A gacebook post from October 18, 2017
उसके गाँव में दीवाली के दिन दाल भरी पूरियां, सूरन की मसलही तरकारी ,बखीर और कचौरी का भोजन हुआ करता था. माई सुबह से ही यह सब बनाने में जुट जाती थीं. गुड में सोंठ डालकर भरन बनायी जाती थी, जो गुझिया में डाल कर बहुत ही स्वादिष्ट हो जाती थी.
शाम को रोंघई कोंहार के यहाँ से आया दिया जलाकर ,घूर पर , खेत में , बैलों के खूंटे पर , जुआठ और हल पर , घर में हर कोने में , आँगन में रखा जाता था.
घर की बड़ी बूढ़ी दिया जलाती थीं ,जिसको बच्चे ले जाकर सही जगह पर रखते थे. जहाँ पूजा होती थी, वह जगह सबसे पवित्र होती थी. सारे दिए बस कुछ मिनटों में बुझ जाते थे. घर में एक दिया बड़ा वाला जलाया जाता था , जो शुद्ध घी का होता था और रात भर प्रकाशमान रहता था.
सुबह सुबह उठकर बच्चे गाँव भर में घूमकर दिया बटोरते थे जो घर के बहुत छोटे बच्चों के खिलौने के रूप में संभालकर रख लिया जाता था . पूरे गाँव में ,हर परिवार में दीवाली का यही तरीका होता था .
कहीं कोई पटाखे नहीं, कोई मोमबती नहीं, कोई झालर नहीं . गाँव में सभी परिवार खुश रहते थे ,किसी को गरीब होने का अहसास नहीं होता था , हालांकि उसके गाँव में सभी गरीब थे .
एक परिवार के कुछ लोग सरकारी नौकरी में चले गए तो उनके यहाँ दीवाली के दिन मोमबती आ गयी . लेकिन वे लोग किसी भी परिवार को हीनभावना नहीं दिला सके.
बुजुर्गों ने उस परिवार के लोगों को ललगंड़िया कहकर निपटा दिया , यानी कुछ पैसे क्या आ गए नक्शेबाजी करने लगे. अब वहां भी सब बदल गया है. शहर की नक़ल करने के चक्कर में गाँव को लुटाया जा रहा है.
सोलह साल की उम्र में दसवीं पास करके वह शहर के कालेज में दाखिल हो गया . वहां भी छात्रावास की दीवाली में कुछ ख़ास नहीं होता था . बल्कि दीवाली की छुट्टियों में हास्टल सूना हो जाता था, सब लड़के अपने अपने गाँव चले जाते थे .
उसको शहर की दीवाली का अनुभव दिल्ली में हुआ. वहां हल, बैल,खेत आदि तो था नहीं इसलिए नार्थ एवेन्यू की उस बरसाती के एक कमरे के उसके घर में दाल भरी पूरी , सूरन की सब्जी बन गयी .
शाम को जब किसी दोस्त की बहन अपने बच्चों के साथ आई तो उसकी समझ में ही नहीं आया कि यह लोग दीवाली क्यों नहीं मना रहे है.जब उसको बताया गया तो शहर में पली बढ़ी महिला की समझ में बात तुरंत आ गयी.
पहाड़गंज जाकर उन्होंने कुछ खील बताशे, कुछ मोमबत्तियां, आधा किलो मिठाई , लक्ष्मी-गणेश की छोटी मूर्ति खरीद कर हमारी दीवाली को शहरी बना दिया .
जब पड़ोसियों के बच्चे पटाखे चलाने लगे और उसके बच्चे टुकुर टुकुर ताकने लगे तब उसको लगा कि हमसे कुछ गलती हो गयी है , अब वह शहर में आ चुका है .
शहर हर इंसान को हीन भावना का शिकार बना देता है .
शहर हर इंसान को हीन भावना का शिकार बना देता है .
दूसरों के बच्चों को पटाखे चलाते देखते हुए बच्चों के चेहरे पर जो भाव थे , वे उसको हर पल गरीब बना रहे थे .
अगले साल वह सफदरजंग एन्क्लेव में किराए के मकान में रहने चला गया . वहां शहरी हिसाब से पटाखे आदि लाये गए, मोमबती लगाई गयी , पूजा हुयी, मिठाई आयी लेकिन पड़ोसियों के बच्चों के पटाखों की संख्या बहुत ज्यादा थी, सब गड़बड़ा गया .
बच्चे इस बार भी अपने को कमतर पा रहे थे. अगले साल ज़्यादा पटाखे आये लेकिन तब तक हज़ार ,दो हज़ार, दस हज़ार पटाखों वाली लड़ी बाज़ार में आ चुकी थी.
व्यापारियों का मोहल्ला था, रात ग्यारह बजे के बाद जब सेठ लोग दूकान बंद करके आये तो उन्होंने घंटों पटाखे चलाये और पटाखों की धौंस का मतलब उसकी समझ में आया.
इस साल जब सुप्रीम कोर्ट ने पटाखों पर प्रतिबन्ध लगाया तो उसने सोचा कि अगर सन अस्सी में यह काम हो गया होता तो वह अपने बच्चों की बेचारगी देखने से बच गया होता .
सुप्रीम कोर्ट को धन्यवाद कि उन्होंने दिल्ली शहर में रह रहे लाखों लाचार लोगों को हीनभावना का शिकार होने से बचा लिया .
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