Wednesday, August 26, 2020

हिमालय को तबाह करने की हर साज़िश को नाकाम किया जाना चाहिए


 

 

शेष नारायण सिंह

 

 

अपने कालजयी महाकाव्य , कुमारसंभव में महान कवि कालिदास ने पहला ही श्लोक हिमालय की महिमा में लिखा है . लिखते  हैं कि

अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा ,हिमालयो नाम नगाधिराजः ।

पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य, स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः॥

 

दुर्भाग्य की बात यह है कि आज इस देवतात्मा ,नगाधिराज और पृथ्वी के मानदंड को हम वह सम्मान नहीं दे पा रहे हैं जो उसे वास्तव में मिलना चाहिए .हिमालय को पृथ्वी की बहुत नई पर्वत श्रृंखला माना जाता है . भारत के लिए तो हिमालय जीवनदायी है . गंगा और यमुना समेत बहुत सारी नदियाँ हिमालय से निकलती हैं . प्रगति के नाम पर में समय समय पर सरकारें हिमालय को नुक्सान  पंहुचाती रहती हैं . केदारनाथ में  प्रकृति के क्रोध और तज्जनित विनाशलीला को दुनिया  ने देखा है . उसके पहले उत्तरकाशी में एक  भूकम्प के चलते पहाड़ के दुर्गम इलाक़ों से किसी तरह का संपर्क महीनों के लिए रुक गया था. समय समय पर हिमालय से प्रेम करने वाले और दुनिया भर के पर्यावरणविद  चिंता जताते रहते हैं लेकिन कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता . गंगा और हिमालय की रक्षा के लिए बहुत सारे महामना संतों ने अपने जीवन का  बलिदान भी किया है . लेकिन आजादी के बाद से ही हिमालय के दोहन की प्रक्रिया शुरू हो गयी है जो अभी तक जारी है . इस कड़ी में नवीनतम ‘ विकास का प्रोजेक्ट ‘ चारधाम परियोजना है .पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में आया था कि सड़क यातयात और हाईवे मंत्रालय की चार धाम परियोजना  के कारण हिमालय की जंगलों और वन्यजीवन को भारी नुकसान हो रहा है . सुप्रीम कोर्ट ने सही जानकारी के लिए रवि चोपड़ा  की अगुवाई में  एक हाई पावर कमेटी नियुक्त किया था .उसकी  दो रिपोर्टें आ चुकी हैं .कमेटी की राय में  उत्तराखंड में चल रही  चार धाम परियोजना के कारण हिमालय के पर्यावरण को भारी नुक्सान हो रहा है .जिसके दूरगामी परिणाम बहुत ही भयानक होंगे.  इस कमेटी ने  पर्यावरण मंत्रालय से तुरंत कार्रवाई करने की मांग की है .. कमेटी की रिपोर्ट किसी भी पर्यावरण  प्रेमी को चिंता  में  डाल देगी .  रवि चोपड़ा ने पर्यावरण  मंत्रालय को लिखा है कि वहां अंधाधुंध पेड़ काटे जा रहे हैं ,पहाड़ को तोड़ा जा रहा है . बिना किसी सरकारी मंजूरी के जगह जगह खुदाई की   जा रही है और कहीं भी मलबा  फेंका जा रहा है .

चारधाम परियोजना के तहत उत्तराखंड राज्य के प्रमुख धार्मिक केन्द्रों को  सड़क मार्ग से जोड़ने के लिए करीब ने सौ किलोमीटर की सड़क तैयार करने की योजना है .  हिमालय के पर्यावरण को बिना कोई नुक्सान पंहुचाये इस महत्वाकांक्षी योजना को पूरा करने का लक्ष्य रखा गया था लेकिन वहां तो मनमानी  चल  रही है. उच्च अधिकार प्राप्त कमेटी ने आगाह किया है कि इस मनमानी को फौरन रोकना पडेगा . 2017 से ही   बिना अनुमति लिए पेड़ों की कटाई का सिलसिला जारी है .जब यह बात वहां के अखबारों में छप गयी  तो 2018 में राज्य सरकार से बैक डेट में  अनुमति ली गयी . रिपोर्ट में लिखा  है कि  चारधाम   प्रोजेक्ट प्रधानमंत्री की एक महत्वाकांक्षी और  महत्वपूर्ण योजना को लागू करने के लिए शुरू किया गया है . परियोजना के  ड्राफ्ट में बहुत साफ़ बता दिया गया है कि हिमालय के पर्यावरण को कोई नुक्सान नहीं पंहुचाया  जाएगा .लेकिन जो हो रहा है वह फारेस्ट एक्ट और एन जी टी एक्ट का सरासर उन्ल्लंघन है  . क़ानून और सरकारी आदेशों को तोडा मरोड़ा भी खूब जा रहा है . रक्षा मंत्रालय के सीमा सड़क संगठन ने 2002 और 2012 के बीच कोई आदेश दिया  था . उसी के सहारे बड़े पैमाने पर  पहाड़ों को तबाह किया जा रहा है जबकि उस आदेश में इस तरह की कोई बात  नहीं थी . राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड के दिशानिर्देशों की भी कोई परवाह  नहीं की जा रही  है. केदारनाथ वन्यजीव अभयारण्य , राजाजी नैशनल पार्क और फूलों के घाटी नैशनल पार्क के इलाके में हिमालय को भारी नुक्सान पंहुचाया  जा रहा है .  सबको मालूम है कि हिमालय के पर्यावरण की रक्षा देश की सबसे बड़ी अदालत की हमेशा से ही प्राथमिकता रही है . लेकिन यह भी देखा गया है और चारधाम परियोजना में भी देखा जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट की मंशा को तोड़ मरोड़कर अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करने वाले बिल्डर-ठेकेदार-नौकरशाह-नेता माफिया  कोई न कोई रास्ता निकाल लेते हैं . ऐसी हालत में उत्तराखंड के आज के प्रभावशाली नेताओं को राजनीतिक पार्टियों की सीमा के बाहर  जाकर काम करना होगा. मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत, सांसद अनिल बलूनी ,पूर्व मुख्यमंत्री  हरीश रावत जैसे नेताओं की अगुवाई में पहाड़ की राजनीतिक बिरादरी को आगे आना चाहिए और अपने संरक्षक हिमालय की रक्षा के लिए लेकिन ज़रूरी राजनीतिक प्रयास करना  चाहिए .

अगर राजनेता तय  कर ले तो उनकी  मर्जी के खिलाफ जाने की किसी भी माफिया  की हिम्मत नहीं पड़ती है .  हरीश रावत के कार्यकाल में हिमालय को कई बार नुक्सान हुआ  है लेकिन अब पानी सर के ऊपर जा रहा है . सत्ता और राजनीतिक पार्टी तो आती जाती रहेगी लेकिन अगर हिमालय को नुक्सान पंहुचाने का सिलसिला जारी रहा  तो आने वाली इन लोगों को पीढ़ियां माफ़ नहीं करेंगी.

 

यही चेतावनी मैंने  2013 में  उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा को भी  दी थी .वे उन दिनों कांग्रेस में थे . जून 2013 की बाढ़ को ठीक से संभाल नहीं  पाए थे . उनकी चौतरफा आलोचना हुयी थी . उसी सिलसिले में उनको मुख्यमंत्री पद भी गंवाना पड़ा था .वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उन दिनों गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे और केदारनाथ में फंसे हुए गुजरातियों को बचाने के लिए उन्होंने गुजरात सरकार को सक्रिय कर दिया था .  नरेंद्र मोदी ने विजय बहुगुणा और मनमोहन सिंह सरकार की केदारनाथ की बाढ़ के कुप्रबंध को लेकर सख्त आलोचना की थी. आज उनकी सरकार केंद्र में भी है और राज्य में भी  . उम्मीद की जानी चाहिए कि विजय बहुगुणा वाली गलतियां आने वाले समय में कोई भी सरकार न करने पाए .

 

हिमालय की अनदेखी जब जब नेताओं ने की है उसका  नुक्सान निश्चित रूप से हुआ  है . मुझे उत्तर  प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवतीनंदन बहुगुणा  का वह इंटरव्यू कभी नहीं भूलता जो उन्होंने 1974  में उस वक़्त की सम्मानित हिंदी समाचार पत्रिका दिनमान को दिया था . टिहरी बाँध की प्रस्तावना बन चुकी थी  में उनका वह इंटरव्यू टिहरी बांध के बारे में ही  था. उत्तराखंड का गठन नहीं हुआ था , वह उत्तर प्रदेश में ही था . इंटरव्यू की  हेडलाइन लगी थी कि “ जब  टिहरी का पहाड़ डूबेगा तभी पहाड़ों की तरक्की होगी.”  उस वक़्त के भूवैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों ने हेमवतीनंदन बहुगुणा के उस बयान पर सख्त टिप्पणियाँ की थीं लेकिन सत्ता बहुत मतवाली होती है . किसी की कोई भी चेतावनी  काम न आयी .हिमालय के मूल निवासियों के हितों को नज़रअंदाज़ करके दिल्ली और लखनऊ में बैठे भाग्यविधाता लोग गंगा के आसपास के हिमालय की प्रलयलीला पर दस्तखत करने के लिए मजबूर होते रहे हैं .. 2013 की भारी बारिश और बादल फटने के कारण आयी तबाही के बारे में तर्क दिया गया था कि  बारिश एकाएक बहुत ज्यादा हो गयी और संभाल पाना मुश्किल हो गया . कोई इनसे पूछे कि हज़ारों वर्षों से बारिश भी तेज होती रही है और बाढ़ भी आती  रही है लेकिन इस तरह की तबाही नहीं आती थी. सच्चाई यह है कि हिमालय को इतना कमज़ोर कर दिया गया है कि वह तेज़ बारिश को संभाल नहीं पाता.

हिमालय गंगा का उद्गम स्थल है . गंगा को उसके उद्गम के पास ही बांध दिया गया है . बड़े बाँध बन गए हैं और भारत की संस्कृति से जुडी यह नदी  कई जगह पर अपने रास्ते से हटाकर सुरंगों के ज़रिये बहने को मजबूर कर दी गयी है .. पहाडों को खोखला करने का सिलसिला टिहरी बाँध की परिकल्पना के साथ शुरू हुआ  था. हेमवती नंदन बहुगुणा ने सपना देखा था कि प्रकृति पर विजय पाने की लड़ाई के बाद जो जीत मिलेगी वह पहाड़ों को बहुत संपन्न बना देगी .उनका कहना था कि पहाड़ों पर बाँध बनाकर देश की आर्थिक तरक्की के लिए बिजली पैदा की जायेगी .उनकी इसी सोच के चलते  गंगा नदी में जगह जगह बाँध बनाए  गए थे . उत्तरकाशी और गंगोत्री के 125 किलोमीटर की दूरी में पांच बड़ी बिजली परियोजनायें है. जिसके कारण गंगा को अपना  रास्ता छोड़ना पड़ा .इस इलाके में बिजली की परियोजनाएं एक दूसरे से लगी हुई हैं .. एक परियोजना जहां  खत्म होती है वहां से दूसरी  शुरू हो जाती है. यानी नदी एक सुरंग से निकलती है और फिर दूसरी सुरंग में घुस जाती है. इसका मतलब ये है कि इस पूरे क्षेत्र में अधिकांश जगहों पर गंगा अपना स्वाभाविक रास्ता छोड़कर सिर्फ सुरंगों में बह रही है

 

 वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड ने गंगा को दुनिया की उन 10 बड़ी नदियों में रखा है जिनके अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है. गंगा मछलियों की 140 प्रजातियों को आश्रय देती है. गंगा के मार्ग में  पांच ऐसे इलाके हैं जिनमें मिलने वाले पक्षियों की किस्में दुनिया के किसी अन्य हिस्से में नहीं मिलतीं. जानकार कहते हैं कि गंगा के पानी में अनूठे बैक्टीरिया प्रतिरोधी गुण हैं. यही वजह है कि दुनिया की किसी भी नदी के मुकाबले इसके पानी में आक्सीजन का स्तर 25 फीसदी ज्यादा होता है. ये अनूठा गुण तब नष्ट हो जाता है जब गंगा को सुरंगों में धकेल दिया जाता है जहां न ऑक्सीजन होती है और न सूरज की रोशनी.. भागीरथी को सुरंगों और बांधों के जरिये कैद करने का विरोध तो स्थानीय लोग तभी से कर रहे हैं जब  सत्तर के दशक से इन परियोजनाओं को मंजूरी देने का काम शुरू हुआ था . उत्तराखंड में करीब १७०० छोटी पनबिजली परियोजनाएं हैं भागीरथी और अलकनंदा के बेसिन में  करीब ७० छोटी पनबिजली स्कीमें हैं . इन योजनाओं के चक्कर में इन नदियों के सत्तर फीसदी हिस्से को नुक्सान पंहुचा  है .इन योजनाओं को बनने में जंगलों की भारी  कटाई हुई है . सड़कबिजली के खंभे आदि बनाने के लिए हिमालय में भारी तोड़फोड़ की गयी है

मौजूदा चारधाम परियोजना को भी अगर ठीक से न सम्भाला गया , पर्यावरण की अनदेखी की गयी तो जो नुक्सान टेहरी  बांध योजना के समय हुआ था ,उससे ज्यादा नुक्सान  होगा. इसलिए सुप्रीम कोर्ट की उच्च अधिकार प्राप्त कमेटी की बात को प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी के प्रभावशाली नेताओं को गंभीरता पूर्वक लेना चाहिए क्योंकि हिमालय की रक्षा हमारा सबका कर्तव्य  भी है और विरासत भी . इसलिए कालिदास के  देवातात्मा , नगाधिराज  और  पृथ्वी के मानदंड की रक्षा करना हमारा धार्मिक , सांस्कृतिक और ऐतिहासिक कर्तव्य है . हिमालय की उस महानता को बनाये रखना  हमारा राष्ट्रीय दायित्व भी है .

राहुल गांधी ने अपने बड़े नताओं को बीजेपी का सहयोगी बताकर कालिदास की परम्परा का निर्वाह किया है


 

शेष नारायण सिंह

 

 

कांग्रेस कार्यसमिति की  बैठक में राहुल गाधी ने अपनी पार्टी को भारी नुक्सान पंहुचा दिया है . उन्होंने कह दिया कि जिन 23 लोगों ने पार्टी के ओवरहाल के लिए चिट्ठी लिखी है उनमें से कुछ लोग बीजेपी से सम्पर्क में  हैं और  सत्ताधारी पार्टी के इशारे पर काम कर रहे हैं . चिट्ठी लिखने वालों में  से एक कपिल  सिब्बल  इस बात से बहुत नाराज़ हो गए और उन्होंने ट्वीट कर दिया कि हमेशा से ही कांग्रेस के लिए उसके हित में लड़ते रहे हैं और तीस वर्षों से कांग्रेस का ही साथ दिया है . उधर गुलाम नबी आज़ाद ने कह दिया कि अगर राहुल  गांधी के आरोप सही पाए गए तो वे इस्तीफा  दे देंगे. राहुल गांधी के कथित बयान के बाद दो बड़े कांग्रेस  नेताओं के बयान आ जाने के बाद कांग्रेस में डैमेज कंट्रोल की कवायद शुरू हो गयी और पार्टी के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कपिल सिब्बल के ट्वीट का जवाब दिया और कहा कि राहुल  गांधी के हवाले से जो बात मीडिया में कही जा रही है वह डिसइन्फार्मेशन की साज़िश है . राहुल गांधी ने इस तरह का एक शब्द भी नहीं कहा है . हर मिनट रंग बदल रही कांग्रेस की खबरों के बीच कापिल सिब्बल का एक और बयान आ गया जिसमें उन्होंने कहा कि राहुल  गांधी ने उनको बताया  है कि  ऐसा उन्होंने कुछ नहीं कहा .सिब्बल ने उसके बाद अपना ट्वीट वापस ले लिया है . बहरहाल जो भी हो 23 नेताओं की चिट्ठी के बाद कांग्रेस बहुत  बड़े संकट में है .

 

राहुल गांधी ने कपिल सिब्बल से तो कह दिया कि ऐसा उन्होंने कुछ नहीं कहा लेकिन उसी मीटिंग में मौजूद गुलाम नबी आज़ाद से कुछ नहीं कहा . ऐसा लगता है कि राहुल गांधी और उनके परिवार का गुस्सा गुलाम नबी आज़ाद से ज़्यादा है .  कपिल सिब्बल एक बहुत ही सफल वकील हैं . वे अपनी वकालत से कांग्रेस नेताओं को प्रभावित करने के बाद कांग्रेस में गए हैं . उन्होंने बहुत सारे मुक़दमों में कांग्रेस और  सोनिया गांधी के परिवार की मदद की है .  लेकिन गुलाम नबी आज़ाद  कांग्रेस की डायरेक्ट भर्ती वाले नेताओं में  शामिल  हैं . उनको संजय  गांधी ने कांग्रेस में इंदिरा गांधी के जीवन काल में शामिल किया था . वे अपने राज्य से चुनाव जीतने की स्थिति में कभी नहीं थे . कभी महाराष्ट्र तो कभी आंध्र प्रदेश से चुनाव लड़ाए गए . जब लोकसभा चुनाव नहीं जीत सके तो कांग्रेस के प्रभाव वाले अलग अलग राज्यों से राज्य सभा में लाये गए . जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री भी बनाए गए .उनकी पूरी  राजनीतिक यात्रा में संजय गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी की कृपा का योगदान है .आज भी गुलाम नबी आज़ाद कांग्रेस पार्टी की तरफ से राज्यसभा में नेता हैं और उसी के बल पर वे   विपक्ष के नेता भी हैं . नेता विपक्ष को कैबिनेट मंत्री की सुविधाएं मिलती हैं . जिस राज्यसभा में वे विपक्ष के नेता हैं उसमें डॉ मनमोहन सिंह , ए के अंटनी  जैसे  नेता भी हैं .ऐसा लगता है कि राहुल गांधी उनके बगावती तेवर से खासे नाराज़ थे . और उसी  रौ में वे यह सब बोल गए . कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में मौजूद गुलाम नबी आज़ाद ने तो इस्तीफे की पेशकश भी कर  दी .लेकिन दिल्ली के सत्ता के गलियारों में यह बात बहुत जोर शोर से चल रही है इतनी बड़ी बात हो जाने के बाद उनको इस्तीफे की पेशकश नहीं सीधे इस्तीफ़ा दे देना चाहिए क्योंकि जिन लोगों की कृपा से वे अपने  पद पर  हैं , वे नाराज़ हैं तो उनके पद पर बने रहने का कोई औचित्य  नहीं है .

 

23 नेताओं की चिट्ठी और उसके बाद बुलाई गयी कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के बाद कांग्रेस में बहुत कुछ बदलने वाला  है. सबसे बड़ा सवाल तो राहुल  गांधी की नेतृत्व क्षमता  का ही होगा.इस  बात में दो राय नहीं है कि जिन 23 लोगों ने चिट्ठी लिखी है उसमें से हरियाणा के भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के अलावा  सभी नेता लुटियन बंगलो ज़ोन की शान बढाने वाले नेता ही हैं  . इनमें से ज्यादातर ज़मीनी मजबूती के कारण नेता नहीं बने हैं . इन सब पर इंदिरा गांधी परिवार की कृपा बरसती रही है और  उसी कारण यह लोग राजनीतिक सत्ता का लाभ  उठाते  रहते हैं. अजीब बात यह है कि उस कांग्रेस पार्टी में ऐसे लोग नेता हैं जिसमें कभी पूरे भारत के गाँवों और शहरों से आये  जननेता कांग्रेस के फैसले लिया करते  थे. हालांकि जन नेताओं की इज्ज़त  पार्टी में इंदिरा गांधी के संजय गांधी के प्रभाव वाले युग से ही समाप्त होने लगी थी लेकिन 2013 में  संपन्न हुये  जयपुर की चिन्तन शिविर में जब राहुल गांधी को कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनाया गया  उसी दिन से यह काम तेज़ी पकड गया . हालांकि उन्होंने उस शिविर में जो बातें कहीं थीं अगर वे लागू हो  गई होतीं तो  कांग्रेस की दिशा  ही बदल गयी  होती. कांग्रेस के उपाध्यक्ष रूप में राहुल गांधी के नाम की घोषणा होने के बाद उन्होंने जयपुर  चिंतन शिविर की समापन सभा में कहा था कि “ हम टिकट की बात करते हैंजमीन पे हमारा कार्यकर्ता काम करता है यहां हमारे डिस्ट्रिक्ट प्रेसिडेंट बैठे हैंब्लॉक प्रेसिडेंट्स हैं ब्लॉक कमेटीज हैं डिस्ट्रिक्ट कमेटीज हैं उनसे पूछा नहीं जाता  हैं .टिकट के समय उनसे नहीं पूछा जातासंगठन से नहीं पूछा जाताऊपर से डिसीजन लिया जाता है .भइया इसको टिकट मिलना चाहिएहोता क्या है दूसरे दलों के लोग आ जाते हैं चुनाव के पहले आ जाते हैं,  चुनाव हार जाते हैं और फिर चले जाते हैं और हमारा कार्यकर्ता कहता है भइयावो ऊपर देखता है चुनाव से पहले ऊपर देखता हैऊपर से पैराशूट गिरता है धड़ाक! नेता आता हैदूसरी पार्टी से आता है चुनाव लड़ता है फिर हवाई जहाज में उड़ के चला जाता है।“ 

लोगों में उम्मीद बंधी थी कि कांग्रेस को एक ऐसा नेता मिल गया  है जो अगर  सत्ता में रहा तो कांग्रेस पार्टी के  आम कार्यकर्ता  को पहचान दिलवाएगा .और  अगर  विपक्ष में रहा तो  ज़मीनी सच्चाइयां बाहर आयेंगीं. लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं हुआ .राहुल गांधी कांग्रेस के उपाध्यक्ष थे लेकिन सारे  फैसले वे ही लेते थे .उन्होंने जो फैसले लिए उनसे कांग्रेस को  बहुत नुक्सान ही हुआ . पंजाब में अमरिंदर सिंह की मर्जी के खिलाफ किसी बाजवा जी को अध्यक्ष बनाया , हरियाणा में भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के खिलाफ अशोक तंवर को चार्ज दे दिया . वे बाद में बीजेपी उम्मीदवारों के लिए प्रचार करते पाए गए . मध्यप्रदेश में सोनिया गांधी की पसंद दिग्विजय सिंह को दरकिनार करने के  चक्कर में  ज्योतिरादित्य सिंधिया को आगे किया , मुंबई कांग्रेस के मुख्य मतदाता  उत्तर भारतीय , दलित और अल्पसंख्यक हुआ करते थे लेकिन वहां पूर्व शिवसैनिक संजय निरुपम को  अध्यक्ष बनाकर पार्टी को बहुत  पीछे धकेल दिया . उत्तर प्रदेश का चार्ज किन्हीं मधुसूदन मिस्त्री को दे दिया जिनके जीवन का  सबसे बड़ा राजनीतिक काम यह था कि वे वडोदरा में एक बार किसी बिजली के खम्बे पर चढ़कर वे नरेंद्र मोदी का कोई पोस्टर सफलता पूर्वक उतार चुके थे .नैशनल हेराल्ड जैसे राष्ट्रीय आन्दोलन के अखबार को ख़त्म करके निजी संपत्ति बनाने की कोशिश की . सबसे बड़ी बात यह कि उनके उपाध्यक्ष बनने के साथ ही  नरेंद्र मोदी गुजरात को छोड़कर  राष्ट्रीय राजनीति में आये . कहा जाता है कि नरेंद्र मोदी के प्रचार में सबसे बड़ा योगदान राहुल गांधी का ही रहता रहा है क्यंकि वे ऐसा कुछ ज़रूर  बोलते या करते रहे हैं जिससे  बीजेपी को  कांग्रेस की धुनाई करने का अवसर  मिल जाता है .

कांग्रेस कार्यसमिति में अपने  23 नेताओं के पत्र को  बीजेपी के लाभ के लिए लिखा गया पत्र बताकर राहुल गांधी ने अपनी उसी  परम्परा को एक बार फिर बुलंदी दी  है जिसके लिए बीजेपी के नेता लोग उनका एहसान मानते हैं .उनका आज का बयान भी उसी कालिदासीय  श्रृंखला का कारनामा माना जाएगा  जिसमें महाकवि  कालिदास जिस डाल पर  बैठे थे उसी को काट रहे थे . अपनी पार्टी के बड़े नताओं के बारे में आक्रामक बयान देकर राहुल गांधी ने अपनी पार्टी का जो नुकसान किया  है उसका आकलन  होने में समय लगेगा .

मनोवैज्ञानिक इलाज को भी अन्य बीमारियों की तरह ही महत्व देना पड़ेगा


शेष नारायण सिंह

 

 

फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह की  कथित   आत्महत्या और उनके  प्रदेश बिहार में आसन्न चुनावों के मद्दे-नज़र एक आत्महत्या भी राजनीतिक चर्चा का विषय बन गयी है . मामला यहाँ तक पंहुच गया है  कि सुप्रीम   कोर्ट को जांच एजेंसी के चुनाव के मामले में फैसला देना पडा. मुंबई में  ही सिनेमा जगत से जुड़े बहुत सारे लोगों की आत्महत्याओं की खबर आ रही है . देश के अन्य इलाकों में भी आत्महत्याएं हो रही हैं. जब कोरोना के चलते लॉकडाउन एक महीने के बाद भी बढ़ाना पड़ा था तो बहुत से मनोविज्ञानिकों ने चेतावनी  दी थी कि अपने अपने घरों में अकेले बंद लोगों को   चाहिए कि बिलकुल  तनहा न हो जाएँ.  किसी जगह आना जाना या लोगों से मिलना जुलना, सिनेमा , बाज़ार आदि तो सब बंद था  .   लेकिन फोन से ही अपने इष्ट मित्रों से संपर्क बनाये रखना उपयोगी था. यह भी आगाह किया गया था कि किसी मित्र की  भावनाओं को आहत न किया जाए क्योंकि अगर भावनाएं आहत होंगीं तो आदमी डिप्रेशन का शिकार हो सकता है .मीडिया में आ रही सुशांत राजपूत की मृत्यु की घटनाओं के क्रम को देखा जाए तो  वहां भी कुछ ऐसा ही लग रहा है . एक घनिष्ठ मित्र उनका साथ छोड़कर चली गयी जिसके पूरे परिवार को वे अपना परिवार मान बैठे थे. उनका फोन लेना बंद कर दिया क्योंकि उनको ब्लॉक कर दिया था . सुशांत के  पिता का आरोप है कि उनकी मित्र और उनके परिवार ने उनसे भारी आर्थिक मदद भी ली थी. अगर यह आरोप सच है तो डिप्रेशन और  पछतावा का सीधा मामला बनता है . सच्चाई क्या है वह तो  जांच में पता लगेगी लेकिन महानगरीय जीवन  जीने वालों के बीच आत्महत्या के प्रमुख कारणों में निराशा और  डिप्रेशन की भूमिका का महत्वपूर्ण स्थान तो हैं ही, बहुत ही ऊंचे  लक्ष्य तय करके उनको हासिल करने के  प्रयास के दौरान होने वाली निराशा का भी बहुत बड़ा  योगदान है . मनुष्य जब अकेला पड़ जाता है तो उसे अपना जीवन समाप्त करने की ललक मुक्ति का साधन लगती है . यह दोषपूर्ण तर्क पद्धति है ,इससे बचना चाहिए ... 

 

बंगलोर में कोरोना , तनहाई, निराशा और  ऊंचे लक्ष्य की और पंहुचने की कोशिश कर रहे एक नौजवान की आत्महत्या के मामले  ने उसके मित्रों और परिवार वालों में शोक की लहर दौड़ा   दी है .बंगलोर का इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ साइंस देश का सर्वश्रेष्ठ शिक्षा और शोध का केंद्र माना जाता है. वहां प्रवेश पाना ही अपने आप में किसी भी छात्र के मेधावी होने का प्रमाण है. अभी खबर आई है कि वहां पढ़ रहे एम टेक के एक  छात्र ने आत्महत्या कर ली  है . बताया गया  है कि छत्तीसगढ़ के  रहने वाले उस छात्र ने  अपने कुछ दोस्तों को  फोन पर मेसेज भेजा कि उसको अपने अन्दर  कोविड19 के कुछ लक्षण दिख  रहे हैं . ज़ाहिर  है अब जीवन का अंत होने वाला है इसलिए मैं खुद ही अपने आपको ख़त्म कर दूंगा . इस तरह के सन्देश उसके कई  दोस्तों को मिले.  दोस्त घबडा गए . अपने तरीके से उसको रोकने की कोशिश करने लगे .उनमें से एक ने संस्थान के अधिकारियों से संपर्क किया और उनको जानकारी दी .लेकिन जब संस्थान के कर्मचारी उस लड़के के हास्टल के कमरे  में पंहुचे  तब तक  बहुत देर हो चुकी थी. उसने फांसी लगा ली थी. वह तो चला  गया लेकिन उसने एक बार उन सवालों को फिर से जिंदा कर  दिया  है जो बार बार पूछे जाने चाहिए. पूछे भी गए हैं लेकिन जवाब नहीं आता .  यह सवाल सरकार से नहीं पूछे जाने चाहिए . यह सवाल समाज से मीडिया से परिवार से , स्कूलों से मित्रों से और बहुत ऊंचे सपने पालने वाले मिडिल क्लास से पूछे  जाने चाहिए . बंगलौर के साइंस इंस्टीट्यूट के छात्र की आत्महत्या का सवाल तो सीधे सीधे  मीडियाखास तौर से  टेलिविज़न मीडिया की तरफ ही केन्द्रित  हैं. जब से कोरोना का संकट शुरू हुआ है टीवी स्क्रीन पर कोरोना के आत्नक की लगातार बमबारी चल  रही है वह लोगों के मन में  दहशत  फैला चुका है . लोगों के दिमाग में यह बात भर दी गयी है कि कोरोना   की छूत लगते ही मौत की उल्टी गिनती शुरू हो जाती है . जबकि यह सच नहीं है. कोरोना के वायरस के हमले के बाद बहुत सारे लोग ठीक होकर घर आ गए हैं . यह बताया जाना ज़रूरी है कि कोविड 19 भी एक तरह का वायरल जुकाम है .  लोग कहते थे कि जुकाम की दवा करो तो सात दिन में ठीक होता है और अगर दवा न करो तो एक हफ्ते में लग जाते हैं . शरीर के  अंदर जो रोगप्रतिरोधक या इम्युनिटी की क्षमता  है वह उसके संक्रमण को निष्क्रिय करने  में सक्षम है .  मैं ऐसे कई मामले जानता हूँ जहां किसी संक्रमित व्यक्ति के संपर्कों की जांच के सिलसिले में  कुछ मामले ऐसे पाए गए जिनको कोरोना संक्रमण कुछ समय पहले हो चुका था और वे  ठीक भी हो चुके थे . यह बातें केस स्टडी के ज़रिये किसी भी चैनल ने नहीं  चलाया . जबकि इससे माहौल  थोडा हल्का हो सकता था .अगर इस तरह के मामले भी हाइलाईट किये गए होते तो कोरोना की  जो दहशत फैली है वह उस रूप में न फैली होती  . कोरोना के संक्रमण के बाद ठीक होने वालों की संख्या  मरने वालों की संख्या से बहुत ज़्यादा  है.  सत्ता के सर्वोच्च मुकाम पर बैठे गृहमंत्री अमित शाह को भी  कोरोना संक्रमण  हो गया था और वे  ठीक होकर  अस्पताल से घर आ गए. ऐसे बहुत सारे मामले हैं. बंगलोर के उस छात्र को इन सभी सूचनाओं को आत्मसात करना चहिये था जिससे उसके अन्दर निराशा कभी न आती .लेकिन उसने कठिन रास्ता अपना लिया .अधूरी सूचना के आधार पर होने वाली आत्महत्याओं की संख्या कम  नहीं है . इसलिए अधूरी सूचना के प्रचार प्रसार को उत्साहित नहीं किया जाना चाहिए .

 

अभी एक दूसरी आत्महत्या की सूचना मिली है . मेरे  बहुत ही करीबी परिवार के अठारह साल के  बच्चे ने आत्महत्या कर ली है . लड़का आई आई टी की प्रवेश  परीक्षा की तैयारी कर रहा था . बारहवीं की  परीक्षा में बहुत अच्छे नंबर आये थे . मार्च से ही अपने घर में  रहकर पढ़ाई लिखाई चल  रही थी. लॉकडाउन के चलते बाहर निकलकर खेलना बंद था .अपने हमउम्र बच्चों से मिलना जुलना भी नहीं हो रहा था. परिवार  में उच्च शिक्षा का माहौल था.  उसके पिता और बाबा की पीढ़ी में परिवार के लोग बड़े पदों पर थे. सब लोगों ने बिना किसी दबाव के पढ़ाई लिखाई की थी .उसके बाबा के बड़े भाई तो स्वंत्रतता संग्राम सेनानी थे संविधान सभा के सदस्य थे . पहलीदूसरी और तीसरी लोकसभा के सदस्य थे. उसके मातापिता ने उसको किसी तरह का टारगेट नहीं दिया था लेकिन  साथ पढने वाले लड़कों से स्पर्धा का भाव ज़बरदस्त थास्कूल के अधिकारी  भी इंजीनियरिंग और मेडिकल में अपने छात्रों की सफलता की गाथा बनाने के लिए  उत्साहित करते रहते थे . लड़के की ज़िन्दगी में कहीं  किसी तरह की निराशा नहीं थी. उसके पिताजी के भाई बहन पूरे देश में रहते  हैं. उसकी अपनी  चचेरी ममेरी फुफेरी बहनें उसकी राखी बांधती थीं .  देश के लगभग सभी  बड़े शहरों में उसके भाई बहन रहते  हैं.   लेकिन उस लड़के ने आत्महत्या कर ली. बात समझ में नहीं आती है . ऐसा क्यों हुआ . उसको समझने के लिए आज से करीब अठाईस साल पहले अपने देश में शुरू हुई आर्थिक उदारीकरण और  भूमंडलीकरण की नीतियों के उपजे अवसर और महत्वाकांक्षाओं पर एक नज़र डालनी होगी. इन नीतियों के भारत में लागू होने के बाद भारत बाकी दुनिया से बरास्ता इंटरनेट जुड़ गया और ग्लोबल विलेज की  अवधारणा में समाहित हो गया .इस  अवधारणा के जन्म के  बाद आज  महत्वाकांक्षी बच्चों के सामने जो लक्ष्य मुंह फाड़कर खड़े हो जाते हैं वे उनको कहीं का नहीं छोड़ते. उन  लक्ष्यों को पकड़ से बाहर जाता देख वे फिर से लड़ने की तैयारी नहीं करते और कई स्थानों से उनकी आत्महत्या की ख़बरें आती हैं .

जबसे अखबारों में आई आई टी और आई आई एम  से पढाई करने वालों के बहुत बड़े बड़े पैकेज छपने लगे हैं ,तब से यह प्रवृत्ति बढ़ी है .बच्चों की स्पर्धा की चाहत को हवा देकर स्कूल कालेजों में होने वाली पढ़ाई को नाकाफी बताकर बहुत सारे लोगों ने नौजवानों को सपने दिखाए . उनकी पसंद के मेडिकल इंजीनियरिंग कालेज में प्रवेश या उनकी पसंद की आई ए एस आदि नौकरियों के सपनों को साकार करने के लिए हर शहर में कोचिंग संस्थानों की स्थापना हो गयी है . इन संस्थानों को चलाने वालों की आर्थिक और राजनीतिक ताक़त भी बहुत बढ़ गयी है .बच्चों में असंभव को पा लेने की इच्छा को हवा देकर उनको आत्महत्या के अँधेरे कुएं में झोंक देने के लिए कोचिंग का रैकेट चलाने वाले  माफिया  भी  छात्रों के बीच बढ़ रही आत्महत्याओं के लिए ज़िम्मेदार हैं  . उनपर भी रोक लगाई जानी चाहिए . उनको रोकने के लिए तो सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल ही किया  जाना चाहिए . अक्सर यह खबर आती है कि आई आई टी में प्रवेश ले चुके कुछ बच्चों ने आत्महत्या कर  ली  क्योंकि वह कक्षा में  पढ़ाई को  समझ नहीं पा रहे थे. दर असल उन बच्चों की रूचि कुछ और पढने में थी लेकिन मातापिता  ने उनके पीछे पड़कर उनको आई आई टी में पढने के लिए मजबूर कर दिया . आई आई टी में कुछ समय बिताने के बाद उनको लगता है कि वे गलत जगह फंस गए हैं .उनको आई आई टी में होना ही नहीं चाहिए था. यही हाल मेडिकल कालेजों का है . बहुत सारे  बच्चे प्रशासनिक नौकारियों में जाना चाहते हैं . वे  कुशाग्रबुद्धि होते भी हैं लेकिन मातापिता के  दबाव के चलते आई आई टी या किसी मेडिकल कालेज में चले जाते  हैं. उसके बाद वे आई ए एस  या आई आई एम में जाते हैं . यानी अगर वे बी ए या बी एससी  करके भी आई ए एस या आई आई एम की  प्रवेश परीक्षा देते तो भी उसमें चुनाव अवश्य हो जाता लेकिन मातापिता के सपनों को जिंदा रखने के लिए पांच साल तक इंजीनियरिंग या मेडिकल की पढ़ाई करने के बाद , राष्ट्रीय संसाधनों को अपनी  शिक्षा में लगवाने के बाद वे सिविल सर्विस या  प्रबंधन में करियर चुनते  हैं. इस प्रवृत्ति पर भी लगाम लगाने की ज़रूरत है . यह भी नौजवानों में बेकार होने की  अनुभूति से भर देता है. और जब इंसान में यह विचार हावी हो जाए कि वह कुछ बेमतलब कर रहा है तो उसके सामने आत्महत्या करने की संभावना पढ़ जाती  है . 

अपने देश में मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता की भारी कमी है . यूरोप और अमरीका के विकसित  देशों में मनोवैज्ञानिक काउंसिलिंग बहुत ही साधारण  सी बात मानी जाती है जिससे डिप्रेशन की संभावना बहुत कम  हो जाती है लेकिन अपने यहाँ इससे  लोग भागते हैं . अब मनोवैज्ञानिक  बीमारी को भी अन्य बीमारियों की तरह महत्व  देना पडेगा , तभी बात बनेगी .

Wednesday, August 19, 2020

लाल किले की प्राचीर का प्रधानमंत्री का भाषण आर्थिक विकास और विदेश संबंधों को नई दिशा देगा


 

शेष नारायण सिंह

 

15 अगस्त का प्रधानमंत्री का  लाल किले की प्राचीर से दिया गया   भाषण बहुत ही महत्वपूर्ण होता है . उस भाषण से देश और दुनिया को अनुमान लग जाता  है कि भारत  की  नीतियां किस दिशा में जाने वाली हैं . इस बार भी प्रधनामंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को कई नए सन्देश  दिए . कोरोना के संकट काल  में उनका या संबोधन एक नए तरह का संबोधन है . हर साल जैसी भीड़ नहीं थी. स्कूल के बच्चों को इस बार नहीं बुलाया गया था . मेहमानों की संख्या भी कम थी .प्रधानमंत्री एक घंटा और 27 मिनट बोले और लगभग सभी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों को कवर किया . चीन और पाकिस्तान को चेतावनी बिलकुल स्पष्ट  शब्दों में दे  दी गयी कि  भारत की सीमाओं से छेड़छाड़ करने के कोशिश की तो मुश्किल होगी , उन्होंने साफ़ कहा कि एल ए सी और एल ओ सी की  हिफाज़त हमारे वीर सैनिक पूरी मुस्तैदी से कर रहे हैं . उन्होंने चीन के लदाख  में घुसने की कोशिशों को पहले भी विस्तारवाद का नाम दिया था . आज लाल किले से पूरी दुनिया को बता दिया कि चीन अब  विस्तारवाद के  पर्यायवाची के रूप में देखा जायेगा . ठीक उसी तरह से जैसे  आतंकवाद शब्द का प्रयोग होते ही पाकिस्तान की तरफ संकेत हो जाता है . प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में कहा कि  भारत आतंकवाद और विस्तारवाद ,दोनों को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए पूरी तरह से तैयार है . सीमाओं की सुरक्षा के बारे में उन्होंने एक बहुत अच्छी बात  यह कही कि सीमावर्ती इलाकों में एन सी सी  के कैडेटों की बहुत बड़ी संख्या को  थलसेना, नौसेना और  वायुसेना के लोग विशेष रूप से ट्रेनिंग देंगें और वे सीमाओं की सुरक्षा के लिए  ज़रूरी तैयारियों में मदद देंगे. इन  कैडेटों में एक तिहाई लड़कियों को शामिल किया जाएगा. लड़कियों और महिलाओं को विकास यात्रा में तो शामिल किया ही जा  चुका है. देश की सीमाओं की रक्षा के लिए इतने बड़े पैमाने पार लड़कियों को शामिल करने की पहल निश्चित रूप से एक अग्रगामी क़दम है .

इस बार के लाल किले के प्रधानमंत्री के भाषण में कुछ ऐसी  बातें हैं जिनका असर बहुत  दूर तलक जाएगा . कोरोना के संकट के दौर में यह भाषण हुआ है . कोरोना की वैक्सीन  की तैयारी के बारे में  उन्होंने विस्तार से बताया और देश को सूचित किया कि तीन प्रयोगशालाओं की वैक्सीन ट्रायल के  स्तर पर बहुत आगे पंहुच चुकी  हैं और वैज्ञानिकों की मंजूरी मिलते ही उनको देश के हर व्यक्ति तक पंहुचाया जा सकेगा . यह बहुत बड़ी बात है क्योंकि अभी तक वैक्सीन के मामले में भारत हमेशा से ही दूसरे देशों के शोध के सहारे ही रहता रहा है .  जन स्वास्थ्य के सम्बन्ध में आज नरेंद्र मोदी ने जो घोषणा की है वह क्रांतिकारी मानी  जायेगी .  उन्होंने नैशनल डिजिटल हेल्थ मिशन की  बात की . इसके तहत देश की पूरी आबादी को कवर कर लिया जाएगा . जिस तरह से देश के हर व्यक्ति के पास आधार कार्ड है उसी तरह से सबके पास एक हेल्थ पहचान कार्ड होगा.  जिसमें टेक्नोलोजी की मदद से उस व्यक्ति के स्वास्थ्य और बीमारी से सम्बंधित सारी  जानकारी होगी. यह बहुत बड़ी बात है . स्वास्थ्य के बारे में अब तक लागू की गयी सभी स्कीमों को अगर इस हेल्थ कार्ड से मिला दिया गया  तो लोगों के स्वास्थ्य प्रबंधन में बहुत ही सुभीता होगा. ग्रामीण इलाकों में चिकित्सा सुविधा एक बड़ी समस्या है .प्रधानमंत्री ने साफ़ कहा कि डेढ़ लाख गाँवों में वेलनेस सेंटर की स्थापना का काम शुरू किया जा चुका है . यानी देश के  पचीस प्रतिशत गाँवों में यह सुविधा हो जायेगी . सरकार का लक्ष्य देश के सभी छः लाख गाँवों में यह सुविधा पंहुचा देने का है . इसमें संचार टेक्नोलोजी की प्रमुख भूमिका होने वाली  है .  उसकी भी व्यवस्था कर ली गयी है .अगले एक हज़ार दिन के अंदर देश के सभी छः लाख गाँवों को आप्टिकल फाइबर से जोड़ दिया जायेगा ज्सिएक बाद दिल्ली जैसी संचार व्यवस्था देश के सुदूर गाँवों में भी लागू कर  दी जायेगी .

प्रधानमंत्री के भाषण का स्थाई भाव आत्मनिर्भर भारत  ही रहा . उन्होंने रक्षामंत्री के कुछ दिन पहले किये गए वायदे का ज़िक्र किया जिसके  तहत एक सौ से ऊपर रक्षा उपकरणों के आयात पर प्रतिबन्ध  लगा दिया गया है . इसका भावार्थ यह  हुआ कि अपनी ज़रूरत के लिए तो भारत  का रक्षा उद्योग हथियार आदि का निर्माण करेगा ही , एशिया और अफ्रीका के जो देश अभी यूरोप और अमरीका से रक्षा के सामान की खरीद  करते हैं  वे भारत से आयात कर सकेंगे  . इसी सन्दर्भ में उन्होंने एक नई बात भी कही. उन्होंने देश में कई साल पहले मेक इन इण्डिया की स्कीम की नीति लागू की थी . आज उन्होंने ऐलान किया कि अब मेक फॉर द वर्ल्ड का नीति लागू की जायेगी . यह नीति बहुत ही सामयिक है .. चीन ने पूरी दुनिया  को कोरोना के संकट में डालकर यूरोप और अमरीका के लगभग सभी बड़े उद्योगों और सरकारों को नाराज़ कर दिया है . विकसित देशों में महंगी मजदूरी से बचने के लिए ज्यादातर बड़ी और मझोली कम्पनियां अपने उत्पादन का मैनुफैक्चरिंग बेस चीन में ही रखती चली आ रही हैं . लेकिन चीन की विस्तारवादी नीति और गैरज़िम्मेदार  डिप्लोमेसी  के चलते वहां से हटाना चाहती हैं . बड़ी संख्या में कारखाने चीन से हटकर   वियतनाम,  दक्षिण कोरिया और ताइवान में काम करना शुरू भी कर चुके हैं . भारत सरकार की कोशिश है कि चीन से हटने वाली बड़ी कम्पनियां भारत में मैनुफैक्चरिंग बेस स्थापित करें . सरकार ने इसके लिए तैयारी भी पूरी कर  ली है . श्रम कानूनों में सुधार , बैंकिंग व्यवस्था में सुधान, इंश्योरेंस में सुधार सब पहले  ही हो चुका है . आज प्रधानमंत्री ने जब  बात के लिए आवाहन किया कि मेक फॉर इण्डिया  तो ठीक है लेकिन अब मेक फॉर वर्ल्ड का समय आ गया है ,तो वे चीन से देशों के विमुख  होने की वैश्विक राजनीति को एक दिशा दे रहे थे और उसमें भारत के लिए स्थान सुनिश्चित करने की बात कर रहे थे.  “ सामर्थ्य मूलं स्वातन्त्र्यं , श्रम मूलं वैभवं “ का जो मंत्र उन्होंने अपने भाषण में कहा उसका तात्पर्य यही है . यानी ताकत ही आज़ादी के मूल में है और मेहनत से ही वैभव आता है .

विदेशनीति में भारत की प्राथमिकता पड़ोसियों से अच्छे सम्बन्ध की रही है. पाकिस्तान और चीन से भी अच्छे सम्बन्ध बनाने की पूरी कोशिश की जाती रही है लेकिन उन दोनों ही देशों की प्राथमिकताएं कुछ अलग ही नज़र आती हैं . प्रधानमंत्री ने आज पड़ोसी देश  की एक  नयी परिभाषा दी.  उन्होंने  कहा कि भौगोलिक सीमा से लगे हुए देश तो पड़ोसी होते ही हैं ,जिनसे दिल मिलता है वे भी पड़ोसी होते हैं . उन्होंने स्पष्ट किया कि पश्चिम एशिया के देशों को भी अब से पड़ोसी माना जाएगा और उनको एक्सटेंडेड नेबरहुड  की श्रेणी में रखा जाएगा . पिछले पांच  वर्षों में भारत ने पश्चिम एशिया के देशों से जो दोस्ती के सम्बन्ध बनाए हैं वह बहुत ही महत्वपूर्ण  हैं. इस विस्तृत पड़ोसी की अवधारणा में अब तक पाकिस्तान के मददगार रहे साउदी अरब को भी शामिल किया  गया है. साउदी अरब ने पिछले दिनों कश्मीर मुद्दे पर  पाकिस्तान को फटकार कर यह साबित भी कर दिया  है कि वह  भारत से दोस्ती को महत्व देता है . प्रधानमंत्री के एक्सटेंडेड नेबरहुड के सिद्धांत में उनका मेक फॉर वर्ल्ड का विज़न सही बैठता है . पश्चिम एशिया के  देश यूरोप और अमरीका से बहुत ही ज़्यादा सामान मंगाते हैं . मेक फॉर वर्ल्ड की  नीति के हिसाब से उनकी ज़रूरतों को भी ध्यान में रखा जा सकता  है.

 कोरोना संकट ने एक बात साफ़ कर दिया कि भारत खाद्य सामग्री के उत्पादन में न केवल आत्मनिर्भर  है बल्कि वह  विदेशों में भी अन्न भेज सकता है .लेकिन अनाज की एक राज्य से दूसरे राज्य की आवाजाही पर ही  रोक लगी हुयी थी . उन्होंने कहा कि खेती की पैदावार के आवाजाही पर जो रोक   लगी  हुई थी वह ख़त्म कर दी गयी है और अब देश में किसान अपने उत्पादन को कहीं भी बेच सकता है . उसके अलावा विदेशों में भी कृषि उपज को भेजने में अब कोई दिक्कत पेश नहीं  आयेगी . यह किसानों के लिए  और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए बहुत ही बड़ा   क़दम है. ग्रामीण भारत में इससे  बहुत बड़ा फर्क  पड़ने वाला  है. इस तरह से कहा जा सकता  है कि लाल किले की  प्राचीर से दिए गए    प्रधानमंत्री के भाषण की धमक चीन और  पाकिस्तान के साथ साथ पूरी दुनिया में महसूस की जायेगी .देश की अर्थव्यवस्था के लिए भी यह एक महत्वपूर्ण  सन्देश है .

उत्तर प्रदेश में ब्राहमणों को वोट बैंक बनाने की कोशिश शुरू : भगवान परशुराम की मूर्ति स्थापित करने के दावे


 

शेष नारायण सिंह

 

उत्तर प्रदेश में लगातार चलती  रहने वाली मूर्तियों की लड़ाई में परशुराम की मूर्ति से जुड़े मुद्दों ने नई इंट्री मारी है . उत्तर  प्रदेश में विधानसभा चुनाव २०२२ में  होंगे लेकिन लामबंदी अभी से शुरू हो गयी है . पहली बार ऐसा हो रहा है कि ब्राह्मण भी वोट बैंक की तरह माने जा रहे हैं . समाजवादी पार्टी ने ब्राह्मणों के एक वर्ग के  आराध्य के रूप में पहचाने  जाने वाले भगवान  परशुराम की मूर्ति लगवाने की पेशकश कर दी है . पार्टी के नेता अभिषेक मिश्र को पार्टी के ब्राह्मण फेस के रूप में पेश किया जा रहा है.   आई आई एम अहमदाबाद में प्रोफेसर रहे हैं. वे काबिल व्यक्ति हैं .  ब्राह्मणों को साथ लेने का आइडिया उनका ही है . २००७ के चुनावों में समाजवादी पार्टी से नाराज़ ब्राह्मण अधिकारियों ने बहुजन समाज पार्टी को जिताने के लिया माहौल बना दिया था . उत्तर प्रदेश की राजनीति की एक ख़ास बात यह  है कि सरकारी कर्मचारी और अफसर चुनावों  में खासे प्रभावी तरीके से दखल देते हैं . जहां तक बहुजन समाज पार्टी के उदय की बात है उसमें तो सरकारी अफसरों का बड़ा योगदान रहा है . बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक स्व कांशी राम ने अपनी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत ही सरकारी कर्मचारियों के संगठन बनाकर की थी.उन्होंने  सवर्ण जातियों के खिलाफ दलित और पिछड़े सरकारी कर्मचारियों को एकजुट किया था. उनके आने के पहले दलित समाज का  लगभग पूरा वोट कांग्रेस को मिलता था. ब्राह्मणों का आधिपत्य कांग्रेस पार्टी में  तो शुरू से ही रहता था  . मुसलमान मतदाता उन दिनों  महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की पार्टी के साथ होते थे  इसलिए उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की जीत बहुत ही आसान हुआ करती थी.  बाद में  डॉ  राम मनोहर लोहिया ने पिछड़ी किसान जातियों को कांग्रेस के खिलाफ लामबंद करना शुरू कर दिया तो पिछड़ी जातियों के लोग उत्तर प्रदेश में राम सेवक यादव और बिहार में कर्पूरी ठाकुर की मेहनत के कारण संसोपा में जाने लगे थे . १९६३ में कन्नौज लोकसभा के उपचुनाव में जब डॉ लोहिया खुद उम्मीदवार हुए तो उनके चुनाव में मुलायम सिंह यादव ने बहुत काम  किया और मेंबर साहेब , नत्थू सिंह यादव के साथ मिलकर उस इलाके की बहुसंख्यक यादव जाति के मतदाताओं को एकजुट किया .उसके बाद जो चुनाव हुआ उसमें संसोपा ( संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी ) का टिकट इटावा जिले के जसवंतनगर सीट से मुलायम सिंह  यादव को मिल गया . मुलायम सिंह चुन लिए गए और पिछड़ी जातियों के नेता बनने की दिशा में चल पड़े .तब से अब तक उनको  ब्राह्मणों ने एकजुट होकर कभी वोट नहीं दिया . लेकिन अब उनको लगने लगा है कि उनकी पार्टी को  ब्राह्मण  जातियों का वोट मिल जाएगा  शायद इसीलिये अब उन्होंने ब्राह्मणों  की जाति के प्रतीक माने जाने वाले परशुराम की मूर्ति लगवाने की पेशकश शुरू कर  दी है .

समाजवादी पार्टी की  तरफ से  परशुराम की मूर्ति लगवाने की बात समझने के लिए जो उनके औपचारिक बयान आ रहे हैं ,उससे बात समझ में नहीं आई . समाजवादी पार्टी के एक बड़े नेता से बात करने पर थोडा बहुत सुराग लगा है . उनका कहना है कि जिस  तरह से समाजवादी पार्टी की सरकारें रहने पर जनरल माहौल बन गया था कि सारकार यादवों के हित में काम करती है उसी तरह से पिछले तीन साल से  उत्तर प्रदेश के गाँवों में माना जाने लगा है कि योगी आदित्यनाथ की सरकार ठाकुरों की सरकार है . राज्य में इन दो बड़ी जातियों में जिस तरह का आपसी विरोध का माहौल है उसी के मद्दे नज़र्र यह सोचा गया कि ब्राहमणों को साथ लेने की कोशिश की जाय. इस सवाल के जवाब में कि ब्राह्मण तो हमेशा से कभी कांग्रेस को तो कभी बीजेपी को वोट देता रहा है . वह अगर बीजेपी से नाराज़ भी होगा तो कांग्रेस में जाएगा . या अगर कांग्रेस में नहीं जाता तो २००७ में मायावती की मदद करके उनकी पूर्ण बहुमत की सरकार बनवा चुका है उन्होंने कहा कि माहौल बहुत बदल चुका है . राज्य में अब यह आम तौर पर माना जाता है कि बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती अब बीजेपी के खिलाफ कोई सख्त क़दम नहीं उठाएंगी . ताज़ा उदाहरण राजस्थान का है जहां उन्होंने वह हर काम किया जो बीजेपी के फायदे के लिए था . उत्तर प्रदेश में भी  बाहुजन समाज पार्टी की ज्यादातर जिला इकाइयां निष्क्रिय  हैं . इसलिए बीजेपी की उत्तर प्रदेश सरकार को हटाने के उद्देश्य से वोट देने वाली जमातें बसपा को वोट नहीं देंगीं . जहां तक कांग्रेस की बात है उसने अपने आपको इतना कमज़ोर कर लिया है कि अब उसके किसी तरह के विकल्प बनने की संभावना पर जनता तो विश्वास नहीं ही करते , खुद कांग्रेसी नेताओं को भी विश्वास नहीं है .जाता ही कि उसके बाद केंद्रीय  की है .

समाजवादी पार्टी की घोषणा होते ही मायावती ने  तुरंत वार किया और उत्तर प्रदेश सरकार से मांग की कि परशुराम जयंती पर सार्वजनिक अवकाश घोषित किया जाय .वे  कहती हैं कि अगर योगी सरकार ऐसा न किया तो सत्ता में आने पर वे छुट्टी की घोषणा खुद कर देंगीं .मायावती इतने पर ही नहीं रुकीं उन्होंने एक ट्वीट के  ज़रिये कहा कि  'मुझे मीडिया के माध्यम से यह पता चला है कि बीजेपी ने कहा है कि अगर जरूरत पड़ी तो उनकी सरकार श्री परशुराम की भव्य प्रतिमा स्थापित करेगी। अगर ऐसा होता हैतो हमारी पार्टी विरोध नहीं करेगी बल्कि उसका स्वागत करेगी। बीजेपी सरकार को ऐसा करने में देर नहीं करनी चाहिए। मुझे लगता है कि उन्हें इसे जल्द पूरा करना चाहिए।' समाजवादी पार्टी की ओर से भगवान परशुराम की मूर्ति लगाने की बात कही गई थी तो बीएसपी ने उससे बड़ी मूर्ति का दावा कर दिया। उधर  कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के मित्र और कांग्रेसी नेता जितिन प्रसाद ने ट्वीट के माध्यम से कहा कि  'जन-जन की आस्था के प्रतीक भगवान परशुराम जी जयंती पर वर्षो से चला आ रहा राजकीय अवकाश जो अब उ.प्र.में निरस्त है। ‘   कांग्रेस भी मूर्ति की राजनीति मेंबाक़यादा शामिल हो गयी है .

पिछले कुछ चुनावों में बीजेपी  को ब्राहमण समाज का समर्थन मिल रहा है .उनको भी इस राजनीति से चिंता होना स्वाभाविक है . विपक्ष को आड़े हाथों लिया और उनके नेता केशव प्रसाद मौर्य ने  कहा कि कांग्रेस और एसपी-बीएसपी के पास अब कोई मुद्दा नहीं रह गया है . इसलिये अब  पार्टी परशुराम की मूर्ति की बात करके मुद्दों से बहक रही है .

 

समाजवादी पार्टी के आदर्श पुरुष डॉ राम मनोहर लोहिया भी मूर्ति पूजा के खिलाफ थे और बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बाद डॉ बी आर आंबेडकर ने भी मूर्तिपूजा का समर्थन कभी  नहीं किया .  महात्मा बुद्ध ने तो पशुवध और पूजे जाने  लायक ईश्वर की  अवधारणा खिलाफ ही बौद्ध धर्म की स्थापना की थी .वे मूर्ति पूजा के भी खिलाफ थे उनके निर्वाण के पांच शताब्दी बाद उनके मत से हटकर नए बौद्ध  धर्म का अविष्कार करने की कोशिश में महायान वालों ने मूर्ति पूजा की बात की . भरहुत और साँची की के पास के टीलों की खुदाइयों में पहली बार मूर्त्तियां मिलने के साक्ष्य हैं  वरना मूल बौद्ध धर्म में तो मूर्ति की कोई बात ही नहीं थी.

आज उन्हीं लोहिया और आंबेडकर के नाम पर राजनीति करने वाले मूर्तियाँ लगाकर वोट लेने और वोट बैंक को संबोधित करने की  कोशिश कर रहे हैं .

मनोवैज्ञानिक इलाज को भी अन्य बीमारियों की तरह ही महत्व देना पड़ेगा

 शेष नारायण सिंह

 

 

फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह की  कथित   आत्महत्या और उनके  प्रदेश बिहार में आसन्न चुनावों के मद्दे-नज़र एक आत्महत्या भी राजनीतिक चर्चा का विषय बन गयी है . मामला यहाँ तक पंहुच गया है  कि सुप्रीम   कोर्ट को जांच एजेंसी के चुनाव के मामले में फैसला देना पडा. मुंबई में  ही सिनेमा जगत से जुड़े बहुत सारे लोगों की आत्महत्याओं की खबर आ रही है . देश के अन्य इलाकों में भी आत्महत्याएं हो रही हैं. जब कोरोना के चलते लॉकडाउन एक महीने के बाद भी बढ़ाना पड़ा था तो बहुत से मनोविज्ञानिकों ने चेतावनी  दी थी कि अपने अपने घरों में अकेले बंद लोगों को   चाहिए कि बिलकुल  तनहा न हो जाएँ.  किसी जगह आना जाना या लोगों से मिलना जुलना, सिनेमा , बाज़ार आदि तो सब बंद था  .   लेकिन फोन से ही अपने इष्ट मित्रों से संपर्क बनाये रखना उपयोगी था. यह भी आगाह किया गया था कि किसी मित्र की  भावनाओं को आहत न किया जाए क्योंकि अगर भावनाएं आहत होंगीं तो आदमी डिप्रेशन का शिकार हो सकता है .मीडिया में आ रही सुशांत राजपूत की मृत्यु की घटनाओं के क्रम को देखा जाए तो  वहां भी कुछ ऐसा ही लग रहा है . एक घनिष्ठ मित्र उनका साथ छोड़कर चली गयी जिसके पूरे परिवार को वे अपना परिवार मान बैठे थे. उनका फोन लेना बंद कर दिया क्योंकि उनको ब्लॉक कर दिया था . सुशांत के  पिता का आरोप है कि उनकी मित्र और उनके परिवार ने उनसे भारी आर्थिक मदद भी ली थी. अगर यह आरोप सच है तो डिप्रेशन और  पछतावा का सीधा मामला बनता है . सच्चाई क्या है वह तो  जांच में पता लगेगी लेकिन महानगरीय जीवन  जीने वालों के बीच आत्महत्या के प्रमुख कारणों में निराशा और  डिप्रेशन की भूमिका का महत्वपूर्ण स्थान तो हैं ही, बहुत ही ऊंचे  लक्ष्य तय करके उनको हासिल करने के  प्रयास के दौरान होने वाली निराशा का भी बहुत बड़ा  योगदान है . मनुष्य जब अकेला पड़ जाता है तो उसे अपना जीवन समाप्त करने की ललक मुक्ति का साधन लगती है . यह दोषपूर्ण तर्क पद्धति है ,इससे बचना चाहिए ... 

 

बंगलोर में कोरोना , तनहाई, निराशा और  ऊंचे लक्ष्य की और पंहुचने की कोशिश कर रहे एक नौजवान की आत्महत्या के मामले  ने उसके मित्रों और परिवार वालों में शोक की लहर दौड़ा   दी है .बंगलोर का इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ साइंस देश का सर्वश्रेष्ठ शिक्षा और शोध का केंद्र माना जाता है. वहां प्रवेश पाना ही अपने आप में किसी भी छात्र के मेधावी होने का प्रमाण है. अभी खबर आई है कि वहां पढ़ रहे एम टेक के एक  छात्र ने आत्महत्या कर ली  है . बताया गया  है कि छत्तीसगढ़ के  रहने वाले उस छात्र ने  अपने कुछ दोस्तों को  फोन पर मेसेज भेजा कि उसको अपने अन्दर  कोविड19 के कुछ लक्षण दिख  रहे हैं . ज़ाहिर  है अब जीवन का अंत होने वाला है इसलिए मैं खुद ही अपने आपको ख़त्म कर दूंगा . इस तरह के सन्देश उसके कई  दोस्तों को मिले.  दोस्त घबडा गए . अपने तरीके से उसको रोकने की कोशिश करने लगे .उनमें से एक ने संस्थान के अधिकारियों से संपर्क किया और उनको जानकारी दी .लेकिन जब संस्थान के कर्मचारी उस लड़के के हास्टल के कमरे  में पंहुचे  तब तक  बहुत देर हो चुकी थी. उसने फांसी लगा ली थी. वह तो चला  गया लेकिन उसने एक बार उन सवालों को फिर से जिंदा कर  दिया  है जो बार बार पूछे जाने चाहिए. पूछे भी गए हैं लेकिन जवाब नहीं आता .  यह सवाल सरकार से नहीं पूछे जाने चाहिए . यह सवाल समाज से मीडिया से परिवार से , स्कूलों से मित्रों से और बहुत ऊंचे सपने पालने वाले मिडिल क्लास से पूछे  जाने चाहिए . बंगलौर के साइंस इंस्टीट्यूट के छात्र की आत्महत्या का सवाल तो सीधे सीधे  मीडियाखास तौर से  टेलिविज़न मीडिया की तरफ ही केन्द्रित  हैं. जब से कोरोना का संकट शुरू हुआ है टीवी स्क्रीन पर कोरोना के आत्नक की लगातार बमबारी चल  रही है वह लोगों के मन में  दहशत  फैला चुका है . लोगों के दिमाग में यह बात भर दी गयी है कि कोरोना   की छूत लगते ही मौत की उल्टी गिनती शुरू हो जाती है . जबकि यह सच नहीं है. कोरोना के वायरस के हमले के बाद बहुत सारे लोग ठीक होकर घर आ गए हैं . यह बताया जाना ज़रूरी है कि कोविड 19 भी एक तरह का वायरल जुकाम है .  लोग कहते थे कि जुकाम की दवा करो तो सात दिन में ठीक होता है और अगर दवा न करो तो एक हफ्ते में लग जाते हैं . शरीर के  अंदर जो रोगप्रतिरोधक या इम्युनिटी की क्षमता  है वह उसके संक्रमण को निष्क्रिय करने  में सक्षम है .  मैं ऐसे कई मामले जानता हूँ जहां किसी संक्रमित व्यक्ति के संपर्कों की जांच के सिलसिले में  कुछ मामले ऐसे पाए गए जिनको कोरोना संक्रमण कुछ समय पहले हो चुका था और वे  ठीक भी हो चुके थे . यह बातें केस स्टडी के ज़रिये किसी भी चैनल ने नहीं  चलाया . जबकि इससे माहौल  थोडा हल्का हो सकता था .अगर इस तरह के मामले भी हाइलाईट किये गए होते तो कोरोना की  जो दहशत फैली है वह उस रूप में न फैली होती  . कोरोना के संक्रमण के बाद ठीक होने वालों की संख्या  मरने वालों की संख्या से बहुत ज़्यादा  है.  सत्ता के सर्वोच्च मुकाम पर बैठे गृहमंत्री अमित शाह को भी  कोरोना संक्रमण  हो गया था और वे  ठीक होकर  अस्पताल से घर आ गए. ऐसे बहुत सारे मामले हैं. बंगलोर के उस छात्र को इन सभी सूचनाओं को आत्मसात करना चहिये था जिससे उसके अन्दर निराशा कभी न आती .लेकिन उसने कठिन रास्ता अपना लिया .अधूरी सूचना के आधार पर होने वाली आत्महत्याओं की संख्या कम  नहीं है . इसलिए अधूरी सूचना के प्रचार प्रसार को उत्साहित नहीं किया जाना चाहिए .

 

अभी एक दूसरी आत्महत्या की सूचना मिली है . मेरे  बहुत ही करीबी परिवार के अठारह साल के  बच्चे ने आत्महत्या कर ली है . लड़का आई आई टी की प्रवेश  परीक्षा की तैयारी कर रहा था . बारहवीं की  परीक्षा में बहुत अच्छे नंबर आये थे . मार्च से ही अपने घर में  रहकर पढ़ाई लिखाई चल  रही थी. लॉकडाउन के चलते बाहर निकलकर खेलना बंद था .अपने हमउम्र बच्चों से मिलना जुलना भी नहीं हो रहा था. परिवार  में उच्च शिक्षा का माहौल था.  उसके पिता और बाबा की पीढ़ी में परिवार के लोग बड़े पदों पर थे. सब लोगों ने बिना किसी दबाव के पढ़ाई लिखाई की थी .उसके बाबा के बड़े भाई तो स्वंत्रतता संग्राम सेनानी थे संविधान सभा के सदस्य थे . पहलीदूसरी और तीसरी लोकसभा के सदस्य थे. उसके मातापिता ने उसको किसी तरह का टारगेट नहीं दिया था लेकिन  साथ पढने वाले लड़कों से स्पर्धा का भाव ज़बरदस्त थास्कूल के अधिकारी  भी इंजीनियरिंग और मेडिकल में अपने छात्रों की सफलता की गाथा बनाने के लिए  उत्साहित करते रहते थे . लड़के की ज़िन्दगी में कहीं  किसी तरह की निराशा नहीं थी. उसके पिताजी के भाई बहन पूरे देश में रहते  हैं. उसकी अपनी  चचेरी ममेरी फुफेरी बहनें उसकी राखी बांधती थीं .  देश के लगभग सभी  बड़े शहरों में उसके भाई बहन रहते  हैं.   लेकिन उस लड़के ने आत्महत्या कर ली. बात समझ में नहीं आती है . ऐसा क्यों हुआ . उसको समझने के लिए आज से करीब अठाईस साल पहले अपने देश में शुरू हुई आर्थिक उदारीकरण और  भूमंडलीकरण की नीतियों के उपजे अवसर और महत्वाकांक्षाओं पर एक नज़र डालनी होगी. इन नीतियों के भारत में लागू होने के बाद भारत बाकी दुनिया से बरास्ता इंटरनेट जुड़ गया और ग्लोबल विलेज की  अवधारणा में समाहित हो गया .इस  अवधारणा के जन्म के  बाद आज  महत्वाकांक्षी बच्चों के सामने जो लक्ष्य मुंह फाड़कर खड़े हो जाते हैं वे उनको कहीं का नहीं छोड़ते. उन  लक्ष्यों को पकड़ से बाहर जाता देख वे फिर से लड़ने की तैयारी नहीं करते और कई स्थानों से उनकी आत्महत्या की ख़बरें आती हैं .

जबसे अखबारों में आई आई टी और आई आई एम  से पढाई करने वालों के बहुत बड़े बड़े पैकेज छपने लगे हैं ,तब से यह प्रवृत्ति बढ़ी है .बच्चों की स्पर्धा की चाहत को हवा देकर स्कूल कालेजों में होने वाली पढ़ाई को नाकाफी बताकर बहुत सारे लोगों ने नौजवानों को सपने दिखाए . उनकी पसंद के मेडिकल इंजीनियरिंग कालेज में प्रवेश या उनकी पसंद की आई ए एस आदि नौकरियों के सपनों को साकार करने के लिए हर शहर में कोचिंग संस्थानों की स्थापना हो गयी है . इन संस्थानों को चलाने वालों की आर्थिक और राजनीतिक ताक़त भी बहुत बढ़ गयी है .बच्चों में असंभव को पा लेने की इच्छा को हवा देकर उनको आत्महत्या के अँधेरे कुएं में झोंक देने के लिए कोचिंग का रैकेट चलाने वाले  माफिया  भी  छात्रों के बीच बढ़ रही आत्महत्याओं के लिए ज़िम्मेदार हैं  . उनपर भी रोक लगाई जानी चाहिए . उनको रोकने के लिए तो सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल ही किया  जाना चाहिए . अक्सर यह खबर आती है कि आई आई टी में प्रवेश ले चुके कुछ बच्चों ने आत्महत्या कर  ली  क्योंकि वह कक्षा में  पढ़ाई को  समझ नहीं पा रहे थे. दर असल उन बच्चों की रूचि कुछ और पढने में थी लेकिन मातापिता  ने उनके पीछे पड़कर उनको आई आई टी में पढने के लिए मजबूर कर दिया . आई आई टी में कुछ समय बिताने के बाद उनको लगता है कि वे गलत जगह फंस गए हैं .उनको आई आई टी में होना ही नहीं चाहिए था. यही हाल मेडिकल कालेजों का है . बहुत सारे  बच्चे प्रशासनिक नौकारियों में जाना चाहते हैं . वे  कुशाग्रबुद्धि होते भी हैं लेकिन मातापिता के  दबाव के चलते आई आई टी या किसी मेडिकल कालेज में चले जाते  हैं. उसके बाद वे आई ए एस  या आई आई एम में जाते हैं . यानी अगर वे बी ए या बी एससी  करके भी आई ए एस या आई आई एम की  प्रवेश परीक्षा देते तो भी उसमें चुनाव अवश्य हो जाता लेकिन मातापिता के सपनों को जिंदा रखने के लिए पांच साल तक इंजीनियरिंग या मेडिकल की पढ़ाई करने के बाद , राष्ट्रीय संसाधनों को अपनी  शिक्षा में लगवाने के बाद वे सिविल सर्विस या  प्रबंधन में करियर चुनते  हैं. इस प्रवृत्ति पर भी लगाम लगाने की ज़रूरत है . यह भी नौजवानों में बेकार होने की  अनुभूति से भर देता है. और जब इंसान में यह विचार हावी हो जाए कि वह कुछ बेमतलब कर रहा है तो उसके सामने आत्महत्या करने की संभावना पढ़ जाती  है . 

अपने देश में मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता की भारी कमी है . यूरोप और अमरीका के विकसित  देशों में मनोवैज्ञानिक काउंसिलिंग बहुत ही साधारण  सी बात मानी जाती है जिससे डिप्रेशन की संभावना बहुत कम  हो जाती है लेकिन अपने यहाँ इससे  लोग भागते हैं . अब मनोवैज्ञानिक  बीमारी को भी अन्य बीमारियों की तरह महत्व  देना पडेगा , तभी बात बनेगी .

Tuesday, August 11, 2020

चउबे गएन छब्बे होय बनि गएन दूबे उर्फ़ क़िस्सा सचिन पायलट की कांग्रेस में वापसी

 

शेष नारायण सिंह

सचिन पायलट के मन में लोकतांत्रिक और सेकुलर मूल्यों के प्रति फिर से जागी आस्था के बाद दिल्ली के गलियारों में राजनीतिक पैंतरेबाजी का एक और अध्याय लिखा जा रहा है . कांग्रेस को चुनौती देने वाले अठारह कांग्रेसी विधयाकों के औक़ातबोध के इलहाम के बाद ऐसा लगता है राजस्थान की अशोक गहलौत सरकार को गिराने के सपने ज़मींदोज़ हो चुके हैं . दिल्ली में अपने मित्र राहुल गांधी और उनकी बहन कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा से मिलकर बागियों के नेता ,सचिन पायलट घर वापसी की राग अलाप रहे हैं. कांग्रेस आलाकमान के भरोसेमंद महासचिव के सी वेणुगोपाल ने दावा किया है कि सचिन पायलट अब कांग्रेस पार्टी और राजस्थान सरकार के हित में काम करने के लिए वचनबद्ध हैं . क्योंकि उनको यह बाद अच्छी लगी है कि कांग्रेस पार्टी तीन सदस्यीय कमेटी बनायेगी जो सचिन पायलट और उनके पीड़ित विधायकों की शिकायतों का हल कर देगी .

इसमें दो राय नहीं है कि सचिन पायलट की भारी किरकिरी हुई है लेकिन उन्होंने कहा कि कांग्रेस के नेताओं के सामने उन्होंने कोई समर्पण नहीं किया है . कांग्रेस के आला नेताओं ने उनकी शिकायतों का समयबद्ध निपटारा करने का वचन दिया है . उन्होंने एक बयान में कहा कि हमने कांग्रेस नेतृत्व के सामने सिद्धांतों के मुद्दे को उठाया था. उसका वायदा हो गया है . दिल्ली में मंगलवार के घटनाक्रम को देखने से लगता है कि अशोक गहलौत सचिन पायलट को सरकार में तो वापस नहीं लेंगे .शायद इसी की पेशबंदी के लिए पायलट ने खुद ही दावा कर दिया है कि वे किसी पद के पीछे नहीं भागते .उन्होंने कहा कि उनके खिलाफ कुछ व्यक्तिगत टिप्पणियाँ की गयी थीं जो नहीं की जानी चाहिए थीं .

ताज़ा घटनाक्रम के बाद अशोक गहलौत को अपने आक्रामक रुख से पीछे हटना पडेगा क्योंकि कांग्रेस आलाकमान ने सचिन पायलट को वायदा कर दिया है कि उनके साथी विधायकों के खिलाफ राजस्थान सरकार ने जो मुक़दमे दर्ज किए थे , वे वापस ले लिए जायेंगे.मुक़दमे भी कोई मामूली नहीं है . उनमें कुछ विधायाकों के खिलाफ तो देशद्रोह के मुक़दमे कायम कर दिए गए हैं. दिल्ली की किल्ली थोड़ी ढिल्ली मानी जाती है इलसिए यहाँ की राजनीति में कुछ भी हो सकता है . जब से दिल्ली देश की राजधानी बनी है तब से यहाँ के अमीर उमरा लोग यहाँ के सुलतान , बादशाह, वायसराय और प्रधानमंत्री को चैन से नहीं बैठने देते . राजा को पता ही नहीं होता लेकिन जमुना के तीरे बसने वाले सियासत के ए रईस किसी भी मोहरे को प्यादे से फर्ज़ी बनाने की मुहिम चलाते रहते हैं . रज़िया सुलतान से लेकर इंद्र कुमार गुजराल तक के राजाओं ने दिल्ली की इस फितरत को झेला है . अशोक गहलौत भी उसी अमीर उमरा बिरादरी की तिकड़मबाजी का शिकार होते होते बच गए . अशोक गहलौत ने भी खेल को पलटने की पूरी कोशिश की और लगता है कि उनकी जादूगरी राजनीति मौजूदा सियासी खेल में कोई और पेंच लगाने की फ़िराक में है .
अभी कल तक तो कांग्रेस के विधायक ही दल बदल की लालच की लपेट में थे . अठारह विधायक तो बागी हो ही गए थे और हरियाणा में मेहमाननवाजी का आनंद ले रहे थे . चर्चा यह भी थी कि जयपुर के होटल में आराम कर रहे कांग्रेसी विधायकों पर भी लालच के डोरे डाले जा रहे थे . अशोक गहलौत ने घबड़ाकर अपने विधायकों को जैसलमेर शिफ्ट कर दिया था . लेकिन मंगलवार को दिल्ली की गप्पी जमातों में चर्चा थी कि अशोक गहलौत कुछ बीजेपी विधायकों को भी अपने साथ लेने के चक्कर में हैं..शायद इसीलिये बीजेपी के बड़े नेता भी चिंतित हैं और संदेह के घेरे में आये अपने उन्नीस विधायकों को शनिवार को गुजरात के पोरबंदर नगर पंहुचा दिया था. पूर्व मुख्यमंत्री और बीजेपी की बड़ी नेता वसुंधरा राजे को बीजेपी के नेताओं ने सुझाव दे दिया है कि उन्हें पार्टी के सभी विधायकों को एकजुट रखने में मदद करनी चाहिए . जब से ऑपरेशन सचिन पायलट शुरू हुआ है , वसुंधरा राजे ने अपने को विवाद या चर्चा से अलग कर रखा था. बताने वाले बताते हैं कि वे बीजेपी के नेताओं की तरफ से सचिन पायलट को दिए जा रहे महत्व से खुश नहीं थीं. इसके पहले उनके भतीजे , ज्योतिरादित्य सिंधिया को मध्यप्रदेश की बीजेपी राजनीति में मिले महत्व से भी वे खुश नहीं थीं. अब उन्हीं ज्योतिरादित्य सिंधिया के घनिष्ठ मित्र और राजस्थान के पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट को मिलने वाली तवज्जो भी उनको अच्छी नहीं लग रही थी. ऐसा लगता है कि राजस्थान में सचिन पायलट को महत्व देना बीजेपी को थोडा नुकसान पंहुचा चुका है . कांग्रेस विधायक दल में तो फूट नहीं डाल सके लगता है कि उनके अपने विधायकों का ही ईमान डोलने लगा है .चौबे गएन छब्बे होय बनि गएन दूबे. अवधी के यह कहावत बीजेपी के राजस्थान अभियान पर बिलकुल फिट बैठती है .

ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन

शेष नारायण सिंह 


 भारत के इतिहास में मुहम्मद शाह रंगीला का शासन काल ( 1719 -1748 ) गैर ज़िम्मेदार शासन का सबसे अजीबोगरीब उदहारण है . इसी के शासन काल में दिल्ली पर नादिर शाह नाज़िल हुआ था. दिल्ली शहर में क़त्लो-गारद भी इसी के दौर में हुआ था . कहते हैं कि जब दिल्ली शहर में लूटमार मची थी तो मुहम्मद शाह रंगीला इसलिए नाराज़ हो गया कि लाल किले के आसपास मारकाट कर रहे हमलावरों के घोड़ों की टाप से उसकी महफ़िल में बज रहे तबलों की आवाज़ डिस्टर्ब हो रही थी. ऐसी बहुत सारी कहानियाँ उसके बारे में बताई जाती हैं . दिल्ली के हज़रत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह के पास उस्सको दफ़न किया गया था . लाल गुम्बद के नाम से उसकी कब्र आज भी पहचानी जाती है यह आजकल दिल्ली गोल्फ कोर्स के कंपाउंड के अन्दर है .

उसके बेटे नज़ीर अकबराबादी ( 1739- 1830 ) को इतिहास एक बहुत बड़े शायर के रूप में याद करता है . उनका असली नाम वली मुहम्मद था .उनका तख़ल्लुस नज़ीर था. दुनिया इसी नाम से उनको जानती है , वे चार साल के ही थे जब दिल्ली पर नादिर शाह का हमला हुआ था .जब वे बाईस साल के थे तो उन्होंने अहमाद शाह अब्दाली का हमला भी देखा . अब्दाली के हमले के बाद मुसीबतें दिल्ली पर कहर बनकर टूट पडी थीं . उसके बाद वे अपनी माँ और दादी के साथ आगरा चले गए . आगरा के किलेदार नवाब सुलतान खां उनके नाना थे. उनके वालिद मुहम्मद शाह की मौत हो चुकी थी. आगरा जाकर उनकी माँ का फिर निकाह हो गया . जिनसे उनका निकाह हुआ उन मुहम्मद फारूक को भी कहीं कहीं नज़ीर अकबराबादी के वालिद के रूप में लिख दिया गया है . नज़ीर अकबराबादी के वालिद की मौत के बाद उनकी सौतेली मां कुदसिया बेगम के बेटे अहमद शाह बहादुर को मुग़ल सत्ता मिली . वे नाबालिग थे . उनकी रेजेंट के रूप में कुदसिया बे्गम ने ही हुकूमत चलाई. इस दौर में भी मुग़ल सत्ता के क्षरण का सिलसिला जारी रहा . .
बहरहाल नज़ीर दिल्ली से दूर जा चुके थे और आगरा में उन्होंने उर्दू और ब्रजभाषा में जो कुछ भी लिखा वह इतिहास की धरोहर है . कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर उनकी वह नज़्म नक़ल कर रहा हूं जिसको मैं बहुत पसंद करता हूँ. .कविता थोड़ी लम्बी है लेकिन हर शब्द में माखनचोर कृष्ण की शान का अक्स नज़र आता है

ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन.

यारो सुनो! यह दधि के लुटैया का बालपन।
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन॥
मोहन सरूप निरत करैया का बालपन।
बन-बन के ग्वाल गोएँ चरैया का बालपन॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥1॥

ज़ाहिर में सुत वह नन्द जसोदा के आप थे।
वर्ना वह आप माई थे और आप बाप थे॥
पर्दे में बालपन के यह उनके मिलाप थे।
जोती सरूप कहिये जिन्हें सो वह आप थे॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥2॥

उनको तो बालपन से न था काम कुछ ज़रा।
संसार की जो रीति थी उसको रखा बजा॥
मालिक थे वह तो आपी उन्हें बालपन से क्या।
वां बालपन, जवानी, बुढ़ापा, सब एक था॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥3॥

मालिक जो होवे उसको सभी ठाठ यां सरे।
चाहे वह नंगे पांव फिरे या मुकुट धरे॥
सब रूप हैं उसी के वह जो चाहे सो करे।
चाहे जवां हो, चाहे लड़कपन से मन हरे॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥4॥

बाले हो व्रज राज जो दुनियां में आ गए।
लीला के लाख रंग तमाशे दिखा गए॥
इस बालपन के रूप में कितनों को भा गए।
इक यह भी लहर थी कि जहां को जता गए॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥5॥

यूं बालपन तो होता है हर तिफ़्ल का भला।
पर उनके बालपन में तो कुछ और भेद था॥
इस भेद की भला जी, किसी को ख़बर है क्या।
क्या जाने अपने खेलने आये थे क्या कला॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥6॥

राधारमन तो यारो अ़जब जायेगौर थे।
लड़कों में वह कहां है, जो कुछ उनमें तौर थे॥
आप ही वह प्रभू नाथ थे आप ही वह दौर थे।
उनके तो बालपन ही में तेवर कुछ और थे॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥7॥

वह बालपन में देखते जीधर नज़र उठा।
पत्थर भी एक बार तो बन जाता मोम सा॥
उस रूप को ज्ञानी कोई देखता जो आ।
दंडवत ही वह करता था माथा झुका झुका॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥8॥

पर्दा न बालपन का वह करते अगर ज़रा।
क्या ताब थी जो कोई नज़र भर के देखता॥
झाड़ और पहाड़ देते सभी अपना सर झुका।
पर कौन जानता था जो कुछ उनका भेद था॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥9॥

मोहन, मदन, गोपाल, हरी बंस, मन हरन।
बलिहारी उनके नाम पै मेरा यह तन बदन॥
गिरधारी, नन्दलाल, हरि नाथ, गोवरधन।
लाखों किये बनाव, हज़ारों किये जतन॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥10॥

पैदा तो मधु पुरी में हुए श्याम जी मुरार।
गोकुल में आके नन्छ के घर में लिया क़रार॥
नन्द उनको देख होवे था जी जान से निसार[4]।
माई जसोदा पीती थी पानी को वार वार॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥11॥

जब तक कि दूध पीते रहे ग्वाल व्रज राज।
सबके गले के कठुले थे और सबके सर के ताज॥
सुन्दर जो नारियां थीं वह करतीं थी कामो-काज।
रसिया का उन दिनों तो अजब रस का था मिज़ाज॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥12॥

बदशक्ल से तो रोके सदा दूर हटते थे।
और खु़बरू को देखके हंस-हंस चिमटते थे॥
जिन नारियों से उनके ग़मो-दर्द बंटते थे।
उनके तो दौड़-दौड़ गले से लिपटते थे॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥13॥

अब घुटनियों का उनके मैं चलना बयां करूं।
या मीठी बातें मुंह से निकलना बयां करूं॥
या बालकों की तरह से पलना बयां करूं।
या गोदियों में उनका मचलना बयां करूं॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥14॥

पाटी पकड़के चलने लगे जब मदन गोपाल।
धरती तमाम हो गई एक आन में निहाल[5]॥
बासुक चरन छूने को चले छोड़ कर पताल।
आकास पर भी धूम मची देख उनकी चाल॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥15॥

थी उनकी चाल की तो अ़जब यारो चाल-ढाल।
पांवों में घुंघरू बाजते, सर पर झंडूले बाल॥
चलते ठुमक-ठुमक के जो वह डगमगाती चाल।
थांबें कभी जसोदा कभी नन्द लें संभाल॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥16॥

पहने झगा गले में जो वह दखिनी चीर का।
गहने में भर रहा गोया लड़का अमीर का॥
जाता था होश देख के शाहो वज़ीर का।
मैं किस तरह कहूं इसे छोरा अहीर का॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥17॥

जब पांवों चलने लागे बिहारी न किशोर।
माखन उचक्के ठहरे, मलाई दही के चोर॥
मुंह हाथ दूध से भरे कपड़े भी शोर-बोर।
डाला तमाम ब्रज की गलियों में अपना शोर॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥18॥

करने लगे यह धूम, जो गिरधारी नन्द लाल।
इक आप और दूसरे साथ उनके ग्वाल बाल॥
माखन दही चुराने लगे सबके देख भाल।
दी अपनी दधि की चोरी की घर घर में धूम डाल॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥19॥

थे घर जो ग्वालिनों के लगे घर से जा-बजा।
जिस घर को ख़ाली देखा उसी घर में जा फिरा॥
माखन मलाई, दूध, जो पाया सो खा लिया।
कुछ खाया, कुछ ख़राब किया, कुछ गिरा दिया॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥20॥

कोठी में होवे फिर तो उसी को ढंढोरना।
गोली में हो तो उसमें भी जा मुंह को बोरना॥
ऊंचा हो तो भी कांधे पै चढ़ कर न छोड़ना।
पहुंा न हाथ तो उसे मुरली से फोड़ना॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥21॥

गर चोरी करते आ गई ग्वालिन कोई वहां।
और उसने आ पकड़ लिया तो उससे बोले हां॥
मैं तो तेरे दही की उड़ाता था मक्खियां।
खाता नहीं मैं उसकी निकाले था चूंटियां॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥22॥

गर मारने को हाथ उठाती कोई ज़रा।
तो उसकी अंगिया फाड़ते घूसे लगा लगा॥
चिल्लाते गाली देते, मचल जाते जा बजा।
हर तरह वां से भाग निकलते उड़ा छुड़ा॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥23॥

गुस्से में कोई हाथ पकड़ती जो आन कर।
तो उसको वह सरूप दिखाते थे मुरलीधर॥
जो आपी लाके धरती वह माखन कटोरी भर।
गुस्सा वह उनका आन में जाता वहीं उतर॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥24॥

उनको तो देख ग्वालिनें जी जान पाती थीं।
घर में इसी बहाने से उनको बुलाती थीं॥
ज़ाहिर में उनके हाथ से वह गुल मचाती थीं।
पर्दे में सब वह किशन के बलिहारी जाती थीं॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥25॥

कहतीं थीं दिल में दूध जो अब हम छिपाऐंगे।
श्रीकृष्ण इसी बहाने हमें मुंह दिखाऐंगे॥
और जो हमारे घर में यह माखन न पाऐंगे।
तो उनको क्या ग़रज है यह काहे को आऐंगे॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥26॥

सब मिल जसोदा पास यह कहती थी आके बीर।
अब तो तुम्हारा कान्ह हुआ है बड़ा शरीर॥
देता है हमको गालियां फिर फाड़ता है चीर।
छोड़े दही न दूध, न माखन, मही न खीर॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥27॥

माता जसोदा उनकी बहुत करती मिनतियां।
और कान्ह को डराती उठा बन की सांटियां॥
जब कान्ह जी जसोदा से करते यही बयां।
तुम सच न जानो माता, यह सारी हैं झूटियां॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥28॥

माता कभी यह मेरी छुंगलिया छुपाती हैं।
जाता हूं राह में तो मुझे छेड़ जाती हैं॥
आप ही मुझे रुठाती हैं आपी मनाती हैं।
मारो इन्हें यह मुझको बहुत सा सताती हैं॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥29॥

माता कभी यह मुझको पकड़ कर ले जाती हैं।
गाने में अपने सथ मुझे भी गवाती हैं॥
सब नाचती हैं आप मुझे भी नचाती हैं।
आप ही तुम्हारे पास यह फ़रयादी आती हैं॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥30॥

एक रोज मुंह में कान्ह ने माखन झुका दिया।
पूछा जसोदा ने तो वहीं मुंह बना दिया॥
मुंह खोल तीन लोक का आलम दिखा दिया।
एक आन में दिखा दिया और फिर भुला दिया॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥31॥

थे कान्ह जी तो नंद जसोदा के घर के माह।
मोहन नवल किशोर की थी सबके दिल में चाह॥
उनको जो देखता था सो कहता था वाह-वाह।
ऐसा तो बालपन न हुआ है किसी का आह॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥32॥

सब मिलके यारो किशन मुरारी की बोलो जै।
गोबिन्द छैल कुंज बिहारी की बोलो जै॥
दधिचोर गोपी नाथ, बिहारी की बोलो जै।
तुम भी ”नज़ीर“ किशन बिहारी की बोलो जै॥
ऐसा था बांसुरी के बजैया का बालपन।
क्या-क्या कहूं मैं किशन कन्हैया का बालपन॥33॥