जन्माष्टमी के अवसर पर
शेष नारायण सिंह
योगेश्वर कृष्ण का जन्मदिन सदियों से इस देश में जन्माष्टमी के रूप में मनाया जाता है . कृष्ण के बहुत सारे रूप साहित्य और पुराणों में वर्णित हैं .सूरदास के यहाँ वे वृन्दावन और गोकुल की गलियों में माखन चुराते, गोपियों को छेड़ते, बहाने बनाते दीखते हैं तो वहीं कालियादह में भयानक नाग को नाथते भी दिखते हैं. कहीं द्वारकाधीश हैं तो कहीं महाभारत के युद्ध में बिना हथियार उठाये युद्ध का संचालन करते नज़र आते हैं .कहीं ऐसे मित्र के रूप में दिखते हैं जिसकी मिसाल दुनिया में कहीं नहीं है .कवि नरोत्तम दास के यहाँ वे देखि सुदामा की दीन दसा‚ करुना करिके करुनानिधि रोए और पानी परात को हाथ छुयो नहिं‚ नैनन के जल से पग धोये. दोस्त सुदामा की गरीबी देखकर वे रोते हैं और अपने आंसुओं से ही उनके पाँव धोते हैं . कभी दुर्योधन की अठारह अक्षौहिणी सेना के मुकाबले साधनहीन पांडवों को विजयी बनाने के संकल्प के साथ कुरुक्षेत्र के मैदान में बेझिझक खड़े हैं ,तो ,कहीं उद्धव को गोपियों के पास ज्ञान की बात बताने भेजते हैं जबकि उनको अनुमान है कि वहां बेचारे उद्धव की क्या दुर्दशा होने वाली ही , कहीं द्रौपदी की लाज बचाने के लिए वस्त्रों का अम्बार लगा देते हैं तो कहीं रोहिणी के पति के रूप में दाम्पत्य जीवन की नई परिभाषा बना रहे हैं तो कहीं राधा के सखा के रूप में स्त्री पुरुष संबंधों के सर्वोच्च मानदंड के लिए नियम बना रहे हैं. कहीं मीरा के कृष्ण सर्वस्व न्योछावर करने के हौसले के वाहक हैं तो नज़ीर अकबराबादी के यहाँ उनका बालपन उस मुकाम पर जाकर खड़ा हो जाता है ,जहां महान कवि सूरदास विराज रहे हैं. कहीं गोपाल हैं, कहीं कन्हैया हैं तो कहीं श्याम हैं . सदियों से स्त्रियों के लिए वे आदर्श के रूप में नजर आते हैं , बेटा ,भाई, मित्र हर रूप में वे महान ही हैं. यशोदा हों या देवकी हों सबके प्रिय बेटे के रूप में भी उन्होंने सबसे बुलंद मुकाम पर इंसानी रिश्तों को स्थापित किया . रसखान के यहां तो वे समग्र कायनात में छाये हुए नज़र आते हैं. रसखान कहते हैं :
सेष, गनेस, महेस, दिनेस, सुरे
जाहि अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद सुबेद बतावैं।
नारद से सुक ब्यास रहैं पचि हारे तऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पै नाच नचावैं।।
उन कृष्ण से कोई पार नहीं पा सकता . शेष ,गणेश ,महेश ,दिनेश ,सुरेश उनका गुणगान करते हैं .उनको अनादि, अनंत अखंड अछेद अभेद सुबेद बताते हैं , नारद ,शुकदेव ,व्यास उनकी कथा को बताते रहते हैं लेकिन पूर्णता नहीं दे सकते और उन्हीं भगवान कृष्ण को अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाछ पै नाच नचाती हैं.
राम और कृष्ण को विष्णु का अवतार माना जाता है . राम ने पारंपरिक मर्यादा का पालन किया ,वर्णाश्रम धर्म का पालन किया और गोस्वामी तुलसीदास के रामचरितमानस के राम मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाये लेकिन कृष्ण ने हर तरह की मर्यादा स्वयं स्थापित की , जिसको भी साथ लिया उसको कभी नहीं छोड़ा . न्याय की स्थापना के लिए उन्होंने कभी घटोत्कच को कर्ण के ब्रह्मास्त्र का सामना करने के लिए भेज दिया तो कभी कर्ण की दानवीरता का लाभ लेकर उसका कवच और कुंडल ही उतरवा दिया . अपने मित्र अर्जुन की विजय सुनिश्चित करने के लिए स्वयं के बनाये हुए नियमों को भी कई बार दरकिनार किया . किसी की मर्यादा में अपने को कभी नहीं बंधा लेकिन न्याय के लिए हमेशा नई मर्यादा का सृजन किया . मुझे व्यक्तिगत रूप से कृष्ण की सभी मर्यादाएं सुपीरियर लगती हैं . लेकिन गीताकार कृष्ण का जो रूप है ,वह मुझे मंत्रमुग्ध रखता है . पूरे महाभारत में कृष्ण की महिमा के दर्शन होते हैं लेकिन महाभारत के रचनाकार महर्षि वेदव्यास ने स्वयं कहा है कि,
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरै:,
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता .
यानी अगर गीता का ठीक से पारायण कर लिया तो अन्य शास्त्रों के अध्ययन की कोई ज़रूरत नहीं रह जायेगी . गीता के अठारहों अध्यायों में आचरण के बहुत सारे मंत्र हैं, सांख्य योग है ,भक्तियोग है लेकिन कर्मयोग साधारण आदमी के लिए बहुत ही उपयोगी है . मुझे लगता है कि कर्मयोग ही श्रीमद्भग्वत्गीता का केंद्रीय तत्व है क्योंकि गीता के उपदेश के बाद अर्जुन कहीं भक्तियोग की साधना में नहीं लगे , भक्ति की दुनिया में नहीं चले गए बल्कि उन्होंने कर्म किया ,अपने स्वधर्म का पालन किया और युद्ध किया ..गीताकार कृष्ण ने मानवीय आचरण के बहुत सारे विकल्प अर्जुन को दिये , उनको यह भी बताया कि जो कुछ भी होगा वह ईश्वर ही करेगा उन्होंने अर्जुन को बताया कि निमित्त मात्रं भाव सव्यसाचिन . उन्होंने उनको भरोसा दिलाया कि
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्। और यह कि परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।
इस सब के बावजूद वे अर्जुन को कर्म की प्रेरणा देते रहे , विराट रूप दिखाया और युद्ध करने को कहा क्यों धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे सबका स्वधर्म युद्ध ही था . लेकिन भगवान कृष्ण ने युद्ध का नियम भी तय कर दिया था. युद्ध तो करना था लेकिन युद्ध की सीमा थी . वह सीमा थी कि लाभालाभ की परवाह किये बिना द्वेष और प्रतिशोध की भावना से मुक्त होकर ही युद्ध करना है . तीसरे अध्याय में गीताकार ने अर्जुन को हिदायत दे दी
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा !
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युद्धस्व विगतज्वरः !!
अपने चित्त को आत्मा में स्थिर करके, सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें समर्पित करके, इच्छारहित,ममता रहित और ज्वर रहित होकर युद्ध करो . इच्छारहित रहने की बात की गयी है और कहा गया है कि
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥
अर्थात कर्म करना आपके वश में है उसके फल की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है .क्योंकि वह आपके वश में ही नहीं है .
सारी बातें बताने के बाद भी जब अर्जुन का संकट बना रहा तो उन्होंने सीधा प्रस्ताव दे दिया कि
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥
यानी सभी धर्म छोड़कर मेरी शरण में आ जाओ .
कृष्ण जन्माष्टमी पर मैं योगेश्वर कृष्ण को इसी रूप में याद करता हूँ .
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