Wednesday, June 17, 2020

दो देशों के बीच सम्बन्ध राष्ट्रीय हित की कसौटी पर कसे जाते हैं व्यक्तिगत रिश्तों के आधार पर नहीं




शेष नारायण सिंह

पिछले छः वर्षों से चीन से अच्छे सम्बन्ध बनाने की प्रधानमंत्री की कोशिश बेकार होती नज़र आ  रही है .  नियंत्रण रेखा पर चीनी सैनिकों के साथ  हुई हाथापाई में भारत के बीस सैनिकों के शहीद  होने के बाद  प्रधानमन्त्री ने सार्वजनिक प्रतिक्रिया दी है . बुधवार को मुख्यमंत्रियों को संबोधित करते हुए प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने  कहा कि,'  मैं राष्ट्र को भरोसा दिलाना चाहता हूँ कि हमारे जवानों का बलिदान व्यर्थ नहीं होने दिया जाएगा. हमारे लिए भारत की एकता और संप्रभुता सबसे महत्वपूर्ण है . कोई भी हमें उसकी रक्षा करने से रोक नहीं सकता. किसी को भी इसके बारे में कोई संदेह नहीं होना चाहिए . भारत शान्ति चाहता है लेकिन किसी भी परिस्थिति में सही और माकूल जवाब देने की उसकी क्षमता है और सही समय पर वह जवाब दिया जाएगा .' यह बहुत ही सख्त बयान माना  जाएगा इसके पहले विदेश मंत्री जयशंकर ने चीन के विदेशमंत्री स्तर के नेता से फोन पर  बात की  थी. भारत ने  चीन को बता दिया  था कि गलवान घाटी में चीन को वास्तविक नियंत्रण रेखा ( एल  ए सी ) की पवित्रता का सम्मान करना  चाहिए लेकिन ऐसा लगता है कि  चीन उस क्षेत्र को अपना इलाका  मानता है और वहां से हटने को तैयार नहीं है  .   विदेशमंत्री ने चीन को यह भी बता दिया कि भारत के सैनिकों पर हमला सोची समझी योजना के तहत किया गया था . ' यह गंभीर बात है और यह आपसी संबंधों की मजबूती में बड़ी बाधा साबित हो सकता है. सीमा पर तनाव कम करने के लिए बुधवार को हुई मेजर जनरल  स्तर की बातचीत भी बेनतीजा रही है . इसका मतलब यह हुआ कि अभी उस  इलाके में शान्ति की कोई उम्मीद नहीं की जानी  चाहिए .  छः जून को लेफ्टीनेंट जनरल स्तर की बातचीत में यह तय हो गया था कि अपनी मौजूदा पोजीशन से दोनों ही सेनाएं एक एक किलोमीटर पीछे चली जायेंगीं और बीच में बफर ज़ोन बना दिया जाएगा . बफर ज़ोन इसलिए बनाया जा रहा था कि दोनों सेनाओं के सैनिक आपने सामने न आयें .भारत ने इस फैसले का तुरंत पालन किया .लेकिन  १५ जून को देखा गया कि चीन ने  जिस क्षेत्र पर क़ब्ज़ा किया हुआ था , वहां कोई ढांचा  मौजूद था .  वहां तैनात बटालियन के  कमांडिंग अफसर  कर्नल संतोष बाबू यह सुनिश्चित करने गए थे  कि उस ढाँचे को भी हटा दिया जाए . इसी बीच वहां बड़ी संख्या में  मौजूद चीनी  सैनिकों ने लाठी डंडों से हमला कर दिया . पुराने समझौतों के कारण वास्तविक नियंत्रण रेखा ( एल  ए सी )  पर तैनात  सैनिक बन्दूक आदि हथियार साथ नहीं रख सकते . इस हमले में  कर्नल संतोष  बाबू शहीद हो गए. उनके अलावा १७ और भारतीय  सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए . उसके बाद  से ही हालात बिगड़े हुए  हैं. गौर तलब है कि कुछ  दो साल पहले ऊरी सेक्टर में पाकिस्तानी हमले में १९ भारतीय सैनिक मारे गए थे और भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक कर दिया था  लेकिन चीन के साथ वैसा आचरण नहीं किया जा सकता . चीन आज अमरीका का मुकाबला कर रहा  है और विश्व की सबसे मज़बूत अर्थव्यवस्था बनने के सपने संजो रहा है . उनकी सेना भी बहुत ही मज़बूत है ,पाकिस्तान की तरह लुंज पुंज अर्थव्यवस्था वाले देश की सेना नहीं है .   मेजर जनरल स्तर की बातचीन के असफल होने के पहले   भारत के विदेश  मंत्रालय से एक बयान आया था जिसमें कहा गया था कि ," दोनों पक्ष इस बात पर सहमत हो गए  हैं कि गलवान घाटी के हालात को समग्रता में देखा जायेगा और छः जून की  बातचीत की समझदारी के मद्देनजर स्थिति को बहुत ही ज़िम्मेदारी से  संभाला जाएगा . कोई भी हालात को बिगाड़ने के लिए कोई भी कार्रवाई नहीं करेगा ." जहां तक गलवान घाटी के आसपास की स्थिति है ,वह निश्चित रूप से चिंताजनक है . लदाख आटोनामस हिल डेवलपमेंट कौंसिल के मुख्य कार्यकारी अधिकारी, ग्याल वांग्याल ने अखबारों को बताया कि आसपास के गाँवों से सभी संपर्क कट चुके हैं . ग्याल वांग्याल ने बताया कि  उस इलाके के पार्षदों से भी संपर्क नहीं हो पा रहा  है .
भारत और चीन के बीच संबंधों के खराब होने की आशंका से दुनिया की बड़ी ताक़तें चिंतित हैं .  सभी ने चिंता  जताई है लेकिन सबकी भाषा में बहुत ही अधिक सावधानी है. रूस ने तनाव कम करने की दोनों देशों की कोशिश का स्वागत किया है . ब्रिटेन ने भारत और चीन को आपसी बातचीत से समस्या को सुलझाने के लिए प्रोत्साहित करने की बात की गयी  है . अमरीका के विदेश विभाग से आये बयान में सावधानी पूर्वक कहा गया  है कि ' वह वर्तमान स्थिति के शान्तिपूर्ण हल ' का समर्थन करता है . इसके पहले अमरीका की तरफ से बयान आया था कि वह हालात पर नज़र रखे  हुए है . इस साधारण सी बात का भी चीन ने बहुत बुरा माना था और चीन के लगभग  सरकारी  अखबार, ग्लोबल टाइम्स   में सम्पादकीय टिप्पणी की थी कि अमरीका अगर भारत-चीन के विवाद में दखलंदाजी करेगा तो हालात और  खराब होंगे.  चीन की विदेशनीति पर नज़र रखने वालों को मालूम है कि चीन की सरकार से बयान न भी आये तो ग्लोबल टाइम्स में छपे  सम्पादकीय को चीन की सरकार का बयान ही माना  जाता है. इसके कई  फायदे हैं , एक तो चीन अपनी मंशा भी साफ़ कर देता है और अगर किसी अंतरराष्ट्रीय मंच पर  कोई अखबार के हवाले से बात करने की  कोशिश करे तो साफ़ तौर पर कह दिया जाता है कि वह तो अखबार की राय है. विदेशमंत्री एस जयशंकर की चीनी मंत्री से हुयी बातचीत पर टिप्पणी करते हुए अखबार , ग्लोबल टाइम्स ने जो लिखा है उससे यह अनुमान नहीं किया जा सकता कि हालात जल्दी सुधरने वाले हैं.लगभग चेतावनी देते हुए बताया  गया है कि ' भारत को अपनी भू-राजनीतिक फैंटसी से बाहर आना चाहिए और चीन के साथ अपने सीमा विवाद को व्यावहारिकता के साथ हल करना चाहिए .'  पिछले सत्तर वर्षों में चीन का अजीब रवैया रहा है . हिंदी-चीनी भाई भी करते करते १९६२ में चीन ने भारत के विश्वास को झटका दिया था और हमला कर दिया था . जवाहरलाल नेहरू और तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाइ के बीच बहुत ही दोस्ताना रिश्ते थे लेकिन युद्ध हुआ और भारत को बड़ी कीमत चुकानी पडी . नवस्वतंत्र देश भारत किसी भी युद्ध की मार  झेलने के लिए तैयार नहीं था. नेहरू के नेतृत्व में देश में आर्थिक विकास के लिए ज़रूरी बुनियादी ढांचा बनाने का काम चल रहा था. आई आई टी और आई आई एम जैसी संस्थाओं की स्थापना की जा रही थी . शिक्षा ,उद्योग और स्वास्थय के लिए संस्थाओं की बुनियाद डाली जा रही थी . बताते हैं कि १९६२ में तत्कालीन चीन के  सुप्रीम लीडर माओत्से तुंग ने भांप लिया था कि भारत आर्थिक विकास के मज़बूत डगर पर चल पडा है. उसी को कमज़ोर करने के लिए चीन ने हमला कर दिया था .
मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से  चीन के सर्वोच्च नेता , शी जिनपिंग के व्यक्तिगत रिश्ते बहुत ही  अच्छे हैं . भारत में बहुत बड़े पैमाने पर चीनी माल की खपत भी हो रही है . बहुत  सारे क्षेत्रों में चीन ने भारत में  निवेश भी किया है . चीन की साझेदारी वाली बहुत सारी कम्पनियां भारत में कारोबार कर रही हैं . इस के बावजूद  चीन ने ऐसे मौके पर भारत को सीमा विवाद में  घेरने की साज़िश रची है जब कोरोना के आतंक के चलते भारत की अर्थव्यवस्था एक मुश्किल दौर से गुज़र रही है. ज़ाहिर है अगर आज युद्ध की स्थिति   बनती है तो अर्थव्यवस्था पर बहुत ही उलटा असर पडेगा ..आज ही चीन के सरकारी अखबार ग्लोबल टाइम्स ने एक सम्पाकीय का शीर्षक लगाया है कि, " सीमा पर तनाव कम करने के लिए मोदी को एक मज़बूत अर्थव्यवस्था चाहिए " चीन का यह उपदेश देने का लहजा निश्चित रूप से  भारत की जनता को स्वीकार्य नहीं है . अजीब बात है कि सीमा पर हमारे  सैनिकों पर हमले  करते  रहेंगे और अपने सरकारी अखबार के ज़रिए भारत में अपने कारोबार को बढ़ाने की अपील भी करते रहेंगे. चीन अमरीका के साथ भारत के बढ़ते संबंधों  को भी संबंधों में  सुधार लाने की दिशा में बाधक मानता है .उसका दावा है कि इस इलाके में अपनी ताक़त को मज़बूत करने के लिए अमरीका की विदेशनीति के करता धरता भारत को मोहरा बना रहे हैं.अमरीकी  विदेशनीति के लिए चीन एक बड़ी चुनौती है.चीन और भारत में १९६२ से ही सीमा का विवाद है , युद्ध भी हुए हैं, झडपें भी होती रहती हैं .सबको मालूम है कि अमरीका कभी किसी देश के साथ वफादारी के रिश्ते नहीं  रखता .उससे कोई उम्मीद करने का मतलब नहीं है . वैसे भी युद्ध किसी समस्या का हल नहीं होता और शान्ति की भारत की कोशिश में वह किसी तरह की मदद में आगे आने को तैयार नहीं है. संयुक्त राष्ट्र में अमरीका की मनमानी चलती रही है लेकिन उस दौर में भी उसने भारत की कोई मदद नहीं की .. चीन के मुकाबिल भारत को खड़ा करना अमरीकी हुक्मरान का  सपना रहा है . आज हालात ऐसे हो गए हैं कि भारत और चीन आमने सामने खड़े हैं . अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत के प्रधानमंत्री को अपनी निजी दोस्त कहते हैं . उनको चुनाव जीतना है और आम तौर पर भारतीय मूल के अमरीकी नागरिक उनकी   रिपब्लिकन पार्टी को वोट नहीं देते . उन लोगों में नरेंद्र मोदी का बहुत ही अच्छा प्रभाव है . डोनाल्ड ट्रंप अमरीका में नरेंद्र मोदी की सभा करवा भी चुके हैं कुल मिलकर हालात ऐसे बन  गए हैं कि  भारत अब अमरीका कैम्प का देश माना जा रहा है .इसीलिये जब  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन के नेता शी जिनपिंग से व्यक्तिगत दोस्ती बढाकर उसके  राजनयिक इस्तेमाल की तरफ बढ़ रहे थे तो विद्वानों ने उनको चेतावनी दी  थी कि कोई भी देश व्यक्तिगत संबंधों के आधार पर डिप्लोमेसी नहीं करता. डिप्लोमेसी का आधार हमेशा ही राष्ट्रहित होता है . यही बात अमरीका के बारे में भी चेताई गयी थी कि  भारत को डोनाल्ड ट्रंप से दोस्ती बढाने के चक्कर में उसका फ्रंटमैन बनने से बचना चाहिए . आज चीन के साथ विवाद सुलझाना डिप्लोमेसी की सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए क्योंकि अगर  डिप्लोमेसी ख़तम होगी तो युद्ध का ख़तरा बढ़ जाएगा और अर्थव्यवस्था के हित में ज़रूरी है कि युद्ध से बचा जाए .





Wednesday, June 10, 2020

कोविड-19 से मुकाबले के लिए देश की सभी राजनीतिक पार्टियों को एकजुट करने के लिए प्रधानमंत्री को आगे आना चाहिए .



शेष नारायण सिंह  

कोविड-19 की महामारी आज राष्ट्रीय चिंता का विषय है . जब देश की राजधानी दिल्ली में कोविड-19 के मरीजों की संख्या 32 हज़ार के पार पंहुंच गयी तो देश के गृहमंत्री अमित शाह और दिल्ली राज्य के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के बीच बैठक हुई .बातचीत के बाद मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने बताया कि गृहमंत्री ने उनको हर तरह के सहयोग का  आश्वासन दिया .गृहमंत्री और दिल्ली के मुख्यमंत्री के बीच हुयी बैठक बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि अब तक की जो परंपरा रही है उसके हिसाब से अमित शाह और अरविन्द केजरीवाल एक  दूसरे का विरोध ही करते रहे हैं लेकिन आज देश के एक अंतर्राष्ट्रीय आपदा से गुज़र रहा  है . ज़रूरत इस बात की है कि देश के सभी उपलब्ध संसाधन इस संकट से बचने के लिए लगाये जायं . कोविड-19 के मामले दिल्ली और मुंबई में बढ़ते जा रहे हैं . दिल्ली देश की राजनीतिक राजधानी है जबकि मुंबई देश की आर्थिक राजधानी है .दोनों ही महानगरों में मरीजों की बढ़ती संख्या  देश भर में चिंता का विषय है .  दिल्ली और मुंबई की सरकारें ऐसी पार्टियां चला रही हैं जो केंद्र सरकार की सत्ताधारी पार्टी की विरोधी हैं .मुंबई महाराष्ट्र की राजधानी है .वहां इस वक़्त जो सरकार है वह  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पार्टी की  इच्छा के खिलाफ जाकर   बनाई गयी हैं . महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की पार्टी शिवसेना ने विधानसभा चुनाव  बीजेपी के साथ गठबंधन बनाकर लड़ा था.बाद में उनसे मनमुटाव हो गया और आज  शिवसेना के नेता मुख्यमंत्री है लेकिन उस गद्दी पर पंहुचने के लिए शिवसेना ने बीजेपी के घोर विरोधियों ,कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस का साथ कर लिया .इसके बावजूद भी महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने प्रधानमंत्री से सहयोग की अपील की और उनको भी ज़रूरी आश्वासन मिला . उम्मीद की जानी चाहिए कि कोविड-19 की आपदा का अब सही तरीके से मुकाबला किया जा सकेगा. यह एक राष्ट्र के रूप में हमारे अस्तित्व को बचाए रखने के लिए ज़रूरी है .महामारी का मुकाबला करने के लिए ज़रूरी  है कि फिलहाल राजनीतिक मतभेद भुलाकर देश पर आये संकट का मुकाबला किया जाए लेकिन ऐसा लगता है कि केंद्र की सत्ताधारी पार्टी ,बीजेपी  देश की राजनीतिक एकता को बनाये रखने में योगदान नहीं दे रही  है. जहां विपक्ष की सरकारें हैं वहां उनको गिराने  में राजनीतिक संसाधनों  को झोंक देना देश की  राजनीतिक एकता की भावना के खिलाफ  है . राजस्थान से खबर आ रही है कि वहां की कांग्रेस सरकार को अस्थिर करने के लिए विधायकों की तोड़फोड़ की कोशिश की जा रही है . राजस्थान में  सरकारी पक्ष के मुख्य सचेतक महेश जोशी ने  दावा किया है कि कांग्रेस के विधायकों को लालच देकर उनको राज्य की लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित सरकार को अस्थिर करने की कोशिश की जा रही है . उन्होंने भ्रष्टाचार निरोधी  ब्यूरो के महानिदेशक को एक पत्र लिखकर बताया  है कि कर्णाटक और मध्यप्रदेश की तर्ज पर राजस्थान में भी कांग्रेस के विधायकों को दल छोड़ने के लिए प्रेरित किया जा रहा  है. कांग्रेस में इस बात को गंभीरता से लिया जा रहा  है   क्योंकि पहले तो कांग्रेसी विधायकों को मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के घर बुलाकर समझाया  बुझाया गया  और बाद में उनको राजधानी जयपुर के किसी रिजार्ट में ले जाकर रखा गया है . यानी राजस्थान की सरकार   अस्थिरता के खतरे को सच मान कर काम कर रही है . इसके पहले मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकार को भी गिराकर बीजेपी की सरकार बनाई गयी थी. मध्यप्रदेश में  बीजेपी की सरकार बनाने की प्रक्रिया की आलोचना इसलिए भी  हुई थी कि उस चक्कर में कोविड-19  के खिलाफ  अभियान शुरू करने में  देरी की गयी थी . राजनीतिक उठापटक से हटकर हमारे नेताओं को इतने बड़े संकट के मुकाबले के लिए एकजुट होना चाहिए था लेकिन अफ़सोस की बात  है कि मध्यप्रदेश ,राजस्थान और गुजरात में कांग्रेस के विधयाकों को लालच देकर  उनको पार्टी छोड़ने की प्रेरणा दी जा रही है .


 इस बात में दो राय नहीं है कि केंद्र सरकार ने कोविड-19 के खिलाफ अभियान को बिना किसी योजना के शुरू कर दिया था . शुरू में  तो केंद्र सरकार इस  संकट को हलके में ले रही थी . जब अमरीका और  यूरोप के देश कोविड-19 की गिरफ्त में आ  चुके थे और 11 मार्च को ही विश्व स्वास्थ्य संगठन कोविड-19 के संक्रमण को पंडेमिक का नाम दे चुका था तो केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय का 13 मार्च को दावा करना कि भारत में कोई मेडिकल इमरजेंसी नहीं है ,निश्चित रूप से केंद्र सरकार की गंभीरता पर सवालिया निशान लगाता है . उसी दौर में मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकार को  बदलने के लिए केंद्र की सत्ताधारी पार्टी के सभी संसाधन लगे हुए थे . उसके बाद भी जो रवैया अपनाया  गया  वह बहुत ही सोच विचार का नतीजा  नहीं  माना जाएगा . 13 मार्च को केंद्र सरकार  दावा कर चुकी थी कि देश में कोई मेडिकल इमरजेंसी नहीं  के हालात नहीं थे  लेकिन उसके  बाद ही प्रधानमंत्री ने एक दिन का जनता कर्फ्यू लगा दिया और सबको अपने घर के सामने ताली बजाने का सुझाव दिया . उन्होंने  19 मार्च 2020 को रात 8 बजे भारत की जनता को  संबोधित किया और आवाहन  किया कि  22 मार्च को सुबह 7 बजे से रात 9 बजे तक जनता कर्फ्यू का पालन करें। जनता कर्फ्यू को उन्होने "जनता के लिए, जनता द्वारा, खुद पर लगाया गया कर्फ्यू कहकर परिभाषित किया। उन्होने देशवाशियों से आग्रह किया कि जनता कर्फ्यू के दौरान जरूरी सेवाओं से सम्बन्धित लोगों के अलावा कोई भी व्यक्ति  घर से बाहर न निकलें . यह बात समझ में नहीं आती कि एक दिन के  जनता कर्फ्यू का क्या औचित्य था . उसके बाद उन्होंने अपने 24 मार्च के देश को दिए गए सन्देश में 21 दिन के लॉक डाउन की घोषणा की  और बताया कि महाभारत का युद्ध अठारह दिन में जीता गया था . उन्होंने दावा किया कि कोरोना पर २१ दिन में विजय पा लेंगें . ऐसा लगता  है कि प्रधानमंत्री ने यह जानकारी  तथ्यों को सत्यापित किये बिना ही दे डाली थी क्योंकि बाद में हुए सरकारी विमर्श में कहीं भी यह बात सामने नहीं आई . यह घोषणा भी आठ बजे शाम को टीवी चैनलों पर की गयी और बिलकुल  नोटबंदी  वाली शैली में की गयी . नोटबंदी की तरह ही  उन्होंने कहा कि करीब चार घंटे बाद देश में सब कुछ बंद हो जाएगा. ट्रेन, बस, बाज़ार , दूकान सिनेमा, माल, कोर्ट ,कचहरी , फैक्टरी सब कुछ बंद हो जाएगा. देश में कोई भी कहीं भी   घरों के बाहर नहीं  निकलेगा . नतीजा यह हुआ कि महानगरों में रोज़ कमाकर खाने वाले घबडा गए अपने गाँव जाने के लिए निकल पड़े.   कोविड-19  के खिलाफ चल रहा अभियान तो पीछे चला गया और मजदूरों का अपने गाँव वापस जाने से  जुडी मुसीबतें केंद्रीय मुद्दा बन गईं  . जिस तरह की तकलीफें लोगों को अपने घर जाने में हुई वह बहुत ही दर्दनाक थी . फ़िल्मी कवि गुलज़ार ने तो मजदूरों के पलायन को 1947 में बँटवारे के समय हुए पलायन से जोड़कर कविता भी लिख दी .मामला इतना बड़ा हो गया कि सुप्रीम  कोर्ट को भी आदेश देना पड़ा कि सरकारें मजदूरों को उनके घरों तक पंहुचाएं . आम तौर पर माना जाता है कि अगर 25 मार्च का लॉक डाउन शुरू करने के पहले केंद्र सरकार ने इस बात पर गौर कर लिया होता कि मजदूरों को बंदी के बाद भारी समस्या पेश आयेगी तो इंसानियत पर जो मुसीबत बरपा हुई , वह न हुयी होती और  उनको राशन आदि देने और उनको घर तक पंहुचाने आदि में जो बहुत बड़ा संसाधन लगा ,वह बच गया  होता . इस मुसीबत के दौर में  उस संसाधन को अस्थाई अस्पताल आदि बनवाने में लगा दिया  गया होता . यह भी संभव है कि आज जो गाँवों में कोविड-19  के मामले हैं वे  बहुत कम होते क्योंकि शुरू में मजदूरों के बीच यह बीमारी गयी ही नहीं थी. आज सरकार और मीडिया संस्थाओं की ओर से बताया जा रहा है कि गाँवों में जो भी संकट है वह बाद में गए मजदूरों के कारण है .समझ में नहीं आता कि इस तरह की तर्क पद्धति का आधार क्या है .



कोविड-19 के मरीजों की  संख्या अब तो बहुत तेज़ी से बढ़ रही है . दिल्ली सरकार के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने तो आशंका  जताई है कि  जुलाई के अंत तक दिल्ली  में कोविड-19 मरीजों की संख्या साढ़े पांच लाख पार कर जायेगी .हालांकि टीवी चैनल और सरकारी पक्ष रखने वाले अखबार दावा कर रहे  हैं कि हालात काबू में हैं लेकिन देश में मंगलवार की शाम तक मरीजों की संख्या दो लाख  पचासी हज़ार के पार  पंहुच गयी थी . यह संख्या उन मरीजों की है जिनकी जांच हुई  , पाजिटिव पाए गए और  अस्पतालों में जिनका इलाज हुआ. उनमें से कुछ ठीक हुए , कुछ का इलाज चल रहा  है और आठ हज़ार से ज्यादा मरीजों की मौत हो चुकी है . रोज़ ही अखबारों में ख़बरें आ रही हैं कि बहुत सारे लोग अस्पतालों में भर्ती ही नहीं हो पा रहे  हैं . सभी  मरीजों की जांच तक नहीं हो पा रही है .अस्पतालों में सुविधाएं नहीं हैं और दिल्ली में तो कोविड-19 से मरे हुए लोगों की लाशों का  अंतिम  संस्कार करने में भारी परेशानी हो रही है .मुंबई की हालत दिल्ली से भी ख़राब है. वहां   कोविड-19 मरीजों की  संख्या पचास हज़ार से भी ज्यादा हो चुकी  है. मुंबई महानगर निगम का दावा  है कि  शहर में 798 कन्टेनमेंट ज़ोन हैं जहां करीब 42 लाख लोग रहते हैं. शहर में करीब साढ़े चार लाख इमारतें सील कर दी गयी हैं जिनमे करीब आठ लाख  लोग रहते  हैं .  यह आठ लाख लोग सबसे ज़्यादा खतरे के बीच रह रहे हैं. इस बीच कोविड-19 के असर और नतीजों को  लेकर तरह तरह के दावे किये जा रहे हैं. देश के अन्य महानगरों से भी इसी तरह के डरावने आंकड़े आ रहे  हैं. विदेशों से जो आंकडे आ रहे   हैं वे भी डरावने हैं .अमरीका में  मरीजों की संख्या बीस लाख के पार चली गयी है और वहां सरकार और वैज्ञानिक दूसरी लहर के खतरे से  देश की जनता को आगाह कर रहे हैं . यूरोप के देशों में भी अभी खतरे की आशंका बहुत बड़े पैमाने पर बनी हुयी है . पूरी दुनिया में करोड़ों लोगों की रोज़ी रोटी के साधन ख़त्म हो चुके  हैं .
ऐसी हालत में राजनीतिक बिरादरी को चाहिए कि देश के सभी लोगों को एकजुट करें और दूसरे  विश्वयुद्ध से भी ज़्यादा खतरनाक हालात को संभालें. किसी राज्य में  चुनी हुई सरकार को अस्थिर करके बीजेपी की सरकार बनाने की कोशिशों को लगाम देने की ज़रूरत है क्योंकि इस तरह के राजनीतिक आचरण से देश की एकता बाधित होती है .प्रधानमंत्री को आगे आकर देश की एकता के प्रयास को नेतृत्व देना चाहिए और कोविड-19 से देश की अवाम को बचाने की कोशिश  करनी चाहिए




Wednesday, June 3, 2020

काशी विद्यापीठ के वेबिनार में  मुख्य वक्ता के रूप में दिया गया भाषण  
शेष नारायण सिंह 

हिंदी पत्रकारिता :  सामयिक मुद्दे और प्रस्तुतीकरण . दिलचस्प विषय है . शुरुआत में ही बता दूं कि मैं पत्रकारिता को सामायिक मुद्दों का ही विज्ञान मानता हूँ. भूतकाल के मुद्दे इतिहास होते हैं और भविष्य के मुद्दे  ज्योतिष की  सीमा में आ जाते  हैं . इसलिए पत्रकारिता के मुद्दे तो सामयिक ही होने हैं . हाँ उनके  प्रस्तुतीकरण  पर भारी मतवैभिन्य  है. आजकल देखने में आया है कि पत्रकार अपने दृष्टिकोण को ही पत्रकारिता बताने लगे हैं . वह सम्पादकीय है और वह भी पत्रकारिता का एक ज़रूरी अंग है . लेकिन संपादकीय लेखन या प्रस्तुतीकरण में बहुत संभालना  पड़ता  है. ख़तरा यह रहता है कि कहीं पत्रकार के   दृष्टिकोण इतने पक्षपात पूर्ण न हो जाएँ कि वह किसी की जयजयकार  करता हुआ नज़र आने लगे .उससे बचना चाहिए . आज मैं कोशिश करूंगा कि पत्रकारिता का शुद्ध समाचार का जो प्रस्तुतीकरण का मुद्दा है उसी पर केन्द्रित रहूँ .
आज काशी विद्यापीठ के तत्वावाधान में इस कार्यक्रम का आयोजन किया गया है . मैं पत्रकारिता के प्रस्तुतीकरण के लिए कबीर साहेब और गोस्वामी तुलसीदास को हीरो मानकर चालता हूँ क्योंकि सत्य के प्रति उनकी प्रतिबद्धता हमेशा से ही अनुकरणीय  रही है , आशा की जानी चाहिए कि आगे भी  रहेगी . राजा शिवप्रसाद सिंह सितारे हिन्द का बनारस अखबार , जुगल किशोर शुक्ल का उदन्त मारतंड ,भारतेंदु हरिश्चंद्र के अखबार कवि  वचन सुधा, हरिश्चंद्र पत्रिका और बाल बोधिनी हिंदी , बालकृष्ण भट्ट का हिंदी प्रदीप , बद्री नारायण चौधरी ' प्रेमघन ' की आनंद कादम्बिनी,आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की सरस्वती और प्रेमचंद का हंस ब्रिटिश आधिपत्य के दौर की पत्रकारिता और साहित्य के ऐसे बुलंद उदहारण है जिनसे आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा लेते रहना चाहिए .
मैं  व्यक्तिगत रूप से कलकत्ता से तीन-चार साल तक छपे अखबार ‘मतवाला ‘ को आदर्श के रूप में मानना चाहूँगा. आचार्य शिवपूजन  सहाय, मुंशी नवजादिक लाल श्रीवास्तव , सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, बालकृष्ण भट्ट और पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र ‘ ने मतवाला के ज़रिये तो मानदंड स्थापित किये  थे, उनको आदर्श के रूप में मानेंगे तो कोई दिक्कत पेश नहीं आयेगी . महात्मा गांधी  और  गणेश शंकर विद्यार्थी  की पत्रकारिता तो हमारे लिए प्रकाश स्तम्भ की तरह हैं ही .
 यह सारे पत्रकार आज़ादी के पहले के  मिशन पत्रकारिता करने वाले लोग  हैं. आज़ादी के बाद  हमारे संविधान के संस्थापकों में प्रेस की आज़ादी को हमेशा ध्यान में रखा .इसीलिये प्रेस की आज़ादी की  व्यवस्था  संविधान में ही निहित कर दी गयी है . संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) में अभिव्यक्ति की स्वत्रंत्रता की व्यवस्था दी गयी हैप्रेस की आज़ादी उसी से निकलती  है . इस आज़ादी को सुप्रीम कोर्ट ने अपने बहुत से फैसलों में सही ठहराया है . १९५० के  बृज भूषण बनाम दिल्ली राज्य  और १९६२ के सकाळ पेपर्स  प्राइवेट लिमिटेड बनाम यूनियन आफ इण्डिया के फैसलों में  प्रेस की अभिव्यक्ति की आज़ादी को मौलिक अधिकार के  श्रेणी में रख दिया  गया है . प्रेस की यह आज़ादी निर्बाध ( अब्सोल्युट ) नहीं है . संविधान के मौलिक अधिकारों वाले अनुच्छेद 19(2) में ही उसकी सीमाएं तय कर दी गई हैं.  संविधान में लिखा है  कि  अभिव्यक्ति की आज़ादी के "अधिकार के प्रयोग पर भारत की प्रभुता और अखंडताराज्य की सुरक्षाविदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधोंलोक व्यवस्थाशिष्टाचार या सदाचार के हितों में अथवा न्यायालय-अवमानमानहानि या अपराध-उद्दीपन के संबंध में युक्तियुक्त निर्बंधन जहां तक कोई विद्यमान विधि अधिरोपित करती है वहां तक उसके प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या वैसे निर्बंधन अधिरोपित करने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी"  यानी प्रेस की आज़ादी तो मौलिक अधिकारों के तहत कुछ भी लिखने की आज़ादी  नहीं है .
लेकिन इसके साथ ही  और भी सवाल  उठ रहे  हैं  कि यदि किसी के लेखन से किसी को एतराज़ है और वह मानता है पत्रकार ने 19(2) का उन्लंघन किया  है तो क्या उसको मार डालना  सही है ? . इस तर्क की परिणति बहुत ही खतरनाक है और इसी तर्क से लोकशाही को ख़तरा  है . कर्नाटक की पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के हवाले से बात को समझने की कोशिश की जायेगी . उनकी हत्या के बाद उनके पुराने लेखों का ज़िक्र किया गया जिसमें उन्होंने ऐसी बातें लिखी थीं जो एक वर्ग को स्वीकार नहीं थीं. सोशल मीडिया पर सक्रिय एक  वर्ग ने  चरित्र हनन का प्रयास भी किया .वे यह कहना चाह  रहे थे कि गौरी लंकेश की  हत्या करना एक ज़रूरी काम था और जो हुआ वह ठीक ही हुआ.  आज ज़रूरत इस बात की है कि इस तरह की प्रवृत्तियों की निंदा की जाये .निंदा हो भी  रही है.  गौरी लंकेश की हत्या के अगले ही दिन देश भर में पत्रकारों ने सभाएं कीं , जूलूस निकाले  , सरकारों से हत्या  जांच की मांग की और तय किया कि मीडिया को निडर रहना है . दिल्ली के  प्रेस क्लब में एक सभा का आयोजन हुआ जिसमें लगभग सभी बड़े पत्रकार शामिल हुए और गौरी लंकेश की ह्त्या करने वालों को फासिस्ट ताक़तों का प्रतिनिधि बताया. कोलकाता प्रेस क्लब के तत्वावधान में प्रेस क्लब से गांधी जी की मूर्ति तक एक जुलूस निकाला . मुंबई में सामाजिक कार्यकर्ता ,पत्रकारफिल्मकार ,अभिनेत्ता इकठ्ठा हुए और असहमत होने के अधिकार को लोकशाही का सबसे महत्वपूर्ण अधिकार बताया और  गौरी लंकेश की  हत्या को प्रेस की आज़ादी की हत्या बताया .
इस उदहारण में  बुनियादी बात यह है कि असुविधाजनक लेख लिखने के लिए अगर लोगों की हत्या को सही  ठहराया जाएगा तो बहुत ही मुश्किल होगी . लोकतंत्र के अस्तित्व पर ही  सवालिया निशान  लग जाएगा.  इस लोकतंत्र को बहुत ही मुश्किल से हासिल किया  गया है और उतनी ही मुश्किल इसको संवारा गया है . अगर मीडिया जनता को सही बातें और वैकल्पिक दृष्टिकोण नहीं पंहुचाएगा तो सत्ता पक्ष के  लिए भी मुश्किल होगी. इंदिरा  गांधी ने यह गलती १९७५ में की थी. इमरजेंसी में सेंसरशिप लगा दिया था . सरकार के खिलाफ कोई भी खबर नहीं छप सकती थी. टीवी और रेडियो पूरी तरह से सरकारी नियंत्रण में थे , उन के पास  तक  जा सकने वालों में सभी चापलूस होते थेउनकी जयजयकार करते रहते थे इसलिए उनको  सही ख़बरों का पता  ही नहीं लगता था . उनको  बता दिया गया कि देश में उनके पक्ष में बहुत भारी माहौल है और वे दुबारा भी बहुत ही आराम से चुनाव जीत जायेंगीं .  चुनाव करवा दिया और उनकी राजनीति में १९७७ जुड़ गया  .
विदेशी पत्रकारिता में आजकल पत्रकारिता की बुलंदी के नमूने के रूप में ट्रंप का ज़िक्र किया जा सकता है .

प्रेस की आज़ादी सत्ता पक्ष के लिए बहुत ज़रूरी है . सत्ताधारी जमातों को अगर वैकल्पिक दृष्टिकोण नहीं  मिलेंगे तो चापलूस नौकरशाह  और  स्वार्थी नेता  सच को ढांक कर राजा से उलटे सीधे  काम करवाते रहेंगें . भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को यह बात बहुत ही   अच्छी तरह  मालूम थी इसीलिए उन्होंने कहा था ," मैं पीत पत्रकारिता से नफरत करता हूँ , लेकिन आपके पीत पत्रकारिता करने के अधिकार की रक्षा के लिए हर संभव कोशिश करूंगा ".लोकतंत्र को अगर जनता के लिए उपयोगी बनाना है  तो सत्ताधारी जमातों  को निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता  को व्यावहारिकता के साथ लागू करने के उपाय करने होंगे .प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी से  यह उम्मीद तो की ही जानी चाहिए  कि वे वह गलतियाँ न करें जो इंदिरा गांधी  ने की थी. इंदिरा गांधी के भक्त और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने प्रेस सेंसरशिप के दौरान नारा दिया था कि  ' इंदिरा इज इण्डिया ,इण्डिया इज  इंदिरा ,' इसी .तरह से जर्मनी के तानाशाह हिटलर के तानाशाह बनने के पहले उसके एक चापलूस रूडोल्फ हेस ने नारा दिया था कि  ,' जर्मनी इस हिटलर , हिटलर इज जर्मनी '.   रूडोल्फ हेस नाजी पार्टी में बड़े पद पर था .मौजूदा शासकों को इस तरह की प्रवृत्तियों से बच कर रहना चाहिए  क्योंकि मीडिया का चरित्र बहुत ही अजीब होता  है . जब इंदिरा गांधी बहुत सारे लोगों को जेलों में बंद कर रही थीं , जिसमें पत्रकार भी शामिल थे तो चापलूसों और पत्रकारों का एक वर्ग किसी को भी आर एस एस या कम्युनिस्ट  पार्टी का सदस्य  बताकर गिरफ्तार करवाने की फ़िराक में रहता था . उस दौर में भी बहुत सारे पत्रकारों ने आर्थिक लाभ के लिए सत्ता की चापलूसी में चारण शैली में पत्रकारिता की . वह ख़तरा आज भी बना हुआ है . चारण पत्रकारिता  सत्ताधारी पार्टियों  की सबसे  बड़ी दुश्मन है क्योंकि वह सत्य पर पर्दा डालती है और सरकारें गलत फैसला लेती हैं . ऐसे माहौल में सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह मीडिया को निष्पक्ष और निडर बनाए रखने में योगदान करे  . चापलूस पत्रकारों से पिंड छुडाये . इसके संकेत दिखने लगे हैं . एक आफ द रिकार्ड बातचीत में बीजेपी के मीडिया से जुड़े एक नेता ने बताया कि जो पत्रकार टीवी पर हमारे पक्ष में नारे लगाते रहते है , वे हमारी पार्टी का बहुत नुक्सान करते हैं . भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं में इस तरह की सोच एक  अच्छा संकेत है . सरकार को चाहिए कि पत्रकारों के सवाल पूछने के  अधिकार और आज़ादी को सुनिश्चित करे . साथ ही संविधान के अनुच्छेद १९(२) की सीमा में  रहते हुए कुछ भी लिखने की  आज़ादी और अधिकार को सरकारी तौर पर गारंटी की श्रेणी में ला दे . इससे निष्पक्ष पत्रकारिता का बहुत लाभ होगा.  ऐसी कोई व्यवस्था कर दी जाए जो सरकार की चापलूसी करने को  पत्रकारीय  कर्तव्य पर कलंक माने और इस तरह का काम करें वालों को हतोत्साहित करे.

पत्रकारिता का काम बहुत ही कठिन दौर  से  गुज़र रहा है .महानगरों से लेकर  दूर दराज़  के गाँवों में रहकर काम करने वालों की आर्थिक व्यवस्था बहुत सारे मामलों में चिंता का विषय है .यह ऐसा संकट है  जिसके कारण कई स्तर पर समझौते हो रहे हैं और सूचना के  निष्पक्ष  मूल्यांकन का काम बाधित हो रहा है . देश के कई बड़े अख़बार अपने कर्मचारियों  का आर्थिक शोषण करते हैं . उनसे पत्रकारिता से इतर काम करवाते हैं , मालिक लोग  निजी संपत्ति में वृद्धि के लिए अखबार और पत्रकार की छवि का इस्तेमाल करते  हैं.  अखबार मालिकों का यही वर्ग  है  जहां पिछले वर्षों मजीठिया की वेतन संबंधी सिफारिशों को बेअसर  करने के लिए तरह  तरह के  तिकड़म किये गए थे. सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवमानना  करने वाले यह अखबार पत्रकारों के शोषण के भी सबसे बड़े झंडाबरदार  हैं . यह मालिक लोग वेतन इतना कम देते  हैं कि दो जून की रोटी का भी इंतजाम न हो सके . और उम्मीद करते हैं कि छोटे शहरों में उनके कार्ड को लेकर पत्रकारिता करता पत्रकार उनके लिए विज्ञापन भी  जुटाए . नाम लेने के ज़रूरत नहीं है लेकिन दिल्ली में ही नज़र दौड़ाने पर इस तरह के अखबारों और टीवी चैनलों के बारे में जानकारी मिल जायेगी .एक संस्मरण के माध्यम से इस बात को रेखांकित करना उचित होगा. हमारे एक  स्वर्गीय मित्र को करीब बीस साल पहले एक अख़बार  के राजस्थान का ब्यूरो प्रमुख बना दिया गया .    कह दिया गया कि आप जल्द से जल्द  जयपुर जाकर काम शुरू कर दीजिये .  वे परेशान थे कि वेतन की कोई बात किये बिना कैसे  जयपुर चले जाएँ .  अगले दिन फिर वे मालिक- सम्पादक से मिले और  कहा कि पैसे की कोई बात नहीं हुई  थी इसलिए मैंने सोचा कि स्पष्ट बात कर लूं .  मालिक-सम्पादक ने   छूटते ही कहा कि ,आप से पैसे की क्या बात करना है . आप हमारे मित्र हैं , जाइए काम करिए और तरक्की करिए. संस्था को बस पचास हज़ार रूपये महीने भेज दिया करिएगा ,बाकी सब आपका .  दफ्तर का खर्च निकाल कर सब अपने पास रख लीजिये . पत्रकारिता की गरिमा को कम करने में इन बातों का  बहुत योगदान है .

लेकिन उम्मीद ख़त्म नहीं हुई है ,अभी  उम्मीद  बाकी है . सूचना क्रान्ति ने अपने देश में पाँव जमा लिया  है .भारत के सूचना टेक्नालोजी के जानकारों की पूरी दुनिया में हैसियत बन चुकी है .इसी सूचना क्रान्ति की कृपा से आज वेब पत्रकारिता सम्प्रेषण का ज़बरदस्त माध्यम बन चुकी  है . वेब मीडिया ने वर्तमान समाज में क्रान्ति की दस्तक दे दी है .अब लगभग सभी अखबारों और टीवी चैनलों के वेब  पोर्टल हैं  . लेकिन बहुत सारे  स्वतंत्र पत्रकारों ने भी इस दिशा में ज़बरदस्त तरीके से हस्तक्षेप कर दिया है . इन स्वतंत्र पत्रकारों के पास साधन बहुत कम हैं लेकिन यह हिम्मत नहीं हार रहे  हैं . उनको आधुनिक युग का अभिमन्यु कहा जा सकता  है . मीडिया के महाभारत में वेब पत्रकारिता के यह अभिमन्यु शहीद नहीं होंगें .हालांकि मूल महाभारत युद्ध में शासक वर्गों ने अभिमन्यु को घेर कर मारा था लेकिन मौजूदा समय में सूचना की क्रान्ति के युग का महाभारत चल रहा है .. जनपक्षधरता के इस यज्ञ में आज के यह वेब पत्रकार अपने काम के माहिर हैं और यह शासक वर्गों की १८ अक्षौहिणी सेनाओं का मुकाबला पूरे होशो हवास में कर रहे हैं . कल्पना कीजिये कि वेब के ज़रिये राडिया काण्ड का खुलासा न हुआ होता तो नीरा  राडिया की सत्ता की  दलाली की कथा के सभी खलनायक मस्ती में रहते और सरकारी समारोहों में मुख्य अतिथि बनते रहते और पद्मश्री आदि से सम्मानित होते रहते..लेकिन इन बहादुर वेब पत्रकारों ने टी वीप्रिंट और रेडियो की पत्रकारिता के संस्थानों को मजबूर कर दिया कि वे सच्चाई को जनता के सामने लाने के इनके प्रयास में इनके पीछे चलें और लीपापोती की पत्रकारिता से बचने की कोशिश करें ..

वास्तव में हम जिस दौर में रह रहे हैं वह पत्रकारिता के जनवादीकरण का युग है . इस जनवादीकरण को मूर्त रूप देने में सबसे बड़ा योगदान तो सूचना क्रान्ति का है क्योंकि अगर सूचना की क्रान्ति न हुई होती तो चाह कर भी कम खर्च में सच्चाई को आम आदमी तक  पंहुचाया नहीं जा सकता था . जो दूसरी बात हुई है वह यह कि अखबारों और टी वी चैनलों से आज़ाद हो कर काम करने वाले पत्रकारों की राजनीतिक और सामाजिक समझदारी बिकुल खरी है . इन्हें किसी कर डर नहीं है , यह सच को डंके की चोट पर सच कहने की तमीज रखते हैं और इनमें हिम्मत भी है ..कहने का मतलब यह नहीं है कि अखबारों में और टी वी चैनलों में ऐसे लोग नहीं है जो सच्चाई को समझते नहीं हैं . वहां  बहुत अच्छे पत्रकार  हैं और जब वे अपने मन की बात लिखते हैं तो वह सही  मायनों में पत्रकारिता होती है

मुझे उम्मीद नहीं थी कि अपने जीवन में सच को इस बुलंदी के साथ कह सकने वालों के दर्शन हो पायेगा जो कबीर साहेब की तरह अपनी बात को कहते हैं और किसी की परवाह नहीं करते लेकिन खुशी है कि आज के पत्रकार सोशल मीडिया के ज़रिये अपनी बात डंके की चोट कह रहे  हैं .  आज सूचना किसी साहूकार की मुहताज नहीं है . मीडिया के यह नए जनपक्षधर उसे आज वेब पत्रकारिता के ज़रिये सार्वजनिक डोमेन में डाल दे रहे हैं और बात दूर तलक जा रही है .मैंने जिस  राडिया काण्ड का ज़िक्र शुरू में किया था , वह पत्रकारिता के नाम पपर धंधा करने वालों को बेनकाब करने का एक बेहतरीन उदाहरण  है. राडिया ने जिस तरह का जाल फैला रखा था  वह हमारे राजनीतिक सामाजिक जीवन में घुन की तरह घुस चुका है .. ऐसे पता नहीं कितने मामले हैं जो दिल्ली के गलियारों में घूम रहे होंगें . जिस तरह से राडिया ने पूरी राजनीतिक बिरादरी को अपने लपेट में ले लिया वह कोई मामूली बात नहीं है . आज से करीब तीस साल पहले भी इसी तरह का  एक घोटाला हुआ था जिसे जैन हवाला काण्ड के नाम से जाना जाता है . उसमें सभी पार्टियों के नेता बे-ईमानी करते पकडे गए थे लेकिन कम्युनिस्ट उसमें नहीं थे . इस बार कम्युनिस्ट भी नहीं बचे हैं . . यानी जनता के हक को छीनने की जो शोषणवादी कोशिशें चल रही हैं उसमें राजनीतिक दल तो शामिल हैं . सबको मालूम है कि जब राजा की चोरी पकड़ी जाती है तो उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती हमने देखा है कि  जैन हवाला काण्ड दफन हो गया था . ऐसे मामले दफन होते  हैं तो हो जाएँ लेकिन सूचना पब्लिक डोमेन में आयेगी तो अपना काम करेगी ,जनमत बनायेगी .
वेब पत्रकारिता की ताकत बढ़ जाने के कारण मेरा विश्वास है कि आज पत्रकारीय का स्वर्ण युग है . बस इस क्रान्ति में शामिल हो जाने की ज़रूरत है . अपनी  नौकरी के साथ साथ सूचनाक्रांति के महारथी बनने का   विकल्प  आज के पत्रकार के पास है . और विकल्प उपलब्ध हो तो उससे बड़ी आज़ादी कोई नहीं होती ..


मुझे खुशी है कि आज मैं काशी के एक नामी संस्थान के मंच पर हूं. यहाँ रहते हुए मेरे दो महानायकों ने साधारण भाषा में आम आदमी को खबरदार किया . मैंने कबीर साहेब और संत तुलसीदास की नामाबरी को प्रणाम करना चाहता हूँ .  जब स्थापित सत्ता के खिलाफ गोस्वामी तुलसीदास ने मैदान लिया था तो धर्म के ठेकेदारों ने उनको काशी से भगा दिया था क्योंकि वे शासक वर्गों की भाषा में नहीं लिखते थे , वे आम आदमी की बोलचाल की भाषा की पक्षधरता करते थे . हमें मालूम है कि संत तुलसीदास को भगवान राम की अयोध्या से दुकानदार रामभक्तों ने भी भगाया था क्योंकि उस युग के एक महान नायक के जीवन और चरित को साधारण तरीके से आम आदमी तक पंहुचा रहे थे. पंडों की बिचौलिया तानाशाही को नुक्सान पंहुंचा रहे  थे.  आज वही संत तुलसीदास  भगवान राम और उनकी कथा के सबसे बड़े भक्त माने जाते हैं . तुलसीदास के काम को मैं क्रांतिकारी और जनजागरण की पत्रकारिता मानता हूँ . क्योंकि भारत के उस वक़्त के शासक अकबर के राज में उन्होंने  हर घर में राजा रामचंद्र की जय के नारे लगवा  दिए थे . अकबर के राज में चार बार अकाल पड़ा था, उसने तेरह बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी थीं लेकिन उसके दरबार के चापलूस पत्रकारों ने प्रचारित कर  दिया कि वह तो बहुत महान  शासक था . लेकिन मैं अकबर को महान नहीं मानता . क्योंकि उसने  जनहित का कोई काम नहीं किया . इलाहबाद और आगरा  में किला बनवाया और अपनी जय बुलवाया . उससे बड़ा तो शेरशाह सूरी था जिसने अपने राज  में सड़कें आदि बनवाईं .

कुछ निजी अनुभवों की बात भी कर ली जाए तो ठीक रहेगा . जब  मैंने अखबारों में नौकरी शुरू की और जब ज़रा सीनियर लेवल पर पंहुचे तो  समझ में आया कि प्रेस की आजादी का क्या मतलब है . ऊपर से हिदायत आ जाती थी कि कुछ लोगों के खिलाफ खबर नहीं लिखना है . नीचे वालों को समझाया जाता था लेकिन तरीका ऐसा अपनाया जाता था कि उन्हें यह मुगालता बना रहे कि वे प्रेस की तथाकथित आज़ादी का लाभ उठा रहे हैं . जब टेलीविज़न में काम करने का अवसर मिला तो शुरुआती दौर दिलचस्प था .अपने देश में २४ घंटे की टी वी ख़बरों का वह शुरुआती दौर था . अखबार से आये मेरे जैसे व्यक्ति के लिए बहुत मजेदार स्थिति थी . जो खबर जहां हुई ,अगर उसकी बाईट और शाट हाथ आ गए तो उन्हें लगाकर सही बात रखने में मज़ा बहुत आता था. लेकिन छः महीने के अन्दर सिस्टम ने अपना रूतबा दिखा दिया . ऐसा माहौल बना दिया गया कि वही खबरें जाने लगीं जो संस्थान के हित में रहती थी. मैंने जिस न्यूज़ रूप की बात कर रहा हूँ, फिल्म पीपली लाइव के निर्माता अनुषा रिज़वी और महमूद फारूकी उन दिनों उसी न्यूज़ रूप में इस विकासमान व्यवस्था को देख रहे थे. पीपली लाइव की स्क्रिप्ट को उनके उस दौर के अनुभव से सीधे जोड़कर देखा जा सकता है . उसी संस्थान में बहुत सारे बहुत मामूली स्तर के लोगों को महान बनाने की कार्यशाला भी चल रही थी . और टेलिविज़न की चकाचौंध के शिकार ज़्यादातर लोगों को वही मीडियाकर लोग सर्वज्ञ बनाकर पेश कर दिए जा रहे थे .
आपका बहुत समय लिया लेकिन उम्मीद करता हूँ कि मेरी बातचीत से आज कुछ महत्वपूर्ण चर्चा होगी और आप के प्रयास से पत्रकारिता की भावी दशा दिशा को  कुछ नए रास्ते मिलेगें 


क्या संयुक्त राष्ट्र संघ को अलविदा कहने का मोड़ आ गया है ?



शेष नारायण सिंह

आज हम आर्थिक तबाही एक एक दौर में जी रहे  हैं . कोरोना वायरस के कारण  लगभग  सभी देशों की अर्थव्यवस्था   डावांडोल हो रही है . जानकार बताते हैं कि यूरोप के देशों की  संपत्ति को भारी नुक्सान हो चुका है . जितना आर्थिक नुकसान दूसरे विश्वयुद्ध के पांच वर्षों में हुआ  थाउतना तो अभी तक कोरोना के कारण हो चुका है . सबको  मालूम है कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद   संसार में भारी बदलाव हुए थे . जो देश जीत गए थे उन्होंने प्रभाव  क्षेत्र को माले-ग़नीमत समझ का बँटवारा कर लिया था . संयुक्त राष्ट्र संघ का जन्म भी दूसरे विश्वयुद्ध की कोख से ही हुआ था .आक जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं तो लगता  है कि  उसका मुख्य काम विजयी राष्ट्रों की ताक़त को और पुख्ता करना था. कोरोना से हुए  नुकसान के आकलन का काम अभी शुरू भी नहीं हुआ  है .लेकिन एक बात पक्की  है कि पूरी दुनिया में जान माल की भारी तबाही हो रही है .   यह तबाही अभी और  कितना होगी उसका  अंदाजा लगाना भी लगभग असंभव है . लेकिन  एक बात  भरोसे के साथ कही जा सकती है  कि अब दुनिया में राजकाज के  तरीके में निश्चित बदलाव आयेगा . लोकतंत्र का स्वरुप क्या होगा कोई नहीं बता सकता . कई राजनीतिक वैज्ञानिकों से बात करने से पता चलता है कि किसी को कुछ पता नहीं है , सब अँधेरे में टामकटोइयां मार रहे हैं . इस सारी अनिश्चितता के माहौल में एक भविष्यवाणी पूरे  भरोसे के  साथ की जा सकती है कि  उत्तर कोरोना युग में संयुक्त राष्ट्र की सत्ता तो समाप्त हो ही जायेगी .  संयुक्त  राष्ट्र की आम   सभा तो अब केवल राष्ट्राध्यक्षों के बयान पढने का मंच बन कर रह गया  है . सुरक्षा परिषद भी अब बिलकुल प्रभावहीन हो गया है . इसलिए उसकी भी कोई उपयोगिता नहीं रह गयी है . ऐसी स्थिति में संयुक्त राष्ट्र से संबंद्ध  बहुत सारी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं का भविष्य अंधकारमय दिख रहा है .  संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं में सबसे ताक़तवर संस्था सुरक्षा परिषद थी . वीटो पावर वाली उसकी स्थाई सदस्यता दूसरे विश्वयुद्ध के विजेता राष्ट्रों के लिए रिज़र्व थी. स्थापना के समय अमरीका ब्रिटेनफ़्रांस सोवियत रूस और चीन को सदस्यता दी गयी थी . इसमें दिलचस्प बात यह थी कि जिस चीन को सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता दी गयी थी वह  जनरल च्यांग कई शेक वाला चीन था . बाद में १९४९ में चीन में  कम्युनिस्ट पार्टी की अगुवाई में क्रान्ति के ज़रिये सत्ता बदली और चीन पर  माओ के  नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी  ने  क़ब्ज़ा कर लिया . च्यांग कई  शेक देश छोड़कर भाग खड़े हुए और चीन के एक  प्रांत ताइवान में अपना ठिकाना बनाया .अमरीका ने चीन के उस इलाके को ही रिपब्लिक आफ चीन का नाम दे दिया और १९७१ तक उसको ही सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य बनाए रखा. बाद में जब निक्सन राष्ट्रपति बने तो उनके विदेशमंत्री हेनरी  कीसिंजर ने तिकड़म करके  मुख्य चीन को पीपुल्स रिपब्लिक आफ चीन  के नाम से उस सीट पर स्थापित किया . यह खेल कम्युनिस्ट पार्टी के  नियंत्रण वाले सोवियत यूनियन को कमज़ोर करने के लिए  किया गया था क्योंकि तब तक चीन और सोवियत यूनियन की स्टालिन के समय वाली दोस्ती समाप्त हो चुकी थी और चीन सोवियत यूनियन का विरोधी हो चुका था. कीसिंजर को उम्मीद थी कि कोल्ड वार में  चीन का इस्तेमाल  सोवियत संघ के खिलाफ  किया जा सकता था.
सुरक्षा परिषद के ज़रिये अमरीका पूरी दुनिया में मनमानी  करता रहा था  . भारत को भी अमरीकी बाहुबल का अंदाजा लगा गया जब कश्मीर मामले में अमरीका ने खुलकर पकिस्तान का साथ दिया .उसके बाद ही जवाहरलाल नेहरू ने तय किया कि दोनों चीन और सोवियत यूनियन से समान दूरी बनाते हुए नवस्वतंत्र देशों का एक संगठन बनायेंगे. भारत की विदेशनीति का आधार ही अमरीका पर अविश्वास के साथ शुरू हुआ. यह बात १९७१ में बिलकुल  सही और उपयोगी साबित हुयी जब  बंगलादेश के मुक्ति संग्राम में अमरीका खुलकर भारत का  विरोध कर रहा था . बाद में जब  कोल्ड वर ख़त्म हुआ . सोवियत संघ का विघटन हुआ. पूर्वी यूरोप के देशों में   कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ता समाप्त हुई तो विश्व राजनीति में  अमरीका का पलड़ा भारी  हो गया . भारत की अगुवाई में चल  रहा निर्गुट देशों का  संगठन NAM कमज़ोर पड़ गया . भारत की नीति भी अमरीका परस्ती की  तरफ चल पड़ी . बात यहाँ तक  पंहुच गयी कि भारत के प्रधानमंत्री ने  निर्गुट देशों के शिखर सम्मलेन में  हिस्सा ही नहीं लिया . वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में निर्गुट देशों का शिखर सम्मेलन वेनेज़ुएला और अज़रबैजान में  हुआ. भारत के प्रधानमंत्री ने एक में  भी शिरकत नहीं की लेकिन अभी पिछले हफ्ते कूटनीतिक खबरों पर नज़र रखे वालों को आश्चर्य हुआ जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोविद-१९ पर हुए  निर्गुट देशों के सम्मलेन में वीडियो कान्फरेंसिंग के ज़रिये शिरकत की. ऐसा लगता है कि अब भारत की समझ में भी आने लगा है कि अमरीका परस्त विदेशनीति से कोई लाभ नहीं होने वाला है . इसलिए निर्गुट देशों के सम्मलेन को फिर से सक्रिय कारने की किसी योजना पार काम हो रहा है . यह बात एक और संकेत भी देती है कि उत्तर कोरोना युग में जब संयुक्त राष्ट्र बेमतलब हो जायेगा तो  तीसरी दुनिया के देशों को चीन की झोली में जाने से रोकने के लिए निर्गुट सम्मलेन एक महत्वपूर्ण संगठन  साबित हो सकता है .


संयुक्त राष्ट्र के समाप्त होने के  कारणों में उसकी उपयोगिता का सवाल तो है ही , उसमें होने वाले भारी खर्च पर भी सवाल उठेंगे. उसके  अंतर्गत काम करने वाली बीसियों  संस्थाएं हैं . उनके खर्च का बहुत बड़ा बजट होता है . संयुक्त राष्ट्र के खर्च के लिए  सदस्य देशों को चंदा  देना पड़ता है .  खर्च चलाने में अमरीका से मिलने वाली धन राशि का सबसे बड़ा हिस्सा होता है . अपने सबसे बड़े योगदान के बल पर अमरीका बाकी दुनिया के  देशों में अपनी चौधराहट कायम करता है . इराक में परमाणु ऊर्जा एजेंसी का इस्तेमाल अमरीका ने इराक पर  हमला करने के लिए किया था .विश्व बैंक का इस्तेमाल भी अमरीकी हित के लिए सबसे ज़्यादा होता रहा  है .  लेकिन अब हालात बदल  रहे हैं .  चीन अब   अमरीकी हित के बहुत सारे मामलों को सफल नहीं होने देता .जी- आठ के सभी सदस्य देशों की  आर्थिक हालत उत्तर कोरोना समय में बहुत अच्छी  नहीं  रहने वाली है. इसके पलट चीन की अर्थव्यवस्था उत्तर कोरोना युग में मज़बूत रहने वाली   है . ज़ाहिर है वह अपनी आर्थिक ताक़त   के माध्यम से  संयुक्त राष्ट्र में अपना दबदबा बनाने की कोशिश करेगा और दुनिया के उन देशों को एकजुट करेगा जो उसकी सहायता के मोहताज हैं  आज भी ऐसे देशों की संख्या बहुत है.   आज भी यूरोप और चीन से सबसे ज्यादा चंदा संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं में आता  है.  जब यह बात साफ़ हो जायेगी कि संयुक्त चीन के प्रभाव को बढाने के लिए इस्तेमाल होने जा रहा है तो अमरीका सहित पश्चिमी देश उसमें आर्थिक योगदान नहीं देंगे. संयुक्त राष्ट्र के संगठन ,विश्व स्वास्थ्य संगठन ( WHO ) को अमरीकी राष्ट्रपति कई बात चीन की कठपुतली बता  चुके हैं और उसको किसी तरह का चंदा देने से मना कर चुके हैं . ज़ाहिर है अन्य संगठन भी अमरीकी राष्ट्रपति के गुस्से का शिकार हो सकते हैं . और इस मंदी के दौर में चीन को ताक़तवर बनाने के लिए अमरीका कोई भी धन नहीं देगा . ऐसी स्थिति में संयुक्त राष्ट्र संघ से सम्बंधित  संगठनों का भविष्य अंधकारमय नज़र आ रहा है . 

चीन से अपने विवाद को भारत सुलझा लेगा ,अमरीका को दखल नहीं देना चाहिए



शेष नारायण सिंह



२०१८ में ३० नवम्बर को जी-20 का शिखर सम्मलेन अर्जेंटीना की राजधानी ब्यूनस आयर्स में  हुआ था. उस सम्मेलन में एक नए तरह का ध्रुवीकरण हो रहा था . देशबंधु ने उस सम्मेलन के बाद देश की अवाम को आगाह किया था कि " कहीं हम अमरीका के फ्रंट मैन तो नहीं बन रहे हैं . " हमारा मानना है कि भारत को जवाहरलाल नेहरू की विदेशनीति को ही आगे बढ़ाना चाहिए क्योंकि अगर महाशक्तियों के आपसी हिसाब किताब के पचड़े में पड़े तो स्वतंत्र विदेशनीति की अवधारणा एक सपना हो जाएगा. दिसंबर के पहले हफ्ते में देशबंधु में प्रकाशित आलेख में इस बात की समीक्षा की गयी थी और अमरीका से बहुत करीबी दोस्ती बनाने के खतरों  की विवेचना की गयी थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत आगे बढ़कर जापान, अमरीका और भारत को नई महाशक्ति के रूप में पेश किया और ऐसा माहौल बनाया कि अमरीका से दोस्ती के बाद भारत महाशक्ति वाली श्रेणी में आ जायेगा. लेकिन ऐसा नहीं  है ,अमरीका जिससे भी दोस्ती का अभिनय करता है उसको वह इस्तेमाल ही करता है . आज चीन के पड़ोसी देशों में  दक्षिण कोरिया और भारत के अलावा बाकी सब चीन के दोस्त हैं. आज हालात यह हैं की दुनिया को कोरोना वायरस को एक खूंखार आर्थिक और जैविक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा अमरीका भारत के लदाख में अपनी सेना की मौजूदगी का प्रचार कर रहा है और अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप मौक़ा देखकर भारत को अपनी छत्रछाया में लेने के लिए व्याकुल दिख रहे हैं. हम मानते हैं कि अमरीका कभी भी भारत के हित में काम  नहीं करेगा . ऐसी हालत में देशबंधु की दिसंबर २०१८ में दी गयी चेतावनी पर एक बार फिर नज़र डालने की ज़रूरत  है. प्रस्तुत हैं उस लेख के कुछ अंश :
" चीन के बढ़ते प्रभाव के मद्दे-नज़र   अर्जन्टीना की राजधानी ब्यूनस आयर्स में एक अलग तरह की गुटबाजी  बनती नज़र आयी . जापान अमरीका और भारत के  शासन प्रमुख गले मिले और लम्बी उम्र वाली दोस्ती की बुनियाद रखने का दावा किया . भारत के प्रधानमंत्री ,नरेंद्र मोदी ने इस त्रिगुट को जय ( JAI) नाम दे दिया  जो तीनों देशों के नामों के पहले अक्षर को मिलाकर बनाया गया है. अमरीकी राष्ट्रपति ,डोनाल्ड ट्रंपजापान के प्रधानमंत्री  शिंजो एबे और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक नए ध्रुवीकरण की बुनियाद रखी. भारत के विदेश मंत्रालय ने बताया कि तीनों  नेताओं ने आपसी हित के मुद्दों पर विचार विमर्श किया . अमरीका को प्रशांत और हिन्द महासागर के  क्षेत्र में  चीन से भारी चुनौती मिल रही है और उसकी इच्छा  है कि यह त्रिगुट इस इलाके में  चीन के  लगातार बढ़ रहे प्रभाव पर लगाम लगाने का काम करे . तीनों नेताओं की मुलाक़ात के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने  कहा  कि तीनों नेता बहुत अच्छे दोस्त हैं और तीनों अब  विश्वशांतिसम्पन्नता और स्थिरता के लिए मिलकर काम करेंगे. डोनाल्ड ट्रंप बहुत  खुश थे क्योंकि उनके हिसाब से भारत ,जापान और अमरीका के बीच इतने अच्छे सम्बन्ध कभी नहीं रहे और इस दोस्ती के बाद व्यापार बढेगा और सबसे अच्छा तो यह होगा कि फौजी साजो सामान की  खूब बिक्री होगी.  यानी आर्थिक मंदी की मात झेल रहे अमरीकी हथियार उद्योग को एक बाज़ार मुहैया हो जाएगा .तीनों देशों की मुलाक़ात का सन्दर्भ इसलिए और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि चीन अब हिन्द-प्रशांत के  क्षेत्र में बड़े पैमाने पर लाठी भांज रहा  है और अमरीका सहित जापान और  भारत के प्रभाव क्षेत्र लगातार सिकुड़ रहे हैं .  
अमरीका को चीन के मुकाबले एशिया में  किसी मज़बूत साथी की ज़रूरत है . एक ज़माना होता था जब कुछ देशों को छोड़कर एशिया के अधिकतर देश अमरीका के भक्त हुआ करते थे लेकिन अब सब कुछ बदल गया है . उसका सबसे भरोसेमंद देशपाकिस्तान अब चीन की गोद में बैठा है . इसी तरह से दक्षिण कोरिया के अलावा हिन्द-चीन में भी कोई देश अब चीन के खिलाफ अमरीका का साथ देने के लिए तैयार नहीं है . मध्य एशिया के कई देशों में रूसी  राष्ट्रपति पुतिन अमरीका को बेदखल कर चुके हैं  . ऐसी स्थिति में अमरीका को भारत को अपना बहुत करीबी दोस्त बनाने की ज़रूरत थी . और अर्जेन्टीना की इस मुलाक़ात के बाद इस बात पर मुहर लग गयी है कि भारत अब चीन के खिलाफ अमरीका का  फ्रंट मैन बन गया है . सवाल यह पैदा होता है कि अपनी स्वतंत्र  विदेश नीति का पालन करने वाले  भारत के लिए अमरीका चेला बनना कितना हानिकर होगा यह लाभकर होगा . इस विषय को समझना ज़रूरी है .

भारत के प्रधानमंत्री की अर्जेंटीना में हुई मीटिंग के बाद अपने  देश ने वह ओहदा प्राप्त कर लिया जिसकी कोशिश भारतीय प्रशासन लंबे समय से कर रहा था.  हम अमेरिका के रणनीतिक साझेदार तो पहले ही बन चुके थे .अब  हम उसकी विदेश नीति को चीन के खिलाफ लागू करने के फ्रंट राष्ट्र बन गए हैं . यह साझेदारी क्या गुल खिला सकती है यह समझना दिलचस्प होगा . भारत अमरीका का राजनीतिक पार्टनर हो गया है इसलिए अब भारत वही करेगा जो अमेरिका चाहेगा. अमरीकी राष्ट्रपति ने बार-बार इस बात का ऐलान किया और तीनों ही नेताओं ने ही कहा कि अब उनकी दोस्ती का एक नया अध्याय शुरू हो रहा है। आतंकवाद की मुखालिफतजलवायु परिवर्तनकृषि और शिक्षा के क्षेत्र में नई पहल की बात तो डॉ मनमोहन सिंह ही कर गए थे अब  फौजी साजो  सामान की बात जिस तरीके से डोनाल्ड ट्रंप ने की है उससे साफ़ ज़ाहिर है अमरीकी  हथियार उद्योग को भारत के रूप में एक बड़ा खरीदार मिल गया है .

पहले के ज़माने में भारत की लगातार शिकायत रहती थी कि अमरीका का रुख पाकिस्तान की तरफ सख्ती वाला नहीं रहता। लेकिन अब ऐसा नहीं है . पाकिस्तान बाकायदा चीन का मातहत देश बन चुका है और उसकी काट के लिए भारत के मौजूदा नेतृत्व ने अमरीका की  शरण में जाना ठीक समझा . वक़्त ही बताएगा कि यह रणनीति कितनी कारगर साबित होती है .  विदेशनीति के कर्ता धर्ताओं को सोचना चाहिए कि कहीं ऐसा तो नहीं कि भारत की वाहवाही करके अमरीकी कोशिश चल रही है कि भारत अपने आपको परमाणु अप्रसार संधि की मौजूदा भेदभावपूर्ण व्यवस्था के हवाले कर दे। जहां तक भारत की विदेशनीति के गुट निरपेक्ष स्वरूप की बात है उसको तो खत्म करने की कोशिश 1998 से ही शुरू हो गई थी जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने थे। उनके विदेश मंत्री जसवंत सिंह तो अमरीकी विदेश विभाग के मझोले दर्जे के अफसरों तक के सामने नतमस्तक रहते  थे। डॉ मनमोहन सिंह के दौर में भी यही राग चलता रहा था .और अब तो लगता है कि भारत अपने को अमरीकी विदेशनीति के उस मुकाम पर लाकर  पटक रहा  है जहां कभी पाकिस्तान विराजता था.

अमरीका की हमेशा से ही कोशिश थी कि भारत को अपना सदाबहार पार्टनर बना लिया जाय। 1966 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी थीं तो तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति लिंडन बी जानसन ने कोशिश की थी। बाद में रिचर्ड निक्सन ने भी भारत को अर्दब में लेने की कोशिश की थी। इंदिरा गांधी ने दोनों ही बार अमरीकी राष्ट्रपतियों को मना कर दिया था। उन दिनों हालांकि भारत एक गरीब मुल्क था लेकिन गुटनिरपेक्ष आंदोलन के संस्थापक के रूप में भारत की हैसियत कम नहीं थी। लेकिन वाजपेयी से वह उम्मीद नहीं की जा सकती थीजो इंदिरा गांधी से की जाती थी। बहरहाल 1998 में शुरू हुई भारत की विदेश नीति की फिसलन अब पूरी हो चुकी है और भारत अमरीका का रणनीतिक पार्टनर बन चुका है। अमरीका का रणनीतिक पार्टनर बनना कोई खुशी की बात नहीं है। एक जमाने में पाकिस्तान भी यह मुकाम हासिल कर चुका है . कभी अमरीकी विदेश नीति के आकाओं की नज़र में पाकिस्तान की हैसियत एक कारिंदे की हुआ करती थी उससे ज्यादा कुछ नहीं। इसलिए ताकतवर देश का रणनीतिक पार्टनर होना बहुत ही खतरनाक हो सकता है। और यह बात भारत को ज़रूर समझना चाहिए .

अब भारत भी राष्ट्रों की उस बिरादरी में शामिल हो गया है जिसमें ब्राजीलदक्षिण कोरियाअर्जेंटीनाब्रिटेन वगैरह आते हैं। इसका मतलब यह भी नहीं है कि कल से ही अमरीकी फौजें भारत में डेरा डालने लगेंगी। अमरीका की विदेश नीति अब एशिया या बाकी दुनिया में भारत को इस्तेमाल करने की योजना पर काम करना शुरू कर देगा और उसे अब भारत से अनुमति लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी। भारत सरकार को चाहिए जब अमरीका के सामने समर्पण कर ही दिया है तो उसका पूरा फायदा उठाए। अमरीकी प्रभाव का इस्तेमाल करके भारत की विदेशनीति को चलाने वालों को चाहिए कि सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता की बात को फाइनल करे। बहुत दिनों  तक अमरीकी हुक्मरान भारत और पाकिस्तान को बराबर मानकर काम करते रहे हैं। जब भी भारत और अमरीका के बीच कोई अच्छी बात होती थी तो पाकिस्तानी शासक भी लाइन में लग लेते थे। यहां तक कि जब भारत और पाकिस्तान के बीच परमाणु समझौता हुआ तो पाकिस्तान के उस वक्त के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ भी पूरी कोशिश करते पाए गए थे कि अमरीका उनके साथ भी वैसा ही समझौता कर ले। पाकिस्तानी विदेश नीति की बुनियाद में भी यही है कि वह अपने लोगों को यह बताता रहता है कि वह भारत से मजबूत देश है और उसे भी अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में वही हैसियत हासिल है जो भारत की है। जबकि सच्चाई इससे बिल्कुल पलट है।

भारत एक विकासमान और विकसित देश हैविश्वमंच पर उसकी हैसियत रोज ब रोज बढ़ रही है ऐसी स्थिति में अमरीका की साजिश में फंसने से बचना चाहिए था . क्योंकि अगर हम अपने आप को पूरी तरह से अमरीका की चेलाही में डाल देंगें तो अमरीका हमको वह इज्ज़त नहीं देगा जो उसको देना चाहिए .क्योंकि दुनिया ने देखा है कि अमरीका अपने सहयोगियों को अपना अधीन देश ही मानने लगता है .अब हमारे लिए अमरीकी कूटनीतिक और रणनीतिक साझेदारी की बात एक सच्चाई है और उसके जो भी नतीजे होंगे वह भारत को भुगतने होंगे लेकिन कोशिश यह की जानी चाहिए कि भारत की एकताअखण्डता और आत्मसम्मान को कोई ठेस न लगे। "
डेढ़ साल पहले दी गयी यह अखबारी चेतावनी पर सरकार को गौर करना चाहिए और डोनाल्ड ट्रंप को साफ़ समझा देना चाहिए कि चीन से जो भी विवाद है वे आपसी बातचीत से सुलझाए जायेंगे, अमरीका को उसमें दखल देने से बाज आना चाहिए .

लॉकडाउन की घोषणा के बाद सबसे ज्यादा तकलीफ शहरी गरीबों को ही झेलनी पड़ी.



शेष नारायण सिंह

कोविद 19 के चलते होने वाली तबाही की बात सारी दुनिया में हो रही है लेकिन भारत में कोरोना जनित बीमारी के खतरों से भी बड़ा ख़तरा  उन मुसीबतज़दा लोगों पर आ पड़ा है जो अपना गाँव घर छोड़कर शहरों में दो पैसे कमाने के लिए  चले गए थे. ऐसा लगता है कि सरकार ने देश में सबकुछ बंद करने के पहले उनके बारे में बिलकुल नहीं सोचा . नतीजा सामने है . आज वे गरीब लोग अपने गाँव पंहुचने की कोशिश कर रहे हैं . आज इस देश में बड़े शहरों से अपने गाँव की तरफ भाग रहे लोगों की संख्या इतनी बड़ी है कि एक महीने के अन्दर आतंरिक विस्थापन का एक  रिकार्ड बन रहा है . इतने कम समय में इतनी बड़ी संख्या में लोग एक जगह से दूसरी जगह कभी नहीं गए हैं .सबसे तकलीफ देने वाली बात यह है कि किसी सरकार को उनकी परवाह ही नहीं है .उत्तर प्रदेश सरकार ने बड़े शहरों से भागकर आ रहे लोगों को अपने राज्य में ही रोज़गार देने की एक बड़ी योजना बनाई है, चार अफसरों की एक कमेटी बना दी गयी है जिसको जिम्मा दे दिया गया  है कि वे जो भी करना पड़े लेकिन मजदूरों को कहीं काम पर लगाया जाए. बाकी किसी भी राज्य सरकार की तरफ से कोई काम नहीं हो रहा है . रेल मंत्रालय का रवैया सबसे गैर ज़िम्मेदार पाया गया है . उनकी हज़ारों ट्रेनें खडी हैं सारे कर्मचारी मौजूद  हैं  जब सरकार ने यह कह दिया है कि मजदूरों को उनके गाँव पंहुचाना एक प्राथमिकता है तो वे किस बात का इंतज़ार कर रहे हैं .मुंबईसूरतअहमदाबद में भूखों मर रहे लोगों की अपने गाँव जाने की कोशिश के चलते उनके ऊपर पुलिस की लाठियां क्यों बरसाई जा रही हैं .
 अगर लॉक डाउन की घोषणा के पहले इन मजदूरों की  संभावित मुसीबतों को ध्यान में रख लिया गया होता और उनके लिए  ज़रूरी इंतजाम कर लिया होता तो स्थिति इतना न  बिगडती .  अगर प्रधानमंत्री ने लेबर चौक पर रोजाना इकठ्ठा होकर उन मजदूरों की संभावित तकलीफ का आकलन कर लिया होता तो उनकी घर वापसी की तैयारी भी हो गयी होती या शहरों में ही उनके लिए भोजन आदि की व्यवस्था कर ली गयी होती  . लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ . नतीजा यह हुआ कि गाँव घर छोड़कर  शहरों में दो जून की रोटी की तलाश में गए लोग वहां  रहकर   भूखों से मुकाबला करने के लिए अभिशप्त हो गए . घोषणा के दो दिन बाद गरीबों की सहायता के लिए  वित्त मंत्री ने हजारों करोड़ रूपये का ऐलान किया.. वित्त  मंत्री ने गुरुवार को  प्रधानमंत्री गरीब कल्याण स्कीम की घोषणा की। डायरेक्ट कैश ट्रांसफर होगा और खाद्य सुरक्षा के जरिए गरीबों की मदद की जाएगी। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने दावा किया कि प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत किसी गरीब को भूखा नहीं रहने दिया जाएगा .लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ. लेकिन ऐसा कुछ भी नज़र नहीं आया.  उधर गृह मंत्रालय का हुकुम आ   गया कि जो जहां है उसको  वहीं रोक लिया जाय.  उत्तर प्रदेश सरकार ने केंद्र सरकार के इस आदेश की कोई परवाह नहीं की. उत्तर प्रदेश में  सड़क पर चल रहे लोगों को उनके घर पंहुचाने का काम जारी रहा . उधर राज्य सरकार ने यह भी योजना बना दी कि जो  लोग बाहर से आ रहे हैं उनको  अपने राज्य में ही काम दिया जाएगा . एक सच्चाई और गौर करने की है कि मार्च के आख़िरी हफ्ते और अप्रैल के पहले हफ्ते में जो लोग गाँव में गए थे उनमें से कोई भी कोरोना संक्रमित नहीं  है . लेकिन जब लॉक डाउन की दूसरी और तीसरी किस्तें घोषित की गयीं तो  संक्रमित लोगों का अपने  गाँव जाने का सिलसिला शुरू हुआ. इस बीच केंद्र सरकार अपने वफादार टीवी चैनलों के ज़रिये तबलीगी जमात वालों के हवाले से से सभी मुसलमानों को संदिग्ध बताने के प्रोजेक्ट पर काम करती रही. यह मंसूबा भी बहुत जल्दी ध्वस्त होने वाला था . बड़ी  बड़ी घोषणा की जाती रही . लाखों करोड़ रूपया कोरोना के नाम पर सरकारी खजाने से निकालने की योजना बन गयी लेकिन वह सारा धन कारपोरेट घरानों  के लिए ही था. बड़ी कंपनियों को राहत दी गयी , इस उम्मीद में कि जब उद्योगपति  अपना कारोबार चलाएगा तो  मजदूरों को भी कुछ मिलेगा. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. उल्टा हुआ यह कि  कोरोना के बहाने सरकार ने मजदूरों के सारे अधिकार छीन लिए गए  . किसानों की खस्ता हालत की परवाह नहीं की और इसी कोरोना के नाम पर ऐसे ऐसे फैसले कर लिए गए जिसके लिए आने वाली  नस्लें पछतायेंगी. खेती में ऐसे बदलाव कर दिए गए हैं कि सारी ज़मीन अब ठेके की खेती के रास्ते बड़े घराओं के हाथ में जाने का खतरा पैदा   हो गया है .
 सरकार की अदूरदर्शी सोच का नतीजा ही  है कि दुनिया के बाकी देशों  जहाँ कोरोना के मुकाबले में सारे संसाधन लगाए जा रहे हैं , हमारे यहाँ शहरों से गाँवों की तरफ भाग रहे लोगों की चर्चा चारों तरफ हो रही है . उत्तर प्रदेश में तो अब कोई पैदल नहीं चल रहा  है लेकिन सूरत, अहमदाबाद और मुंबई से लोग अभी भी उत्तर प्रदेश और  बिहार के अपने गाँवों की तरफ पैदल ही भागे जा रहे हैं. इस भयानक उत्तर भारत की गर्मी में जहाँ दस क़दम पैदल चलने पर भी तकलीफ होती  है , वहीं हज़ारों की संख्या में मजदूर पैदल ही अपने बच्चों के साथ , अपने सिर पर सामान लादे चले जा रहे हैं . इतनी गर्मी में कैन कहाँ जा रहा  है , किसी भी सरकारी एजेंसी को पता नहीं है .  सरकार की तरफ से आने वाले बयानों में उनका कहीं ज़िक्र नहीं है .
अपने एक  भाषण में प्रधानमंत्री ने  दावा किया था कि जीडीपी का  दस प्रतिशत धन कोरोना से लड़ने के खाते में  सरकार ने  पैकेज के रूप में दे दिया है . यानी जीडीपी में पहले से ही जो कमी होने वाली थी उसमें दस प्रतिशत की और कमी होना निश्चित है लेकिन  सरकार गैरज़रूरी खर्चों को कम करने की कोई बात नहीं कर रही है . अभी पिछले दिनों खबर आई थी कि  राष्ट्रपति रामनाथ कोविंदउप राष्ट्रपति वेंकैया नायडू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्राओं के लिए 8,458 करोड़ रुपये की लागत से दो बोइंग विमान खरीदे जा रहे हैं .. ये विमान अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के एयरफोर्स वन की तरह जबरदस्त सुरक्षा से लैस होंगे.  सरकार नई संसद और सेन्ट्रल विस्ता के दफ्तरों की जगह पर नया दफ्तर   बनाने की अपनी गैरज़रूरी योजना पर भी अड़ी हुई है . सवाल यह है कि आज जब हर सरकारी बयान में यह दावा किया जा रहा है कि मौजूदा स्थिति युद्ध से भी ज़्यादा मुश्किल है तो उसके  लिए लोगों से पैसा लेकर इन  मदों में खर्च करने की ज़रूरत क्या है .इनका औचित्य क्या है ?
हालांकि शुरू में लोगों को शक था  कि सरकार ने जानकारों से समझे बूझे बिना ही इतना बड़ा फैसला ले लिया . उस फैसले के कारण बहुत सारी समस्याएं पैदा हो गयीं और उन समस्याओं का पूर्वानुमान किये बिना ही घोषणा  कर दी गयी. भारतीय उद्योगपतियों के संगठन सी आई आई के पूर्व अध्यक्ष नौशाद फ़ोर्ब्स ने एक बयान देकर कहा है कि सरकार के पास एक प्रस्ताव भेजा गया था जिसके तहत उद्योगों के बंद होने के बाद मजदूरों को वेतन दिए जाने का प्रस्ताव था लेकिन सरकार ने उसको मंज़ूर नहीं किया . आगर कर लिया होता तो इतने बड़े पैमाने पर पलायन न होता. एक सवाल जो चारों तरफ से पूछा जा रहा है , वह यह है कि लॉक डाउन घोषित करने के पहले केवल चार घंटे का नोटिस क्यों दिया गया . सवाल यह है कि लॉकडाउन की घोषणा के पहले रहस्य क्यों बनाकर क्यों रखा गया ? नोटबंदी के ऐलान के समय भी ऐसा ही हुआ था .उस समय का तर्क तो समझ में आता है क्योंकि अगर रहस्य न रखा गया तो  सरकार के अन्दर के  ही लोग नोट के जमाखोरों को खबर लीक कर  देते  तो उसका मकसद ही ख़त्म हो जाता . इस  बार रहस्य बनाये रखने का कहीं कोई औचित्य नहीं  है . नोटबंदी की मुसीबतों को तो मजदूरों के साथ ऊंचे लोगों ने भी झेला था लेकिन इस बार सबसे ज्यादा मुसीबत समाज के सबसे गरीब लोगों के  हिस्से ही आई .अगर थोडा समय दे दिया गया होता और यह बता दिया होता कि आने वाले एकाध दो महीने उद्योगों के बंद रहने की संभावना है तो लोगों ने उस हिसाब से अपनी योजना बना ली होती . लेकिन किसी भी सरकारी घोषणा को  टेलिविज़न का इवेंट बनाने की सरकार की जो प्रबल इच्छा रहती है ,उसी के कारण यह सारी परेशानी आई.
देश में मजदूरों के प्रवास के जानकार बहुत सारे विद्वान् हैं .  प्रधानमंत्री के अपने शहर अहमदाबाद के आई आई एम में चिन्मय तुम्बे प्रोफ़ेसर  हैं . उन्होंने इस विषय पर बहुत काम किया है लेकिन सरकार के किसी आदमी ने उनसे भी कोई बात नहीं की. जबकि चिन्मय तुम्बे की किताबों के सन्दर्भ दुनिया पर में दिए जाते हैं . उनकी किताब , इंडिया मूविंग : हिस्ट्री आफ माइग्रेशन "  देश के बाहर जाने  वाले और  अपने ही देश में  महानगरों में गाँव से शहर जानकर रोटी कमाने वाले मजदूरों के बारे में विस्तृत जानकारी  है. उस जानकारी का कहीं कोई इस्तेमाल नहीं किया  गया  . हर सरकारी आंकड़े में दर्ज है कि देश के औद्यगिक केन्द्रों में बहुत बड़ी संख्या में  कम विकसित राज्यों से आकर लाखों लोग मजदूरी करते  हैं. मुंबई, सूरत, भिवंडी, मुंबई,  बेंगलूरू, कोयम्बतूर, इचल करंजी, दिल्ली, गुरुग्राम, आदि शहरों में प्रवासी मजदूरों की भारी संख्या है लेकिन  सरकार ने उनके लिए कोई योजना नहीं बनाई ..
नतीजा यह है आज मुंबई, इंदौर , सूरत, अहमदबाद से लोग भाग भाग कर अपने गाँव जा रहे हैं . जो भी सवारी मिल रही है , वही ले  रहे हैं . बहुत सारी दुर्घटनाएं भी हो रही हैं . घर पंहुचने से पहले मर जाने वालों का भी रिकार्ड कहीं कहीं तो हा लेकिन सम्पूर्ण नहीं है . इसलिए सरकार की गैरजिम्मेदार तैयारी के चलते मजदूरों का एक बहुत बड़ा वर्ग अकल्पनीय तकलीफ से गुज़र  रहा है . आने वाला समय इस का भी हिसाब रखेगा.