Monday, May 21, 2018

अगर राज्यपाल को संविधान की सही समझ होती तो कर्नाटक में विवाद न होता



शेष नारायण सिंह


कर्नाटक चुनाव के नतीजे आने के बाद से नई राजनीति शुरू हो गयी है . किसी को साफ़ बहुमत नहीं मिला राज्यपाल की  भूमिका महत्वपूर्ण हो गयी . ऐसे में राज्यपाल की नैतिकता और उसकी बुलंदी का इम्तिहान हुआ . राज्यपाल की संस्था की यह परीक्षा की घड़ी थी.  कई बार ऐसा हुआ है कि राज्यपाल दिल्ली दरबार के अपने नियुक्ति कर्ताओं की वफादारी के चक्कर में ऐसी ऐसी गलतियाँ कर जाते हैं जिससे उनका नाम इतिहास में दर्ज हो जाता  है . जब इन गलतियों पर  सुप्रीम कोर्ट की नज़र पड़ जाती है तो वह नज़ीर बन जाती है और आने वाले वक़्त में उसका बार बार हवाला दिया जाता है . जब भी राज्यपाल की  भूमिका का ज़िक्र होता है तो अपने देश में रामेश्वर प्रसाद और बोम्मई का ज़िक्र ज़रूर होता है . बिहार और कर्नाटक के राज्यपालों की भूमिका को लेकर इन दोनों की मामलों में सुप्रीम कोर्ट के फैसले देश के संवैधानिक इतिहास में संगमील हैं . कर्नाटक के मौजूदा संकट में भी इन  दोनों मुक़दमों का बार बार  ज़िक्र हुआ. राज्यपाल की भूमिका एक बार फिर सवालों के घेरे में आई और सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के कारण ही  कर्नाटक के मौजूदा गवर्नर का नाम ऐतिहासिक गलतियों की लिस्ट  में दर्ज होने से बच गया .
कर्नाटक के विधान सभा चुनाव के बाद जनादेश ऐसा  आया कि तीनों प्रमुख पार्टियों में किसी को भी स्पष्ट बहुमत नहीं मिला. ऐसे में गवर्नर की भूमिका  महत्वपूर्ण हो जाती है . कर्नाटक में भी वही हुआ  . राज्यपाल के सामने मामला आया और उन्होंने अपने विवेक से फैसला लिया .  संविधान के आर्टिकिल १६३(२)  में ऐसी व्यवस्था है कि उनके विवेक को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती.  लेकिन विवेक का यह अधिकार निरंकुश नहीं हो सकता . उनके हर फैसले  पर प्राकृतिक न्याय को बुनियाद बनाया जाना चाहिए . संविधान में आर्टिकिल १६३ तब भी मौजूद था जब सुप्रीम कोर्ट ने बोम्मई केस और रामेश्वर प्रसाद केस पर फैसला दिया . उन फैसलों में भी राज्यपाल के विवेक के  आधार पर लिए गए फैसलों को चुनौती दी गयी थी.  सुप्रीम कोर्ट में दाखिल मौजूदा केस जी परमेश्वर और एच डी कुमारस्वामी बनाम कर्नाटक सरकार केस में भी  गवर्नर के विवेक पर ही चर्चा हुयी . कोर्ट ने बिना स्पष्ट बहुमत वाली येदुरप्पा की पार्टी को सरकार बनाने के लिए बुलाने के गवर्नर के विवेक वाले फैसले को तो खारिज नहीं किया और न ही उसपर कोई पाबंदी लगाई लेकिन उस फैसले से संभावित राजनीतिक लाभ को बिलकुल ख़त्म कर दिया . मसलन राज्यपाल ने येदुरप्पा को अपना बहुमत साबित करने के लिए दो हफ्ते का समय दिया था ,उसको  एक दिन का कर दिया . विधायकों की सुरक्षा का ज़िम्मा  राज्य के पुलिस महानिदेशक  को दे दिया , फ्लोर टेस्ट की कार्यवाही को टेलिविज़न पर दिखाने का आदेश दे दिया और इस तरह से किसी तरह की गड़बड़ी की संभावना को ख़त्म  कर दिया . अदालत ने बीजेपी के वकील मुकुल रोहतगी से पूछा कि जब १०४ विधायक पूरी तरह से येदुरप्पा के साथ हैं और ११६ विधायकों ने  एच डी कुमारस्वामी को समर्थन देने के बारे में राज्यपाल को सूचित कर दिया है तो १०४  को १११ बनाने के लिए विधायक कहाँ से आयेंगें .  वकील मुकुल रोहतगी ने बताया कि कांग्रेस और जे डी एस से आयेंगें . हालांकि कोर्ट ने यह बात   कही नहीं लेकिन सबको मालूम पड़ गया कि दल बदल कानून का उन्ल्लंघन करने की तैयारी पूरी की जा चुकी है . कुल मिलाकर सारे मामले में राज्यपाल की भूमिका सवालों के घेरे में आती रही .   ऐसा बार बार हो रहा  है. जब से  इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व के दौर में अपनी पार्टी के  नेताओं को राज्यपाल बनाने की  प्रथा शुरू हुई थी . उनके बाद के सभी  प्रधानमंत्रियों ने इस परम्परा को जारी रखा है .पहले ऐसा नहीं था . उसके पहले राज्यपाल के पद पर ऐसे लोग नियुक्त किये जाते थे जो राज्य के मुख्यमंत्रियों या केंद्र सरकार के गैर कानूनी मंसूबों को नज़रंदाज़ कर देते थे.
संविधान के निर्माताओं ने जब राज्यपाल की संस्था की संरचना की तो उन्होंने यह नहीं सोचा रहा होगा कि बाद के राजनीतिक नेता और केंद्र सरकार के जिम्मेवार लोग  ऐसे हो जायेंगें जो अपने किसी भी वफादार को राज्यपाल बना देंगें . शायद इसलिए ही संविधान में राज्यपाल की नियुक्ति को लेकर बहुत ज्यादा  नियम नहीं  लिखे गए . डॉ आंबेडकर सहित  संविधान सभा के ज्यादातर लोगों ने यह सपने में नहीं सोचा होगा कि बूटा सिंह , हंसराज भारद्वाज और वजूभाई वाला जैसे लोग राज्यपाल बना दिए जायेंगें . इसीलिये उन्होंने राज्यपालों के विवेक पर  भरोसा किया और  अदालतों को उनके विवेक पर सवाल न उठाने का निर्देश दिया . लेकिन अदालतों को बाद में दखल देना पड़ा . राज्य सरकारों की जगह केंद्र का राज कायम करने वाले  संविधान के अनुच्छेद  ३५६ के बारे में बार बार अदालती हस्तक्षेप इसीलिये हुआ . जब सुप्रीम कोर्ट की नज़र में यह बात आ गयी कि कोई रामेश्वर ठाकुर ,बोम्मई को  गलत तरीके से हटा देगा या कोई बूटा सिंह रामेश्वर प्रसाद को सुप्रीम कोर्ट की शरण आने को मजबूर कर देगा . लेकिन ऐसा हुआ और सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ा. संविधान की जो व्याख्या सुप्रीम कोर्ट कर देता है वह नजीर बन जाता है . इसी सन्दर्भ में मौजूदा  जी परमेश्वर और एच डी कुमारस्वामी बनाम  कर्नाटक सरकार केस को देखा जाएगा . यह केस भी देश की राजनीति में राज्यपाल की मनमानी के खिलाफ एक संगमील फैसला बन चुका है .अभी दस हफ्ते बाद जब  राज्यपाल के आदेश की संवैधानिकता पर बहस होगी तो उम्मीद की जानी चाहिए कि मामला और साफ हो जाएगा .

राज्यपाल पद की  गरिमा को संविधान में बहुत ही महत्व दिया  गया है . संविधान में अनुच्छेद १५३ से १६३ तक राज्यपाल की नियुक्ति ,उसकी शपथ, उसके अधिकार और उसके कर्तव्यों का ज़िक्र है . बाद के अनुच्छेदों में भी राज्यपाल  का ज़िक्र  आता है .वहीं अनुच्छेद १६३(२) में उसके विवेक पर अदालती नज़र के बारे में लिखा गया  है लेकिन जिस तरह के राज्यपाल की कल्पना संविधान निर्माताओं ने की थी अब वैसे राज्यपाल  नहीं होते. डॉ बी आर आंबेडकर ने संविधान सभा के अपने कई भाषणों में राज्यपाल पद की गरिमा का उल्लेख किया है . रामेश्वर  प्रसाद बनाम केंद्र सरकार वाले फैसले में राज्यपाल पद के बारे में डॉ आंबेडकर के हवाले से एक पैराग्राफ है जो संविधान निर्माताओं की मंशा को ज़ाहिर  करता है . लिखा है कि, " अगर राज्यपाल पर इस तरह के आरोप लगते हैं कि वह अपना काम संविधान के अनुसार  नहीं कर रहा है तो यह बहुत ही दुःख की बात है कि इस तरह का आदमी राज्यपाल बना दिया गया है जो अपना संविधानिक कर्तव्य नहीं निभा रहा है ." लगता है इसी सोच की बुनियाद पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान बेंच ने रामेश्वर प्रसाद केस में फैसला लिया कि राज्यपाल ने बहुमत वाले गठबंधन को न बुलाकर अपने पूर्वाग्रहों के वश में होकर काम किया है .फैसले के पैराग्राफ नंबर १६५ में लिखा है ,"अगर  कोई राजनीतिक दल, अन्य दलों और विधायकों के सहयोग से सरकार बनाने  का दावा करता  है और  अपने बहुमत के बारे में राज्यपाल को संतुष्ट कर देता है कि वह गठ्बंधन एक स्थिर सरकार बना सकता  है तो राज्यपाल अपने निजी आकलन के आधार पर उस दावे को खारिज नहीं कर सकता ,चाहे  वह गठबंधन  अनैतिक तरीकों से ही जुटाया गया हो . राज्यपाल के पास इस तरह के अधिकार   नहीं हैं . .अगर ऐसी  राज्यपाल / राष्ट्रपति को दे दी गयी तो  उसके नतीजे भयावह हो सकते हैं ."
इसी  फैसले में कोर्ट की ताक़त की सीमाएं भी साफ़  कर दी गयी हैं . ," कोर्ट संविधान की व्याख्या कर सकते हैं , उसको बदल नहीं सकते . ...कोर्ट विभिन्न संस्थाओं के अधिकारों की व्याख्या कर सकते हैं लेकिन  किसी एक संस्था या अधिकारी के अधिकार किसी और को नहीं दे सकते "
ऐसा लगता है कि कर्नाटक के मौजूदा राज्यपाल को संविधान और उसकी व्याख्याओं की सही जानकारी  नहीं थी इसलिए उन्होंने अपने आपको ऐसी हालत में डाल दिया जिसके बाद उनकी छीछलेदार होनी तय थी जिसका नतीजा यह होगा कि बाद की पीढियां उनको बूटा सिंह जैसे राज्यपालों के साथ मिलाकर ही देखेंगी 

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