Thursday, March 26, 2020

लॉकडाउन ज़रूरी है लेकिन शहरों में रहने वाले गरीबों के ऊपर वज्र टूट पड़ा है



शेष नारायण सिंह


२२ मार्च को प्रधानमंत्री ने वह काम किया जो उनको फरवरी में ही कर देना  चाहिए था क्योंकि जब तक कोरोना वायरस को खत्म नहीं किया जाएगा इससे बचा नहीं जा सकता . अब तो खैर इस बीमारी से मुकाबले के लिए देर से ही सही भारत सरकार ने युद्धस्तर पर कोशिश करना शुरू कर दिया  है . बीस मार्च को प्रधानमंत्री के " देश को संदेश  " के बाद लगा कि सरकार इस खतरनाक बीमारी को गंभीरता से ले रही  है. पहली बार लगा कि प्रधानमंत्री देश की जनता को भी इस सरकार की मुहिम में शामिल करना चाहते हैं . वरना अब तक तो  चुनावों के दौरान ही वे  एक  सौ तीस करोड़ देशवासियों की बात किया करते थे . उसके बाद इसी हफ्ते  उन्होंने तीन हफ्ते के लिए पूरे देश के लॉक डाउन का भी ऐलान कर दिया .  १५ अप्रैल तक देश में पूरी तरह से लॉक डाउन की   घोषणा कर दी गयी है . अब यह साबित हो  चुका है कि देश की स्वास्थ्य सेवाएँ इतने बड़े पैमाने पर कोरोना वायरस के असर को नाकाम करने के लिए काफी नहीं  हैं. देश में वेंटिलेटरों की भारी कमी है .  यूरोप और अमरीका में  वायरस के आने के साथ साथ वेंटिलेटर के उत्पादन की तैयारी बहुत बड़े पैमाने पर शुरू हो गयी थी. अपने यहाँ  पुणे की एक  कंपनी  महामारी के इतने खतरनाक रूप ले लेने के बाद थोड़े बहुत वेंटिलेटर दे सकने की स्थिति में आयी है .  वायरस  से पीड़ित मरीजों की देखभाल करने वाले स्वास्थ्यकर्मियों के लिए  ज़रूरी  पोशाक तक  कई मेडिकल कालेजों में उपलब्ध नहीं है . वहां  डाक्टर लोग एक  मास्क लगाकर भगवान भरोसे काम कर रहे हैं .  जो भी हो इस बीमारी मुकाबला तो करना  ही है और सबसे महत्वपूर्ण तरीका यही है कि देश की जनता चौकन्ना रहे और कोविड-19 के मरीजों के सम्पर्क में ही न आये. एक गनीमत है कि इसका ज़हर हवा  के ज़रिये नहीं फैल रहा है इसलिए अगर  किसी भी मरीज़ को छूने या उसके  बहुत करीब आने से बचा जा सके तो बीमारी पर काबू पाया जा सकता है .

अब इक्कीस दिनों  की  पूरी आबादी की  कोरोनाकैद के बाद विषाणु को काबू में किया जा सकेगा ,यह उम्मीद हो गयी है . देश की आबादी के बड़े  हिस्से को तबाही से बचाने के लिए यह ज़रूरी था . लेकिन इस बात में भी दो राय  नहीं है कि सरकार ने बिना तैयारी के ही लॉक डाउन की घोषणा कर दी . जहां तक दवाओं. अस्पतालों , मेडिकल साजो-सामान की कमी की बात है उसके बारे में तो एक दिन या एक  हफ्ते में कोई बड़ी नहीं तैयारी की जा सकती लेकिन एक बात समझ में नहीं आती कि लॉक डाउन को इतने  रहस्यमय तरीके से क्यों घोषित किया गया . अगर थोड़ी  तैयारी इसके लिए  ज़रूरी इंतजाम कर लिया होता तो क्या बिगड़   जाता . अगर उन्होने लेबर चौक पर रोजाना इकठ्ठा होकर उन मजदूरों की संभावित तकलीफ का आकलन कर लिया होता तो उनकी घर वापसी की तैयारी भी हो गयी होती . नतीजा यह हुआ कि गाँव घर छोड़कर  शहरों में दो जून की रोटी की तलाश में गए लोग आज वहां  रहकर   भूखों मरने के लिए अभिशप्त हो गए . जो हज़ारों करोड़ रूपये का ऐलान आज किया है , वह उसी दिन भी तो किया जा सकता था  जिस दिन  से लॉक डाउन हुआ  है.  उसी दिन से फुटपाथ पर रहने वाले लोगों की ऊपर पुलिस कहर बन कर टूट पडी है. उनको ऊपर से हुकुम है  कि कोई भी घर के बाहर नहीं नज़र  आना चाहिए . उनका तो कोई घर ही नहीं है .  वे तो  कहीं  भी तीन टप्पर डालकर पड़े रहते हैं. जब  उनके ऊपर पुलिस का डंडा बरसना शुरू  हुआ तो अपने छोट छोटे  बच्चों ,औरतों को साथ लेकर वे लोग अपने गाँव की तरफ चल पड़े .  बस ट्रेन आदि बंद कर दी गयी हैं लिहाजा वे पैदल ही  चल  पड़े . ख़बरें आ रही हैं कि सडकों पर पुलिस उनको पकड़कर पीट रही है .   वरिष्ठ पत्रकार वीरेन्द्र सेंगर की एक रिपोर्ट है कि कुछ मजदूर दिल्ली के हौज़ खास थाने गए और दरोगा से विनती की कि उनको जेल में बंद कर दिया जाए लेकिन उन्होंने साफ़ मना कर दिया कि आप लोगों ने कोई अपराध तो किया नहीं है जेल में क्यों बंद करें . एक अन्य केस में यमुना एक्सप्रेसवे पर जेवर के पास  पैदल जा रहे करीब बीस मजदूरों को  पुलिस ने मारा  पीटा. अब खबर आ रही है कि कोरोना वायरस से प्रभावित अर्थव्यवस्था और गरीबों की मदद के लिए  सरकार ने 1 लाख  सत्तर हज़ार करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा कर दी है . वित्त मंत्री ने गुरुवार को  प्रधानमंत्री गरीब कल्याण स्कीम की घोषणा की। डायरेक्ट कैश ट्रांसफर होगा और खाद्य सुरक्षा के जरिए गरीबों की मदद की जाएगी। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि अभी लॉकडाउन को 36 घंटे ही हुए हैं सरकार प्रभावितों और गरीबों की मदद के लिए काम कर रही है। इस  योजना में गरीबों के  साथ साथ  कोरोना वायरस से लोगों को बचा रहे डॉक्टर्सपैरामेडिकल स्टाफ को 50 लाख रुपये का इंश्योरेंस कवर भी दिया जा  रहा है . सरकार ने दावा किया कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत किसी गरीब को भूखा नहीं रहने दिया जाएगा लेकिन यह सब बातें उन लोगों के लिए हैं जो   लाभार्थी हैं जो लिखत पढ़त में  गरीब  हैं . इस पैकेज में उन लोगों को भी शामिल किया जाना चाहिए  जो इस वक़्त सडकों पर हैं और पैदल अपने घर जा रहे हैं  और कहीं भी  उनका नाम रिकार्ड में नहीं है . सरकारी स्कीम में कंस्ट्रक्शन के काम में लगे मजदूरों के कल्याण का भी ज़िक्र  है   .

लेबर चौक पर खड़े होने वाले मजदूरों का कहीं कोई रिकार्ड नहीं होता . लेबर चौक पर सुबह    पांच बजे से ग्यारह बजे तक मजदूर इंतज़ार करते हैं . पांच से आठ बजे तक तो काम की उम्मीद रहती है लेकिन दस बजे के बाद उनके चेहरों पर जो हालात होते हैं उसको देखकर  कलेजा  मुंह को आ जाता  है . दिल्ली, नोयडा , गेटर  नोयडा ,   गाज़ियाबाद,  फरीदाबाद और  गुरुग्राम में इस तरह के सैकड़ों लेबर चौक हैं .इन सभी  चौकों को मिलकर यहाँ  सुबह सुबह लाखों मजदूर इकठ्ठा होते  हैं. तरह तरह के काम  के लिए लोग यहाँ से मजदूर ले जाते  हैं. जब कोई टेम्पो आकर रुकता है तो उसके साथ जाने के लिए एक साथ ही सैकड़ों  लोग दौड़ पड़ते हैं  अपनी ज़रूरत भर के मजदूर वह टेम्पो वाला साथ ले   जाता है. जो लोग छूट जाते हैं उनके चेहरे पर  निराशा की जो इबारत लिख उठती  है वह  घनीभूत पीड़ा की तस्वीर होती है .  जो लोग निराश होकर दिल्ली से  पैदल ही अपने गाँव की और जा रहे हैं उनमें लेबर चौक के मजदूरों की बड़ी संख्या है . लगता है कि सरकार ने  लॉक डाउन की घोषणा करने के पहले इनके बारे में कोई विचार नहीं किया . क्योंकि जब  प्रधानमंत्री ने २२ मार्च की रात आठ बजे कहा कि आप अपने घर के अन्दर ही रहिये तो  इन लोगों की समझ में ही नहीं आया  होगा कि रहना कहाँ है . फुटपाथ ही उनका घर है  . या  किसी खुले मैदान में पडी हुयी कुछ झोपड़ियां ही  उन लोगों का ठिकाना होती हैं .  उनमें तो उनका सामान ही रखा जाता है . रहना, सोना, नहाना , खाना तो वे खुले  में ही करते हैं . इनके अलावा ठेके पर काम करने वाले और कैजुअल मजदूर भी रोज़ाना के हिसाब से मजदूरी  पाते हैं .  इनकी संख्या देश के कुल कामगारों की  ८० से ९० प्रतिशत के बीच है . यह औपचारिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा नहीं होते . २०१७-१८ के आर्थिक सर्वे के अनुसार देश की ८७ प्रतिशत  कम्पनियां अनौपचारिक क्षेत्र में हैं . जहाँ कैजुअल लेबर काम करते हैं . केंद्र सरकार की घोषणा में  उनको तो शायद  कुछ लाभ मिल जाए लेकिन   फुटकर काम करने वालों का कोई पुछत्तर नहीं है .
अब ख़बरें आ रही हैं कि जगह जगह लोग फंसे हुए  हैं .  पत्रकार   श्रुति व्यास की रिपार्ट है कि वसंत कुञ्ज के पास रंगपुर पहाड़ियों में झारखण्ड के कुछ सौ मजदूर  अनाथ  असहाय पड़े हैं . उनके पास रोटी के पैसे नहीं हैं. जब यह खबर सार्वजनिक हुयी तो श्रुति के ट्विटर पर आई खबर पर ही झारखण्ड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने जवाब दिया कि उन्होंने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल से बात कर ली है और उनसे   निवेदन किया है वे झारखण्ड के लोगों को किसी तरीके से घर भेजें .आम आदमी  पार्टी के सांसद संजय सिंह से भी बात हुयी तो उन्होंने बताया कि वे दिल्ली सहित कई राज्यों के पुलिस अधिकारियों से संपर्क बनाये हुए हैं और कोशिश कर  रहे हैं कि किसी तरह से लोगों को उनके गाँव तक  भेजवाया जा सके .
यह  तो दिल्ली के आस पास इलाकों का हाल है .इसी तरह की परेशानी मुंबई, पुणे ,  सूरत , अहमदाबाद , कोलकता आदि में भी होगा . अभी गुजरात के उपमुख्यमंत्री के पी आर ओ ने फेसबुक पर बहुत गर्व से घोषित किया कि उनके बॉस ने कार से जाते हुए देखा कि कुछ मजदूर सर पर अपनी  गठरी आदि लादे राजस्थान की तरफ चले जा रहे हैं . उन्होंने अपनी कार रोकी और उन लोगों को राजस्थान की सीमा तक भेजने का इंतजाम किया . सवाल यह है कि  उन उपमुख्यमंत्री महोदय ने सभी मजदूरों के लिए एक नीति बनाने की बात क्यों नहीं सोची .बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने घोषणा की है कि उनकी पार्टी का कार्यकर्ता इस तरह की विपदा में पड़े लोगों को खाना खिलाएं . यह बात क्यों की जा रही है. विपदा में डालने वाली बीजेपी की सरकार है और उनकी मुसीबत में धर्मधजी बनकर उनकी सहानुभूति बटोरने का अवसर बीजेपी के लोगों के हाथ आना क्यों ज़रूरी है .  यह काम सरकार के  कर्मचारी क्यों नहीं कर सकते .इसलिए प्रधानमंत्री महोदय को ही इस बात पर विचार करना पडेगा कि आठ बजे कोई बहुत बड़ी घोषणा करने  के पहले तैयारी करना बहुत ज़रूरी है . नोटबंदी के ऐलान के समय भी ऐसा ही हुआ था .उस समय का तर्क तो समझ में आता है क्योंकि डर  यह था कि सरकार के अन्दर के  ही लोग नोट के जमाखोरों को खबर लीक कर  देते  तो उसका मकसद ही ख़त्म हो जाता . इस  बार रहस्य बनाये रखने का कहीं कोई औचित्य नहीं  है . नोटबंदी की मुसीबतों को तो मजदूरों के साथ ऊंचे लोगों ने भी झेला था लेकिन इस बार भूखों मरने की विपत्ति समाज के सबसे निचले पायदान वाले ही गले पडी है.

कोविड-19 विश्वयुद्ध से भी बड़ी चुनौती, क्या मानवता उससे मुकाबले के लिए तैयार है




शेष नारायण सिंह


कोरोना वायरस से पैदा होने  वाली बीमारी से मुकाबले के लिए देर से ही सही भारत सरकार ने युद्धस्तर पर कोशिश करना शुरू कर दिया  है . बीस मार्च को प्रधानमंत्री के " देश को संदश  " के बाद लगा कि सरकार इस खतरनाक बीमारी को गंभीरता से ले रही  है. पहली बार लगा कि प्रधानमंत्री देश की जनता को भी इस मुहिम में शामिल करना चाहते हैं . वरना अब तक तो  चुनावों के दौरान ही वे  एक  सौ तीस करोड़ देशवासियों की बात किया करते थे . लेकिन अभी  एक बुनियादी सवाल दिमाग में बना हुआ  है . क्या देश की स्वास्थ्य सेवाएँ इतने बड़े पैमाने पर कोरोना वायरस के असर को नाकाम करने के लिए काफी हैं. ज़ाहिर है अगर  बड़ी संख्या में लोगों को इसकी ज़रूरत पडी तो देश की स्वास्थ्य सेवाएँ कम पड़ेंगी. देश में सांस लेने की सुविधा देने वाले  वेंटिलेटरों की भारी कमी है . इतने खतरनाक वायरस  से पीड़ित मरीजों की देखभाल करने वाले स्वास्थ्यकर्मियों के लिए  ज़रूरी  पोशाक तक  कई मेडिकल कालेजों में उपलब्ध नहीं है . वहां  डाक्टर लोग एक  मास्क लगाकर भगवां भरोसे काम कर रहे हैं .  जो भी हो इस बीमारी मुकाबला तो करना  ही है और सबसे महत्वपूर्ण तरीका यही है कि देश की जनता चौकन्ना रहे और कोविड-19 के मरीजों के सम्पर्क में ही न आये. एक गनीमत है कि इसका ज़हर हवा  के ज़रिये नहीं फैल रहा है इसलिए अगर  किसी भी मरीज़ को छूने या उसके  बहुत करीब आने से बचा जा सके तो बीमारी पर काबू पाया जा सकता है .

अभी तो फिलहाल हालात बहुत ही खराब हैं . चीन से शुरू हुआ कोविड-19 यूरोप , अमरीका सहित पूरी दुनिया में पंहुच चुका है.  युद्ध के हथियारों से लैस अमरीका के राष्ट्रपति के भाषणों में  निराशा साफ़ नज़र आ रही है . यूरोप में हालात सबसे भयावह हैं . अमरीका के सभी राज्यों से मामले  रिपोर्ट हो चुके हैं . चीन से बीमारी शुरू हुई लेकिन चीन की तरफ से दावा किया  जा रहा  है कि उसने कोरोना से होने वाली बीमारी पर काबू पा लिया  है. चीन से आने वाली खबरों पर आसानी से भरोसा करना बहुत ही  मुश्किल है . क्योंकि दुनिया को यह बताने के लिए लिये  वहां अब बीमारी पढने के बजाय थम गयी है  चीन के अधिकारियों ने अधिकांश विदेशी  अखबारों के सवाददाताओं को देश से निकाल दिया .  निकाले गए  संवाददाताओं में अमरीकी अखबार वाशिंगटन पोस्ट का संवाददाता  भी है. इस अखबार ने वुहान प्रांत में यूरोप हुयी कोरोना जनित बीमारी के बारे में बड़े पैमाने पर रिपोर्ट किया था.  चीन का रुख इस मामले में बहुत ही गैरजिम्मेदाराना  रहा है . न्यू यार्कर नाम की अमरीकी पत्रिका में छपा है कि दिसंबर में जब अमरीकी प्रांत वुहान में इस बीमारी के बारे में पहली बार जानकारी मिली इसलिए ,मिली क्योंकि हार्वर्ड मेडिकल स्कूल में  'महामारी विज्ञान में काम कर रही की एक शोध छात्रा  , डॉ रूरान ली ने इसपर नज़र रखना शुरू कर दिया था . वह मूल रूप से दक्षिणी  चीन में स्थित शेनजेन प्रांत की रहने वाली है.  वे मलेरिया विषय में शोध कर रही हैं . वे अपने  देश के लोगों के सोशल मीडिया अकाउंट के आधार पर एक डाटाबेस बना रही थीं . उन्होंने देखा कि बड़ी संख्या में लोग बीमार हो रहे हैं और सबकी बीमारी में एक ख़ास  पैटर्न है . बीमार लोगों की हालत इतनी बिगड़  जा रही थी कि वे अस्पतालों में इमरजेंसी में  भर्ती होने की कोशिश कर रहे थे लेकिन अस्पतालों में जगह कम पड़ती जा रही थी . इस सब के  बाद भी  चीन के हुक्मरान जानकारी को सार्वजनिक नहीं कर  रहे थे . एक दिन डॉ  ली ने देखा कि वी चैट नाम  की एक लाइव फीड में एक  संपन्न आदमी अपने लोगों को सलाह दे रहा था कि   कोरोना की महामारी में अगर उनको  मेडिकल सहायता की ज़रूरत हो तो  किस तरह से प्रयास करना चाहिए .उसने यह भी कहा कि हालात बहुत खराब  हैं .बीमारी का प्रचलित इलाज नाकाम साबित हो चुका है इसलिए अस्पताल में भर्ती होने की कोशिश की जानी चाहिए . डॉ ली का कहना है कि अगर वहां अस्पतालों में  जगह मिलने में परेशानी हो रही है तो मामला बहुत बिगड़  चुका है और इतना सम्पन्न आदमी भी परेशान है तो पानी सर के ऊपर जा चुका है .  उन्होंने इस जानकारी को एक सेमीनार में बताया . उसके बाद दुनिया को पता चला कि मामला कितना बिगड़ चुका है .  उनको मालूम था कि चीन में संपन्न लोगों को इलाज कराने में कोई दिक्क़त नहीं होती . अमरीकी पत्रकारों को देशनिकाला देकर चीन इस बात की पुष्टि कर रहा है कि हालात बहुत बिगड़ चुके हैं .

बिगड़ी हालात के मद्दे-नज़र दुनिया भर में हर स्तर पर इसका मुकाबला करने की तैयारी हो रही है . जर्मनी की चांसलर अंजेला मर्केल ने तो कह दिया है  कि दूसरे विश्वयुद्ध का बाद से जर्मनी ने इस तरह की चुनौती का सामना कभी नहीं किया है .उन्होंने कहा कि मामला बहुत ही  गंभीर है और इसको उसी गंभीरता से लिया जाना चाहिए . उन्होंने दावा किया कि जर्मनी का स्वास्थ्य सिस्टम बहुत ही उच्च कोटि का है लेकिन अगर बहुत बड़ी संख्या में मरीज़ अस्पतालों में आने लगेंगे तो स्थिति संभालना मुश्किल हो जायेगी .अमरीका के हर  राज्य में अब कोरोना जनित आतंक का फैलाव हो गया है .वहां इस विषाणु से मरने वालों की संख्या अब एक सौ से ऊपर पंहुच  चुकी है . अमरीकी प्रशासन का कहना है कि यह संख्या तेज़ी से बढ़ने वाली है . स्कूलदुकानें सब कुछ बंद है . लोग अपने अपने घरों में हैं .  दवाइयों की किल्लत शुरू ही गयी है . अमरीकी अर्थव्यवस्था के सामने सबसे बड़ी चुनौती आ गयी  है . 

भारत में भी सरकार के स्तर पर चेतावनी और सावधानी की अपील की जा रही है . सबके फोन में इस आशय के डायल टोन  लगे हुए हैं .  स्कूल कालेज बंद किये जा चुके हैं .  बहुत सारी ट्रेनें रद्द  की जा चुकी हैं . प्रधानमंत्री स्वयं हलात पर नज़र रखे हुए हैं स्वास्थ्य मंत्री दिन रात की स्थति की निगरानी कर रहे हैं . लेकिन सत्ताधारी पार्टी के कुछ लोग तरह तरह की  मूर्खताओं के ज़रिये दुनिया भर में देश के शासक वर्ग की खिल्ली  उड़वा रहे हैं. सत्ताधारी  दल के समर्थक एक बाबा ने गौमूत्र की एक पार्टी आयोजित की . उसमें बहुत सारे लोग शामिल हुए और  कैमरों के सामने गौमूत्र पिया लेकिन उसपर कोई कार्रवाई नहीं हुई. सवाल यह है कि इस तरह की मूर्खता  को प्रचारित करने वालों के खिलाफ  सरकार दंडात्मक कार्रवाई क्यों नहीं कर रही है . गौमूत्र पीने या  पिलाने पर कोई दंडात्मक कार्यवाही नहीं की सकती क्योंकि इन्डियन पेनल कोड में इस तरह का कोई प्रावधान नहीं है . ऐसा शायद इसलिए होगा कि कानून बनाने वालों या उसके बाद के लोगों ने सोचा भी नहीं होगा कि एक दिन इस देश में जहालत की सीमाएं इस मुकाम तक पंहुच जायेंगी की लोग गाय के मूत्र और गोबर को दवा के रूप में पेश करने लगेंगे  . इन हालात में  बीजेपी के नेतृत्व को अपने कार्यकर्ताओं को निर्देश देना चाहिए कि इस तरह की मूर्खताएं करने से बाज आयें . खबर है कि बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे पी नड्डा ने निर्देश दिया है कि कोरोना के आतंक को ध्यान में रखते हुए कोई धरना प्रदर्शन आयोजित नहीं किया जाएगा . लेकिन गौमूत्र से कोरोना जनित बीमारियों का इलाज  करने का दावा करने वालों को उन्होंने अभी तक कोई नसीहत नहीं दी है . प्रधानमंत्री ने लोगों से अपील की थी कि ज़्यादा  लोग एक जगह इकठ्ठा न हों लेकिन बीजेपी अध्यक्ष ने मध्यप्रदेश के बाईस पूर्व विधायकों को एक जश्न करके पार्टी  ज्वाइन करवाया .इस सबसे बचने की ज़रूरत है .

इस बीच उम्मीद की एक  किरण भी नज़र आ रही  है . अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने  मीडिया को बताया कि मलेरिया की दवा क्लोरोक्विन से कोविड-19 का इलाज संभव है . जयपुर मेडिकल कालेज के डाक्टरों ने भी इसी तरह का दवा किया है . दुनिया भर में  इस सम्बन्ध में   रिसर्च की जा रही है .उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्द से जल्द साइंस की बदौलत इस खतरनाक बीमारी का इलाज  तलाश लिया जाएगा . 

Sunday, March 15, 2020

असंभव को संभव बनाने वाले भगीरथों से साक्षात मुलाक़ात का अवसर मिला




शेष नारायण सिंह

इस बार की सुल्तानपुर यात्रा यादगार रही .साथी राज खन्ना की  गरिमा का वैभव  पूरी यात्रा में मन को गदगद करता रहा . पिछले कुछ वर्षों से सुल्तानपुर के  कुछ उत्साही नौजवानों के काम को करीब से देखने का न्योता मिलता था लेकिन जा नहीं पाते थे. कई बार तो कार्यक्रम बन भी गया , सारी तैयारियां हो गयीं लेकिन  कोई न कोई अड़चन आती रही. लेकिन इस बार संयोग बन गया और मैं सुल्तानपुर में  उन लोगों से मिला जिनपर आने वाली पीढियां  गर्व करेंगी .  सुल्तानपुर गोमती नदी के किनारे बसा एक शहर है . 1858 में इस शहर को तबाह कर दिया  गया था . जहां आज सुलतानपुर शहर है , वहां खाली मैदान था . शहर गोमती के उस पार था . उसको अंग्रेज़ी फौज ने जला दिया था . उसी शहर की कोतवाली को केंद्र बनाकर अवध की सेना के कमांडर जनरल गफूर बेग ने जौनपुर से बढ़ रही  ब्रिगेडियर  टी एच  फ्रैंक्स की अगुवाई वाली अंग्रेज़ी फौज को आगे बढ़ने से रोका था. आज़ादी की पहली लड़ाई में जब भारतीय योद्धाओं ने लखनऊ पर कब्जा कर लिया तो पूरब से जो अँगरेज़ सेना चली उसकी कमान ब्रिगेडियर फ्रैंक्स के हाथ में थी .  बक्सर से  जौनपुर होते हुए उनको सिंगरामऊ  तक पंहुचने में कोई दिक्क़त नहीं पेश आई  लेकिन जब सिंगरामऊ से आगे चले तो पीली नदी के पास  चांदा में उनको भारतीय ताकत  का सामना करना पड़ा था.  चांदा में करीब दस हज़ार   हज़ार भारतीयों ने उनको चुनौती दी थी लेकिन रात में धोखे से हमला करके फ्रैंक्स ने उनको तितर बितर कर दिया था. उसके बाद  भदैयां तक बेरोकटोक चलते रहे . आजादी के दीवानों की  सेना के  अफसर नाजिम मेहंदी को आने में थोड़ी  देर हुई और इस बीच  फ्रैंक्स की सेना ने आगे बढ़कर चालाकी और  धोखे से  भदैयां के  किले पर क़ब्ज़ा कर लिया .वहां से  सेना को फिर से समेटकर जब अँगरेज़ आगे बढे तो भारतीयों की संख्या बहुत कम हो चुकी थी लेकिन गोमती के  दक्षिण तरफ के नालों में उनको जनरल जनरल गफूर की ताक़त का मुकाबला करना पडा . प्रचंड लड़ाई के बाद शहर पर क़ब्ज़ा हो गया और सुल्तानपुर बाज़ार को नष्ट कर दिया  गया . अपना एक यूनिट लेफ्टिनेंट  मैक्लीड इनिस के हवाले छोड़कर फ्रैंक्स आगे बढ़ गया .  जहां आज सुल्तानपुर शहर है , वहीं अंग्रेज़ी सेना का  कैम्प लगा था . इसलिए आम बोलचाल में सुल्तानपुर को  बहुत बाद तक कम्पू कहा जाता था .
इस तरह से मौजूदा सुल्तानपुर शहर का विकास १९६० के बाद का ही माना जाता है . नजूल की ज़मीन पर कलेक्टर का बँगला  बनाया गया , गवर्नमेंट इंटर कालेज , कलेक्ट्रेट आदि इमारतें उसी दौर की बनी हुयी हैं . जब ब्रिटिश साम्राज्य के डायरेक्ट कब्जे में  अवध का इलाका आ गया , तो सुल्तानपुर में भी उसी हिसाब से विकास हुआ जैसा अँगरेज़  चाहते थे.  सरकारी दफ्तरों के अलावा कुछ नहीं था. कोर्ट कचहरी बन जाने के बाद वकीलों ने शहर में घर बनवाना शुरू किया .एक बाज़ार बनी इसको अब चौक कहते हैं . आबादी बढ़ने के साथ  धीरे धीरे सुल्तानपुर एक छोटे शहर के रूप  में विकसित हो गया . आज़ादी के बाद भी शहर के विकास में कोई महत्वपूर्ण चीज़ नज़र नहीं देखी गयी . ज्यादातर  व्यवस्था आदिम कालीन ही है . अंग्रेजों के बाद कहीं कोई विकास योजनाबद्ध तरीके से नहीं हुआ . जिसका जहां  जुगाड़ बना , ज़मीन ली और घर बनवा लिया .
इसी सुल्तानपुर में मेरे जिले का  मुख्यालय है . बचपन में जब पहली बार सुल्तानपुर आया था तो अपने गाँव की तुलना में इतने बड़े शहर को देखकर बहुत  प्रभावित हुआ था लेकिन बड़े होने के साथ साथ यह अनुभूति  हो गयी  कि अपना जिला एक पिछड़ा इलाका है . १९६७ तक हमारे जिले में कोई डिग्री कालेज नहीं था . जिले के नामी वकील बाबू गनपत  सहाय ने १९६७ में एक डिग्री कालेज की शुरुआत की . उसके छः साल बाद १९७३ में कादीपुर में तुलसीदास डिग्री  कालेज और शहर में कमला नेहरू कालेज की स्थापना हुई . अपनी रफ़्तार से  जो भी विकास होना था , वही हुआ.   जिले के पश्चिमी हिस्से में कुछ कल कारखाने लगे क्योंकि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बच्चों ने जिले की एक तहसील  ,अमेठी को अपनी  कर्मभूमि बना लिया . अब अमेठी  भी अलग जिला बन गया है . यानी आज  भी हमारे जिले में विकास के आधुनिक पैमाने पर नापने लायक कोई विकास नहीं है . अलबता यह ज़रूर है कि शहर की  साझा संपत्तियों की जो दुर्दशा शहरीकरण के बाद होती  है , वह खूब हुई . सुल्तानपुर जिले की जीवनदायिनी नदी , गोमती नदी है . पूरे जिले के मध्य से होकर बहती है . इस नदी की हिफाज़त की कहीं किसी को कोई परवाह नहीं . शहर के अन्दर ही   गोमती किनारे सीता  कुंड है  . शहर के लोगों के परिवार  पिछले डेढ़ सौ साल से यहाँ जाते रहे हैं .लेकिन वह भी पूरी तरह से  उपेक्षा का शिकार रहा . १९७३-७४ में जब कभी भी मुझे   सीता कुंड जाने का अवसर मिला तो वहां कुछ भी आकर्षक नहीं था.  दिन में तो वहां शहर के गंजेड़ी और नशेड़ी लोग ही नज़र आते थे लेकिन इस बार जब  मैं राज खन्ना और डॉ सुधाकर सिंह के साथ सीता कुंड गया तो धन्य हो  गया .
डॉ सुधाकर सिंह की प्रेरणा से मैं वहां गया था .  सीताकुंड में  गंदी पडी ज़मीन पर इन नौजवानों ने एक बहुत ही खूबसूरत  वाटिका बना दी है . सफाई इतनी   है कि वहीं बैठे ही रहने का मन करता है .  रविवार का दिन था . गोमती तट पर गायत्री परिवार के  एक संत ने  कथा और आरती करवाई . शाम को  सीताकुंड इतना गुलज़ार था कि मन प्रसन्न हो गया . और उन सभी नौजवानों से मिला जिन्होंने अपने काम काज से समय निकालकर प्रकृति की ख़ूबसूरती के लिए प्रयास किया  है .पता चला कि राष्ट्रीय ग्रीन ट्रायबुनल के एक  फैसले को आधार बना कर सरकार ने  यह आदेश दिया है कि गोमती के दोनों किनारों पर  ५०० मीटर या शायद ढाई सौ  मीटर तक के इलाके को सरकार लेकर उसमें पेड़ पौधे लगवायेगी . इस आदेश के बाद सरकारी बाबुओं ने शहरी  इलाकों में ही बने हुए घरों को तोड़ने का मंसूबा बना लिया है .  माहौल में चर्चा शुरू हो गयी है . कहीं कहीं नोटिस भी भेजे जा रहे हैं . ज़ाहिर है भयादोहन भी हो रहा है . अगर यही सिलसिला बना रहा तो शहरी इलाकों के प्रभावशाली लोग जुटकर सरकार पर दबाव डालेंगें और योजना खटाई में चली जायेगी . डॉ सुधाकर सिंह ने बताया कि जिलाधीश को सुझाव दिया गया है  कि पहले पूरे जिले में  नदी के किनारे जो ज़मीन खाली पडी है ,पहले  उसपर पेड़ पौधे लगाने की बात करिए , आबादी वाले इलाकों पर बाद में बात होगी . लेकिन इन छोटे जिलों में जो आई ए एस अफसर जाते हैं , उनकी प्राथमिकता समय  बिताकर वहां से निकल लेने की होती है . नतीजतन  यह काम भी गति पकड़ने वाला नहीं है . लेकिन सुल्तानपुर में गोमती मित्र मंडल के सदस्य और उनके  अगुवा रूद्र प्रताप सिंह  उर्फ़ मदन भइया ने अपने सीमित संसाधनों और अपने साथियों के  उत्साह के बल पर सीताकुंड के घाट पर एक ऐसा उदाहरण तैयार कर दिया है जिसको लोग नक़ल कर सकते हैं .
 सुल्तानपुर में  गोमती मित्र मंडल के अलावा अंकुरण फाउन्डेशन और शहीद  स्मारक सेवा समिति के  सहयोगी लगभग एक साथ काम करते हैं .   जिले में करीब चालीस साल से समाज सेवा के काम  में लगे , करतार केशव यादव लोगों  को आत्मनिर्भर बनाने के काम में दिन रात लगे  रहते हैं .   नौकरी तो नहीं लेकिन छोटे मोटे काम करने के लिए प्रोत्साहित करके उन्होंने बहुत लोगों को आत्मनिर्भर बना दिया है . जो लोग उनके सद्प्रयास से अपना काम कर रहे हैं , उनमें से कुछ लोगों ने औरों को भी उत्साहित किया है  और उनको सहयोग करके आत्मनिर्भर बना रहे हैं . अंकुरण  वाले नौयुवकों का एक बड़ा काम तो रक्तदान है. जिले में किसी को कहीं भी रक्त की ज़रूरत हो तो यह लोग उद्यत रहते हैं . पांच अप्रैल को रक्तदान का वार्षिक शिविर लगता है और दिन भर चलता है . एक बार तो इन लोगों ने एक दिन  में सात सौ यूनिट रक्तदान का रिकार्ड भी बनाया . यह लोग अनाथ लोगों की सेवा करते  हैं . सड़क पर कहीं कोई मानसिक रूप से असंतुलित व्यक्ति दिख जाए तो उसकी  देखभाल का ज़िम्मा इन लोगों के ऊपर आ  जाता है . जिले के  शास्त्रीनगर में एक अस्पताल भी चलता है. करतार केशव यादव की इतनी इज्ज़त  है कि जिले के बड़े डाक्टर वहां अपना समय दान करते हैं. अपने यहाँ जो दवाइयां बची रहती  हैं उनको वहां पंहुचा देते हैं और उन दवाइयों से उन लोगों का उपकार होता है जो महंगी दवाइयां नहीं खरीद  सकते . यह सभी लोग कोई शोर शराबा नहीं करते , कोई प्रचार  नहीं  चाहते. जिले के सबसे वरिष्ठ पत्रकार राज खन्ना  ने कई बार   गोमती मित्र मंडल ,करतार केशव और अंकुरण के बारे में लिखा . राज  खन्ना साहब की अपने पत्रकार साथियों में बहुत  इज्ज़त है . जब  मैं शहर में था तो शहर के लगभग सभी सम्मानित पत्रकारों से मुलाक़ात का अवसर भी मिला . लोग समय समय पर लिखते रहते हैं लेकिन  इन संस्थाओं में कोई भी ऐसा नहीं है जो फोटो  खिंचवाना चाहता हो.
 जिले के ज्यादातर  तीर्थ स्थानों में यह लोग सफाई और जनसेवा का काम करते रहते हैं. कहीं भी जायेंगें तो सभी लोग सबसे पहले सफाई का काम शुरू कर देंगें और फिर वहां के स्थानीय ग्रामीण लोगों को प्रेरणा मिलती है . मेरी इच्छा थी कि इन लोगों के नाम लिख कर देश को बताऊँ लेकिन ज्यादातर लोगों ने कहा कि कोई ज़रूरत नहीं है . हां , कई वालंटियर बोले की उम्र में सबसे सीनियर करतार केशव जी का सम्मान होना चाहिए. मेरे  दोस्त राज खन्ना ने मेरे  वापस आने के बाद जो लिखा , उतना  अच्छा  तो  मैं नहीं लिख सकता लेकिन उसको उद्धृत ज़रूर करूंगा .  उन्होंने लिखा है , "  वहां की स्वच्छता-सुंदरता के साथ रविवार की गोमती आरती का आकर्षण बड़ी संख्या में लोगों को अपनी ओर खींचता है। मौजूद थे अंकुरण के साथी भी। वही अंकुरण जिसके युवा साथियों ने एक दिन में सात सौ से अधिक रक्तदान करके कीर्तिमान बना दिया। उनके सेवा-सहयोग के प्रयास बहुआयामी हैं। असहाय-विक्षिप्त सबकी सेवा करते हैं। कपड़े बांटते हैं। कोचिंग चलाते हैं। बुक बैंक भी। पर्यावरण-जल संरक्षण-स्वच्छता अभियान और भी बहुत कुछ। बिना शोर-शराबे के दिल को छूने, साथ लेने -जोड़ने और पास बुलाने का एक अभियान। डॉक्टर आशुतोष, जितेंद्र श्रीवास्तव , आरिफ भाई, अभिषेक, सोनू और उनक अनेक साथी साथ थे। नफ़रत-कडुवाहट को ठेंगा दिखाते , वे सेवा के उस पथ पर हैं , जहां सब अपने हैं। बाजू में गोमती की जलधारा शांत है। किनारों की रोशनियां का अक्स उसे चमक दे रहा। अंधेरे को चुनौती तो सेवा के दीप जलाते सुलतानपुर की पहचान बने ये चेहरे भी दे रहे हैं। उन पर मुग्ध भावुक शेष नारायण सिंह कहते हैं कि मैं सन्नाटे में हूँ। खुशी में आंखें और चमक उठती हैं। दीन बंधु सिंह के मधुर स्वर में गोमती आरती के सुर गूंज रहे हैं। जल में टिमटिमाते दियों की कतार अंधेरे का सीना चीरती रोशनी के लंबे सफ़र में है। रोशनी। उम्मीद की रोशनी।"

 मैं कोशिश करूंगा कि इस प्रयास को दुनिया के  सामने लाने में सहयोग कर सकूं . भारत में और दुनिया भर में मौजूद अपने दोस्तों से भी गुजारिश करूंगा कि इस प्रयास को सम्मान दें , मान्यता दें और पहचान दें .

लखनऊ का कॉफ़ी हाउस लिबरल जीवन मूल्यों का महत्वपूर्ण केंद्र है


शेष नारायण सिंह

पिछले दिनों लखनऊ का कॉफ़ी हाउस बंद हो गया था लेकिन अब खुल गया है .लखनऊ के कॉफ़ी हाउस पर भी इसी तरह के संकट आते रहते हैं लेकिन हर बार जिंदा हो उठता है .हर दौर में कुछ लोग कॉफ़ी हाउस की धड़कन के रूप में पहचाने जाते हैं . आजकल  प्रदीप कपूर लखनऊ के कॉफ़ी हाउस की जान हैं . उन्होंने लखनऊ के कॉफ़ी हाउस  के बारे में एक बहुत ही दिलचस्प किताब भी लिखी है  . कॉफ़ी हाउस की  संस्कृति को जिंदा रखने वालों में में यह उनकी दूसरी पीढ़ी है . उनके स्वर्गीय पिता , बिशन कपूर भी कॉफ़ी हाउस के  प्रमुख संरक्षक हुआ करते थे . स्वर्गीय बिशन कपूर हालांकि आगरा के थे लेकिन उस वक़्त के नामी अखबार  ब्लिट्ज के लखनऊ ब्यूरो के प्रमुख के रूप में पूरी दुनिया उनको जानती है . हमारी पीढी के लोग जो पत्रकारिता में धारदार तेवर को जानते हैं , उनमें  ब्लिट्ज का नाम बहुत ही इज्ज़त से लिया जाएगा . कॉफ़ी हाउस को  लखनऊ की राजनीतिक और बौद्धिक ज़िंदगी में एक अहम मुकाम दिलवाने में जिन लोगों का नाम आता है उसमें  उनका नाम सरे फेहरिस्त है . अब यह ज़िम्मा उनके बेटे , प्रदीप कपूर ने ले रखा है .  लखनऊ शहर की तरह ही यहाँ के कॉफ़ी हाउस की  किस्मत में भी उतर चढ़ाव आते रहते हैं. कई बार बंद हुआ और कई बार  खुला. इस बार जब बंद हुआ तो कॉफ़ी हाउस के आशिकों में मायूसी का आलम था . विश्व रेडियो दिवस के एक कार्यक्रम में प्रदीप कपूर दिल्ली में थे जब वापस  लखनऊ गए तो कॉफ़ी हाउस में ताला लग गया . इत्तफाक ऐसा था कि मध्यप्रदेश के राज्यपाल , लालजी टंडन उस दिन शहर में थे . उनको संपर्क किया और उन्होंने लखनऊ के जिलाधिकारी को समझाया कि कॉफ़ी हाउस लखनऊ की विरासत का हिस्सा है . इसको संभालना और चलते रहने देना सरकार की ज़िम्मेदारी है . कॉफ़ी हाउस फिर से खुल गया है . प्रदीप कपूर से बात हुई तो उन्होंने बताया कि लालजी टंडन ने शासन से कहा है कि कुछ ऐसा इंतजाम कर दिया जाए कि भविष्य में कॉफ़ी हाउस बंद  होने की   नौबत ही न आये लेकिन जो लोग लखनऊ को जानते   हैं उनको मालूम  है कि इस शहर में शब्दों और अर्थों के मायने बाकी दुनिया से थोडा अलग होते हैं . कॉफ़ी हाउस बंद तो २००२ में भी हुआ था . उस बार भी लालजी टंडन के प्रयास से ही खुला था . प्रदीप कपूर बताते हैं कि लखनऊ के पूर्व मेयर   दाउजी  गुप्ता , यू एन आई के  पूर्व ब्यूरो चीफ , सुदर्शन भाटिया और  इब्ने हसन  के साथ यह लोग  लालजी टंडन के पास गए थे और  उस बार भी लखनऊ के जिलाधीश की ही ड्यूटी लगाई गयी थी . उस समय तो  लालजी टंडन सरकार में मंत्री भी थे
.किसी भी शहर में कॉफ़ी हाउस वहां की सियासी ज़िंदगी की नब्ज़ होता है .  दिल्ली के कॉफ़ी हाउस के बारे में बताते हैं कि जहां आज   कनाट प्लेस में पालिका बाज़ार है , वहीं १९७६ तक कॉफ़ी हाउस हुआ करता था. उन दिनों देश की राजनीति में  संजय  गांधी की तूती बोलती थी. उनको शक हो गया कि कॉफ़ी हाउस में उनके और उनकी माताजी के खिलाफ साज़िश होती थी . उन्होंने हुक्म दे दिया कि कॉफ़ी हाउस वहां से हटा दिया जाए और वहां एक वातानुकूलित बाज़ार बना दिया जाए . पालिका बाज़ार के निर्माण का काम तुरंत शुरू हो गया और जब तक पालिका बाज़ार बन कर तैयार हुआ , १९७७ में कांग्रेस की सत्ता जा  चुकी थी और जनता पार्टी के लोग सरकार बन चुके थे  .  दिल्ली में जनता पार्टी का मतलब था , तत्कालीन जनसंघ  के नेता, कुछ पुरानी  कांग्रेस के नेता और कुछ सोशलिस्ट . उस वक़्त की बहुत ही शानदार बाज़ार के रूप में विख्यात ,पालिका बाज़ार में जो बहुत ही महंगी दुकाने थीं , उनको भी अलाट करने का का संजय गांधी के विरोधियों के हाथ ही आ गया . दिल्ली का कॉफ़ी हाउस एक अन्य व्यापारिक भवन की छत पर पंहुच गया . कॉफ़ी हाउस की   हैसियत उसके इतिहास और भूगोल से  बनती है . उसको कहीं भी ले जाकर  वही रूतबा हासिल नहीं किया जा सकता है . इसीलिये लखनऊ में कॉफ़ी हाउस संस्कृति के अलमबरदार लोग इस बात पर आमादा रहते हैं कि कॉफ़ी हाउस  वहीं हज़रत गंज में जहांगीराबाद मेंशन में ही रहे . क्योंकि  वह जगह उत्तर प्रदेश की राजनीति के कई पीढी के नेताओं और  पत्रकारों का ठिकाना रहा है . बहरहाल  लखनवी राजनीतिक तहजीब के महत्वपूर्ण व्यक्ति  लालजी टंडन के प्रयास से कॉफ़ी हाउस एक बार फिर चल पडा  है तो अब कुछ दिनों के लिए तो चलेगा .
यूरोप में कॉफ़ी हाउस राजनीतिक ,सामाजिक , साहित्यिक संस्कृति का एक महत्वपूर्ण अनाग हुआ करता था . पश्चिमी नवजागरण के दौर में वहां के चिंतन को उन लोगों ने सबसे अधिक प्रभावित किया जो कॉफ़ी हाउस में नियमित बैठा करते थे . शायद  इसी सोच के मद्दे नज़र लखनऊ में भी १९३८ में  कॉफ़ी हाउस की शुरुआत हुई. देश का बंटवारा नहीं हुआ था  उस  समय से ही कॉफ़ी हाउस यहाँ की राजनीतिक ज़िंदगी में अपनी  भूमिका निभाता रहा है . जो भी राजनीतिक और  सहुत्यिक लोग शहर में रहने पर थोडा भी खाली वक़्त कॉफ़ी हाउस में बिताना पसंस करते थे उनमें  देश की सत्ता और विपक्ष की राजनीति के लोग हुआ करते थे .  पंडित जवाहरलाल नेहरू , डॉ राम मनोहर लोहिया ,आचार्य नरेंद्र देव , अटल बिहारी  वाजपेयी ,  फीरोज़ गांधी , राज नारायण , वी पी सिंह ,नारायण दत्त तिवारी , अमृतलाल नागर ,  यशपाल, भगवतीचरण वर्मा, मजाज़   लखनवी, कैफ़ी आजमी , वीरबहादुर सिंह , चंद्रशेखर  जब भी लखनऊ में होते थे , कॉफ़ी हाउस ज़रूर आते थे .

साठ के  दशक में भी एक बार कॉफ़ी हाउस बंद हो गया था. उस वक़्त बिशन कपूर  लखनऊ की पत्रकारिता की एक बुलंद शख्सियत हुआ करते  थे. उन्होंने ही तत्कालीन राज्यपाल वी वी गिरि से कॉफ़ी हाउस  का उद्घाटन करवा दिया था .  इलाहाबाद हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज और उर्दू के शायर आनंद नारायण मुल्ला १९६७  में लोकसभा के लिए  निर्दलीय उम्मीदवार थे .  उनके चुनाव का मुख्यालय ही लखनऊ का कॉफ़ी हाउस था . उनके मुकाबले में मोहन मीकिन का सेठ , ले कर्नल वी आर मोहन उम्मीदवार था . उसने बहुत पैसा खर्च किया था लेकिन कॉफ़ी हाउस में आने जाने वाले पत्रकारों और नेताओं ने आनंद नारायण मुल्ला को  चुनाव जितवा दिया था .  उनकी शायरी की किताब , 'सियाही की एक बूँद ' की भी चर्चा की जानी चाहिए . उसमें एक शेर था  कि, ख़ूने-शहीद से भी है कीमत में कुछ सिवा , फनकार की   क़लम की सियाही की एक बूँद ' . उत्तर प्रदेश की विधानसभा में १९७४ में उनके इस  शेर की वजह से बहुत हंगामा हुआ था. हेमवती नंदन बहुगुणा मुख्यमंत्री थे और शहीदों का अपमान करने का  आरोप उनपर ज़ोरदार तरीके से लगा था .

लखनऊ का कॉफ़ी हाउस  आज भी शहर  की एक ज़िंदा  जगह है . जब भी कोई बुद्धिजीवी लखनऊ जाता है , उसकी एक  बैठकी कॉफ़ी हाउस में ज़रूर  होती है . प्रदीप कपूर तो वहां होते ही हैं  .आजकल कांग्रेस नेता अमीर हैदर की मौजूदगी  कॉफ़ी हाउस को जिंदा कर देती है . उनको सभी  मुहब्बत से चचा अमीर  हैदर कहते हैं . मैंने लखनऊ में उनसे आला इंसान  नहीं देखा . लखनऊ शहर का जब भी कभी इतिहास लिखा जाएगा तो उसका ज़िक्र एक लिबरल शहर के रूप में होगा . मैंने कॉफ़ी हाउस में शहर की लिबरल तहजीब को देखा है . राजनाथ सिंह सूर्य, चचा अमीर हैदर ,   राजेन्द्र चौधरी , सत्यदेव त्रिपाठी सभी एक ही मेज के इर्दगिर्द बैठे मिल जाते थे  . एक   दूसरे की पार्टी या अपनी ही पार्टी के नेताओं की आलोचना करने वाले यह  लोग इस जिंदादिल शहर की अलामत हैं . कॉफ़ी हाउस की एक  और भी संस्कृति   है . सीनियर  बन्दे की मौजूदगी में किसी जूनियर को जेब में हाथ डालने की ज़रूरत नहीं पड़ती . मैंने पिछली कई यात्राओं में चचा अमीर हैदर को सभी की कॉफ़ी  और अन्य खाद्य पदार्थों का भुगतान करते  देखा  है.    राजेन्द्र चौधरी भी इस  गौरव के अक्सर हक़दार बनते हैं . सुरेश बहादुर सिंह   जैसे जूनियर लोगों को कभी भी जेब में हाथ नहीं डालना होता .
 बहरहाल एक बार फिर  कॉफ़ी हाउस के आशिकों ने उसको  बचा  लिया  है .उम्मीद की जानी चाहिए कि लिबरल जीवन मूल्यों का यह मरकज अभी बहुत वर्षों तक सलामत रहेगा .

डोनाल्ड ट्रंप से दोस्ती के चक्कर में भारत को चीन के खिलाफ अमरीका का फ्रंट स्टेट नहीं बनना चाहिए



शेष नारायण सिंह


आजकल की हालत पर एक सवाल उठाना बहुत ज़रूरी हो गया है कि अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प भारत आ क्यों रहे  हैं . उन्होंने साफ कह दिया  है कि कोई बड़ा  व्यापारिक सौदा नहीं होगा . वे आयेंगे , दो दिन रहेंगे . अहमदाबाद जायेंगे , आगरा जायेंगे और  दिल्ली में केजरीवाल सरकार के शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया के प्रिय प्रोजेक्ट , दिल्ली के सरकारी स्कूलों में प्रसन्नता की कक्षाओं में उनकी पत्नी जाकर कुछ देखेंगी. अमरीकी राष्ट्रपति की यात्रा का सारा प्रोटोकल निभाया जाएगा . अभी आये नहीं  हैं लेकिन अमरीका में  उन्होंने बयान जारी करके बता दिया है कि  अभी वे भारत के साथ को व्यापारिक डील नहीं करेंगे. उसको बाद के लिए रखेंगें . जब हमारे प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी अमरीका  गए थे तो  अमरीका के दक्षिणी हिस्से में एक शहर में करीब पचास हज़ार लोग इकठ्ठा हुए थे .  अब यहाँ ट्रंप महोदय उम्मीद लगाये बैठे है कि उनके स्वागत में सत्तर लाख लोग आयेंगे . कोई उनसे पूछे कि महराज अहमदाबाद शहर की आबादी ही छप्पन लाख है तो आपके स्वागत के लिए इतनी बड़ी संख्या कैसे  जुटाई जायेगी . लेकिन उन्होंने मुंह खोल के कह  दिया है कि सत्तर लाख लोग होंगें तो करना तो पडेगा ही . अहमदाबाद  में उनके शो का एजेंडा भी कुछ अमरीकी अखबारों में छपना शुरू हो गया है . ट्रंप को उम्मीद है कि इसी साल के अंत में होने वाले राष्ट्रपति  पद के चुनाव में वे दोबारा जीत जायेंगें . अमरीका में बसे भारतीयों की एक बड़ी संख्या डेमोक्रेटिक  पार्टी को वोट देती  रही है . ट्रंप इस फ़िराक में हैं कि मोदी की अमरीका में बसे भारतीयों में जो लोकप्रियता  है उसके चलते उनको एक बड़ी भारतीय मूल वालों की अमरीकी आबादी का समर्थन मिल जाएगा .

साफ दिख रहा  है कि ट्रंप की इस  यात्रा  से भारत को कोई लाभ नहीं होने वाला है  लेकिन गुजरात सरकार उनकी यात्रा को अमरीकी दम्पति के लिए एक यादगार यात्रा बनाने  के लिए सारे उपाय कर रही है .  हवाई अड्डे से सभास्थल पर जाने वाले  रास्ते में बहुत सारी झुग्गियां पड़ती हैं. एक बहुत ही बड़ी दीवार बनाई जा रही है जो उन झुग्गियों को अमरीकी प्रथम दम्पति की नज़र से ओझल कर देगा . उस दीवाल पर  पेंटिंगें बनाई जा रही हैं . शहर में आवारा पशुओं की बहुत बड़ी संख्या है . उनको सम्हालने का इंतज़ाम भी किया जा रहा  है . अहमदाबाद के नगर निगम में आवारा कुत्तों को पकड़ने का एक बहुत बड़ा प्रोजेक्ट चल रहा  है . रास्ते में संभावित नीलगाय के आने को रोकने के भी सारे  चाक चौबंद इंतजाम किया गया है . अहमदाबाद हवाई अड्डे पर पर बंदरों की भी खासी आबादी है .उनको भी भगाने के लिए सरकार ने काफी इंतज़ाम कर रखा है .

अहमदाबाद के बाद ट्रंप आगरा पधारेंगे . वहां ताजमहल का दर्शन करने के अमरीकी दम्पति के कार्यक्रम में किसी भी बाधा को रोकने की तैयारी कर ली गयी है .बहुत ही अधिक  प्रदूषित यमुना नदी से निकलने वाली बदबू को रोकने के लिए करीब चौदह हज़ार लीटर पानी आगरा में  यमुना जी में डाला जाएगा .इस कार्यक्रम में भी सरकार को बड़ी धनराशि खर्च करनी पड़ेगी .

अमरीकी राष्ट्रपति से साफ़ घोषणा कर  दी है कि भारत से कोई बड़ा व्यापार समझौता नहीं करने वाले हैं लेकिन   भारत के रक्षा मंत्रालय ने  अमरीका से करीब बीस हज़ार करोड़  रूपये का  हथियार आदि  खरीदने का मन बना लिया है ..  तुर्रा यह  कि रूसी मिसाइल डिफेंस खरीद के भारत के कार्यक्रम पर ट्रंप सहित सभी बड़े अमरीकी नेता नक् भौं सिकोड़ते रहते  हैं.

भारतीय जनता के हित में मोदी सरकार ने अमरीका से आने वाले बहुत सारे मेडिकल  सामान के दाम कर दिया था . ट्रंप उसको भी बढवाने के चक्कर  में हैं .लगता है उनकी नाराजगी के  कारणों में एक वह भी है क्योंकि अब वह बात भी नहीं होगी . भारत से अमरीकी मोटर साइकलों पर ड्यूटी कम करने की फ़रियाद भी अमरीका ने की थी . अपनी खस्ताहाल अर्थव्यवस्था के  बावजूद भारत में अमरीका के हित में  काम करने की इच्छा उफान मार रही थी लेकिन राजनीतिक रूप से उस फैसले की कीमत बहुत ज्यादा होने की आशंका है . शायद इसीलिये सरकार ने उसको भी रोक दिया  है . इन्हीं सब बातों से अमरीका नाराज़ बताया जा रहा है . उनके व्यापार प्रतिनिधि की भारत यात्रा भी अभी कुछ  दिन पहले रद्द की जा चुकी है .   भारत के अलमूनियम और स्टील के उत्पादों के लिए भारत बाज़ार की तलाश अमरीका में कर रहा है लेकिन अमरीका उसको भी कोई तवज्जो नहीं दे रहा है .

इरान में भी अमरीकी विदेशनीति हिचकोले ले रही है . अमरीका उम्मीद कर रहा है कि भारत भी उसकी राग अलापे लेकिन भारत के लिए यह संभव नहीं है . सही बात यह है कि भारत-अमरीकी संबंधों में नरेंद्र मोदी और डोनाल्ड ट्रंप की दोस्ती के अलावा कुछ भी अच्छा नहीं है .अमरीका भारत को अब एक यजमान देश बनने के लिए सारी कोशिश कर रहा है . प्रश्न उठता  है कि क्या अमरीका का क्लायंट बनना भारत के  राष्ट्र हित में होगा. अब तक का अमरीका का  जो रिकार्ड रहा है उसकी  बुनियाद पर बहुत ही साफ़ शब्दों में कहा जा  सकता  है कि अमरीका से दोस्ती  किसी के हित में नहीं है . इतिहास अपने आपको   दोहराता तो नहीं है लेकिन इतिहास एक शिक्षक का काम करता  है . उससे जो  सबक नहीं सीखता उस देश को परेशानी का सामना करना पड़ता  है . इसलिए अमरीका-भारत के संबंधों में राजनय के जानकारों की राय को अहमियत देना ज़रूरी  है .इसलिए  मौजूदा सरकार अमरीकी संबंधों  में निजी  दोस्ती को पृष्ठभूमि में डालकर देशहित में काम  करना चाहिए.


इस बात में दो राय नहीं है कि भारत और अमरीका के बीच दोस्ती बढ़ रही है .  लेकिन दोस्ती भारत के हित में कम और  अमरीका के हित में ज्यादा है . अमरीका चीन की बढ़ती ताक़त से चिंता में हैं . भारत के पड़ोस में चीन का प्रभाव रोज़ ही बढ़ रहा है . दक्षिण एशिया के कई देशों में चीन ने बंदरगाह बनाने का काम बड़े पैमाने पर शुरू कर दिया है . नेपाल भारत का पुराना और पारंपरिक दोस्त हुआ करता था लेकिन अब वहां भी ऐसी विचारधारा की सरकार बन गयी है जिसके बाद नेपाल की चीन  से दोस्ती बढ़ गयी है .मालदीव एक ऐसा देश था  जो भारत का बहुत ही अपना माना जाता था वहां से भी जो ख़बरें आ रही हैं उसके अनुसार अब मालदीव भी चीन का ज़्यादा करीबी हो गया है. बंगलादेश और भूटान से भारत के अच्छे सम्बन्ध अभी भी बने हुए हैं  लेकिन वे भी चीन के खिलाफ भारत के साथ  नहीं आयेंगे.  डोकलाम विवाद में यह बात साफ़ देखी जा चुकी  है  भूटान की त.रफ से कुछ एडजस्टमेंट के संकेत पहले से ही मिल चुके  हैं . पाकिस्तान अब  चीन का सबसे भरोसेमंद सहयोगी बन गया है . कश्मीर में जिस हिस्से पर पाकिस्तान का  गैर कानूनी  क़ब्ज़ा है उसमें उसने चीन को सड़क बनाने की  अनुमति देकर भारत को कमज़ोर  करने की  कोशिश की है. पाकिस्तान के कब्जे वाले बलोचिस्तान में चीन बहुत बड़ा बंदरगाह बना रहा है .  पाकिस्तान और मालदीव में बन  रहे चीनी बंदरगाह घोषित रूप से व्यापारिक उद्देश्य से बनाए जा रहे  हैं लेकिन अगर ज़रूरत पड़ी तो उनको सैनिक इस्तेमाल में लेने  से कौन रोक सकता  है . ऐसी स्थिति में भारत को  चिंता है . अमरीका ऐसे मौकों की तलाश में रहता  है . चीन की मजबूती का भौकला बनाकर वह भारत को अपने गुट का देश  बनाने की कोशिश कर रहा है . भारत को इस तिकडम से अपने आपको  बचाना होगा .

भारत से चीन के रिश्ते १९६२ के युद्ध के बाद बहुत ज़्यादा बिगड़ गए थे. १९८८ में  राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व के समय थोड़ा बहुत आवाजाही शुरू हुई लेकिन अभी भी  दोस्ती के सम्बन्ध नहीं हैं . प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी ने कई बार चीन की यात्रा आदि करके रिश्तों को सुधारने की कोशिश की है लेकिन दो देशों के बीच रिश्ते निजी संबंधों से नहीं सुधरते ,वहां तो सभी देश अपने अपने राष्ट्रहित के हिसाब से काम करते हैं . एशिया प्रशांत और  हिन्द महासगार के क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव से भारत  तो चिंतित है हीअमरीका में भी बहुत चिंता है . अमरीका की कोशिश है कि  इस इलाके में चीन के प्रभाव पर लगाम  लगाने के लिए भारत को इस्तेमाल किया जाए . उसको मालूम है कि चीन के दबदबे को कम करने के लिए भारत भी अमरीका से  दोस्ती को और अधिक बढ़ाएगा ,  व्यापारिक और सामरिक रिश्ते बढ़ाएगा और इस इलाके में अमरीकी हितों की रक्षा करने के लिए भी तैयार हो सकता है .लेकिन अभी विश्वास का संकट है . अमरीका अभी भारत को बराबरी का दर्ज़ा देने के लिए  तैयार नहीं दिखता   .अगर भारत ने चीन के  खिलाफ अमरीका का  फ्रंट स्टेट बनने की गलती कर दी तो यह बहुत बड़ी राजनीतिक गलती होगी . दोनों ही देश अभी एक  दूसरे पर पूरा विश्वास नहीं कर पा रहे हैं . अमरीका को  यह चिंता है कि भारत इस इलाके में चीन के बढ़ते प्रभाव को कम करने में अमरीका के कितने काम आयेगा . अमरीका में इस बात से भी नाराज़गी है कि भारत की इरान से  जो व्यापारिक दोस्ती है उसको कितना कम करेगा . भारत में भी अमरीका को हमेशा शक की नज़र से देखा जाता है. अमरीका की समस्या यह है कि वह  जिस देश से भी दोस्ती करता है उसको अपने ऊपर पूरी तरह से निर्भर बनाना चाहता है . पड़ोस के पाकिस्तान का  उदाहरण सबके सामने है . पाकिस्तान कभी अमरीका का एक तरह से गुलाम देश हुआ करता था लेकिन अब वह चीन के खेमे में हैं . अमरीका को इस इलाके में एक वफादार मुल्क की ज़रूरत है जो  पाकिस्तान से रिश्ते खराब होने की भरपाई कर सके. भारत को बहुत ही सावधान रहना पडेगा कि कहीं वह अमरीका का वैसा दोस्त न बन जाये जैसा कभी पाकिस्तान हुआ करता है . 

भाजपा की हार का कारण -दिल्ली चुनाव में भावनात्मक नहीं असली मुद्दों पर हो गया



शेष नारायण सिंह

दिल्ली विधानसभा आम आदमी पार्टी ने चुनाव भारी बहुमत से जीत लिया. केंद्र की सत्ताधारी पार्टी बीजेपी ने पूरी कोशिश की कि चुनाव में इस बार आम आदमी पार्टी को शिकस्त दें और सरकार बनाएं लेकिन  वह सपना अब कम से कम पांच साल के लिए खिसक गया है .  चुनाव में हुयी बुरी तरह की हार की ज़िम्मेदारी दिल्ली प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष मनोज तिवारी ने ले ली है  . संभव  है कि  बलि के बकरे की तलाश अब यहीं रुक जायेगी .  मनोज तिवारी  के खिलाफ वे तलवारें भी म्यानों से बाहर  आ गयी हैं जो अब तक छुप  छुप का वार करने की फ़िराक में रहा करती थीं . दिल्ली प्रदेश के भाजपा नेताओं ने मनोज तिवारी को हमेशा ही  घुसपैठिया  माना . जब उनको दिल्ली बीजेपी के अध्यक्ष पद पर तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने नामित किया तब  भी दिल्ली के मुकामी नेताओं ने  विरोध किया था लेकिन किसी की हिम्मत सामने आकर कुछ कहने  की नहीं थी. लेकिन अब सब मुखर हो गए हैं . अभी खुले आम बयानबाजी शुरू नहीं हुई है लेकिन उनकी अस्वीकार्यता की आवाज़ फिर सत्ता के गलियारों में सुनाई पड़ने लगी है .
मनोज  तिवारी को अपनी कुर्बानी से दिल्ली की हार से लगी चोट पर मरहम लगाने की ड्यूटी तो दे दी गयी है लेकिन इस  चुनाव में उनकी भूमिका बहुत ही  मामूली थी . चुनाव अभियान का  नेतृत्व हर  स्तर पर गृहमंत्री अमित शाह कर रहे थे . अभियान के पूरे एक महीने के दौरान जब भी पार्टी के किसी नेता या  प्रवक्ता से यह बात करने की कोशिश की गयी कि ,भाई दिल्ली में आप पार्टी के जनहित के रिकार्ड के मद्दे-नज़र आपकी पार्टी चुनाव हार  भी सकती है . ऐसी हालत में पार्टी के सबसे बड़े नेता  को संभावित हार के  कारण के रूप में पेश किये जाने  का अवसर क्यों दे रहे हैं . तो उनका जवाब एक ही होता था कि अव्वल तो हमारी जीत हो रही है .और अगर एक प्रतिशत हार भी हुयी तो हमारे यहाँ राष्ट्रीय नेतृत्व मज़बूत है और वह आगे से अभियान की अगुवाई करता है और उसका जो भी नतीजा हो स्वीकार करता है . यह सारे तर्क अपनी जगह हैं लेकिन जैसा कि रिवाज़ है  हार का ज़िम्मा बीजेपी में भी छोटे नेताओं पर  ही जाएगा लिहाज़ा मनोज तिवारी को आगे कर दिया  गया है . सबको पता है कि  दिल्ली विधान सभा के इस चुनाव में बीजेपी के अभियान की कमान पूर्व अध्यक्ष और गृहमंत्री अमित शाह के हाथ में थी . चुनाव प्रचार के जितने भी तीर उनके पास थे सब चलाये  गए . पिछले  छः  वर्षों के  राष्ट्रीय राजनीति के अपने दौर में अमित शाह ने कई महत्वपूर्ण बुलंदियां हासिल की  हैं. २०१४ के चुनाव में वे बीजेपी के महामंत्री थे और उत्तर प्रदेश के इंचार्ज थे . उन्होंने गाँव और कस्बे तक की पंहुच के ज़रिये ऐसा चुनाव लड़ा जिसको  चुनावी प्रबन्धन की एक कुशल तकनीक के रूप में याद किया जाता है . इस सन्दर्भ में उनकी क्षमता की इज्ज़त सभी  करते हैं . उत्तर प्रदेश के उस चुनाव से भी ज्यादा  मेहनत से उन्होंने दिल्ली के चुनाव की अगुवाई की . सत्तर सीटों वाली विधान सभा के लिए उन्होंने पचास चुनावी सभाएं कींरोड शो किया . घर घर जाकर चुनाव प्रचार किया . चुनावी पर्चे बांटे .भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को  मुहल्लों में घूम घूम कर प्रचार करने के लिए प्रेरित किया. पूर्व मुख्यमंत्रियों को  प्रचार के काम में लगाया . केंद्रीय मंत्रियों को   प्रचार में शामिल किया  . जिन  इलाक़ों में पूर्वांचली आबादी अधिक थी वहां  केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह को दिन रात के लिए ड्यूटी पर लगाया .  पूर्वांचली मतदाताओं को रिझाने के लिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी तलब किया गया . दिल्ली की करीब एक हज़ार से अधिक झुग्गी झोपडी बस्तियों में करीब ढाई सौ सांसदों को तैनात किया गया और उनको वहीं बस्तियों में तीन दिन-रात रहने की व्यवस्था की . लेकिन बीजेपी चुनाव हार गयी . जो आठ विधायक  जीते हैं उसमें पार्टी का कोई ख़ास  योगदान नहीं  है . विजेंद्र गुप्ताओम प्रकाश शर्मा ,रामवीर विधूड़ी जैसे लोग निजी तौर पर भी बहुत ही प्रभावशाली लोग हैं .. अमित शाह की  नज़र से यह बात पता नहीं कैसे फिसल गयी और वे समझ नहीं पाए कि  दिल्ली की जनता अपनी आर्थिक परेशानी महंगाई कानून व्यवस्था की  दुर्दशा नगरपालिकाओं की गैर ज़िम्मेदारी आदि के लिए उनकी पार्टी के सांसदों और मंत्रियों को  ज़िम्मेदार मानती है . और जब यह लोग रोज़ ही सामने दिखते  थे तो उसका गुस्सा और भी बढ़  जाता था. बीजेपी की नीतियों की असफलता और तज्जनित परेशानी  के बरक्स  आम आदमी पार्टी की  शिक्षा स्वास्थ्य बिजली पानी और यातायात की सुविधा वाले काम बहुत ही अच्छे लगने लगे थ. यह सच्चाई दिल्ली की हवा में चारों तरफ थी लेकिन अमित शाह जैसा माहिर राजनेता की नज़र से  कैसे छोक गया इसपर अध्ययन किया जाना चाहिए .
दिल्ली विधानसभा में बीजेपी के चुनाव अभियान के तरीके  में एक बदलाव भी  देखा गया . २०१३ से लेकर अब तक  के सभी चुनावों में प्रधानमंत्री की मुख्य भूमिका हुआ करती थी.  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुख्य प्रचारक रहा करते थे . पार्टी अध्यक्ष के रूप में अमित  शाह की सहायक भूमिका होती थी लेकिन इस बार ऐसा नहीं था .अमित शाह मुख्य प्रचारक रणनीतिकार सब कुछ थे . उन्होंने ही चुनावी मुद्दे तय किये थे . शाहीन बाग़ ३७० बिरयानी  पाकिस्तान , ‘ हिन्दू खतरे में हैं ‘ आदि मुद्दे अब तक  चुनावों में  काम आते रहे थे . उनकी सफलता का कारण यह होता था कि कांग्रेस के  प्रचार की अगुवाई कर रहे राहुल गांधी और उनके शिष्य नेता बीजेपी के मुद्दों पर प्रतिक्रया देकर उनको सफल बनाते थे . अरविन्द केजरीवाल ने ऐसा नहीं होने दिया . उन्होंने  शिक्षा स्वास्थ्य बिजली पानी  के अलावा किसी मुद्दे पर बात  ही नहीं की .  अपने मुद्दों से ध्यान भटकने नहीं दिया . नतीजा यह हुआ कि आम आदमी पार्टी ने अपनी पिच पर ही खेल जारी रखा और बीजेपी के सारे मुद्दों को नज़रंदाज़ किया . यही कारण है कि दिल्ली की विधानसभा के लिए जो चुनाव लड़ा गया वह चुनावी राजनीति को समझने के लिए बहुत समय तक सन्दर्भ का काम  करता रहेगा . आम आदमी पार्टी के नेता देश में अपनी इकलौती सरकार बचाने के लिए चुनाव लड़ रह थे जबकि बीजेपी के नेता दिल्ली शहर और राज्य में भाजपा की सत्ता स्थापित करने की कोशिश कर रहे थे . अपने देश में इतनी गहन  चुनावी लड़ाई कभी नहीं लड़ी गयी है . भारतीय जनता पार्टी ने अपने सभी संसाधन चुनाव अभियान में झोंक दिया था . आम आदमी पार्टी के पास भी चुनाव लड़ने की दिल्ली  शहर में एक ऐसी  मशीनरी  है जिसको अब तो अजेय ही माना जाएगा . इस चुनाव में कांग्रेस भी एक महत्वपूर्ण राजनीतिक पार्टी के रूप में शामिल हुयी लेकिन उसने चुनाव में कोई ख़ास असर नहीं डाला . कांग्रेस के रवैय्ये के कारण यह चुनाव एक तरह से आप और बीजेपी के बीच डायरेक्ट चुनाव ही हो गया . हालांकि बीजेपी के नेताओं ने पूरी कोशिश की कि कांग्रेस  गंभीरता से चुनाव का काम करे  क्योंकि वह एक राष्ट्रीय पार्टी है लेकिन कांग्रेस का चुनाव अभियान बहुत ही मामूली तरीके से संचालित किया  गया . जानकार और बीजेपी से सम्बद्ध लोग बताते हैं  कि अगर कांग्रेस ठीक से चुनाव लडती तो बीजेपी की सीटों  की संख्या बहुत ज़्यादा होती.
चुनाव में हारजीत तो होती रहती है लेकिन भारतीय जनता पार्टी की तरफ से  जो तर्क आ  रहे  हैं वह बहुत ही दिलचस्प हैं . बीजेपी के कई प्रवक्ताओं ने टेलिविज़न की बहसों में बताया  कि इस चुनाव में केवल उनकी पार्टी ने वोट प्रतिशत में वृद्धि की है .पांच साल पहले हुए दिल्ली विधानसभा के चुनाव में उनको करीब ३२ प्रतिशत  वोट मिले थे जबकि इस बाद उनका वोट प्रतिशत बढ़कर ३८ हो गया है . यह एक बड़ी उपलब्धि है .उनकी बातचीत से ऐसा लगता है कि वे सरकार बनाने के लिए नहीं वोट प्रतिशत बढाने के लिए चुनाव लड़ रहे  थे .बीजेपी से सहानुभूति रखने वाले स्वतंत्र पत्रकारों ने  ने भी कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी की   कई बार निंदा की और कहा कि पार्टी को अपने  अस्तित्व को बचाए रखना चाहिए क्योंकि अभी छः साल पहले तक उनका दिल्ली की सरकार पर क़ब्ज़ा था .इस सब से अलग  कांग्रेसी खुश  हैं . पूर्व मंत्री पी चिदंबरम ने तो केजरीवाल को बधाई भी दे दी और अपनी ही पार्टी एक वर्ग से हो रही आलोचना को झेल  रहे  हैं  लेकिन लगता  है कि अपनी पार्टी की कमजोरी की चिंता उनको कम है लेकिन बीजेपी की हार की  चिंता  ज़्यादा है . कांग्रेस की तरफ से अपना प्रचार कमज़ोर कर देना एक रणनीति भी हो सकती है .  प्रथम दृष्टया ऐसा लगता भी  है . चुनाव में कांग्रेस ने अपने मज़बूत नेताओं को सामने नहीं किया . जयप्रकाश अग्रवाल , अजय माकन जैसे नेता सामने नहीं आये . पार्टी का कोई बड़ा नेता भी प्रचार करने के लिए सामने नहीं आया . दिल्ली प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष भी एक ऐसे आदमी को बना दिया गया जो बहुत पहले दिल्ली की राजनीति से बाहर हो चुका है . प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की अपनी पुत्री  भी चुनाव में उम्मीदवार थी और अपनी ज़मानत बचाने में नाकामयाब रही . ऐसी स्थिति में साफ लगता है कि कांग्रेस को अपने अस्तित्व की चिंता उतनी नहीं थी जितनी की बेजीपी को हरा  देने की  तत्परता थी.
कांग्रेस की इस रणनीति से बीजेपी के चुनाव प्रबंधक चिंतित हैं  . उनको  मालूम है कि अन्य राज्यों में भी अगर चुनाव सीधे आमने सामने का हो गया तो बीजेपी के लिए बहुत ही मुश्किल होगी . केंद्र की सत्ताधारी  और मज़बूत पार्टी को अगर कई राजनीतिक पार्टियों से चुनौती मिलती है तो उसके लिए चुनाव जीतना  आसान होता है लेकिन अगर उसके खिलाफ  राजनीतिक पार्टियां इकठ्ठा हो जाएँ या मुकाबला  आमने सामने का हो जाए तो चुनाव जीतना बहुत ही मुश्किल हो जाएगा . इसी सोच के आधार पर तत्कालीन सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस और उसके  अजेय नेता जवाहरलाल नेहरू को चुनौती देने के लिए समाजवादी नेता डॉ राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद की रणनीति का आविष्कार किया  था. गैर कांग्रेसवाद के चलते ही उत्तर भारत के कई राज्यों में १९६७ के चुनाव के बाद संविद सरकारें बन गयी थीं . अगर मौजूदा सत्ताधारी पार्टी के सामने भी सभी विपक्षी पार्टियां एकजुट होने की रिवाज़ को अपना लेंगीं तो बीजेपी के लिए अभी और भी मुश्किल होने वाली है. और यह बीजेपी की मौजूदा मुश्किलों में सबसे गंभीर है

सन्दर्भ दिल्ली चुनाव २०२०

दिल्ली चुनाव पर लाख  टके का सवाल-सरकार के काम पर जीत होगी या भावनात्मक मुद्दों पर

शेष नारायण सिंह

सुप्रीम कोर्ट के आदेश से  अयोध्या में रामजन्मभूमि मंदिर बनाने के लिए ट्रस्ट की घोषणा हो गयी .सब को पता रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद  कोई  धार्मिक प्रोजेक्ट नहीं था , वह एक राजनीतिक प्रोजेक्ट था. उस विवाद के कारण उसका सञ्चालन करने वालों को भारी राजनीतिक लाभ भी मिला . बाबरी मस्जिद को विवाद में लाने की आर एस एस की जो मूल  योजना थी वह मनोवांछित फल दे  चुकी है. आज  केंद्र सहित अधिकतर राज्यों में आर एस   एस के राजनीतिक संगठन ,बीजेपी की सरकार है. यह सफलता एक दिन में नहीं हासिल मिली है . १९४६ में मुहम्मद अली जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन के आवाहन के बाद जब पंजाब और बंगाल में  साम्प्रदायिक दंगे शुरू हुए तो  आर एस एस  के कार्यकर्ताओं ने दंगाग्रस्त इलाकों में हिन्दुओं की बहुत मदद की थी . उनकी लोकप्रियता  अविभाजित पंजाब और बंगाल में बहुत ही ज़्यादा थी . उन दिनों आर एस एस का अपना कोई  राजनीतिक संगठन नहीं था लेकिन यह माना जाता था कि जिसको भी आर एस एस वाले मदद करेंगें उसको चुनावी सफालता मिलेगी . लेकिन आज़ादी  मिलने के छः महीने के अन्दर ही महात्मा गांधी की  हत्या हो गयी  . गांधी जी की हत्या नाथूराम गोडसे ने की थी लेकिन उसके साथ  आर एस एस के सबसे बड़े नेता एम एस  गोलवलकर  और उनकी विचारधारा के पुरोधा , वी  डी सावरकर भी संदेह की बिना पर गिरफ्तार हो गए थे जो  आर एस एस के लिए बड़ा झटका था . बाद में गोलवलकर और सावरकर तो  छूट  गए लेकिन हिन्दू महासभा के नेताओं , नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे को फांसी हो गयी . नाथूराम के भाई  , गोपाल गोडसे ,मदनलाल पाहवा और विष्णु रामकृष्ण करकरे को आजीवन कारावास की सज़ा हुयी.  महात्मा गांधी की हत्या के बाद  हिंदुत्व की राजनीति करने वालों को राजनीतिक नुकसान हुआ. उस दौर के हिन्दू महासभा के बड़े नेता , डॉ श्यामा प्रसाद  मुखर्जी ने हिन्दू महासभा  को छोड़ दिया और नई पार्टी, भारतीय जनसंघ बना लिया . जनसंघ की स्थापना में उनको उनके मित्र एम एस गोलवलकर के सौजन्य से आर एस एस के एक कुशाग्रबुद्धि प्रचारक , दीन दयाल उपाध्याय सहयोग करने के लिए मिल गए .   हिन्दू महासभा से दूरी बनाकर भारतीय जनसंघ ने काम शुरू किया . १९५२ के चुनाव में डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की बंगाल में लोकप्रियता के कारण वहां उनको सीटें भी  मिलीं लेकिन  महात्मा गांधी की  हत्या में नाम आने के  कारण आर एस एस की स्वीकार्यता हमेशा से ही सवालों के घेरे में आ गयी थी .  अपनी स्थापना के एक दशक बाद जनसंघ के सामने एक बड़ा अवसर आया जब डॉ राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद की राजनीति के हवाले से अपनी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के साथ स्वतंत्र पार्टी , प्रजा सोशालिस्ट पार्टी और  भारतीय   जनसंघ का गठबन्धन बनाकर १९६३ में चार सीटों के लोकसभा उपचुनाव में जाने का फैसला किया . चारों पार्टियों के सर्वोच्च नेताओं को चुनाव लड़ाया गया .डॉ लोहिया ,आचार्य कृपलानी और मीनू मसानी तो जीत गए लेकिन दीन दयाल उपाध्याय  जौनपुर से चुनाव हार गए .चुनाव में हार के बावजूद  जनसंघ को इस चुनाव का लाभ यह मिला कि उस समय  तक राजनीतिक अछूत बने रहने का उसका कलंक धुल गया .मुख्य पार्टियों से बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया .उसके  चार साल बाद १९६७  में जब राज्यों में संविद सरकारों के प्रयोग हुए तो उत्तर भारत के कई राज्यों में  जनसंघ के विधायक भी मंत्री  बने. अब आर एस एस की राजनीतिक शाखा मुख्यधारा में आ चुकी थी . शिक्षा और संस्कृति के  क्षेत्र  में वे अपने अन्य संगठनों के ज़रिये बड़े पैमाने पर काम कर ही रहे थे .  असली ताक़त जनसंघ को तब मिली जब इंदिरा गांधी के खिलाफ सभी  विपक्षी पार्टियां एकजुट हुईं और  जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन में जनसंघ के नेता भी शामिल हो गए .नतीजा यह हुआ कि जब १९७७ में जनता पार्टी का गठन हुआ तो उसमें भारतीय जनसंघ बड़े घटक में रूप में शामिल हुयी . जनता पार्टी चली नहीं .ढाई साल में ही टूट गयी .  भारतीय जनता पार्टी की स्थापना हो गयी . १९८० में  जनता पार्टी इसलिये टूटी थी कि पार्टी के बड़े समाजवादी  नेता मधु लिमये ने मांग कर दी थी कि जनता पार्टी में जो लोग भी शामिल थेवे किसी अन्य राजनीतिक संगठन में न रहें . मधु लिमये ने हमेशा यही माना कि आर एस एस एक राजनीतिक संगठन है और हिन्दू राष्ट्रवाद उसकी मूल राजनीतिक विचारधारा है . आर एस एस ने अपने लोगों को पार्टी से अलग कर लिया और भारतीय जनता पार्टी का गठन कर दिया .शुरू में इस पार्टी ने उदारतावादी राजनीतिक सोच को अपनाने की कोशिश की . दीन दयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और गांधीवादी समाजवाद जैसे राजनीतिक शब्दों को अपनी बुनियादी सोच का आधार बनाने की कोशिश की . लेकिन जब १९८४-८५  के लोकसभा चुनाव में ५४२ सीटों वाली लोकसभा में बीजेपी को केवल दो सीटें मिलीं तो उदार राजनीतिक संगठन बनने का विचार हमेशा के लिए दफन कर दिया गया . जनवरी १९८५ में कलकत्ता में आर एस एस के टाप नेताओं की बैठक हुई जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को भी बुलाया गया और साफ़ बता दिया गया कि अब गांधीवादी समजावाद जैसे शब्दों को भूल जाइए . पार्टी को हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति के हिसाब से चलाया जाएगा . वहीं तय कर लिया गया कि अयोध्या की बाबरी मस्जिद और रामजन्मभूमि के विवाद की राजनीति का जो राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन बहुत समय से चला आ रहा था उसको और मजबूत  किया जाएगा . आर एस एस के दो संगठनोंविश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को इस प्रोजेक्ट को चलाने का जिम्मा दिया गया. विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना १९६६ में हो चुकी थी लेकिन वह उतना सक्रिय नहीं था. १९८५ के बाद उसे सक्रिय किया गया और कई बार तो यह भी लगने लगता था  कि आर एस एस वाले बीजेपी को पीछे धकेल कर वी एच पी से ही राजनीतिक काम करवाने की सोच रहे थे . लेकिन ऐसा नहीं हुआ और चुनाव लड़ने का काम बीजेपी के जिम्मे ही रहा . १९८५ से अब तक बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को ही अपना स्थायी भाव मानकर चल रही है .बीजेपी के लोगों ने पूरी तरह से समर्पित होकर हिन्दू राष्ट्रवाद की अपनी राजनीति की सफलता के लिए काम किया . उनको एडवांटेज यह  रहा कि कांग्रेस और अन्य सेकुलर पार्टियों ने अपना काम ठीक से नहीं किया  इसलिए देश में हिन्दू राष्ट्रवाद का खूब प्रचार प्रसार हो गया . बीजेपी ने बहुत ही कुशलता से हिन्दू धर्म और  हिंदुत्व के बीच की दूरी को मिटाने के लिए दिन रात कोशिश की. उन्होंने  सावरकर की हिंदुत्व की राजनीति को ही हिन्दू धर्मं बताने का अभियान चलाया . नतीजा यह हुआ बड़ी संख्या में  हिन्दू धर्म के अनुयाई उसके साथ जुड़ गए .वही लोग १९९१ में अयोध्या आये थे जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी . बाबरी मस्जिद को तबाह करने पर आमादा इन लोगों के ऊपर गोलियां भी चली थीं .वही लोग १९९२ में अयोध्या आये थे जिनकी मौजूदगी में बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ वही लोग साबरमती एक्सप्रेस में सवार थे जब गोधरा रेलवे स्टेशन पर उन्हें जिंदा जला दिया गया .

 पिछले तीस वर्षों में आर एस एस ने रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के मुद्दे को ज़बरदस्त हवा दी. कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमान उनके हाथों में खेलने लगे.. बीजेपी के बड़े नेता लाल कृष्ण आडवानी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा की. गाँव गाँव से नौजवानों को भगवान राम के नाम पर इकट्ठा किया गया और एक बड़ी राजनीतिक  जमात तैयार कर ली गयी . बाबरी मस्जिद के नाम पर मुनाफा कमा रहे कुछ गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों ने वही किया जिस से आर एस एस को फायदा हुआ. हद तो तब हो गयी जब मुसलमानों के नाम पर सियासत कर रहे लोगों ने २६ जनवरी के बहिष्कार की घोषणा कर दी. बी जे पी को इस से बढ़िया गिफ्ट दिया ही नहीं जा सकता था. उन लोगों ने इन गैर ज़िम्मेदार मुसलमानों के काम को पूरे मुस्लिम समाज के मत्थे मढ़ने की कोशिश की . बाबरी मस्जिद के नाम पर हिन्दू-मुसलमान के बीच बहुत बड़ी खाई बनाने की  कोशिश की गयी और उसमें आर एस एस को बड़ी सफलता मिली. अब तो   टीवी की बहस में  भावनाओं को भड़का लिया जाता है .
अब स्थिति यहाँ तक पंहुच गयी है कि भारतीय जनता पार्टी के नेता लोग चुनाव में किये  गए वायदों को पूरी तरह से दरकिनार करके हिन्दू गौरव के मुद्दों पर चुनाव लड़ने में कोई संकोच नहीं करते.  दिल्ली विधानसभा का चुनाव सबसे ताज़ा उदाहरण है . आम आदमी पार्टी के नेता, अरविन्द केजरीवाल ने पूरे चुनाव को अपने कार्यकाल के काम से जोड़ दिया है लेकिन बीजेपी के गली मोहल्ले के नेता से लेकर शीर्ष नेता तक हिन्दू भावनाओं को ही संबोधित कर रहे हैं .  पोलस्ट्रेट नामक के संगठन के नवीनतम सर्वे के मुताबिक़ इस बार  दिल्ली की जनता की प्राथमिकताएं शिक्षा , स्वास्थ्य, पीने का पानी और बिजली  हैं . आम आदमी पार्टी के नेता इन्हीं  बिन्दुओं पर मतदाता को केन्द्रित करने की रणनीति पर काम कर  रहे हैं .लेकिन बीजेपी वाले   हिंदुस्तान-पाकिस्तान, शाहीन बाग़ ,  कश्मीर और राम मंदिर पर फोकस करने की बात कर रहे हैं .बीजेपी वाले आम आदमी पार्टी को शाहीन बाग़ वाला बताकर उनको हिन्दू विरोधी साबित करने के प्रोजेक्ट पर भी बहुत मेहनत  कर  रहे हैं .लेकिन अरविन्द केजरीवाल ने एक टीवी कार्यक्रम में सस्वर हनुमान   चालीसा का पाठ करके  अपने को हिन्दू विरोधी साबित करने वाले अभियान को नाकाम कर दिया है .
 चुनाव के ऐन पहले राम मंदिर  निर्माण के ट्रस्ट की घोषणा करके बीजेपी ने चुनावी विमर्श में एक और बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा जोड़ दिया है . अगर इस घोषणा के बाद आम आदमी पार्टी वाले चुनाव आयोग जाते और आचार संहिता की अनदेखी का मामला उठाते तो उनको राम मंदिर विरोधी साबित करने में मदद मिल सकती थी . लेकिन अरविन्द केजरीवाल ने उस पर  भी कोई उल्टी टिप्पणी नहीं दी. घोषणा के समय का विरोध असदुद्दीन ओवैसी जैसे कुछ लोग ही कर रहे हैं जिनके  बयानों से आजकल बीजेपी का चुनावी हित ही होता है .
राममन्दिर का विवाद एक ऐसा विवाद था जिसकी  वजह से बीजेपी को भारी फायदा अब तक हुआ है . जाहिर है दिल्ली विधान सभा का चुनाव बीजेपी के लिए बहुत ही बड़ी प्रतिष्ठा का चुनाव बन गया है . जिस चुनाव में बीजेपी के सबसे बड़े रणनीतिकार मोहल्ले मोहल्ले घूमकर अपनी पार्टी का प्रचार कर रहे   हैं. पार्टी का सबसे बड़ा मुद्दा राममंदिर के निर्माण की  घोषणा उसे चुनाव के ठीक पहले की गयी है . राजनीतिशास्त्र के किसी भी विद्यार्थी के लिए इस चुनाव के नतीजे बहुत ही दिलचस्प  अध्ययन साबित होने वाले हैं . सबकी नज़र ११ फरवरी पर होगी और उसी दिन तय होगा कि भावनात्मक मुद्दे भारी पड़ेंगें या मौजूदा सरकार का पांच साल का काम जीत   दिलाएगा .