Saturday, August 30, 2014

बीजेपी की गुटबाज़ी सामने आयी ,प्रधानमन्त्री ने तिकड़मी नेताओं को चेतावनी दी


शेष नारायण सिंह
नयी दिल्ली, २९ अगस्त . भारतीय जनता पार्टी में शीर्ष स्तर पर मौजूद राजनीतिक खेमेबंदी के नतीजे सामने आना शुरू हो गए हैं . गृहमंत्री राजनाथ सिंह के खिलाफ जो खुसुर पुसुर अभियान चलाया गया था वह सफल नहीं हुआ और उस अफवाह का अभियान चलाने वालों को प्रधानमंत्री कार्यालय से जारी किये गए एक बयान में सख्त चेतावनी भी दे दी गयी है . बयान में कहा गया है कि ,"पिछले कुछ हफ़्तों से मीडिया के कुछ हिस्सों में प्रधानमंत्री का उल्लेख करने वाली,कुछ केंद्रीय मंत्रियों का हवाला देने वाली और गृहमंत्री के बेटे के कथित ग़लत आचरण का हवाला देने वाली रिपोर्टें आ रही हैं. ये सभी रिपोर्टें झूठी और प्रेरित हैं और सरकार की छवि ख़राब करने का दुर्भावनापूर्ण प्रयास हैं.". प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से जारी इस बयान में यह भी कहा गया है कि जो लोग ऐसी अफ़वाहें फैला रहे हैं वे देशहित को नुक़सान पहुँचा रहे हैं.
दिल्ली में रहने वाले पत्रकारों को मालूम है कि राजनाथ सिंह के खिलाफ यह अभियान कुछ केंद्रीय नेताओं की शह पर चलाया जा रहा था . अफवाह को हवा देने वालों में ज़्यादातर बड़े पत्रकार थे . मीडिया में अपने जान पहचान वालों को वे बताते पाए जाते थे कि राजनाथ सिंह के बेटे को प्रधानमंत्री ने बुलाकर  डांटा था . यह लोग यह भी प्रेरित करते थे कि जिस  रिपोर्टर से बात कर रहे हैं वह अपने अखबार में खबर को छाप दे लेकिन अपने अखबारों में नहीं छाप  रहे थे. योजना यह थी कि जिस दिन उत्तर प्रदेश विधान सभा के उपचुनावों के  टिकटों का ऐलान हो उसी दिन अखबारों में यह बात छप जाए कि राजनाथ सिंह के बेटे को टिकट न मिलने का कारण यही था. अब तक सब कुछ योजना के अनुसार चलता रहा लेकिन उसके बाद गड़बड़ हो गयी थी. इस अफवाह के प्रायोजकों को शायद अंदाज़ नहीं था कि प्रधानमंत्री अपने गृहमंत्री के सम्मान की रक्षा के लिए इतनी मजबूती से उतर पड़ेगें .
दिल्ली के सत्ता  के गलियारों में यह अफवाह राजनीतिक चर्चा में सुबह से ही आ गयी थी . उम्मीद यह थी कि सभी टी वी  चैनलों में शाम छः बजे से चर्चा इसी विषय पर होगी लेकिन उनकी योजना धरी की धरी रह गयी . दो बजे के पहले ही प्रधानमंत्री कार्यालय से बयान आ गया . उस बयान ने अफवाह के प्रायोजकों पर मर्मान्तक वार किया . अभी उस बयान से पैदा हुए घाव को लोग चाट ही रहे थे तब तक भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष ,अमित शाह की तरफ से भी एक बयान जारी हो गया .अमित शाह ने कहा कि जहां तक राजनाथ सिंह का सवाल हैवह हमारे सबसे वरिष्ठ मंत्री हैं। मैं अफवाहों की कड़ी निंदा करता हूं और व्यक्तिगत रूप से आहत महसूस करता हूं। बीजेपी अध्यक्ष ने कहा कि राजनाथ सिंह का राजनीतिक जीवन शालीनताविनम्रता और पवित्रता का प्रतीक है। उनके खिलाफ आरोप निराधारअसत्य हैं और पार्टी की छवि खराब करने के इरादे से लगाए गए हैं। उन्होंने यह भी दावा किया कि यह तरीका अपनाने वालों को पता होना चाहिए कि वे मोदी सरकार के विकास के एजेंडे को भटकाने में सफल नहीं हो पायेगें .
इस तरह से बीजेपी के आला नेताओं की आपसी लड़ाई का पहला राउंड निश्चित रूप से उन लोगों को सख्त सन्देश देने में सफल रहा है जो अफवाहों के बल पर राजनाथ सिंह को कमज़ोर करने की कोशिश कर रहे थे. लेकिन यह मान लेना भी जल्दबाजी होगी कि देश के शक्तिशाली पत्रकारों की दोस्ती की ताक़त रखने वाले बीजेपी के नेता हार मान लेगें . अभी उम्मीद की जानी चाहिए कि इसी तरह की और भी राजनीतिक फुलझड़ियाँ दिल्ली को गुलज़ार रखेगीं .

Thursday, August 28, 2014

सरकारी होटल की बिक्री में अफसरों की चोरी को सी बी आई ने पकड़ा

शेष नारायण सिंह 

अस्सी के दशक में इन्डियन एक्सप्रेस के सम्पादक रहे अर्थशास्त्र के विद्वान् ,अरुण शौरी के प्रति मेरे मन में अथाह सम्मान पैदा हो गया था जब उन्होंने महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री , अब्दुल रहमान अंतुले की उन बेईमानियों का भंडाफोड़ किया था जो अंतुले जी ने इंदिरा गांधी के नाम  पर संस्थाएं बना कर की थीं . इन्डियन एक्सप्रेस में बैनर हेडलाइन के रूप में छपी , अरुण शोरी की बाईलाइन खबर , Indira Gandhi as Commerce , मेरे दिमाग में एक ऐसी याद के रूप में संजोई हुयी है जिसको मैं पत्रकारिता के गौरव के रूप में याद करता हूँ . मूल रूप से अर्थशास्त्र के विद्वान् के रूप में पहचान रखने वाले अरुण शौरी ने इमरजेंसी लगने पर इन्डियन एक्सप्रेस में इमरजेंसी के खिलाफ लिखना शुरू किया था . उनकी हिम्मत से सेठ रामनाथ गोयनका जैसा प्रेस की आज़ादी का पक्षधर इतना प्रभावित हुआ कि बाद में उनको इन्डियन एक्सप्रेस का संपादक नियुक्त कर दिया . उनके कार्यकाल में अखबार ने ऐसा काम किया जो बहुत लोगों को अब तक याद है . शौरी को रेमन मगसेसे पुरस्कार भी मिला और भी दुनिया भर के बहुत सारे पुरस्कार मिले , बहुत नाम हुआ .
लेकिन बाद के वर्षों में वे सत्ता की राजनीति के चक्कर में पड़ गए . १९९८ में उनको बीजेपी ने राज्यसभा का सदस्य बनवा दिया . अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में वे मंत्री भी रहे .  उनके प्रशंसकों को उनके इसी दौर में किये गए काम से बहुत दुःख होता  है . उनके कार्यकाल में ही भारत सरकार के सरकारी होटलों की बिक्री  हुई . आरोप यह लगते रहे कि उन्होंने सरकारी कंपनी , विदेश संचार निगम लिमिटेड और कुछ सरकारी होटलों की बिक्री में  भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया है . मुंबई में एयर इण्डिया की मिलकियत वाला सरकारी होटल सेंटौर बेचा गया और उस बिक्री में तरह तरह की हेराफेरी के आरोप लगते रहे हैं . आरोप यह भी है की विदेश संचार निगम को बारह सौ करोड़ रूपये में बेचा गया जबकि उसकी दिल्ली की ज़मीन का एक हिस्सा ही उस से बहुत ज़्यादा कीमत का था . जानकार जानते हैं की ग्रेटर कैलाश १ और ग्रेटर कैलाश २ के बीच की बहुत सारी ज़मीन विदेश संचार  निगम की है और उसकी कीमत उन दिनों भी हज़ारों करोड़ रही होगी.अब तो खैर वह बहुत कीमती है . 
अब मोजूदा सरकार के कार्यकाल में जब यह जानकारी आयी है तो अरुण शौरी के  प्रशंसकों में निराशा का भाव है . एक नामी अखबार में आज खबर छपी है कि अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में विनिवेश सचिव रहे आई ए एस अधिकारी प्रदीप बैजल ने उदयपुर के सरकारी होटल लक्ष्मी विलास पैलेस के विनिवेश में अनियमितता की थी . सी बी आई उसकी जांच कर रही है . एक  सी बी आई अफसर ने बताया है कि आरोप था कि २००१-०२ में आई टी डी सी (  भारत सरकार के उपक्रम ) के उदयपुर स्थित लक्ष्मी विलास पैलेस होटल की बिक्री में गड़बड़ी पाई गयी है . जब केंद्र सरकार के विनिवेश मंत्रालय के तत्वावधान में उसका मूल्यांकन किया गया तो कीमत बहुत ज़्यादा घटा दी गयी . वास्तव में जिस होटल की कीमत १५१ करोड़ रूपये होनी चाहिए थी उसको ७ करोड़ ५२ लाख रूपये में बेच दिया गया . इसी तरह के आरोप मुंबई के सेंटौर होटल की बिक्री में भी लगाए गए थे. आरोप यह है कि दिल्ली में बाराखम्बा रोड पर स्थित एक बड़े होटल के मालिक और कभी राजीव गांधी के ख़ास रहे स्व ललित सूरी के परिवार की ज्योत्सना सूरी भी इस गड़बड़ी में शामिल थीं . मुंबई के होटलों की बिक्री की बेईमानी में ताज ग्रुप के एक पूर्व अधिकारी अजित केरकर और सहारा ग्रुप का नाम लिया जाता रहा है .
सरकारी संपत्ति में की गयी इस कथित चोरी का , पिछले १२ वर्षों में ज़िक्र बार बार होता रहा है लेकिन केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार ने इसको कभी पब्लिक डोमेन में नहीं आने दिया . शायद कांग्रेस के टाप नेताओं से संबंधों के कारण अपराधियों ने सब संभाल लिया होगा . अब भ्रष्टाचार ख़त्म करने के जनादेश के साथ सत्ता में आयी नयी सरकार ने पुरानी चोरियों को दुरुस्त करने का फैसला किया है . यह अच्छी बात है लेकिन उसको चाहिए कि १९८० से लेकर अब तक के  सारे मामले उठाये जाएँ जिससे सरकारी अफसरों में यह डर पैदा हो कि रिटायर होने के बाद भी चोरी पकड़ी गयी तो मुश्किल हो सकती है . जहां तक अरुण शौरी के प्रशंसकों का सवाल  है उनको आज की खबर छपने से बहुत  ही गुस्सा है क्योंकि साफ़ लग रहा है कि  माननीय शौरी जी जिस ईमानदारी का प्रचार करते हैं उसको निजी जीवन में प्रयोग नहीं करते .

Tuesday, August 26, 2014

विश्व सिनेमा के गांधी ,रिचर्ड एटनबरो , एक श्रद्धांजलि



 शेष नारायण सिंह 

लार्ड रिचर्ड एटनबरो नहीं रहे. हर शाट को परफेक्ट शूट करने वाला स्टार अपना आख़िरी शाट अपनी मर्जी का नहीं ले पाया . उनकी योजना थी कि वे अपने अंतिम क्षणों तक सिनेमा की शूटिंग करते रहें . लार्ड रिचर्ड एटनबरो ने एक बार कहा था कि उनकी इच्छा है की वे दिन की शूटिंग खत्म करें और कहें कि पैकअप और वहीं अंतिम सांस  ले लें . लेकिन ऐसा नहीं हुआ. 2008 में उनको ब्रेन हैमरेज का अटैक हुआ था उसके बाद वे बहुत दिन तक कोमा में रहे और ठीक होने के बाद भी व्हील चेयर पर ही चलते थे . बोलने में भी दिक्क़त होती थी . आज 90 साल की उम्र में विश्व सिनेमा के गांधी की मौत हो गयी. लार्ड रिचर्ड एटनबरो  
 ने फिल्म गांधी बनाकर अपने आपको सिनेमा के उस मुकाम पर स्थापित कर दिया था जहां बहुत ही सन्नाटा रहता है . कला के क्षेत्र में वह बुलंदियां बहुत कम लोगों को मिली हैं . उस ऊंचाई पर  बिरले ही पंहुंच पाते  हैं  क्योंकि एक ही सिनेमा के बल पर आठ आस्कर जीतने वाले लोग कहाँ हैं ?.
उनका जन्म ब्रिटेन के शहर कैम्ब्रिज में १९२३ में हुआ था .गांधी, जुरासिक पार्क, ब्राइटन रॉक, ,द ग्रेट एस्केप और व्हाट ए लवली वार कुछ ऐसी फ़िल्में हैं जो सिनेमा के साथ साथ कई पीढ़ियों के जीवन बेहतरीन यादों की भी सच्चाई बन चुकी हैं . दिल्ली में जब फिल्म  गांधी की शूटिंग हुयी थी तो वह घटना दिल्ली में बहुत बड़े मोबिलाइज़ेशन के रूप में याद की जाती है . जमुनापार और मंगोलपुरी आदि के इलाकों में डुगडुगी बजी थी और ऐलान किया गया था की महात्मा गांधी के अंतिम संस्कार की यात्रा की शूटिंग होनी थी और ज्यादा से ज्यादा लोग इण्डिया गेट पंहुंचे . हिदायत दी गयी थी कि कोई भी रंगीन कपड़ा पहनकर नहीं आयेगा . अस्सी के दशक में इंदिरा गांधी का दूसरा कार्यकाल था . एच के एल भगत केंद्र में मंत्री थे और पूर्वी दिल्ली के एम पी हुआ करते थे. उन्होंने ही भीड़ को जुटाने में अपने लोगों को लगाया था. इंदिरा जी खुद फिल्म के निर्माण में रूचि ले रही थीं लिहाज़ा उनके सबसे करीबी सरकारी नौकर के. नटवर सिंह को लार्ड रिचर्ड एटनबरो की सेवा का ज़िम्मा दिया गया था . नटवर सिंह बाकायदा एटनबरो के सेवक के रूप में रहते थे .फिल्म में भारत सरकार का भी कुछ हिस्सा था . उस फिल्म की दिल्ली में हुयी शूटिंग ने  दिल्ली की बड़ी आबादी को एक बड़े प्रोजेक्ट से जुड़ने का अवसर दे दिया था . और जब फिल्म ने एक के बाद एक दुनिया के शीर्ष पुरस्कार जीतना शुरू किया तो हर दिल्ली वाला उसमें अपने को भागीदार मानता था.फिल्म गांधी  को आठ आस्कर  पुरस्कार मिले थे. वह उस साल की बेस्ट फिल्म थी . 
लार्ड रिचर्ड एटनबरो  के फ़िल्मी जीवन की शुरुआत १९४२ में हुयी थी . लेकिन ग्राहम ग्रीन की किताब ब्राइटन रॉक को जब नाटक के रूप में पेश किया गया तो उसके चरित्र पिंकी में रिचर्ड एटनबरो  को ब्रिटेन भर में नोटिस किया गया . उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा . 70 से अधिक फिल्मों में अभिनय करने के बाद उन्होंने निर्देशन का काम शुरू किया . फिल्म गांधी उनके जीवन के उसी दौर का नतीजा है . आज सही मायनों में एक महान आदमी, बहुत बड़े आदमी और बहुत ही जिंदादिल आदमी की मौत का दिन है . अलविदा सिनेमा के गांधी .

धर्मनिरपेक्षता किसी भी राष्ट्र की अस्मिता की शान होती है



शेष नारायण सिंह

धर्मनिरपेक्षता की राजनीति किसी भी समुदाय पर एहसान नहीं होता।  किसी भी देश के नेता जब राजनीतिक आचरण में धर्मनिरपेक्षता को महत्वपूर्ण मुक़ाम देते हैं तो वे अपने राष्ट्र और समाज की भलाई के लिए काम कर रहे होते हैं।  धर्मनिरपेक्षता का साधारण अर्थ यह  है कि  धर्म के आधार पर किसी को लाभ या हानि न पंहुचाया जाए।  जब भी धर्म के आधार पर हानि या लाभ पंहुचाने की कोशिश शासक वर्ग करता है तो समाज को और राष्ट्र को भारी नुकसान  होता है।  भारत और पाकिस्तान को अंग्रेजों से आज़ादी एक ही साथ मिली थी  . लेकिन भारत दुनिया में आज एक बड़ी ताक़त के रूप में उभर चुका है और अमरीका समेत सभी देश भारत को सम्मान की नज़र से देखते हैं लेकिन पाकिस्तान की हालत बिलकुल अलग है . वहाँ अगर अमरीका और पश्चिम एशिया के देशों से आर्थिक मदद न मिले तो  बुनियादी ज़रूरतों के लिए भी परेशानी पड़ सकती है. भारत को धमकाने के लिए चीन भी पाकिस्तान की मदद करता रहता है . ऐसा इसलिए है कि  आज़ादी के बाद भारत ने धर्मनिरपेक्षता का रास्ता अपनाया और पाकिस्तान में मुहम्मद अली जिनाह की एक न  चली और पाकिस्तान धर्म पर आधारित राज्य बन  गया।  और पाकिस्तान दुनिया के बाक़ी संपन्न देशों पर निर्भर हो गया।  अमरीकी और चीनी मदद का नतीजा यह हुआ है कि पाकिस्तान की निर्भरता इन दोनों देशों पर बढ़ गयी है . पूरे पाकिस्तान में चीन ने सडकों , बंदरगाहों और बिजली के उत्पादन केन्द्रों का ऐसा जाल बिछा दिया है कि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में बुनियादी ढांचों का क्षेत्र लगभग पूरी तरह से चीन की कृपा का मोहताज है . अब तो पूरी दुनिया में यह कहा जाता है कि पाकिस्तान वास्तव में आतंकवाद की नर्सरी है . जब अमरीका के शासकों को पाकिस्तानी आतंकवाद का इस्तेमाल पुराने सोवियत संघ और मौजूदा रूस के खिलाफ करना होता था तो वह आतंकवादियों को हर तरह की सहायता देता था . अमरीका को मुगालता था कि पाकिस्तान में वह जिस आतंकवाद को  बढ़ावा दे रहा था वह केवल एशिया में ही अमरीकी लाभ के लिए इस्तेमाल होगा लेकिन जब अमरीकी ज़मीन पर अल कायदा ने आतंकी हमला कर दिया तब अमरीका की समझ में आया कि आतंकवाद का कोई क्षेत्र नहीं होता और आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता . वह संगठन के सरगना की मर्जी के हिसाब से चलता है और उसके अलावा उसका और कोई काम नहीं होता . बहरहाल आज पाकिस्तान के आतंकवाद का डर पूरी दुनिया में है . भारत के प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को अपने जीवन से सबसे अहम मौके पर आमंत्रित करके यह साबित करने की कोशिश की थी कि वह पाकिस्तान से अच्छे रिश्ते रखना चाहते हैं लेकिन सबको मालूम है कि आतंकवादी संगठन किसी भी सरकार के अधीन नहीं होते .इसीलिये पाकिस्तान से होने वाले आतंकवादी हमलों में कोई कमी नहीं आयी और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कहना पड़ा कि पाकिस्तान की तरफ से भारत में प्राक्सी युद्ध चल रहा है . और दोनों देशों के बीच हुई लड़ाइयों में जितने सैनिक मारे गए हैं उससे बहुत ज़्यादा भारतीय सैनिक पाकिस्तानी प्राक्सी युद्ध में मारे गए हैं .अब भारत में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बनी सरकार को पता चल गया है कि पाकिस्तान में आतंकवाद के तामझाम पर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ का नहीं वहाँ की फौज का हुक्म चलता है और फौज के सबसे बड़े अधिकारियों को अभी १९७१ के युद्ध का अपमान हमेशा याद रहता  है क्योंकि सन ७१ के आस पास ही आज के सभी पाकिस्तानी जनरलों को कमीशन  मिला था और उनका पहला काम पाकिस्तानी सेना की हार के मलबे को संभालना था. इसके पहले के सेना प्रमुख जनरल अशफाक परवेज़ कयानी ने तो कई बार  मीडिया से कहा था कि वे भारत से १९७१ का बदला लेने के लिए तड़प रहे थे. ज़ाहिर है उनकी फौज भारतीय सेना से ज़मीनी लड़ाई में १९७१ की गति को ही प्राप्त होती इसलिए पाकिस्तानी सेना भारत में आतंकवाद के सहारे परेशानी खड़ी करने की कोशिश करती रहती थी . पाकिस्तान में तथाकथित डेमोक्रेसी वाली सरकारों का पाकिस्तान की धार्मिक विचारधारा में पूरी तरह से घुल मिल चुकी फौज पर  कोई असर नहीं पड़ता .
भारत की मौजूदा सरकार अब आतंकवाद खत्म करने के लिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री पर निर्भर नहीं कर रही है . वह अंतर्राष्ट्रीय जनमत को पाकिस्तान में पलने वाले आतंकवाद के खिलाफ तैयार कर रही है . शायद इसी कूटनीतिक राणनीति के तहत अफगानिस्तान में  भारत के राजदूत ने एक टी वी चैनल को बताया कि ,” यह कोई  छुपी हुई बात नहीं है कि अफगानिस्तान में आतंक फैलाने वाले आतंकवादी पाकिस्तान से आते हैं “ . आज पाकिस्तान धार्मिक आधार पर आतंकवाद के  मोबिलाइजेशन का सबसे बड़ा केन्द्र है . इसका कारण यह है कि  पाकिस्तान ने एक राष्ट्र के रूप में शुरुआत तो सेकुलर तरीके से की थी लेकिन उसके संस्थापक मुहम्मद अली जिन्नाह की राजनीति को बाद के शासकों ने पूरी  तरह से तबाह कर दिया और इस्लाम पर आधारित राजनीति की शुरुआत कर दी .धर्मनिरपेक्षता को भुला कर इस्लामिक राज्य की स्थापना करने के बाद पाकिस्तान को किन किन मुसीबतों का सामना करना पड़ा है उसको जानने के लिए पाकिस्तान के पिछले पैंतीस वर्षों के इतिहास पर नज़र डालना ही काफी है . हमारे अपने देश में सेकुलर राजनीति का विरोध करने वाले और हिन्दुराष्ट्र की स्थापना का सपना देखें वालों को पाकिस्तान की धार्मिक राजनीति से हुई तबाही पर भी नज़र डाल लेनी चाहिए .
पकिस्तान की आज़ादी के वक़्त उसके संस्थापक मुहम्मद अली जिन्नाह ने  साफ़ ऐलान कर दिया था कि पाकिस्तान एक सेकुलर देश होगा .ऐसा शायद इसलिए था कि १९२० तक जिन्नाह मूल रूप से एक सेकुलर राजनीति का पैरोकार थे . उन्होंने १९२० के आंदोलन में खिलाफत के धार्मिक नारे के आधार पर मुसलमानों को साथ लेने का विरोध भी किया था लेकिन बाद में अंग्रेजों  की चाल में फंस गए और लियाकत अली ने उनको मुसलमानों का नेता बना दिया .नतीजा यह हुआ कि १९३६ से १९४७ तक हम मुहम्मद अली जिन्नाह को मुस्लिम लीग के नेता के रूप में देखते हैं जो कांग्रेस को हिंदुओं की पार्टी साबित करने के चक्कर में रहते थे . लेकिन  कांग्रेस का नेतृत्व महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के पास था और उन्होंने कांग्रेस को किसी एक धर्म की पार्टी नहीं बनने दिया . लेकिन जब पाकिस्तान की स्थापना हो गयी तब जिन्नाह ने ऐलान किया कि हालांकि पाकिस्तान की स्थापना इस्लाम के अनुयायियों के नाम पर हुई है लेकिन वह एक सेकुलर देश बनेगा .अपने बहुचर्चित ११ अगस्त १९४७ के भाषण में पाकिस्तानी संविधान सभा के अध्यक्षता करते हुए जिन्नाह ने सभी पाकिस्तानियों से कहा कि ,” आप अब आज़ाद हैं . आप अपने मंदिरों में जाइए या अपनी मस्जिदों में जाइए . आप का धर्म या जाति कुछ भी हो उसका  पाकिस्तान के  राष्ट्र से कोई लेना देना नहीं है .अब हम सभी एक ही देश के स्वतन्त्र नागरिक हैं . ऐसे नागरिक , जो सभी एक दूसरे के बराबर हैं . इसी बात को उन्होंने फरवरी १९४८ में भी जोर देकर दोहराया . उन्होंने कहा कि कि, “ किसी भी हालत में पाकिस्तान  धार्मिक राज्य नहीं बनेगा . हमारे यहाँ बहुत सारे गैर मुस्लिम हैं –हिंदू, ईसाई और पारसी हैं लेकिन वे सभी पाकिस्तानी हैं . उनको भी वही अधिकार मिलेगें जो अन्य पाकिस्तानियों को और वे सब पाकिस्तान में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगें .” लेकिन पाकिस्तान के  संस्थापक का यह सपना धरा का धरा रह गया और पाकिस्तान का पूरी तरह से इस्लामीकरण हो गया . पहले चुनाव के बाद ही  वहाँ बहुमतवादी राजनीति कायम हो चुकी थी और उसी में एक असफल राज्य के रूप में पाकिस्तान की बुनियाद पड़ चुकी थी. १९७१ आते आते तो  नमूने के लिए पाकिस्तानी संसद में एकाध हिंदू मिल जाता था  वर्ना पाकिस्तान पूरी तरह से इस्लामी राज्य बन चुका था. अलोकतांत्रिक  धार्मिक नेता राजकाज के हर क्षेत्र में हावी हो चुके थे.

लेकिन असली धार्मिक कट्टरवाद की बुनियाद जनरल जियाउल हक़ ने डाली . उनको अपने पूर्ववर्ती शासक जुल्फिकार अली भुट्टो की हर बात को गलत साबित करना था लिहाजा उन्होंने पाकिस्तान की सभी संस्थाओं का इस्लामीकरण कर दिया . उन्होंने जुल्फिकार अली भुट्टो की रोटी ,कपड़ा और मकान की राजनीति को साफ़ नकार दिया . उन्होंने कहा कि पाकिस्तान की स्थापना ही इस्लाम के कारण हुई थी ,यह मुसलमानों के लिए बनाया गया था . जनरल जिया ने २ दिसंबर १९७८ को इस्लामी नववर्ष के मौके पर पाकिस्तान में इस्लामी सिस्टम को लागू कर दिया. उन्होंने तब तक के सभी पाकिस्तानी सेकुलर कानूनों को खत्म कर दिया और ऐलान किया कि वे निजामे-मुस्तफा लागू कर रहे थे . उन्होंने शरिया अदालतें स्थापित करने का ऐलान कर दिया . लेकिन सभी कानून तो फ़ौरन बदले नहीं जा सकते थे लिहाजा जनरल जिया ने आर्डिनेंस लागू करके अपनी गद्दी की सुरक्षा का बंदोबस्त कर लिया. इस दिशा में पहला कानून था हुदूद आर्डिनेंस . इसके ज़रिये ताजिराते पाकिस्तान में बताए गए  संपत्ति कानूनों को बदलने की कोशिश की गयी . पूरी तरह बदल तो नहीं सके क्योंकि इस्लामी सबूत के नियमों  के आधार पर सज़ा दे पाना  असंभव था  . दूसरा बदलाव बलात्कार और व्यभिचार के कानून में किया गया इसके ज़रिए तो पूरे पाकिस्तान में औरतों को गुलाम से भी बदतर बना दिया गया .अपनी इसी इस्लामीकरण की योजना के तहत ही धार्मिक शिक्षण के केन्द्रों का बड़े पैमाने पर विकास किया गया. पाकिस्तानी समाज में  मदरसों के मालिकों का अधिकार और प्रभाव बहुत बढ़ गया . संगीत में भी  भारी बदलाव किया गया . पाकिस्तानी रेडियो और टेलीविज़न पर केवल देशभक्ति के गाने ही बजाये जाते थे.कुल मिलकर ऐसा पाकिस्तान बना दिया गया जिसमें धार्मिक कट्टरता और बहुमतवाद  का ही राज था . आज पाकिस्तान की जो दुर्दशा है उसमें जनरल जिया के उसी धर्मिक राज कायम करने के उत्साह को ज़िम्मेदार माना जा सकता है.

आजकल भारत में भी धार्मिक बहुमत वाद की राजनीति को स्थापित करने की कोशिश की जा रही है . भारत की सत्ताधारी पार्टी के बड़े नेता भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की बात करते पाए जा रहे हैं . उनको भी ध्यान रखना पडेगा कि धार्मिक कट्टरता किसी भी राष्ट्र का धर्म नहीं बन सकती . अपने पड़ोसी के उदाहरण से अगर सीखा न गया तो किसी को भी अंदाज़ नहीं है कि हम अपनी आने वाली पीढ़ियों को किस तरह का भारत देने जा रहे हैं .  लेकिन साथ ही यह भी ध्यान रखना पडेगा कि  धार्मिक समूहों को वोट की लालच में आगे भी न बढ़ाया जाये. जवाहरलाल नेहरू के युग तक तो किसी की हिम्मत नहीं पडी कि  धार्मिक समूहों का विरोध करे या पक्षपात करे लेकिन उनके जाने के बाद धार्मिक पहचान की राजनीति ने अपने देश में तेज़ी से रफ़्तार पकड़ी और आज राजनीतिक प्रचार में वोट हासिल करने के लिए धार्मिक पक्षधरता की बात करना राजनीति की प्रमुख धारा बन चुकी है।  कहीं मुसलमानों को  अपनी तरफ मिलाने की कोशिश की जाती है तो दूसरी तरफ हिन्दुओं का नेता बनने की होड़ लगी हुयी है।  इससे बचना पडेगा।  अगर न बच सके तो राष्ट्र और देश के सामने मुश्किल पेश आ सकती है।  
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Wednesday, August 20, 2014

धर्मनिरपेक्षता की राजनीति पर संकट के बादल



शेष नारायण सिंह  

बीजेपी में हमारे एक मित्र हैं . उन्होंने अपने फेसबुक पेज पर लिखा कि जब उनको किसी को  गाली देनी होती है तो वे उसे धर्मनिरपेक्ष कह देते हैं . मुझे अजीब लगा .वे भारत राष्ट्र को और  भारत के संविधान को अपनी नासमझी की ज़द में ले रहे थे क्योंकि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है . संसद में उनकी पार्टी के एक नेता ने जिस तरह से धर्मनिरपेक्षता को समझाया उससे अब समझ में आ गया है कि यह मेरे उन मित्र की निजी राय नहीं है , यह उनकी पार्टी की राय है . उसके बाद बीजेपी/ आर एस एस के कुछ विचारक टाइप लोगों को टेलिविज़न पर बहस करते सुना और साफ़ देखा कि वे लोग  धर्मनिरपेक्ष आचरण में विश्वास करने वालों को ' सेकुलरिस्ट ' कह रहे थे और उस शब्द को अपमानजनक सन्दर्भ के तौर पर इस्तेमाल कर रहे थे . बात समझ में आ गयी कि अब यह लोग सब कुछ बदल डालेगें क्योंकि जब ३१ प्रतिशत वोटों के सहारे जीतकर आये हुए लोग आज़ादी की लड़ाई की विरासत को बदल डालने की मंसूबाबंदी कर रहे हो तो भारत को एक राष्ट्र के रूप में चौकन्ना हो जाने की ज़रुरत है .

भारत एक संविधान के अनुसार चलता है . यह बात प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने के बादनरेंद्र मोदी ने भी स्वीकार किया है और उस संविधान की प्रस्तावना में ही लिखा है की भारतएक धर्मनिरपेक्ष देश है . प्रस्तावना में लिखा है कि ," हमभारत के लोगभारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व संपन्नसमाजवादीधर्म निरपेक्षलोकतान्त्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्यायविचारअभिव्यक्ति,विश्वासधर्म और उपासना की स्वतंत्रताप्रतिष्ठा और अवसर की समताप्राप्त करने के लिएतथा उन सब मेंव्यक्ति की गरिमा एवं राष्ट्र की एकता एवं अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख २६ नवम्बर १९४९ को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृतअधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं. ।" इस तरह के संविधान के हिसाब से देश को चलाने का संकल्प लेकर चल रहे देश की संसद में उत्तर प्रदेश के पूर्वी इलाके से आये एक सदस्य ने जिस तरह की बातें  की और सरकार की तरफ से किसी भी ज़िम्मेदार  व्यक्ति ने उसको समझाया नहीं ,यह इस बात का सबूत है कि देश बहुत ही खतरनाक रास्ते पर चल पडा है . सबसे तकलीफ की बात यह है कि साम्प्रदायिकता के इन अलंबरदारों को सही तरीके से रोका नहीं गया . कांग्रेस में भी ऐसे लोग हैं जो राजीव गांधी और संजय गांधी युग की देन हैं और जो साफ्ट हिंदुत्व की राजनीति के पैरोकार हैं . ऐसी सूरत में हिन्दू साम्प्रदायिकता का जवाब देने के लिए लोकसभा में वे लोग खड़े हो गए तो मुस्लिम साम्प्रदायिकता के  समर्थक हैं. इस देश में मौजूद एक बहुत बड़ी जमात धर्मनिरपेक्ष है और उस जमात को अपने राष्ट्र को उसी तरीके से चलाने का हक है जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान तय हो गया था. देश की सबसे बड़ी पार्टी आज बीजेपी  है लेकिन उन दिनों कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी हुआ करती थी . महात्मा गांधी कांग्रेस के सबसे बड़े नेता थे और मुहम्मद अली जिन्ना ने एडी चोटी का जोर लगा दिया कि कांग्रेस को हिन्दुओं की पार्टी के रूप में प्रतिष्ठापित कर दें लेकिन नहीं कर पाए . महात्मा जी और उनके  उत्तराधिकारियो ने कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष पार्टी बनाए रखा .आज देश में बीजेपी का राज  है लेकिन क्या बीजेपी धर्मनिरपेक्षता के संविधान  में बताये गए बुनियादी सिद्धांत के खिलाफ जा सकती है . उसके कुछ नेता यह कहते देखे गए हैं की देश ने बीजेपी को अपनी मर्जी से राज करने के अधिकार दिया है लेकिन यह बात बीजेपी के हर नेता को साफ तौर पर पता होनी चाहिए की उनको सत्ता इसलिए मिली है कि वे नौजवानों को रोज़गार दें, भ्रष्टाचार खत्म करें और देश का विकास करें . उनके जनादेश में यह भी समाहित है कि वे यह सारे काम संविधान के दायरे में रहकर ही करें , उनको संविधान या आज़ादी की लड़ाई का ईथास बदलने का  मैंडेट नहीं मिला है .
ज़ाहिर है कि धर्मनिरपेक्षता के अहम पहलुओं पर एक बार फिर से गौर करने की ज़रूरत है .
धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए अति आवश्यक है।  आजादी की लड़ाई का उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है।  गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थे, जटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"
महात्मा गांधी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी शासकों को भारत के आम आदमी की ताक़त का अंदाज़ लग गया । आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी। उसने कांग्रेस से नाराज़ जिन्ना जैसे  लोगों की मदद से आजादी की लड़ाई में अड़ंगे डालने की कोशिश की और सफल भी हुए। बाद में कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। आजकल आर एस एस और बीजेपी के बड़े नेता यह बताने की कोशिश करते हैं की सरदार पटेल हिन्दू राष्ट्रवादी थे . लेकिन यह सरासर गलत  है . भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने 16दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)।
सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं।सरदार अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और सरदार पटेल की बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, "इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।" सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं  . लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था। उसके बाद कांग्रेस में भी बहुत बड़े नेता ऐसे  हुए जो निजी बातचीत में  मुसलमानों को पाकिस्तान जाने की नसीहत देते पाए जाते हैं . दर असल वंशवाद के चक्कर में कांग्रेस वह रही ही नहीं जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान रही थी . नेहरू युग में तो कांग्रेस ने कभी भी धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत से समझौता नहीं किया लेकिन   इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी अपने छोटे बेटे की राजनीतिक समझ को महत्त्व  देने लगी थीं . नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस भी हिंदूवादी पार्टी के रूप में पहचान बनाने की दिशा में  चल पडी . बाद में राजीव हांधी के युग में तो सब कुछ गड़बड़ हो गया .
कांग्रेस का राजीव गांधी युग पार्टी को एक कारपोरेट संस्था की तरह चलाने के लिए जाना जाएगा . इस प्रक्रिया में वे लोग कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता की मूल सोच से मीलों दूर चले गए। राजीव गांधी के प्रधानमंत्री पद पर बैठते ही जिस तरह से सुनियोजित तरीके से कांग्रेसी नेताओं ने सिखों का कत्ले आम किया, वह धर्मनिरपेक्षता तो दूर, बर्बरता है। जानकार तो यह भी कहते हैं कि उनके साथ राज कर रहे मैनेजर टाइप नेताओं को कांग्रेस के इतिहास की भी  जानकारी नहीं थी। उन्होंने जो कुछ किया उसके बाद कांग्रेस को धर्मनिरपेक्ष जमात मानने के बहुत सारे अवसर नहीं रह जाते। उन्होंने अयोध्या की विवादित बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाया और आयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास करवाया। ऐसा लगता है कि उन्हें हिन्दू वोट बैंक को झटक लेने की बहुत जल्दी थी और उन्होंने वह कारनामा कर डाला जो बीजेपी वाले भी असंभव मानते थे।राजीव गांधी के बाद जब पार्टी के किसी नेता को प्रधानमंत्री बनने का मौका मिला तो पी.वी. नरसिंह राव गद्दी पर बैठे। उन्हें न तो मुसलमान धर्मनिरपेक्ष मानता है और न ही इतिहास उन्हें कभी सांप्रदायिकता के खांचे से बाहर निकाल कर सोचेगा। बाबरी मस्जिद का ध्वंस उनके प्रधानमंत्री पद पर रहते ही हुआ था। सोनिया गांधी के राज में साम्प्रदायिक राजनीति के  सामने कांग्रेसी डरे सहमे नज़र आते थे . एक दिग्विजय सिंह हैं जो धर्मनिरपेक्षता  का झंडा अब भी बुलंद रखते  हैं लेकिन कुछ लोग कांग्रेस में भी एसे हैं जो दिग्विजय सिंह जैसे लोगों को हाशिये पर रखने पर आमादा हैं . कई बार तो लगता है कि बहुत सारे कांग्रेसी भी धर्मनिरपेक्षता  के खिलाफ काम कर रहे हैं . और जब आर एस एस और उसके मातहत संगठनों ने धर्म निरपेक्षता को चुनौती देने का बीड़ा उठाया है तो  कांग्रेस पार्टी भी अगर उनके अरदब में आ गयी तो देश से धर्मनिरपेक्षता  की राजनीति की विदाई भी हो सकती है .

Monday, August 11, 2014

समाजवादी पार्टी में अमर सिंह की वापसी अब एक सच्चाई है

शेष नारायण सिंह

समाजवादी पार्टी में राजनीतिक घटनाक्रम बहुत तेज़ी से घूम रहा है . एक बार जिन अमर सिंह को मुलायम सिंह यादव ने पार्टी ने निकाल दिया था वही अमर सिंह लोकसभा चुनाव में पिटाई के बाद बदले बदले नज़र आ रहे हैं . चुनाव में हुयी हार के बाद संपन्न हुए मुलायम सिंह यादव की पार्टी के सबसे अहम् कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में अमर सिंह विराजमान थे .  उत्तर प्रदेश सरकार ने लखनऊ में  समाजवादी पार्टी के पूर्व उपाध्यक्ष जनेश्वर मिश्र के नाम पर जिस पार्क की स्थापना की है उसके लोकार्पण के अवसर पर मुलायम सिंह यादव खुद मौजूद थे अखिलेश यादव थे ,शिवपाल यादव थे और अमर सिंह को सम्मानपूर्वक  मुख्य अतिथि बनाया गया था . उत्तर प्रदेश की राजनीति के हर जानकार को मालूम है कि मुलायम सिंह यादव की राजनीति में अमर सिंह की धमाकेदार वापसी हुयी है . लोकसभा चुनाव के बाद राज्य की राजनीति में जो बीजेपी का जलवा नज़र आ रहा था लगता है कि मुलायम सिंह यादव ने उसपर लगाम लगाने की मज़बूत योजना बना ली है . समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने पहलवानी का ऐसा दांव मारा है कि अभी लोगों को पता ही नहीं चल रहा है कि हमला किस पर है. मुलायम सिंह यादव और अमर सिंह के संबंधों की राजनीति के जानकार बड़े बड़े सूरमा एक दूसरे से पूछते पाए जा रहे हैं कि भाई हुआ क्या. दुनिया जानती है कि मुलायम सिंह यादव अमर सिंह को पार्टी से निकालना नहीं चाहते थे लेकिन माहौल ऐसा बना कि उनके लिए अमर सिंह को पार्टी में रख पाना मुश्किल हो गया . इस रिपोर्टर को  अमर सिंह के निष्कासन के दौरान दिल्ली में हो रहे घटनाक्रम को बहुत करीब से देखने का अवसर मिला था . समाजवादी पार्टी के महासचिव प्रो राम गोपाल यादव ने तय कर रखा था कि अमर सिंह को पार्टी से निकालना है लेकिन उनके बड़े भाई  और पार्टी के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने भी तय कर रखा था कि किसी कीमत पर अमर सिंह को पार्टी से नहीं निकालेगें .जिन  लोगों के ज़रिये राम गोपाल यादव दबाव डलवा रहे थे उनसे मुलायम सिंह यादव ने साफ़ कह दिया था कि अपना वक़्त देख कर चलना चाहिए और  राम गोपाल को समझा दो कि जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाना चाहिए . लेकिन जब जनेश्वर मिश्र से कहलवा दिया गया तो मुलायम सिंह यादव के सामने कोई रास्ता नहीं बचा और अमर सिंह समाजवादी पार्टी से निकाल दिए गए . सावधानी इतनी बरती गयी थी कि मीडिया को भी भनक नहीं लगी थी . केवल एक पत्रकार को विश्वास के लायक माना गया और देश एक सबसे बड़े हिंदी अखबार के समाजवादी पार्टी  बीट के संवाददाता को उस दिन अमर सिंह के निष्कासन की जानकारी दी गयी. डर यह था कि मीडिया में रसूख के चलते खबर के प्रकाशित होने के पहले ही अमर सिंह को पता चल जाएगा और वे मुलायम सिंह से बात करके बाज़ी पलट सकते थे .
अमर सिंह समाजवादी पार्टी से कभी न निकाले जाते क्योंकि वे मुलायम सिंह यादव के बहुत ही करीबी हैं  लेकिन उनसे बहुत सारी रणनीतिक गलतियाँ हो गयीं . हुआ यह था कि  अमर सिंह  ने भी अपनी हैसियत को बहुत बढ़ा कर आंक रखा था . यह उनकी गलती थी . दिल्ली की राजनीति में कोई भी बहुत ताक़तवर नहीं होता . इसी दिल्ली में मुग़ल सम्राट शाहजहाँ को उसके बेटे औरंगजेब ने जेल की हवा खिलाई थी . बाद के युग में इंदिरा गाँधी के दरबार के बहुत करीबी लोग ऐसे मुहल्लों में खो गए थे जहां कोई भी ताक़तवर आदमी जाना नहीं चाहेगा. दिनेश सिंह एक बार जवाहरलाल नेहरू के करीबी हुआ करते थेइंदिरा जी के ख़ास सलाहकार थे और बाद में राज नारायण समेत बहुत सारे लोगों के दरवाजों पर दस्तक देते देखे गए थे. वामपंथी रुझान के नेता चन्द्रजीत यादव की हनक का अंदाज़ वह इंसान लगा ही नहीं सकता जिसने सत्तर के दशक के शुरुआती वर्षों में उनका जलवा नहीं देखा . चंद्रजीत यादव इंदिरा गांधी के दरबार में जो चाहते थे वही होता था बाद में राजनीतिक शून्य में कहीं बिला गयी थे . कभी बाबू जगजीवन राम की मर्जी को इंदिरा जी अंतिम सत्य के रूप में स्वीकार करती थीं बाद में वे ही उनके सबसे बड़े दुश्मन हुए . इसलिए दिल्ली की राजनीति एक ऐसा अखाड़ा है जहां सामने से तो हमला होता ही है मुकम्मल हार अपने साथियों के ज़बर्दस्त हमलों से होती है . अमर सिंह के साथ भी वही हुआ . उनको बाद में पता चला कि  उनका सबसे ख़ास राजदार बाद में राम गोपाल यादव के सबसे करीबी सहायक बना गया .बहरहाल अमर सिंह दिल्ली की राजनीति की इस बारीकी को समझने में गाफिल रहे  और उनकी ज़िंदगी तल्खियों से भर गयी है .करीब चार साल  तक अपने सबसे करीबी दोस्त से दूर रहने के बाद फिर उसकी सियासत में वापस हो रहे हैं . अमर सिंह की वापसी  का अंदाज़ करीब छः महीने पहले पक्के तौर पर लग गया था जब भारत पाक दोस्ती के लिए दोनों ही देशों के रिटायर्ड जनरलों का एक सम्मलेन अमर सिंह के घर पर हुआ था और उसमें शिवपाल यादव घंटों मौजूद रहे . लोगों से मिलते जुलते रहे .जब अमर सिंह से पूछा गया कि शिवपाल यहाँ क्या कर रहे हैं तो उन्होने शिवपाल यादव का हाथ पकड़कर  कहा था कि शिवपाल मेरा भाई है .  
अमर सिंह की वापसी का विरोध आज़म खां की तरफ से तो होना ही है . वे अपनी ही सरकार के कार्यक्रमों में नहीं जा रहे हैं . जनेश्वर मिश्र की याद में बनाए गए पार्क के  समारोह में तो नहीं ही गए ,अमर सिंह को बुलाये जाने के फैसले के विरोध में वे अपने विभाग के एक कार्यक्रम में भी नहीं गए जहां वे खुद मेज़बान थे . सरकारी उर्दू के एक कार्यक्रम में भी आज़म खां नहीं गए और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने करीब ढाई घंटे इंतज़ार के बाद कार्यक्रम को  चलाया जिसके बाद माहौल में एक बार फिर तल्खी फैल गई . समाजवादी पार्टी में अमर सिंह के सबसे बड़े विरोधी प्रोफ़ेसर राम गोपाल यादव ने दिल्ली में आयोजित हुए जनेश्वर मिश्र के जन्मदिन के वाले कार्यक्रम में अमर सिंह का नाम लिए बिना एक तीखी टिप्पणी की . लेकिन सबको मालूम है  कि जब मुलायम सिंह यादव कुछ तय कर लेते हैं तो उसमें किसी की सलाह का कोई मतलब नहीं होता . पिछली बार भी अगर जनेश्वर मिश्र ने ज़ोरदार तरीके से न कहा होता तो अमर सिंह पार्टी से न निकाले जाते . लोकसभा चुनाव २०१४ के नतीजों के बाद मुलायम सिंह यादव ने किसी करीबी से कहा था कि उनके दर्द को केवल अमर सिंह समझते थे और अब तो वे पार्टी में अकेले पड़ गए हैं .  जो भी हो अब समाजवादी पार्टी की राजनीति में अमर सिंह एक सच्चाई हैं और अखिलेश यादव की राजनीति के जानकारों की मानें तो पार्टी में अब आज़म खां की ताकत निश्चित रूप से कम होने वाली है .

मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के समर्थकों की तरफ से  अमर सिंह के पक्ष में माहौल बनाने का काम लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से ही शुरू हो गया था . एक सवाल पूछा  जा रहा है  कि जब अमर सिंह बहुत बेकार इंसान थे तो उनके हटने के बाद क्यों पार्टी की हालत बद से बदतर होती गयी क्यों नहीं बड़े नेताओं ने राजनीति को सम्भाला .जब अमर सिंह थे तो पार्टी की सीटें  उत्तराखंड में भी थींमध्य प्रदेश में भी थीं ,पार्टी की मौजूदगी महाराष्ट्र में भी थी,कर्णाटक में भी थी और मुलायम सिंह यादव की राजनीति राष्ट्रीय मीडिया में चर्चा का विषय रहती थी लेकिन उनके जाने के बाद पार्टी क्यों केवल मुलायम सिंह यादव के आसपास सिमट कर रह  गयी है . यह सवाल बहुत ही कठिन है और इसका जवाब उन लोगों के पास नहीं है जो अमर सिंह की वापसी का विरोध कर रहे हैं . अमर सिंह को जब १९९४ में मुलायम सिंह यादव ने  महत्त्व देना शुरू किया था तो माना जाता था कि एक गैर राजनीतिक इंसान को साथ लिया है लेकिन अब ऐसा नहीं है.  दिल्ली की राजनीति के जानकार जानते हैं कि  अमर सिंह  राष्ट्रीय राजनीति में खासी पैठ  रखने वाले नेता हैं . मुलायम सिंह  के लिए जो सबसे बड़ी बात हो सकती  है वह यह कि इस बार अमर सिंह के कारण उनको अजीत सिंह का साथ मिल सकता है . चौधरी चरण सिंह के मानसपुत्र के रूप में किसी वक़्त पहचान बना चुके  मुलायम सिंह को एक ज़बरदस्त झटका लगा था जब अजीत सिंह चौधरी साहेब  की मृत्यु के बाद अमरीका से वापस आकर उनके वारिस बन गए थे .पिछले पचीस वर्षों  से मुलायम और अजीत एक दूसरे की जड़ों में मट्ठा डाल रहे हैं . इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि अमर सिंह की इस बार की वापसी के बाद अजीत और मुलायम सिंह एक ही जगह नज़र आयेगें . दिल्ली में जुगाड़ कर सकने की अमर सिंह की ताक़त का अंदाज़ जिसको लग चुका है वे तो यह भी कह रहे हैं कि इस एकता में कांग्रेस को खासी भूमिका मिलेगी और अगर बिहार में लालू-नीतीश समागम को सन्दर्भ के रूप में लिया जाए तो उत्तर प्रदेश में भी मायावती-मुलायम संवाद कायम हो सकता है . अमर सिंह के अलावा इस संवाद को कोई भी नहीं कायम करवा सकता. क्योंकि बड़े बड़े दुश्मनों को भी बुरा वक़्त एकता के सूत्र में पिरो देता है . और अगर अमर सिंह की जुगाड़ शक्ति इस तरह जलवा दिखाने में कामयाब रही तो उत्तर प्रदेश में बीजेपी वालों को ध्रुवीकरण के नए तरीके आजमाने पड़ सकते हैं क्योंकि जब मायावतीमुलायम सिंह यादव अजीत सिंह और कांग्रेस की राजनीतिक एकता के संकेत मिलने लगेगें तो राज्य में राजनीतिक समीकरण निश्चित रूप से एक नया आयाम ले चुके होगें

Saturday, August 2, 2014

एक शाम ज़िंदगी की और भी गुज़र गई


शेष नारायण सिंह

और क्या शाम गुज़री है . एक आदमी जिस को करीब तीस साल की उम्र तक अपना जन्मदिन नहीं मालूम था ,फेसबुक पर मौजूद दोस्तों ने उसके जन्मदिन को भी एक खुशी का अवसर बना दिया .  जो फेसबुक पर नहीं थे , उन्होंने टेलीफोन के ज़रिये एस एम एस किया ,बहुत सारे दोस्तों ने व्हाट्स एप्प के रास्ते बधाई सन्देश भेजे. मेरे बच्चों के बच्चों ने जश्न मनाये और मेरे बुढापे को दिलचस्प बनाया . कुल मिलाकर जन्मदिन की कहानी पूरी हो गयी .
आज मेरा मन कह रहा है कि सभी दोस्तों को शुक्रिया कहूं , खुद फोन मिलाकर कहूं कि , मेरे जिगर , तुम मेरे दोस्त हो और अब आगे भी जिंदा रहने के हौसले इसलिए बनते रहेगें कि हर साल जन्मदिन के मौके पर तुम्हारी शुभेच्छा का इंतज़ार रहेगा .
अगस्त की एक तारीख की रात को बारह बजे से दोस्तों ने शुभ कामना देनी शुरू कर दी थी. पहला सन्देश उस बहादुर महिला का आया था जिसने अभी अभी कैंसर के मैदान में दुशमन की अठारह अक्षौहिणी सेना को परास्त किया है . दो बेहतरीन बच्चियों की मां और मेरे ऐसे  दोस्त की जीवनसाथी जिसके साथ मैं घोषित रूप से गप्प मारने के लिए मुंबई जाता हूँ . इस नाट्यकर्मी, साहित्यकार ,प्रशासक सृजनशील दोस्त की बहादुरी को मैंने मन ही मन पहला सलाम किया था .
उसके बाद दो सदिच्छाओं का तूफ़ान आ  गया . लगातार संदेशे आते रहे और मैं खुश होता रहा. बहुत सारी ऐसे नौजवान पत्रकारों  ने अपने भैया को जन्मदिन की बधाई दी जिनका नाम सासे भारत में जाना जाता है . एक बहुत अच्छी बात यह हुई कि किसी  ने भी मेरी वाल पर हैप्पी बर्थडे नहीं लिखा . मैं साल भर से हर फेसबुक दोस्त को जन्मदिन की शुब्खामना देता रहा हूँ सब को मैंने इनबाक्स में ही सन्देश लिखा था . शायद संकेत को समझ कर सभी दोस्तों ने इनबाक्स में ही सन्देश भेजे . मेरी दोस्ती को पब्लिक डोमेन में नहीं डाला ,क्योंकि मेरे हर दोस्त से मेरी दोस्ती बिलकुल निजी है और बिलकुल निराली है . मेरी दोस्ती मेरे दोस्तों के प्रति मेरे निजी सम्मान की भावना की अभिव्यक्ति है . इसलिए मैं इन चार लाइनों  को लिखकर सबका  व्यक्तिगत रूप  से शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ .

मैंने सोचा था कि सभी दोस्तों को निजी तौर पर धन्यवाद कहूँगा.कल सुबह शुरू भी किया ,कुछ देर करता रहा लेकिन इनबाक्स में सन्देश इतनी तेज़ी से आ रहे थे कि मैंने सोचा कि अपनी फेसबुक की दीवार और अपने ब्लॉग में लिखकर आभार ज्ञापन करूंगा . मेरे दोस्तों की एक मामूली संख्या ऐसी भी है जो हिंदी नहीं जानते . उन सब को मैं उनकी भाषा में धन्यवाद कह चुका हूँ . अब जब इतने दोस्त जन्मदिन की दुआ देते हैं तो लगता है कि अभी बहुत दिन ज़िंदा रहना चाहिए .आपकी शुभकामनाओं में बहुत ताक़त  है जानी , मैं ज़िंदगी को नए मायने देने की कोशिश  करूंगा और अगले जन्मदिन का इंतज़ार करूंगा .