Wednesday, September 30, 2020

बाबरी मस्जिद के विध्वंस की साज़िश के आरोप से बीजेपी के बड़े नेताओं सहित सभी अभियुक्तों को बरी कर दिया गया

 

शेष नारायण सिंह

 

अयोध्या की बाबरी मस्जिद के विध्वंस के मुक़दमे में सी बी आई की विशेष अदालत ने सभी अभियुक्तों को बाइज्ज़त बरी कर दिया है . अपने रिटायर होने के एक दिन पहले दिए गए फैसले में जज साहब ने लिखा है कि अभियुक्तों पर साज़िश के जो आरोप लगे थे  वे गलत पाए गए क्योंकि उनको सही साबित करने के लिए जज साहब की  नज़र में  ज़रूरी साक्ष्य नहीं मिल सके . इसलिए बरी कर दिया गया  . जज साहब ने कहा कि  इस मुक़द्दमे के अभियुक्त तो लोगों को मस्जिद गिराने से रोक रहे थे .  जज साहब को यह इलहाम कहाँ से हुआ यह पता नहीं है . इस केस में कुल 48 अभियुक्त थे उनमें से 17 की तो मौत हो चुकी  है . लाल कृष्ण आडवानी ,मुरली मनोहर जोशी ,उमा भारती सहित बाकी लोग आरोप मुक्त हो गए हैं . उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने न्याय की जीत बताया है. उन्होंने सी बी आई की विशेष अदालत द्वारा फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि सत्यमेव जयते के अनुरूप सत्य की जीत हुई है.  उनके बयान में यह भी कहा गया कि ,” यह फैसला स्पष्ट करता है कि तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा राजनीतिक पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर वोट बैंक की राजनीति के लिए देश के पूज्य संतों भारतीय जनता पार्टी के नेताओंविश्व हिंदू परिषद से जुड़े वरिष्ठ पदाधिकारियों एवं समाज से जुड़े विभिन्न संगठनों के पदाधिकारियों को बदनाम करने की नीयत से से उन्हें झूठे मुकदमों में फंसाकर बदनाम किया गया.” मुख्यमंत्री योगी ने कहाइस षड्यंत्र के लिए जिम्मेदार देश की जनता से माफी मांगे. मुक़दमे के सभी अभियुक्तों ने भी फैसले का स्वागत किया है .

इस बात में दो राय नहीं है कि बाबरी मस्जिद का  विध्वंस राजनीतिक कारणों से किया गया था . धर्म के नाम पर हिन्दुओं को  वोट बैंक बनाने की आर एस एस की राजनीति में अयोध्या की पांच सौ साल पुरानी मस्जिद को ढहाना के राजनीतिक एजेंडे का  हिस्सा था.  जिसके नतीजे भी साफ़ नज़र आ रहे हैं . जब बाबरी मस्जिद के खिलाफ आन्दोलन शुरू हुआ था तो बीजेपी की लोकसभा में दो सीटें थीं .आज देश में उनके स्पष्ट बहुमत से बनी हुई सरकार है . हिंदुत्व की राजनीति के पैरोकारों के लिए उस मस्जिद को मुसलमानों के सम्मान से जोड़कर उसको ज़मींदोज़ करने का  कार्यक्रम हिंदू मात्र को सर्वोपरि साबित करना था जिसका राजनीतिक लाभ मिला.  सी बी आई के विशेष जज के  इस फैसले के साथ ही रामजन्मभूमि के लिए 35 साल से चल रहे विवाद का  पटाक्षेप हो गया है .हालांकि  इस केस की अभियोक्ता सी बी आई के पास ऊपरी अदालत में अपील करने का रास्ता है . देखना यह होगा कि वह अपील करते हैं कि नहीं .फैसले पर टीका टिप्पणी करने का कोई मतलब नहीं है लेकिन उसके बाद की राजनीति को समझना राजनीतिशास्त्र के किसी विद्यार्थी के  लिए  ज़रूरी है .

 

इस विवाद की शुरुआत तब हुयी थी जब १९९२ में अयोध्या की  मध्ययुगीन मसजिद को ज़मींदोज़ किया गया  था . ६ दिसंबर १९९२ के दिन वहां बहुत बड़ी संख्या में पूरे देश से कारसेवक आये थे . उनके नेताओं और विश्व हिन्दू परिषद के नेता अशोक सिंघल ने वचन दिया था कि जो लोग वहां आ रहे थे उनका उद्देश्य केवल कारसेवा करना था.  उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दिया था कि अयोध्या के विवादित ढाँचे को कोई नुक्सान नहीं होने दिया जाएगा लेकिन वहां आई भीड़ ने बाबरी मस्जिद को ज़मींदोज़ कर दिया . 30 सितम्बर को आये फैसले में सी बी आई की विशेष अदालत में कहा गया है कि उस ढाँचे को ढहाने के लिए कोई योजना नहीं बनी थी और किसी ने कोई साज़िश नहीं की थी .वहां आई  हुयी भीड़ ने एकाएक उसको गिरा दिया . उसके लिए किसी से कोई सलाह मशविरा नहीं किया गया था. यह बात आज फैसला आने के बाद साफ हो गयी है लेकिन 6  दिसंबर के बाद की भारत की राजनीति दोबारा वही नहीं रही ,वह बिलकुल बदल गयी .

 

अयोध्या के उस दिन के विध्वंस के साथ साथ भारतीय राजनीति को एक नई दिशा में डाल दिया गया था . तब तक धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की बात सभी राजनीतिक पार्टियाँ करती थीं लेकिन उसके बाद  हिन्दुत्ववादियों ने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों के खिलाफ भी अभियान शुरू कर दिया था . हालांकि वे लोग महात्मा गांधी को सम्मान देने की बात करते रहे थे लेकिन महात्मा गांधी के आन्दोलन के केंद्रीय भाव,धर्मनिरपेक्षता का विरोध बड़े पैमाने पर शुरू हो गया था .महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता को आज़ादी के आंदोलन में बहुत ही अधिक महत्व दिया था .धर्मनिरपेक्षता भारत की आज़ादी  के संघर्ष का इथास थी. बाबरी मसजिद के विध्वंस  के बाद की राजनीति और पत्रकारिता दोनों ही बदल  गए थे .हिंदी मीडिया में पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग आर एस एस की राजनीति के प्रचारक के रूप में काम करने लगा था . वे मसजिद ढहाने के काम को वीरता बता रहे थे . उस वक़्त के प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव को अर्जुन सिंह की चुनौती मिल रही थी लेकिन कुछ भी करने के पहले १०० बार सोचने के लिए विख्यात अर्जुन सिंह ने मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा नहीं दिया .  अटल बिहारी वाजपेयी दुखी होने की बात की थी लेकिन ढहाने वालों के खिलाफ कोई बयान नहीं दिया था . लाल कृष्ण आडवानीकल्याण सिंह , उमा  भारती ,   साध्वी ऋतंभरा , अशोक सिंघल आदि जश्न मना रहे थे . कांग्रेस में हताशा का माहौल था. २४ घंटे का टेलिविज़न नहीं था. ख़बरें बहुत धीरे धीरे आ रही थीं लेकिन जो भी ख़बरें आ रही थीं वे अपने सर्वधर्म समभाव  की  बुनियाद को हिला देने वाली थीं . दिल्ली में महात्मा गांधी की समाधि पर जब मदर टेरेसा  के साथ देश भर से आये धर्मनिरपेक्ष लोगों ने  माथा टेका तो लगता था कि अब अपना देश तबाह होने से बच जाएगा . बिना किसी तैयारी के  शांतिप्रेमी लोग वहाँ इकठ्ठा हुए और समवेत स्वर में  रघुपति  राघव राजाराम की  टेर लगाते रहे. मेरी नज़र में महात्मा गांधी के  दर्शन की उपयोगिता का यह प्रैक्टिकल  सबूत था .  

बाबरी मसजिद को  ढहाने के बाद आर एस एस ने कट्टर हिन्दूवाद को एक राजनीतिक विचारधारा के रूपमें स्थापित कर दिया था . आर एस एस के लोग इस योजना पर बहुत पहले से  काम कर  रहे थे .दुनिया जानती है कि आज़ादी की लड़ाई में आर एस एस के लोग शामिल नहीं हुए थे .  आज़ादी  के बाद जब महात्मा गांधी की हत्या हुई तो आर एस एस के सरसंघचालक एम एस गोवलकर भी गिरफ्तार गये थे और उनके संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक के ऊपर प्रतिबन्ध लगा था .बाद में १९७५ में भी इन पर पाबंदी लगी थी  लेकिन इनका काम कभी रुका नहीं . आर एस  एस के लोग पूरी तरह से अपने मिशन में  लगे  रहे. डॉ  लोहिया  ने गैर कांग्रेसवाद की राजनीति के सहारे इन लोगों को राजनीतिक सम्मान  दिलवाया था. जब १९६७ में संविद सरकारों का प्रयोग हुआ तो आर एस एस  की पार्टी  भारतीय जनसंघ थी . उस पार्टी के लोग कई राज्य सरकारों में मंत्री बने . बाद में जब जनता पार्टी बनी तो जनसंघ घटक के लोग उसमें सबसे ज्यादा संख्या में थे. उसके साथ ही आर एस एस की राजनीति मुख्यधारा में आ चुकी थी . १९७७ में जब लाल कृष्ण आडवानी सूचना और प्रसारण मंत्री बने तो बड़े पैमाने पर संघ के  कार्यकर्ताओं को अखबारों में भर्ती करवाया गया . १९९२ में  बाबरी मसजिद के विध्वंस के बाद  उत्तर भारत के अधिकतर अखबारों में आर एस एस के लोग भरे हुए थे . उन्हीं लोगों ने ऐसा माहौल बनाया जैसे कि जैसे बाबरी मसजिद को ढहाने  वालों ने  कोई बहुत भारी वीरता का काम किया हो . कुल मिलाकर  माहौल ऐसा बन गया कि देश में धर्मनिरपेक्ष होना किसी अपराध जैसा लगने लगा था.  

 

1980 में जनता पार्टी को तोड़कर भारतीय जनता पार्टी बनी थी .शुरू में इस पार्टी ने उदारतावादी राजनीतिक सोच को अपनाने की कोशिश की . दीन दयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और गांधीवादी समाजवाद जैसे राजनीतिक शब्दों को अपनी बुनियादी सोच का आधार बनाने की कोशिश की . लेकिन जब १९८४ के लोकसभा चुनाव में ५४२ सीटों वाली लोकसभा में बीजेपी को केवल दो सीटें मिलीं तो उदार राजनीतिक संगठन बनने का विचार हमेशा के लिए दफन कर दिया गया . जनवरी १९८५ में कलकत्ता में आर एस एस के टाप नेताओं की बैठक हुई जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को भी बुलाया गया और साफ़ बता दिया गया कि अब हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को चलाया जाएगा . वहीं तय कर लिया गया कि अयोध्या की बाबरी मस्जिद और रामजन्मभूमि के पुराने विवाद को एक बार ज़िंदा करके उसके इर्दगिर्द बीजेपी की चुनावी राजनीति को केन्द्रित किया जाय . आर एस एस के दो संगठनोंविश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को इस प्रोजेक्ट को चलाने का जिम्मा दिया गया. विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना १९६६ में हो चुकी थी लेकिन वह सक्रिय नहीं था. १९८५ के बाद उसे सक्रिय किया गया और कई बार तो यह भी लगने लगा कि आर एस एस वाले बीजेपी को पीछे धकेल कर वी एच पी से ही राजनीतिक काम करवाने की सोच रहे थे . लेकिन ऐसा नहीं हुआ और चुनाव लड़ने का काम बीजेपी के जिम्मे ही रहा . १९८५ से अब तक बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को ही अपना स्थायी भाव मानकर चल रही है ..कांग्रेस और अन्य सेकुलर पार्टियों ने अपना राजनीतिक काम ठीक से नहीं किया  इसलिए देश में हिन्दू राष्ट्रवाद का खूब प्रचार प्रसार हो गया . जब बीजेपी ने हिन्दू राष्ट्रवाद को अपने राजनीतिक दर्शन के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया तो उस विचारधारा को मानने वाले बड़ी संख्या में उसके साथ जुड़ गए .वही लोग १९९१ में अयोध्या आये थे जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी . बाबरी मस्जिद को तबाह करने पर आमादा इन लोगों के ऊपर गोलियां भी चली थीं .वही लोग १९९२ में अयोध्या आये थे जिनकी मौजूदगी में बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ , वही लोग साबरमती एक्सप्रेस में सवार थे जब गोधरा रेलवे स्टेशन पर उन्हें जिंदा जला दिया गया . जिसके बाद गुजरात में बहुत बड़ा दंगा  हुआ था.  उसके बाद से लगभग हर चुनाव में बीजेपी के लोग रामजन्मभूमि के मुद्दे को केंद्र में रखते रहे.

आज केंद्र सहित बहुत सारे राज्यों में आर एस एस के सहयोगी संगठन बीजेपी की सरकारें हैं . `1984 में जिस बीजेपी को लोकसभा में दो सीटें मिली थीं आज वह देश के अधिकतर हिस्सों में सत्ता के केंद्र में है . आज बीजेपी की राजनीति की बुलंदी में बाबरी मस्जिद और रामजन्मभूमि के विवाद का बड़ा योगदान है .

 

बेटियों की शान को याद दिलाने का दिन ---daughters’ day


शेष नारायण सिंह

आज daughters’ day है ,बेटियों का दिन . सितम्बर के चौथे रविवार को मनाया जाता है .इसकी शुरुआत भारत से ही हुयी और अब पूरी दुनिया में मनाया जाता है . मुझे बचपन से ही कुछ ऐसे संस्कार मिले थे कि बेटियों को पराया धन वगैरह कभी नहीं माना. हालांकि मेरे गाँव में बेटियों की शिक्षा को कोई प्राथमिकता नहीं दी जाती थी . गाँव से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर पश्चिम में नरेन्द्रपुर का प्राइमरी स्कूल था और गाँव के दक्खिन करीब तीन किलोमीटर दूर लम्भुआ का मिडिल स्कूल था . नरेन्द्रपुर तो जिले के सबसे पुराने स्कूलों में एक है , शायद 1885 के पहले खुला रहा होगा. उस स्कूल में हमारे आसपास के गाँवों के लगभग सभी सवर्ण परिवारों के लड़के पढ़ने गए थे . हमारे गाँव में हमारी पीढ़ी के पहले के ठाकुर साहबान ज्यादातर लम्भुआ तक ही पढ़े थे , पास फेल की बात नहीं करूंगा क्योंकि मिडिल में पास बहुत कम लोग हुए थे. हमारे काका स्व भानु प्रताप सिंह और उनके हमउम्र राम ओंकार सिंह और लालता सिंह ने हाई स्कूल की पढ़ाई की जहमत उठाई थी ,बाकी सब लम्भुआ की पढ़ाई के दौरान ही शादी के बंधन में बांध दिए गए और पढाई छोड़ दी . हमारे गाँव में लड़कियों के स्कूल जाने का रिवाज़ नहीं था. हमारी पीढ़ी की लडकियां प्राइमरी स्कूल में भी नहीं गईं. मेरे बाद की पीढ़ी की कुछ लडकियां नरेन्द्रपुर गईं . उसके बाद ही गाँव में स्कूल खुल गया . फिर लडकियां प्राइमरी में जाने लगीं . यह घटना साठ साल पहले की है . अब तो मेरे गाँव की सडक पर सुबह स्कूल जाने वाली बच्चियों का तांता लगा रहता है सभी लडकियां साइकिलों पर सवार होकर जाती हैं . अब हमारे गाँव की लडकियां उच्च शिक्षा प्राप्त हैं . शादी ब्याह भी अब 12-13 साल की उम्र में नहीं होता . बीस साल की उम्र के बाद ही शादियां होती हैं . गाँव में रहकर पढ़ाई करने वाली एकाध लड़कियों के प्रेमविवाह भी हुए हैं , हालांकि अभी ग्रामीण माहौल में अंतरजातीय विवाह का चलन नहीं शुरू हुआ है . सब बदल रहा है . हमारी अपनी सभी बेटियों ने स्नातकोत्तर शिक्षा पाई है , मेरे भाई बहनों की कुल छः बेटियों में सभी उच्चशिक्षित हैं , दो ने पी एच डी भी कर लिया है .
मेरे बचपन में ऐसा नहीं था. मेरी बड़ी बहन की कोई भी सहेली प्राइमरी में पढने नहीं गयी. मेरी छोटी बहन ने प्राइमरी बहुत ही अच्छे नंबरों से पास किया था लेकिन बाबू ने लम्भुआ नहीं जाने दिया . उस माहौल में मेरी मां ने मुझे यह प्रेरणा दी थी कि सभी बच्चों को उच्च शिक्षा देना ज़रूरी है . माहौल भी बदल रहा था और दृढ़ संकल्प भी था .इसलिए बच्चियों की उच्चशिक्षा के लिए दिनरात कोशिश की . अब सभी लड़कियां अपना जीवन अपने तरीके से जी रही हैं . उनकी कुछ सहेलियां भी मेरी बेटियाँ ही हैं . गोपाल दादा और लल्लन दादा की बेटियाँ भी मेरी अपनी बेटियाँ है. गुड्डी , टीनी चा , बुलबुल , म्याऊँ ,डीबी ,डॉ नीता ,शिखा ,प्रीति, गंगा, मनीषा ,मेघना, मोहिता, मौसमी, गोलू,मुन्नी, नीलू,नेहा, निमिषा , बिट्टू, पिंकी,निशा, प्रतिमा यह सारी तो ऐसी बेटियाँ हैं जिनको मेरी खैरियत की चिंता रहती ही रहती है .इसके अलावा मेरे साथ काम कर चुकी बहुत सारी छोटी बच्चियां भी मुझे पितातुल्य मानती हैं . मेरी कुछ स्टूडेंट्स मुझे पिता जैसा मानती हैं . बच्चियों के इमोशनल संकट के दौरान अगर ज़रा सा भी मदद कर दो तो वे आपको अपने बाप जैसा मानने लगती हैं. इस सभी बेटियों को आज दिल की गहराइयों से आशीर्वाद देता हूं और दुआ करता हूँ कि यह लडकियां ज़िंदगी में हमेशा फतहयाब रहें .
बेटियों के महत्व का पता तब चलता है जब आप के ऊपर कोई संकट आता है . 2016 में मैं बहुत बुरी तरह से बीमार पड़ गया था . करीब डेढ़ महीने अस्पताल में रहा . मेरी सबसे छोटी वाली बिटिया ने चार्ज ले लिया . अस्पताल में सैकड़ों टेस्ट हुए , सभी टेस्ट में उनकी मौजूदगी साफ़ देखी जा सकती थी . मंझली ने सारा लाजिस्टिक्स संभाला .उसके बाद चार साल हो गए लेकिन मेरे स्वास्थ्य की हर घटना पर लड़कियों की नज़र रहती है . उनकी मां के पाँव में दर्द था , घुटने बेकार हो चुके थे . यह तय था कि सर्जरी के अलावा कोई रास्ता नहीं है लेकिन सर्जरी टल रही थी . एक दिन मेरे एक पड़ोसी वरिष्ठ पत्रकार ने बताया कि कोई हड्डियों के डाक्टर हैं जो सुई लगा दें तो दो तीन महीने के लिए दर्द ख़त्म हो जाता है . मैंने सुई लगवा दी . हमारी टीनी चा लंदन में थीं, उनको जैसे ही पता लगा कि सुई लगी है, उन्होंने अपना लंदन का कार्यक्रम रद्द किया और सीधे बंगलौर पंहुचीं , दिल्ली में रहने वाली अपनी बड़ी बहन को अम्मा को लेकर बंगलोर पंहुचने की हिदायत दी और तीन दिन के अन्दर सर्जरी हो गयी. बाद में मुझे बताया कि अम्मा ने अगर अपने दर्द का इजहार कर दिया है इसका मतलब वे बहुत परेशान हैं . वहां उनकी अम्मा की तीमारदारी में आपकी सहेलियां साथ थीं . इस तस्वीर में अम्मा के साथ वे सारी बच्चियां देखी जा सकती हैं . मेरे यहां जो पुत्रवधू भी आई , वह भी मेरी बेटी है , daughters day पर उसी रुतबे से रहती है जैसे बाकी सभी बेटियाँ . वह हमारे सीनियर पत्रकार की बेटी है . कोरोना के इस दौर में मुंबई में रहने वाली यह बेटी खुद भी वायरस की चपेट में आ गयी थी , उसके पति भी कोरोना से बीमार हो गए थे .सब संभाल लिया .मां की भी देखभाल पूरी तरह से किया . अब सब ठीक हैं . सबका ख्याल रखा , मेरे स्वास्थ्य के बारे में रोज़ चिंता रखी.
कोरोना के सिलसिले में मार्च से शुरू होने वाले लॉकडाउन में मेरी पत्नी बंगलोर में छोटी बिटिया के यहां थीं, पूरा लॉकडाउन वहीं बिताया और स्वस्थ रहीं .मेरी मंझली बेटी दिल्ली में रहती है, उसने यहाँ मेरी पूरी चौकीदारी रखी. हमारी सभी बेटियाँ यह मान कर चलती हैं कि अम्मा-पापा को कुछ नहीं मालूम. हमारी सारी ज़रूरतों पर वे हेडमास्टर भाव से निगरानी रखती हैं . उनको यह भी पता रहता है कि मुझे या उनकी अम्मा को कब जाँच के लिए जाना है .मेरे डॉ सरीन ,डॉ सुमन लता , डॉ पी के नायक , डॉ अनुपम भार्गव ,डॉ एस बी सिंह और डॉ वी पी सिंह सबसे उनकी जान पहचान है .एक खुशी की बात यह है कि सारी बेटियाँ यह मानती हैं कि मुझे जब तक काम मिलता है , काम करते रहना चाहिए क्योंकि खाली बैठने पर मैं बीमार हो जाउंगा .
आज अपनी बेटियों के सम्मान में सर झुकाते हुए मैं प्रार्थना करता हूँ कि सभी बेटियाँ शान और इज्ज़त की ज़िंदगी जिएं और अपने मातापिता की दरोगा बनी रहें .

Wednesday, September 23, 2020

धर्म का उद्देश्य ' दूसरों के सुख में संतोष' है

 

 


 

शेष नारायण सिंह

 

नवरात्र शुरू होने वाले हैं . उसके बाद देश में त्योहारों का  सीज़न   शुरू हो जाएगा .पूरा भारत धर्ममय हो जाएगा .यही समय है जब  समाज के नेताओं को आगे आकर धर्म के वास्तविक स्वरूप पर बहस का माहौल बनाना चाहिए . असली धर्म के किसी भी कार्य में संकीर्णता के लिए कोई जगह नहीं होती . जब घोषित रूप से धर्म का उद्देश्य ' दूसरों के सुख में संतोष' ही है तो धर्म के नाम पर हिंसा तो किसी तरह से धर्म का काम हो ही नहीं सकती . इसलिए वर्तमान धार्मिक नेताओं और धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले राजनीतिक नेताओं को यह तय करना पडेगा कि जब धर्म में ' मैत्रीकरुणा एवं मुदिता' सबसे ज़रूरी शर्त है तो अपने समर्थकों को हिंसक गतिविधियों में शामिल होने के लिए क्यों उकसाते हैं ?  यह बात सबरीमाला में भी लागू होनी चाहिए और अयोध्या में भी . मेरी जो भी धार्मिक चेतना है उसके केंद्र में संत तुलसीदास ही विराजते  हैं. उन्होंने रामचरितमानस में स्पष्ट कह दिया है कि ,”' परहित सरिस धर्म नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई “ . इस्लाम के पवित्र ग्रन्थ कुरान शरीफ में भी मुख्य बात ' मैत्रीकरुणा एवं मुदिता'  के इर्दगिर्द ही केन्द्रित है इसलिए इस्लाम में भी किसी तरह की हिंसा की गुंजाइश नहीं है लेकिन अजीब बात है कि विदेशों में ,खासकर पाकिस्तान में बैठे लोग धर्म के नाम पर भारत  की एक बड़ी आबादी को  अधार्मिक काम करने को प्रेरित कर रहे हैं . उनकी किसी भी चाल का विरोध किया जाना चाहिए.  धार्मिक रूप से अशिक्षित हिन्दुओं को राजनीतिक लाभ के लिए भड़काने वालों को भी उनके मंसूबों में नाकामयाब करने की ज़रूरत है .  

 

धर्म का अर्थ वास्तव में मानव जीवन में आनंद की स्थिति उत्पन्न करना है . नास्तिक और अधार्मिक होते ही भी आप अपने बच्चों के साथ अपने सामाजिक परिवेश में ,खासकर नवरात्र के दौरान धार्मिक माहौल का आनंद लेते हैं . धर्म के और भी बहुत सारे उद्देश्य होंगें लेकिन यह भी एक महत्वपूर्ण  उद्देश्य है.  अपने देश में बहुत सारे ऐसे दर्शन हैं जिनमें ईश्वर की अवधारणा ही  नहीं है . ज़ाहिर है उन दर्शनों पर  आधारित धर्मों  में ईश्वर की पूजा का कोई विधान नहीं होगा. देश में नास्तिकों की भी बहुत बड़ी संख्या है . उनके लिए भी किसी देवी देवता का पूजन बेमतलब है . लेकिन सामाजिक स्तर पर धार्मिक गतिविधियां होती रहती हैं और  नास्तिक भी उसमें शामिल होते हैं .  ऐसा इसलिए होता  है कि अपनी मूल डिजाइन में कोई भी धर्म समावेशी होता है , वह अधिकतम संख्या को अपने आप में शामिल करने में विश्वास करता है .

धर्म के सम्बन्ध में बहस राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में भी चली थी. उस बहस का केंद्र महात्मा गांधी के व्यक्तित्व के इर्दगिर्द ही था .उस दौर में राष्ट्रीय आन्दोलन के अंदर जो प्रगतिशील आन्दोलन की धारा थी उसके लिए धर्म की  मार्क्सवादी व्याख्या को भारतीय   सन्दर्भ में समायोजित करने की  चुनौती थी . आखिर में  तय हुआ कि धर्म का जो सांगठनिक पक्ष है वह तो कर्मकांडी लोगों का ही क्षेत्र है लेकिन धर्म से  जुडी जो  सांस्कृतिक गतिविधियाँ हैं उनका धर्म के कर्मकांड से कोई लेना देना नहीं है .वह वास्तव में जनसंस्कृति का हिस्सा है . ऐसा इसलिए भी  है कि पूजा पद्धति में वर्णित पूजा विधियां तो लगभग सभी जगह  एक ही होती हैं और उनका निष्पादन धार्मिक कार्य करने वाले करते हैं . यह सभी धर्मों में  अपने अपने तरह से संपादित किया जाता  है लेकिन उसके साथ वे कार्य जिसमें आम जनता पहल करती है और शामिल होती है वह जनभावना होती है .उसमें मुकामी संस्कृति अपने  रूप में प्रकट होती है .बंगाल में दुर्गापूजा तो धार्मिक जीवन का हिस्सा है लेकिन उसी स्तर पर वह लोकजीवन का भी  हिस्सा है . पूजा पंडालों  में देश-काल के हवाले से हमेशा ही बदलाव होते रहते हैं . उसी तरह से पूजा के अवसर पर होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम भी  हालाँकि धार्मिक होते हैं लेकिन उनका  संचारी भाव लोकजीवन और क्षेत्रीय संस्कृति से  जुड़ा हुआ होता  है .

पश्चिम बंगाल में जब १९७७ में लेफ्ट फ्रंट की सरकार बनी तो  विचारधारा के स्तर पर यह चर्चा एक बार फिर शुरू हुयी और यही सही पाया गया कि संस्कृति की रक्षा अगर करनी है तो उससे जुड़े  आम आदमी के काम को महत्व देना ही होगा .जहां तक धर्म के शुद्ध रूप की बात है उसमें भी किसी तरह के झगड़े का स्पेस नहीं होता .दर्शन शास्त्र के लगभग सभी विद्वानों ने धर्म को परिभाषित करने का प्रयास किया है। धर्म दर्शन के बड़े ज्ञाता गैलोबे की परिभाषा लगभग सभी ईश्वरवादी धर्मों पर लागू होती है। उनका कहना है कि -''धर्म अपने से परे किसी शक्ति में श्रद्धा है जिसके द्वारा वह अपनी भावात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है और जीवन में स्थिरता प्राप्त करना है और जिसे वह उपासना और सेवा में व्यक्त करता है। इसी से मिलती जुलती परिभाषा ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में भी दी गयी है जिसके अनुसार ''धर्म व्यक्ति का ऐसा उच्चतर अदृश्य शक्ति पर विश्वास है जो उसके भविष्य का नियंत्रण करती है जो उसकी आज्ञाकारिताशीलसम्मान और आराधना का विषय है।"


भारत में भी कुछ ऐसे धर्म हैं जो सैद्धांतिक रूप से ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते। जैन धर्म में तो ईश्वर की सत्ता के विरुद्ध तर्क भी दिए गये हैं। बौद्ध धर्म में प्रतीत्य समुत्पाद के सिद्धांत को माना गया है जिसके अनुसार प्रत्येक कार्य का कोई कारण होता है और यह संसार कार्य-कारण की अनन्त श्रंखला है। इसी के आधार पर दुख के कारण स्वरूप बारह कडिय़ों की व्याख्या की गयी है। जिन्हें द्वादश निदान का नाम दिया गया है।इसीलिए धर्म वह अभिवृत्ति है जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र कोप्रत्येक क्रिया को प्रभावित करती है। इस अभिवृत्ति का आधार एक सर्वव्यापक विषय के प्रति आस्था है। यह विषय जैन धर्म का कर्म-नियमबौद्धों का प्रतीत्य समुत्पाद का सिद्धांत  या वैष्णवोंईसाइयों और मुसलमानों का ईश्वर हो सकता है। आस्था और विश्वास में अंतर है। विश्वास तर्क और सामान्य प्रेक्षण पर आधारित होता है लेकिन आस्था तर्क से परे की स्थिति है। पाश्चात्य  दार्शनिक इमैनुअल  कांट ने आस्था की परिभाषा की है। उनके अनुसार ''आस्था वह है जिसमें आत्मनिष्ठ रूप से पर्याप्त लेकिन वस्तुनिष्ठ रूप से अपर्याप्त ज्ञान हो।"आस्था का विषय बुद्धि  या तर्क के बिल्कुल विपरीत नहीं होता लेकिन उसे तर्क की कसौटी पर कसने की कोशिश भी नहीं की जानी चाहिए। स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि जो धार्मिक मान्यताएं बुद्धि के विपरीत होंवे स्वीकार्य नहीं। धार्मिक आस्था तर्कातीत है तर्क विपरीत नहीं। सच्चाई यह है कि धार्मिक आस्था का आधार अनुभूति है। यह अनुभूति सामान्य अनुभूतियों से भिन्न है। इसी अनुभूति को रहस्यात्मक अनुभूति या समाधिजन्य अनुभूति कहा सा सकता  है। धार्मिक मान्यता है कि यह अनुभूति सबको नहीं होती केवल उनको ही होती है जो अपने आपको इसके लिए तैयार करते हैं।


इस अनुभूति को प्राप्त करने के लिए धर्म में साधना का मार्ग बताया गया है। इस साधना की पहली शर्त है अहंकार का त्याग करना। जब तक व्यक्ति तेरे-मेरे के भाव से मुक्त नहीं होगातब तक चित्त निर्मल नहीं होगा और दिव्य अनुभूति प्राप्त नहीं होगी। इस अनुभूति का वर्णन नहीं किया जा सकता क्योंकि इस अनुभूति के वक्त ज्ञाताज्ञेय और ज्ञान की त्रिपुरी नहीं रहती। कोई भी साधक जब इस अनुभूति का वर्णन करता है तो वह वर्णन अपूर्ण रहता है। इसीलिए संतों और साधकों ने इसके वर्णन के लिए प्रतीकों का सहारा लिया है। प्रतीक उसी परिवेश के लिए जाते हैंजिसमें साधक रहता है इसीलिए अलग-अलग साधकों के वर्णन अलग-अलग होते हैंअनुभूति की एकरूपता नहीं रहती।
लेकिन इस बात में बहस नहीं है कि इस दिव्य अनुभूति का प्रभाव सभी देशों में रहने वाले साधकों पर एक सा पड़ता है। यही नहीं यह सर्वकालिक भी है .

आध्यात्मिक अनुभूति की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि सन्त चरित्र है। सभी धर्मों के संतों का चरित्र एक सा रहता है। सन्तों का जीवन के प्रति दृष्टिïकोण बदल जाता हैऐसे सन्तों की भाषा सदैव प्रतीकात्मक होती है। इसका उद्देश्य किसी वस्तुसत्ता का वर्णन करना न होकरजिज्ञासुओं तथा साधकों में ऊंची भावनाएं जागृत करना होता है। सन्तों में भौतिक सुखों के प्रति उदासीनता का भाव पाया जाता है। लेकिन यह उदासीनता नकारात्मक नहीं होती। पतंजलि ने साफ साफ कहा है कि योग साधक के मन में मैत्रीकरुणा एवं मुदिता अर्थात दूसरों के सुख में संतोष के गुण होने चाहिये।
धर्म की बुलंदी यह  है कि जो वास्तव में धार्मिक होते हैं वे मानवीय तकलीफों के प्रति उदासीन नहीं होते। रामचरित मानस के अरण्यकांड के अंत मे संत तुलसीदास ने सन्तों के स्वभाव की विवेचना की है। कहते हैं-संत सबके सहज मित्र होते हैं-श्रदधा , क्षमामैत्री और करुणा उनके स्वाभाविक गुण होते हैं। मैत्रीकरुणामुदिता और सांसारिक भावों के प्रति उपेक्षा ही संत का लक्षण है .किसी भी धर्म की सर्वोच्च उपलब्धि सन्त का चरित्र ही है।

 

खेती के कारपोरेटीकरण का विधेयक अब देश का कानून बन गया है .


 

शेष नारायण सिंह

 

सरकार ने विपक्ष के भारी विरोध के बाद भी  खेती से सम्बंधित विधेयक पास  कर दिया . लोकसभा में तो सरकार के पास अपनी ही पार्टी के सदस्यों का स्पष्ट बहुमत था ,वहां पास होना ही था. लेकिन राज्यसभा में विपक्ष के कई नेताओं ने मतविभाजन के बाद बिल को रोकना चाहा लेकिन उपाध्यक्ष ने ध्वनिमत से  पास करवा कर लोकसभा में पास  हुए दोनों विधेयकों को  राज्यसभा की हरी झंडी दे दी और राष्ट्रपति भवन का रास्ता दिखा दिया . राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद वह विधेयक क़ानून बन गया . ऐसा लगता   है कि ध्वनिमत का सहारा इसलिए लेना पडा क्योंकि सरकार को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन कर रही पार्टियों ने भी इन विधेयकों का विरोध किया है . बहरहाल अब तो क़ानून बन गया  है .इस  कानून के बन जाने के बाद खेती  किसानी वही नहीं रहेगी जो अब तक रहती  रही है . हमेशा से ही इस देश का किसान खेती की उपज के ज़रिये  सम्पन्नता के सपने देखता रहा है . हर स्तर से मांग होती रही है कि  खेती में सरकारी निवेश  बढाया जाय , भण्डारण और विपणन की सुविधाओं के ढांचागत निवेश का बंदोबस्त किया जाय जिससे कि किसान को अपने उत्पादन को कुछ दिन तक मंडी में भेजने से रोकने की ताकत आये  जिससे वह अपनी फसल बेचने के लिए मजबूर न हो. एक बात बिलकुल अजीब लगती  है कि शहरी मध्यवर्ग के लिए हर चीज़ महंगी मिल रही है जिसको किसान ने पैदा किया है . उस चीज़ को   पैदा करने वाले किसान को उसकी वाजिब कीमत नहीं मिल रही है . किसान से जो कुछ भी सरकार खरीद रही है उसका लागत मूल्य भी नहीं दे रही है .. किसान को उसकी लागत नहीं मिल रही है और शहर का उपभोक्ता कई गुना ज्यादा कीमत दे रहा है. इसका मतलब यह हुआ कि बिचौलिया मज़े ले रहा है . किसान और शहरी मध्यवर्ग की मेहनत का एक बड़ा हिस्सा वह हड़प रहा है.और यह बिचौलिया गल्लामंडी में बैठा कोई आढ़ती नहीं है . वह  आवश्यक वस्तुओं के क्षेत्र में सक्रिय कोई पूंजीपति भी हो सकता है और किसी भी बड़े नेता का व्यापारिक पार्टनर भी .इस हालत को संभालने का एक ही तरीका है कि जनता अपनी लड़ाई खुद ही लड़े. उसके लिए उसे मैदान लेना पड़ेगा और सरकार की पूंजीपति परस्त नीतियों का हर मोड़ पर विरोध करना पड़ेगा. लेकिन ऐसा हो नहीं पाता.  आज की सत्ताधारी पार्टी बीजेपी है . उसकी सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी अकाली दल है . उसको मालूम है कि पंजाब का किसान मौजूदा बिलों का भारी विरोध करेगा इसलिए उनके पार्टी के मालिकों की घर की बहू ने केंद्र सरकार के मंत्री  पद से इस्तीफा दे दिया . लेकिन अभी भी बीजेपी सरकार को अकाली दल का  समर्थन मिल रहा है .अकाली दल के नेता सुखबीर  सिंह बादल आवाजें तो तरह तरह की निकाल रहे हैं लेकिन ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं .उन्होंने किसानों के बारे में पारित विधेयकों को एहसान फरामोशी के बिल कहा है . आम तौर पर बीजेपी को संसद में समर्थन देने वाली पार्टियों बीजू जनता दल और तेलंगाना राष्ट्र समिति ने भी  इन विधेयकों का विरोध किया है .

 

खेती में सरकारी  निवेश की बात हमेशा से होती रही  है.१९६५ के बाद जो हरित क्रान्ति आयी थी ,वह भी बहुत बड़े पैमाने पर सरकारी निवेश का नतीजा थी.  सरकार ने  रासायनिक खाद, सिंचाई के साधन ,बीज जैसी ज़रूरी चीजों को सब्सिडी के रास्ते सस्ता कर दिया था . सरकारी खरीद की व्यवस्था की गयी थी . न्यूनतम मूल्य की गारंटी की गयी थी  यानी आढ़ती या किसी ज़खीरेबाज़ की मर्जी से अपनी फसल बेचने के लिए किसान मजबूर नहीं था. अपने उत्पादन का कंट्रोल उसके पास ही था .पिछले चालीस साल से सरकार से उसी तरह की एक क्रान्ति की बात की जाती रही है .उम्मीद की जा रही थी कि कृषि उपज के भंडारण और विपणन में बड़े पैमाने पर सरकारी पूंजी का   निवेश कर दिया जाए , अमूल जैसी  कंपनियों की व्यवस्था कर दी जाये और किसान को अधिक उत्पादन के अवसर उपलब्ध कराये जाएँ . अगर ऐसा हुआ होता तो किसान की सम्पन्नता बढ़ती और  देश में तेज़ी से बढ़ रहे मध्यवर्ग के परिवारों में किसान भी बड़ी संख्या में शामिल  होते . लेकिन सरकार ने सरकारी पूंजी  निवेश नहीं किया . उससे पलट कारपोरेट क्षेत्र को खेती किसानों के उत्पादन पर नियंत्रण की खुली छूट दे दी. सरकारी मंडियां ख़त्म कर दी गयीं , किसान को निजी पूंजी के मालिकों के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया.  इसका मतलब यह नहीं है कि मुख्य विपक्षी पार्टी ,कांग्रेस  कोई बहुत बड़ी किसान हितैषी पार्टी है . जब सरकार में थी तो वह भी यही करना चाहती थी . इसलिए इस बिल का विरोध असली मुद्दों पर  नहीं किया जा रहा था .सारा फोकस न्यूनतम समर्थन मूल्य ( एम एस पी ) पर केन्द्रित कर दिया गया  है . सरकार का कहना है कि एम एस पी तो रहेगा . लेकिन सरकार अब कोई खरीद नहीं करेगी . यानी जो कारपोरेट  खेती की उपज खरीदेगा उसके लिए दिशा निर्देश के तौर  पर एम एस पी घोषित कर दिया  जाएगा लेकिन खरीद वह अपनी मर्जी से करेगा . सैद्धांतिक रूप से  उसकी खरीद की कीमत एम एस पी से ज्यादा भी हो सकती है लेकिन अगर सरकारी खरीद का ढांचा ख़त्म हो गया तो उसको मनमानी करने से कौन रोक पायेगा. जनता दल यू केंद्र सरकार का एक बड़ा सहयोगी दल है .इसके नेता के सी त्यागी ने एक लेख लिखकर  बताया है कि प्रधानमंत्री से वायदा किया  है कि एम एस पी रहेगा . केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने भी कहा है कि एम एस पी रहेगा लेकिन वह क़ानून का   हिस्सा कभी नहीं रहा .

पहले भी जब सरकारी अफसरमंत्री , सत्ताधारी पार्टियों के नेता  न्यूनतम समर्थन मूल्य की बात करते हैं थे तो लगता था कि वे किसानों को कुछ खैरात में दे रहे हैं .. कई बार तो ऐसे लगता है जैसे किसी अनाथ को या भिखारी को कुछ देने की बात की जा रही हो. यह किसान का अपमान है और उसकी गरीबी  का मजाक है . वह अपने को दाता समझते थे और  किसान को प्रजा ..  राजनीतिक नेता और मंत्री जनता के वोट  की मदद से सत्ता पाते हैं . अजीब बात है कि जिस देश में सत्तर प्रतिशत आबादी   किसानों की है वहां यह  सत्ताधीश सबसे ज़्यादा उसी किसान को बेचारा बना देते हैं .

किसानों के हित के लिए सरकार में जो भी योजनायें बनती  हैं वे किसानों को अनाज और खाद्य पदार्थों के उत्पादक के रूप में मानकर चलती  हैं . नेता लोग किसान को सम्पन्न नहीं बनने देना चाहते. इस मानसिकता में बदलाव की ज़रूरत है.  किसानों के लिए सबसे बड़ी मुसीबत यह  है कि कि लागत का मूल्य नहीं मिलता . इसका कारण यह है कि किसान के लिए बनी हुयी संस्थाएं  उसको प्रजा समझती हैं . न्यूनतम मूल्य देने के लिए बने संगठन कृषि लागत और मूल्य आयोग का तरीका वैज्ञानिक नहीं है .वह पुराने लागत के आंकड़ों की मदद से आज की फसल की कीमत तय करते हैं जिसकी वजह से किसान ठगा रह जाता है .फसल बीमा भी बीमा कंपनियों के लाभ के लिए डिजाइन किया गया है .. खेती की लागत की चीज़ों की कीमत लगातार बढ़ रही है लेकिन किसान की बात को कोई भी सही तरीके से नहीं सोच रहा है जिसके कारण इस देश में किसान तबाह होता जा रहा है .सरकारी आंकड़ों में जी डी पी में तो वृद्धि हो रही है जबकि खेती की विकास दर  बहुत कम हैं ,कभी कभी तो नकारात्मक हो जाती हैं . किसानों को जो सरकारी समर्थन मूल्य मिलता है वह भी लागत मूल्य से कम होता है .सरकारी खरीद होती  नहीं और निजी हाथों में फसल बेचने पर जो दाम  मिलता है बहुत कम होता है

अब सरकार ने कानून तो पास करवा लिया है लेकिन उस पर दबाव पूरा है . 25 सितम्बर को कुछ राज्यों में किसानों ने बंद का आवाहन किया है . देशव्यापी आन्दोलन भी चल रहा है . किसानों पर सरकार ने एक और फैसला आनन फानन में कर लिया  है . संसद के सत्र के आख़िरी दिन आयी कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की एक रिपोर्ट में आयोग ने सीधे किसानों को सब्सिडी देने की सिफारिश करते हुए सालाना हजार रुपये देने की सिफारिश कर दी है आयोग के मुताबिककिसानों को 2,500 रुपये की दो किस्तों में भुगतान किया जाए। पहली किस्त खरीफ की फसल शुरू होने से पहले और दूसरा भुगतान रबी की शुरुआत में किया जाएताकि किसानों को बुआई में धन की कमी न हो। अगर सरकार इन सिफारिशों को मंजूर करती हैतो अभी कंपनियों को दी जाने वाली सब्सिडी प्रक्रिया समाप्त कर दी जाएगी। किसान अभी यूरियापोटाश और फॉस्फेट को बाजार खाद कंपनियों को दी गयी सब्सिडी पर खरीदते हैं।इन कंपनियों को खाद की बिक्री के बाद सरकार सब्सिडी का भुगतान करती है। नई प्रक्रिया के तहत किसानों को उर्वरक बाजार मूल्य पर मिलेंगे और सब्सिडी सीधे उनके खाते में आएगी और किसान को कंपनी की  तरफ से तय किये गए दाम पर खाद खरीदनी  पड़ेगी . यहाँ भी खाद कंपनी को मनमानी की छूट दे दी गयी है .

अब सरकार ने  खेती से सम्बंधित सारी पहल निजी हाथों में सौंप दिया है . ठेके पर खेती की बात भी की जा रही है . नए कानून में यह व्यवस्था  है कि कोई भी कंपनी किसान से बुवाई के पहले ही उसकी उपज का दाम तय करके उससे  समझौता कर लेगी . सरकार इस को बहुत बड़ी उपलब्धि बता रही है .जबकि इसकी सचाई यह है कि किसान को अपनी उपज की कीमत पर कोई कंट्रोल नहीं रहेगा . जिस दाम पर भी समझौता हुआ है ,उससे ज़्यादा दम अगर कहीं मिल रहा है तो वह नहीं बेच सकेगा. इस देश के कारपोरेट संस्कृति ऐसी है कि किसान को खूब दबाकर दाम तय कर लिया जाएगा .कुल मिलाकर नए कानून के बाद जो स्थितियां बनेगीं उसमें किसान की पैदावार की लगाम उसके हाथ में नहीं , कारपोरेट कंपनी के हाथ में होगी.  और अगर ठेके की खेती करने वाली कोई कंपनी आ जायेगी तो किसान को उसकी ज़मीन का किराया ही हाथ आयेगा , उपज से उसका कोई  नहीं रहेगा .इस कानून ने खेती किसानी  को कारपोरेट हाथों में सौंप दिया है .

Tuesday, September 22, 2020

संसद में हंगामा गलत है विपक्ष को बहस करके सरकार को घेरना चाहिए .

 शेष नारायण सिंह

 

केंद्र सरकार ने राज्यसभा में ध्वनिमत से खेती से सबंधित दो विधेयक  पास करवा लिए . लोकसभा इन विधेयकों को पहले ही पास कर चुकी थी. राज्यसभा में विपक्ष ने मतविभाजन की मांग की लेकिन उपाध्यक्ष ,हरिवंश ने ध्वनिमत से सरकारी विधेयक को पास करवा दिया . एक प्रभावशाली पत्रकार रह चुके हरिवंश बाबू को मालूम था कि  अगर सदन का कोई  भी सदस्य  वोट की मांग कर रहा  हो तो किसी भी विधेयक  पर वोट डलवाना ज़रूरी होता  है . लेकिन उन्होंने  विधेयक को ध्वनिमत से पारित करवा दिया .उसके बाद जो हुआ ,वह नहीं होना  चाहिए था. राज्यसभा में हल्ला गुल्ला हुआ , माइक तोडा गया , नियमों की किताब फाड़ने की कोशिश की गयी ,नारेबाजी हुई और भी बहुत कुछ हुआ जो संसदीय मर्यादा के मानदंडों पर खरा नहीं उतरता .  अध्यक्ष ने आठ सदस्यों को सत्र के बाकी समय के लिए बाहर कर दिया , उपाध्यक्ष के खिलाफ आये हुए  अविश्वास प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया और बर्खास्त सांसद संसद परिसर में स्थापित गांधीजी की मूर्ति के पास धरने पर बैठ गए . यह सब संसदीय मर्यादा का हनन है .नहीं होना चाहिए था.

 

इस घटना से बहुत सारे सवाल छोड़ दिए हैं . मूल प्रश्न  है कि सरकार अगर बहुमत का प्रयोग करके  मनमानी करना चाहती है तो उसको रोकने के बहुत सारे  नियम लोकसभा और राज्यसभा की नियमावली में  अंकित हैं. जब यह बिल लोकसभा में पेश किया गया था  , अगर उसी समय विपक्ष ने मजबूती से अपनी बात रखकर  विधेयक में ज़रूरी परिवर्तन करवा कर राज्यसभा में भेजा होता तो जो दृश्य राज्यसभा में देखे गए वे न देखे जाते .बुनियादी सवाल यह है कि  हल्ला गुल्ला करके अपनी बात मनवाने की ज़रूरत क्या है. संसदसदस्य के पास इतने हथियार होते हैं कि कोई भी सरकार मनमानी नहीं कर सकती .अगर मनमानी करती है तो सारी दुनिया देखेगी क्योंकि अब तो संसद की कार्यवाही टीवी पर लाइव दिखाई जाती है .लोकतंत्र की  अवधारणा में ही यह बात निहित है कि देशहित में कानून बनाने का जितना जिम्मा सरकार का है , उससे कम जिम्मा विपक्ष का नहीं है.

 

मेरा विश्वास है कि खेती से सम्बंधित विधेयकों के मामले में लोकसभा के विपक्ष को चौकन्ना रहना चाहिए था . उसको सरकार को हर क़दम पर टोकना चाहिए  था लेकिन अफ़सोस की बात है कि ऐसा नहीं हुआ . विपक्ष हल्ला करके अपनी बात को मनवाने की कोशिश करता है . हो सकता है आज का विपक्ष उसी को सही मानता हो लेकिन इसी लोकसभा में विपक्ष ने ऐसे ऐसे काम किये हैं कि दुनिया की कोई भी संसद उनसे प्रेरणा ले सकती है . १९७१ के लोकसभा चुनावों के बाद इंदिरा गाँधी की सरकार बनी थी . उनके पास बहुत ही मज़बूत बहुमत था. तो तिहाई से ज्यादा बहुमत वाली सरकारें कुछ भी कर सकती हैं ,संविधान में संशोधन तक कर सकती हैं लेकिन पांचवीं लोक सभा के आधा दर्जन सदस्यों ने इंदिरा गांधी की सरकार को सदन में हमेशा घेर कर रखा. इन छः सदस्यों के काम के तरीके को आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा के रूप में लेना चाहिए. इनमें से अब  कोई जीवित नहीं हैं लेकिन मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के ज्योतिर्मय बसु,संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के मधु लिमये और मधु दंडवते, जनसंघ के अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय लोक दल के पीलू मोदी और कांग्रेस ( ओ ) के श्याम नंदन मिश्र की मौजूदगी में इंदिरा गाँधी की सरकार का हर वह फैसला चुनौती के रास्ते से गुज़रता था जिसे यह  सदस्य  जनहित की अनदेखी का फैसला मान लेते थे . आज तो संसद  की कार्यवाही लाइव दिखाई जाती है , हर पल की जानकारी देश के कोने कोने तक पंहुचती है . बहुत सारे अखबार हैं जो नेताओं की हर अच्छाई को जनता तक दिन रात पंहुचा रहे हैं लेकिन उन दिनों ऐसा नहीं था. समाचार के स्रोत  के रूप में टेलिविज़न का विकास नहीं हुआ था , रेडियो सरकारी था . जनता को ख़बरों के लिए कुछ अखबारों पर निर्भर रहना पड़ता था. आज तो हर बड़े शहर से अखबार छपते हैं , उन दिनों ऐसा नहीं था. इतने अखबार भी नहीं छपते थे लेकिन संसद की इन विभूतियों के काम की हनक पूरे देश में महसूस की जाती थी. बहुत साल बाद जब मधु लिमये से इसके कारणों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बताया कि उन दिनों संसद सदस्य बहुत सारा वक़्त संसद की लाइब्रेरी में बिताते थे जिसके कारण उनके पास हर तरह की सूचना होती थी. लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि आज ऐसा नहीं है .

संसद के सदस्य के रूप में नेताओं के पास ऐसे बहुत सारे साधन हैं कि वे सरकार को किसी भी फैसले में मनमानी से रोक सकते हैं . आजकल तो लोकसभा की कार्यवाही लाइव दिखाई जाती है जिसके कारण सदस्यों की प्रतिभा को पूरा देश देख सकता है और राजनीतिक बिरादरी के बारे में ऊंची राय बन सकती है . अगर सरकार को जनविरोधी मानते हैं तो उसके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाकर सरकार की छुट्टी करने तक का प्रावधान संसद के नियमों में है .बहुमत वाली सरकारें गिरती तो नहीं हैं लेकिन उनकी कमियों को रेखांकित तो किया जा सकता  है . लेकिन उसके लिए सदस्यों पूरी तैयारी के साथ ही सदन में आना पड़ेगा. संसद के सदस्य के रूप में नेताओं के पास जो अवसर उपलब्ध हैं उन पर एक नज़र डालना दिलचस्प होगा.
सबसे महत्वपूर्ण तो प्रश्न काल ही है .लेकिन इस बार उसको को नहीं लिया गया .लेकिन और बहुत कुछ है .सरकार की नीयत पर लगाम लगाए रखने के लिए विपक्ष के पास नियम ५६ से ६३ के तहत काम रोको प्रस्ताव का रास्ता खुला होता है . अगर कोई मामला अर्जेंट है और जनहित में है तो अध्यक्ष महोदय की अनुमति से काम रोको प्रस्ताव लाया जा सकता है . इस प्रस्ताव पर बहस के बाद वोट डाले जाते हैं और अगर सरकार के खिलाफ काम रोको प्रस्ताव पास हो जाता है तो इसे सरकार के खिलाफ निंदा का प्रस्ताव माना जाता है . देखा यह गया है कि सरकारें काम रोको प्रस्ताव से बचना चाहती हैं इसलिए इस प्रस्ताव के रास्ते में बहुत सारी अड़चन रहती है . बहरहाल सरकार के काम काज पर नज़र रखने के लिए काम रोको प्रस्ताव विपक्ष के हाथ में सबसे मज़बूत हथियार है . इसके अलावा नियम १७१ के तहत सदन के विचार के लिए एक प्रस्ताव लाया जा सकता है जो सदस्य की राय हो सकती है ,कोई सुझाव हो सकता है या सरकार की किसी नीति या किसी काम .की आलोचना हो सकती है . इसके ज़रिये सरकार को सही काम करने के लिए सुझाव दिया जा सकता है ,उस से आग्रह किया जा सकता है . ध्यान आकर्षण करने लिए बनाए गए लोक सभा के नियम १७० से १८३ के अंतर्गत जनहित के लगभग सभी मामले उठाये जा सकते हैं .
विपक्ष के हाथ में लोक सभा के नियम १८४ से लेकर १९२ तक की ताक़त भी है . इन नियमों के अनुसार कोई भी सदस्य किसी राष्ट्रीय हित के मसले पर सरकार के खिलाफ प्रस्ताव पेश कर सकता है . नियम १८६ में उन मुद्दों का विस्तार से वर्णन किया गया है जो बहस के लिए उठाये जा सकते हैं . इन नियमों के तहत होने वाली चर्चा के अंत में वोट डाले जाते हैं इसलिए यह सरकार के लिए खासी मुश्किल पैदा कर सकते हैं . लोकसभा में अध्यक्ष की अनुमति के बिना कोई भी बहस नहीं हो सकती . वह नियम इस बहस में भी लागू होते हैं . इसके अलावा लोकसभा के नियम १९३ से १९६ के तहत जनहित के किसी मुद्दे पर लघु अवधि की चर्चा की नोटिस दी जा सकती है . इस नियम के तहत होने वाली बहस के बाद वोट नहीं डाले जाते लेकिन जब सब कुछ पूरा देश टेलिविज़न के ज़रिये लाइव देख रहा है तो सरकार और सांसदों की मंशा तो जनता की अदालत में साफ़ नज़र आती ही रहती है .नियम १९७ के अंतर्गत संसद सदस्य , सरकार या किसी मंत्री का ध्यान आकर्षित करने के लिए ध्यानाकर्षण प्रस्ताव ला सकते हैं . पहले ध्यानाकर्षण प्रस्ताव की चर्चा अखबारों में खूब पढी जाती थी लेकिन आजकल ऐसा बहुत कम होता है .
विपक्ष के पास लोकसभा में सबसे बड़ा हथियार नियम १९८ के तहत सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव है . इस प्रस्ताव के तहत सरकारें गिराई जा सकती हैं . विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार इसी प्रस्ताव के बाद गिरी थी.इस तरह से हम देखते हैं कि संसद सदस्यों के पास सरकार से जनहित और राष्ट्रहित के काम कवाने के लिए बहुत सारे तरीके उपलब्ध हैं लेकिन उसके बाद भी जब इस देश की एक सवा अरब से ज़्यादा आबादी के प्रतिनधि शोरगुल के ज़रिये अपनी ड्यूटी करने को प्राथमिकता देते हैं तो निराशा होती है.

अगर लोकसभा में सदस्यों ने सरकार को हर कदम पर टोका होता तो राज्यसभा में हुआ है ,वह नौबत कभी न आती .

 

 

Sunday, September 20, 2020

 

किसी के पक्ष में ट्वीट करने के लिए अमिताभ बच्चन पर दबाव डालना सरासर गलत

शेष नारायण सिंह

 

मैं दिल्ली में जब मैं संघर्ष कर रहा था तो मेरे सबसे करीबी दोस्त  राजेंद्र सिंह थे , अब वे अमरीका में विराजते हैं . छात्र के रूप में राजेंद्र इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इमरजेंसी के खिलाफ मैदान में उतर  गए थे और उनपर बाकायदा मुक़दमे भी  दायर हुए थे .लेकिन अब मनईधारा रहते हैं . अमरीका में बसने वाले अपने रिश्तेदारों और हम सबके बच्चों के बुज़ुर्ग हैं . ईश्वर की कृपा से वज़न भी खूब बढ़ा लिया है  ,तोंद भी सही हो गयी है .अट्ठावन इंच तो नहीं है लेकिन खासी घेरेदार है .उनको हर भारतीय चीज अपनी लगती  है . वे अमिताभ बच्चन और नरेंद्र मोदी को भी अपना मानते हैं.  भारतीय व्यक्तियों के उनके इस प्रेम ने  मुझे अपने बचपन की कुछ यादें ताज़ा कर दीं .जब लडकियां  गौने में विदा होकर जाती थीं तो उनको मालूम  रहता था कि यह गाँव, यह आंगन, यह दुआर अब सब पराया हो रहा है . चीख चीख कर  रोती  थी, शुरू में तो बाप , काका ,भाई ,भतीजे उनके ससुरे जाते  थे लेकिन धीरे धीरे वह भी कम हो जाता था. उन लड़कियों  के लिए हर वह  चीज अपनी  लगती थी जो उनके गाँव से सम्बंधित होती थी .उसी  तरह जो लोग अमरीका में रहते हैं उनको हर भारतीय चीज  बिलकुल अपने  नैहर की लगती है .  जब अमिताभ बच्चन जैसे कलाकार को  ट्राल बिरादरी ने घेर लिया तो मेरे साथी और  दोस्त राजेंद्र सिंह को वही नैहर वाली चिंता हुई थी .

 

रात मुझे फोन करके उन्होंने कहा कि उनके कुछ फेसबुकिया दोस्तों ने एक अभियान चला रखा है जिसके तहत सिने अभिनेता अमिताभ बच्चन पर मुसलसल हमले किये जा रहे हैं . राजेंद्र का मानना  है कि यह गलत बात है .  अमिताभ बच्चन से  यह उम्मीद नहीं करना चाहिए कि वे हर  विषय पर टिप्पणी करें . मैं भी यही मानता हूँ . अमिताभ बच्चन या किसी भी व्यक्ति को केवल उन्हीं विषयों पर टिप्पणी करनी  चाहिए जिसपर टिप्पणी करने की उसकी इच्छा हो . अमिताभ बच्चन तो खैर बहुत  बड़े आदमी हैं, सदी के महानायक जैसी उपाधियों से विभूषित किये जा चुके हैं . टिप्पणी की उम्मीद तो भाई लोग हर उस  इंसान से करते हैं जो टीवी पर नज़र आता हो या किसी तरह के लेखन आदि के काम में लगा  हुआ हो. मेरे जैसे मामूली आदमी से भी कई लोग यह कहते पाए  गए हैं कि आप फलां विषय पर क्यों नहीं लिखते ? आपने किसी एक्टर की मृत्यु पर क्यों कुछ नहीं लिखा, आपने किसी अभिनेत्री के घर ढहाने जैसी घटना पर क्यों नहीं लिखा या टीवी पर क्यों नहीं कुछ कहा  ? आम  तौर पर तो इस तरह की बातों को टाल देना ही उचित रहता है लेकिन कुछ अपने मित्रों के इस सवाल का जवाब मैं यह देता हूँ कि ,’ भाई मैं वही लिखता हूँ जो लिखने का मेरा मन कहता है . अखबार में या वेबसाइट पर उस विषय पर  लिखता हूँ जिस पर मेरे सम्पादक जी लिखने को कहते हैं . हां,  जो लिखता हूँ ,वह मेरे अपने विचार होते  हैं . लेकिन अगर सम्पादक जी  किसी ऐसी वैसी बात पर लिखने को कहते हैं तो बता  देता हूँ उस विषय में लिखने में मैं प्रवीण नहीं हूँ . “ मेरा ख्याल है कि यह बात अमिताभ बच्चन पर भी लागू होती है.

अमिताभ बच्चन हिंदी सिनेमा के बहुत बड़े कलाकार हैं . उनका हिंदी भाषा पर अधिकार है . संतुलित और शुद्ध हिंदी बोलते हैं . अवधी क्षेत्र के देशज  शब्दों का सही जगह पर प्रयोग करना उनको आता है . हिंदी  सिनेमा में बहुत सारे कलाकार हैं जो  आम बोलचाल में हिंदी नहीं अंग्रेज़ी में बात  करते हैं .अमिताभ बच्चन ने बुरे वक़्त में जिससे भी मदद ली ,क़र्ज़ लिया उसको वापस लौटाया .जिसने एहसान किया उसके साथ खड़े रहे . मुझे परेशानी तब होती  है जब कोई यह उम्मीद करने लगे कि एहसान के बदले अमिताभ बच्चन ज़िंदगी भर   एहसान करने वाले की बात मानते रहें . अपने घरेलू और पारिवारिक मसलों में  भी एहसान करने वाले का  हस्तक्षेप स्वीकार करते रहें . एहसानकर्ता को यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए .जो लोग अमिताभ  बच्चन से उम्मीद कर रहे  हैं कि वे उनकी  पार्टी की लाइन के लठैत बन जाएँ , वे गलत हैं .   स्व. प्रधानमंत्री राजीव  गांधी के वे बालसखा हैं  . उनके पिताजी, डॉ हरिवंश राय बच्चन के घर में राजीव और सोनिया की शादी हुई थी . फिल्म कुली के दौरान जब उनको चोट लगी तो राजीव गांधी उनका हालचाल लेने असपताल भी गए थे . लेकिन एक समय ऐसा आया जब  उनकी राजीव गांधी के परिवार से उतनी अपनैती नहीं रही . अमर सिंह ने उनकी मदद की  थी . अमर सिंह के आग्रह  पर उन्होंने समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव से भी दोस्ती की . उनकी पत्नी आज भी उसी पार्टी के टिकट पर  राज्यसभा की सदस्य हैं . 2010 के आसपास उन्होंने  गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से निकटता बढ़ाई जो आज तक बनी हुई है .  उनकी  पत्नी समाजवादी  पार्टी की सदस्य हैं लेकिन अमिताभ बच्चन नरेंद्र मोदी के करीबी हैं . इसमें कोई भी विरोधाभास नहीं है . जब उन्होंने मुलायम सिंह यादव की पार्टी से दोस्ती बनाई थी तो समाजवादी पार्टी के कई  नेता उम्मीद करने लगे थे कि वे पार्टी की लाइन का प्रचार करें. आज फेसबुक और ट्विटर पर मौजूद बीजेपी के बहुत सारे लोग उनसे उम्मीद करते हैं कि अमिताभ बच्चन बीजेपी के  ट्विटर और फेसबुक अभियानों में शामिल हो जाएँ. यह गलत है . ऐसी उम्मीद नहीं करनी चाहिए .

इस बात में दो राय नहीं है कि वे एक गंभीर व्यक्ति हैं . सिनेमा की एक अभिनेत्री ने उनकी पत्नी , बेटी और बेटे के हवाले से अपनी बात कहने की कोशिश की . इस उकसाऊ कारस्तानी के बाद भी उन्होंने उस कलाकार के खिलाफ कोई टिप्पणी नहीं की. अब यह उम्मीद करना सरासर गलत होगा  कि वे उस कलाकार के पक्ष में वे ट्वीट करें . ट्वीट करना उनकी अपनी मर्जी है ,उसके लिए उनपर दबाव बनाना ठीक नहीं है .अमिताभ बच्चन को उनकी फिल्मों के कारण जाना  जाता है . उनकी फिल्मों में उनका  काम हर बार उच्चकोटि का होता है .उसी के आधार पर उनका आकलन किया जाना  चाहिए . कलाकार लठैत  नहीं होता. और वह फरमाइशी काम भी नहीं करता .


जिन लोगों ने फिल्म तीसरी क़सम देखी है, उन्हें मालूम है कि ज़ालिम ज़मींदार की फरमाइश के आगे ,फणीश्वर नाथ रेणु की नौटंकी कलाकार क्यों नहीं झुकती.. उसे मालूम है कि ठाकुर तंगनज़र है , तंगदिल है और जिद्दी है लेकिन महिला कलाकार अपने आत्मसम्मान से समझौता नहीं करती. उसे यह भी मालूम है कि ठाकुर खतरनाक है लेकिन वह उसे सीमा में रहने को मजबूर कर देती है.  इसलिए आज जो लोग अमिताभ बच्चन से अपनी जिद पूरी करवाना चाहते हैं उनको यह फिल्म देखकर ही अमिताभ बच्चन पर दबाव डालना चाहिए . उनको यह पता होना चाहिए कि अमिताभ बच्चन अपनी मर्जी के मालिक हैं और वही करेंगे जो उनका करना है .


Monday, September 14, 2020

 

प्रो. अम्बरीश सक्सेना के कालेज में दिया गया मेरा  भाषण

शेष नारायण सिंह

  आपको मैं धन्यवाद कहना चाहता हूँ कि आपने मुझे आज अपने बीच आने का अवास्र्र दिया .इस बात की मुझे और अधिक खुशी   है  कि आज चर्चा के केंद्र में आज  भारतेंदु हरिश्चंद्र हैं .मैं भारतेंदु को क्रांतिकारी  मानता हूँ जिन्होंने नाटक, गद्य, अनुवाद ,प्रहसन ,कविता आदि के माध्यम से जनजागरण का प्रयास किया . हिंदी साहित्य में उनका  प्रभाव अद्वितीय है . वैसे तो उन्होंने पांच वर्ष की आयु में ही कुछ न कुछ साहित्यिक बोलना शुरू कर दिया  था लेकिन पंद्रह वर्ष की आयु में विधिवत  साहित्य सेवा प्रारम्भ कर दी .। अठारह वर्ष की आयु यानी महात्मा गांधी के  जन्म के एक साल पहले  उन्होंने 'कविवचनसुधा' नामक पत्रिका निकालना  शुरू कर दिया था , जिसमें उस समय के बड़े-बड़े विद्वानों की रचनाएं छपती थीं।  'कविवचनसुधा',के पांच साल बाद  1873 में 'हरिश्चन्द्र मैगजीन' और 1874 में स्त्री शिक्षा के लिए 'बाला बोधिनी' नामक पत्रिका निकालने लगे थे .बनारस की संस्कृति में  जो मानदंड उन्होंने स्थापित किया था उस पर आज तक के बनारसियों को गर्व है . भारतेंदु की अड़ी आज भी बनारस के अड़ी वालों को याद रहती है . उनका परिवार अंग्रेजों का भक्त था लेकिन वे खुद देशभक्त थे . देशभक्ति की भावना के कारण उन्हें अंग्रेजों की नाराजगी भी झेलनी पड़ी .   भारतेन्दु जी ने हिंदी भाषा को समृद्ध बनाया लेकिन साहित्य को भी बहुत कुछ दिया .उन्होंने खड़ी बोली के उस रूप को प्रतिष्ठित किया जो उर्दू से अलग है और  हिन्दी क्षेत्र की बोलियों को साथ लेकर विकसित हुई है .यही भारतेंदु की भाषा है . उनके भाषाई संस्कारों पर राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द का निश्चित प्रभाव है क्योंकि उनको  भारतेंदु जी अपना गुरू मानते थे .वे अंग्रेज़ी राज को भारत की दुर्दशा  के लिए ज़िम्मेदार मानते थे . अपने लेखन  में उन्होंने  कई बार लिखा है कि अँग्रेज किस तरह भारत की संपत्ति को लूट रहे थे, भारतेन्दु स्त्री-पुरुष की समानता के पक्षधर थे . उनके पूरे साहित्य में यह सब साफ़ नज़र आता है .

 

मैं कई बार सोचता हूँ  कि उनको कहीं मालूम तो नहीं था कि उनके पास बहुत कम समय है क्योंकि 34 साल की  आयु में जितना कुछ उन्होंने लिखा है बहुत ही बड़ा  खज़ाना है .  १५ साल की उम्र में उन्होंने विधिवत लिखना शुरू किया था और 34 साल में चले गए यानी कुल बीस साल और इस बीस साल में क्या क्या नहीं लिखा .

 

मौलिक नाटक[4]

·         वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति ,सत्य हरिश्चन्द्र विषस्य विषमौषधम् भारत दुर्दशा ,अंधेर नगरी ,प्रेमजोगिनी

·         अन्य भाषाओं से नाटकों का जो  अनुवाद उन्होंने किया ,काश बाद के लोगों भी वह काम  जारी रखा होता .

·          

·         अनूदित नाट्य रचनाएँ

·         विद्यासुन्दर (१८६८,नाटक, संस्कृत 'चौरपंचाशिकाके यतीन्द्रमोहन ठाकुर कृत बँगला संस्करण का हिंदी अनुवाद)

·         पाखण्ड विडम्बन (कृष्ण मिश्र कृत प्रबोधचंद्रोदयनाटक के तृतीय अंक का अनुवाद)

·         धनंजय विजय (१८७३, व्यायोग, कांचन कवि कृत संस्कृत नाटक का अनुवाद)

·         कर्पूर मंजरी (१८७५, सट्टक, राजशेखर कवि कृत प्राकृत नाटक का अनुवाद)

·         भारत जननी (१८७७,नाट्यगीत, बंगला की 'भारतमाता'के हिंदी अनुवाद पर आधारित)

·         मुद्राराक्षस (१८७८, विशाखदत्त के संस्कृत नाटक का अनुवाद)

·         दुर्लभ बंधु (१८८०, शेक्सपियर के मर्चेंट ऑफ वेनिसका अनुवाद)

 

 

 निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल ,

बिनु निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल.

अंग्रेज़ी पढ़ी के जदपि सब गुन होत प्रवीण

पै निज भाषा ज्ञान बिनु  रहत हीन के हीन

 

हिंदी दिवस आज शाम तक बीत जाएगा . सरकारी विभागों में सरकारी कार्यक्रम होंगे  , शपथ ली जायेगी  और शाम होते-होते हिंदी का काम पूरा हो जाएगा . एक बात समझ लेने की ज़रूरत है कि सरकार की कृपा से  हिंदी नहीं चलती। वास्तव में वह जनभाषा है और महात्मा गांधी की विरासत है। वह अपने उसी  पाथेय के साथ बुलंदियों के मुकाम हासिल करती रहेगी। आज से करीब सौ साल पहले 1918  में हिंदी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन के अध्यक्ष के रूप में महात्मा गांधी ने हिंदी को आजादी की लड़ाई के एजेंडे पर रख दिया था। उन्होंने कहा था किभारत की राष्ट्रभाषा हिंदी को ही बनाया जाना चाहिए क्योंकि हिंदी जनमानस की भाषा है। जब देश आजाद हुआ तो संविधानसभा ने 14  सितम्बर 1949 के दिन एक सर्वसम्मत प्रस्ताव पास करके तय किया कि हिंदी ही स्वतंत्र भारत की राजभाषा होगी। संविधान के अनुच्छेद 343 (1 ) में लिखा है- कि ,  ''संघ  यानी केंद्र सरकार की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी. संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतरराष्ट्रीय रूप होगा.'' 

महात्मा गांधी के 1918  वाले भाषण के बाद स्वत्रंतता की लड़ाई में हिंदी को महत्वपूर्ण स्थान मिलना शुरू  हो गया। इस सन्दर्भ में महान पत्रकारशहीद गणेश शंकर विद्यार्थी का वह भाषण बहुत ही जरूरी दस्तावेज है जो उन्होंने 1930 में हिंदी साहित्य सम्मलेन के गोरखपुर अधिवेशन के अध्यक्ष के रूप में दिया था। गौर करने की बात है कि 1930 में महात्मा गांधी आजादी की लड़ाई के सर्वमान्य नेता  बन चुके थे, 1930 में कांग्रेस ने देश की पूर्ण स्वतंत्रता का ऐलान कर दिया था और दांडी मार्च के माध्यम से पूरी दुनिया में महात्मा गांधी की नेतृत्व शक्ति  का डंका बज चुका था।  वैसे  विश्वपटल पर जनमानस के नेता के रूप में तो महात्मा गांधी 1920 के आन्दोलन के बाद ही स्थापित हो चुके थे लेकिन सन 1930 तक महात्मा गांधी का लोहा  विंस्टन चर्चिल जैसा भारत की आज़ादी  का विरोधी भी मानने लगा था.  रूसी क्रांति के नेता लेनिन भी महात्मा गांधी को  महान मानने लगे थे . एक दिलचस्प वाकया कलकत्ता से छपने वाले उन दिनों के महत्वपूर्ण अखबार, ''मतवाला'' में छपा है कि जब भारत के  कम्युनिस्ट नेताएमएन रॉय ने दूसरी कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के सम्मलेन में यह साबित  करने की कोशिश की कि 1920 का असहयोग आन्दोलन कोई खास महत्व नहीं रखता और गांधी एक मामूली राजनीतिक नेता हैं  तो लेनिन ने उनको डपट दिया था और कहा था कि, ''गांधी राष्ट्रीय मुक्ति के लिए लाखों-लाख लोगों का विराट जन-आन्दोलन चला रहे हैंवह साम्राज्यवाद-विरोधी हैं।  वह क्रांतिकारी हैं?'' आशय यह है कि 1930 तक महात्मा गांधी दुनिया के बड़े क्रांतिकारी नेताओं में बहुत ही सम्मानित व्यक्ति बन चुके थे और उनके हस्तक्षेप के कारण  आजादी की लड़ाई के शुरुआती दिनों में ही यह तय हो गया था कि हिंदी को स्वतंत्र भारत में सम्मान मिलने वाला है।

1930 के आन्दोलन के बाद तो कांग्रेस के अधिवेशनों में भी हिंदी को बहुत महत्व मिलने लगा था। इस सन्दर्भ में जब गणेश शंकर विद्यार्थी का भाषण देखते हैं तो बात ज्यादा साफ समझ में आ जाती है। अपने भाषण में स्व. विद्यार्थी जी ने एक तरह से भविष्य का खाका ही खींच दिया है। उन्होंने कहा  कि,

''हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य का भविष्य बहुत बड़ा है। उसके गर्भ में निहित भवितव्यताएं इस देश और उसकी भाषा द्वारा संसार भर के रंगमंच पर एक विशेष अभिनय कराने वाली हैं। मुझे तो ऐसा भासित होता है कि संसार की कोई भी भाषा मनुष्य-जाति को उतना ऊंचा उठानेमनुष्य को यथार्थ में मनुष्य बनाने और संसार को सुसभ्य और सद्भावनाओं से युक्त बनाने में उतनी सफल नहीं हुईजितनी कि आगे चलकर हिन्दी भाषा होने वाली है । ...मुझे तो वह दिन दूर नहीं दिखाई देताजब हिन्दी साहित्य अपने सौष्ठव के कारण जगत-साहित्य में अपना विशेष स्थान प्राप्त करेगा और हिन्दीभारतवर्ष-ऐसे विशाल देश की राष्ट्रभाषा की हैसियत से न केवल एशिया महाद्वीप के राष्ट्रों की पंचायत मेंकिन्तु संसार भर के देशों की पंचायत में एक  भाषा के समान न केवल बोली भर जाएगी किन्तु अपने बल से संसार की बड़ी-बड़ी समस्याओं पर भरपूर प्रभाव डालेगी और उसके कारण अनेक अन्तरराष्ट्रीय प्रश्न बिगड़ा और बना करेंगे।''

आज उनके भाषण के करीब नब्बे साल बाद उनकी भविष्यवाणी पर गौर करने से समझ में आ जाता  है कि हिंदी भाषाजिसको महात्मा गांधी ने जनभाषा कहा थावह  वास्तव में मानवता के एक बड़े हिस्से के लोगों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली थी। महात्मा गांधी कोई भी विषय अधूरा नहीं छोड़ते थे। उन्होंने राजभाषा के सम्बन्ध में बाकायदा बहस चलवाई और आखिर में   सिद्धांत भी प्रतिपादित कर दिया। महात्मा गांधी  के अनुसार राष्ट्रभाषा बनने के लिए किसी भाषा में पांच बातें अहम हैं : पहला- उसे सरकारी अधिकारी आसानी से सीख सकें। दूसरा- वह समस्त भारत में धार्मिकआर्थिक और राजनीतिक संपर्क के माध्यम के रूप में प्रयोग के लिए सक्षम होतीसरा- वह अधिकांश भारतवासियों द्वारा बोली जाती होचौथा- सारे देश को उसे सीखने में आसानी हो,और पांचवां- ऐसी भाषा को चुनते समय फैसला करने वाले अपने क्षेत्रीय या फौरी हित से ऊपर उठकर फैसला करें।''  गांधी जी को विश्वास था कि हिन्दी इस कसौटी पर सही उतरती है।

देश के आज़ाद  होने पर संविधान सभा की जिस बैठक में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का फैसला हुआ उसमें सभी सदस्य मौजूद थे और एकमत से फैसला लिया गया। महात्मा गांधी तब जीवित नहीं थे लेकिन देश ने उनकी विरासत को सम्मान दिया और संविधान में हिंदी को राजभाषा के रूप में स्थापित कर दिया। हालांकि यह भी सच है कि संविधान सभा की घोषणा और संविधान में स्थान पाने के बाद भी हिंदी उपेक्षित ही रही। सरकारी स्तर पर थोड़ी   गति तब आई जब जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में 1963 में राजभाषा अधिनियम संसद में पास कर लिया गया और राजभाषा के सम्बन्ध में एक नया कानून बन गया। उसके बाद ही शब्दावली आदि के  लिए समितियां बनीं। लेकिन समितियां भी सरकारी  ही थीं। ऐसे-ऐसे शब्द बना दिए गए जो सीधा संस्कृत से उठा लिए गए थे। उन्हीं सरकारी शब्दों की महिमा है कि कई बार तो हिंदी में आई सरकारी चिट्ठियों के भी हिंदी अनुवाद की जरूरत पड़ जाती है।

यह बात भी निर्विवाद है कि किसी भी भाषा के विकास के लिए ऐसे उच्च कोटि के साहित्य की जरूरत होती है जो जनमानस की जबान पर चढ़ सके। अपने यहां हिंदी भाषा के विकास में कबीरसूर और तुलसी का जितना योगदान है उतना किसी का नहीं। बाद में भी जिन महान साहित्यकारों ने हिंदी को जनभाषा  बनाने में योगदान किया है उनको भी हिंदी दिवस पर याद करना जरूरी होता है।  हमारा सिर उनके सम्मान में सदा ही झुका रहेगा। हिंदी को केवल खड़ी बोली मानने वालों को समझ लेना चाहिए कि अगर अंग्रेजों ने भी इसी तरह की शुद्धता के आग्रह रखे होते तो उनकी अंग्रेजी भाषा का विकास भी नहीं हुआ होता।  खड़ी बोली हिंदी की विकास यात्रा में एक अहम मुकाम जरूर है लेकिन खड़ी बोली ही हिंदी नहीं हैहिंदी उसके अलावा भी बहुत कुछ  है।

आजकल हिंदी के साथ तरह-तरह के प्रयोग किए जा रहे हैं। अभी तीस साल पहले की बात है कि कुछ अखबारों ने हिंदी और अंग्रेजी मिलाकर भाषा चलाने की कोशिश की और उसी को हिंदी मनवाने पर आमादा थे।  कहते थे कि अब हिंदी नहीं हिंगलिश का जमाना है। दावा करते थे कि अब यही भाषा चलेगी। लेकिन आज उन संपादकों का भी कहीं पता नहीं है और उस भाषा को भी अपमान की दृष्टि से देखा जाता है। आजकल टेलीविजन  में  नौकरी करने वालों को मुगालता है कि जो उल्टी-सीधी हिंदी वे लोग लिखते बोलते  हैंवही असली हिंदी है। समय से बड़ा कोई न्यायाधीश नहीं होता। इस  अभियान के कुछ पुरोधा तो  दिल्ली के टीवी दफ्तरों के आसपास नौकरी की तलाश करते पाए जाते हैं। और कुछ लोगों ने अन्य धंधे कर लिए हैं।   भाषा के नाम पर मनमर्जी करने वाले रास्ते से अपने आप हटते जा रहे हैं।

ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। हिंदी सिनेमा में भी सड़क छाप लोगों का एक तरह  से कब्जा ही हो गया था। फ़िल्मी कहानी लिखने वालों को मुंशी कहा जाता था। मुंशी वह प्राणी होता था जो हीरो या फिल्म निर्माता की चापलूसी करता रहता था और कुछ भी कहानी के रूप में चला देता था।  उन मुंशियों के प्रभाव के दौर में प्रेमचंद और अमृतलाल नगर जैसे महान लेखकों की कहानियों पर बनी फिल्में भी व्यापारिक सफलता नहीं पा सकीं। उन दिनों ज़्यादातर फिल्मों में प्रेम त्रिकोण होता थाखलनायक होता था और लगभग सभी कहानियां एक जैसी ही होती थीं। लेकिन जब सिनेमा का विकास एक स्थिर मुकाम तक आ गया तो ख्वाजा अहमद अब्बास,श्याम बेनेगल जैसे लोग आए और सार्थक सिनेमा का दौर  शुरू हो गया . इस दौर में सही तरीके से लिखी गई हिंदी की कहानियां फिल्मों में इज्जत का मुकाम पा सकीं। और अब तो कहानी की गुणवत्ता पर भी चर्चा होती  है। सही हिंदी बोली जाती है और भाषा अपनी रवानी पकड़ चुकी है। ऐसा लगता है कि टेलीविजन की खबरों की भाषा में भी ऐसा ही कुछ होना शुरू हो गया है। वेलकम बैक बोलने वाले अब खिसक रहे  हैं।  हिंदी वाक्यों में अंग्रेजी  चपेकने  की जिद  करने वाले एक न्यूज चैनल के मालिक बुरी तरह  से कर्ज में डूब चुके हैं। सही हिंदी बोलने वाले समाचार वाचकों की स्वीकार्यता बढ़ रही है।

  इतिहास में भी हिंदी के साथ इस तरह के अन्याय हुए हैं। महात्मा तुलसी दास के ही समकालीन रामकथा  के एक रचयिता कवि केशवदास भी हुए हैं। उनके अलावा और भी बहुत सारे कवियों ने राम के चरित्र को अपने काव्य का विषय बनाया था ।  उनका कहीं पता नहीं.  केवल हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने वाले ही उनको  जानते होंगे । केशवदास को तो बाद के विद्वानों ने ''कठिन काव्य का प्रेत'' तक कह डाला जबकि रामचरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास का मुकाम हिंदी साहित्य में अमर हैऔर रामकथा के गायकों में कोई भी उन जैसा  नहीं है। इसका कारण यह है कि तुलसी बाबा ने अपने समय की जनभाषा हिंदी में कविताई की और किसी राजा या सामंत की चापलूसी नहीं की।''हिंदी की विकास यात्रा चालू है और उसमें अपने तरीके से लोग अपनी-अपनी भूमिका भी निभा रहे  हैं और योगदान भी कर रहे हैं।

लेकिन हम पंहुचे कहाँ तक हैं . आज हिंदी दिवस है इस अवसर पर एक भाषाई बानगी देखिए एक श्रीमान जी ने कहा ," यू नोआई वेरी मच लाइक हिंदी लैंग्वेज। मैं हिंदी बोलने वालों को एप्रिसिएट करता हूँ।इस हिंदी को हिंदी भाषा के विकास का संकेत मानने  वाले वास्तव में भाषा की हत्या कर रहे हैं . सच्ची बात यह है कि इस  तरह की भाषा का  इस्तेमाल करके वे लोग अपनी धरोहर और भावी  पीढ़ियों के विकास पर ज़बरदस्त हमला कर रहे हैं . ऐसे लोगों के चलते ही बहुत बड़े पैमाने पर भाषा का भ्रम फैला हुआ  है.  आम धारणा फैला  दी गयी है कि भाषा सम्प्रेषण और संवाद का ही माध्यम है . इसका अर्थ यह हुआ कि यदि भाषा दो व्यक्तियों या समूहों के बीच संवाद स्थापित कर सकती है और जो कहा जा  रहा है उसको समूह समझ रहा है जिसको संबोधित किया जा रहा है तो भाषा का काम हो गया . लोग कहते  हैं कि भाषा का यही काम है  लेकिन यह बात सच्चाई से बिलकुल परे है . यदि भाषा केवल बोलने और समझने की  सीमा तक सीमित कर दी गयी तो पढने और लिखने का काम कौन करेगा . भाषा को यदि  लिखने के काम से मुक्त कर दिया गया तो   ज्ञान को आगे कैसे बढ़ाया जाएगा . भाषा को जीवित रखने के लिए पढ़ना भी बहुत ज़रूरी है  और लिखना भी उससे ज्यादा ज़रूरी है . यह बात सही है कि  भाषा  सम्प्रेषण का माध्यम है लेकिन वह धरोहर और मेधा की वाहक भी  है .  इसलिए भाषा को बोलने ,समझने, लिखने और पढने की मर्यादा में ही रखना ठीक रहेगा . यह  भाषा की प्रगति और   सम्मान के लिए सबसे आवश्यक शर्त है . भाषा के लिए समझना और बोलना सबसे छोटी भूमिका है .  जब तक उसको पढ़ा  और लिखा नहीं जाएगा तब तक वह  भाषा  कहलाने की अधिकारी ही नहीं होगी. वह केवल बोली होकर रह जायेगी .  यह बातें सभी भाषाओं के लिए सही है  लेकिन हिंदी भाषा  के लिए ज्यादा सही  है. आज जिस तरह का विमर्श हिन्दी के बारे में देखा जा रहा है वह हिंदी के संकट की शुरुआत का संकेत माना जा सकता है. हिंदी  में अंग्रेज़ी शब्दों को डालकर उसको  भाषा के विकास की बात करना  अपनी हीनता को स्वीकार करना  है . हिंदी को एक वैज्ञानिक सोच की भाषा और सांस्कृतिक थाती  की वाहक बनाने के लिए अथक प्रयास कर रहे  भाषाविद, राहुल देव   का कहना  है  कि, "हिंदी  समाज वास्तव में एक आत्मलज्जित समाज है . उसको अपने आपको हिंदी वाला कहने में शर्म आती है  . वास्तव में अपने को दीन मानकर ,अपने दैन्य को छुपाने के लिए वह अपनी हिंदी में अंग्रेज़ी  शब्दों को ठूंसता है " इसी तर्क के आधार पर हिंदी की वर्तमान स्थिति को समझने का प्रयास किया  जाएगा.

 

 हिंदी के बारे में एक और भाषाभ्रम भी बहुत बड़े स्तर पर प्रचलित है .  कहा जाता है कि भारत में टेलिविज़न और सिनेमा  पूरे देश में हिंदी का विकास कर रहा है . इतना ही नहीं इन  माध्यमों के  कारण विदेशों में भी  हिंदी का विस्तार हो रहा है. लेकिन इस तर्क में दो  समस्याएं हैं. एक तो यह कि सिनेमा टेलिविज़न की हिंदी भी वही वाली है जिसका उदाहरण ऊपर दिया गया है  और दूसरी  समस्या  यह है कि बोलने या समझने से किसी भाषा का  विकास नहीं हो सकता . उसको  लिखना और बोलना बहुत ज़रूरी है , उसके बिना फौरी तौर पर संवाद तो  हो जाता है लेकिन उसका कोई  स्वरूप तय नहीं होता.  टेलिविज़न और सिनेमा में पटकथा या संवाद लिखने वाले बहुत से ऐसे  लोग हैं  जो हिंदी की सही समझ रखते हैं लेकिन शायद उनकी कोई मजबूरी होती है  जो उल्टी सीधी भाषा लिख देते हैं . हो   सकता है कि उनके अभिनेता या निर्माता उनसे वही मांग करते हैं .  इन लेखकों को प्रयास करना चाहिए कि निर्माता निदेशकों को यह समझाएं कि यदि सही भाषा लिखी गयी तो भी बात और अच्छी हो जायेगी . चाणक्य सीरियल और पिंजर जैसी  फिल्मों के रचयिता  डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी  की फिल्मों का उदाहरण  दिया जा सकता  है जो भाषा के बारे में बहुत ही सजग रहते हैं. अमिताभ बच्चन की भाषा भी एक अच्छा उदाहरण है .  सिनेमा के संवादों में उनकी हिंदी को सुनकर भाषा की क्षमता का अनुमान लगता  है .सही हिंदी बोलना असंभव नहीं है ,बहुत आसान  है. अधिकतर सिनेमा कलाकार निजी बातचीत में अंग्रेज़ी बोलते पाए जाते हैं जबकि उनके रोजी रोटी का साधन  हिंदी सिनेमा ही है. पिछले दिनों एक टेलिविज़न कार्यक्रम में फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौट की भाषा सुनने का अवसर मिला , जिस तरह से उन्होंने हिंदी शब्दों और मुहावरों का प्रयोग किया ,उसको टेलिविज़न और  सिनेमा वालों को  उदाहरण के रूप में प्रयोग करना चाहिए .  एक अन्य अभिनेत्री स्वरा भास्कर भी बहुत अच्छी भाषा बोलते देखी और सुनी गयी हैं . . डॉ  राही मासूम  रज़ा ने टेलिविज़न और सिनेमा के माध्यम से सही हिंदी को पूरी दुनिया में  पंहुचाने  का जो काम किया है ,उस पर किसी भी भारतीय को गर्व हो सकता  है. कुछ दशक पहले  टेलिविज़न पर दिखाए गए उनके धारावाहिक , ' महाभारत ' के संवाद  हमारी भाषाई धरोहार का हिस्सा बन चुके हैं.  टेलिविज़न बहुत बड़ा माध्यम है , बहुत बड़ा उद्योग है . उसका समाज की भाषा चेतना पर बड़ा असर पड़ता है . लेकिन सही भाषा बोलने वालों की गिनती उँगलियों पर की जा सकती है .दुर्भाग्य की बात यह है कि  आज इस माध्यम के कारण  ही बच्चों के  भाषा संस्कार बिगड़ रहे  हैं. टेलिविज़न वालों से उम्मीद की जाती है कि वह भाषा को परिमार्जित करे और  भाषा का संस्कार देंगे लेकिन वे तो भाषा  को बिगाड़ रहे  हैं . हिंदी के अधिकतर टेलिविज़न चैनल  हिंदी और अन्य भाषाओं में विग्रह पैदा कर  रहे  हैं. हिंदी के अखबार भी हिंदी को बर्बाद कर रहे हैं  . यह  आवश्यक है कि औपचारिक मंचों से सही हिंदी बोली जाए अन्यथा हिंदी को बोली के स्तर तक सीमित कर दिया जाएगा ".

आज टेलिविज़न की कृपा से छोटे बच्चों की भाषा का  प्रदूषण हो रहा है .बच्चे  सोचते  हैं कि जो भाषा टीवी पर सुनायी पड़  रही है ,वही हिंदी है .माता पिता भी अंग्रेज़ी ही बोलने के लिए प्रोत्साहित करते हैं क्योंकि स्कूलों का दबाव रहता है . देखा गया है कि बच्चों की पहली भाषा तो अंग्रेज़ी हो ही चुकी है .बहुत भारी फीस लेने वाले स्कूलों में  अंग्रेज़ी बोलना अनिवार्य है . अपनी भाषा में बोलने वाले बच्चों को दण्डित किया जाता है...बच्चों की मुख्य भाषा अंग्रेज़ी हो जाने के संकट बहुत ही भयावह  हैं. साहित्य ,संगीत आदि की बात तो बाद में आयेगी ,अभी तो बड़ा संकट दादा-दादी, नाना-नानी से संवादहीनता की स्थिति   है. आपस में बच्चे अंग्रेज़ी में बात  करते हैं ,  स्कूल की भाषा अंग्रेज़ी हो ही चुकी है , उनके  माता पिता  भी आपस में और बच्चों से अंग्रेज़ी में बात करते हैं नतीजा यह होता है कि बच्चों को अपने  दादा-दादी से बात  करने के लिए हिंदी के शब्द तलाशने पड़ते हैं .  जिसके कारण संवाद में निश्चित रूप से कमी आती है  .यह स्पष्ट तरीके से नहीं दिखता लेकिन  बूढ़े लोगों को तकलीफ बहुत होती है.

 

एक समाज के रूप में हमें  इस स्थिति को संभालना पडेगा . बंगला, तमिल, कन्नड़ , तेलुगु . मराठी आदि भाषाओं के इलाके में रहने वालों को  अपनी भाषा की श्रेष्ठता पर गर्व होता है. वे अपनी भाषा में कहीं भी बात करने में लज्जित  नहीं  महसूस करते लेकिन हिंदी में यह संकट  है .  इससे हमें  अपने  भाषाई संस्कारों को मुक्त करना  पडेगा.  अपनी भाषा को बोलकर श्रेष्ठता का अनुभव करना भाषा के  विकास  की बहुत ही ज़रूरी शर्त  है.  इसके लिए  पूरे प्रयास से हिंदी को रोज़मर्रा की भाषा , बच्चों की भाषा  और बाज़ार की भाषा बनाना बहुत ही ज़रूरी है . आज देश में  बड़े व्यापार की भाषा अंग्रेज़ी है , वहां  हिंदी का प्रयोग किया जाना चाहिए . क्योंकि वहां भी अपनी मातृभाषा का प्रयोग किया जा सकता  था . चीन और जापान ने अपनी भाषाओं को ही बड़े  व्यापार का माध्यम बनाया और आज हमसे बेहतर आर्थिक विकास के उदाहरण बन चुके हैं . अंग्रेज़ी सीखना ज़रूरी है  तो वह  सीखी जानी चाहिए , उसका साहित्य पढ़ा जाना  चाहिए, अगर ज़रूरी है तो उसके माध्यम से वैज्ञानिक और जानकारी जुटाई जानी चाहिए लेकिन भाषा की श्रेष्ठता के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए . भारतेंदु हरिश्चंद्र की बात   सनातन सत्य है कि ' निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल '. भाषा की चेतना से ही पारिवारिक जीवन को और सुखमय बनाया जा सकता  है . हमारी परम्परा की वाहक भाषा ही होती है . संस्कृति,  साहित्य , संगीत सब कुछ भाषा के ज़रिये ही अभिव्यक्ति  पाता है ,इसलिए हिंदी भाषा को उसका गौरवशाली स्थान दिलाने के लिए हर स्तर से हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए .