शेष नारायण सिंह
नीम प्रकृति की तरफ से इंसानियत को एक वरदान है . यह बात आदिकाल से सत्य है और अब तो मानवीय आस्था का हिस्सा बन चुकी है .नीम के बारे में वैज्ञानिक अध्ययन भी खूब हुए हैं . तारा तरह के हुए अनुसंधान का नतीजा है कि आज नीम का सम्मान दुनिया भर में है. नीम एक ऐसा पेड़ है जो कड़वा होता है परंतु अपने गुणों के कारण आयुर्वेद व चिकित्सा जगत में इसका दुनिया भर में डंका बज रहा है .नीम से खून साफ होता है .
नीम कीड़ों को मारता है। इसलिए इसके पत्तों को कपड़ों व अनाज में रखा जाता है।
हृदय रोगों में भी नीम लाभदायक है। हृदय रोगी नीम के तेल का सेवन करें तो फायदा होता है .नीम की दातुन से दांत साफ करना काफी फायदेमंद होता है। स्वाद तो कड़वा होता है लेकिन फायदे अनंत है .
नीम कीड़ों को मारता है। इसलिए इसके पत्तों को कपड़ों व अनाज में रखा जाता है।
हृदय रोगों में भी नीम लाभदायक है। हृदय रोगी नीम के तेल का सेवन करें तो फायदा होता है .नीम की दातुन से दांत साफ करना काफी फायदेमंद होता है। स्वाद तो कड़वा होता है लेकिन फायदे अनंत है .
नीम को एक अभियान की तरह विकसित करने के बहुत सारे प्रयास हो रहे हैं . इस का एक उदाहरण मुंबई में देखने को मिला. अखिल भारतीय मारवाड़ी महासभा के संस्थापक अध्यक्ष महेश राठी ने एक संकल्प ले रखा है कि पूरे देश में नीम के पेड़ लगाना है . महेश जी मुंबई में रहते हैं . वहां सोसाइटियों में बहुत कम कच्ची मिट्टी होती है लेकिन मारवाड़ी महासभा के तत्वावधान में हर सोसाइटी में नीम लगाने का अभियान छेड़ रखा है . करीब चार साल पहले उन्होंने मुझे बताया था कि पूरी देश में नीम के पौधे लगाने का अभियान चलायेंगें . मुझे लगा कि महेश जी सपने देख रहे हैं लेकिन आज जब उनके प्रयास से नीम लगाने की ख़बरें देखता हूँ तो लगता है कि यह आदमी एक जूनून की हद तक जाने को तैयार है .राजस्थान के मरुस्थल क्षेत्र में उन्होंने नीम के पौधे लगाने को एक आन्दोलन का रूप दे दिया है . अभी खबर आई है कि इंदौर में भी उन्होंने नीम महोत्सव का बड़ा आयोजन किया बताया गया है कि मारवाड़ी महासभा द्वारा अभी तक पांच लाख से अधिक नीम के पौधे वितरित करके उन्हें वृक्ष के रूप में विकसित करने काम चल रहा है . शायद यह बहुत कम लोगों को मालूम है कि अगर सघन रूप से नीम का अभियान चल गया तो राजस्थान से मरुस्थल का क्षेत्र बहुत ही कम हो जाएगा .
मैं ऐसे कई लोगों को जानता हूँ जो तीन चार एकड़ खेत में नीम के उद्यान लगाकर उनसे निकलने वाली निमकौडी से अच्छी आमदनी ले रहे हैं . मेरठ की संस्था हरित पर्याय भी अपने चंहुमुखी अभियान में नीम को महत्व देकर पर्यावरण में योगदान कर रही है . उसकी संस्थापक मधु गुप्ता दिन रात वातावरण से प्रदूषण को खारिज करने के काम में लगी रहती हैं. नीम से मुझे भी बहुत ही अधिक लगाव है . नीम की चर्चा होते ही पता नहीं क्या होता है कि मैं अपने गांव पंहुंच जाता हूँ. बचपन की पहली यादें ही नीम से जुडी हुयी हैं . मेरे गाँव में नीम एक देवी के रूप में स्थापित हैं, गाँव के पूरब में अमिलिया तर वाले बाबू साहेब की ज़मीन में जो नीम का पेड़ है ,वही काली माई का स्थान है . गाँव के बाकी नीम के पेड़ बस पेड़ हैं . लेकिन उन पेड़ों में भी मेरे बचपन की बहुत सारी मीठी यादें हैं . मेरे दरवाज़े पर जो नीम का पेड़ था , वह गाँव की बहुत सारी गतिविधियों का केंद्र था . सन २००० के सावन में जब बहुत तेज़ बारिश हो रही थी, तो आकाशीय विद्युत् के कारण उस पेड़ को नुक्सान हो गया . लोग बताते हैं कि पूरे गाँव में घनी वर्षा हो रही थी, रात का समय था , बहुत तेज़ आवाज़ आई थी और सुबह जब लोगों ने देखा तो मेरे दरवाज़े की नीम की एक मोटी डाल टूट कर नीचे गिर गई थी, मेरे बाबू वहीं पास में बनी बैठक में रात में सो रहे थे. उस आवाज़ को सबसे क़रीब से उन्होंने ही सुना था. कान फाड़ देने वाली आवाज़ थी वह . उस हादसे के बाद नीम का पेड़ सूखने लगा था. अजीब इत्तिफाक है कि उसके बाद ही मेरे बाबू की जिजीविषा भी कम होने लगी थी. फरवरी आते आते नीम का पेड सूख गया . और उसी २००१ की फरवरी में बाबू भी चले गए थे . जहां वह नीम का पेड़ था , उसी जगह के आस पास मेरे भाई ने नीम के तीन पेड़ लगा दिए है , यह नीम भी तेज़ी से बड़े हो रहे हैं .
पुरानी नीम के पेड़ का मेरे गाँव के सामाजिक जीवन में बहुत महत्व है .इसी पेड़ के नीचे मैं अपने बचपन के साथियों के साथ घंटों खेला करता था . जाड़ों में धूप सबसे पहले इसी पेड़ के नीचे बैठ कर सेंकी जाती थी. पड़ोस के कई बुज़ुर्ग वहां मिल जाते थे . टिबिल साहेब और पौदरिहा बाबा तो धूप निकलते ही आ जाते थे. बाकी लोग भी आते जाते रहते थे. यह दोनों बहुत आदरणीय इंसान थे. हुक्का भर भर के नीम के पेड़ के नीचे पंहुचाया जाता रहता था. घर के अलाव में आग जलती रहती थी. इन दोनों ही बुजुर्गों का असली नाम कुछ और था लेकिन सभी इनको इसी नाम से जानते थे. टिबिल साहेब कभी उत्तर प्रदेश पुलिस में कांस्टेबिल रहे थे , १९४४ में रिटायर हो गए थे , और मेरे पहले की पीढी भी उनको इसी नाम से जानती थी. पौदरिहा का नाम इस लिए पड़ा था कि वे गाँव से किसी की बरात में गए थे तो किसी कुएं की पौदर के पास ही खटिया डाल कर वहीं सो गए थे . पौदर उस जगह को कहा जाता था जो कुएं के पास होती थी. किसी घराती ने उनको पौदरिहा कह दिया और जब बरात लौटी तो गाँव वालों ने उनका यही नाम कर दिया . इन्हीं मानिंद बुजुर्गों की छाया में हमने शिष्टाचार की बुनियादी बातें भी सीखीं थीं.
मेरी नीम की मज़बूत डाल पर ही सावन में झूला पड़ता था. रात में गाँव की लडकियां और बहुएं उस पर झूलती थीं और कजरी गाती थीं. मानसून के समय चारों तरफ झींगुर की आवाज़ के बीच में ऊपर नीचे जाते झूले पर बैठी हुयी कजरी गाती मेरे गाँव की लडकियां हम लोगों को किसी भी महान संगीतकार से कम नहीं लगती थीं. जब १९६२ में मेरे गाँव में स्कूल खुला तो सरकारी बिल्डिंग बनने के पहले इसी नीम के पेड़ के नीचे ही शुरुआती कक्षाएं चली थीं. पीलीभीत से गाजीपुर की गोमती नदी की यात्रा में उसके किनारे वैसे तो बहुत सारे तीर्थ स्थान हैं लेकिन धोपाप का महत्व सबसे ज़्यादा है . लोकोक्ति है कि जब भगवान् राम रावण वध के बाद अयोध्या आये तो उनके पंडितों ने उनको बताया कि उन पर ब्राह्मण की हत्या का दोष है . उस दोष से मुक्ति के लिए राजा रामचंद्र ने विधिवत यज्ञ आदि करवाया था. उस इलाके में यह विश्वास है कि गौहत्या और ब्रह्म हत्या का दोष लगने पर यजमान को अंत में धोपाप में गोमती नदी में स्नान करना ज़रूरी होता है . गौहत्या का दोष तो तब भी लग जाता था अगर किसी ने किसी खूंटे से गाय को बांध दिया और सांप के काटने या किसी बीमारी से गाय की मृत्यु हो गयी. ऐसे बहुत सारे लोग धोपाप जाया करते थे . जिसको बाकी देश में गंगा दशहरा कहते हैं वह हममरे इलाके में जेठ की दशमी के नाम से जाना जाता है . इस अवसर पर पहले के ज़माने में लोग पैदल ही जाते थे और थक कर इसी नीम के नीचे आराम करते थे. अब तो सड़क पक्की हो गयी है , बस , टैक्सी आदि चलने लगी है लेकिन उन दिनों सड़क कच्ची थी और ज़्यादातर लोग धोपाप पैदल ही जाते थे .
मेरे गाँव में सबके घर के आस पास नीम के पेड़ हैं और किसी भी बीमारी में उसकी पत्तियां , बीज, तेल , खली आदि का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर होता था लेकिन आब नहीं होता. निमकौड़ी बीनने और बटोर कर रखने का रिवाज ही खत्म हो गया है . लेकिन नीम के पेड़ के प्रति श्रद्धा कम नहीं हो रही है .
एक दिलचस्प वाकया है . मेरे बचपन में मुझसे छः साल बड़ी मेरी बहिन ने घर के ठीक सामने नीम का एक पौधा लगा दिया था. उसका विचार था कि जब भाइयों की दुलहिन आयेगी तब तक नीम का पौधा पेड़ बन जाएगा और उसी पर उसकी भौजाइयां झूला डालकर झूलेंगी. अब वह पेड़ बड़ा हो गया है , बहुत ही घना और शानदार . बहिन के भाइयों की दुलहिनें जब आई थीं तो पेड़ बहुत छोटा था . झूला नहीं पड़ सका . अब उनकी भौजाइयों के बेटों की दुलहिनें आ गयी हैं लेकिन अब गाँव में झूला झूलने की परम्परा ही ख़त्म हो गयी है .करीब दो साल पहले मेरे छोटे भाई ने ऐलान कर दिया कि बहिन वाले नीम के पेड़ से घर को ख़तरा है ,लिहाज़ा उसको कटवा दिया जाएगा . हम लोगों ने कुछ कहा नहीं लेकिन बहुत तकलीफ हुयी . हम चार भाई बहनों के बच्चों को हमारी तकलीफ का अंदाज़ लग गया और उन लोगों ने ऐसी रणनीति बनाई कि नीम का पेड़ बच गया .जब नीम के उस पेड़ पर हमले का खतरा मंडरा रहा था तब मुझे अंदाज़ लगा कि मैं नीम से कितना मुहब्बत करता हूँ .
जलवायु परिवर्तन दुनिया भर में चर्चा का विषय बना हुआ है . भारत में तो अगर बहुत बड़े पैमाने पर नीम के पौधे लगाने का अभियान शुरू कर दिया जाए तो भारत जलवायु परिवर्तन के खतरों से बच सकता है और पर्यावरण की रक्षा में दुनिया अग्रणी मुकाम हासिल कर सकता है .
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