Wednesday, July 29, 2020

चारण पत्रकारिता से लोकतंत्र , राष्ट्र और सत्ताधारी पार्टी का भारी नुकसान होता है





शेष नारायण सिंह


पूरी दुनिया में कोरोना वायरस के  विषाणु के कारण हाहाकार मचा हुआ है . भारत में भी यह बहुत ही खतरनाक बीमारी साबित हो चुकी है . देश के हर राज्य में कोरोना संक्रमित मरीज़ हैं . लोगों को तरह तरह की पेशानियां झेलनी पड़ रही हैं . कहीं अस्पताल की सुविधा नहीं है तो कहीं क्वारंटाइन के  प्रबंधन को लेकर मुसीबतें हैं. टेस्ट बहुत कम हो  रहे हैं . ख़बरें यह भी हैं कि बहुत सारे बीमार लोग टेस्ट के लिए नमूने नहीं दे   पा रहे हैं क्योंकि टेस्ट की  सुविधा के अभाव में अधिकारी नमूने नहीं  ले  रहे हैं . गाँव में भी लोग कोरोना संक्रमित हो रहे हैं लेकिन उनकी गिनती नहीं हो  रही है क्योंकि किसी अस्पताल या सरकारी एजेंसी में उनका कहीं कोई रिकार्ड नहीं है .अगर किसी की कोरोना से मृत्यु   हो रही है तो  ऐसी  भी सूचना आ रही है कि उसके गहर परिवार वाले उसका अंतिम संस्कार तक   नहीं कर  रहे हैं .कोरोना से बीमार लोगों को परिवार के लोग छोड़कर ज़िम्मेदारी से मुक्त हो रहे  हैं.  यह जितने भी विषय हैं यह सब समाचार हैं. ईमानदारी की पत्रकारिता में या सारी ख़बरें हेडलाइन की ख़बरें मानी जायेंगी .
असम , बिहार  और उत्तराखंड में बरसात में आने वाली बाढ़ के चलते तबाही आई हुयी है . सड़कें टूट रही हैं, पुल गिर रहे हैं. गाँवों में पानी घुस आया है , इंसानी  ज़िंदगी मुसीबत के मंझधार में  है. मानवीय विपत्ति की यह ख़बरें भी अगर  कहीं आ रही हैं तो साइड की ख़बरों की तरह चलाई जा रही हैं . लेकिन कुछ टीवी चैनलों में तो बिलकुल नदारद हैं. हां कुछ चैनल इन ख़बरों को भी ज़रूरी प्राथमिकता दे रहे हैं लेकिन पिछले एक हफ्ते थे ज्यादातर टीवी चैनलों की ख़बरों को देख कर लगता है देश में सब अमन चैन है , कहीं कोई परेशानी नहीं है .
अजीब  बात है कि फ्रांस से बहुत ही महंगे दाम में खरीदे गए रफायल युद्धक विमानों को घंटों ख़बरों में चलाया जा रहा है . अव्वल तो सेना के पास कितने हथियार हैं यह बात आम तौर पर सीक्रेट  रखी जाती   है क्योंकि माना यह जाता है कि  जिनके खिलाफ युद्ध होना है उनको किसी  भी देश के हथियारों की विस्तृत जानकारी नहीं होनी चाहिए . और एक हमारा विजुअल मीडिया  है जो एक महत्वपूर्ण हथियार के सारे विवरण टेलिविज़न पर दिन रात प्रचारित कर रहा है.  यह प्रवृत्ति गैर ज़िम्मेदार पत्रकारिता तो हैं ही यह राष्ट्रहित को भी नुक्सान पंहुचा सकती है .
कई साल के विवाद के बाद अयोध्या में राम मन्दिर का निर्माण होना है . पांच अगस्त को उस मंदिर का शिलान्यास  प्रधानमंत्री जी करेंगे . उस कार्यक्रम को लाइव दिखाया जाएगा .  यह खबर है लेकिन टीवी चैनलों की नज़र में पिछले एक हफ्ते से  पांच अगस्त के शिलान्यास के कार्यक्रम की जो विवरणी शास्वत चल रही है उसको देख कर लगता है कि उसके अलावा  कोई ऐसी खबर ही नहीं है जिसको  हाईलाईट किया जा सके . टीवी  चैनलों की एक अन्य खबर है कि मुंबई में  सिनेमा के अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने आत्महत्या कर ली थी. उसकी जाँच चल रही है . उस जांच की पल पल की जानकारी चप्पे  चप्पे पर  मौजूद चैनल के रिपोर्टर दे रहा  है. और चैनल इसको लहक लहक लार सुना रहा है . सुशांत  सिंह की आत्महत्या निश्चित रूप से एक बड़ी खबर है लेकिन उसकी जांच की हर जानकारी तो उतनी बड़ी खबर नहीं  है कि  उसका लगभग लाइव प्रसारण किया जाय लेकिन आजकल टीवी पत्रकारिता में जो भेडचाल है उसके चलते यह सारी हालात पैदा हुए हैं . अमिताभ बच्चन के बीमारी भी कई दिन तक टीवी चैनलों का मुख्य विषय बना रहा . इन खबरों के बीच में मुंबई सहित बाकी देश में कोरोना  के कारण पैदा हुई आर्थिक तबाही ,  बेरोजगारी , फ़िल्मी दुनिया में काम करने वालों की भीख माँगने की मजबूरी का कहीं भी ज़िक्र  नहीं हो रहा है . बड़े शहरों ने बेरोजगार होकर गाँवों में गये लोग जिस तरह से अपराध की तरफ प्रवृत्त ही रहे हैं वह भी कहीं चर्चा में नहीं आ रहा है .
राजस्थान में संविधान की व्यख्या को लेकर जो संकट मौजूद है उसका भी ज़िक्र केवल सचिन पायलट के अधिकारों को  छीन लेने तक सीमित कर दिया गया है.  वहां के राज्यपाल की संदिग्ध भूमिका का टीवी चैनलों में  विश्लेषण  नहीं हो रहा है . मायावती की राजनीति में बहुत बड़ा शिफ्ट हो चुका है . अगर  कबीरपंथी  पत्रकारिता का दौर होता तो उसका विधिवत विश्लेषण किया  जाता  लेकिन  ऐसा कहीं कुछ देखने को नहीं मिल रहा है .    राजस्थान में उनकी पार्टी के विधान मंडल दल ने अपना विलय कांग्रेस में बहुत पहले पर लिया था . अब मायावती उन कांग्रेसी विधायकों के लिए व्हिप जारी करती हैं या उनकी सदस्यता रद्द करवाने  सुप्रीम कोर्ट जाती  हैं, उसकी जानकारी पूरी तरह से बार  बार देश को बाताई जा रही है लेकिन यह  नहीं बताया जा रहा है कि उनको यह काम करने की  प्रेरणा कौन दे रहा है .
इस तरह की पत्रकारिता को चारण पत्रकारिता कहते हैं .टीवी चैनल देखने से लगता है कि रफायल युद्धक विमान और राम मंदिर के शिलान्यास से बड़ी कोई खबर ही नहीं है .जबकि पत्रकारिता का बुनियादी सिद्धांत यह  है कि इंसानी मुसीबतों या उनकी बुलंदियों के बारे में सूचना दी जाए . सवाल यह  है कि मीडिया संस्थान सचाई को दिखाने से डरते क्यों हैं .संविधान  मीडिया को जनहित में अपनी बात कहने की आज़ादी देता है .  प्रेस की आज़ादी की  व्यवस्था  संविधान में ही है . संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) में अभिव्यक्ति की स्वत्रंत्रता की व्यवस्था दी गयी हैप्रेस की आज़ादी उसी से निकलती  है . इस आज़ादी को सुप्रीम कोर्ट ने अपने बहुत से फैसलों में सही ठहराया है . १९५० के  बृज भूषण बनाम दिल्ली राज्य  और १९६२ के सकाळ पेपर्स  प्राइवेट लिमिटेड बनाम यूनियन आफ इण्डिया के फैसलों में  प्रेस की अभिव्यक्ति की आज़ादी को मौलिक अधिकार के  श्रेणी में रख दिया  गया है . प्रेस की यह आज़ादी निर्बाध ( अब्सोल्युट ) नहीं है . संविधान के मौलिक अधिकारों वाले अनुच्छेद 19(2) में ही उसकी सीमाएं तय कर दी गई हैं.  संविधान में लिखा है  कि  अभिव्यक्ति की आज़ादी के "अधिकार के प्रयोग पर भारत की प्रभुता और अखंडताराज्य की सुरक्षाविदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधोंलोक व्यवस्थाशिष्टाचार या सदाचार के हितों में अथवा न्यायालय-अवमानमानहानि या अपराध-उद्दीपन के संबंध में युक्तियुक्त निर्बंधन जहां तक कोई विद्यमान विधि अधिरोपित करती है वहां तक उसके प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या वैसे निर्बंधन अधिरोपित करने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी"  यानी प्रेस की आज़ादी तो मौलिक अधिकारों के तहत कुछ भी लिखने की आज़ादी  नहीं है .
हालांकि यह भी सच   है कि  सत्ताधीश कई बार इस आज़ादी को गैर संवैधानिक तरीकों से कुचल भी देते हैं. सरकारी आदेश या अन्य  तरीकों से मीडिया संस्थान या  पत्रकारों पर हमले भी होते  हैं.कई बार तो पत्रकारों को सही खबर लिखने की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है . सत्ता के करीबी पत्रकार भी इस बात को सही ठहराते पाए जाते हैं .और कई बार पत्रकारों की  हत्या को भी सही बताते है . वे मानते है कि अगर  पत्रकार ने संविधान के अनुच्छेद 19(2) का उन्लंघन किया  है तो उसको मार डालना  भी सही है  . इस तर्क की परिणति बहुत ही खतरनाक है और इसी तर्क से लोकशाही को ख़तरा  है . कर्नाटक की पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के हवाले से बात को समझने की कोशिश की जायेगी . उनकी हत्या के बाद उनके पुराने लेखों का ज़िक्र किया गया जिसमें उन्होंने ऐसी बातें लिखी थीं जो एक वर्ग को स्वीकार नहीं थीं. सोशल मीडिया पर सक्रिय एक  वर्ग ने  चरित्र हनन का प्रयास भी किया .वे यह कहना चाह  रहे थे कि गौरी लंकेश की  हत्या करना एक ज़रूरी काम था और जो हुआ वह ठीक ही हुआ.  आज ज़रूरत इस बात की है कि इस तरह की प्रवृत्तियों की निंदा की जाये .अगर इस बात को सही साबित करने की कोशिश की जायेगी तो लोकतंत्र के अस्तित्व पर ही  सवालिया निशान  लग जाएगा.  इस लोकतंत्र को बहुत ही मुश्किल से हासिल किया  गया है और उतनी ही मुश्किल इसको संवारा गया है . अगर समाचार संस्थान  जनता तक सही बातें और वैकल्पिक दृष्टिकोण नहीं पंहुचाएगा तो सत्ता पक्ष के  लिए भी मुश्किल होगी. इंदिरा  गांधी ने यह गलती १९७५ में की थी. इमरजेंसी में सेंसरशिप लगा दिया था . सरकार के खिलाफ कोई भी खबर नहीं छप सकती थी. टीवी और रेडियो पूरी तरह से सरकारी नियंत्रण में थे , उनके पास  तक  जा सकने वालों में सभी चापलूस होते थेउनकी जयजयकार करते रहते थे इसलिए उनको  सही ख़बरों का पता  ही नहीं लगता था . नौकरशाही ने उनको  बता दिया कि देश में उनके पक्ष में बहुत भारी माहौल है और वे दुबारा भी बहुत ही आराम से चुनाव जीत जायेंगीं .  चुनाव करवा दिया और  १९७७ में बुरी तरह से हार गईं ..इंदिरा गांधी के भक्त और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने प्रेस सेंसरशिप के दौरान नारा दिया था कि  ' इंदिरा इज इण्डिया ,इण्डिया इज  इंदिरा ,' इसी .तरह से जर्मनी के तानाशाह हिटलर के तानाशाह बनने के पहले उसके एक चापलूस रूडोल्फ हेस ने नारा दिया था कि  ,' जर्मनी इस हिटलर , हिटलर इज जर्मनी '.   रूडोल्फ हेस नाजी पार्टी में बड़े पद पर था .
चारण पत्रकारिता  सत्ताधारी पार्टियों  की सबसे  बड़ी दुश्मन है क्योंकि वह सत्य पर पर्दा डालती है और सरकारें गलत फैसला लेती हैं . ऐसे माहौल में सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह मीडिया को निष्पक्ष और निडर बनाए रखने में योगदान करे  . चापलूस पत्रकारों से पिंड छुडाये . सरकार को चाहिए कि पत्रकारों के सवाल पूछने के  अधिकार और आज़ादी को सुनिश्चित करे . साथ ही संविधान के अनुच्छेद १९(२) की सीमा में  रहते हुए कुछ भी लिखने की  आज़ादी और अधिकार को सरकारी तौर पर गारंटी की श्रेणी में ला दे . इससे निष्पक्ष पत्रकारिता का बहुत लाभ होगा.  ऐसी कोई व्यवस्था कर दी जाए जो सरकार की चापलूसी करने को  पत्रकारीय  कर्तव्य पर कलंक माने और इस तरह का काम करने वालों को हतोत्साहित करे. अगर मौजूदा सरकार इस तरह का  माहौल  बनाने में सफल होती है तो वह राष्ट्रहित और समाज के हित में होगा .


Monday, July 27, 2020

Happy birthday Dr S B Singh



जन्मदिन मुबारक डाक्टर एस बी सिंह

आज  डॉ एस बी सिंह का जन्मदिन है . आप इलाहाबाद में विराजते हैं . यहाँ दिल्ली में जब मेरे किसी दोस्त  या  शुभेच्छु को कोई मुश्किल बीमारी हो जाती है तो मैं उनका फोन  नंबर दे देता हूँ और फोन पर ही वे होम्योपैथिक  दवा का नाम लिखवा देते हैं . ज्यादातर लोग बिलकुल ठीक हो जाते  हैं . चार दशक से भी ज़्यादा समय से  होम्योपैथी की प्रेक्टिस कर रहे हैं  . और देश के शीर्ष होम्योपैथिक डाक्टरों में उनकी गिनती होती है . इलाहाबाद में उनके कई  स्थानों पर क्लिनिक हैं . मुख्य ठिकाना इलाहाबाद  यूनिवर्सिटी के पास कटरा में हैं . वहां शाम को मरीजों का मेला लगता है . आम तौर पर   डाक्टरों ने फीस बढ़ा दी है लेकिन उनकी फीस अभी भी बहुत ही कम है . मैं कोशिश कर रहा हूँ कि  वे महीने में दो एक दिन नोयडा या ग्रेटर नोयडा  में भी मरीज़ देखना शुरू कर दें . उनका एक बेटा दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट में वकील है , बिटिया बायोटेक्नोलोजी की विद्वान है और दामाद निजी क्षेत्र की एक बड़ी बैंक में बड़े पद पर  है. बड़ा बेटा भोपाल में रहता है, बड़ा बैंकर है . भाई बहन , नात रिश्तेदार सबको  साकिन बहमरपुर से इलाहाबाद लाकर जमा देना उनका शौक़ था. आज सभी का परिवार आनन्द में है, सब के बच्चे ज़िंदगी में अच्छा कर रहे  हैं . एकाध रिश्तेदार का बेटा तो सिविल सर्विस  में चुन लिया गया  है और राजपूती दहेज की बाज़ार में उसकी कीमत करोड़ों के पार है .
डॉ साहब गांधीवादी मूल्यों से  ओतप्रोत हैं . हालांकि बच्चे चलने नहीं देते लेकिन उनकी चले तो स्लीपर  क्लास में ही यात्रा करना पसंद करते हैं . शिक्षा के महत्व  को अच्छी तरह  जानते   हैं इसलिए अपने गाँव में एक   बढ़िया स्कूल स्थापित कर रहे हैं. उनके पिताजी लम्भुआ मिडिल स्कूल में मेरे अंग्रेज़ी के शिक्षक थे.  उन दिनों बहुत ही अच्छे कपड़े जूते वगैरह पहनते थे . हम लोगों से बड़ी उम्र के नाक्शेबाज़ लोग उनके कपड़ों की नक़ल करते थे. सिनेमा था नहीं तो वही फैशन के मामले में  दिलीप कुमार , देवानंद की जगह पर हीरो माने  जाते थे . वक़्त के इतने पाबन्द  थे कि उनके स्कूल जाने के समय से लोग घड़ी मिला लिया करते थे. बहुत ही सख्त शिक्षक थे . इसलिए हर  क्लास में दो चार लड़के ऐसे होते थे जो उनकी सख्ती की हवा निकालने का काम करते थे. मेरी क्लास में इस तरह के लड़कों की अगुवाई मैं करता था. बाद में मुझपर उनको अटूट विश्वास था.  जब मैं टी डी  कालेज जौनपुर में पढता था तो डॉ एस बी   सिंह के पिताजी ने उनकी शिक्षा के लिए जौनपुर भेज दिया और मैं उनका लोकल गार्जियन बना दिया गया . मुझे फख्र है कि मैंने एक गार्जियन के रूप में बहुत ही  अच्छा काम किया .डाक्टर  साहब खुद भी कहते हैं कि आत्मनिर्भरता का जो  अभ्यास मैने उनको कराया था , आज वही उनका पाथेय है. उनकी पत्नी ढकवा के पास बसे मानाशाही बैस  ठाकुरों के परिवार में नगर गाँव के एक रईस बाबू साहब की बेटी हैं . शादी जल्दी हो गयी थी . उन्होंने दसवीं ही पास किया  था . शादी के बाद डॉ एस बी सिंह ने उनको इलाहाबाद  में  लाकर उच्च  शिक्षा की प्रेरणा दी और उन्होंने   एम ए , पी-एच डी की पढाई की और   शहर के एक नामी कालेज में लेक्चरर हुईं. अब मेरे दोस्त एस बी सिंह की  रेज़ीडेंट थानेदार हैं . और उनको पूरी तरह से कंट्रोल में रखती हैं . दोनों की मुहब्बत उसी तरह की है जैसी आज के अड़तालीस साल पहले थी . दीवानगी की हद तक.
आज  उन्ही डॉ एस बी सिंह का  जन्मदिन है . जन्मदिन मुबारक डाक्टर साहब .

   


Wednesday, July 22, 2020

युद्ध पर आमादा चीन को बंदूकों से नहीं उसकी अर्थव्यवस्था की तबाही की योजना से जवाब दिया जाना चाहिए


शेष नारायण सिंह 
पिछले तीन महीने  से चीन की सेना ने  लदाख में नियंत्रण रेखा ( एल ए सी ) पर छेड़खानी शुरू कर दिया है .चीन  वहां भारत की ज़मीन में घुस आना  चाहता है . उसके दुस्साहस का नतीजा यह हुआ कि जून में दोनों देशों के सैनिक बिलकुल आपने सामने आ गए और मारपीट हुयी . भारत के करीब बीस सैनिक शहीद हुए जबकि चीन के  सैनिक भी बड़ी संख्या में मारे गए .. उसके बाद से कई बार बातचीत हो चुकी है . सैनिक अफसरों की बात चीत का सिलसिला लगातार जारी  है.  कूटनीतिक प्रयास भी हुए हैं . लेकिन लगता है कि चीन अपनी बात पर अड़ा रहना चाहता है.  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी लदाख हो आये हैं और रक्षामंत्री का भी दो दिन का  दौरा हो चुका है .पिछले हफ्ते लदाख में उन्होंने  भारतीय सैनिकों की हौसला अफजाई की और कहा कि चीन ने जो हालात  पैदा कर दिए गए  हैं उसको हल करने की कोशिश चल रही है . रक्षामंत्री ने कहा कि इस विवाद को हल करने के लिए चीन से बातचीत का सिलसिला जारी  है . विवाद का हल निकलने की उम्मीद है लेकिन  गारंटी नहीं दी जा सकती . रक्षामंत्री ने कहा कि ,”  मैं इतना यकीन दिलाना चाहता हूं कि भारत की एक इंच जमीन  भी  दुनिया की कोई भी ताकत छू नहीं सकती ,उसपर क़ब्ज़ा नहीं का सकती .”  राजनाथ सिंह ने कहा कि , “हम शांति चाहने वाले लोग हैंअशांति नहीं चाहते . भारत ने पूरी दुनिया को शांति का संदेश दिया है. उन्होंने यह भी दावा किया कि  सीमा पर दुश्मनों की किसी भी चाल का जवाब देने के लिए भारत पूरी तरह तैयार हैं. मामला ख़ासा पेचीदा हो गया है . चीन ने  भारत के क्षेत्र में  अपनी सेना को आगे तैनात करके अपनी मंशा को साफ़ कर दिया है . भारत की सेना तैयार थी इसलिए चीनी सैनिक ज़्यादा आगे नहीं बढ़  सके . बुधवार को भी  रक्षामंत्री ने चीन को सख्त सदेश दिया . राजनाथ सिंह दिल्ली में वायुसेना के कमांडरों के सम्मलेन में बोल रहे थे . उन्होंने  कहा कि वायुसेना ने जिस तरह से एलएसी के फॉरवर्ड लोकेशन पर अपने युद्धक विमान तैनात किए हैंउससे दुश्मन  को  संदेश मिल चुका है. रक्षामंत्री ने दावा किया कि  चीन से एलएसी पर तनाव कम करने की बात चल  रही है लेकिन भारत की  वायुसेना को किसी भी हालत के लिए पूरी तरह तैयार रहना होगा.
जानकारों का कहना है कि चीन की नीयत साफ़ बिलकुल नहीं  है . यह बात भारत सरकार को भी पता है इसलिए देश की सेना को किसी भी संभावना का सामना करने के लिए तैयार रहना पडेगा .  चीन ने १९६२ में भी इसी तरह का माहौल बनाया था लेकिन उसकी मंशा भारत के इलाके को क़ब्ज़ा करने की थी. सेना के अवकाश प्राप्त अधिकारी  इस बात का भरोसा बार बार दिलवा रहे  हैं कि भारत  की हालत अब १९६२ वाली नहीं है .  देश की फौज तैयार है और चीन ने अगर १९६२ वाली गलती की तो उसको माकूल जवाब दिया जाएगा . पूर्व सेना प्रमुख जनरल जे जे सिंह ने  एक टेलिविज़न डिबेट में बताया कि  वुहान  से शुरू हुए कोरोना वायरस के आतंक और उसके कारण पैदा हुए माहौल के बाद दुनिया के ज्यादातर देश भारत के साथ खड़े हैं . लेकिन यह  अति आशावाद है क्योंकि युद्ध की स्थति में कोई भी देश  समर्थन तो करेगा लेकिन उसके सेनाएं युद्ध करने नहीं आयेंगी .अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होगी .
इस बीच भारत ने अमरीका से सामरिक संबंधों को बढाने की ज़बरदस्त पेशकश  शुरू कर दिया  है . इस बात की संभावना बहुत ज्यादा हो गयी  है कि चीन के हठधर्मी आचरण के मद्देनज़र अमरीका से सेना के स्तर पर  दोस्ती तो ज़्यादा होगी लेकिन यह बात  पक्की है कि अमरीकी सेना भारत के किसी भी सैनिक अभियान में साथ नहीं  रहेगी . अमरीकी  राष्ट्रपति ट्रंप बार बार भारत को भरोसा दे रहे हैं कि वह चीन और भारत के विवाद में भारत के पक्ष को सही मानते हैं लेकिन उनके लिए भी भारतीय सेना के साथ अपनी सेना को युद्ध में उतारना असंभव होगा . अमरीका  आर्थिक और सैनिक रूप से एक मज़बूत देश है लेकिन उनके लिए चीन के खिलाफ संभावित युद्ध में भारत के साथ मिलकर लड़ने के लिए सेना  भेजना संभव नहीं होगा. पिछले पचास वर्षों में जहां भी अमरीकी सेना गयी है कुछ साल के बाद भागने के रास्ते  तलाशना पड़ा है . वियतनाम में  चीन की हार को न तो अमरीका के नीतिनिर्धारक भूले  हैं और न ही  दुनिया ने उसको भूलने दिया है . इराक में सद्दाम हुसैन की सत्ता को उखाड़ने गए अमरीकी  सैनिकों को आठ साल तक वहां रखने के बाद  जिस तरह से तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने निकाला था उसको अमरीकापरस्त लोग जीत मानते हैं लेकिन वह  जीत नहीं थी . अमरीका  की सेनाओं के बार बार मुंह की खाने के कारण वहां के रक्षा व्यवस्था के करता धरता यह नहीं  चाहते कि उनकी सेना किसी लफड़े में पड़े .वैसे भी अमरीका ने कभी किसी देश के साथ सम्बन्ध ईमानदारी से सही नहीं निभाया  है . वह किसी भी देश को अपने हित में  इस्तेमाल करता  है . अगर  भारत अमरीका से कोई भी मदद लेगा तो उसकी कीमत बहुत ही भारी पड़ेगी . ज़ाहिर  है भारत अपनी विदेशनीति में ऐसा कोई बड़ा बदलाव नहीं चाहेगा जिसके चलते एशिया की सारी भू राजनीतिक परिस्थितियाँ  ही बदल जाएँ .
अमरीका के किसी सामरिक सहयोग के बिना ही भारत को  चीन से विवाद की समस्या को हल कर लेना चाहिए . आज के अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप वैसे भी अस्थिर चित्त के व्यक्ति हैं और उनके दुबारा राष्ट्रपति  चुने जाने की सम्भावना बहुत ही कम है . जितने भी  चुनाव पूर्व सर्वे वहां हो रहे हैं सब में ट्रंप को पिछड़ता हुआ दिखाया  जा रहा है . यहाँ तक कि उनका पालतू टीवी चैनल फॉक्स न्यूज़ भी अपने उनके हारने की भविष्यवाणी कर रहा है .उनकी ऊलजलूल  हरकतों की रोशनी में यह उम्मीद करना ठीक नहीं होगा कि  उनके किसी बड़े राजनीतिक फैसले अगला राष्ट्रपति सम्मान देगा .ऐसी हालत में चीन से समस्या के निदान के लिए कूटनीतिक तरीके ही अपनाना ठीक होगा . अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपनी विदेशनीति को चीन विरोध के ऐसे सांचे में फिट कर दिया है कि चीन पर उनका कोई भी  नैतिक दबाव नहीं पड़ने वाला है .  चीन के विरोध की आदत  विकसित कर चुके डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों के नतीजा ही है कि चीनी राष्ट्रपति , शी जिनपिंग आज एशिया के कई देशों  में  सम्मान के हकदार बन गए हैं . अगर ट्रंप की शेखचिल्ली नीतियों पर ही अमरीका चलता  रहा तो वह एशिया-प्रशांत क्षेत्र, अफ्रीका और लातीनी अमरीका में अपना प्रभाव गँवा देगा . सबको मालूम है कि इन क्षेत्रों में चीन बड़े पैमाने पर निवेश कर रहा  है और वहां प्रभाव जमाने के लिए प्रयत्नशील है . आज चीन अमरीका के बाद दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है . उसकी  कोशिश है कि वह अमरीका को भी पीछे छोड़कर सम्पन्नता में दुनिया में नंबर एक पर पंहुच जाय . एक कम्युनिस्ट देश का पूंजीवादी दुनिया में प्रवेश और वहां मजबूती  से जमने के पीछे बड़े पैमाने पर राजनीतिक सोच में बदलाव है .इस सोच के बदलाव में डेंग श्याओपिंग की आर्थिक समझ का बड़ा योगदान है . डेंग ने १९७८ में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का सर्वोच्च पद हासिल किया था . उसी समय से वे अर्थव्यवस्था में बड़े बदलाव  के लिए नीतिगत फैसले  ले रहे थे .  उनकी दूरदर्शी सोच का नतीजा था  कि चीन आज अमरीका से टक्कर ले रहा  है . उन दिनों  चीन से बहुत बड़ी अर्थव्यवस्था सोवियत यूनियन की थी लेकिन वह १९९० के आसपास तबाह हो गयी . सोवियत यूनियन का विघटन हो गया. पूर्वी  यूरोप के कम्युनिस्ट  देशों से कम्युनिस्ट शासन प्रणाली समाप्त हो गयी चीन एक बड़ी  अर्थव्यवस्था बनने के रास्ते पर चल पड़ा था . डेंग ने  बाकी दुनिया से निवेश के  लिए चीन के दरवाज़े खोल दिए थे. नतीजा यह है कि आज अमरीका की सबसे बड़ी कंपनियों के लिए सामान बनाने वाले कारखाने  चीन में हैं.
कोरोना के बाद चीन चीन से दुनिया का मोहभंग हो रहा है .आमतौर पर माना जा रहा है कि चीन से आया कोरोना वास्तव में चीन की रणनीति का एक हिस्सा है . कोरोना के बाद  विश्व के  सभी विकसित देश प्रभावित हुए  हैं. एशिया के देशों में भी  भारी आतंक है लेकिन चीन के वुहान प्रांत से शुरू होने वाले कोरोना से चीन में उतना नुक्सान नहीं हुआ जितना अमरीका और यूरोप में हुआ है . इस बात में दो राय  नहीं है कि कोरोना के बाद की दुनिया बिलकुल अलग  होगी. बहुत सारी  अमरीकी कम्पनियां चीन से अपने कारखाने हटाने की बात कर रही हैं .  मझोले स्तर के उद्योग तो हटाभी चुके हैं लेकिन ज़्यादातर कारपोरेट  कंपनियों ने ताइवान, वियतनाम आदि देशों में  कारखाने लगाये हैं . अभी भारत का नम्बर  नहीं आया  है. २२ जुलाई को आइडिया फॉर इण्डिया मंच पर अपने भाषण में  प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने अमरीकी निवेशकों का आवाहन किया कि वे भारत में अपने कारखाने लगाएं . उन्होंने देश में हो रही आर्थिक विकास की गतिविधियों का विस्तार से  उल्लेख किया . उम्मीद की जा रही  है कि अमरीकी निवेश बड़े पैमाने पर भारत में  होगा . लेकिन विदेशी निवेश के लिए ज़रूरी है कि देश में  तनाव युक्त माहौल न रहे , चौतरफा शान्ति रहे .  भारत इस मामले में कमज़ोर है . अयोध्या आन्दोलन के नाम पर बने हुए संगठन पूरे देश में फैले हुए हैं  . वे राष्ट्रवादी नारे  लगाते हैं लेकिन विरोधियों में  आतंक फैलाते हैं . इन लोगों पर अगर कंट्रोल कर लिया जाए  तो उत्तर-कोरोना युग में  भारत में वह निवेश शिफ्ट हो सकता है .चीन से उद्योग धंधे बड़ी संख्या में पलायन कर रहे हैं . उनका एक हिस्सा अगर   भारत में आ गया तो चीन पर  मर्मान्तक प्रहार होगा और बिना युद्ध किये  ही चीन को औकात पर लाया  जा सकेगा . अगर आर्थिक शक्ति के रूप में चीन कमज़ोर पडा तो लदाख में एल ए सी पर चीनी सेना की घुसपैठ की हिम्मत नहीं   पड़ेगी . एक कमजोर अर्थव्यवस्था वाला चीन युद्ध से बचना भी चाहेगा . युद्ध से  भारत को भी बचना चाहिए क्योंकि युद्ध हुआ तो अर्थव्यवस्था का  बड़ा  नुक्सान होगा और उससे बचना चाहिए .

Saturday, July 18, 2020

नेल्सन मंडेला का जन्मदिन आज़ादी की इच्छा रखने वालों के लिए त्यौहार का दिन है




शेष नारायण सिंह

आज  ( 18 जुलाई ) नेल्सन मंडेला का जन्मदिन है . सत्तर   के दशक में दुनिया  भर के छात्रावासों के बहुत सारे कमरों में उनका पोस्टर लगा रहता था. साउथ अफ्रीका की आज़ादी की लड़ाई के लिए वे 27 साल जेलों में रहे. उस दौर में पूरी दुनिया के नौजवान उनको हीरो मानते थे . साउथ अफ्रीका का पूरा मुल्क बहुत वर्षों तक श्वेत अल्पसंख्यकों के आतंक को झेलता रहा  था . अमरीका और ब्रिटेन की साम्राज्यवादी सत्ता की मदद से आतंक का राज कायम हुआ और चलता रहा . पूरा देश आज़ादी की मांग को लेकर मैदान में आ गया था  . उनके सर्वोच्च नेता नेल्सन मंडेला को २७ साल तक जेल में रखा गया और जब आज़ादी मिली तो पूरा मुल्क खुशी में झूम उठा . नेल्सन मंडेला शुरू में तो हिंसा की बात करते थे लेकिन बाद में  महात्मा गांधी की अहिंसा की नीति को ही अपने संघर्ष  का आधार बनाया . वे गांधी को प्रेरणा स्रोत मानते थे .

 यह आज़ादी आसानी से नहीं मिली थी . उसके पीछे अफ्रीकी अवाम का दशकों तक चला  संघर्ष था. उस आजादी के नेता निश्चित रूप से नेल्सन  मंडेला थे .मंडेला के ऊपर अफ्रीकी अस्मिता और सम्मान के लिए लड़ रहे नेताओं वॉल्टर सिसुलू और वॉल्टर एल्बरटाइन का बहुत प्रभाव पड़ा था .उन दिनों अफ्रीका में श्वेत अल्पसंख्यकों का शासन था . दक्षिण अफ्रीका की स्थति भारत से अलग थी क्योंकि  भारत में जो अँगरेज़ आये थे , वे यहाँ शासन करने के लिए नियमित रूप से आते थे और वापस  चले जाते थे लेकिन दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने बाकायदा नागरिकता ले ली थी और  उसको अपना देश मानकर  हुकूमत करते थे .  वहां के स्थानीय लोगों को श्वेत अंग्रेजों के अधीन लगभग  गुलामों की ज़िंदगी जीने के लिए मजबूर किया जाता था . दक्षिण अफ्रीका में   रंगभेद के आधार पर राज कायम किया गया था .  इसी रंगभेद के शासन के विरोध के लिए वहां अफ्रीकी नैशनल कांग्रेस की स्थापना की गयी थी .1944 में मंडेला  अफ़्रीकन नैशनल कांग्रेस में शामिल हो गये . कांग्रेस का एक आनुषंगिक  संगठन, अफ़्रीकन नेशनल कांग्रेस यूथ लीग ,बना जिसकी शुरुआत में मंडेला ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया था  1947 में वे अफ़्रीकन नेशनल कांग्रेस यूथ लीग के सचिव बन गए .

 1962 को उन्हें मजदूरों को हड़ताल के सिलसिले  में गिरफ़्तार कर लिया गया। उन पर मुकदमा चला और  1964 को उन्हें आजीवन कारावास  की सजा सुनायी गयीथी . उसी सज़ा के साथ साथ ही यह तय हो गया कि नेल्सन मंडेला की तकलीफ सह  सकने की हिम्मत अगले 27 तक श्वेत शास्स्कों को बहुत  तकलीफ देने वाली है . उनके नाम का सहारा लेकर देश में और दुनिया भर में आज़ादी पसंद अवाम दाक्षिण अफ्रीका की आज़ादी के साथ हो गयी. इंगलैंड , अमरीका सहित कुछ  साम्राज्यवादी देशों के अलावा दक्षिण अफ्रीका के  श्वेत शासकों का कहीं कोई पुछत्तर नहीं था .27 साल तक जेलों में रहने के बाद जब  1990 को उनको रिहा किया गया तो देश में आजादी की आमद की दस्तक साफ़ सुनी जा रही थी . उन्होंने सत्ता संभाली और आपसी सौहार्द्र की बुनियाद पर सत्ता चलाने की कोशिश की .उन्होंने एक लोकतान्त्रिक एवं बहुजातीय अफ्रीका की कल्पना की थी और वही दक्षिण अफ्रीका की गवर्नेंस का स्थाई मॉडल  बना .

उनकी रिहाई के बाद ही अफीका से रंगभेद ( aprathied ) के राज की  विदाई हो चुकी थी. 1994 में आम चुनाव हुए और नेल्सन मंडेला की पार्टी अफ्रीकन नैशनल कांग्रेस को  भारी बहुमत मिला. मई 1994 में मंडेला अपने देश के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने. 1997 में वे सक्रिय राजनीति से अलग हो गये और दो वर्ष पश्चात उन्होंने 1999 में अफ्रीकी नैशनल कांग्रेस का अध्यक्ष का पद भी छोड़ दिया. दक्षिण अफ्रीका में  मंडेला को वही  सम्मान मिला जो भारत में आज़ादी के बाद महतामा गांधी को मिला था. लोग उनको  राष्ट्रपिता  मानते थे.  दक्षिण अफ्रीका में  उन्हें  ‘ मदीबा  ‘  कहते हैं.  यह वरिष्ठ लोगों के लिए आदर से लिया जाने वाला संबोधन है .  नेलसन मंडेला को दुनिया के बहुत सारे देशों ने सम्मानित किया है . उनको 1993 में नोबेल शांति पुरस्कार भी दिया गया . भारत से उनको ख़ास लगाव था . उनको भारत रत्न का सम्मान भी दिया जा चुका है .
 जब राजनीतिक आज़ादी को मुक़म्मल करने के लिए सामाजिक और आर्थिक सख्ती बरती गयी तो पूरा देश राजनीतिक नेतृत्व के साथ था. आज साउथ अफ्रीका दुनिया में एक बड़े और ताक़तवर मुल्क के रूप में पहचाना जाता है . तीसरी दुनिया के मुल्कों में सबसे ऊपर उसका नाम है क्योंकि पूरी आबादी उस आज़ादी में अपना हिस्सा मानती है . बिना किसी कोशिश के आज़ादी हासिल करने वालों में पाकिस्तान का नाम सबसे ऊपर है . पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना शुरू में तो कांग्रेस के साथ रहे लेकिन बाद में वे पूरी तरह से अंग्रेजों के साथ थे और महात्मा गाँधी की आज़ादी हासिल करने की कोशिश में अडंगा डाल रहे थे. बाद में जब आज़ादी मिल गयी तो अंग्रेजों ने उन्हें पाकिस्तान की जागीर इनाम के तौर पर सौंप दी. नतीजा सामने है . कुछ ही वर्षों में पाकिस्तान आन्दोलन में जिन्ना के बाद सबसे बड़े नेता और पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री ,लियाक़त अली को मौत के घाट उतार दिया गया. बाद में राष्ट्र की सरकार को ऐशो आराम का साधन मानने वाली जमातों का क़ब्ज़ा हो गया और आज पाकिस्तान के सामने अस्तित्व का संकट पैदा हो गया है. ऐसे बुत सारे उदाहरण मिल जायेंगे लेकिन जिन देशों ने अपनी आज़ादी को मेहनत से जीता है उनकी अगली पीढियां अपनी आजादी की हिफाज़त बहुत ही ध्यान से करती हैं .

दक्षिण अफ्रीका की अवाम उसी बात को आगे रखकर चल रही है . आज़ादी के बाद  नेल्सन मंडेला ने खुद सत्ता की बागडोर संभाल ली थी .  वहां की श्वेत आबादी के प्रति भूमिपुत्र और भारत से गए दक्षिण अफ्रीका के नागरिकों में बहुत नाराजगी थी . एक बार तो ऐसा  लगा कि देश में   बदले की आग  सब कुछ तबाह कर देगी लेकिन मंडेला के व्यक्तित्व की  वजह से वहां शान्ति और सद्भावना का राज कायम हो गया और आज दक्षिण अफ्रीका को  दुनिया के संपन्न देशों में गिना जाता है. अफ्रीकी महाद्वीप का तो वह सर्वाद्धिक मह्त्वापून देश  माना  ही जाता है 

ज्योतिबा फुले की तरह लड़कियों की शिक्षा को एक क्रांतिकारी कार्यक्रम की तरह चलाया जाना चाहिए


शेष नारायण सिंह

आज देशबंधु अखबार की दूसरी लीड खबर है कि ‘दसवीं में भी लड़कियां रहीं लड़कों से आगे ‘ इसके  पहले बारहवीं की परीक्षा में भी लड़कियों ने बहुत ही अच्छा किया था. खबर में लिखा है कि   सीबीएसई द्वारा घोषित किए गए नतीजों में कुल 91.46 फीसदी छात्र 10वीं की बोर्ड परीक्षाओं में उत्तीर्ण हुए हैं। पिछले वर्ष के मुकाबले यह संख्या 0.36 प्रतिशत अधिक है। सीबीएसई द्वारा घोषित किए गए इन नतीजों में कुल 93.31 प्रतिशत छात्राएं उत्तीर्ण हुई है। पास होने वाले लड़कों का प्रतिशत 90.14 है। लड़कों के मुकाबले 3.71 प्रतिशत अधिक लड़कियां दसवीं की परीक्षा में उत्तीर्ण हुई है। 78.95 प्रतिशत ट्रांसजेंडर छात्र भी दसवीं की कक्षा में उत्तीर्ण हुए हैं। यह  ख़बरें इसलिए पहले पृष्ठ पर प्रमुखता से  छापी  जाती हैं  क्योंकि लड़कियों का किसी भी परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन अभी भी पुरुष आधिपत्य वाले समाज में अजूबा  माना जाता है . लेकिन इन हालात में तेज़ी से  बदलाव हो  रहा है . ज्यादातर मातापिता अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने की पेशकश  करने लगे हैं . लेकिन अभी बहुत कुछ होना बाकी है . अभी भी कई बार बातचीत में पुरातन मानसिकता वालों से भेंट होती रहती है . कई बार लोग  कहते पाए जाते हैं कि अब फलां का परिवार पूरा हो गया . इसका भावार्थ यह होता  है कि उनके यहाँ एक बेटी और एक बेटा जन्म ले चुका है . इसके पहले हमारे  गाँव में मैंने अक्सर सुना है कि फलां बहुत ही भाग्यशाली हैं क्योंकि उनके यहाँ जितनी भी औलादें हैं सब बेटे  ही हैं , बेटियाँ नहीं हैं.मैंने ऐसे बहुत सारे परिवार देखे हैं जहां अगर तीन चार बेटियाँ  जन्म ले लें तो  लोग बेटा पैदा होने की उम्मीद में और कई बेटियों को जन्म देते रहते हैं . परिवार नियोजन का उनका काम तब तक पूरा नहीं होता जब तक बेटा न जन्म ले ले .यह मानसिकता पुरातनपंथी  है और जहालत की कोख से जन्म लेती है. अपने बचपन में मैंने अपने गाँव में उस समय के जागरूक लोगों को बात करते सुना है कि जवाहरलाल नेहरू के यहाँ भी तो बेटी  ही हैं और वह सभी  मर्दों से भारी है लेकिन उनकी बात का कोई असर नहीं होता था.  पुत्र की आवश्यकता सबको होती थी . बेटियों के जन्म से ग्रामीण इलाकों में घबराहट का कारण शायद यह  भी था कि उनके विवाह के लिए लोगों को अपनी आर्थिक हैसियत से ज़्यादा का  दहेज देना पड़ता था . लडकी की  शिक्षा में भी कोताही बरती जाती थी क्योंकि माना जाता था कि लडकी ज्यादा पढ़ लिख जायेगी  तो पढ़ा लिखा लड़का उसकी शादी के लिए ढूंढना पडेगा और शिक्षित लड़के के  घर वाले ज्यादा दहेज़ की मांग करेंगे . मेरे अपने घर में लड़कियों की शिक्षा  नहीं के बराबर थी . जब मेरी मां मेरे साथ  कुछ दिन रहने के लिए दिल्ली आईं और उन्होंने सुना कि उस समय के सबसे महंगे स्कूल में मेरी बेटी पढने जाती है तो उन्होंने मुझसे  कहा  था कि ,” बेटा तुम तो एकदम बेवकूफ हो . बिटिया की पढ़ाई के लिए इतना ज्यादा खर्च कर रहे हो . वह तो पराया धन है ,  किसी और के घर  चली जायेगी .” यह बात उन्होंने  गाँव में भी जाकर बताई थी और उनकी बात को सही मानने वाले  भी मिल गए थे . मुझे बेवकूफ मानने वालों और बेटी को पराया धन मानने वालों  को  अपनी बात को सही साबित करने का एक और सबूत भी मिल गया था .  
इसलिए लड़कियों को उनका सही मुकाम तभी मिलेगा जब समाज में दहेज की समस्या ख़त्म होगी .  हाँ यह भी सच है कि  शिक्षित और जागरूक लडकियां अब दहेज लोभी लड़कों से शादी करने से इनकार  भी करने लगी हैं . कुल मिलाकर लडकियों की शिक्षा ऐसी चाभी है जिससे समाज में बड़े  बदलाव की उम्मीद की जा सकती है . जब यह मान लिया जाएगा कि लडकी हो या लड़का , शिक्षा सहित सभी क्षेत्रों में बराबरी का हक सबको है .तभी प्रगति के रास्ते खुलेंगे .
स्वाति मुंबई की एक उच्च मध्यवर्गीय सोसाइटी में घरों में काम करती है . दो बच्चियों की माँ है. हाड तोड़ मेहनत करती है . महाराष्ट्र के किसी ग्रामीण इलाके से आकर मुंबई में रहती है . उसकी कोशिश है कि उसकी बच्चियों का भविष्य बेहतर हो और उन्हें अपनी माँ की तरह पूरी मेहनत के बदले कम पैसों में काम करने के लिए मजबूर न होना पड़े . स्वाति को इस मकसद को हासिल करने के तरीके भी मालूम हैं . उसे मालूम है कि उच्च शिक्षा के बल पर उसकी बच्चियां अच्छी जिन्दगी जी सकेंगीं. इससे लिए वह स्कूल की फीस बढ़ने के साथ साथ और मेहनत करने लगती है.  नए घर पकड़ लेती है. महाराष्ट्र में लड़कियों की शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन का सबसे बड़ा साधन माना जाता है .लेकिन यह काम एक दिन में नहीं हुआ . आखिर स्वाति भी तो   महाराष्ट्र के  किसी गाँव में जन्म लेने वाली महिला है .उसकी शिक्षा दीक्षा का इंतज़ाम उसके मातापिता ने नहीं किया . जबकि महाराष्ट्र में लड़कियों की शिक्षा के क्षेत्र में बहुत सारे क्रांतिकारी काम डेढ़ सौ साल पहले से शुरू हो चुके हैं . वहां पेशवा की  राजधानी पुणे में  १८४८ में ही ज्योतिबा फुले ने दलित लड़कियों के लिए अलग से स्कूल खोलकर इस क्रांति का ऐलान कर दिया था . आज भी महाराष्ट्र में लड़कियों की इज्ज़त अन्य राज्यों की तुलना में कहीं अधिक है. यह परम्परा चली आ रही थी लेकिन बीच में मराठी मानूस के नारे के राजनीतिक इस्तेमाल के बाद लुम्पन लड़कों पर स्थानीय नेता ज्यादा जोर देने लगे .नतीजा यह हुआ आज़ादी के बाद  महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में लड़कियों की शिक्षा पर उतना ध्यान नहीं दिया गया जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान दिया गया था और जिसकी बुनियाद महात्मा फुले ने १८४८ में ही रख दी थी. . बहरहाल बच्चियों की शिक्षा को नज़र अंदाज़ करने के नतीजे महाराष्ट्र के नेताओं की समझ में आने लगे हैं . शायद इसीलिये सन २००० के बाद की कांग्रेसी नेतृत्व वाली सरकारों ने लड़कियों की शिक्षा को महत्व  देना एक बार फिर शुरू कर दिया . यातायात विभाग के निर्देश पर  सवारी और माल  ढोने वाले वाहनों पर “ मुलगी शिकली ,प्रगती झाली “ लिखना अनिवार्य कर दिया गया . . सरकारी तौर पर एक अभियान चलाया जा रहा है जिसके तहत प्रचार किया जा रहा है कि अगर लडकी शिक्षित होगी तभी प्रगति होगी.इस अभियान का फर्क भी पड़ना शुरू हो गया है. यह मानी हुई बात है कि तरक्की के लिए शिक्षा की ज़रुरत है. और परिवार की तरक्की तभी होगी जब मां  सही तरीके से शिक्षित होगी.


इस बात में दो राय नहीं है कि मोटे तौर पर महाराष्ट्र लड़कियों की शिक्षा के मामले में देश के अन्य राज्यों से बेहतर है और उसको अन्य राज्यों को प्रेरणा के लिए इस्तेमाल करना चाहिए ..उत्तर भारत के बड़े राज्यों, बिहार और उत्तर प्रदेश के उदाहरण से बहुत अच्छी तरह से समझी जा सकती है. यहाँ पर लड़कियों की शिक्षा लड़कों की तुलना में बहुत कम है .शायद इसी वजह से यह राज्य देश के सबसे अधिक पिछडे राज्यों में शुमार किये जाते हैं . इन इलाकों में रहने वाले मुसलमानों की बात तो और भी चिंता पैदा करने वाली है. आख़िरी पैगम्बर ,हज़रत मुहम्मद ने फरमाया था कि शिक्षा इंसान के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ है. आपने कहा था कि अगर इल्म के लिए उन्हें चीन भी जाना पड़े तो कोई परेशानी वाली बात नहीं है. इसका मतलब यह है कि मुसलमान को शिक्षा पर सबसे ज्यादा ध्यान देना चाहिए लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है. कम से कम उत्तर प्रदेश और बिहार के मुसलमान शिक्षा के क्षेत्र में सबसे ज्यादा पिछडे हुए हैं . उनके इस पिछडेपन का एक बड़ा कारण यह है कि इन इलाकों में मुसलमानों की लड़कियों की शिक्षा का कोई इन्तजाम नहीं है. जो बात समझ में नहीं आती , वह यह कि जब पैगम्बर साहेब ने ही तालीम पर सबसे ज्यादा जोर दिया था तो उनके बताये रास्ते पर चलने वाले शिक्षा के क्षेत्र में इतना पिछड़ क्यों गए. सब को मालूम है कि अगर लडकियां शिक्षित नहीं होंगी तो आने वाली नस्लें शिक्षा से वंचित ही रह जाएँगीं, इसलिए मुसलमानों के सामाजिक और धार्मिक नेताओं को चाहिए कि वह ऐसी व्यवस्था करें जिस के बाद उनकी अपनी बच्चियां अच्छी शिक्षा हासिल कर सकें.दिल्ली में आयोजित एक सेमिनार में यह बात सामने आई कि मुसलमानों में आधुनिक और तकनीकी शिक्षा के लिए कोई ख़ास कोशिश नहीं हो रही है. सबको मालूम है  कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना के बाद , उत्तर भारत में मुसलमानों ने आधुनिक और वैज्ञानिक शिक्षा के लिए कोई भी अहम पहल नहीं की है. लड़कियों की  शिक्षा के क्षेत्र में अगर कोई सही पहल की जाए तो धार्मिक नेता आगे आकर उसका विरोध करते हैं और औरतों को अपने ऊपर निर्भर बनाए रखने की हर  कोशिश करते हैं .केरल के राज्यपाल आरिफ मुहम्मद खान एक राजनीतिक और सामाजिक नेता भी हैं . उन्होंने अपने  एक लेख में लिखा है  कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक और क्रांतिकारी शिक्षाविद , सर सैय्यद अहमद खान को भी  उस वक़्त के धार्मिक नेताओं ने खुशी से स्वीकार नहीं किया था . इसलिए मुसलमानों और समाज की तरक्की के लिए ज़रूरी है कि अर्जेंट आधार पर लड़कियों की शिक्षा के लिए समाज और काम के नेता ज़रूरी पहल करें वरना बहुत देर हो जायेगी.
ज्योतिबा फुले ने लड़कियों की शिक्षा को एक क्रांतिकारी कार्यक्रम की तरह चलाया था . आज भी वही ज़रूरत है क्योंकि यथास्थितिवादी समाज से कोई भी सहयोग नहीं मिलेगा .महाराष्ट्र का उदाहरण ही देखा जा सकता है . वहां लड़कियों की शिक्षा की क्रान्ति के सूत्रधार ज्योतिबा फुले को भी उनके पिता जी ने घर से निकाल दिया था जब उन्होंने १८४८ में दलित लड़कियों के लिए पहला स्कूल पुणे में खोला था. आज के समाज, खासकर मुस्लिम समाज में ऐसे लोगों को आगे आने की ज़रुरत है जो सर सैय्यद की तरह आगे आयें और समाज को परिवर्तन की राह पर डालने की कोशिश करें. आगर समाज के हर वर्ग की महिलायें शिक्षित होंगी तभी देश की सामाजिक और आर्थिक प्रगति होगी 

अमरीकी नागरिक अधिकारों के चैंपियन जॉन लुईस नहीं रहे


शेष नारायण सिंह  

अमरीका में नागरिक अधिकारों के बड़े चैंपियन, जॉन राबर्ट लुईस नहीं रहे . अस्सी साल की उम्र में उनका देहांत हुआ . उनको कैंसर था.  सभी जीवित अमरीकी पूर्व राष्ट्रपतियों ने उनकी मृत्यु पर शोक सन्देश भेजा  है लेकिन ट्विटर पर हमेशा मौजूद रहने वाले वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अभी तक कुछ नहीं कहा है . वे गोल्फ खेल रहे  हैं .

अमरीका में काले लोगों के खिलाफ बहुत ही विद्वेषपूर्ण रवैया अपनाया जाता था , १९६४ तक उन लोगों को वोट देने का अधिकार तक नहीं था, बसों में अलग सेक्शन होता था .कैंटीनों में उनके खाने के लिए अलग जगह तय रहा करती थी. बस के लिए इंतज़ार करते हुए उनको  गोरों से दूर रहना पड़ता था .  इस सब के खिलाफ १९६१ में दक्षिणी राज्य टेनेसी की राजधानी  नैशविल में एक आन्दोलन शुरू हुआ. उस आन्दोलन में अधिकतर नैशविल की फिस्क यूनिवर्सिटी के छात्र छात्राएं शामिल थे . इस आन्दोलन को दिशा देने का काम जेम्स लासन ने किया . तीन साल तक भारत में रहकर उन्होंने महात्मा गांधी के सत्याग्रह के राजनीतिक हथियार की बारीकियां समझ लीं थी .इसलिए जब जेम्स लासन ने काम शुरू किया तो उनका सबसे बड़ा हथियार महात्मा गांधी का सत्याग्रह था। इसके पहले अमरीका के अफ्रीकी मूल वाले नागरिक, मानवाधिकारों की लड़ाई के लिए हिंसक तरीके अपनाते थे लेकिन जेम्स लासन ने महत्मा गांधी की तरकीब अपनाई और लड़ाई सिविल नाफरमानी के सिद्धांत पर केंद्रित हो गई। वहां के क्लू, क्लास, क्लान के श्वेत गुंडों ने इन लोगों को बहुत मारा-पीटा, आतंक का सहारा लिया लेकिन लड़ाई चलती रही, शांति ही उस लड़ाई का स्थाई भाव था। इस  सत्याग्रही  संघर्ष में जॉन लुईस अगली कतार के नेता थे . उनके साथ जो ने लोग थे वे सभी बीस से पचीस वर्ष की आयु के बीच के ही  थे.

बाद में मार्टिन लूथर किंग भी इस संघर्ष में शामिल हुए और अमरीका में अश्वेत मताधिकार सेग्रेगेशन आदि की समस्याएं हल कर ली गईं। अमरीकी मानवाधिकारों को दबा देने की कोशिश कर रहे सभी अश्वते गुंडे आतंक का सहारा ले रहे थे  आतंकवाद को राजनीतिक हथियार बनाने वाले व्यक्ति का उद्देश्य हमेशा राजनीतिक होता है और वह भोले भाले लोगों को अपने जाल में फंसाता है. जॉन लुईस के साथियों ने आतंक का विरोध किया और अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉन केनेडी की मदद से ऐसे  क़ानून बनवाने में सफलता पाई जो कि किसी भी सभी समाज के लिए ज़रूरी होते हैं.

जॉन  लुईस बाद में चुनावी राजनीति में शामिल हुए और डेमोक्रेटिक पार्टी की तरफ से जार्जिया से अमरीकी संसद की प्रतिनिधि सभा के सदस्य रहे . पहली बार १९८७ में जीते थे तब से लेकर  १७ जुलाई  २०२० को अपनी मृत्यु तक वह सीट लगातार जीतते रहे .

वे बहुत ही शिष्ट और  विनम्र व्यक्ति थे. उन्होंने  अहिंसा का रास्ता अपनाया और सिविल  नाफ़रमानी के राजनीतिक अधिकार से अमरीका के इतिहास को बदल कर रख दिया “

Wednesday, July 15, 2020

राजस्थान में मध्यप्रदेश जैसा करिश्मा नहीं हुआ, सचिन पायलट की राजनीति की दिशा तय नहीं


शेष नारायण सिंह


राजस्थान की राजनीति में अनिश्चित्तता का दौर जारी है. अभी तक की स्थिति यह है कि बागी नेता ,सचिन पायलट को अपनी टीम को संभालकर रखना ख़ासा कठिन काम लग रहा है . बीजेपी से उनको कोई ख़ास मदद नहीं मिल रही है . बीजेपी ने अपनी स्थिति स्पष्ट कर दिया है कि उसके दरवाज़े सब के लिए खुले हैं . यानी अगर कोई भी पार्टी में भर्ती होना चाहे तो उसका स्वागत है . कोई भी राजनीतिक पार्टी  किसी को भी अपनी पार्टी में स्वागत करती रहती है क्योंकि जनता के समर्थन के बल पर सत्ता में आने वाली पार्टी को यह दावा तो करना ही पडेगा . लगता है कि बीजेपी के आला नेताओं की समझ में बात आ गयी है कि राजस्थान की सरकार को गिरा पाना सचिन पायलट के बूते की बात नहीं है. इसलिए उनको साथ लेकर वे कुछ ख़ास हासिल करने वाले नहीं हैं . यह अलग बात है कि   अशोक गहलौत और सचिन पायलट के झगडे  में  बीजेपी को  बड़ा फायदा हुआ है. सचिन पायलट के पांच साल के परिश्रम के बाद कांग्रेस वहां इतनी मज़बूत हो गयी थी कि राज्य  की   बीजेपी की  सरकार को हरा दिया था. उस जीत को सचिन पायलट के दोस्तों ने केवल उनकी जीत के रूप में पेश करना शुरू कर दिया लेकिन सच्ची बात यह है कि वह जीत उनके कठिन परिश्रम के साथ साथ  कांग्रेस पार्टी के संगठन और वसुंधरा सरकार की दस साल की कमियों के कारण भी हुयी थी. कांग्रेस में रिवाज़ है कि जब पार्टी कहीं चुनाव हार जाती है तो उसका ज़िम्मा स्थानीय पार्टी को दिया जाता है और जीत का सेहरा इंदिरा गांधी के परिवार को मिलता है . उसी फारमूले के तहत राजस्थान में पार्टी की जीत का श्रेय राहुल गांधी ने लिया और सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने के अपने वायदे को लागू  करने की कोशिश  शुरू कर दी लेकिन सोनिया गांधी और दिल्ली में उनके आसपास रहने वाले कांग्रेसी नेताओं ने दखल दिया और अपने पुराने जांचे परखे साथी अशोक गहलौत को मुख्यमंत्री बनवा दिया .उसी दिन दोनों नेताओं में झगडे  के बीज बो दिए गए थे .  आज उस झगडे का फल पब्लिक  डोमेन में आया है ,. डेढ़ साल बाद सचिन पायलट की नाराजगी  ऐसी बगावत का रूप ले चुकी है जिससे कांग्रेस को राजस्थान में भारी  नुकसान हो सकता है.
  मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार के  पतन में पूर्व कांग्रेसी ज्योतिरादित्य  सिंधिया की भूमिका और  बीजेपी से  जो लाभ उनको मिला है , वह  कांग्रेस से नाराज़ किसी भी ताकतवर नेता के लिए बहुत ही उत्साहवर्धक माना जा रहा है.  ज्योतिरादित्य सिंधिया को बीजेपी में शामिल होने से बहुत ही अधिक फायदा  हुआ है. वे लोकसभा की अपनी सीट हार चुके थे, आज राज्यसभा में हैं . तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ उनको हाशिये पर डाल चुके थे , सरकार के  किसी भी फैसले को प्रभावित कर पाने की उनकी  कोई  हैसियत नहीं रह गयी थी . आज  बीजेपी की शिवराज सिंह चौहान सरकार में वे एक ताक़तवर केन्द्रीय नेता  हैं. सरकार में  अपने ख़ास लोगों को न केवल जगह दिलवाई  , बल्कि अपने लोगों को महत्वपूर्ण विभाग भी दिलवा दिया .  शायद यही सोच सचिन पायलट की भी थी.

अशोक गहलौत से नाराज़ होकर जब सचिन पायलट दिल्ली आये तो उनकी ज्योतिरादित्य सिंधिया से हुई मुलाक़ात से सत्ता के गालियारों में यह अंदाज़ तो लग गया था कि सिंधिया उनकी  मदद कर रहे हैं लेकिन बीजेपी के  शीर्ष नेताओं ने सचिन पायलट से मिलना ठीक नहीं समझा . बड़े नेताओं में उनकी मुलाकात  केवल ओम माथुर से ही हो  पाई . लेकिन उनके साथ जो पचीस विधायक थे उनको उम्मीद थी कि सचिन पायलट बीजेपी की मदद से राजस्थान में सत्ता पलट देंगे और उन लोगों को राजस्थान और कर्नाटक के बागियों की तरह ही मंत्री पद मिल जाएगा लेकिन यह एक मुश्किल संभावना थी. कर्नाटक और मध्य प्रदेश में जो  लोग पार्टी छोड़ रहे थे वे मंत्री पद ही  छोड़ रहे थे और मंत्री बने रहना ही उनका मकसद था .  बीजेपी ने उन सबको बी एस येदुरप्पा  और शिवराज सिंह चौहान की सरकारों में मंत्री बना दिया .  जो उनके पास था वही  या उससे भी बेहतर विभाग भी मिल गया . मध्यप्रदेश में उनके नेता , सिंधिया जी  जो किसी भी सदन में  नहीं थे , उनको राज्यसभा की सदस्यता मिल गयी. लेकिन राजस्थान में मामला थोडा  अलग था .  वहां तो बगावत के नेता सचिन पायलट उप मुख्यमंत्री और पार्टी के अध्यक्ष  पहले से ही थे . उनको तो मुख्यमंत्री की कुर्सी चाहिए थी . यह असंभव था . पूर्वोत्तर राज्यों की बात छोड़ दें तो जहां बीजेपी के  प्रभाव वाले राज्य हैं , वहां पार्टी बाहर से आये लोगों को साथ तो ले लेती है लेकिन उनको राज्य की सरकार की  कमान कभी नहीं सौंपती . इसका मतलब यह हुआ कि अगर सचिन पायलट  जोड़तोड़ करके गहलौत सरकार को अपदस्थ भी कर लेते तो उनको बीजेपी की तरफ से मुख्यमंत्री बनाये जाने की कोई संभावना नहीं थी. वसुंधरा राजे वहां हैं ही , पार्टी गंजेंद्र सिंह   शेखावत को भी  बड़ी ज़िम्मेदारी  के लिए तैयार कर रही है . दूसरी बात यह थी कि सचिन पायलट की विश्वसनीयता भी बीजेपी की नज़र में अभी इतनी नहीं है कि उनको बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी दी जा सके . पार्टी में यह भी विचार  किया जा रहा है कि जिस कांग्रेस में उनके परिवार को इंदिरा गांधी ,  संजय गांधी ,राजीव गांधी , सोनिया गांधी और राहुल गांधी की विशेष कृपा थी , उसी पार्टी को वे तोड़ने के लिए उद्यत हैं तो उनको बीजेपी जैसी अनुशासन वाली पार्टी में असुविधा हो सकती थी . इंदिरा गांधी ने  सचिन पायलट के पिता राजेश पायलट को   लोकसभा का टिकट दिया .  राजीव गांधी ने मंत्री बनाया . जब पी वी  नरसिम्हाराव की सरकार बनी तो सोनिया गांधी ने उनको कैबिनेट मंत्री बनवाया . डॉ मनमोहन सिंह की सरकार में राहुल गांधी और सोनिया गांधी की कृपा से सचिन पायलट भी मंत्री रहे . एक राज्य का पूरा ज़िम्मा उनको दे दिया . उपमुख्यमंत्री बनवाया . जब  वे उस परिवार को छोड़ सकते हैं तो बीजेपी से तो उनका रिश्ता  एक   विरोधी का ही रहा है . राजस्थान विधानसभा के चुनावों में उन्होंने बीजेपी पर बहुत भी ज़बरदस्त हमला किया था. राज्य के बहुत सारे नेता मानते हैं कि सचिन पायलट के कारण ही उनको विधानसभा में हार का मुंह देखना पडा था. इसलिए बीजेपी में उनकी  सम्मानजनक पोजीशन बनने की संभावना  बहुत  कम थी. अगर वे ज्योतिरादित्य सिंधिया की बराबरी कर रहे थे तो गलत कर रहे थे . सिंधिया परिवार से बीजेपी , जनसंघ और आर एस एस का बहुत ही प्रगाढ़ रिश्ता रहा है . १९४८ से लेकर अब तक उनका परिवार संघ के बड़े नेताओं  से  जुड़ा रहा है . जबकि सचिन पायलट के पिता और  स्वयं वे आर एस एस/बीजेपी के घोर विरोधी रहे हैं . ऐसी हालत में बीजेपी में उनको  वह मुकाम  नहीं मिल सकता जो उनको  कांग्रेस में मिला हुआ है .


अशोक गहलौत के भारी पड़ने के बाद सचिन पायलट को कमजोर करने के लिए कांग्रेस ने सारे घोड़े खोल  दिए  हैं.   सचिन पायलट को उम्मीद थी कि  कांग्रेस के नेताओं से उनको समर्थन मिलेगा लेकिन कोई ख़ास नेता उनके साथ नहीं आया .  प्रिया दत्त , संजय झा और संजय  निरुपम ने उनके पक्ष में ट्वीट तो किया लेकिन उनकी अपनी ही हैसियत कांग्रेस में फिलहाल कुछ नहीं है . कांग्रेस के ताक़तवर लोग उनके खिलाफ हैं . राजस्थान विधानसभा के स्पीकर एन सी जोशी ने  उनके साथियों से जवाब  तलब कर लिया  है . अब उनके साथियो में भी यह डर समा  गया है कि कहीं विधानसभा की सदस्यता ही न ख़त्म हो जाए. क्योंकि अगर सदस्यता  ख़तम हुई तो उपचुनाव जीतना बिलकुल आसान नहीं होगा क्योंकि बीजेपी में शामिल होने की संभावना  भी शून्य के बराबर हो गयी है . सचिन पायलट ने खुद ही पी टी आई को बता दिया है कि  राजस्थान के कुछ नेता इस बात को हवा दे रहे  हैं कि मैं बीजेपी में शामिल हो रहा हूँ. लेकिन मैं बीजेपी में नहीं जा रहा हूँ. मैंने राजस्थान में  कांग्रेस को सत्ता वापस में लाने के लिए कठिन परिश्रम किया  है “ इस बयान से ऐसा लगता है कि अभी उनको कांग्रेस से उम्मीद बची हुई है .लेकिन एक बात तो तय  है कि उनको  कांग्रेस में वह मुकाम नहीं मिलने वाला  है जो पहले था. दूसरी पार्टी बनाने की बात सचिन पायलट ने कभी नहीं किया  है लेकिन दिल्ली में बैठे राजनीतिक विश्लेषक इस संभावना की बात भी कर रहे हैं . अगर ऐसी नौबत आई तो जो विधायक उनके साथ हैं उनमें  से ज्यादातर गहलौत वापसी पर  लेंगे क्योंकि नई पार्टी के बल पर चुनाव जीत पाना बहुत ही मुश्किल है .
ऐसी हालत में राजस्थान की तस्वीर अभी साफ़ तो  बिलकुल नहीं कही जा सकती लेकिन एक  बात भरोसे के साथ कही जा सकती है कि  राजस्थान में वह नहीं हो सका जो मध्यप्रदेश में संभव हो गया था .  मध्यप्रदेश में कांग्रेस को डुबोने वाले नेता तो बीजेपी में सम्मानजनक तरीके से  व्यवस्थित हो गए लेकिन राजस्थान में कांग्रेस की सरकार को अपदस्थ करने की  मुहिम में जुटे पूर्व कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष और कांग्रेस विधायक अभी अधर में हैं , उनके राजनीतिक जीवन में अस्थिरता  का राज है .

Thursday, July 9, 2020

कानपुर में अपराधी ने पुलिस वालों की हत्या करके लोकतंत्र के बुनियादी मूल्यों को चुनौती दी है



शेष नारायण सिंह

कानपुर  जिले के चौबेपुर  पुलिस थाने के  एक गाँव में अपना काम करने गए पुलिस वालों पर  हुए जानलेवा हमले ने अपराध राजनीति, पुलिस , राजकाज और कानून व्यवस्था से जुड़े बहुत सारे मामलों को एक बार  फिर बहस के दायरे में ला दिया है .   अपराधी तत्वों ने दबिश देने गयी पुलिस पार्टी पर हमला किया .इस हमले में आठ पुलिस वालों की मृत्यु हो गयी और सात घायल अवस्था में अस्पताल में हैं  . पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से अपराधियों के हौसले  बढे हैं उसमें इस तरह की  घटनाओं से ताज्जुब नहीं होता लेकिन चौबेपुर की घटना में पुलिस वालों ने जिस तरह से अपने लोगों के खिलाफ अपराधी की मुखबिरी की वह  बहुत बड़ी अनहोनी है. चौबेपुर थाने के इंचार्ज दरोगा ने अपने ही साथियों  को एक वांछित अपराधी के जाल में धकेल दिया .  अजीब बात यह है कि उस दरोगा के ऊपर बड़े अफसरों के हाथ होने की बात के भी सबूत मिलना शुरू हो गए हैं . अब उस दरोगा को गिरफ्तार करके आगे की जाँच का काम शुरू हो चुका है .  चौबेपुर थाने में तैनात सभी पुलिस कर्मचारियों को थाने से हटा लिया गया है और सभी संदेह के घेरे में  हैं . कानपुर महानगर के तत्कालीन वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक को भी जांच एजेंसियां  शक के घेरे में ले चुकी हैं. उत्तर प्रदेश में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक जिले का सबसे बड़ा पुलिस अधिकारी होता है . जिले का पुलिस प्रशासन  , कानून व्यवस्था सब उसकी सीधी ज़िम्मेदारी होते हैं . खबरें तो यह भी आ आ रही  हैं कि चौबेपुर हत्याकांड का सरगना विकास दुबे जिले के आला पुलिस अधिकारी का  कृपापात्र था . शायद इसीलिये उस अधिकारी की भूमिका भी संदेह का विषय है .पता चला है कि प्रदेश की सत्ताधारी पार्टी समेत कई पार्टियों के नेताओं से  पांच लाख रूपये के इनामी बदमाश विकास दुबे के क़रीबी सम्बन्ध हैं .
विकास  दुबे को बचाने के लिए लखनऊ के ताक़तवर लोगों का एक वर्ग सक्रिय हो गया है. इतने दुर्दांत  अपराधी के पक्ष में खड़े इन लोगों की  मौजूदगी ही इस बात का सबूत है कि उत्तर प्रदेश में अपराध, राजनीति, भूमाफिया, पुलिस ,पत्रकारिता और नौकरशाही का सब घालमेल हो गया है . यह मामला केवल उत्तर प्रदेश का नहीं है .कई राज्य सरकारों में ऐसे मंत्री हैं जो  स्वयं ही कई घृणित अपराधों के मुलजिम हैंकई मंत्रियों पर हत्यालूटडकैतीबलात्कारआगजनी जैसे मुकदमे चल रहे हैं। लेकिन वे सरकार में  बने हुए हैं क्योंकि  लोकतंत्र में मंत्री ही सत्ता का मुखिया होता हैवही सरकार होता है।अगर वह अपराधी है तो लोकतंत्र के तबाह होने के खतरे बढ़ जाते हैं। लोक प्रतिनिधित्व कानून और संविधान में ऐसे प्रावधान नहीं हैं कि किसी अपराधी को चुनाव लडऩे से रोका जा सके। बाद में कुछ संशोधन आदि करके बात को कुछ संभालने की कोशिश की गई है लेकिन वह अपराधियों को संसद या विधानसभा में पहुंचने से रोकने के लिए नाकाफी है। दरअसल संविधान के निर्माताओं ने यह सोचा ही नहीं रहा होगा  कि एक दिन ऐसा भी आएगा कि अपराधी भी चुनाव लडऩे लगेगा। उनकी सोच थी कि अव्वल तो अपराधी चुनाव लडऩे की हिम्मत ही नहीं करेगा और अगर लड़ता भी है तो जनता उसे नकार देगी
पिछले चालीस साल के देश के चुनावी इतिहास पर नज़र डालें तो साफ़ समझ में आ  जाएगा की हमारे संविधान के निर्माताओं और स्वतन्त्रता  संग्राम के सेनानियों की यह उम्मीद पूरी नहीं हुयी .  जातिपांत के दलदल में फंसे समाज में अपराधी स्वीकार्य होने लगा और एक समय तो ऐसा आया कि विधानसभाओं  में बड़ी संख्या में अपराधी पहुंचने लगे। इन अपराधियों के पौ बारह तब  हो गए जब गठबंधन की सरकारें बनने लगीं . हर विधायक के वोट की कृपा पर सरकारें आश्रित हो गयीं . ऐसी  हालत में राजकाज  का स्तर बुरी तरह से प्रभावित हुआ . अपराधी के लिए सबसे बड़ा ख़तरा पुलिस से ही होता था. लेकिन जब उसी अपराधी की सरकार बन गई तो  पुलिस पर धौंसपट्टी का काम शुरू हो गया .नतीजा यह हुआ कि पुलिस उन अपराधी राजनेताओं की चेरी बन गई . पुलिस अपनी  सेवा की शर्तों के हिसाब से काम नहीं कर सकी . सबको मालूम है कि जब पुलिस का अधिकारी नौकरी में आता है तो संविधान का पालन करने की शपथ लेता है ,किसी नेता की चापलूसी करने की शपथ नहीं लेता लेकिन नेताओं की हां में हां मिलाने वालों की पुलिस फोर्स में हो रही भरमार की वजह से पुलिस के कुछ लोग अपराधी-नेता के साथ संलिप्त हो गए और ऐसे ऐसे  काम करने लगे जो अक्षम्य अपराध की श्रेणी में आते हैं।


अपने देश के  कई   राज्यों में में पुलिस प्रशासन की हालत बहुत खराब है। उत्तर प्रदेश का ही उदाहरण  लिया जा सकता है .राज्य में पुलिस की लीडरशिप को कमज़ोर करने का सिलसिला  तब शुरू हुआ जब बहुत बड़ी संख्या में अपराधी लोग  विधायक बन गए. यह काम 1980 के विधानसभा चुनाव के बाद शुरू हुआ था . 1977 में जब उत्तर  भारत से कांग्रेस का सफाया हो गया तो बहत बड़ी संख्या में कांग्रेस के नेता पार्टी छोड़ गए . नतीजा या हुआ कि कांग्रेस ने हर इलाके के प्रभावशाली लोगों को साथ ले लिया और उनको टिकट भी दिया . उन प्रभावशाली लोगों में अपराधी भी बड़ी संख्या में थे . 80 के चुनाव में उत्तर भारत में फिर कांग्रेस की ज़बरदस्त वापसी हुई . इन नेताओं ने  राजकाज और गवर्नेंस के स्तर को बहुत नीचे  गिराया . अपराध की परिभाषा में भी ज़बरदस्त बदलाव हुआ.  अपराध की पृष्ठभूमि से आये नेताओं की पुलिस प्रशासन से उम्मीदें अलग तरह की थीं .  इसलिए अपराध  कम करने के लिए इंगेजमेंट के नियमों की धज्जियां उड़ने लगीं . अपराध को खतम करना प्राथमिकता की सूची से खिसक गया और  अपराधियों को खत्म करना  प्राथमिकता हो गया . वह अपराधी आम तौर पर सत्ताधारी नेता के दुश्मन हुआ करते थे.  अपराधियों को ख़त्म करने के लिए नए तरह के प्रयोग होने लगे .फर्जी मुठभेड़ का सहारा लिया जाने लगा . कुछ मामलों में तो अपराधियों से ही दूसरे अपराधी को मरवाने का रिवाज़ शुरू हो गया .पुलिस सिस्टम में नई  परिपाटी भी शुरू हो गयी . आउट ऑफ टर्न प्रमोशन की कल्चर शुरू हो गयी . इसके तहत अपराधी को मारने वाला प्रमोशन पा जाता है। कई बार उसे पुरस्कार भी मिल जाता है।

 लेकिन अब माहौल बदल चुका  है .अब पुलिस में कुछ ऐसे लोग भर्ती हो गए  हैं जिनको आउट ऑफ़ टर्न  प्रमोशन नहीं चाहिए . वे सीधे अपराधी से मिलकर धन इकठ्ठा करते हैं और अपराध से मिलने वाली कमाई के ज़रिये ऐश  करते हैं . उनकी  इस मानसिकता के कारण देश की राजकाज की पद्धति खतरे के दायरे में आ चुकी है . इससे बचने की ज़रूरत को सर्वोच्च प्राथमिकता  दी जानी चाहिए वरना देश क्रिमिनल  गवरनेंस  कि लपेट में आ जाएगा  जो देश के लिए बहुत ही चिंता की  बात है .कुछ देश  क्रिमिनल  गवर्नेंस के बोझ के नीचे आ चुके हैं और अपने देश को तबाह कर चुके हैं .  संयुक्त राष्ट्र में भी इस मामले पर चिंता  जतायी जा चुकी है . संयुक्त राष्ट्र में दुनिया के देशों में अपराधहीन समाज की स्थापना के कार्यक्रम में जिस बात  पर सबसे ज्यादा जोर दिया जाता है वह यह है कि सत्ता की बाग़डोर अपराधियों के हाथ में न जाने पाए . कुछ वर्ष पहले तक अफगानिस्तान की तालिबान और कोलंबिया के नशे और ड्रग के कारोबार वाले लोगों की सत्ता को क्रिमिनल गवर्नेस के उदाहरण के तौर पर बताया जाता था. लेकिन अब यह  ' क्रिमिनल  गवर्नेंस ‘ वाली बात पूरी दुनिया में फैल रही है . पाकिस्तान में भी जिस तरह से उदारवादी विचारों वाले लोगों को चुन चुन कर  मारा  जा रहा  हिया ,उस से साफ़ संकेत मिलते हैं कि अब पाकिस्तान में भी  ' क्रिमिनल  गवर्नेंस का राज आ चुका है . धार्मिक बुनियाद पर जिस तरह से पाकिस्तानी फौज़ का अपराधीकरण हुआ है ,वह निश्चित रूप से चिंता का विषय है . अफ्रीका के ज्यादातर देश इसी  ' क्रिमिनल  गवर्नेंस ' के शासन के शिकार हुए हैं . लेकिन यह बात देखना ज़रूरी है कि सत्ता एक दिन में अपराधी नहीं हो जाती . उसके  लिए ज़रूरी है कि  जनता कई दशक तक इस बात से बेफिक्र रहे कि कौन राज करने आ रहा है . कोई नृप होइ हमैं  का हानी की मानसिकता देश में अपाधियों को सत्ता के केंद्र में ला देती है .उत्तर प्रदेश के चौबेपुर थाने का  हिस्ट्रीशीटर विकास दुबे इसी मानसिकता की पैदावार है .  साठ के दशक तक अपराधी चोरी छुपे नेताओं के यहाँ जाते थे. उनका सबसे बड़ा काम यह होता था कि मुकामी दरोगा से यह कह दिया जाय कि जब वह अपराधी पकड़ा जाय तो उसकी पिटाई न हो . लेकिन सत्तर के दशक में अपराधियों की भर्ती भी शुरू हो गयी. नतीजा यह हुआ कि जो अपराधी नेता के पीछे रहता था ,वह आगे आ गया और असली नेताओं को अपने टिकट के लिए उसी अपराधी के दरबार में हाजिरी देनी पड़ने लगी . अपराधी  प्रवृत्ति के लोग सत्ता के केंद्र में हैं और हर पार्टी में हैं .  पिछले तीस वर्षों के  अपराधों में राजनीतिक नेताओं के शामिल होने की घटनाओं पर एक नज़र डालें तो समझ में आ जाएगा कि देश की राजनीति क्रिमिनल  गवर्नेंस की दिशा में तेज़ी से  बढ़ रही है . जरूरत इस बात की है कि इस देश का बहुत बड़ा मध्य वर्ग सामने आये और  अपने भविष्य को सुधारने के यज्ञ में शामिल हो जाए. राजनीति में अपराधियों के प्रवेश को रोकने का सबसे आसान तरीका यह है कि अगर कोई राजनीतिक पार्टी किसी अपराधी को जिताऊ उम्मीदवार बनाकर मैदान में उतारे तो उसको हरा दे . लेकिन इसके लिए  जाति, धर्म  आदि को भुलाकर योग्य उम्मीदवार को चुने . आगर ऐसा न हुआ तो सत्ता में बैठे आपराधिक  पृष्ठभूमि के राजनेता अपराधियों के ज़रिये आतंक का राज कायम करने में सफल होंगे और देश का बहुत नुक्सान होगा .

चंद्रशेखर की नसीहत - धर्मनिरपेक्षता आज़ादी की लड़ाई की विरासत है उसको संभाल कर रखना चाहिए

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शेष नारायण सिंह 


अख़बारों में तो नहीं लेकिन सोशल मीडिया में स्व चंद्रशेखर का ज़िक्र छाया हुआ  है .उनकी मृत्यु को तेरह साल हो गए . तब तो नहीं लेकिन अब समझ  में आने लगा है कि उनके साथ ही एक बहुत बड़ी लोकशाही मूल्यों की परम्परा भी चली गयी . चंद्रशेखर मूल रूप से   सोशलिस्ट थे. इलाहबाद विश्वविद्यालय के छात्र के रूप में  १९५० में आचार्य नरेंद्र देव के संपर्क में आये और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी ( प्रसोपा) के सदस्य हो .लेकिन जब १९५५ में कांग्रेस ने सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ़  डेवलपमेंट का प्रस्ताव अपने अवाडी कांग्रेस में पारित किया तो समाजवादियों में कांग्रेस के प्रति आकर्षण शुरू हो गया . उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष उच्छंग राय ढेबर थे .  नेहरू के मित्र थे .माना जाता  है यह प्रस्ताव जवाहरलाल नेहरू के कारण ही पास  हुआ था क्योंकि १९५१ से १९५ तक वे ही कांग्रेस अध्यक्ष रह चुके थे . बाद  १९५६ में संसद में भी सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ़   सोसाइटी की स्थापना के लिए प्रस्ताव पारित हुआ और भारत के विकास के लिए समाजवादी मूल्यों को स्थाई भाव के रूप में स्वीकार कर लिया गया . सोशलिस्ट  पार्टी वैसे भी कांग्रेस की कोख से ही जन्मी थी . १९३४ में कांग्रेस में प्रभावशाली हो रहे पुरातन पंथी सोच के नेताओं पर नियंत्रण रखने के लिए कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना हो गयी थी. यह अलाग से कोई पार्टी नहीं थी . कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में आचार्य नरेंद्र देव , राम मनोहर लोहिया , जयप्रकाश नारायण और ई एम एस नम्बूदिरीपाद जैसे बड़े समाजवादी शामिल थे . उस वक़्त के अखबारों को देखने से पता लगता   है कि जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस भी इस फोरम को समर्थन देते थे . हालांकि वे लोग इस मंच में औपचारिक रूप से शामिल नहीं हुए थे.
कांग्रेस और आज़ादी की लड़ाई  के कार्यक्रमों में  समाजवादी तरीके से विकास कांग्रेस के कराची अधिवेशन में १९३१ में ही स्वीकार कर लिया गया था. उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष सरदार वल्लभभाई पटेल थे . बाद में उनकी समाजवादियों से कोई सहानुभूति नहीं रही. इतिहास के जानकार बताते हैं कि कराची अधिवेशन का प्रस्ताव भी जवाहरलाल के कारण ही पास हुआ था क्योंकि सरदार के पहले १९२९ और १९३० में जवाहरलाल कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके थे . महात्मा गांधी  भी  उस  सम्मेलन में मौजूद थे . सबको मालूम है कि उनकी मर्जी के बिना उन दिनों कोई भी प्रस्ताव पास नहीं किया जा सकता था. 
१९५६ में जब भारतीय संसद ने सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ़ सोसाइटी की बाद की तो बहुत सारे समाजवादी नेता  अपनी पार्टी छोड़कर कांग्रेस में शामिल होने लगे . अशोक मेहता के नेतृत्व में समाजवादी नेताओं की बड़ी खेप कांग्रेस में शामिल हुई. उन दिनों आज की तरह गद्दी के लिए लोग पार्टी नहीं बदलते थे . जब अशोक मेहता और उनके साथियों की  समझ में आ गया  कि सत्ताधारी पार्टी ही उनके कार्यक्रमों को लागू करने के लिए तैयार है तो वे लोग कांग्रेस में शामिल हुए. उसी सिलसिले में नारायण दत्त तिवारी , चन्द्र शेखर आदि भी कुच्छ समय बाद कांग्रेस में शामिल हुए . बाद में  तो इंदिरा गांधी ने ४२वें संविधान संशोधन के ज़रिये सोशलिस्ट शब्द को संविधान की प्रस्तावना में भी डलवा दिया .हालांकि जब यह प्रस्ताव पास हुआ तो चन्द्र शेखर जेल में थे और कांग्रेस से निकाले जा  चुके थे .
चंद्रशेखर का व्यक्तिव  अपने देश में लोकशाही के  मूल्यों को याद रखने का एक बेहतरीन तरीका है . वे हमेशा लोकतंत्र की मान्यताओं के लिए संघस्ढ़ करते रहे . नेहरू की मृत्य के बाद कांग्रेस में जो राजनीतिक शक्तियां उभरने लगीं वे पूंजीवादी राजनीति को समर्थन करने वाली थीं. कांग्रेसी सिंडिकेट ने कांग्रेस की राजनीति को पूरी तरह से काबू में कर लिया . सिंडिकेट से इंदिरा गाँधी ने बगावत तो किया लेकिन वे भी पुत्रमोह के चलते आम आदमी की समस्याओं के पूंजीवादी हल तलाशने लगीं .नतीजा यह हुआ  कि चन्द्र शेखर जी को जय प्रकाश नारायण के  नेतृत्व में चल रहे तानाशाही विरोधी आन्दोलन का साथ देना पड़ा. चन्द्रशेखर हमेशा से ही धर्मनिरपेक्ष  राजनीति के पक्षधर रहे थे लेकिन अजीब इत्तेफाक है कि जिस साम्प्रदायिक राजनीति का चन्द्रशेखर जी  ने हमेशा ही विरोध किया था उसी राजनीति के पोषक लोग जेपी के आन्दोलन में बहुमत में थे.  गुजरात से लेकर बिहार तक आर एस एस वाले ही  कंट्रोल कर रहे थे . बाद में जो सरकार बनी उसमें भी आर एस एस की सहायक पार्टी जनसंघ वाले ही हावी थे. चन्द्रशेखर और मधु  लिमये ने आर एस एस को एक राजनीतिक पार्टी बताया और कोशिश की कि जनता पार्टी के सदस्य किसी और पार्टी के सदस्य न रहें . लेकिन आर एस एस ने जनता पार्टी ही तोड़ दी और अलग भारतीय जनता पार्टी बना ली. लेकिन चन्द्र शेखर ने अपने  उसूलों से कभी समझौता नहीं किया .
१९९० में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के विश्वासमत के प्रस्ताव पर  चंद्रशेखर का भाषण एक ऐहासिक दस्तावेज़ है .उस भाषण में ही उन्होंने कहा था कि देश की एकता और लोकशाही की  रक्षा के लिए धर्मनिरपेक्षता  बहुत ही ज़रूरी है . उन्होंने कहा कि मुझे  अत्यंत दुःख के साथ इस बहस में हिस्सा  लेना पड़  रहा है तो सदन में बैठे लोगों ने उस स्टेट्समैन के दर्द  का अनुभव किया था. गैलरी  में बैठे लोगों ने भी सांस खींच कर उनके भाषण को सुना. उन्होंने कहा कि जब ग्यारह महीने पहले हमने देश को बचाने के लिए बीजेपी से समझौता किया था .उस समय सोचा था कि  देश संकट में है ,कठिनाई में है और उस कठिनाई से निकलने के लिए सबको साथ मिलकर चलना चाहिए .उन्होंने अफ़सोस जताया कि  ग्यारह महीने पहले देश की जो दुर्दशा  थी ग्यारह महीने बाद उस से बदतर हो गयी थी. उन्होंने पूछा कि क्या यह सही नहीं है कि हमारे देश में आतंक  बढा है क्या यह सही नहीं है कि हमारे देश में विषमता बढ़ी है क्या यह सही नहीं है कि बेकारी बेरोजगारी,मंहगाई बढ़ी है ,,क्या यह सही नहीं है कि हमारे देश में सामाजिक तनाव बढ़ा है .क्या यह सही नहीं है कि पंजाब पीड़ा से कराह रहा है ,क्या यह सही नहीं है कश्मीर में आज वेदना है.क्या यह सही नहीं है कि असम में आतंक बढ़ रहा है ,क्या यह सही नहीं है कि देश के गाँव गाँव में धर्म और जाति के नाम पर आदमी ही आदमी के खून का प्यासा हो रहा  है . उन्होंने तत्कालीन प्रधान मंत्री से कहा कि संसद और देश को चलाना कोई ड्रामा नहींहै इसलिए गंभीरता  हर राजनीतिक काम के बुनियाद में होनी  चाहिए . 

लोकसभा के उसी  सत्र के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को हटा दिया गया था .चन्द्रशेखर जी ने साफ़  कहा कि सिद्धांतों की बात करने वाले  विश्वनाथ प्रताप सिंह धर्मनिरपेक्षता का सवाल क्यों नहीं उठाते.चन्द्रशेखर जी ने कहा कि धर्म निरपेक्षता मानव संवेदना की पहली परख है .  जिसमें मानव संवेदना नहीं है उसमें धर्मनिरपेक्षता नहीं हो सकती.इसी भाषण में चन्द्र शेखर जी ने बीजेपी की राजनीति को आड़े हाथों लिया था .  उन्होंने कहा कि मैं आडवाणी जी से ग्यारह महीनों से एक सवाल पूछना चाहता हूँ कि   बाबरी मस्जिद  के बारे में सुझाव देने  के लिए एक समिति बनायी गयीउस समिति से भारत के गृह मंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री को हटा दिया जाता है . बताते चलें  कि  उस वक़्त गृह मंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद थे और उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री मुलायम सिंह यादव थे. चन्द्र शेखर जी ने आरोप लगाया कि इन लोगों को इस लिए हटाया गया क्योंकि विश्व हिन्दू परिषद् के कुछ नेता उनकी सूरत नहीं देखना चाहते.क्या इस  तरह से देश को चलाना है . उन्होंने सरकार सहित बीजेपी -आर एस एस की राजनीति को भी घेरे में ले लिया और बुलंद आवाज़ में पूछा कि क्यों हटाये गए मुलायम सिंह क्यों हटाये गए मुफ्ती मुहम्मद सईद ,उस दिन किसने समझौता किया था चाहे वह समझौता विश्व हिन्दू परिषद् से हो ,चाहे बाबरी मस्जिद के सवाल पर किसी इमाम से बैठकर समझौता करो ,यह समझौते देश की हालत को  रसातल में ले जाने के लिए ज़िम्मेदार हैं .उन्होंने प्रधान मंत्री को चेतावनी दी कि आपकी सरकार जा सकती है , उस से कुछ नहीं बिगड़ेगा .लेकिन याद रखिये कि जो संस्थाएं बनी हुई हैं ,उनका अपमान आप मत कीजिये . क्या यही परंपरा है कि बातचीत को चलाने के लिए राष्ट्रपति के पद का इस्तेमाल किया  जाय .शायद दुनिया के इतिहास में ऐसा कहीं भी नहीं हुआ होगा.कभी ऐसा नहीं हुआ कि अध्यादेश लगाए जाएँ और २४ घंटों के अंदर उसको वापस ले लिया  जाए..उन्होंने कहा  कि यह तुगलकी मिजाज़ इस  देश को रसातल  तक पंहुचाएगा और देश को बचाने के लिए मैं तुगलकी मिजाज़ का विरोध करना अपना राष्ट्रीय कर्तव्य मानता  विश्वनाथ प्रताप सिंह ने  बीच में टिप्पणी कर दी और कहा कि सिद्धांत के चर्चे सरकारी पदों के गलियारों के नहीं गुज़रते हैं.चन्द्रशेखर जी ने कहा कि चलिए मुझे मालूम है .सिद्धांत संघर्षों से पलते हैं और संघर्ष करना जिसका  इतिहास नहीं है वह सिद्धांतों की बात करता है . मैं उन लोगोंमें से  नहीं हूँ जो कि अपनी गलती को स्वीकार ही न करें . उन्होंने  प्रधान मंत्री से कहा कि जिस समय आप कुर्सियों से चिपके रहने के लिए हर प्रकार के घिनौने समझौते  कर रहे थे उस समय संघर्ष के रास्ते चल कर मैं हर  मुसीबत  का मुकाबला कर रहा था. आप सिद्धांतों की चर्चा हमसे मत करें .


विश्वनाथ प्रताप सिंह को चंद्रशेखर की यह नसीहत देश के सभी शासकों के लिए एक दिशानिर्देश बन सकता है . आज की राजनीतिक स्थिति भी ऐसी  है जिसमें आज़ादी की लड़ाई के मूल्यों को संभालकर रखने की ज़रूरत है . उन मूल्यों में  सर्वधर्म समभाव को प्राथमिकता दी गयी थी .  सत्ताधारी पार्टी  की विचारधारा ऐसी हो सकती है जिसमें धर्मनिरपेक्षता को वह स्थान न दिया जाता हो जो स्वंतंत्रता संग्राम का मूल भाव था लेकिन देश की एकता और अखण्डता के लिए यह ज़रूरी  है कि सबको साथ लेकर चला जाए.