Thursday, July 4, 2019

गरीबी के खिलाफ लड़ाई के एक योद्धा की छवि ने दिलाई है नरेंद्र मोदी को जीत



शेष नारायण सिंह

लोकसभा के ताज़ा चुनाव ने भारतीय राजनीति के कई मिथकों को तोडा है . नतीजों के विश्लेषण से समझ में आ रहा है कि मतदाता जातियों के सांचे से बाहर आने की कोशिश कर रहा है .जहाँ तक  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की २०१९ की जीत की बात है ,वह निश्चित रूप से असाधारण है . उन्होंने अपने २०१४ के रिकार्ड में  भी सुधार किया है . उस जीत के परिणामस्वरूप अब सरकार भी  बन गयी है. इमकान है कि वर्तमान सरकार वे काम भी करेगी जो बीजेपी के २०१४ के संकल्प पत्र में लिखा हुआ है .उनकी जीत अब चुनावी बहस का नहीं  अकादमिक चर्चा का विषय बन गयी है . तरह तरह के लोग उसका विश्लेषण कर रहे हैं. चुनाव के पहले जिन लोगों ने ग्रामीण क्षेत्रों का दौरा किया था उनको अनुमान लग गया था कि  गाँव में लोग अलग तरह से वोट देने के बारे में विचार कर रहे थे. इन पंक्तियों के लेखक ने जब मार्च २०१९ में पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ गाँवों का दौरा किया था तो जो संकेत ज़मीन पर दिख रहे थे ,उनसे अनुमान लगना स्वाभाविक था . २० मार्च २०१९ की अपनी एक फेसबुक पोस्ट में लिखा था कि ," लगता है कि मायावती की राजनीति में कुछ बदलने वाला है . दलितों के घर के सामने बने हुए इज्ज़त घर , दलित परिवारों के लिए बनाये गए .ईंट के छोटे मकान उनके पक्के वोट बैंक में नक़ब लगा सकते हैं . अगर किसी बाबू साहब ने किसी दलित के नाम से थोडा बहुत गेहूं सरकारी खरीद केंद्र पर जमा करा दिया था तो उस दलित के नाम भी दो हज़ार रूपये डीबीटी के ज़रिये बैंक में जमा हो चुके हैं. दलितों के नेताओं और बीजेपी का विरोध कर रहे नेताओं का दावा है कि इससे कुछ फर्क नहीं पड़ने वाला है लेकिन इज्ज़त घर ( शौचालय ) का प्रभाव गरीब दलितों के वोट पर पडेगा ,यह बात साफ़ नज़र आती है .हालांकि यह भी सच है कि आज से चालीस साल पहले जिन दलित बस्तियों में मैंने काम किया था उनमें बड़ा बदलाव आया है. बड़ी संख्या में दलित नौजवान सरकारी कर्मचारी हैं , कुछ लडकियां जिले के सरकारी इंजीनियरिंग कालेज से बी टेक की पढ़ाई कर रही हैं . दलितों में शिक्षा के प्रति जागरूकता है और वे सरकारी नौकरी के लिए प्रयास करते हैं जबकि बाबू साहब लोगों के बच्चे दसवीं या बारहवीं फेल होने के बाद चौराहे की रौनक बढाने में योगदान कर रहे हैं . अपेक्षाकृत जागरूक और संपन्न दलितों में मायावती के प्रति पूरा समर्पण है लेकिन जिनको पिछले दो साल में शौचालय और मकान  जैसी सुविधाएं मिली हैं वे नरेंद्र मोदी की तरफ मुखातिब हो रहे हैं "
जो लोग उत्तर प्रदेश की जातिव्यवस्था को समझते हैं उनको मालूम है कि इस तरह के संकेत अगर ज़मीन से उठ रहे थे तो उसका मतलब बड़ा था. आज नतीजे आने के बाद आसानी से कहा जा सकता है कि दलित जातियों के वोटों पर मायावती का एकाधिकार टूट चुका है . दलितों के अलावा एक और संकेत भी उसी दौरे में साफ़ नज़र आ रहा था . २२ मार्च की अपनी पोस्ट में लिखा था कि  ," ओबीसी जातियों के एक वर्ग में नरेंद्र मोदी को पिछड़ी जाति का नेता माना जा रहा है . हर चौराहे पर बीजेपी की जीत की बात की जा रही है .एयर स्ट्राइक के कारण भी खाली बैठे नौजवान लड़कों में वीरता की धारा देखी जा सकती है . मोदी के आधी बांह के कुरते और अजीबो गरीब रंग की जाकिट पहने बहुत सारे लोग देखे जा सकते हैं .अब आप ही बताइये कि चुनाव किस तरफ जा सकता है ? मेरे वे दोस्त जो मोदी को हर कीमत पर हराना चाहते हैं , उनसे निवेदन है कि वे इसे मेरी राय न मानें . यह ज़मीनी सच्चाई है ."
यह सारा माहौल एक दिन में नहीं बना . २०१३-१४ के अपने चुनाव अभियान में नरेंद्र मोदी ने अपने आपको पिछड़ी जाति के एक गरीब आदमी के रूप में पेश किया था और यह सिद्ध करने की कोशिश की थी कि उनका परिवार स्टेशन पर चाय बेचकर गुज़ारा करता था . उनके इन दावों का मजाक भी उड़ाया गया ,उनको गलत भी साबित करने की कोशिश की गयी लेकिन उस सबका नतीजा यह हुआ कि कई कई दिन मीडिया में  मोदी की जाति चर्चा में बनी रही . २०१४ के चुनाव में तो उनकी जीत का सेहरा इस बात के जिम्मे किया जा सकता है कि लोग उस वक़्त की कांग्रेस की  सरकार को अति भ्रष्ट मान रहे थे अन्ना हजारे के आन्दोलन को हवा देकर एक  कांग्रेस विरोधी संगठन और मीडिया ने पूरे देश में माहौल बना दिया था सी ए जी पद पर बैठे एक अफसर ने टूजी के  काम में करीब पौने दो लाख करोड़ के घोटाले की बात लिख कर माहौल को गरम कर दिया था. अब पता चला है कि  सी ए जी का टूजी स्पेक्ट्रम वाला घोटाला काल्पनिक था लेकिन चुनाव २०१४  में वह अपना काम कर गया . मोदी की जीत में उन सारी बातों ने योगदान दिया था . नरेंद्र मोदी की बात पर जनता ने विश्वास किया और उनको सपष्ट बहुमत दे दिया . लेकिन २०१९ के चुनाव में बात अलग थी . बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को एक कुशल और ईमानदार प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत किया और जनता ने उनपर विश्वास  किया . इस विश्वास की बारीकी को समझकर ही मौजूदा चुनाव नतीजों की बारीकी को समझा जा सकता है .
२०१९ के नतीजों में जानकारों का एक वर्ग लगातार ईवीएम की कारस्तानी की बात कर रहा है . इस श्रेणी में अपने बहुत से मित्र भी हैं .लेकिन उस बात को मानने के सबूत नहीं हैं इसलिए ईवीएम वाली बात  को अभी नहीं माना जा सकता है . हां अगर आगे चलकर कोई सबूत आ गया तो मान लेने में कोई परेशानी नहीं होगी . अभी तो फिलहाल नरेंद्र मोदी की चुनाव की रणनीति और उनकी प्रचार शैली पर ही बात की जायेगी . इस चुनाव में उनकी सफलता का सबसे बड़ा कारण है कि उन्होंने समाज के सबसे करीब इंसान को संबोधित किया और उसके मन में यह विचार पैदा करने में सफलता  पाई कि यह प्रधानमंत्री हमारे लिए कुछ करने वाला है . यह विश्वास जीतने के लिए उन्होंने पिछले पांच साल में  योजनाबद्ध तरीके से काम किया . पिछले पांच वर्षों में नरेंद्र मोदी अपने अधिकतर भाषणों में गरीबशब्द का बार बार  प्रयोग करते थे . कई बार यह बात अजीब लगती थी . लेकिन वास्तविकता यह थी कि वे  समाज के सबसे गरीब  लोगों के लिए कुछ कर रहे थे . ज्यादातर स्कीमें पुरानी थीं . मसलन दलितों के लिए पक्के मकान और उनके लिए शौचालय की स्कीम डॉ मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री के रूप में शुरू किया था . पीवी नरसिम्हाराव की सरकार के वित्त मंत्री के रूप में भी उन्होंने इसका उल्लेख किया था .प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने इस मद के लिए धन का आवंटन भी किया था . लेकिन यह  योजनाएं ज़मीन पर लागू नहीं हो सकीं. ग्राम प्रधानग्राम पंचायत अधिकारी बीडीओ और जिला विकास अधिकारी सारी रक़म रिश्वत के रूप में हड़प कर रहे थे .२०१४ के बाद  जिन  राज्यों में बीजेपी की सरकारें थीं ,वहां यह स्कीमें मजबूती से लागू की गईं. उत्तर प्रदेश में योगी सरकार आने के बाद लगभग हर दलित बस्ती में यह स्कीमें  युद्ध सत्र पर लागू की गयीं और जो भी  हुआ उसके बारे में बाकायदा बताया गया कि यह प्रधानमंत्री की कृपा से हुआ  है . घरों आदि पर कई जगह तो  प्रधानमंत्री की फोटो भी लगी हुयी  देखी गयी.
समकालीन इतिहास पार नज़र डालें तो एक तस्वीर उभरती है .ऐसा लगता है कि गाँव में गरीबी हटाने की बात जिस पार्टी ने भी की और  जनता ने उसका विश्वास कर लिया तो उसको सत्ता सौंप दी . आज़ादी लड़ाई के बाद सबको मालूम था कि कांग्रेस अंग्रेजोंज़मींदारोंसाहूकारों से मुक्ति दिलाने के लिए ही महात्मा गांधी की अगुवाई में  काम कर रही है . इसलिए आज़ादी के बीस साल बाद तक  कांग्रेस को इस देश की गरीब जनता का समर्थन मिलता रहा . लेकिन जब सोशलिस्ट पार्टी के नेता डॉ राम मनोहर लोहिया ने गरीबों के एक वर्ग को समझा दिया कि कांग्रेस उनको बेवकूफ बनाकर  वोट ले रही है और वह पूंजीपतियों और समाज के ऊपरी वर्ग की पार्टी है तो १९६७ में हुए आम चुनाव में जनता ने कई राज्यों में कांग्रेस को हरा दिया और गरीबों के रहनुमा के रूप में  समाजवादियों और संविद के उनके साथियों को स्वीकार कर लिया .  अब तक इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री बन चुकी थीं और शुरू में ही उनको राजनीतिक चुनौती मिल रही थी . उन्होंने १९६७  में पी एन हक्सर को अपना सचिव बनाया .वे विदेश सेवा के एक कुशाग्रबुद्धि अधिकारी थे  लेकिन उसके पहले नागपुर में कम्युनिस्ट पार्टी के नेता भी रहे थे . जनजागरण और गरीबी के समाजशास्त्र के प्रकांड पंडित थे . उन्होंने इंदिरा गांधी  को आगाह किया  था  कि ,"कांग्रेस की छवि एक ऐसी पार्टी की बनती जा रही है जो बड़े उद्योगपतियों और बड़े भूस्वामियों की चेरी है .अगर कांग्रेस अपनी छवि एक ऐसी पार्टी के रूप में बनाने में सफल न हुयी जो गरीब किसान और भूमिहीन मजदूर की पार्टी है तो गरीब आदमी कांग्रेस को वोट देना बंद कर देगा ."( Intertwined Lives by Jairam Ramesh . पृष्ठ 130"). इस सलाह के बाद ही इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ के नारे को  विकसित करना शुरू किया और १९७१ में बहुत बड़े  बहुमत से सरकार बनाया  लेकिन उन्होंने गरीबी  को हटाने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया . संजय गांधी के प्रभाव के चलते उन्होंने पी एन हक्सर को भी अपने सचिव पद से हटा दिया और उसी प्रभाव के चक्कर में बड़े उद्योगपतियों और बड़े भूस्वामियों की मददगार बनती गईं. और १९७७ में चुनाव हार गईं.१९८० की उनकी जीत में उनका योगदान बहुत ज़्यादा नहीं था वह जनता पार्टी की  नाकामी के कारण उनको मिली थी .
लगता है कि नरेंद्र मोदी गरीबी के बारे में पी एन हक्सर  जैसी सोच के मालिक हैं और  गरीबी के खिलाफ अभियान चलाकर चुनाव जीतने का अमोघ अस्त्र उनके हाथ लग चुका है .हालांकि किसी को कुछ दे देने से गरीबी का हटना टिकाऊ नहीं होता.  उसके लिए तो हर हाथ को काम देना पड़ता  है . यह भी सच है कि ग्रामीण भारत में हर गरीब का सपना होता है कि उसको पक्का घर मिल जाए,  शौचालय बन जायबिजली लग जाय और रसोई गैस मिल जाय. वे सारी चीज़ें लोग जीवन भर कमाकर इकट्ठा करते हैं लेकिन नरेंद्र मोदी ने एक बड़ी आबादी को यह सब उपलब्ध करा दिया है और जिनको नहीं मिला  है उनके मन में उम्मीद जगा दिया है. इस तरह से उन्होंने अपनी छवि गरीबी के खिलाफ एक योद्धा की बना ली है .२०१९ के चुनाव की जीत में गरीबी के खिलाफ उनके अभियान का सबसे बड़ा योगदान है  .

रोज़गार और आर्थिक विकास की दिशा में असली काम शुरू



शेष नारायण सिंह  


प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में सरकार ने दो कमेटियों का गठन किया है  जिनका ज़िम्मा यह है कि देश में अधिक से अधिक रोज़गार सृजित किये  जाएँ और आर्थिक विकास को रफ़्तार दी जाए .२०१४ में नरेंद्र मोदी की जीत का मुख्य कारण यह था कि उन्होंने देश के नौजवानों से वायदा किया था कि प्रतिवर्ष दो करोड़ नौकरियों का सृजन किया जाएगा और देश से बेरोजगारी ख़त्म हो जायेगी . लेकिन मोदी की पहली सरकार के कार्यकाल में इस दिशा में कोई सफलता नहीं मिली.  शायद इसीलिये  इस बार , सरकार की शपथ होते ही उन्होंने इस दिशा में काम शुरू कर दिया है . सर्वशक्तिमान कमेटियों में रोज़गार वाली कमेटी में प्रधानमंत्री के अलावा गृहमंत्री अमित शाहवित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ,रेलमंत्री पीयूष गोयलनरेंद्र सिंह तोमररमेश पोखरियाल निश्शंक ,धर्मेन्द्र प्रधानमहेंद्र नाथ पाण्डेयसंतोष कुमार गंगवार और हरदीप पुरी को शामिल किया गया है .पूंजी निवेश और आर्थिक विकास वाली कमेटी में पांच सदस्य हैं, इसमें अमित शाहनिर्मला सीतारमननितिन गडकरी और पीयूष गोयल हैं . शपथ ग्रहण के एक हफ्ते के अन्दर इस  तरह की पहल करना इस बात का साफ़ संकेत हैं कि प्रधानमंत्री २०१४ के  वायदों को अपने  दूसरे कार्यकाल में मुकम्मल तरीके से पूरा करना चाहते हैं . पहले कार्यकाल में वे अपने मूल चुनावी वायदों को अंजाम तक नहीं पंहुचा पाए थे . शायद इसीलिए २०१९ के चुनाव प्रचार के दौरान उनको बहुत से भावनात्मक और लोकलुभावन मुद्दे लाने पड़े और मीडिया के सहयोग से ऐसा माहौल बनाना पडा जिसमें विपक्ष  भी दो करोड़ नौकरियों जैसे उन वायदों को बहस का मुद्दा न बना सके.  लगता है कि इस बार वे असली काम करके २०२४ का चुनाव जीतने की योजना बना रहे हैं . उनकी २०१९ की  जीत में पुलवामा और बालाकोट पर फोकस के अलावा  'घर में घुसकर मारने ' वाली बात का बहुत योगदान है लेकिन यह भी सच है कि  गरीबों के लिए किये गए उनके काम का भी योगदान कम नहीं है . ग्रामीण इलाकों में शहरी मध्यवर्ग की सम्पन्नता की निशानी को  उनके गाँव में ही उपलब्ध करवा देना नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में एक महत्वपूर्ण कारक है . गाँव के   गरीबों को टायलेट, रसोई गैस, बिजली और पक्के मकान देना गरीबी पर एक ज़बरदस्त हमला था. हालांकि यह भी सच है इन स्कीमों में जो ही धन लगा उसका आर्थिक और औद्योगिक विकास में कोई योगदान नहीं है . इन योजनाओं  में बहुत बड़ी सरकारी रक़म लगी है जिसे आर्थिक विकास की योजनाओं में लगाया जा सकता था . उस हालत में देश में आर्थिक विकास होता और  सपन्नता भी बढ़ती लेकिन सरकार ने गरीबी को हटाने का डायरेक्ट  रास्ता चुना .यह सभी काम शुद्ध रूप से वेलफेयर स्टेट के काम हैं . इनकी वजह से कोई रोज़गार भी नहीं सृजित हुआ है . लेकिन इस काम के कारण मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग अपनी जातीय वफादारी को छोड़कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना शुभचिंतक मानने लगा है . उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों के गाँवों में घूमते हुए यह बात बिलकुल साफ़ नज़र आ रही थी कि जिस जाति के मतदाताओं को मायावती अपनी जागीर मानती थीं वह धीरे से नरेंद्र मोदी का मतदाता बन गया था. अगर मायावती का समाजवादी पार्टी से समझौता न होता तो उनकी हार २०१४ से भी ज्यादा  तकलीफदेह होती . उत्तर प्रदेश में मायावती को शून्य से बढकर दस लोकसभा सीटें मिलने के पीछे मुख्य कारण यह है कि उनको  समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन के कारण मुसलमानों के वोट तो एकमुश्त मिले ही , यादवों ने  भी बड़ी संख्या में वोट दिया . नरेंद्र मोदी के गरीब ग्रामीणों के लिए किये काम ने बड़ी संख्या में दलित मतदाताओं को मायावती से दूर खींच लिया .

गरीबों को लाभ पंहुचाने वाली  योजना से जनसमर्थन तो जुटा लिया गया लेकिन देश  औद्योगिक क्षमता में कोई शक्ति नहीं जुडी .प्रधानमंत्री ने देश में औद्योगिकीकरण के ज़रिये रोज़गार बढ़ाने और सम्पन्नता की बात अपने २०१३-१४ के चुनावी अभियान में की थी . सरकार में आने के बाद उन्होने इस काम को पूरा करने के लिए कई तरह की पहल भी की . मेक इन इण्डियास्टार्ट अप इण्डिया ,कौशल विकासमुद्रा लोन ,सौ स्मार्ट शहर आदि योजनायें  इसी लक्ष्य को हासिल  करने के लिए घोषित की गईं थीं . लेकिन इनमें से कोई भी योजना परवान नहीं चढ़ सकी . २०१४ के चुनाव अभियान के दौरान नरेंद्र मोदी ने देश में आर्थिक विकास लाने के बहुत बड़े बड़े वायदे किये थे .बेरोजगारी से जूझ रहे देश के ग्रामीण इलाकों के नौजवानों को उन्होंने रोज़गार का वायदा किया था . नरेंद्र मोदी के अभियान की ताक़त इतनी थी कि उनकी बात देश के दूर दराज़ के गाँवों तक पंहुंची और उनकी बात का विश्वास किया गया . शहरी गरीब और मध्यवर्ग को भी नरेंद्र मोदी ने प्रभावशाली तरीके से संबोधित किया था . उन्होने कहा कि वह बेतहाशा बढ़ रही कीमतों पर लगाम लगा देगें .रोज़ रोज़ की महंगाई के कारण मुसीबत का शिकार बन चुके शहरी मध्यवर्ग और गरीब आदमी को भी लगा कि अगर मोदी की राजनीति के चलते महंगाई से निजात पाई जा सकती है  तो इनको भी आजमा लेना चाहिए . पूरे देश के गरीब और मध्यम वर्ग के परिवारों को नरेंद्र मोदी के भाषणों की उस बात पर भी विश्वास हो गया जिसमें वे कहते थे की देश का बहुत सारा धन विदेशों में जमा है जिसको वापस लाया जाना चाहिए. मोदी जी ने बहुत ही भरोसे से लोगों को विश्वास दिला दिया था कि अगर विदेशों में जमा काला धन वापस आ गया तो हर भारतीय के हिस्से १५ से २० लाख रूपये अपने आप आ जायेगें . उनकी इस बात का भी विश्वास जनता ने किया .हालांकि यह भी सच्चाई है  कि उन्होंने यह कभी नहीं कहा था कि सबके बैंक खाते में  १५-१५ लाख रूपये जमा कर दिए जायेंगे.  
२०१४ के चुनाव अभियान के दौरान प्रधान मंत्री ने आर्थिक विकास को मुख्य मुद्दा  बनाया था. उसी के सहारे बेरोजगारी ख़त्म करने की बात भी की थी. सरकार में आने पर पता चला कि उनकी आर्थिक विकास की दृष्टि में देश को मैनुफैक्चरिंग हब बनाना बुनियादी कार्यक्रम है . प्रधानमंत्री की योजना थी  कि देश भर में कारखानों और  फैक्टरियों में का जाल बिछा दिया जाए . अर्थशास्त्र का कोई भी विद्यार्थी बता देगा कि यह बिलकुल सही सोच है . प्रधानमंत्री को उम्मीद थी कि विदेशी कम्पनियां भारत में बड़े पैमाने पर  निवेश करेगीं और चीन की तरह अपना देश भी पूरी  दुनिया में कारखानों के देश के रूप में  स्वीकार कर लिया जाएगा . उनकी इस योजना में देश में कारखाने लगाने का माहौल बनाने की बात सबसे प्रमुख है .  सभी जानते हैं कि जहां कारखाने लगाए जाने हैं ,उस राज्य की कानून व्यवस्था सबसे अहम पहलू है .  महाराष्ट्र और गुजरात में तो कानून व्यवस्था ऐसी है जिसके आधार पर कोई विदेशी कंपनी वहां पूंजी निवेश की बात सोच सकती है लेकिन दिल्ली के आसपास के राज्यों की कानून व्यवस्था ऐसी बिलकुल नहीं है कि वहां कोई विदेशी कंपनी चैन से कारोबार कर सके.कानून व्यवस्था के अलावा उद्योगपतियों की एक मांग रही है कि श्रम कानूनों में बड़े बदलाव किये जाएं .उनको भारत के श्रम कानूनों से बहुत परेशानी होती है . उनकी हमेशा से ही इच्छा रही है कि श्रम कानून ऐसे हों कि वे जब चाहें कारखाने में काम करने वाले लोगों  को नौकरी से हटा सकें . अभी के कानून ऐसे हैं कि पक्के कर्मचारी को हटा पाना बहुत ही मुश्किल होता  है . किसी भी सरकार के लिए  उद्योग लॉबी  की इस मांग को पूरा कर पाना बहुत ही मुश्किल होता है  . नरेंद्र मोदी की पहली सरकार भी इस दिशा में उद्योग लॉबी को संतुष्ट नहीं कर सकी . अभी गठित कमेटियों से उम्मीद की जा रही है कि वह ऐसी हालात पैदा करने में मदद करे .उद्योगपतियों  की दूसरी मांग रहती है कि जहां भी उनके कारखाने लगाए जाएँ वहां उनको ज़मीन सस्ती , बिना  किसी झंझट और इफरात  मात्रा में मिल जाए. अंग्रेजों के ज़माने का पुराना भूमि  अधिग्रहण कानून इसी तरह का था लेकिन राजनीतिक दबाव के चलते डॉ मनमोहन सिंह की सरकार ने उसमें ज़रूरी बदलाव किया था. उस बदलाव में बीजेपी की भी सहमति थी . उद्योगपति लॉबी ने इन बदलावों को नापसंद  किया था . आर्थिक विकास को रफ़्तार देने के लिए नरेंद्र मोदी की सरकार ने उसको बदलने के मन बना लिया लेकिन संसद से मंजूरी की संभावना नहीं थी क्योंकि किसी भी  राजनीतिक पार्टी के लिए किसी भी किसान विरोधी कानून को समर्थन दे पाना बिलकुल असंभव है . इसलिए सरकार ने अध्यादेश के ज़रिये पूंजीपति लॉबी की यह इच्छा पूरी कर दी है .   उसमें विदेशी कम्पनियों को ज़यादा सुविधा और अधिकार देने का प्रावधान था . सरकार को उम्मीद थी कि इन  कानूनों के बाद सब कुछ बदल जायेगा और विदेशी पूंजीपति भारत में उसी तरह से जुट पडेगा जिस तरह से चीन में जुट पडा है .लेकिन ऐसा हुआ नहीं .नरेंद्र मोदी सरकार का आर्थिक विकास  का जो माडल देश के सामने पेश किया गया है उसमें विदेशी पूंजी का बहुत महत्व  है . विदेशी पूंजी  के सहारे देश में आद्योगिक मजबूती लाकर  बेरोजगारी ख़त्म करने का प्रधानमंत्री का चुनावी वायदा इसी बुनियाद पर आधारित है .
कुल मिलाकर यह भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि महंगाईबेरोजगारी और काला धन के बुनियादी नारे को लागू करने की प्रधानमंत्री की इच्छा पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता लेकिन यह भी सच है कि  नरेंद्र मोदी की सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में ऐसा कोई क़दम नहीं उठाया है जिससे यह नज़र आये कि महंगाई और बेरोजगारी को ख़त्म करने की दिशा में कोई ज़रूरी पहल भी हुई . यह बात सरकार को भी मालूम है .प्रधानमत्री को मालूम है कि अब जनता को भावनात्मक मुद्दों और लोकलुभावन स्कीमों के सहारे वोट देने के लिए तैयार करना  मुश्किल होगा .शायद इसी सोच के कारण नई सरकार के पदारूढ़ होते ही नई कमेटियों का गठन करके तुरंत काम शुरू कर दिया गया है .