Tuesday, August 11, 2020

जय श्रीराम के युद्ध घोष से हटकर शान्ति के संबोधन जय सियाराम को अपनाने की ज़रूरत


शेष नारायण सिंह

अयोध्या में रामजन्मभूमि मंदिर का  शिलान्यास हो गया . 1949 में शुरू हुआ एक विवाद समाप्त हो गया .रामजन्मभूमि का  विवाद तो पुराना है लेकिन 1853 में वाजिद अली शाह के समय में विवाद के बहुत ही खूनी रूप ले लेने का ऐतिहासिक  सन्दर्भ मौजूद है .  आज़ादी के बाद 1949 में विवाद तब बहुत गरमा गया था जब गोरखनाथ पीठ के महंत स्व दिग्विजयनाथ की अगुवाई में अयोध्या की बाबरी मस्जिद में भगवान राम की मूर्ति स्थापित कर दी गयी थी . तब से लेकर 1992 तक वहां विवादित ढांचे के  बाहर अखंड रामायण चलता रहा था. मस्जिद में कोर्ट के आदेश से ताला बंद था लेकिन देश भर से लोग अयोध्या आते थे तो   विवादित ढाँचे के बाहर से ही रामलला के  दर्शन करते  रहे थे . बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद सारे मामले ने एक नया आयाम ले लिया था.  1949 में जब  विवादित ढांचे में रामलला की मूर्ति राखी गयी तो अयोध्या में दर्जी का काम करने वाले स्व हाशिम अंसारी ने एफ आई आर लिखाया था. बाद में जो मुक़दमा  चला उसमें वे बाबरी मस्जिद के पैरोकार बने . उनको हमारी  पीढ़ी के लोग हाशिम चचा ही कहते थे .  उन्होंने मुकदमे की पैरवी  65 साल तक की लेकिन उनकी  किसी से  कोई दुश्मनी नहीं हुई. 1985 में जब विश्व हिन्दू परिषद ने रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को गरमाना शुरू किया  तो मामला देश-विदेश में सुर्ख़ियों में आया लेकिन हाशिम अंसारी पर बहुत फर्क नहीं पड़ा . 201 6 में जब 95 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हुयी तो सबसे पहले उनके घर पंहुचने वालों में रामजन्मभूमि मंदिर के पुजारी सत्येन्द्र दास और हनुमान गढ़ी के  महंत ज्ञानदास थे . जब विश्व हिन्दू परिषद ने विवाद में दखल देना शुरू किया तो दिल्ली और लखनऊ के कुछ मुसलमानों ने भी बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी बनाकर मामले को हवा देना शुरू कर दिया . अगले छः वर्षों में मामला इतना गरमा गया कि अयोध्या का विवादित ढांचा ढहा दिया गया और इन्हीं छः वर्षों में बाबरी मस्जिद की रक्षा और रामजन्मभूमि की बहाली के लिए हज़ारों करोड़ रूपये का चंदा बटोरा गया . दोनों ही पक्षों के मौकापरस्त लोग  बहुत ही धनवान हो गए लेकिन हाशिम चचा जैसे थे वैसे ही रह गए . अयोध्या में मुक़दमेबाज़ी  या चुनाव के विवाद में आपने सामने खड़े लोगों के बीच भी  अपनैती के रिश्ते रहते हैं . उसी आपसी रवादारी के नगर अयोध्या में  पांच अगस्त 2020 को प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी ने नए राममंदिर के निर्माण के लिए आधारशिला रखने के लिए पूजा अर्चना की .

 भगवान राम भारत की एक बहुत बड़ी आबादी के आस्था के नायक  हैं . रामचरित की समय समय पर बहुत लोगों ने अपने हिसाब से  व्याख्या की है . लेकिन अयोध्या के आसपास जिन राम का   चरित्र सब के मन में समाया हुआ है वह तुलसीदास के राम का चरित्र है . गोस्वामी तुलसीदास की निजी आस्था के केंद्र में राजा रामचंद्र विराजते थे लेकिन  उन्होंने उन्हीं भगवान रामचंद्र को हर उस घर में पंहुचा दिया जहां  किसी भी रूप में हिंदी बोली और समझी जाती है . क्योंकि वे विद्यावान गुनी अति चातुर थे और  राम काज  करिबे को आतुर भी थे . गोस्वामी तुलसीदास की यही आतुरता सियापति रामचंद्र के ईश्वरीय  स्वरुप को जनमानस में स्थापित कर  देती है . ऐसा लगता है कि पांच अगस्त को जिन राम के मंदिर के  निर्माण की शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया है , वे  गोस्वामी तुलसीदास के ही राम हैं . अयोध्या के आसपास ही कबीर साहेब का मगहर भी है जहां उनकी हड्डियाँ दफ़न हैं  कबीर के राम भी सर्वव्यापी  हैं लेकिन अयोध्या में जिन राम का मंदिर बनने जा रहा है वे कबीर के राम तो वे निश्चित रूप से नहीं हैं . क्योंकि कबीर ने ईश्वर को निराकार माना है . वे निर्गुनिया संत हैं . उनकी दार्शनिक सोच में  राम का अवतारवाद का कोई स्थान  नहीं है . वे  मूर्तिपूजा के विरोधी हैं   उनके राम की मूर्ति नहीं बनाई जा सकती .उनके राम तो ब्रह्म हैं जिनको उन्होंने रहीमहरिगोविंद जैसे नामों  से संबोधित किया . यह सारे नाम उसी एक राम के  नाम हैं लेकिन या सभी निराकार हैं . उनको मूर्ति में समेटा नहीं जा सकता .

भारतीय मनीषा में राम के भांति भांति के रूप  बताये गए हैं .  वैदिक साहित्य के राम  जातक कथाओं के राम से अलग हैं . महर्षि वाल्मीकि के ग्रन्थ ‘ रामायण ‘ के राम उनके एक अन्य ग्रन्थ  योगवसिष्ठ’ में दूसरे रूप में देखने को मिलते  हैं .  कम्ब रामायणम’ के राम  दक्षिण भारत में घर घर में जबकि तुलसीदास के राम परिवार का  बड़ा और आज्ञाकारी बेटाआदर्श राजा और सौम्य पति के रूप में प्रस्तुत होते  हैं. अयोध्या आन्दोलन में पिछले 35 साल से जिन राम की बात चल   रही है वह यही तुलसी के राम के योद्धा रूप हैं क्योंकि इस आन्दोलन का उद्देश्य राजनीतिक सत्ता हासिल करना  ही था इसलिए चक्रवर्ती सम्राट  राम का  स्वरूप ही सर्वस्वीकार्य स्वरूप  माना गया .  राम के व्यक्तित्व   को फिर से परिभाषित करने के चक्कर में आर एस एस ने उनको सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का राजनीतिक प्रतीक बनाने की पूरी  कोशिश की है और जिस  तरह से मीडिया के माध्यम से राम को समग्र विश्व में जागरण का कारक बताया जा रहा है उससे लगता है कि आर एस एस अपने प्रोजेक्ट में खासा सफल नज़र आ रहा है .  लगता है कि  राम के जिस चरित्र को राजनीतिक सुविधा के अनुसार आस्था के केंद्र में स्थापित करने का प्रयास हो रहा  है वह रामानन्द  सागर के राम होंगे क्योंकि मौजूदा विमर्श में कबीर  या  सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की शक्तिपूजा वाले राम के लिए तो कोई स्पेस नहीं है . हिन्दुराष्ट्र के पैरोकारों की कोशिश है कि अयोध्या में जिन राम के मंदिर का शिलान्यास हुआ है वे लड़ाकू तेवर में जोर-जोर से अपने जयकारे लगवाने वाले हिंदू हृदय सम्राट राम हों जो नई पीढ़ी को लाठीतलवार और  त्रिशूल जैसे हथियार लेकर चलने की प्रेरणा दें .  यही चिंता का विषय है .

प्रधानमंत्री ने  भूमिपूजन के यज्ञ में  जनमानस की एकता की बात की . आज  देश के प्रधानमंत्री का क़द इतना बड़ा है कि वह आर एस एस के निर्देशों को मानने को बाध्य नहीं है . संघ के कार्यकर्ताओं और  उनके  समर्थको में नरेंद्र मोदी वास्तव में आर एस एस के प्रमुख मोहन भगवत से से ज़्यादा  सम्मानित  माने जाते हैं .वे सारे देश के प्रधानमंत्री हैं इसलिए उनको  चाहिए कि गोस्वामी तुलसीदास के उन राम को आदर्श बनाएं जो समय पड़ने पर तो योद्धा हो जाते हैं लेलिन जिनका स्थाई  स्वरूप  एक दयावान सम्राट का  है. प्रधानमंत्री को  भगवान राम के उसी उदात्त  चरित्र का वरण करना चाहिए .अद्वैत वेदान्त के  ग्रन्थ  अष्टावक्र गीता’ में  में राम का जो चरित्र बताया गया  है वह आत्माराम है . वह आत्मारामस्य धीरस्य शीतलाच्छतरात्मनः’ — अर्थात निरंतर आत्मा में रमने वाला आत्माराम ही शीतल और स्वच्छ हृदय का धीरज वाला संत है. जो जातिवर्णसंप्रदाय और ब्रह्मचर्य-सन्यास आदि अहंकार से परे है .  आज  देश की राजनीतिक स्थिति में ऐसे जी राम को आदर्श मानने की ज़रूरत है .

वास्तव में संत तुलसीदास के रामचरितमानस में राम का जो चरित्र है वह समकालीन  राजनीतिशास्त्र के विद्यार्थी के लिए सबसे अधिक समझ में आने वाला   विषय है . रामचरित मानस’ का एक मज़बूत सामाजिक आधार है हालाँकि रामचिरत मानस’ भक्तिकाल की एक रचना है लेकिन वह वीरगाथा काल की रचना के रूप में भी देखी जा सकती है. भक्तिकाल का वही समय है जब भारतीय समाज में इस्लाम अपनी जड़ें ज़माना शुरू कर चुका था .उसके पहले मध्य एशिया से आने वाले मुसलमान हमलवारों के हमले होते  थे. अधिकतर लड़ाइयों में भारत के राजपूत राजा हार रहे थे लेकिन उनके चारण कवियों ने वीरगाथाएं लिखीं और उन राजाओं को कविता के माध्यम से महान योद्धा सिद्ध करने की कोशिश की लेकिन अकबर के समय तक इस्लाम में विश्वास करने वाले शासकों ने अपनी मंशा ज़ाहिर कर  दी थी कि वे अब   यहीं रहेंगे. यह वही  समय है जब हिंदी साहित्य का  भक्तिकाल अपनी बुलंदी पर था .सूरतुलसी ,मीरा ,रसखान और जायसी की वाणी जनमानस में  आना शुरू हो गयी थी. इन सारी कविताई के बीच तुलसीदास की आवाज़ भक्तिकाल के सभी कवियों से अलग है । तुलसीदास की कविता में एक नायक की तलाश है जो मुसलमान हमलावरों के सांस्कृतिक हमलों से मुकाबला कर सके . तुलसीदास के लिए लड़ाई वह लड़ाई ख़त्म नहीं नहीं हुई थी जो गज़नवी और गोरी के समय शुरू  हुई थी  । इसीलिए उन्होंने सूरदास की तरह माखनचोर या राधाकृष्ण की छवि को केंद्र में नहीं रखा .  सूरदास ने कन्हैया के बालपन को अवाम के दिलोदिमाग पार हावी कर दिया . तुलसीदास ने भी भगवान राम के बचपन का बहुत ही सुन्दर वर्णन तो किया लेकिन उस रूप को अपनी कथा का मुख्य केंद्र नहीं बनाया. उन्होंने राम के  योद्धा रूप को ही केंद्र में रखा .रामचरितमानस में बालकाण्ड एक प्रमुख खंड है लेकिन उसमें भी राम के योद्धा रूप पर बाबा तुलसीदास ने फोकस किया है . पन्द्रह दोहों और उनके बीच आने वाली चौपाइयों में  राम के बचपन की कथा को निपटा दिया है . 190 नंबर के दोहे में राम का जन्म  होता है और 205 नम्बर के दोहे तक विश्वामित्र उनको मांगने के लिए आ जाते हैं . उसके बाद राम का  योद्धा रूप शुरू हो जाता है . वह चाहे शस्त्र आदि की शिक्षा हो, राक्षसों से ऋषियों की तपस्या में  बाधा डालने का प्रतिकार हो या  जनकपुर में सारे भारत से आये योद्धाओं और राजाओं को सीता जी के स्वयंवर में शिकस्त देना हो , कैकेयी की जिद हो या वन की यात्रा हो या  रावण से युद्ध हो ,इन सभी स्थितियों में राम का  योद्धा रूप ही देखा जाता है .इसलिए विद्वानों का एक वर्ग रामचरितमानस को  भक्तिकाल की नहीं  वीरगाथा काल की निरंतरता में रचा गया महाकाव्य मानता है . इसीलिये कांग्रेस की स्थापित सत्ता से लड़ने के लिए आर एस एस ने  तुलसी के राम के योद्धा रूप को आगे  किया और मनोवांछित सफलता मिली . कभी दो सीटों तक सीमित हो गयी आर एस एस की मातहत राजनीतिक पार्टी की सरकार आज देश में स्पष्ट बहुमत के साथ बनी हुई है .लेकिन अब उनको चाहिए कि राम के योद्धा रूप के बाद का रूप अपनाए. जिस तरह से मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने युद्ध जीतने के बाद  देश में अमन चैन कायम किया था , वैसा ही माहौल बनायें . किसी धर्म के  अनुयायियों के प्रति शत्रुताभाव न रखें . जिस एकता की बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शिलापूजन के बाद के अपने भाषण में की थी उसका मुख्य तत्वा यही होना चाहिए . उन्होंने जय श्रीराम के युद्ध घोष से हटकर जय सियाराम का जो संबोधन किया  है उसको आगे बढ़ाना चाहिए 

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