शेष नारायण सिंह
फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह की कथित आत्महत्या और उनके प्रदेश बिहार में आसन्न चुनावों के मद्दे-नज़र एक आत्महत्या भी राजनीतिक चर्चा का विषय बन गयी है . मामला यहाँ तक पंहुच गया है कि सुप्रीम कोर्ट को जांच एजेंसी के चुनाव के मामले में फैसला देना पडा. मुंबई में ही सिनेमा जगत से जुड़े बहुत सारे लोगों की आत्महत्याओं की खबर आ रही है . देश के अन्य इलाकों में भी आत्महत्याएं हो रही हैं. जब कोरोना के चलते लॉकडाउन एक महीने के बाद भी बढ़ाना पड़ा था तो बहुत से मनोविज्ञानिकों ने चेतावनी दी थी कि अपने अपने घरों में अकेले बंद लोगों को चाहिए कि बिलकुल तनहा न हो जाएँ. किसी जगह आना जाना या लोगों से मिलना जुलना, सिनेमा , बाज़ार आदि तो सब बंद था . लेकिन फोन से ही अपने इष्ट मित्रों से संपर्क बनाये रखना उपयोगी था. यह भी आगाह किया गया था कि किसी मित्र की भावनाओं को आहत न किया जाए क्योंकि अगर भावनाएं आहत होंगीं तो आदमी डिप्रेशन का शिकार हो सकता है .मीडिया में आ रही सुशांत राजपूत की मृत्यु की घटनाओं के क्रम को देखा जाए तो वहां भी कुछ ऐसा ही लग रहा है . एक घनिष्ठ मित्र उनका साथ छोड़कर चली गयी जिसके पूरे परिवार को वे अपना परिवार मान बैठे थे. उनका फोन लेना बंद कर दिया क्योंकि उनको ब्लॉक कर दिया था . सुशांत के पिता का आरोप है कि उनकी मित्र और उनके परिवार ने उनसे भारी आर्थिक मदद भी ली थी. अगर यह आरोप सच है तो डिप्रेशन और पछतावा का सीधा मामला बनता है . सच्चाई क्या है वह तो जांच में पता लगेगी लेकिन महानगरीय जीवन जीने वालों के बीच आत्महत्या के प्रमुख कारणों में निराशा और डिप्रेशन की भूमिका का महत्वपूर्ण स्थान तो हैं ही, बहुत ही ऊंचे लक्ष्य तय करके उनको हासिल करने के प्रयास के दौरान होने वाली निराशा का भी बहुत बड़ा योगदान है . मनुष्य जब अकेला पड़ जाता है तो उसे अपना जीवन समाप्त करने की ललक मुक्ति का साधन लगती है . यह दोषपूर्ण तर्क पद्धति है ,इससे बचना चाहिए ...
बंगलोर में कोरोना , तनहाई, निराशा और ऊंचे लक्ष्य की और पंहुचने की कोशिश कर रहे एक नौजवान की आत्महत्या के मामले ने उसके मित्रों और परिवार वालों में शोक की लहर दौड़ा दी है .बंगलोर का इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ साइंस देश का सर्वश्रेष्ठ शिक्षा और शोध का केंद्र माना जाता है. वहां प्रवेश पाना ही अपने आप में किसी भी छात्र के मेधावी होने का प्रमाण है. अभी खबर आई है कि वहां पढ़ रहे एम टेक के एक छात्र ने आत्महत्या कर ली है . बताया गया है कि छत्तीसगढ़ के रहने वाले उस छात्र ने अपने कुछ दोस्तों को फोन पर मेसेज भेजा कि उसको अपने अन्दर कोविड19 के कुछ लक्षण दिख रहे हैं . ज़ाहिर है अब जीवन का अंत होने वाला है इसलिए मैं खुद ही अपने आपको ख़त्म कर दूंगा . इस तरह के सन्देश उसके कई दोस्तों को मिले. दोस्त घबडा गए . अपने तरीके से उसको रोकने की कोशिश करने लगे .उनमें से एक ने संस्थान के अधिकारियों से संपर्क किया और उनको जानकारी दी .लेकिन जब संस्थान के कर्मचारी उस लड़के के हास्टल के कमरे में पंहुचे तब तक बहुत देर हो चुकी थी. उसने फांसी लगा ली थी. वह तो चला गया लेकिन उसने एक बार उन सवालों को फिर से जिंदा कर दिया है जो बार बार पूछे जाने चाहिए. पूछे भी गए हैं लेकिन जवाब नहीं आता . यह सवाल सरकार से नहीं पूछे जाने चाहिए . यह सवाल समाज से , मीडिया से , परिवार से , स्कूलों से , मित्रों से और बहुत ऊंचे सपने पालने वाले मिडिल क्लास से पूछे जाने चाहिए . बंगलौर के साइंस इंस्टीट्यूट के छात्र की आत्महत्या का सवाल तो सीधे सीधे मीडिया, खास तौर से टेलिविज़न मीडिया की तरफ ही केन्द्रित हैं. जब से कोरोना का संकट शुरू हुआ है , टीवी स्क्रीन पर कोरोना के आत्नक की लगातार बमबारी चल रही है , वह लोगों के मन में दहशत फैला चुका है . लोगों के दिमाग में यह बात भर दी गयी है कि कोरोना की छूत लगते ही मौत की उल्टी गिनती शुरू हो जाती है . जबकि यह सच नहीं है. कोरोना के वायरस के हमले के बाद बहुत सारे लोग ठीक होकर घर आ गए हैं . यह बताया जाना ज़रूरी है कि कोविड 19 भी एक तरह का वायरल जुकाम है . लोग कहते थे कि जुकाम की दवा करो तो सात दिन में ठीक होता है और अगर दवा न करो तो एक हफ्ते में लग जाते हैं . शरीर के अंदर जो रोगप्रतिरोधक या इम्युनिटी की क्षमता है वह उसके संक्रमण को निष्क्रिय करने में सक्षम है . मैं ऐसे कई मामले जानता हूँ जहां किसी संक्रमित व्यक्ति के संपर्कों की जांच के सिलसिले में कुछ मामले ऐसे पाए गए जिनको कोरोना संक्रमण कुछ समय पहले हो चुका था और वे ठीक भी हो चुके थे . यह बातें केस स्टडी के ज़रिये किसी भी चैनल ने नहीं चलाया . जबकि इससे माहौल थोडा हल्का हो सकता था .अगर इस तरह के मामले भी हाइलाईट किये गए होते तो कोरोना की जो दहशत फैली है वह उस रूप में न फैली होती . कोरोना के संक्रमण के बाद ठीक होने वालों की संख्या मरने वालों की संख्या से बहुत ज़्यादा है. सत्ता के सर्वोच्च मुकाम पर बैठे गृहमंत्री अमित शाह को भी कोरोना संक्रमण हो गया था और वे ठीक होकर अस्पताल से घर आ गए. ऐसे बहुत सारे मामले हैं. बंगलोर के उस छात्र को इन सभी सूचनाओं को आत्मसात करना चहिये था जिससे उसके अन्दर निराशा कभी न आती .लेकिन उसने कठिन रास्ता अपना लिया .अधूरी सूचना के आधार पर होने वाली आत्महत्याओं की संख्या कम नहीं है . इसलिए अधूरी सूचना के प्रचार प्रसार को उत्साहित नहीं किया जाना चाहिए .
अभी एक दूसरी आत्महत्या की सूचना मिली है . मेरे बहुत ही करीबी परिवार के अठारह साल के बच्चे ने आत्महत्या कर ली है . लड़का आई आई टी की प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रहा था . बारहवीं की परीक्षा में बहुत अच्छे नंबर आये थे . मार्च से ही अपने घर में रहकर पढ़ाई लिखाई चल रही थी. लॉकडाउन के चलते बाहर निकलकर खेलना बंद था .अपने हमउम्र बच्चों से मिलना जुलना भी नहीं हो रहा था. परिवार में उच्च शिक्षा का माहौल था. उसके पिता और बाबा की पीढ़ी में परिवार के लोग बड़े पदों पर थे. सब लोगों ने बिना किसी दबाव के पढ़ाई लिखाई की थी .उसके बाबा के बड़े भाई तो स्वंत्रतता संग्राम सेनानी थे , संविधान सभा के सदस्य थे . पहली, दूसरी और तीसरी लोकसभा के सदस्य थे. उसके मातापिता ने उसको किसी तरह का टारगेट नहीं दिया था लेकिन साथ पढने वाले लड़कों से स्पर्धा का भाव ज़बरदस्त था, स्कूल के अधिकारी भी इंजीनियरिंग और मेडिकल में अपने छात्रों की सफलता की गाथा बनाने के लिए उत्साहित करते रहते थे . लड़के की ज़िन्दगी में कहीं किसी तरह की निराशा नहीं थी. उसके पिताजी के भाई बहन पूरे देश में रहते हैं. उसकी अपनी चचेरी , ममेरी , फुफेरी बहनें उसकी राखी बांधती थीं . देश के लगभग सभी बड़े शहरों में उसके भाई बहन रहते हैं. लेकिन उस लड़के ने आत्महत्या कर ली. बात समझ में नहीं आती है . ऐसा क्यों हुआ . उसको समझने के लिए आज से करीब अठाईस साल पहले अपने देश में शुरू हुई आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों के उपजे अवसर और महत्वाकांक्षाओं पर एक नज़र डालनी होगी. इन नीतियों के भारत में लागू होने के बाद भारत बाकी दुनिया से बरास्ता इंटरनेट जुड़ गया और ग्लोबल विलेज की अवधारणा में समाहित हो गया .इस अवधारणा के जन्म के बाद आज महत्वाकांक्षी बच्चों के सामने जो लक्ष्य मुंह फाड़कर खड़े हो जाते हैं वे उनको कहीं का नहीं छोड़ते. उन लक्ष्यों को पकड़ से बाहर जाता देख वे फिर से लड़ने की तैयारी नहीं करते और कई स्थानों से उनकी आत्महत्या की ख़बरें आती हैं .
जबसे अखबारों में आई आई टी और आई आई एम से पढाई करने वालों के बहुत बड़े बड़े पैकेज छपने लगे हैं ,तब से यह प्रवृत्ति बढ़ी है .बच्चों की स्पर्धा की चाहत को हवा देकर , स्कूल कालेजों में होने वाली पढ़ाई को नाकाफी बताकर बहुत सारे लोगों ने नौजवानों को सपने दिखाए . उनकी पसंद के मेडिकल इंजीनियरिंग कालेज में प्रवेश या उनकी पसंद की आई ए एस आदि नौकरियों के सपनों को साकार करने के लिए हर शहर में कोचिंग संस्थानों की स्थापना हो गयी है . इन संस्थानों को चलाने वालों की आर्थिक और राजनीतिक ताक़त भी बहुत बढ़ गयी है .बच्चों में असंभव को पा लेने की इच्छा को हवा देकर उनको आत्महत्या के अँधेरे कुएं में झोंक देने के लिए कोचिंग का रैकेट चलाने वाले माफिया भी छात्रों के बीच बढ़ रही आत्महत्याओं के लिए ज़िम्मेदार हैं . उनपर भी रोक लगाई जानी चाहिए . उनको रोकने के लिए तो सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल ही किया जाना चाहिए . अक्सर यह खबर आती है कि आई आई टी में प्रवेश ले चुके कुछ बच्चों ने आत्महत्या कर ली क्योंकि वह कक्षा में पढ़ाई को समझ नहीं पा रहे थे. दर असल उन बच्चों की रूचि कुछ और पढने में थी लेकिन मातापिता ने उनके पीछे पड़कर उनको आई आई टी में पढने के लिए मजबूर कर दिया . आई आई टी में कुछ समय बिताने के बाद उनको लगता है कि वे गलत जगह फंस गए हैं .उनको आई आई टी में होना ही नहीं चाहिए था. यही हाल मेडिकल कालेजों का है . बहुत सारे बच्चे प्रशासनिक नौकारियों में जाना चाहते हैं . वे कुशाग्रबुद्धि होते भी हैं लेकिन मातापिता के दबाव के चलते आई आई टी या किसी मेडिकल कालेज में चले जाते हैं. उसके बाद वे आई ए एस या आई आई एम में जाते हैं . यानी अगर वे बी ए या बी एससी करके भी आई ए एस या आई आई एम की प्रवेश परीक्षा देते तो भी उसमें चुनाव अवश्य हो जाता लेकिन मातापिता के सपनों को जिंदा रखने के लिए पांच साल तक इंजीनियरिंग या मेडिकल की पढ़ाई करने के बाद , राष्ट्रीय संसाधनों को अपनी शिक्षा में लगवाने के बाद वे सिविल सर्विस या प्रबंधन में करियर चुनते हैं. इस प्रवृत्ति पर भी लगाम लगाने की ज़रूरत है . यह भी नौजवानों में बेकार होने की अनुभूति से भर देता है. और जब इंसान में यह विचार हावी हो जाए कि वह कुछ बेमतलब कर रहा है तो उसके सामने आत्महत्या करने की संभावना पढ़ जाती है .
अपने देश में मानसिक स्वास्थ्य के बारे में जागरूकता की भारी कमी है . यूरोप और अमरीका के विकसित देशों में मनोवैज्ञानिक काउंसिलिंग बहुत ही साधारण सी बात मानी जाती है जिससे डिप्रेशन की संभावना बहुत कम हो जाती है लेकिन अपने यहाँ इससे लोग भागते हैं . अब मनोवैज्ञानिक बीमारी को भी अन्य बीमारियों की तरह महत्व देना पडेगा , तभी बात बनेगी .
No comments:
Post a Comment