शेष नारायण सिंह
२०१४ के लोकसभा चुनाव के पहले सभी राज्यों के वे नेता जो कभी मुख्यमंत्री रह चुके थे , नरेंद्र मोदी एक राज्य के मुख्यमंत्री से ज्यादा कुछ नहीं समझते थे . मायावती ,मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव , नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक , जयललिता, करुनानिधि , अशोक गहलौत आदि ने नई दिल्ली में मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री को बहुत गंभीरता से नहीं लिया था . इसलिए जब नरेंद्र मोदी बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में घोषित किये गए तो लोगों ने उनको हलके में लिया . सबको विश्वास था कि वे नरेंद्र मोदी को अपने अपने राज्यों में जीतने नहीं देंगें. बीजेपी के भी कुछ नेताओं को मुगालता था कि नरेंद्र मोदी उनसे छोटे नेता हैं . इसी चक्कर में जब राजनाथ सिंह ने गोवा में नरेंद्र मोदी को अडवानी गुट की मर्जी के खिलाफ प्रधानमंत्री पद का उमीदवार घोषित कर दिया तो मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ,शिवराज सिंह आडवानी जी के साथियों ने संसदीय बोर्ड का मेम्बर बना दिया और एक तरह से उनको नरेंद्र मोदी के बराबर साबित करने की कोशिश की . २०१४ के लोकसभा चुनाव ने सब कुछ बदल दिया . उस चुनाव में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी उन राज्यों में भी पंहुच गयी जहाँ कोई उसका नामलेवा नहीं था . पूरे भारत में मोदी के नाम की चर्चा हुई. चुनाव नतीजों के बाद जिन राज्यों में बीजेपी को कोई बड़ी सफलता नहीं मिली वहां भी चुनाव प्रचार के दौरान ,'मोदी,मोदी' के नारे लगते सुने गए . भारत की राजनीति के बड़े बड़े सूरमाओं को अपनी ज़मीन खिसकती नज़र आई. बीजेपी को हमेशा हाशिये पर रखने वाली मायावती और मुलायम सिंह यादव की हालत खराब हो गयी . समाजवादी पार्टी तो खींच खांच कर अध्यक्ष के परिवार वालों को जिता लाई लेकिन मायावती की बहुजन समाज पार्टी शून्य पर पंहुच गयी. शरद पवार की पार्टी का भी वही हाल हुआ . बाद के विधान सभा चुनावों में बिहार और दिल्ली के अलावा हर राज्य में बीजेपी भारी पडी. उत्तर प्रदेश , महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों में तो अपने बल पर ही बीजेपी की सरकारें बन गयीं . कुछ राज्यों में तिकड़म करके भी सरकार बनाई गयी. गोवा, मणिपुर ,नागालैंड, मेघालय आदि राज्यों में जुगाड़ के हिसाब से बीजेपी को बढ़त हासिल हो गयी . आज करीब २० राज्य ऐसे हैं जहां या तो बीजेपी की सरकार है या उनके प्रभाव वाली सरकार है . लगभग पूरा भारत ही बीजेपी के झंडे के नीचे आ चुका है . उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव के बाद गैर बीजेपी पार्टियों को सच्चाई समझ में आने लगी थी . इसीलिये शायद गुजरात के चुनाव में वहां की लीड पार्टी , कांग्रेस ने अपने अलावा भी कुछ लोगों को साथ लेने की कोशिश की . नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के घर में कांग्रेस ने मज़बूत चुनाव लड़ा . वहां फिर से बीजेपी सरकार बनाने के लिए पार्टी के चुनाव अभियान की अगुवाई खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की और हार से बाल बाल बचे. लेकिन गुजरात चुनाव ने कांग्रेस और खासकर उसके आला नेता , राहुल गांधी को यह साफ़ समझा दिया कि अब कांग्रेस का एकछत्र राज वाला टाइम ख़त्म हो चुका है . अब उनको अपने उन साथियों को सबसे समझदार इंसान मानने की गलती दोहराने का मौक़ा नहीं है जिनके साथ उन्होंने बचपन में नई दिल्ली के लुटियन बंगला ज़ोन में अकबर रोड ,सफदरजंग रोड आदि सड़कों के घरों में खेला है . उनकी समझ में यह भी आ गया कि उनके बचपन के साथियों से ज्यादा राजनीतिक समझ वाले लोग उनकी पार्टी में हैं . लेकिन कर्नाटक चुनाव के ठीक पहले उन्होंने फिर वही गलती कर दी . यह मान बैठे कि उनकी हर सोच सही होती है और कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्दरमैया के सहारे विधानसभा चुनाव जीतने निकल पड़े. जानकार बताते हैं कि उनको मायावती से बात करके एक गठबंधन बनाने की सलाह दी गयी थी लेकिन उस वक़्त उनको लगता था कि वे अकेले ही जीत लेंगे .बहरहाल अब उनकी सोच गलत साबित हो चुकी है .और उस पर कार्रवाई भी शुरू ही चुकी है .
कर्नाटक चुनाव के पूरे नतीजे भी नहीं आये थे उसके पहले ही सोनिया गांधी के भरोसे के नेता गुलाम नबी आज़ाद और अशोक गहलौत की बंगलौर यात्रा ने बहुत सारी राजनीतिक परतें खोल दी थीं. उनकी यात्रा शुरू होने के साथ ही तय हो गया था कि यह लोग कर्नाटक में बीजेपी की विजय यात्रा को रोकने की पूरी कोशिश करेंगे . वही हुआ . उन्होंने बीजेपी को रोक दिया लेकिन राज्यपाल की मदद से बीजेपी ने अपने नेता को मुख्यमंत्री बनवाकर गुलाम नबी आज़ाद और अशोक गहलौत की मुराद को पूरा होने से रोकने में शुरुआती सफलता पाई . उसके बाद दिल्ली में सोनिया गांधी के ख़ास शिष्य अभिषेक मनु संघवी ने कानूनी दांव पेंच की कमान संभाली और कर्नाटक के राज्यपाल को उनकी पसंद की सरकार किसी भी हाल में तैनात करने से रोक दिया . सुप्रीम कोर्ट में कर्नाटक के हवाले से जो भी फैसले आये उसी का नतीजा है कि वहां कांग्रेस की पसंद की सरकार पदारूढ़ हो सकी.
कर्नाटक के नए मुख्यमंत्री एच डी कुमारस्वामी की ताजपोशी में जिस तरह का माहौल दिखा उससे दिल्ली की राजनीति की बारीकियों की मामूली समझ वाले को भी स्पष्ट नज़र आ गया है कि कांग्रेस की रणनीति अब सोनिया गांधी बना रही हैं . शपथ ग्रहण के समारोह में सोनिया गांधी ,बीएसपी सुप्रीमो मायावती के साथ बेहद दोस्ताना तरीके से मुस्कुराती रहीं,और बातचीत करती रहीं . सोनिया गांधी ने मंच पर ही मायावती को गले लगा लिया, दोनों देर तक एक दूसरे का हाथ पकडे रहीं और हंस-हंस के बातें करती रहीं। इस अपनैती का एक स्पष्ट अनुवाद है कि मध्य प्रदेश , राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधान सभा चुनावों में कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी के गठबंधन की संभावना बहुत ही प्रबल हो गयी है .मध्य प्रदेश में कांग्रेस की चुनावी रणनीति के एक प्रभावशाली नेता ने बता दिया है कि मध्य प्रदेश में मायावती से बातचीत शुरू हो चुकी है. छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी इंचार्ज महासचिव ,पी एल पुनिया खुद ही मायावती के विश्वासपात्र रह चुके हैं . इस शुरुआती बातचीत को अब सोनिया गांधी की ताकत मिल जायेगी तो समझौते की संभावना बहुत बढ़ जायेगी . बंगलूरू के शपथ ग्रहण समारोह में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी , केरल के मुख्यमंत्री पिनारई विजयन तथा आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू भी थे. इनके अलावा बिहार विधानसभा में नेता विपक्ष तेजस्वी यादव , सपा नेता अखिलेश यादव , राकांपा नेता शरद पवार , माकपा महासचिव सीताराम येचुरी और समाजवादी नेता शरद यादव भी थे। इन सारे लोगों की संयुक्त ताक़त , भारत की राजनीति को निश्चित रूप से प्रभावित कर सकती है .
बंगलूरू के इस जमावड़े से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह का चिंतित होना स्वाभाविक है . बीजेपी के नेताओं का मुख्य हमला अब तक कांग्रेस और राहुल गांधी पर होता रहा है . बीजेपी के लोगों का सोचना है कि राहुल गांधी ही संयुक्त विपक्ष के नेता बनेगें. राहुल गांधी ने कर्नाटक चुनाव में इस बात की तरफ इशारा भी कर दिया था. लेकिन जो ख़बरें आ रही हैं ,उससे अनुमान लग रहा है कि संयुक्त विपक्ष का प्रधानमंत्री पद के लिए कोई उम्मीदवार नहीं होगा. विपक्ष की कोशिश है कि जो पार्टी जहाँ मज़बूत है ,वह वहां लीड पार्टी बने , बाकी लोग सहयोग करें . मसलन उत्तर प्रदेश में तो फूलपुर और गोरखपुर उपचुनाव के बाद तय हो चुका है कि अखिलेश यादव और मायावती की मुख्य भूमिका होगी. अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोक दल सहायक भूमिका में रहेगी . कैराना में कोई उम्मीदवार न खड़ा करके कांग्रेस ने भी संकेत दे दिया है कि वह भी अखिलेश-मायावती टीम में शामिल होने के लिए तैयार है . बंगलूरू में कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण के मंच पर ममता बनर्जी ,सोनिया गांधी और सीताराम येचुरी की केमिस्ट्री देखने से लगता है कि वहां भी कुछ पक रहा है . अभी संपन्न हुए बंगाल के पंचायत चुनावों के नतीजों से तस्वीर सामने आ चुकी है कि वहां ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस को चुनौती बीजेपी से ही मिलने वाली है. इसका मतलब यह हुआ कि वामपंथी पार्टियों और कांग्रेस के सामने अस्तित्व का संकट आ सकता है. सीताराम येचुरी ने अपनी पार्टी से बीजेपी को हराने के लिये किसी का भी साथ देने की लाइन तय करवा ली है. ऐसी हालत में बंगाल में भी इस बात उत्तर परदेश टाइप कुछ हो सकता है . समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी एक हो गए है तो बंगाल में कम्युनिस्ट,कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस क्यों नहीं एक हो सकते . अमित शाह ने कई बार कहा है कि उनका अगला लक्ष्य उडीसा में सरकार बनाना है . हालांकि उडीसा में मुख्य पार्टियां कांग्रेस और बीजू जनता दल हैं लेकिन इन दोनों की लड़ाई में बीजेपी के मुख्य पार्टी बन जाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है . अगर यह बात उडीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को क्षितिज पर दिख गयी तो वहां की राजनीति में भी कुछ नया हो सकता है .
बीजेपी के लोग चाहते हैं कि विपक्ष की कुछ पार्टियां एक तीसरा मोर्चा बनाएं . जो उनके और कांग्रेस के खिलाफ प्रचार करे . इसके लिए तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंदेशेखर राव जुट भी गए थे लेकिन राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार ने इस आइडिया को जन्म लेने से पहले ही ख़त्म कर दिया . कर्नाटक से जो संकेत आ रहे हैं उनसे लगता है कि बीजेपी के खिलाफ जो पार्टियां हैं वे संगठित होंगी लेकिन अलग अलग राज्यों में अलग अलग गठबंधन होगा . यह भी संभव है कि केरल में वामपंथी पार्टियों और कांग्रेस के बीच मुकाबला हो लेकिन वे दोनों पार्टियां बंगाल में साथ साथ चुनाव मैदान में नज़र आयें . आने वाले समय में इस तरह की और भी राजनीतिक संभावनाओं पर चर्चा होगी . जोई भी हो २०१९ का चुनाव बहुत ही दिलचस्प राजनीतिक जोड़तोड़ की तरफ बढ़ रहा है .
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