Friday, October 12, 2018

मेरे दोस्त जवाहरलाल बरनवाल एक जिंदादिल इंसान हैं.




शेष नारायण सिंह

सुल्तानपुर -जौनपुर रोड पर सबसे बड़ा कस्बा लम्भुआ है . आज़ादी के पहले तो एक  गाँव था.  सड़क भी कच्ची मिट्टी और कंकड़ की थी . दूसरे विश्वयुद्ध के समय रेल लाइन बिछी थी  जो लम्भुआ से गुज़रती थी लेकिन वह केवल माल गाडी या फौज़ी गाडी के लिये ही इस्तेमाल होती थी.  १९४७  के बाद इस लाइन पर सवारी गाड़ी चलने लगी  . पहले सुल्तानपुर-जौनपुर पैसेंजर ( एस जे ) चलना शुरू हुयी तो आस पास के गाँवों के वैश्य बिरादरी के लोग  अपनी दुकानों को लेकर लम्भुआ आने लगे . जब मैं १९६७ में जौनपुर पढने गया तो सुबह एक गाड़ी जौनपुर जाती थी और वही शाम को वापस आती थी . और जो गाडी सुबह जौनपुर से चलकर सुल्तानपुर आयी रहती थी वह शाम ४.४०  पर सुल्तानपुर से चलकर जौनपुर जाती थी . सिंगरामऊ में  उसके कोयले के इन्जन में पानी भरा जाता था  . आजकल सिंगरामऊ स्टेशन का नाम हरपाल गंज कर दिया गया है . बाद में तो डीज़ल का इंजन आ गया लेकिन हमारी पैसेंजर कोयले से ही चलती थी .  लम्भुआ से जौनपुर का करीब पचास किलोमीटर का सफ़र यह  गाडी तीन  घंटे में तय करती थी. जब हम गाड़ी से जौनपुर सिटी स्टेशन पर उतरते थे तो सफ़ेद कपड़े सिलेटी हो चुके होते थे .उसी दौर में इस लाइन पर हावड़ा से अमृतसर जाने वाली एक्सप्रेस ट्रेन ,४९ अप और ५० डाउन भी चलने लगी थी. जब उसका स्टापेज लम्भुआ हो गया तो बाज़ार की कुण्डली में एक गाड़ी और जुड़ गयी . इस बीच सड़क पर भी काम शुरू हुआ और  धीरे धीरे सुल्तानपुर -जौनपुर की सड़क तारकोल वाली हो गयी . उसके बाद लम्भुआ की बाज़ार बड़ी होने लगी . शुरू में इस बाज़ार में शुक्रवार और सोमवार को ही ज्यादा खरीद फरोख्त होती थी , अब बात  बदल गयी है . अब तो लम्भुआ तहसील का  मुख्यालय भी  है . पहले नहीं था, पहले तहसील कादीपुर में हुआ करती थी . आज लम्भुआ बाज़ार नहीं एक छोटा शहर है .

लम्भुआ में एक जे क्लब है.  उसके आजीवन अध्यक्ष हैं जवाहर लाल बरनवाल . शायद १९६७ में इस क्लब ही स्थापना हुई थी . जवाहरलाल के अलावा क्लब के दो और सदस्य हैं, मास्टर कल्लूराम और अलीमुद्दीन . क्लब के नियम में लिखा है कि इसकी सदस्य संख्या बढ़ाई नहीं जा सकती है .सदस्य केवल तीन ही रहेगें.  बाद के वर्षों में क्लब बहुत ही लोकप्रिय हो गया . बहुत सारे दोस्तों ने मांग करना शुरू कर दिया कि हमको भी सदस्य बनाओ तो नियम में थोडा ढील दी गयी . तय हुआ कि स्थाई सदस्य तो नहीं  बढ़ाए जा सकते लेकिन लोगों को अस्थायी आमंत्रित सदस्य के रूप में स्वीकार किया जा  सकता है . इस नियम के बाद बहुत सारे लोग सदस्य बने . लेकिन सभी अस्थाई आमंत्रित सदस्य ही हैं . मुझे भी शायद १९७० में इस क्लब के सदस्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया था  . सत्तर का दशक  क्लब के सदस्यों के लिए स्वर्णयुग है . ज्यादातर लोगों को इसी दौर में नौकरियाँ मिलीं. बहुत सारे लोगों की शादियाँ हुईं ,ज्यादातर लोगों के यहाँ बाल बच्चे हुए . और क्लब के अध्यक्ष जवाहरलाल बरनवाल को इमरजेंसी लगने के बाद गिरफ्तार किया गया . याद नहीं पड़ रहा कि मीसा में पकड़े गए थे कि डी आई आर में . किसी मुकामी कांग्रेसी नेता से उनकी अनबन हो गयी थी जिसने उनको इंदिरा गांधी का विरोधी बताकर बंद करवा दिया था . इंदिरा गांधी के विरोधी तो वे थे लेकिन किसी राज्नीतिक्गातिविधि से उनको कुछ भी लेना देना नहीं था . नेता के मुकामी रंग को चमकाने के लिए यह कारस्तानी हुई थी . जवाहरलाल की  बिसातखाने की दूकान थी . साबुन तेल आदि भी मिलता था, अच्छी दूकान थी . उनके यहाँ इलाके के  पढने लिखने वाले ज़्यादातर नौजवान ग्राहक होते थे . कभी कुछ पैसा कम पड़ गया तो उधार हो जाता था. उनके यहाँ उधार लेने वाले कुछ लोग इंटरमीडिएट के बाद ही  प्राइमरी स्कूल में मास्टर हो गए , कुछ लोग बी एड करके इंटर कालेजों में बतौर शिक्षक भर्ती हो गए, कुछ लोगों ने एम ए में प्रथम श्रेणी ली और डिग्री कालेजों में नौकरी पा गए . कुछ लोग वकील हो गए और कुछ लोग दिल्ली बंबई चले गए . मुराद यह कि जे क्लब के ज्यादातर सदस्य  उस इलाके के लिहाज़ से अच्छी नौकरियों में जम गए . उसके बाद कुछ लोगों ने उनकी दूकान का पुराना उधार चुकता कर दिया और  नियमित नक़द खरीदारी करने लगे लेकिन कुछ महान आत्माएं ऐसी भी थीं, जिन्होंने न तो पुराना अदा किया और नई खरीदारी के लिए दूसरी दूकान पकड ली. सबको पता है कि कस्बे की दुकनदारी की बुनियाद नया पुराना करते रहने में ही होती है और अगर पुराना उधार अंटक जाय तो काम गड़बड़ा जाता है . उनके साथ भी यही हुआ . धीरे धीरे दुकान से माल टूटने लगा . उधार वाला रजिस्टर मोटा  होता गया और दुकान कमज़ोर होती गयी लेकिन अध्यक्ष ने हार नहीं मानी . किसी पुराने  साथी से राह चलते तकादा नहीं किया . इस बीच उनका  बेटा पढाई लिखाई कर रहा था , वह तैयार हो गया , काम का रास्ता बदल दिया और आज अध्यक्ष का बुढापा सम्मान से बीत रहा है .
यह अध्यक्ष अजीब आदमी है . कभी भी हार नहीं मानता , सबके मुंह पर खरी खरी कह देता है.  जिससे  दोस्ती की ,कभी अपनी तरफ से नहीं तोडी . अगर कोई किसी कारण से अलग हो गया तो हो जाए ,कोई परवाह नहीं की. जिसने पंगा लिया उसको पूरी तरह से इग्नोर कर दिया . शान से जीने का आदी ७५ साल का  यह जवान आज भी उसी ज़िन्ददिली के साथ जमा हुआ है . जवाहरलाल से मेरी बहुत अपनैती है . इनका मूल गाँव मकसूदन है .  यही मेरे पुरखों का गाँव भी है . सैकड़ों साल से इनके और हमारे परिवार के बीच में अपनापा है . यह गाँव गोमती नदी के किनारे बसा हुआ है . मेरा पुराना  घर तो ठीक नदी के किनारे ही है ,इनका घर बाज़ार में है. मकसूदन गाँव में गोमती जी घूमती हैं और अर्धचन्द्राकार  दिशा लेकर नानेमाऊ की तरफ चली जाती हैं. पापर घाट से मकसूदन तक नदी का बहाव बिलकुल सीधा है लेकिन हमारी घरुही से मुड़कर अर्धचंद्राकार हो जाती हैं  . बाद में दियरा और धोपाप होती हुयी आगे जौनपुर चली जाती हैं .  शुरू के दिनों में जब सड़कें नहीं होती थीं तो नाव में लादकर व्यापार का सामान  नदियों के रास्ते ही लाया जाता था. शायद इसीलिये  ज्यादातर व्यापारिक केंद्र नदियों के किनारे ही हैं  . हमारे इलाके के पुराने समय के सबसे महत्वपूर्ण बाज़ार , मक्सूदन, दियरा, बरवारी पुर आदि बहुत बड़े बाज़ार हुआ करते थे . दियरा तो थोडा बचा हुआ है लेकिन मक्सूदन उजड़ गया. गाँव तो अब भी है लेकिन बाजार नहीं है . अब हमारे यहाँ के बरनवाल लोग लम्भुआ, सुल्तानपुर, कानपुर आदि  बाजारों में शिफ्ट हो चुके  हैं. और वहां भी उनको उनके कारोबार की वजह से पहचाना जाता है. जवाहरलाल का शानदार मकान भी अब गाँव में है लेकिन अब उसको गाँव के ही एक बाबू साहब को दे दिया गया  है . जवाहरलाल अब लम्भुआ में रहते हैं .  उनके कई भाई भी लम्भुआ में अपना घर बनवा चुके हैं .
आज़ादी मिलने के पहले हमारे इलाके में  हाई स्कूल नहीं था. कादीपुर तहसील में शायद छीतेपट्टी में इंटर कालेज था . सुल्तानपुर जिला मुख्यालय था , वहां भी इंटर कालेज था . जिले में डिग्री कालेज तो कोई भी नहीं था. आजादी के बाद सरकार ने ऐसी नीति  बनाई की कि  हाई स्कूल खोलना आसान हो गया . जिसके पास ज़मीन थी और देश के निर्माण का जज्बा था , उन लोगों ने स्कूल कालेज खोले. १९५०-५१ में हमारे गाँव के आस पास चौकिया, भरखरे, कादीपुर ,बेलहरी आदि गाँवों में इंटर कालेज खुल गए.  बेलहरी का इंटर कालेज मक्सूदन से करीब था . नाव से नदी पार करके  बेलहरी शुरू हो जाता था. जवाहरलाल उसी कालेज में हाई स्कूल के छात्र के रूप में १९५७ में दाखिल हो गए . बेलहरी उस इलाके का सम्मानित कालेज था . वहीं से इंटर पास करके आप ने ज़िंदगी की लड़ाई में क़दम रखा और लम्भुआ बाज़ार में  बिसातखाने की दुकान खोली. तब तक मक्सूदन की बाज़ार का रूतबा कम होना शुरू हो गया था. लेकिन जब इस बाज़ार का जलवा था तो यहाँ के सेठ साहूकार  बहुत ही इज्ज़त से देखे जाते थे.
महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन में इनके पिताजी ने तीन हज़ार रूपये का चंदा दिया था. उनके साथ इनके खानदान के चार और सेठों  ने भी  चंदा दिया था और जेल गए थे. कादीपुर की तहसील की हवालात में उसका रिकार्ड था . जब जवाहरलाल इंटर में पढ़ते थे तो उन्होंने कादीपुर तहसील जाकर इसकी जानकारी ली . वहां तैनात क्लर्क ने कहा कि नाम तो रिकार्ड में है .अगर एक हज़ार रूपया दे दो तो स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी की  सर्टिफिकेट बना दूंगा लेकिन इनके पिताजी ने साफ़ मना कर दिया .और कहा कि महात्मा गांधी के आन्दोलन में पैसा किसी लाभ की उम्मीद में नहीं दिया था . उस क्लर्क को घूस नहीं दिया गया और  सर्टिफिकेट नहीं बना .
जवाहरलाल बरनवाल की जाति वैश्य है . हमारे इलाके में सेठ साहूकारों के बच्चे दबंगई नहीं करते लेकिन आपने कालेज के दिनों में रुतबे का छात्र जीवन बिताया और बाकायदा फेल हुए. लेकिन हिम्मत नहीं हारी और इंटरमीडिएट पास करके ही बेलहरी कालेज का पिंड छोड़ा .जवाहरलाल ने पिछले पचास साल में  बहुत सारे ऐसे लोगों की मदद की है जिनकी पढ़ाई छूटने वाली थी . इम्तिहान की फीस तो सैकड़ों लोगों की जमा करवाई है . मैंने पूछा कि जिन लोगों की मदद की उनमें से कोई आपकी किसी  परेशानी में कभी खड़ा हुआ . तो उन्होंने मुझे बताया कि मैंने यह सोचकर किसी की मदद नहीं की थी . खुद मेरे लिये जवाहरलाल  परेशानी के वक़्त खड़े हो जाते थे . उसका डिटेल लिखकर उनको अपमानित नहीं करूंगा लेकिन मेरे  बच्चों को मालूम है कि वे मेरे सही अर्थों में शुभचिन्तक हैं . अपने दोस्तों की अच्छाइयों को पब्लिक करना उनकी आदत का हिस्सा है और उनकी कमियों को ढँक देने के फन के वे उस्ताद हैं
मुझे लगता  है भर्तृहरि के नीतिशतकम में संकलित यह सुभाषित उन जैसे लोगों के लिये ही लिखा गया रहा होगा
पापान्निवारयति योजयते हिताय
गुह्यम् च गूहति गुणान् प्रकटी करोति
आपद्गतम्  च न जहाति ददाति काले
सन्मित्रलक्षणम् इदम्  प्रवदन्ति सन्ताः
                     
जो अपने मित्र  पाप करने से रोकता है ,अच्छे काम करने की प्रेरणा देता है .
उसकी कमियों को छुपाता है और  सद्गुणों को सबके समक्ष प्रकट करता है
ऐसा बुरे वक़्त में साथ नहीं छोड़ता .ज़रूरत पड़ने पर सहायता देता है ,
संतों ने इसी को अच्छे मित्र का लक्षण बताया है .
जवाहरलाल बरनवाल के बारे में मैं अपने उस समय के मित्रों ,गया प्रसाद मिश्र  राम मूर्ति मिश्र, राम प्रसाद सिंह ,संगम प्रसाद दूबे , महेंद्र कुमार श्रीवास्तव राम चन्द्र मिश्र, डॉ समर बहादुर सिंह आदि के साथ बैठकर एक संस्मरण नुमा पोथी लिखना चाहता हूँ . देखें कब संभव होता है .

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