन गए हैं और भारत की संस्कृति से जुडी यह नदी  कई जगह पर अपने रास्ते से हटाकर सुरंगों के ज़रिये बहने को मजबूर कर दी गयी है .. पहाडों को खोखला करने का सिलसिला टिहरी बाँध की परिकल्पना के साथ शुरू हुआ  था. 1974 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे ,हेमवती नंदन बहुगुणा ने सपना देखा था कि प्रकृति पर विजय पाने की लड़ाई के बाद जो जीत मिलेगी वह पहाड़ों को भी उतना ही संपन्न बना देगी जितना मैदानी इलाकों के शहर हैं .उनका कहना था कि पहाड़ों पर बाँध बनाकर देश की आर्थिक तरक्की के लिए बिजली पैदा की जायेगी .इसी सोच के चलते  गंगा को घेरने की योजना बनाई गयी थी . ऐसा लगता है कि हिमालय के पुत्र हेमवती नंदन बहुगुणा को यह बिलकुल अंदाज़ नहीं रहा होगा कि वे किस तरह की तबाही को अपने हिमालय में न्योता दे रहे हैं .पहाड़ों से बिजली पैदा करके संपन्न  होने की दीवानगी के चलते ही  उत्तरकाशी और गंगोत्री के 125 किलोमीटर  इलाके में पांच बड़ी बिजली परियोजनायें है. जिसके कारण गंगा को अपना  रास्ता छोड़ना पड़ा .इस इलाके में बिजली की परियोजनाएं एक दूसरे से लगी हुई हैं .. एक परियोजना जहां  खत्म होती है वहां से दूसरी  शुरू हो जाती है. यानी नदी एक सुरंग से निकलती है और फिर दूसरी सुरंग में घुस जाती है. इसका मतलब ये है कि जब ये सारी परियोजनाएं पूरी हों जाएंगी तो इस पूरे क्षेत्र में अधिकांश जगहों पर गंगा अपना स्वाभाविक रास्ता छोड़कर सिर्फ सुरंगों में बह रही होगी. वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड ने गंगा को दुनिया की उन 10 बड़ी नदियों में रखा है जिनके अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है. गंगा मछलियों की 140 प्रजातियों को आश्रय देती है. इसमें पांच ऐसे इलाके हैं जिनमें मिलने वाले पक्षियों की किस्में दुनिया के किसी अन्य हिस्से में नहीं मिलतीं. जानकार कहते हैं कि गंगा के पानी में अनूठे बैक्टीरिया प्रतिरोधी गुण हैं. यही वजह है कि दुनिया की किसी भी नदी के मुकाबले इसके पानी में आक्सीजन का स्तर 25 फीसदी ज्यादा होता है. ये अनूठा गुण तब नष्ट हो जाता है जब गंगा को सुरंगों में धकेल दिया जाता है जहां न ऑक्सीजन होती है और न सूरज की रोशनी.. इसके बावजूद सरकारें  बड़ी परियोजनाओं को मंजूरी देने पर आमादा रहती हैं ..

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 भागीरथी को सुरंगों और बांधों के जरिये कैद करने का विरोध तो स्थानीय लोग तभी से कर रहे हैं जब इन परियोजनाओं को मंजूरी दी गई थी. लेकिन वहीं पर रहने वाले बहुत से नामी साहित्यकार और बुद्धिजीवी इस अनुचित  विकास की बात भी करने लगे  हैं . उसमें कुछ ऐसे लोग भी शामिल थे  जिन्होंने पहले बड़े बांधों के नुक्सान से लोगों को आगाह भी किया था लेकिन बाद में पता नहीं किस लालच में वे सत्ता के पक्षधर बन  गए. ऐसा भी नहीं है कि हिमालय और गंगा के साथ हो रहे अन्याय से लोगों ने आगाह नहीं किया था. पर्यावरणविद, आज के बीस साल पहले सुनीता नारायण, मेधा पाटकर , आईआईटी कानपुर के पूर्व प्रोफेसर जी डी अग्रवाल और बहुत सारे हिमालय प्रेमियों ने इसका विरोध किया . बहुत सारी  पत्रिकाओं ने बाकायदा अभियान चलाया लेकिन सरकारी तंत्र ने कुछ नहीं सुना. सरकार ने जो सबसे बड़ी कृपा की थी वह यह कि प्रोफ़ेसर अग्रवाल का अनशन तुडवाने के लिए उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री  भुवन चंद्र खंडूड़ी दो परियोजनाओं को अस्थाई रूप से रोकने पर सहमत जता दी थी लेकिन बाद में फिर उन परियोजनाओं पर उसी अंधी गति से काम शुरू हो गया. सबसे तकलीफ की बात यह है कि भारत में बड़े बांधों की योजनाओं को आगे बढ़ाया जा रहा है जब दुनिया भर में बड़े बांधों को हटाया जा रहा है. अकेले अमेरिका में ही करीब 700 बांधों  को हटाया जा चुका है

 

सेंटर फार साइंस एंड इन्वायरमेंट ने एक रिपोर्ट जारी करके कहा  था  कि २५ मेगावाट से कम की जिन छोटी पनबिजली परियोजनाओं को सरकार बढ़ावा दे रही है उनसे भी पर्यावरण को बहुत नुक्सान हो रहा  है . इस तरह की देश में हज़ारों परियोजनाएं हैं .उत्तराखंड में भी इस तरह की थोक में परियोजनाएं  हैं  जिनके कारण भी बर्बादी आयी है. उत्तराखंड में करीब 1700  छोटी पनबिजली परियोजनाएं हैं . भागीरथी और अलकनंदा के बेसिन में  करीब 70  छोटी पनबिजली स्कीमों को लगाया गया है . जो  हिमालय को अंदर से कमज़ोर कर रही  हैं. इन योजनाओं के चक्कर में  नदियों के सत्तर फीसदी हिस्से को नुक्सान पंहुचा  है .इन योजनाओं को बनाने में जंगलों की भारी  क्षति हुई है . सड़क, बिजली के खंभे आदि बनाने के लिए हिमालय में भारी तोड़फोड़ की गयी है और अभी भी जारी है.मौजूदा कहर इसी गैरजिम्मेदार सोच का नतीजा है .

 

अगर राजनेता तय  कर ले तो उनकी  मर्जी के खिलाफ जाने की किसी भी माफिया  की हिम्मत नहीं पड़ती है .  लेकिन नेताओं ने  सही सलाह न सुनने का निश्चय कर लिया है . तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत के कार्यकाल में हिमालय को कई बार नुक्सान हुआ  है . उसके बाद से अब तक यह सिलसिला चला आ रहा है. अब तो  पानी सर के ऊपर जा रहा है . सत्ता और राजनीतिक पार्टी तो आती जाती रहेगी लेकिन अगर हिमालय को नुक्सान पंहुचाने का सिलसिला जारी रहा  तो आने वाली इन लोगों को पीढ़ियां माफ़ नहीं करेंगी. सरकार को चाहिए कि हिमालय के विकास की अपनी मैदानी कल्पनाओं से दूर रहे. सरकारी अदूरदृष्टि का एक  नमूना यह है कि सत्तर के दशक में जब बहुगुणा जी  उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो उनकी चापलूसी करने के चक्कर में गढ़वाल और कुमाऊं के लिए लखनऊ में बैठे आला अफसरों ने जुताई के लिए ट्रैक्टरों पर भारी सब्सिडी की स्कीम शुरू कर दी थी. जब  कुछ लोगों ने बहुगुणा जी को बताया तो उन्होंने इस योजना को तुरंत रोकने का आदेश दिया . उन्होंने अफसरों को समझाया कि पहाड़ में खेती वाली ज़मीन नाली या सीढीनुमा होती है इसलिए वहां ट्रैक्टर का कोई इस्तेमाल नहीं है .  पहाड़ पर बिजली उत्पादन और ऋषिकेश से रूद्र प्रयाग तक बने  दिल्ली और मुंबई के रईसों के आलीशान बंगले भी जलेबीनुमा दिमागी सोच का नतीजा है .उन  बंगलों से भी हिमालय का भारी नुक्सान हो रहा है .

 

आज जो चमोली में हुआ है वही  2013 में  केदारनाथ में हुआ था . उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को हिमालय की इकोलाजी से खिलवाड़ करने वाली नीतियों को  रोकने की सलाह दी गयी थी .वे उन दिनों कांग्रेस में थे . जून 2013 की बाढ़ को ठीक से संभाल नहीं  पाए थे . उनकी चौतरफा आलोचना हुयी थी . उसी सिलसिले में उनको मुख्यमंत्री पद भी गंवाना पड़ा था .वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन दिनों गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे और केदारनाथ में फंसे हुए गुजरातियों को बचाने के लिए उन्होंने गुजरात सरकार को सक्रिय कर दिया था .  नरेंद्र मोदी ने विजय बहुगुणा और मनमोहन सिंह सरकार की केदारनाथ की बाढ़ के कुप्रबंध को लेकर सख्त आलोचना की थी. आज उनकी सरकार केंद्र में भी है और राज्य में भी  . उम्मीद की जानी चाहिए कि विजय बहुगुणा वाली गलतियां आने वाले समय में कोई भी सरकार न करने पाए .केंद्र सरकार को विकास के  लिए अन्य जगहों से अलग तरह की नीतियों को हिमालय में लागू करना चाहिए . हिमालय के क्षेत्र में आने वाले सभी राज्यों की सरकारों को शामिल करके केंद्र सरकार एक ज़रूरी  नीति की घोषणा कर सकती है .

 

 

Friday, February 5, 2021

नई कृषि नीति के बारे में मेरे विचार



 कबिरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,

ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर.

कल ( 5 फरवरी ) पहली बार टीवी डिबेट में किसान आंदोलन से जुड़े मुद्दों पर चर्चा के लिए दिल्ली के गाजीपुर बार्डर के यू पी गेट पर गया. डिबेट वहीं किसानों के बीच होनी थी.
मुझे खुशी है कि मैंने वह सब बातें खुलकर कहीं जिनको मैं सच मानता हूं. स्टूडियो में तो कई बार बहस में शामिल हो चुका हूँ लेकिन ज़मीनी बहस का यह पहला मौक़ा था.

मैंने कहा कि सरकारी नीतियों के स्तर पर नीतिगत हस्तक्षेप की ज़रुरत बहुत दिनों से ओवरड्यू है . यह काम सरकार को कई साल कर लेना था. तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने अपने 1992 के आद्योगीकरण और उदारीकरण के कार्यक्रम में इसका संकेत दिया था .लेकिन गठबंधनों की सरकारों के चलते कोई नहीं सरकार यह काम नहीं कर सकी.

आज़ादी के बाद देश में करीब बीस साल तक खेती में कोई भी सुधार नहीं किया गया . १९६२ में चीन के हमले के समय पहले से ही कमज़ोर अर्थव्यवस्था तबाही के कगार पर खडी थी तो पाकिस्तान का भी हमला हो गया . खाने के अनाज की भारी कमी थी . उस समय के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने अपने कृषिमंत्री सी सुब्रमण्यम से कुछ करने को कहा . सी सुब्रमण्यम ने डॉ एस स्वामीनाथन के सहयोग से मेक्सिको में बौने किस्म के धान और गेहूं के ज़रिये खेती में क्रांतिकारी बदलाव ला चुके डॉ नार्मन बोरलाग ( Dr Norman Borlaug ) को भारत आमंत्रित किया . उन्होंने पंजाब की खेती को देखा और कहा कि इन खेतों में गेहूं की उपज को दुगुना किया जा सकता है . लेकिन कोई भी किसान उनके प्रस्तावों को लागू करने को तैयार नहीं था . कृषि मंत्री सी सुब्रमण्यम ने गारंटी दी कि आप इस योजना को लागू कीजिये ,केंद्र सरकार सब्सिडी के ज़रिये किसी तरह का घाटा नहीं होने देगी. शुरू में शायद डेढ़ सौ फार्मों पर पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना के सहयोग से यह स्कीम लागू की गयी. और ग्रीन रिवोल्यूशन की शुरुआत हो गयी. पैदावार दुगुने से भी ज़्यादा हुई और पूरे पंजाब और हरियाणा के किसान इस स्कीम में शामिल हो गए . ग्रीन रिवोल्यूशन के केवल तीन तत्व थे . उन्नत बीज, सिंचाई की गारंटी और रासायनिक खाद का सही उपयोग . उसके बाद तो पूरे देश से किसान लुधियाना की तीर्थयात्रा पर यह देखने जाने लगे कि पंजाब में क्या हो रहा है कि पैदावार दुगुनी हो रही है . बाकी देश में भी किसानों ने वही किया .उसके बाद से खेती की दिशा में सरकार ने कोई पहल नहीं की है .आज पचास साल से भी ज़्यादा वर्षों के बाद खेती की दिशा में ज़रूरी पहल की गयी है .मोदी सरकार की मौजूदा पहल में भी खेती में क्रांतिकारी बदलाव लाने की क्षमता है .


1991 में जब डॉ मनमोहन सिंह ने जवाहरलाल नेहरू के सोशलिस्टिक पैटर्न के आर्थिक विकास को अलविदा कहकर देश की अर्थव्यवस्था को मुक़म्मल पूंजीवादी विकास के ढर्रे पर डाला था तो उन्होंने कृषि में भी बड़े सुधारों की बात की थी . लेकिन कर नहीं पाए क्योंकि गठबंधन की सरकारों की अपनी मजबूरियां होती हैं . अब नरेंद्र मोदी ने खेती में जिन ढांचागत सुधारों की बात की है डॉ मनमोहन सिंह वही सुधार लाना चाहते थे लेकिन राजनीतिक दबाव के कारण नहीं ला सके. मोदी सरकार ने उन सुधारों का कांग्रेस भी विरोध कर रही है , किसानों का एक वर्ग भी विरोध कर रहा है . वह राजनीति है लेकिन कृषि सुधारों के अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र को समझना ज़रूरी है . सरकार ने जो कृषि नीति घोषित की है उसको आर्थिक विकास की भाषा में agrarian transition development यानी कृषि संक्रमण विकास का माडल कहते हैं . यूरोप और अमरीका में यह बहुत पहले लागू हो चुका है . आज देश का करीब 45 प्रतिशत वर्कफ़ोर्स खेती में लगा हुआ है . जब देश आज़ाद हुआ तो जीडीपी में खेती का एक बड़ा योगदान हुआ करता था . लेकिन आज जीडीपी में खेती का योगदान केवल 15 प्रतिशत ही रहता है . यह आर्थिक विकास का ऐसा माडल है जो एक तरह से अर्थव्यवस्था और ग्रामीण जीवनशैली पर बोझ बन चुका है .

आर्थिक रूप से टिकाऊ ( sustainable ) खेती के लिए ज़रूरी है कि खेती में लगे वर्कफोर्स का कम से कम बीस प्रतिशत शहरों की तरफ भेजा जाय जहां उनको समुचित रोज़गार दिया जा सके. आदर्श स्थिति यह होगी कि उनको औद्योगिक क्षेत्र में लगाया जाय. आज सर्विस सेक्टर भी एक बड़ा सेक्टर है .गावों से खाली हुए उस बीस प्रतिशत वर्कफोर्स को सर्विस सेक्टर में काम दिया जा सकता है . खेती में जो 25 प्रतिशत लोग रह जायेंगें उनके लिए भी कम होल्डिंग वाली खेती के सहारे कुछ ख़ास नहीं हासिल किया जा सकता . खेती पर इतनी बड़ी आबादी को निर्भर नहीं छोड़ा जा सकता ,अगर ऐसा होना जारी रहा तो गरीबी बढ़ती रहेगी .इसलिए खेती में संविदा खेती ( contract farming ) की अवधारणा को विकसित करना पडेगा . संविदा की खेती वास्तव में कृषि के औद्योगीकरण का माडल है .खेती के औद्योगीकरण के बाद गावों में भी शहरीकरण की प्रक्रिया तेज़ होगी और वहां भी औद्योगिक और सर्विस सेक्टर का विकास होगा . इस नवनिर्मित औद्योगिक और सर्विस सेक्टर में बड़ी संख्या में खेती से खाली हुए लोगों को लगाया जा सकता है .
मैंने उस डिबेट में यह भी कहा कि सरकार जो मौजूदा कानून लाई है उसमें खामियां भी हैं .उनको ठीक किया जाना चाहिए नहीं तो वे नतीजे नहीं निकलेगें जो निकलना चाहिए . ज़खीरेबाज़ों और कान्ट्रेक्ट फार्मिंग के ज़रिये ज़मीन हथियाने वालों पर लगाम लगाने का प्रावधान बिल में नहीं है ,वह भी किया जाना चाहिए . कानून में इस बात की गारंटी होनी चाहिए कि विवादों का निपटारा दीवानी अदालतों में होगा ,एस डी एम् को सारी ताक़त नहीं दी जानी चाहिए . सरकार को और किसान नेताओं को जिद के दायरे से बाहर आना पडेगा . सरकार का कानून अभी प्रो बिजनेस है उसको प्रो मार्केट करने की ज़रूरत है . अपनी जिद छोड़कर सरकार को यह सुधार करके बात करनी चाहिए और किसानों को भी क़ानून वापस लेने की जिद छोडनी चाहिए क्योंकि अगर यह क़ानून रद्द हो गया तो कृषि को आधुनिक बनाने की कोशिश को बड़ा झटका लगेगा .
मुझे व्यक्तिगत रूप से खुशी इस बात की है कि किसानों के बीच में खड़े होकर उनकी कमियाँ बताने की हिम्मत मुझे ऊपर वाले ने दी. जहाँ तक सरकार की कमियाँ बताने के बात है वह तो मैं कई बार स्टूडियों में बैठकर कर चुका हूँ. . अब न्यूज़ 18 इंडिया के अलावा भी अब सभी चैनलों में जा सकता हूँ . जो लोग भी मुझे बुलाएं उनकी सूचनार्थ निवेदन है मेरे यही दृष्टिकोण हैं और कोई चैनल इससे इतर बात कहलवाना चाहता है तो वह मैं नहीं आर पाऊंगा .


( इस लेख में कुछ पैराग्राफ मेरे एक पुराने लेख से कापी पेस्ट किये गए हैं )

Thursday, February 4, 2021

पंडित मुनीश्वर दत्त उपाध्याय – पहले बड़े नेता थे जिनको मैंने देखा


शेष नारायण सिंह
पहली बार किसी राजनीतिक चुनाव में अपने मातापिता और गाँव के अन्य लोगों को वोट डालते मैंने १९६२ के चुनाव में देखा था. लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ साथ होते थे . बाद में पता चला कि वहां से विधायक कौन था लेकिन चुनाव के दौरान कांग्रेस के दो बैलों की जोड़ी की ही चौतरफा चर्चा थी. कांग्रेसी उमीदवार पखरौली के उमा दत्त थे ,वे ही जीते . जनसंघ के दीपक निशान से उम्मीदवार रामपुर के उदय प्रताप सिंह थे लेकिन ज्यादातर लोग बैलों की जोड़ी पर ही वोट डाल रहे थे . उसके पहले मैंने अपने गाँव में जिले के बड़े नामी वकील बाबू गनपत सहाय को ऊँट छाप से चुनाव लड़कर कांग्रेस के खिलाफ प्रचार करते देखा था. 1961 में सुल्तानपुर लोकसभा सीट के लिए उपचुनाव हुआ था . कांग्रेस के ताक़तवर नेता स्व गोविन्द वल्लभ पन्त के बेटे कृष्ण चन्द्र पन्त को कांग्रेस से टिकट मिला था जिसका कांग्रेसी दावेदार बाबू गनपत सहाय ने विरोध किया और बाग़ी उम्मेदवार के रूप में पर्चा भर दिया . ऊँट चुनाव निशान से उनका ज़बरदस्त प्रचार हुआ और कृष्ण चन्द्र पन्त चुनाव हार गए. उस समय के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता चंद्रभानु गुप्त ने पन्त जी के बेटे का समर्थन किया था लेकिन कांग्रेस चुनाव हार गयी. यह सब जानकारी मुझे बाद में मिली जब मैंने उत्तर प्रदेश की चुनावी राजनीति में रूचि लेना शुरू किया . चुनाव के दौरान तो एक लेफ्ट हैंड ड्राइव विल्लीज़ जीप पर बैठे सफ़ेद मूंछों वाले बाबू गणपत सहाय की याद भर है . उनकी जीत का फायदा यह हुआ कि कांगेस की समझ में आ गया कि गनपत सहाय को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता . नतीजतन १९६२ के आम चुनाव में सुल्तानपुर लोकसभा सीट से उनेक बेटे कुंवर कृष्ण वर्मा को टिकट मिला और वे ही लोकसभा के सदस्य हुए . लेकिन यह सब एक बच्चे के रूप में द्केही गयी यादें हैं.
जिस पहले राजनीतिक चुनाव और घटनाक्रम की मुझे स्पष्ट याद है वह १९६६ में हुए उत्तर प्रदेश विधानपरिषद के चुनाव की है . उन दिनों सुल्तानपुर-प्रतापगढ़-बाराबंकी जिलों को मिलाकर विधानपरिषद का एक चुनाव क्षेत्र होता था . उस चुनाव में चंद्रभानु गुप्त की उम्मीदवार थीं ,बाराबंकी की मोहसिना किदवई . उनको चुनौती दिया प्रतागढ़ के पंडित मुनीश्वर दत्त उपाध्याय ने . उपाध्याय जी उस चुनाव में मेरे घर आये थे . पहली बार किसी साक्षात नेता का दर्शन मुझे मुनीश्वर दत्त उपाध्याय का ही हुआ . मैं हाई स्कूल में पढता था और मुझे विधिवत याद है कि हमारे ब्लाक प्रमुख स्व त्रिभुवन दत्त पाण्डेय उनको लेकर आये थे. विधानपरिषद के चुनावों में सभी वोट नहीं देते थे . मतदान का अधिकार केवल ग्राम प्रधानों को होता था. मेरे पिताजी गाँव के प्रधान थे. मुनीश्वर दत्त उपाध्याय मेरे घर आये . काफी देर तक बैठे और कुछ शरबत आदि भी ग्रहण किया . उन दिनों गाँवों में चाय पीने का उतना रिवाज़ नहीं था. चाय की पैकिंग भी पुडिया में होती थी. ‘ लिप्टन लाओजी टी ‘ की पुड़िया मैं ही कई बार राम नायक सेठ के यहाँ से लाया करता था. लेकिन किसी के आने पर चाय नहीं शरबत या शिखरन पिलाने की प्रथा थी. किसी नेता का साक्षात दर्शन मैंने पहली बार उसी चुनावों में किया था . मेरे पिताजी उनसे बहुत प्रभावित हुए और न केवल अपना बल्कि और कुछ लोगों के भी कुछ वोट दिलवाए थे . देवरी और नौगवां में हमारे खानदान के लोग ही गाँव प्रधान थे . मोहसिना किदवई वह चुनाव हार गईं थीं .मुनीश्वर दत्त उपाध्याय को प्रदेश में मंत्री बनाया गया था .
मुनीश्वर दत्त उपाध्याय से मैं इतना प्रभावित हुआ कि उनके बारे में मैंने काफी जानकारी इकठ्ठा की . जब मैं उसी साल प्रतापगढ़ की तहसील पट्टी के पास अपनी बहिन के गाँव गया तो पता चला कि वहां का जो इंटर कालेज था उसको मुनीश्वर दत्त उपाध्याय ने ही खुलवाया था. बहुत बड़ी बिल्डिंग थी उस कालेज की . मेरे अपने इंटर कालेज से बहुत बड़ी . उनको बेल्हा ( प्रतापगढ़ ) का मदनमोहन मालवीय कहा जाता था क्योंकि उन्होंने जिले में बहुत सारे कालेज खोले. किसी भी कालेज में अपना नाम नहीं डालते थे . जैसे इंटर कालेज पट्टी या डिग्री कालेज प्रतापगढ़ ही नाम होता था. बाद में लोगों ने सभी कालेजों में लोगों के नाम जोड़ लिए . प्रतापगढ़ वाले डिग्री कालेज में तो उनका खुद का नाम दे दिया गया . जब उन्होंने पढाई की थी तो उनके जिले में स्कूल कालेजों की संख्या बहुत कम थी . उन्होंने खुद प्रतापगढ़ के सोमवंशी इंटर कालेज से पढाई की थी. इस कालेज को राजा प्रताप बहादुर ने शुरू किया था इसलिए बाद में उसका नाम पी बी इंटर कालेज कर दिया गया . उन दिनों जिले में और कोई भी इंटर कालेज नहीं था. . मुनीश्वर दत्त उपाध्याय ने तय किया कि शिक्षा से ही समाज में बदलाव आयेगा . उत्तर प्रदेश के मज़बूत राजनेता के रूप में उन्होंने भारत की आजादी के बाद अपने जिले प्रतापगढ़ में कालेज और स्कूल खोलने का सिलसिला जारी कर दिया .१९५२ में लोकसभा का सदस्य चुने जाने के बाद जिले के ग्रामीण अंचल में शिक्षा संस्थाओं की बड़े पैमाने पर स्थापना शुरू कर दी. पट्टी का इंटर कालेज और सैफाबाद का हाई स्कूल उनकी शुरुआती संस्थाएं थीं . बाद में उन्होंने करीब दो दर्ज़न स्कूल कॉलेज शुरू करवाए . वे जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री के बहुत करीबी थे.. जब १९७७ में मैंने उनसे मिला तो बहुत बूढ़े हो चुके थे लेकिन आज़ादी की लडाई की बहुत सारी यादें उनके पास थीं . इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र के रूप में ही वे आज़ादी की लडाई में शामिल हो गए थे. जवाहरलाल नेहरू ने जब प्रतापगढ़ और रायबरेली में किसानों के संघर्ष का नेतृत्व किया तो मुनीश्वर दत्त उपाध्याय उनके मुख्य संगठनकर्ता थे. उस दौर में वे जिले के किसान नेताओं बाबा रामचंदर और झिंगुरी सिंह के साथ आज़ादी का सन्देश किसानों तक पंहुचाने में जी जान से जुटे थे और काफी हद तक सफल रहे थे . आज़ादी के बाद मुनीश्वर दत्त उपाध्याय को उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनाया गया। .उपाध्याय जी वर्ष 1952 व 1957 में प्रतापगढ़ से दो बार लोकसभा का चुनाव जीते लेकिन १९६२ में वहां से जनसंघ के टिकट पर प्रतापगढ़ के राजा ,अजीत प्रताप सिंह लोकसभा पंहुचे .
उत्तर प्रदेश में आज़ादी के बाद जो भूमि सुधार लागू हुए उनमें मुनीश्वर दत्त उपाध्याय का बड़ा योगदान है . ज़मींदारी उन्मूलन के लिए वे आज़ादी की लड़ाई के दौरान सक्रिय रहे . ज़मींदारी प्रथा पर उनकी किताब भी है . मेरी कोशिश है कि उनके किसी वंशज से मुलाक़ात हो जाए तो अपनी प्रस्तावित किताब में उनपर बाकायदा के अध्याय लिखूंगा क्योंकि आज़ादी की लडाई की जो मूल मान्यताएं हैं उनको उन्होंने ज़मीन पर लागू किया था . उनके असली मित्रों लाल बहादुर शास्त्री और जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद उनको चंद्रभानु गुप्त ने दरकिनार कर दिया क्योंकि उनको मालूम था कि मुनीश्वर दत्त उपाध्याय उनके लिए चुनौती बन सकते थे. उसके बाद राज्य की राजनीति में उनकी हैसियत कम हो गयी थी . ८५ साल की उम्र में १९८३ में उनकी मृत्यु हुई.

Wednesday, February 3, 2021

चौरी चौरा की घटना के बाद अंगेजों का दमनतंत्र तेज़ हो गया था

 

 

 


 

शेष नारायण सिंह

 

चौरी चौरा  के सौ साल पूरे होने को हैं . सरकार की तरफ से उसकी शताब्दी को जोर शोर से मनाया जा रहा है . इसी चार फरवरी को  कार्यक्रमों के शुरुआत हो चुकी है. यह सिलसिला साल भर चलता रहेगा . चौरी चौरा की याद में डाक टिकट भी  जारी किया जाएगा . चौरी चौरा आज़ादी के इतिहास का हिस्सा है क्योंकि १९२० में शुरू हुए महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन के बाद वहां के पुलिस वालों ने असहयोग आन्दोलन के क्रांतिकारियों पर अत्याचार  किया था . ४  फरवरी १९२२ के दिन वहां के पुलिस थाने में असहयोग आन्दोलन के  कुछ कार्यकर्ताओं ने आग लगा दी थी. जिसमें २२ पुलिस वालों की जान चली गयी थी .उसी के घटना के बाद महात्मा गांधी ने अपने असहयोग आन्दोलन को वापस ले लिया था .  असहयोग आन्दोलन में लगे हुए लगभग सभी नेताओं ने  गांधी जी से अपील की थी  कि आन्दोलन को वापस न लिया जाए   क्योंकि १९२० में आन्दोलन शुरू होने के डेढ़ वर्ष के अन्दर ही देश के गाँव गाँव में अंग्रेजों के अत्याचार के बारे में जागरूकता फ़ैल चुकी थी  . असहयोग आन्दोलन ने भारत में अंग्रेज़ी सरकार की बुनियाद को हिलाकर रख दिया था .इस आन्दोलन के कारण जागरूकता का एक बहुत बड़ा अभियान पूरे देश में शुरू हो चुका था . देश में अंग्रेजों के आतंक के नीचे  दबे कुचले लोग सीना तानकर खड़े हो गए थे . उनको शांतिपूर्ण तरीके से अत्याचार को सहने की शैली समझ में आने लगी थी . सरकारी आतंक फैलाकर जनता को डराने के युग का अंत हो चुका था . हज़ारों लोग मुसकराते हुए गिरफ्तारियां दे रहे थे .भारतीय दंड संहिता के वे  सारे मुक़दमे बेकार सिद्ध हो रहे थे जिनके नाम से लोग १९२० के पहले डर जाया करते थे . देशद्रोह के मुक़दमों की लोग परवाह ही नहीं कर रहे थे . हज़ारों धनी मानी लोगों ने अपनी इच्छा से ऐशो आराम की ज़िंदगी को तिलांजलि दी थी और  जानबूझकर  गांधी जी की शैली में गरीबी का जीवन  बिता रहे थे . सरकार के अत्याचारी शासन से पैदा हुयी ताक़त को लोग अपने नैतिक साहस से धता बता रहे थे.  माइकेल ओ डायर टाइप आतंक की हवा निकल रही थी . माइकेल ओ डायर ही वह दुष्टात्मा था जिसने जलियांवाला बाग़ में अपने चमचे जनरल रेजिनाल्ड डायर से निहत्थे भारतीयों पर गोलियां चलवाई  थीं और उस के उस घिनौने काम को सही भी ठहराया था . वह इंडियन सिविल सर्विस का अफसर था और उन दिनों पंजाब में लेफ्टीनेंट गवर्नर पद पर तैनात था .उसी ने डिफेंस ऑफ़ इंडिया रूल्स की स्थापना की थी जो सरकारी दमनतंत्र का एक बड़ा क़ानून बन गया था.  उसके आतंक की कारस्तानियों को पूरे ब्रिटिश भारत में लोगों को डराने के लिए इस्तेमाल किया जाता था .लेकिन उसका असर उलटा हुआ . जलियांवाला  बाग़ के आतंक के बाद लोगों को जब उसके जवाब में महात्मा गांधी का असहयोग आन्दोलन का सहारा मिला तो दमनतंत्र  भोथरा  हो गया. लोगों पर थोक में राजद्रोह के मुक़दमे दर्ज हुए लेकिन महात्मा गांधी के  अहिंसा और सत्याग्रह के नैतिक हथियारों के सामने सब कुछ नाकाम रहा . पंजाब के उस दुष्ट लेफ्टीनेंट गवर्नर  माइकेल ओ डायर को १९४० में क्रांतिकारी शहीद उधम सिंह ने मार गिराया था.

१९२० के आन्दोलन में देश में हिन्दू-मुस्लिम एकता भी बहुत बड़े स्तर पर हो गयी थी. महात्मा ने उस एकता  की ताक़त के बल पर अंग्रेजों को साफ़ कह दिया कि मनमानी  नहीं चलेगी.  १९२१ के दिसम्बर तक ब्रिटिश सरकार के सामने अहिंसा और सत्याग्रह की ज़बरदस्त चुनौती पैदा हो चुकी थी .अंग्रेजों के सहयोगी देसी राजे महराजे और उदारपंथी लोगों की हिम्मत भी  असहयोग आन्दोलन की ताक़त के सामने पस्त हो चुकी थे . अँगरेज़ सरकार लोगों पर दमन का हथियार चलाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी .  जलियांवाला बाग़ जैसे बहुत सारे सम्मेलन हो रहे थे. सभी अहिंसक सम्मलेन होते थे  . लेकिन सरकार की हिम्मत नहीं पड़ रही थी कि माइकेल ओ डायर वाली बेवकूफियां कर सके .

आहिंसा की ताक़त के सामने अँगरेज़ सरकार की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाय .इसी दौर में गोरखपुर जिले के चौरी चौरा   में हिंसा हो  गयी . हुआ यह कि असहयोग आन्दोलन के कार्यकर्ता महंगाई और बाज़ार में  शराब की बिक्री के खिलाफ  धरना दे रहे थे. चौरी चौरा के पुलिस वाले ने उनको  मारा पीटा , कुछ लोगों को वहीं थाने में बंद कर दिया .इसके  विरोध में बाज़ार में चार फरवरी को विरोध प्रदर्शन का आवाहन किया गया . करीब ढाई हज़ार सत्याग्रही इकठ्ठा हुए और जुलूस की  शक्ल में चौरी चौरा बाज़ार की तरफ जाने  लगे .शराब की एक दूकान के सामने धरना देने का कार्यक्रम था . उनके नेता को पुलिस ने पकड लिया और जेल में बंद कर दिया . जिसका विरोध करने  के लिए लोग अहिंसक तरीके से पुलिस थाने की तरफ बढ़ने लगे. हथियारबंद पुलिस ने उनको रोकने की कोशिश की और हवाई फायरिंग  शुरू कर दी . आंदोलनकारियों को गुस्सा आया और उन्होंने पुलिस के ऊपर  कंकड़ पत्थर फेंकना शुरू कर दिया . उसके बाद पुलिस ने गोली चला दी और मौके पर ही तीन लोगों की मौत हो गयी और कई लोग ज़ख़्मी हो गए .पुलिस वाले  भाग कर थाने में छुप गए .  गुस्साए लोगों ने पुलिस को खदेड़ा और थाने में आग लगा दी .जिसमें २२ पुलिस वाले मारे गए .ऐसा लगता है कि ब्रिटिश हुकूमत को ऐसे ही किसी मौके की तलाश थी . उन्होंने आस पास के इलाके में मार्शल लॉ लगा दिया और ज़बरदस्त तरीके  धर पकड़ शुरू हो गयी . पंजाब के माइकेल ओ डायर को तत्कालीन वायसरॉय लार्ड  रीडिंग ने सही ठहराया और आतंक का राज कायम करने की कोशिश  शुरू हो गयी . सर हरकोर्ट बटलर यू पी के गवर्नर थे . उनको आतंक का राज कायम करने का मौक़ा मिल गया और पूरे उत्तर प्रदेश में पुलिस की  ज्यादती की घटनाएं आने लगीं .

जब महात्मा गांधी को इस घटना के बारे में जानकारी मिली तो वे बहुत दुखी हुए .उन्होंने कहा कि चौरी चौरा में हिंसा में लिप्त होकर सत्याग्रहियों ने गलत काम किया है . उन्होंने प्रायश्चित्त के लिए पांच दिन का उपवास रखा .उन्होंने तय किया कि भारत के उनके अपने लोग अभी अहिंसक तरीके से आज़ादी लेने के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं हैं . और गांधी जी ने १२ फरवरी को आन्दोलन को रोकने का फरमान जारी कर दिया था .उनका कहना था कि चौरी चौरा के बहाने अब अँगरेज़ सरकार भारतीयों को कुचल देने का अभियान चलायेगी और नैतिक ताकत से आयी हुयी अहिंसा के हथियार  को  दबा देगी . गांधी जी भी गिरफ्तार हो गए और उनको छः साल की  सज़ा सुनाई गई . जवाहरलाल नेहरू मदन  मोहन मालवीय , सरदार पटेल जैसे कांग्रेस नेताओं ने महात्मा जी के आन्दोलन वापस लेने के फैसले का  विरोध किया लेकिन महात्मा गांधी ने  किसी की नहीं  सुनी. उनका दृढ विश्वास था कि चौरी चौरा में हिंसा करने का आन्दोलन कारियों का काम गलत था . इसी आन्दोलन के दौर में सरदार पटेल की भी कांग्रेस में  विधिवत ताक़त स्थापित हुई .असहयोग  आन्दोलन के शुरू होते ही वल्लभभाई पटेल ने गुजरात के लगभग सभी गाँवों की यात्रा की , कांग्रेस के करीब ३ लाख सदस्य भर्ती किया और करीब १५ लाख रूपया इकट्ठा किया . सन १९२० के १५ लाख रूपये का मतलब आज की भाषा में बहुत ज़्यादा होता है. और यह सारा धन गुजरात के किसानों से इकठ्ठा किया गया था.  सरदार पटेल  के जीवन का वह दौर शुरू हो चुका था जिसके बाद उन्होंने गांधी जी की किसी बात का विरोध नहीं किया . कई मुद्दों पर असहमति ज़रूर दिखाई लेकिन जब फैसला हो गया तो वे महात्मा जी के फैसले के साथ रहे. चौरी चौरा काण्ड के बाद महात्मा गांधी ने आन्दोलन वापस ले लिया, तो सरदार पटेल भी उस फैसले के पक्ष में नहीं थे लेकिन उन्होंने महात्मा गांधी का समर्थन किया क्योंकि महात्मा गांधी को आशंका थी कि उसके बाद अंग्रेज़ी राज का दमनचक्र उसी तरह से चल पडेगा जैसे १८५७ के समय में हुआ था . कांग्रेस के बाकी बड़े नेता आन्दोलन  वापस लेने का विरोध करते रहे लेकिन वल्लभ भाई पटेल ने महात्मा गांधी का पूरा समर्थन किया. राजनीतिक कार्य के साथ उन्होंने अपने एजेंडे में शराब, छुआछूत और जाति प्रथा के खिलाफ भी मोर्चा खोल दिया . गुजरात के तत्कालीन विकास में सरदार पटेल के इस कार्यक्रम का बड़ा योगदान माना जाता है .

चौरी चौरा की घटनाओं के लिए अंग्रेजों ने २२८ ने लोगों पर दंगा और आगज़नी का मुक़दमा चलाया .आठ महीने मुक़दमा चला और १७२ लोगों को फांसी की सज़ा सुनाई गयी . छः लोगों की पुलिस हिरासत में ही मृत्यु हो गयी थी . पूरे देश में इस फैसले के खिलाफ गुस्सा फूट पड़ा . मदन मोहन मालवीय चौरी चौरा की घटनाओं से शुरू से जुड़े हुए थे . उन्होंने ही हाई कोर्ट में फैसले के रिव्यू के लिए पैरवी की .२० अप्रैल १९२३ को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने १९ लोगों की  फांसी की सज़ा को बहाल रखा .११० लोगों को आजीवन कारावास की सज़ा दी ,बाकी लोगों को भी कुछ वर्षों की सज़ा हुयी . कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि चौरी चौरा की  घटनाओं के कारण असहयोग आन्दोलन को बड़ा झटका लगा था . महात्मा गांधी जेल  चले गए थे . फिर से देश को एकजुट  होने में आठ साल लगे जब महात्मा गांधी ने १९३० के अपने सविनय अवज्ञा आंदोलन की घोषणा की. अगर चौरी चौरा न हुआ होता तो १९३० के बाद जिस तरह से अंगेजों ने आजादी  की लड़ाई के  संगठन ,कांग्रेस को गंभीरता से लेना शुरू किया , गोलमेज सम्मेलन हुआ, गवर्नमेंट ऑफ़ इण्डिया एक्ट १९३५ आया वह सब आठ साल पहले ही हो गया होता.