Tuesday, May 7, 2019

यह यात्रा कुमार केतकर की पत्रकारिता को सलाम करने का अवसर भी है





शेष नारायण सिंह

 इलाहाबाद और  जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालयों से उच्च शिक्षा लेने के बाद एम आई टी से पी एच डी करके वहीं अमरीका  में  अकादमिक क्षेत्र में बुलंद मुकाम बनाने वाले एक प्रोफेसर और मुंबई के कुछ बहुत ही विद्वान एवं  सामाजिक रूप से जागरूक पत्रकारों के साथ चुनाव यात्रा एक बेहतरीन अनुभव है . आम तौर पर चुनाव यात्राओं के  दौरान कौन जीत रहा है या कौन कौन हार रहा है , यह बातें उठती रहती  हैं . या कितनी सीटें किस पार्टी को मिलने वाली हैं , यह बातें मुझे बोर करती हैं . हालांकि अपने ग्रुप में भी यह  चर्चा आती रहती है लेकिन हमारे साथियों की यात्रा का स्थाई भाव उत्तर प्रदेश की राजनीतिक विकास यात्रा को समझना है . देश के चोटी के पत्रकार कुमार केतकर और ब्राउन विश्वविद्यालय के विश्वविख्यात प्रोफेसर आशुतोष वार्ष्णेय के साथ पूर्वी उत्तर प्रदेश की चुनाव यात्रा मुझे अब तक अभिभूत कर चुकी है. मैं  अपने को धन्य मानना  शुरू कर चुका हूँ. लोकसभा के चुनाव में जो जीतेगा वह सांसद बनेगा लेकिन लखनऊ से बनारस तक की हमारी यात्रा में हमारे साथी , कुमार केतकर सांसद हैं लेकिन पत्रकारिता के धर्म में अडचन न आने पाए इसलिए वे अपने इस परिचय को   पृष्ठभूमि में रख कर चल रहे हैं . हमें मालूम है कि अगर रायबरेली में हमने बता दिया होता कि केतकर जी संसद हैं तो हमको  बहुत ही सम्मान से ट्रैफिक  की चकरघिन्नी खाने से मुक्ति मिल जाती लेकिन हम रायबरेली में गोल गोल घुमते रहे और एक पत्रकार के लिए वह नायाब तजुर्बा हासिल करने में कामयाब रहे कि इतने दशकों से वी आई पी चुनाव क्षेत्र होने के बाद भी रायबरेली शहर विकास की यात्रा में पिछड़ गया  है. कुमार केतकर हमारे साथ सडक पर छप्पर में बनी चाय की दुकानों पर  बैठकर जिस तरह से श्रोता  भाव से सब कुछ सुनते रहते हैं ,वह बहुत ही दिलचस्प है .  जब अमेठी के रामनगर में संजय सिंह के महल के सामने झोपडी में चल  रही चाय की दुकान में हम बैठे थे तो मुझे लगा कि अगर  किसी अधिकारी को पता लग जाये कि टुटही कुर्सी बैठे यह श्रीमानजी संसदसदस्य हैं तो वह प्रोटोकाल का पालन करने की कोशिश  करेगा लेकिन कुमार को वह मंज़ूर नहीं क्योंकि उनको अपने अन्दर बैठे पत्रकार को पूरे शान और गुमान के साथ  जिंदा रखना है . मुझे लगता है कि अगर अपने मूल  धर्म के पालन में सभी लोग यही संकल्प रखें तो समाज का बहुत भला होगा .
हमारी पूरी यात्रा में दलितों को  केवल वोटर के रूप में पहचानने की कवायद से बार बार सामना हुआ . मुझे इसमें  दिक्क़त  होती है . मैं जानता हूँ कि दलित युवकों का शिक्षित वर्ग सामाजिक न्याय के सवालों को बहुत ही तरीके से समझता है और उसके राजनीतिक भावार्थ को जानता है . मेरी उत्तर प्रदेश यात्राएं होती तो बहुत हैं लेकिन कभी एक दिन के लिए तो कभी चार दिन के लिए . १९९४ के बाद से बच्चों की गर्मियों की छुट्टियों में नियमित रूप से एक महीना गाँव में रहना अब इतिहास है लेकिन मुझे पता चलता रहता  था कि मेरे गाँव में सही अर्थों में दलित विषयों की चेतना है  . ‘ हरिजन शब्द के प्रयोग की राजनीति को मैंने १९७३ में ही अपने गाँव के दलित लोगों के वरिष्ठ दलित लोगों को बताने की कोशिश की थी. अमरीका के ब्लैक पैंथर्स के बारे में दिनमान ने कुछ छापा था और उसके आधार पर और सूचना इकट्ठा करके मैंने गाँव के समझदार दलित , खेलई से बात की थी . उसके पहले इन लोगों ने बराबरी के छोटे ही सही लेकिन महत्वपूर्ण प्रयोग किये थे .एक बहुत ही महत्वपूर्ण घटना के ज़रिये बात को रेखांकित करने की कोशिश की जायेगी . हमारे गाँव में सभी जातियों के बाल नाई काटते थे  . बाल काटने के पहले नाई लोग पानी से बाल को खूब भिगोते थे .इस तरह से सिर  में मालिश हो जाती थी . लेकिन दलित व्यक्ति जब बाल कटवाने जाते थे तो नाई का आदेश होता था कि बाल भिगोकर आओ , वह अपने ही   हाथ से पानी से बाल भिगोते थे ,उसके बाद  उनके बाल काटे जाते थे .  खेलई दादा ने मुझे एक दिन बताया कि  अब हम लोग अपने बाल खुद नहीं भिगोएंगे . जैसे बाभन ठाकुरों के बाल  नाई जी भिगोते  हैं ,वैसे ही हमारे भी बाल उनको भिगोना पडेगा . लेकिन नाई लोग सहमत नहीं हुए. बड़ी लम्बी कहानी है लेकिन इस समस्या की काट निकाल ली गयी . दलित बस्ती के कुछ लड़कों ने उस्तरा कैंची खरीद लिया और खुद ही बाल काटने की कोशिश की . धीरे धीरे वे  कुशल नाई हो गए . उस दलित लड़कों को उनकी अपनी बिरादरी के लोग  नाऊ ठाकुर ही कहने लगे . यह बहुत बड़ी बात थी . जन्म से नहीं कर्म से जाति के सिद्धांत का एक उदाहरण था .उसके बाद बहुत सारे विकास हुए . शिक्षा का महत्व, सरकारी नौकरी का महत्व ,मेरे गाँव के दलितों की राजनीतिक समझदारी में बड़ा कारक बना . बाद में जब दलित मुद्दा आन्दोलन का रूप लेने लगा तो कांशी राम के एक साथी मेरे गाँव में आये . यह १९८४ के चुनाव के बाद की बात है  . बहुजन समाज पार्टी का गठन नहीं हुआ था , डी एस 4 नाम के संगठन के ज़रिये दलित चेतना के विकास की बात हो रही थी. उन्होंने ही  लोगों को अपना कोई उद्यम लगाने की बात सबसे पहले समझाई थी . जब गाँव के चौराहे पर दलित लड़कों ने छोटी छोटी दुकानें खोलना शुरू किया तो मुझे स्पष्ट हो  गया कि अब यह कारवाँ चल पड़ा है , यह रुकने वाला नहीं है .अब तो मेरे गाँव के दलितों के लड़के लडकियां उच्च शिक्षा ले रहे  हैं . पिछली यात्रा में पता चला कि जिस सरकारी विभाग में मेरे काका का पौत्र सहायक इंजीनियर हुआ है ,उसी के साथ एक दलित नौजवान की नियुक्ति भी उसी विभाग में हुई है . दोनों राजपत्रित अधिकारी हैं . इस घटना का महत्व यह है कि उस दलित के पिता और बाबा मेरे काका के यहाँ हरवाही करते थे .लेकिन शिक्षा और संविधान प्रदत्त अधिकारों की जानकारी वास्तव में समतामूलक समाज की स्थापना की ज़रूरी शर्त है . इसी शिक्षा ने गरीबी पर मर्मान्तक प्रहार भी किया है .
बहरहाल मेरे सहयात्रियों को मेरे भाई, सूर्य नारायण सिंह ने  दलित नेताओं से मिलवाया . डॉ लोकनाथ  मेरे भाई के बहुत ही क़रीबी  हैं और मेरे परिवार के सभी लोग उनको अपना डाक्टर मानते हैं .  चौराहे पर उनकी क्लिनिक है .इन लोगों को मेरे भाई ने डाक्टर साहब से मिलवाया और उनके साथ यह दलित बस्ती में गए. वंचना ( Deprivation) के असली मुद्दों पर बात हुयी . शासक वर्गों की कोशिश रहती है कि दलितों को ब्राह्मण विरोधी साबित किया जाए और सारी बहस को जाति बनाम  जाति के विमर्श में लपेट दिया जाए . लेकिन वहां से लौटकर आने के बाद इन लोगों ने मुझे बताया कि सामाजिक मुद्दों के प्रति जो जागरूकता वहां देखने को मिली , वह अद्वितीय है .  दलित बस्ती के बाशिंदों  ने साफ़ बता दिया की हमारी लड़ाई किसी ब्राहमण से नहीं है , लड़ाई वास्तव में उस सोच से है जो एक ख़ास वर्ग के आधिपत्य की बात करती है .  सवर्ण सुप्रीमेसी की उस राजनीति को ब्राह्मणवाद भी कहा  जा सकता है . करीब घंटा भर चले इस वाद विवाद में सब खुलकर बोले और सारे सवालों पर आम्बेडकर के हवाले से अपना दृष्टिकोण रखा .  दलितों के इंसानी हुकूक का सबसे बड़ा दस्तावेज़ , भारत का संविधान है . उसके साथ हो रही छेड़छाड़ की कोशिशों से हमारे गाँव के दलित चौकन्ना हैं . उनको  जाति के  शिकंजे में लपेटना नामुमकिन है . वे  मायावती की राजनीति का समर्थन करते हैं तो उम्मीदवार किसी भी जाति का हो, उसकी  जाति की परवाह किये बिना उसको वोट देने में उनको कोई  संकोच  नहीं है . प्रो. आशुतोष वार्ष्णेय ने मुझसे साफ़  कहा कि इस चेतना के बाद सामाजिक परिवर्तन के रथ को रोक सकना  असंभव है. अब यह कारवाँ रुकने वाला  नहीं है . क्योंकि जो दरिया झूम के उट्ठे हैं तिनकों से नहीं टाले जा सकते और यह भी अब डेरे मंजिल पर ही डाले जांयेंगे और जब बराबरी  वाला समाज  स्थापित हो जाएगा तो भारतीय समाज की विकास यात्रा को कोई नहीं रोक  सकेगा .क्योंकि इन दलित नौजवानों ने तय कर रखा है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी अगर उनके भविष्य को डॉ अम्बेडकर के राजनीतिक  दर्शन से हटकर लाने की कोशिश  करेगी तो वह उनको मंज़ूर नहीं है क्योंकि डॉ आंबेडकर की राजनीति में ही सामाजिक बदलाव का बीजक सुरक्षित है .
मेरे गाँव से बनारस की सड़क पर करीब २५ किलोमीटर चलने के बाद सिंगरामऊ पड़ता है .वहीं पर एक  नायाब इंसान रहता है .सिंगरामऊ रियासत के मौजूदा वारिस कुंवर जय सिंह से मुलाक़ात हुई. ग्रामीण उत्तर प्रदेश में शिक्षा के विकास के लिए उनके  पूर्वजों ने करीब एक सौ साल पहले एक पौधा लगाय था जो अब बड़ा हो गया है . राजा हरपाल सिंह पोस्ट  ग्रेजुएट कालेज , केवल जौनपुर का ही नहीं ,पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक प्रमुख शिक्षा संस्थान  है . कुंवर जय सिंह ,जिनको इस इलाके में सभी जय बाबा के  नाम से जानते हैं ,अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित इसी शिक्षा संस्थान का कार्यभार देखते हैं . उनके कोट में मट्ठा पीने को मिला , बेहतरीन  पेय लेकर हम उनके साथ ही , वहां चल पड़े जहां जाने के लिए दिल्ली ,मुंबई के बहुत सारे साथी अक्सर प्लान बनाते रहते हैं लेकिन  बहुत कम लोग अभी तह जा पाए हैं .ता. मेरी मुराद बी एच यू के छात्र संघ के चालीस साल पहले अध्यक्ष रहे , श्री चंचल से है. उन्होंने अपने पुरखों के गाँव ,पूरे लाल , में  समता घर बना रखा है जहां गरीबी और deprivation के शिकार लोगों के बच्चों को शिक्षा और हुनर की ट्रेनिंग देकर गरीबी के मुस्तकबिल को लगातार चुनौती  दी जाती है .  महानगर से जाकर जो लोग भी  समता घर में रहे हैं, उनके लिए ग्रामीण जीवन के अनुभव के बेहतरीन अवसर इस ठीहे पर उपलब्ध रहते हैं . और लोगों के लिए वहां जाकर चंचल जैसे नामी कलाकार ,पत्रकार,  राजनेता, लेखक से मिलना सही होता होगा  लेकिन  चंचल के गाँव में मेरे लिए  उनकी माई से मिलना एक जियारत होती है . माई से जब मैं मिलता हूँ तो मुझे अपनी माई की याद आ जाती  है . जब पूरे लाल की प्रथम  नागरिक  और चंचल की माई मुझे कलेजे से लगाकर आशीर्वाद देती हैं तो लगता है कि मेरा भविष्य बहुत ही उज्जवल है.   आने वाली मुसीबतों को अपनी निश्छल अपनैती से चुनौती देने वाली यह मां, मुझे किसी भी मुसीबत का मुकाबला करने का हौसला देती है. शायद इसीलिये “ कहते हैं कि मां के पाँव के नीचे बहिश्त  है “ पूरे लाल में राजनीतिक चर्चा भी हुयी , हालाते हाजेरह पर तबसरा हुआ . हमारे मुंबई से आये दोस्तों को बहुत मज़ा आया. उन्होंने मुंबई में रहने वाले जौनपुर मूल के भइया बिरादरी के लोगों की ज़मीन की मिट्टी की समृद्धि को करीब से देखा और अनुभव किया .उनको लगता होगा कि इतने संपन्न इलाके से खेती के मालिक ठाकुरों ब्राह्मणों के बच्चे मुंबई जाकर मजदूरी क्यों करते हैं . लेकिन इसका जवाब  है और कभी  मैं ही उसको लिखूंगा .
हमारा अगला पड़ाव जौनपुर था .जहां मेरे बी ए के  दर्शन शास्त्र के  शिक्षक डॉ अरुण कुमार सिंह के साथ  सत्संग की योजना थी . लेकिन उनसे वैसी बात नहीं हो  सकी जैसी उम्मीद थी क्योंकि उनको बोलने का मौक़ा ही नहीं मिला. उनके घर पर एक युवक से मुलाक़ात हुयी . इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त  यह नौजवान आजकल बीजेपी का जिम्मेवार कार्यकर्ता है . पिछड़ी जाति के परिवार में जन्म लेकर उच्च शिक्षा हासिल करना अपने आप में एक उपलब्धि है .यह युवक कुशाग्र्बुद्द्धि है लेकिन पता नहीं क्यों हो गया था कि राजनीतिक विमर्श में अपनी पार्टी की घोषित लाइन को कुछ इस तरह से चलाने की कोशिश कर रहा था जैसे चुनाव प्रचार में किया जाता है . ज़ाहिर है मुलाक़ात बेमजा रही . हम में से कोई भी उस इलाके में  मतदाता नहीं है और जो लोग भी हमारे काफिले में शामिल थे लगभग सभी  लोकसभा २०१९ में वोट डाल चुके हैं .वहां से बेनी साहु की दिव्य जौनपुरी इमरती का प्रसाद खाकर हम अगली मंजिल के लिए  रवाना हो गए .  इस यात्रा में हमारे सबसे वरिष्ठ साथी कुमार केतकर संसद के सदस्य हैं लेकिन अपनी उस पहचान को  पूरी  तरह से आच्छादित करके चल रहे हैं . वे एक शुद्ध पत्रकार के रूप में यात्रा कर रहे हैं. मैं कई बार सोचता  हूं कि जिस संसद की सदस्यता लेने के लिए आज देश के अलग अलग कोने में अरबों खरबों रूपये बहाए जा रहे हैं  , उसी संसद के ऊपरी सदन के सदस्य कुमार केतकर इस यात्रा में इस तरह से रह रहे हैं जैसे एक साधारण पत्रकार  अपनी यात्रा करता है . सुल्तानपुर में जब वरुण गांधी की  चुनावी सभा में यह ख़तरा बाहुत ही अयां हो गया कि उनको वरुण गांधी पहचान लेंगे तो विकास नायक ने उनको तुरंत भीड़ के सबसे पीछे ले जाकर श्रोताओं के बीच छुपा दिया .  मैंने बहुत से पत्रकार देखे हैं , जौनपुर के बाद वाराणसी में बहुत  सारे  सेलिब्रिटी पत्रकारों से फिर सामना हुआ लेकिन बनारस की गलियों में पैदल चलते , सांड से बचकर रास्ता तलाशते   ,फर्श पर बैठकर बनारस के संतों की वाणी सुनते कुमार केतकर को देखना मेरे लिए वह वह उम्मीद की किरण है कि अगर   हाथ में कलम है तो ज़िंदगी को हमेशा एक मक़सद दिया  जा सकता है .  इस चुनाव की उनकी कवरेज देखकार मुझे लगता  है कि मैं भी जब बड़ा बनूंगा तो कुमार केतकर जैसा पत्रकार बनूंगा . वाराणसी के होटल में बहुत सारे फाइव  स्टार पत्रकारों के दर्शन हुए लेकिन उनमें से किसी को मैं काबिले  एहतराम नहीं मानता  . वाराणसी में जिस तरह से  कुमार केतकर ने ई रिक्शा की यात्रा की ,  पैदल घूमे और शहर के मिजाज़ को समझने की कोशिश की ,वह मेरे लिए  ,मेरी ज़िंदगी का अहम सबक है. चुनावी माहौल में एक साधारण रिपोर्टर की तरह काम करना बहुत ही कठिन तपस्या है , और यह तपस्वी साधारण से साधारण होटलों में रुक कर जिस तरह से  अपनी मिशन पत्रकारिता को  अंजाम दे रहा है ,वह मेरे श्रद्धा का सबसे बुलंद मुकाम है .

Sunday, May 5, 2019

लखनऊ से सुलतानपुर तक की चार और पांच मई की यात्रा रिपोर्ट


शेष नारायण सिंह

लखनऊ से सुल्तानपुर की  की यात्रा में पांच लोकसभा क्षेत्रों से गुजरने का मौक़ा लगा . आज सुल्तानपुर से चलकर आजमगढ़ और जौनपुर होते हुए शाम को वाराणसी में डेरा डालने की योजना है . लखनऊ संसदीय क्षेत्र के बारे में जो चर्चा दिल्ली में  सुनने को मिल रही थी , वही लखनऊ में भी है . इस चुनाव में गृहमंत्री राजनाथ सिंह को हराना नामुमकिन माना जा रहा है . वही हाल रायबरेली में सोनिया गांधी का भी है .
लोकसभा २०१९ भारत के संसदीय इतिहास में असाधारण चुनाव माना जा रहा है . पूर्ण बहुमत से सरकार बनाने वाली पहली गैरकांग्रेसी पार्टी भारतीय जनता पार्टी है . पहली बार कोई  गैर कांग्रेसी पार्टी अपने पांच साल के कामकाज पर जनादेश मांग रही है और चुनाव के मैदान में है . पहली बार उत्तर प्रदेश में पिछड़ी और अनुसूचित जातियों का एक ऐसा गठबंधन सत्ताधारी पार्टी को चनौती दे रहा है जिसके सफल होने के बाद भारत में चुनावी राजनीति का नया व्याकरण लिखा जाने वाला है . बहुजन समाज पार्टी और  समाजवादी पार्टी का गठबंधन अगर सफल हुआ तो देश में एक दलीय लोकशाही का अंत होने वाला है . हमारे मित्र और बहुत आला मेयार के पत्रकार और इस यात्रा के हमसफ़र ,कुमार केतकर का कहना है कि ऐसा लगता है अब चुनाव में कई पार्टियों के गठबंधन की सरकारें बनाया  करेंगे . इसका एक माडल जर्मनी की क्रिश्चियान डेमोक्रेटिक यूनियन  Christian Democratic Union   में उपलब्ध है . हो सकता है कि आने वाले समय में यही माडल सबको स्वीकार्य हो जाए .

मई जून के महीने में लखनऊ शहर दोपहर में सो जाता है . बाज़ारों में बहुत कम लोग नज़र आते हैं . चुनाव प्रचार के अंतिम दिन भी शहर का मिजाज़ इससे अलग नहीं था. लखनऊ में  छः मई के चुनाव के लिए चार की शाम को प्रचार बंद  हो गया . चार तारीख की दोपहर को ही सन्नाटा साफ़ नज़र आ रहा था. लेकिन हम भाग्यशाली थे. शहर के शीर्ष पत्रकारों के साथ हमको शाम की चाय पीने का मौक़ा लागा. हमारी  टीम में भी एक से एक जानकार हैं  ब्राउन विश्वाविद्यालय के प्रोफ़ेसर आशुतोष वार्ष्णेय , मुंबई के सबसे आदरणीय मराठी पत्रकारों में से एक कुमार केतकर और उनके मित्र विकास नायक हमारे साथ हैं. मुंबई के ही एक सांख्यिकीविद भी हमारे काफिले में हैं जिनकी साहित्य और चुनावी राजनीति समझदारी में गहरी पैठ है . शाम को जब चाय पर दो घंटे की माथापच्ची के लिए हम बैठे तो उत्तर प्रदेश के हर जिले की तस्वीर परत दर परत खुलती  गयी. हम लखनऊ के करीब पन्द्रह उन  पत्रकारों से मुखातिब थे जिनको पूरे देश में बरास्ता टेलिविज़न की बहसों के जाना पहचाना जाता है . बहुत  दिन बाद मैं ऐसी किसी महफ़िल में शामिल था जिसमें मैं शुद्ध रूप से श्रोता था . मैंने किसी भी मुद्दे पर अपनी राय नहीं दी. चुपचाप सुनता रहा .  गंभीर बहस मुबाहसा होता रहा . मौजूद पत्रकारों में ज्यादातर लोग  उत्तर प्रदेश की अधिकतर संसदीय क्षेत्रों की की यात्रा कर चुके हैं . आम राय यह थी की बीजेपी के पक्ष में २०१४ वाली हवा तो कतई नहीं है . मौजूदा सरकार के पिछले पांच साल के काम से भारी नाराज़गी है लेकिन पुलवामा में आतंकवादी हमला और उसके खिलाफ बालाकोट में की गयी भारतीय सेना की जवाबी कार्रवाई के कारण एक बहुत बड़ा  वर्ग सरकार के पक्ष में है . राष्ट्र की रक्षा और घर में घुसकर मारने की बात लोगों पर निश्चित असर डाल चुकी है और उसका फायदा नरेंद्र मोदी  हो रहा है . भारतीय जनता पार्टी और मुकामी उम्मीदवार ज्यादातर सीटों पर चर्चा में आते ही नहीं . केवल लखनऊ , रायबरेली और अमेठी में मुकामी उम्मीदवारों के नाम पर या उनके विरोध में वोट की बात है . बाकी हर जगह नरेंद्र मोदी की सरकार को एक और अवसर देने के लिए ही वोट मांगे जा रहे  हैं और ऐसा लगता है कि मिलने भी वाले हैं . .आवारा जानवरों के कारण लगभग  तबाह हो चुकी फसल और सडकों , चौराहों पर बेरोजगार घूम  रहे , नौकरी की उम्मीद लगाए नौजवानों की भीड़ की नाराज़गी थी लेकिन उस सब को बालाकोट ने धो दिया है . अपनी मुसीबतों की परवाह किये बिना  लोग नरेंद्र मोदी को दुबारा मौक़ा देने के लिए  उद्यत हैं .
इस तस्वीर से यह भ्रम हो जाना लाजमी है कि नरेंद्र मोदी की लहर फिर वैसी ही है  जैसी २०१४ में थी लेकिन इसमें एक पेंच है . नरेंद्र मोदी के लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार इन लोगों में वही लोग हैं जो परम्परागत तरीके से बीजेपी के ही वोटर हैं . वे नाराज़  हो गए थे , निराश थे क्योंकि सरकार ने २०१४ के वायदों को पूरा करने  के लिए कोई काम नहीं किया है . हर साल नौजवानों के लिए दो करोड़ नौकरियों का वायदा , किसानों की आमदनी दुगुनी करने का वायदा ,विदेशों से कालाधन वापस लाने का वायदा, भ्रष्टाचार मुक्त समाज का सपना , भव्य राम मंदिर का निर्माण और आतंकवाद के खात्मे का संकल्प २०१४ के चुनाव की ख़ास बातें थीं , दिल्ली के बीजेपी नेताओं के आग्रह पर दिल्ली में रहने  वाले हम जैसे पत्रकार तो मान सकते हैं कि मोदी की सरकार ने बहुत अच्छा काम किया है लेकिन लखनऊ के विद्वान पत्रकारों ने जिन इलाकों की यात्राएं कीं  उसका निचोड़ यह है कि सरकार अपने किसी भी वायदे को पूरा नहीं कर सकी है . नोटबंदी और जी एस टी   जैसे विवादित फैसले जनता ने पसंद नहीं किया था. इन लोगों का कहना था कि अगर बालाकोट न हुआ होता तो मोदी सरकार के खिलाफ ज़बरदस्त माहौल था . लेकिन बालाकोट के बाद  बीजेपी के परंपरागत वोटर फिर बीजेपी के साथ  हैं . इस सारी तस्वीर में बस एक व्यवधान  है .  समाजवादी  पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के समर्थक बालाकोट से प्रभावित नहीं दिख रहे हैं . वे उसी उत्साह से बीजेपी के खिलाफ वोट कर रहे हैं , जिस  उत्साह से बीजेपी के समर्थक नरेंद्र मोदी की सरकार को एक मौक़ा और देने की बात कर रहे  हैं.
इस तरह से बालाकोट की पूंजी लेकर चुनाव मैदान में उतरी बीजेपी के सामने उत्तर प्रदेश में ज़बरदस्त चुनौती है . बसपा और सपा के समर्थकों की संख्या खासी अधिक है . २०१४ के चुनावों को देखा जाए और वहां इनके हारे हुए उम्मीदवारों के वोटों को जोड़ दिया जाए तो  बड़ी संख्या में ऐसे क्षेत्र मी जायेंगे जहां गठबंधन  बीजेपी से अधिक हो जाता है .वह मोदी से  उम्मीदों की लहर का चुनाव था . इस बार सभी मोदी लहर की मौजूदगी से इनकार करते हैं . बल्कि अगर ओबीसी , दलित और मुसलमानों से बात की जाए तो वे लोग तो  सरकार के खिलाफ लहर की बात करते हैं . अपने वायदों को भूल जाने का आरोप लगाते हैं और चुनावी गणित को नरेंद्र मोदी के खिलाफ खड़ा कर देते हैं .इस बार सभी क्षेत्रों में गठबंधन के उम्मीदवारों की कांटे के टक्कर की चर्चा है . जब बीजेपी का कार्यकर्ता और नेता कांटे की टक्कर की बात करने लगें तो इसका अनुवाद नरेंद्र मोदी सरकार के लिए बहुत ही खुशगवार नहीं माना जाएगा .
इस  पृष्ठभूमि में शुरू हुई लखनऊ से वाराणसी यात्रा में कई पड़ाव आये .लखनऊ और रायबरेली के बीच की सड़क बहुत ही अच्छी है . दोनों हाई प्रोफाइल सीटों के बीच में पड़ने वाला सुरक्षित श्रेणी का मोहनलाल गंज संसदीय क्षेत्र आमतौर पर दिल्ली के पत्रकारों में चर्चा का विषय नहीं बनता लेकिन यह बहुत ही महत्वपूर्ण क्षेत्र है. यहाँ दलित आबादी खासी  बड़ी है. दलितों में पासी  जाति के लोग मोहनलाल गंज में अधिक हैं . यहाँ से मौजूदा  सांसद बीजेपी के कौशल किशोर हैं . मोदी लहर में विजयी हुए थे लेकिन अब बहुत ही अलोकप्रिय हैं . उनके खिलाफ कांग्रेस के उम्मीदवार आर के चौधरी हैं . यह कभी मायावती के बहुत ही करीबी हुआ करते थे , बहुत ही पैसे कमाए हैं और आजकल कांग्रेस में हैं . लेकिन यहाँ मायावती का उम्मीदवार सी एल वर्मा  भारी पड़ रहा है . लगता है यह सीट बालाकोट के बावजूद भी  बीजेपी के लिए मुश्किल साबित होगी . उस  सीट  का क्षेत्र ख़त्म होते ही रायबरेली शूरू हो जाता है. वहां तो बीजेपी वालों का भी कहना है कि सोनिया गांधी की संभावना बहुत ही अच्छी है . असली मुकाबला अमेठी में नज़र आया हमने ज्यादा इस्तेमाल होने वाली फुरसतगंज ,जायस वाली सड़क नहीं ली. हां परसदेपुर,उदयपुर अठेहा होकर गौरीगंज पंहुचे . रायबरेली पार करते ही अमेठी क्षेत्र का पहला चौराहा , परसदेपुर पड़ता है . चौराहे पर मौर्य बिरादरी वाले भारी संख्या में थे . दावा किया गया कि वहां स्मृति इरानी मज़बूत चुनाव लड़ रही हैं . राहुल गांधी से लोगों में नाराजगी है. यह सीट गठबंधन ने छोड़ तो दिया है लेकिन अखिलेश यादव और मायवती ने  कोई अपील  नहीं किया है इसलिए उनकी पार्टी के वफादार लोग अपनी मर्जी से वोट देने का मन बना  चुके हैं .कई लोगों ने बताया कि अगर इन नेताओं की अपील हो जाए तो अब भी चुनाव राहुल गांधी के पक्ष में पलट सकता है. उस समय तक मायावती की वह अपील नहीं आयी थी जिसमें उन्होंने कहा  कि रायबरेली और अमेठी में उनके समर्थक कांग्रेस को जिताएंगें . यह सन्देश वहां बाद में पंहुंचा होगा . हम दिन भर अमेठी में रहे और साफ़ अनुमान लग रहा था कि स्मृति  इरानी के पक्ष में हवा है .इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि दलित और यादव वोटर बिलकुल अनमना बताया जा रहा  था. लेकिन शाम को जब मायावती ने सन्देश भेज दिया कि “ हमारे “ गठबंधन के लोग अमेठी और राय बरेली में कांग्रेस को जिताने के  लिए कोशिश करेंगे तो बीजेपी के कार्यकर्ताओं में मायूसी छा गयी . ज़ाहिर है स्मृति इरानी के पांच साल के काम पर मायावती की एक अपील भारी पड़ चुकी थी. अमेठी में लोगों से बातचीत के क्रम में हमारी टीम के एक सदस्य ने पूछा कि हम लोग जितने लोगों से भी बात कर रहे हैं वे ज्यादातर  कांग्रेस विरोधी ही  हैं तो अमेरिकी प्रोफ़ेसर ने कहा कि हम क्या करें ,कहाँ से कांग्रेस के समर्थक लायें . यानी चुनाव निश्चित रूप से कांग्रेस के पक्ष में नहीं था लेकिन अब सबको मालूम है कि मायावती के अपील ने खेल बदल दिया होगा  .हालांकि सरकार का पक्ष लेने वाले अखबारों ने इस खबर को गोल  कर दिया है , या कहीं कोने में छाप दिया है लेकिन सन्देश पंहुच चुका है और अब साफ़ लाग रहा  है कि अमेठी में “ कांटे “ की टक्कर हो गयी है .
सुल्तानपुर में वरुण गांधी अपनी मां मेनका  गांधी के लिए प्रचार कर रहे हैं , गठबंधन के प्रत्याशी चंद्रभद्र सिंह उर्फ़ सोनू सिंह लोकसभा के २०१४ के चुनाव में उनके बहुत बड़े सहयोगी थे लेकिन अब उनकी मां के खिलाफ मैदान में हैं .  गठबंधन का  गणित सोनू के पक्ष में है लेकिन मेनका गांधी की सेलेब्रिटी हैसियत के कारण मुकाबला कांटे का हो गया है .  रात में सुल्तानपुर शहर के एक मोहल्ले में वरुण गांधी का भाषण सुना गया . उन्होंने हिंदुत्व की कोई बात नहीं की. पाकिस्तान का चुनावी राग अलापने के खिलाफ भी बात की . उन्होंने कहा कि हमको अपनी तुलना रूस, अमरीका और चीन से करनी चाहिए ,पाकिस्तान से नहीं . पाकिस्तान तो कचरा है ,उसके बारे में बात करने का कोई मतलब नहीं . अच्छी भीड़ के बीच  वरुण गांधी का भाषण काफी प्रभावशाली  था,पिछली बार जब वे यहाँ से खुद उम्मीदवार थे तो वे नरेंद्र मोदी का नाम नहीं लेते थे लेकिन इस बार उन्होंने बा आवाज़े बुलंद  नरेंद्र मोदी का नाम लिया और उनकी सरकार के पांच साल के अच्छे काम की तारीफ़ की और अपील की कि मोदी जी के अच्छे काम को जारी रखने के लिए उनको पांच साल का मौक़ा और दिया जाना चाहिए . सुल्तानपुर में अगले दौर में १२ मई को मतदान  होगा .

Wednesday, May 1, 2019

शहीद हेमंत करकरे का अपमान करने वाली अपनी उम्मीदवार को बीजेपी क्या सज़ा देगी


शेष नारायण सिंह

मालेगांव में हुए बम विस्फोट में प्रज्ञा सिंह  ठाकुर मुख्य अभियुक्त  हैं .उस विस्फोट में बहुत सारे  निर्दोष लोगों की जान गयी थी .  एन आई ए की तरफ से दाखिल की गयी चार्जशीट के आधार पर उनके ऊपर आरोप  २०१८ में तय कर दिए गए थे .जब आरोप तय हुए तब दिल्ली में नरेंद्र मोदी की सरकार थी .प्रज्ञा ठाकुर आजकल जमानत पर जेल से  बाहर हैं . उनको बीजेपी ने भोपाल से लोकसभा का उम्मीदवार बनाया है .हालांकि  प्रज्ञा ठाकुर मुलजिम हैं लेकिन वे चुनाव लड़ सकती हैं. कानून इसकी अनुमति देता है. अभी चंद रोज़ पहले उन्होंने बीजेपी की  सदस्यता ली थी . तब से ही वे लगातार हिंदुत्व की अलमबरदार के रूप में आक्रामक बयान दे रही हैं . उनकी उम्मीदवारी  की राजनीति को समझने के लिए वर्तमान सरकार के बारे में जानकारी लेना ज़रूरी है. शुरू में लग रहा था कि  बीजेपी  राष्टवाद के मुद्दे पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर चुकी थी . लेकिन राष्ट्रवाद  के मुद्दे पर बड़े पैमाने पर लामबंदी नहीं हो सकी . सरकार में रहते हुए अपने काम पर वोट माँगा जाता है. यहाँ वह भी संभव नहीं है . आम तौर पर ऐसा माना जा रहा  है कि सरकार पिछले पांच साल  में ऐसा कोई काम नहीं कर सकी है जिसके बल पर चुनाव जीता जा सके.लेकिन ऐसा कोई काम ही नहीं है . इस सन्दर्भ में सबसे महत्वपूर्ण टिप्पणी बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ मुरली मनोहर जोशी की ही मानी जायेगी . जब डॉ जोशी से पूछा गया कि आप मोदी सरकार को दस में से कितने नम्बर  देंगें  तो उन्होंने कहा कि जब कापी में कुछ लिखा ही नहीं है तो क्या नंबर दूं. इन हालात में यह बात बिलकुल साफ़ हो गयी है कि  पार्टी को चुनाव जीतने के लिए नए मुद्दे चाहिए थे .  मुद्दों की तलाश में बीजेपी चुनाव जीतने के लिए हिंदुत्व को मुद्दा बनाने की रणनीति पर  काम कर रही है . इसी  कोशिश में भोपाल से कांग्रेस के उम्मीदवार और " संघी आतंकवाद " के प्रबल विरोधी दिग्विजय सिंह के खिलाफ प्रज्ञा ठाकुर को बीजेपी का उम्मीदवार बनाया  गया है . प्रज्ञा ठाकुर अभी जमानत पर हैं उनके ऊपर आतंकवाद विरोधी कानून मकोका  के तहत मुक़दमा चल  रहा है . वे मध्यप्रदेश के बीजेपी नेता सुनील जोशी की हत्या के केस में भी अभियुक्त थीं . २०१४ में सरकार आने के बाद कुछ मामलों में उनके केस बंद कर दिए गए थे लेकिन अभी मालेगांव धमाके में वे अभियुक्त हैं ..
प्रज्ञा ठाकुर ने बीजेपी की सदस्यता लेने के  साथ ही आक्राकता दिखाना शुरू कर दिया . उन्होंने अपने ऊपर हुए अत्याचार के लिए भोपाल से कांग्रेस के प्रत्याशी , दिग्विजय सिंह की सोच को   परोक्ष रूप से ज़िम्मेदार बताने लगीं .  बहुत बढ़ बढ़ कर बोलने लगीं और उसी रौ में उन्होंने महाराष्ट्र सरकार के आतंकवाद विरोधी दस्ते के तात्कालीन प्रमुख , शहीद हेमंत करकरे के बारे में बहुत ही आपत्तिजनक और अपमानजनक बातें बोल गईं. उन्होंने उनको कुटिल कहा , पापी कहा और देशद्रोही तक कह  डाला . उन्होंने यह भी कहा कि शहीद करकरे की मृत्यु इसलिए हुयी कि इन मोहतरमा ने उनको बद्दुआ  दे दी थी.  यह कहना था कि पूरा देश उनके खिलाफ टूट पड़ा .  जो बहादुर पुलिस अफसर मुंबई को आतंकवादी हमले से बचाने के लिए शहीद हुआ था , जिसने पाकिस्तान से आये आतंकवादियों को सामने से  चुनौती दी थी , जिसके सीने पर अंधेरे में छुपे हुए आतंकवादियों ने गोली मारी थी , उसका आपमान सहन करने के लिए देश तैयार नहीं था. कुछ वक़्त के लिए तो ऐसा लगा कि सोशल मीडिया पर पूरा देश उतर आया है और शहीद करकरे को अपमानित करने वाली बीजेपी उम्मीदवार ,प्रज्ञा ठाकुर की निंदा  कर रहा है. कांग्रेस ने भी मौक़ा देख , मोर्चा संभाल लिया और शहीद का अपमान करने वाली पार्टी के रूप में बीजेपी को पेश करने में कोई समय नहीं गंवाया .
बीजेपी को भी लगा कि गलती हो गयी लेकिन लेकिन प्रज्ञा ठाकुर अपने को पीड़ित बताकर सहानुभूति लेने के चक्कर में डटी रहीं . जब  बीजेपी ने  शहीद हेमंत करकरे के बारे में दिए गए उनके बयान को उनका निजी बयान बताकर पल्ला झाड लिया तब भी वे अपनी राग अलापती रहीं . लेकिन कुछ टीवी चैनलों और अखबारों ने प्रज्ञा ठाकुर के असंतुलित बयान को जिस तरह से हाईलाईट किया उससे बीजेपी को लग  गया कि  बात  बिगड़ गयी हैं . उनको भोपाल से  उम्मीदवार बनाकर कांग्रेस को तथाकथित " हिन्दू आतंकवाद " के घेरे में लेने की कोशिश उल्टी पड़ चुकी थी. जो  बीजेपी पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद और भारतीय पुलिस और सेना के वीरों की शहादत को मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ रही है उसकी एक महत्वपूर्ण प्रत्याशी पाकिस्तानी आतंकवाद के खिलाफ मोर्चा लेने वाले सबसे बहादुर योद्धा को अपमानित कर रही थी . ज़ाहिर है कि बीजेपी जिस मोहरे को अपने फायदे के लिए इस्तेमाल करना चाहती थी , वही उसके लिए सबसे बड़ी मुसीबत बन चुका  है . पार्टी के नेताओं की समझ में साफ़ तौर पर आया गया कि प्रज्ञा ठाकुर की बदजुबानी को सही  ठहराने की कोशिश में उनका  भारी नुक्सान होने वाला है . शायद इसीलिये प्रज्ञा  ठाकुर को पार्टी की तरफ से फटकारा गया और उन्होंने शहीद करकरे की शान में की गयी बदतमीजी के लिए माफी मांग ली. लेकिन माफी भी ऐसी माँगी जिससे पार्टी को नुक्सान होने का ख़तरा बना हुआ है . माफी की भाषा ऐसी है जिसको पढने पर लग जाता  है कि वे माफी तो मांग रही हैं लेकिन अभी भी वे शहीद हेमंत करकरे को गुनहगार साबित करने से बाज़ नहीं आ रही हैं . उन्होंने लिखकर माफी नहीं माँगी है . संवाददाताओं से बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि, " 'जो मैंने कहा था वह मेरी व्यक्तिगत पीड़ा थीजो मैंने सुनाई थी। मेरे बयान से किसी को ठेस पहुंची है तो मैं अपना बयान वापस लेती हूंऔर माफी मांगती हूं'देश के दुश्मन इससे खुश हो रहे हैंइसलिए मैं अपने बयान को वापस ले रही हूं और माफी भी मांगती हूं।." बताते हैं इसके बाद बीजेपी के बड़े नताओं ने उन्हें डांटा और शहीद हेमंत करकरे की तारीफ़ करने का निर्देश दिया . उसके बाद उन्होंने कहा कि, " हेमंत करकरे आतंकवादियों की गोली से शहीद हुए थे. जो बात मैंने उनके बारे में कही , वह नहीं कहना चाहिए  था . मैं खेद प्रकट करती हूँ " लेकिन लगता है कि बात अभी बनी नहीं है . महाराष्ट्र के कुछ संगठनों ने मांग की है कि प्रज्ञा ठाकुर और बीजेपी ने शहीद करकरे के बच्चों को जो पीड़ा पंहुचाई है उसके लिए भी माफी मांगें .

 अब लगता है कि प्रज्ञा ठाकुर बीजेपी के चुनाव अभियान में दिग्विजय सिंह और  उनकी पार्टी पर कालिख पोतने के लिए काम नहीं आने वाली हैं .भोपाल में तीन  हफ्ते बाद चुनाव होना है . तब तक उनकी लानत मलानत का सिलसिला चलता रहेगा और  उनकी पार्टी उस पर सफाई देने के लिए मजबूर होती रहेगी .तब तक चुनाव हो जाएगा . अब तो साफ़ लगने लगा है कि वे  दिग्विजय सिंह को भी चुनौती नहीं दे पाएंगीं क्योंकि वे जहाँ भी जायेंगी उनसे शहीद हेमंत करकरे के बारे में सवाल तो पूछे जायेगे वरना योजना यह थी कि दिग्विजय सिंह पर यह आरोप चस्पा किया जाए कि वे सभी हिन्दुओं को आतंकवादी मानते हैं . और उसी आड़ में बीजेपी का चुनाव  प्रचार केन्द्रित किया जाए . अब इस बात पर भी सवाल उठना शुरू हो गए हैं . क्योंकि दिग्विजय सिंह को हिन्दू विरोधी साबित करने की कोशिश तो उसी दिन दफ़न हो गयी थी जब उन्होंने हिन्दू धर्म की सबसे कठिन तीर्थयात्रा , नर्मदा परिक्रमा को विधि विधान से पूरी की थी .   टीवी की बहसों में जो विश्लेषक  एंकरों द्वारा की जा रही दिग्विजय सिंह की निंदा के बीच चुप बैठे रहते थे वे अब कहने लगे हैं कि दिग्विजय सिंह ने कभी भी हिन्दू आतंकवाद या भगवा आतंकवाद जैसे शब्दों का प्रयोग  नहीं किया है . वे हमेशा " संघी आतंकवाद " शब्द का प्रयोग करते हैं . मीडिया के सहयोग से आर एस एस और बीजेपी के नेता उनको हिन्दू विरोधी साबित करने के लिए दिन रात लगे रहते हैं .प्रज्ञा ठाकुर को उनके खिलाफ उम्मीदवार बनाकर इसी बात को रेखांकित किया जाना था .प्रज्ञा ठाकुर उसी प्रोजेक्ट का हिस्सा थीं लेकिन अब शहीद को अपमानित करके वे बीजेपी के राष्टवाद वाले प्रोजेक्ट को भी नुक्सान पंहुचा रही हैं . अब साफ़ नज़र आने लगा  है कि उनकी उपयोगिता समाप्त हो चुकी है . बीजेपी की  उम्मीदवार के रूप में तो शायद वे बनी रहें लेकिन दिग्विजय सिंह और कांग्रेस को हिन्दू विरोधी साबित करने में अब उनकी उपयोगिता ख़त्म हो चुकी है . हो सकता है कि अभी चुनाव के पांच चरण बाकी हैं , बीजेपी कोई और  तरीका लेकर आये क्योंकि शुरू के  दो चरणों की सूचना के मुताबिक़ पार्टी को उत्तर प्रदेश और बिहार में  बीजेपी को बड़ा नुक्सान हो चुका है.