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Thursday, September 18, 2014

उम्मीदों की बहन ,सियासत को नफरत समझ बैठे, उपचुनाव हार गए .


शेष नारायण सिंह 
लोकसभा चुनाव २०१४ में शानदार जीत के बाद हुए उपचुनावों में बीजेपी को वह आनंद नहीं आ रहा है जो उसने १६ मई २०१४ को अनुभव किया था . लगातार झटके लग रहे हैं . ताज़ा उपचुनाव में उत्तर प्रदेश और राजस्थान से  आ रहे  संकेत ऐसे नहीं हैं जिन्हें बीजेपी वाले पसंद करेगें . दोनों ही राज्यों में बीजेपी के उम्मीदवार उन सीटों पर हारे है जहां इसके पहले हुए चुनावों में बीजेपी को जीत हासिल हुयी थी. उत्तर प्रदेश में तो वे सीटें हैं जहां २०१२ के उस चुनाव में  बीजेपी ने इन सीटों को जीता था जब राज्य में पूरी बीजेपी पचास सीटों में सिमट गयी थी. बीजेपी वालों को भी पता है कि हार गैरमामूली है और  मुकम्मल है . लेकिन एक बात और भी सच है कि यह नतीजे समाजवादी पार्टी की जीत भी नहीं है. यह अलग बात है  कि समाजवादी पार्टी के आला नेता मुलायम सिंह यादव इसको अपनी जीत बता रहे हैं . लेकिन यह उनकी जीत बिलकुल नहीं है . उनकी पार्टी के उम्मीदवार केवल इसलिये जीते क्योंकि बीजेपी की राजनीति को नकारने का मन बना चुकी जनता के सामने कोई और विकल्प नहीं था. यह इस बात का भी सबूत है कि अगर जनता मन बना ले तो राजनीतिक पार्टियों को ज़रूरी सबक सिखाती ज़रूर है  हालात चाहे  जो भी हों . मसलन बिहार में लालू और नीतीश एक हो गए तो जनता ने बीजेपी को औकात बता दी. उत्तर प्रदेश में बीजेपी के रणनीतिकार मानकर चल रहे थे कि उसके खिलाफ पड़ने  वाले वोट कांग्रेस ,बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस के बीच बंट जायेगें लेकिन ऐसा नहीं हुआ. इस चुनाव में वोटों की ठेकेदारी करने वाली जमातों को भी झटका ज़रूर लगा होगा क्योंकि मुज़फ्फरनगर के दंगों के बाद हुए लोकसभा चुनाव में दलितों ने उस इलाके में बीजेपी को वोट दिया था . इस बार बीजेपी के रणनीतिकारों को यही मुगालता था कि दलित वोट किसी भी कीमत पर मुलायम सिंह  यादव को नहीं मिल सकते क्योंकि उनकी मानी हुयी नेता  मायावती ने उम्मीदवार नहीं उतारे हैं . उनको इमकान था कि मायावती की पार्टी चुनाव मैदान में है नहीं तो दलित बीजेपी को वोट देगें . लेकिन ऐसा नहीं हुआ . समाजवादी पार्टी के राज से परेशान और उसके मुकामी कार्यकर्ताओं से दहशत में रहने वाले दलित वर्गों ने भी बीजेपी के खिलाफ वोट दिया . हालांकि उनका वोट समाजवादी  पार्टी की राजनीति चमकाने में काम आ गया. ऐसा लगता है की उत्तर प्रदेश की जनता ने बीजेपी के  उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष लक्ष्मी कान्त वाजपेयी और गोरखपुर के संसद सदस्य महंत आदित्यनाथ की राजनीति को धता बताने के लिए  कुछ भी करने का मन बना लिया था . और उसने  वह कर  भी दिया .
 बीजेपी की हार का मुख्य कारण यह है कि वह  आइडिया आफ इण्डिया को तोड़ मरोड़ कर पेश करती है . वह भारत को बहुमतवाद की तरफ घसीट रही है  और भारत को उसी ढर्रे पर डालने की कोशिश कर रही है जिसपर मुहम्मद अली जिन्नाह की मौत के बाद शासक वर्गों ने पाकिस्तान  को डाल दिया था था. धार्मिक प्रभुतावादी और अधिसंख्यावादी लोकतंत्र के खतरों को पाकिस्तान के उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है . मौजूदा उपचुनाव  के नतीजों को इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए . सितम्बर २०१४ के उपचुनावों में बीजेपी हार गयी है लेकिन जो पार्टियां जीती हैं उनसे लोकतंत्र के हित में कोई बहुत उम्मीद नहीं बनती . उत्तर प्रदेश में   जीत समाजवादी पार्टी की हुई है . समाजवादी पार्टी कोई बहुत लोकतांत्रिक पार्टी नहीं है . उसमें परिवारवाद बहुत ही गंभीर किस्म का है . राजस्थान में भी परिवारवाद से पहचानी जाने वाली पार्टी , कांग्रेस के लोग ही जीते  हैं . लेकिन जनता को बीजेपी को अपनी राजनीति सुधारने की चेतावनी देनी थी ,उसने दे दिया . इन  चुनावों के नतीजों से सबक लेकर अगर बीजेपी अपनी मनमानी की राजनीति से बाज़ आ जाती है तो वह देश के लिए हितकर होगा क्योंकि केंद्र में सत्ताधारी पार्टी के रूप में उसके पास कुछ भी कर गुजरने की राजनीतिक ताक़त मौजूद है . अगर उसको बेलगाम छोड़ दिया गया तो लोकशाही के लिए मुश्किल पेश आ सकती है .
बीजेपी की इस हार को उत्तर प्रदेश के हवाले से समझने की कोशिश की जायेगी . उत्तर प्रदेश में बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मी कान्त वाजपेयी और महंत आदित्यनाथ ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच नफरत की राजनीति के बल पर जीत हासिल करने की कोशिश की थी. इस काम के लिए लव जिहाद का नया फार्मूला तलाश लिया गया था . लव जिहाद को इतना बड़ा कर दिया गया था की बाकी कोई भी मुद्दा चर्चा में आ ही नहीं पाया . अपने लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत सारे ऐसे वायदे किये थे जो सौ दिन में पूरे होने थे, मंहगाई और बेरोजगारी पर ज़बरदस्त हमला  होना था , भ्रष्टाचार को ख़त्म किया जाना था, पाकिस्तान को उसकी औकात बता देनी थी, चीन  को बता देना था कि सीमा पर खामखाह का तनाव न पैदा करे . लेकिन इन  मुद्दों पर कोई चर्चा नहीं हुयी  क्योंकि महंगाई ,बेरोजगारी,भ्रष्टाचार आदि तो ज्यों के त्यों बने हुए हैं , पाकिस्तान भी पहले की तरह की बदस्तूर सीमा पर गड़बड़ी कर रहा  है , और चीन से प्रधानमंत्री का अपनापा बनाने का अभियान चल रहा है . हमारा  मानना है कि चीन और पाकिस्तान से भारत को वैसे ही सम्बन्ध रखने चाहिए जैसे कि मौजूदा सरकार रख रही  है लेकिन फिर सवाल उठता है कि डॉ मनमोहन सिंह की सरकार भी तो वैसे ही सम्बन्ध रख रही थी. चुनाव अभियान के दौरान इतना हल्ला गुल्ला क्यों किया गया था. जहां तक नौजवानों को नौकरियाँ देने की बात है , वह सपना तो पचासों वर्षों से सत्ता हासिल करने के  लिए राजनीतिक पार्टियां दिखाती रही  हैं , अब भी दिखाती रहेगीं .ऐसी  हालात में लगता है की सरकार की सौ दिन की नाकामियों के खिलाफ जनता के गुस्से को कंट्रोल करने के लिए यह लव जिहाद वाला शिगूफा ईजाद किया गया था और इस बात की पूरी संभावना है कि इस चुनाव में मनमाफिक नतीजे न दे पाने के कारण अब इसको भुला दिया जाएगा .
दरअसल इस चुनाव का सबसे ज़रूरी सबक यह है की धार्मिक समुदायों में नफ़रत फैलाकर चुनाव नहीं जीता जा सकता .इन नतीजों को  बीजेपी में मौजूद दो राजनीतिक धाराओं के टकराव को  समझने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है. इस बात में कोई विवाद नहीं है कि बीजेपी और आर एस एस की संस्थापक संस्था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना १९२५ में वी डी सावरकर की किताब "हिंदुत्व " को आधार बनाकर की गयी थी लेकिन महात्मा गांधी की हत्या के बाद आर एस एस के नेताओं ने सावरकरवादी हिंदुत्व को नकारना शुरू कर दिया था . सावरकर की पार्टी ,हिन्दू महासभा में भी मतभेद पैदा हो गए थे. नफरत की राजनीति का विरोध कर रहे हिन्दू महासभा के नेता , डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने एक नयी पार्टी की स्थापना करने का मन बनाया . उन्होंने अपना मंतव्य आर एस एस के प्रमुख एम एस गोलवलकर को बताया जिन्होंने डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी को सहयोग देने का वचन दिया . वचन ही नहीं दिया बल्कि एक अपेक्षाकृत उदार सोच के प्रचारक स्व दीन दयाल उपाध्याय को  डॉ मुखर्जी के सहयोग के लिए भेज भी दिया . नतीजा यह हुआ कि सावरकर की राजनीतिक सोच से अलग राजनीति को आधार बनाकर  १९५१-५२ में भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई . भारतीय जनसंघ के उम्मीदवार आर एस एस के हिन्दुराष्ट्र के सिद्धांत को बुनियाद बनाकर  १९५२ के चुनाव में शामिल भी हुए और पश्चिम बंगाल में सफलता भी मिली . उसके बाद से हिन्दू महासभा को कट्टर हिंदुत्व की पार्टी का स्पेस खाली करने को मजबूर होना पडा और बाद में तो वह पूरी तरह से हाशिये पर आ गयी . आर एस एस और बीजेपी मूल रूप से हिंदुत्व की राजनीति के पैरोकार बने जो आज तक कायम है . जनसंघ और बीजेपी के अन्दर हमेशा से   सावरकर वादियों की मौजूदगी रही है और वे समय समय पर  हुंकार भरते रहे हैं . मौजूदा लव जिहाद में जो नफरत का तडका है वह उसी राजनीति का परिणाम है . स्व दीन दयाल उपाध्याय और डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी की राजनीतिक लाइन के सबसे बड़े पोषक अटल बिहारी वाजपेयी रहे हैं और उनके सक्रिय रहते  कभी भी सावरकर वादियों को प्रमुखता नहीं मिली लेकिन आजकल बीजेपी की वैचारिक सोच पर कब्जे की लड़ाई बार बार मुंह उठाती है .  मौजूदा दौर भी उसी में से एक है .
    
 लोकसभा २०१४ के पहले भी बीजेपी और आर एस एस के बड़े नेताओं की एक मीटिंग में हिंदुत्व की नयी परिभाषा को सावरकर वादी  सांचे में फिट करने की कोशिश की गयी थी . मीटिंग में शामिल लोगों ने बताया कि बीजेपी के नेता आर एस एस–बीजेपी के सावरकरवादी हिंदुत्व के एजेंडे को २०१४ के चुनावी उद्घोष के रूप में पेश करने से बच रहे हैं . इस बैठक में शामिल बीजेपी नेताओं ने कहा कि जब कांग्रेस शुद्ध रूप से राजनीतिक मुद्दों पर चुनाव के मैदान में जा आ रही है और बीजेपी को ऐलानियाँ एक साम्प्रदायिक पार्टी की छवि में  लपेट रही है तो सावरकरवादी हिंदुत्व को राजनीतिक आधार बनाकर चुनाव में जाने की गलती नहीं की जानी चाहिए . १२ फरवरी की बैठक में आर एस एस वालों ने बीजेपी नेताओं को साफ़ हिदायत दी कि उनको हिंदुओं की पक्षधर पार्टी के रूप में चुनाव मैदान में जाने की ज़रूरत है .जबकि बीजेपी का कहना है कि अब सरस्वती शिशु मंदिर से पढकर आये कुछ पत्रकारों के अलावा कोई भी सावरकरवादी हिंदुत्व को गंभीरता से नहीं लेता. बीजेपी वालों का आग्रह है कि ऐसे मुद्दे आने चाहिए जिसमें उनकी पार्टी देश के नौजवानों की समस्याओं को संबोधित कर सके.इस बैठक से जब बीजेपी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह बाहर आये तो उन्होंने बताया कि अपनी पार्टी की भावी रणनीति के बारे में विस्तार से चर्चा हुई .
बीजेपी ने जब १९८६ के बाद से सावरकरवादी हिंदुत्व को चुनावी रणनीति का हिस्सा बनाया उसके बाद से ही उनको उम्मीद रहती थी कि जैसे ही किसी ऐसे मुद्दे पर चर्चा की जायेगी जिसमें इतिहास के किसी मुकाम पर हिंदू-मुस्लिम  विवाद रहा हो तो माहौल गरम हो जाएगा .अयोध्या की बाबरी  मसजिद और राम जन्म भूमि विवाद इसी रणनीति का हिस्सा था.  बहुत ही भावनात्मक मुद्दे के नाम पर आर एस एस ने काम किया और जो बीजेपी १९८४ के चुनावों में २ सीटों वाली पार्टी बन गयी  उसकी संख्या इतनी बढ़ गयी कि वह जोड़ तोड़ कर सरकार बनाने के मुकाम पर पंहुच गयी . आर एस एस में मौजूद एक वर्ग की यही सोच  है  कि अगर चुनाव धार्मिक और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को मुद्दा बनाकर लड़ा गया तो बहुत फायदा होगा .लव जिहाद भी बीजेपी के अन्दर चल रहे वैचारिक मंथन का एक शिगूफा मात्र है और इसको उसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए लेकिन इन उपचुनावों के नतीजे के बाद बीजेपी में वैचारिक चिंतन के बार फिर जोर मारेगा . उम्मीद की जानी चाहिए कि दक्षिणपंथी ही सही लिबरल डेमोक्रेसी कायम रहेगी .
  

Saturday, November 2, 2013

बस्तर संभाग में नरेंद्र मोदी को कोई नहीं जानता,यहाँ रमन सिंह बीजेपी के सबसे बड़े नेता हैं


शेष नारायण सिंह 

जगदलपुर, २७ अक्टूबर . छत्तीसगढ़ विधान सभा के चुनावो के बाद रायपुर में बनने वाली सरकार के गठन में बस्तर संभाग की १२ सीटों का महत्व सबसे ज़्यादा है . बाकी इलाके में तो कांग्रेस और बीजेपी की स्थिति लगभग बराबर ही रहती है . पिछली विधान सभा में बस्तर संभाग की बीजेपी की ११ सीटों के कारण ही रमन सिंह दुबारा मुख्यमंत्री बन सके थे  . लेकिन  बस्तर क्षेत्र में रहने वाला हर इंसान जानता है कि इस बार बीजेपी की ११ सीटें नहीं आ रही है . यहाँ तक कि बीजेपी के कार्यकर्ता भी जानते हैं कि उनकी पार्टी की हालत इस बार उतनी अच्छी नहीं है जितनी पिछली बार थी. पिछली बार बस्तर में लखमा कवासी इकलौते कांग्रेसी उम्मीदवार थे जो कोंटा से विजयी रहे थे. कांग्रेसी उम्मीद कर रहे थे कि जीरम घाटी में मारे गए महेंद्र कर्मा के परिवार के किसी उम्मीदवार को टिकट दे देने से उसे सहानुभूति का लाभ मिलेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं है .उसी तरह दिल्ली में बैठे बीजेपी के नेता समझ रहे हैं कि नरेंद्र मोदी की आक्रामक हिंदू नेता की छवि का लाभ पार्टी को मिलेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं है .कई इलाकों में तो लोगों ने नरेंद्र मोदी का नाम भी नहीं सुन रखा है .इस इलाके में बीजेपी का एक ही नेता है और उसका नाम है रमन सिंह .

बस्तर संभाग में २००८ के चुनाव में  ११ सीटें जीतकर रमन सिंह ने सरकार बना ली थी. यहाँ के हर जानकार ने बताया कि इस इलाके में आदिवासियों और सतनामियों के बीच कांग्रेस नेता अजीत जोगी की पहचान  है और  बीजेपी की ११ सीटों  की जीत में अजीत जोगी की खासी भूमिका थी क्योंकि उन्होंने अपने आपको बड़ा नेता साबित करने के लिए अपने विरोधी गुट के कांग्रेसी उम्मीदवारों के खिलाफ काम किया था . लेकिन इस बार ऐसा नहीं है . इस बार अजीत जोगी कांग्रेस के उम्मीदवारों के खिलाफ काम नहीं कर रहे हैं . बस्तर संभाग की ११ सीटें रिज़र्व हैं जबकि जगदलपुर की सीट सामान्य है . यहाँ से कांग्रेस ने शामू कश्यप को उम्मीदवार बनाया है . कांग्रेस के एक बहुत ही ज़िम्मेदार नेता ने बताया कि यह कांग्रेस आलाकमान की चूक है . शामू कश्यप महरा जाति के हैं .उनकी जाति के लोगों की बहुत वर्षों से मांग है कि उनको अनुसूचित जनजाति का दरजा दिया जाए लेकिन अनुसूचित जनजाति के लोग इस मांग का विरोध कर रहे हैं . उनको डर है कि अगर महरा जाति को  अनुसूचित जनजाति का दर्ज़ा मिल गया तो वे सारे लाभ हथिया लेगें क्योंकि महरा जाति के लोग अपेक्षाकृत चालाक बताए जाते हैं . गाँवों में जो भी छोटे मोटे कारोबार हैं सब इनके पास ही हैं . कांग्रेस को उम्मीद है कि महरा जाति के करीब दो लाख वोट उनको एकतरफा मिल जायेगें लेकिन इस गणित से बीस लाख के करीब मुरिया,गोंड,राउत और घसिया आदिवासी नाराज़ भी हो सकते हैं .बताते हैं कि  कांग्रेस की इस राजनीतिक अनुभवहीनता का लाभ उठाने के लिए बीजेपी ने अपने वनवासी कल्याण परिषद वालों के ज़रिये बहुसंख्यक आदिवासियों को सचेत करना शुरू कर दिया है . ऐसी हालत में जगदलपुर के मौजूदा विधायक संतोष बाफना को लाभ मिलने की स्थति पैदा हो गयी है .यहाँ कांग्रेस और बीजेपी दोनों को ही बागियों का सामना करना पड़  रहा है . बीजेपी के राजाराम तोडेम स्वाभिमान मंच से लड़ रहे हैं तो सेठिया समाज के राम केसरी कांग्रेस से नाराज़ होकर बागी हो गए हैं इस इलाके में सेठिया समाज के वोटों की खासी संख्या है .ज़ाहिर है कि यह बीजेपी को फायदा पंहुचा सकते हैं .

इस बार बस्तर सम्भाग की दो सीटों पर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार मजबूती से लड़ रहे हैं . कोंटा में अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के अध्यक्ष ,मनीष  कुंजाम मज़बूत हैं जबकि उनकी पुरानी सीट दंतेवाड़ा में उनकी पार्टी के उम्मीदवार बोमड़ा राम कवासी की हालत बहुत अच्छी है . दंतेवाडा सीट इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यहाँ से कांग्रेस ने महेंद्र कर्मा की पत्नी देवती कर्मा को टिकट दिया है . कांग्रेस ने उम्मीद की थी कि महेंद्र कर्मा की जिस तरह से माओवादियों ने जीरम घाटी में ह्त्या की थी उससे सहानुभूति  मिलेगी लेकिन दंतेवाड़ा में ऐसा कुछ नहीं दिखता.  देवती कर्मा से किसी को सहानुभूति नहीं है . उनके दो बेटे इलाके में ऐसी ख्याति अर्जित कर चुके  हैं जिसके बाद किसी को भी सहानुभूति नहीं मिलती. उनका एक बेटा अभी भी नगर पंचायत का अध्यक्ष है जबकि दूसरा जिला पंचायत का भूतपूर्व अध्यक्ष है. दोनों ने ही इलाके के लोगों को बहुत परेशान कर रखा है . सलवा जुडूम के हीरो के रूप में भी महेंद्र कर्मा की  पहचान थी जिसके कारण आदिवासी इलाकों  में उन्हें बीजेपी के एजेंट के रूप में पहचाना जाता है . आम आदिवासी महेंद्र कर्मा को नापसंद करता है  हालांकि केन्द्र सरकार और उनेक सहयोगी उन्हें बस्तर का शेर बनाकर पेश करने की कोशिश करते हैं . दंतेवाड़ा से महेंद्र कर्मा २००८ में खुद कांग्रेस उम्मीदवार थे और तीसरे नंबर पर रहे थे . यहाँ कम्युनिस्ट पार्टी दूसरे नंबर पर थी . उस बार यहाँ के उम्मीदवार मनीष कुंजाम थे . कम्युनिट पार्टी के प्रचार में दिन रात एक कर रहे पार्टी की राष्ट्रीय परिषद के सदस्य सी आर बख्शी ने बताया कि उनका उम्मीदवार गैर आर एस एस समुदाय में बहुत लोकप्रिय है .यहाँ की लड़ाई अभी शुद्ध रूप से सी पी आई और बीजेपी के बीच है . दिल्ली में कांग्रेस के एक बड़े नेता ने भी बताया कि दंतेवाड़ा में सी पी आई का उम्मीदवार बहुत मजबूत है .

कोंटा सीट पर  सी पी आई के मनीष कुंजाम खुद उम्मीदवार हैं . उनकी इज्ज़त सभी वर्गों में है . जब माओवादियों ने सुकमा के कलेक्टर अलेक्स पाल मेनन का अपहरण कर लिया था  तो उनकी रिहाई के लिए जो कोशिशें हुई थीं उनमें मनीष कुंजाम ने जो भूमिका निभाई थी उसकी सभी सराहना करते हैं . माओवादियों के बीच भी उनकी इज्ज़त है . आदिवासी समुदाय उनके साथ है लेकिन एक शंका यह जतायी जा रही है कि रमन सिंह की सरकार कम्युनिस्ट उम्मीदवारों को नहीं जीतने देगी चाहे उसे कांग्रेस के पक्ष में ही बीजेपी के अपने वोट ट्रांसफर करना पड़े. बस्तर सम्भाग से इकलौते कांग्रेसी एम एल ए , कवासी लखमा भी कोंटा में उम्मीदवार हैं . लेकिन उनकी हालत खस्ता बतायी जा रही है . यह सीट सी पी आई को मिल सकती है .

बीजेपी के बस्तर क्षेत्र के विधायकों के खिलाफ जनरल माहौल है .चित्रकोट के बीजेपी उम्मीदवार बैदूराम कश्यप हैं जो विधायक भी हैं . यह कभी भी अपने क्षेत्र में नहीं गए. इनके क्षेत्र की सबसे बड़ी पंचायत कूकानार है , इसमें करीब आठ हज़ार वोट हैं . बस्तर के हिसाब से यह बहुत बड़ा वोट बैंक है .बीजेपी की जीत में इस इलाके का भारी योगदान रहता  है  लेकिन चुनाव जीतने के बार बैदूराम यहाँ एक बार भी नहीं गए. कूकानार में उनके खिलाफ सभी लोग हैं और उनको हराने के लिए वोट करने वाले हैं . उनका विरोध उनकी ही पार्टी के लच्छूराम कश्यप कर रहे हैं . लच्छूराम अभी जिला पंचायत के अध्यक्ष है और बीजेपी के टिकट के मज़बूत दावेद्दार थे . उन्होने बताया कि अगर इस बार भी बैदूराम जीत गए तो वह जड़ पकड़ लेगें और जिले में उनकी जो राजनीतिक हैसियत है वह खत्म हो जायेगी . हालांकि कांग्रेस उम्मीदवार के खिलाफ भी बागी उम्मीदवार हैं लेकिन कांग्रेस का उम्मीदवार दीपक बैज नया खिलाड़ी है और बैदूराम पर भारी पड़ रहा है.

कांकेर विधानसभा क्षेत्र में बीजेपी ने अपनी विधायक सुमित्रा मारकोले की जगह पर संजय कोडोपी को टिकट दिया है। बीजेपी  कार्यकर्ताओं में नाराज़गी है. संजय कोडोपी बहुत ही अलोकप्रिय है  और पार्टी में  बगावत के कारण उनके पाँव नहीं जम पा रहे हैं।  कांग्रेस के शंकर धुर्वा उम्मीदवार हैं और उनके परिवार की इज़ज़त है।  बीजेपी के कार्यकर्ता भी कहते देखे गए कि श्यामा धुर्वा की जो गुडविल है शंकर को उसका लाभ मिल सकता है। 

अंतागढ़ में बीजेपी के उम्मीदवार विक्रम उसेंडी हैं।  इंकमबेंसी की असली मार झेल  रहे हैं।  पिछले पांच साल के उनके काम से नाराज़ लोगों की बड़ी संख्या है। उनसे नाराज़ होकर उनकी पार्टी के ही प्रभावशाली नेता , भोजराज नाग निर्दलीय लड़ रहे हैं। लेकिन  विक्रम उसेंडी के पास भी साधनों की कोई कमी नहीं है।  उन्होंने भोजराज नाग नाम के एक और उम्मीदवार को खड़ा कर दिया है।  पिछले बार विक्रम उसेंडी १०९ वोट से जीते थे।  ज़ाहिर है कि उनका मुक़ाबला मुश्किल है।  कांग्रेस के उम्मीदवार मंतूराम पवार इलाक़े में सम्मानित व्यक्ति है और उसको मंत्री जी की दुर्दशा का लाभ मिल रहा है। इसी क्षेत्र में ढाका से १९५० के दशक में आये हुए शरणार्थियों की बस्ती भी है।  नामशूद्र जाति के यह लोग अविभाजित बंगाल में दलित वर्ग के माने जाते थे ।  लेकिन यहाँ उनको दलित नहीं माना जा रहा है। उनकी बहुत दिनों से मांग है कि उन्हें अनुसूचित वर्ग में रखा जाए।  लेकिन केंद्र की सरकार इस बात को हमेशा से टाल रही है।  इस बार विक्रम उसेंडी ने उनको भरोसा दिला दिया है कि उनको अनुसूचित जाति की श्रेणी में वे करवा देगें। उनकी बात पर पंखाजोर के इस इलाक़े में सही माना जा रहा है।  इस बात की सम्भावना है कि विक्रम उसेंडी को यह सारे  वोट मिल जायेगें।  अगर ऐसा हुआ तो कांग्रेस उम्मीदवार की सारी अच्छाई का बावजूद भी यह सीट बीजेपी के हाथ लगेगी क्योंकि नामशूद्रों के यहाँ क़रीब आठ हज़ार वोट हैं।  और जहां १०९ वोट से हारजीत का फैसला हो रहा हो वहाँ आठ हज़ार वोटों का बहुत अधिक महत्व है।  

केशकाल बस्तर सम्भाग की एक अन्य महत्वपूर्ण सीट है।  जहां बीजेपी के विधायक सेवक राम नेताम फिर मैदान में हैं।  पांच साल का उनका कार्यकाल आलोचना का विषय है ।  उनके खिलाफ अजीत जोगी का बन्दा संतराम नेताम कांग्रेस की तरफ से उमीदवार है।  संतराम को बाहरी माना जा रहा है लेकिन सेवकराम निष्क्रिय रहे हैं इसलिए संतराम की स्थिति मज़बूत है।  यहाँ कांग्रेस की अगर हार हुयी तो उसमें स्वाभिमान मंच के उम्मीदवार  का भारी योगदान होगा क्योंकि वह यहाँ बीजेपी की मदद कर रहा है और कांग्रेस के वोट काट रहा है।  

बीजापुर में कांग्रेस ने विक्रम मंडावी को उतारा है लेकिन उनको टिकट मिलने से बहुत सारे कांग्रेसी नाराज़ हैं।  ज़िला पंचायत की अध्यक्ष और कांग्रेस की नेता , नीना रावतिया भी टिकटार्थी थीं और अब कांग्रेसी उम्मीदवार का विरोध कर रही हैं। इस टिकट से नाराज़ कुछ लोगों ने बीजेपी भी ज्वाइन कर लिया है। यहाँ बीजेपी के उमीदवार महेश गागड़ा हैं। ।  राजाराम तोड़ेम भी यहाँ से बीजेपी का टिकर मांग रहे थे।  लेकिन अब नाराज़ हैं और स्वाभिमान मंच में शामिल हो गए हैं।  वे जगदल पुर से पर्चा भर चुके हैं और वहाँ बीजेपी के संतोष बाफना की लड़ाई को कठिन बना रहे हैं। 

भानु प्रतापपुर में बीजेपी विधायक ब्रह्मानंद नेताम को टिकट काट दिया गया है।  उनकी जगह पर नौजवान सतीश लाठिया लड़ रहे हैं।  बीजेपी के कई नेता उनके खिलाफ हैं।  ब्रह्मानंद भी विरोध में काम कर रहे हैं लेकिन बीजेपी के रायपुर के नेताओं को उम्मीद है कि बात बन जायेगी  .  बीजेपी नेता रुक्मिणी ठाकुर तो लाठिया को हारने का मन बना चुकी हैं।  कांग्रेस के उम्मीदवार मनोज मंडावी हैं।  यहाँ कांग्रेस बहुत मज़बूत नहीं है इसलिए उनके खिलाफ भितरघात का ख़तरा नहीं है. बस्तर सम्भाग के जितने बीजेपी नेताओं से बात हुयी सबी इस  सीट पर कांग्रेस की जीत की बात करते पाये गए। 

कोंडागांव बीजेपी की मज़बूत सीट है।  वहाँ से पूर्व सांसद मनकूराम सोढ़ी के बेटे शंकर सोढ़ी  निर्दलीय उम्मीदवार हैं और कांग्रेसी उम्मीदवार मोहन मरकाम की लड़ाई को बहुत कठिन बना रहे हैं।  पिछली बार भी मोहन मरकाम अच्छा लड़े थे और बहुत मामूली अंतर से हारे थे।  लेकिन इस बार शंकर सोढ़ी के कारण वर्त्तमान विधायक लता उसेंडी की स्थिति मज़बूत है।  आज की हालत अगर  चुनाव के दिन तक बनी रही तो यह सीट बीजेपी की हो जायेगी लेकिन अगर शंकर सोढ़ी मान गए तो कांग्रेस के खाते में जा सकती है।  केंद्रीय कांग्रेस नेताओं ने बताया कि शंकर सोढ़ी  को लोकसभा लड़ने के लिए कहा जा रहा है।  अगर यह सम्भव हुआ तो यहाँ से कांग्रेस की जीत की सम्भावना बहुत अधिक हो जायेगी।  

नारायणपुर में मंत्री केदार कश्यप बहुत मज़बूत हैं।  रमन सिंह सरकार में मंत्री हैं।  आदिवासी विभाग के मंत्री हैं , बहुत संपन्न हैं और कांग्रेसी उम्मीदवार , चन्दन कश्यप पर बहुत भारी पड़ रहे हैं। जबकि बस्तर विधानसभा क्षेत्र दोनों पार्टियों में भितरघात है।  बीजेपी विधायक सुभाऊ कश्यप के खिलाफ कांग्रेस ने डॉ लखेश्वर  बघेल को टिकट दिया है  जो मज़बूत माने जा रहे हैं।  
बस्तर सम्भाग में राहुल गांधी या नरेन्द्र मोदी का कहीं भी कोई ज़िक्र नहीं है। सारा चुनाव आदिवासियों  के मुक़ामी मुद्दों पर लड़ा जा रहा है।  पूरे क्षेत्र में नरेद्र मोदी का कोई पोस्टर नहीं दिखा  जबकि कांग्रेसियों ने जगह राहुल गांधी, सोनिया गांधी और डॉ मनमोहन सिंह के पोस्टर लगा ऱखे हैं।  यहाँ रमन सिंह नरेंद्र मोदी से बड़े नेता के रूप में जाने जाते हैं। 

Friday, August 2, 2013

तेलंगाना के फैसले पर बीजेपी वाले कांग्रेस का समर्थन करने के लिए मजबूर है


शेष नारायण सिंह
विन्ध्य के उस पार , अपने पुराने वायदे को कांग्रेस ने पूरा कर दिया है .तेलंगाना का अलग राज्य बनाने के लिए राजनीतिक फैसला लेकर प्रशासनिक काम आगे बढ़ा दिया है.  अब सरकार  और संसद का ज़िम्मा है कि इस राजनीतिक फैसले को अमली जामा पहनाये. आंध्र प्रदेश के कुछ नेताओं और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा इस फैसले  का कोई विरोध नहीं है . विरोध के लिए विरोध करने वाली राजनीतिक जमात , बीजेपी , ने तो  पहले ही अपने आप को तेलंगाना का पक्षधर घोषित कर रखा था . उनको उम्मीद थी कि कांग्रेस इस फैसले को टालती रहेगी और बीजेपी के नेता कांग्रेस को ढुलमुल काम करने वाली पार्टी के रूप में पेश करते रहेगें  लेकिन सब कुछ उलट गया . कांग्रेस ने तेलंगाना के पक्ष में वोट डाल दिया . अब बीजेपी के सामने विरोध का मौक़ा नहीं है . उसे भी कम स कम एक मुद्दे पर कांग्रेस के साथ जाना पड़ रहा है . तेलंगाना के इलाके में खुशी की लहर है .यह उनकी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सपनों की ताबीर है . सीमान्ध्र और रायलसीमा के नेता लोग परेशान हैं . उनकी राजनीतिक ब्लैकमेल की ताक़त कम हो रही है . अलग तेलंगाना राज्य की अवधारणा १९५३ में ही कर ली गयी थी और  भाषा के आधार पर जब राज्यों का गठन हुआ तप १९५६ में ही  तेलंगाना को अलग राज्य बन जाना चाहिए था लेकिन सीमान्ध्र और रायलसीमा में भी वही भाषा बोली जाती थी जो तेलंगाना की है ,इसलिए भाषाई आधार पर राज्य को अलग नहीं किया जा सका .हाँ एक जेंटिलमैन एग्रीमेंट तेलंगाना के लोगो के हाथ आया जो  बार बार तोडा गया .तेलंगाना  के लिए १९६९ और १९७२ में बहुत ही हिंसक आंदोलन भी हुआ.  इस इलाके के लोगों के दिमागों में यह बात घर कर गयी कि उनको बेवकूफ बनाया जाता रहेगा लेकिन राज्य का गठन कभी नहीं होगा.  
कांग्रेस वर्किंग कमेटी के फैसले में ऐसी बातें हैं जिस से तेलंगाना और बाकी आंध्र प्रदेश के लोगों के साथ न्याय होगा . सबसे बड़ी बात तो यह है कि तेलंगाना को भाषाई आधार पर आंध्र प्रदेश के अंदर रखने के प्रस्ताव का जवाहरलाल नेहरू ने उस समय भी विरोध किया था जब १९५६ में आंध्र प्रदेश के ताक़तवर राजनेताओं ने हैदराबाद समेत बाकी तेलंगाना को आंध्र प्रदेश में रखने का  फैसला करवा लिया था . उन्होने कहा था कि यह शादी बेमेल थी और इसमें तलाक की गुंजाइश थी . आज वह तलाक़  हो गया है केवल कागज़ी काम होना बाकी है . जवाहर लाल नेहरू की इच्छा को उनकी पार्टी ने पूरा कर दिया है . इस बात में दो राय नहीं है कि मौजूदा कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी  कांग्रेस की नेहरूवादी परम्परा को आगे बढ़ा रही हैं . निष्पक्ष और पारदर्शी राजनीतिक फैसलों की परम्परा कायम कर रही हैं . अभी दस साल तक बाकी आंध्र प्रदेश की राजधानी भी हैदराबाद में ही रहेगी . प्रस्ताव में लिखा है कि आंध्र प्रदेश को अपनी नई राजधानी बनाने के काम में केन्द्र से सहायता मिलेगी.. कानून व्यवस्था की हालत बिगड न जाए इसकी जिम्मेदारी भी फिलहाल केन्द्र सरकार की होगी . इस फैसले से कांग्रेस ने हैदराबाद की स्थिति के बारे में भी स्थायी हल तलाश लिया है .  हैदराबाद से राजधानी  हटाने के लिए आंध्र प्रदेश को जो रकम मिलेगी ,उससे एक बहुत ही आधुनिक राजधानी का विकास संभव है . पोलावरम सिंचाई परियोजना को केंद्रीय प्रोजेक्ट बनाकर कांग्रेस ने दूरदर्शिता  का परिचय दिया है .अभी प्रस्ताव में दस जिलों वाले तेलंगाना की बात की गयी है . ज़ाहिर है कि कुरनूल और अनंत पुर जिलों के बारे में अभी संसद या सरकारी विचार विमर्श में विधिवत चर्चा की जायेगी .
 तेलंगाना के गठन के कांग्रेस और यू पी ए के राजनीतिक फैसले के बाद टी वी चैनलों ने गोरखालैंड, बोडोलैंड, हरित प्रदेश, बुंदेलखंड आदि राज्यों के गठन की मांग को सूचना के विमर्श का मुख्य विषय बना दिया है . इस से बीजेपी के नेता बहुत नाराज़ हैं . उनका आरोप है कि जिन न्यूज़ चैनलों पर लगातार मोदीपुराण चलता रहता है , वहाँ तेलंगाना और अन्य छोटे राज्यों की चर्चा को लाकर न्यूज़ चैनल और कांग्रेस ने बीजेपी का बहुत नुक्सान किया है . टी वी चैनलों की कृपा से चर्चा में बने रहने की बीजेपी की रणनीति को इस नए राजनीतिक विकासक्रम से भारी घाटा हुआ है .इस तरह से साफ़ समझ में आ रहा है कि कांग्रेस ने यह फैसला लेकर बीजेपी को रक्षात्मक खेल के लिए मजबूर कर दिया है . जानकार बताते हैं कि इस फैसले को एक निश्चित दिशा देने के लिए कांग्रेस के आंध्र प्रदेश प्रभारी दिग्विजय सिंह ज़िम्मेदार हैं . आमतौर पर बीजेपी की राजनीति की हवा निकालने के लिए विख्यात दिग्विजय सिंह ने इस बार राजनीतिक शतरंज की बिसात पर ऐसी चल चली है कि बीजेपी को बिना शह का मौक़ा दिए मात की तरफ बढ़ना पड़ सकता है .

Friday, May 24, 2013

दिग्विजय सिंह के नाम से कुछ लोगों को गुस्सा क्यों आता है .?



शेष नारायण सिंह

 कर्नाटक में बीजेपी की हार के बाद उस हार के कारणों का विश्लेषण अब एक
कुटीर उद्योग का रूप ले चुका है . एक नए विश्लेषक भी मैदान में हैं .
शिवसेना के सांसद संजय राउत ने हार के कारणों में हिंदुत्व से दूरी को
बताया है .अपनी पार्टी के अखबार सामना के सम्पादकीय में उन्होंने लिखा है
कि अगर बीजेपी ने हिंदुत्व को फोकस में रखा होता तो कर्नाटक में इतनी
बड़ी हार न होती. संजय राउत ने मोदी को भी हिंदुत्व से अलग होने पर खरी
खोटी सुनायी है और कहते हैं अगर मोदी ने हिंदुत्व का सम्मान नहीं किया तो
उनमें और दिग्विजय सिंह कोई फर्क नहीं रहेगा . बीजेपी के नेता भी
दिग्विजय सिंह का नाम आते ही इस तरह से बिफर पड़ते हों जैसे उन्हें लाल
अंगोछा दिखा दिया गया हो .किसी भी विषय पर दिग्विजय सिंह की राय को
बीजेपी वाले खारिज करने में एक मिनट नहीं लगाते . मीडिया में भी एक बड़ा
वर्ग ऐसे पत्रकारों का है जो दिग्विजय सिंह को बहुत ही अछूत टाइप मानते
हैं .  अन्ना हजारे, रामदेव और अरविन्द केजरीवाल के समर्थकों  में ऐसे
लोगों की बड़ी संख्या है जो दिग्विजय सिंह का नाम आते ही गुस्से में आ
जाते हैं और कुछ तो यह  कहते सुने गए हैं वे दिग्विजय सिंह की बातों को
गंभीरता से नहीं लेते . कांग्रेस में बड़े नेताओं का एक ताक़तवर वर्ग
दिग्विजय सिंह के किसी बयान के बाद उस बयान से अपनी दूरी बनाने के लिए
व्याकुल हो जाता है . सोशल मीडिया में भी दिग्विजय सिंह को गाली देने
वालो का एक बहुत बड़ा वर्ग है . जानकार बताते हैं वह वर्ग भी हिंदुत्ववादी
ताक़तों ने ही बनाया है .कुल मिलाकर ऐसा माहौल बन गया है कि हिंदुत्ववादी
साम्प्रदायिक पार्टियों में किसी को दिग्विजय कह देना बहुत अपमान जनक
माना जा रहा है .

सवाल यह उठता  है कि दिग्विजय सिंह के खिलाफ इस तरह का माहौल क्यों है ?
इस सवाल का जवाब उनसे ही लेने की कोशिश की गयी लेकिन उन्होंने कोई जवाब
देने से साफ़ मना कर दिया और कहा कि उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं कही है
जिसके कारण उनके खिलाफ इस तरह का माहौल बनाया जाए . वे अपनी पार्टी की
बात करते हैं उसके सिद्धांतों की बात करते हैं और पार्टी में उनका कोई
विरोध नहीं है . उनकी पार्टी के बुनियादी सिद्धांतों में सभी धर्मों
संप्रदायों और जातियों को साथ लेकर चलने की बात कही गयी है इसलिए अगर कोई
भी व्यक्ति किसी भी भारतीय को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने की कोशिश
करेगा तो उसका विरोध किया जाएगा और उसकी राजनीतिक सोच को बेनकाब किया
जाएगा .

 मीडिया के बड़े वर्ग और दक्षिणपंथी पार्टियों के  तीखे रुख के बावजूद
दिग्विजय सिंह की पार्टी में उनकी ताक़त किसी से कम नहीं .पार्टी के
अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का उन्हें पूरा संरक्षण मिला हुआ है .इसलिए यह बात
साफ़ है कि बीजेपी , शिवसेना और उनके मुरीद चाहे जो कहें कांग्रेस पार्टी
दिग्विजय सिंह को एक महत्वपूर्ण नेता मानती है और उनकी बातों का सम्मान
किया जाता है . ज़ाहिर है कांग्रेस को उनके बयानों और राजनीति से कोई
नुक्सान नहीं हो रहा है और पार्टी उनकी राजनीतिक सोच को आगे बढाने को
तैयार है . दिग्विजय सिंह के विरोधी भी मानते हैं  कि वे धर्मनिरपेक्षता
की राजनीति को आगे बढाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं . और जब उस
राजनीति से पार्टी का कोई नुक्सान नहीं हो रहा हो तो उनकी पार्टी को क्या
एतराज़ हो सकता है . इस बारीकी को समझने के लिए कांग्रेस के समकालीन
इतिहास पर नज़र डालनी पड़ेगी. महात्मा गांधी, सरदार पटेल , मौलाना आज़ाद और
जवाहरलाल नेहरू आज़ादी के पहले और उसके बाद के  सबसे बड़े नेता थे .
उन्होंने आज़ादी के पहले और बाद में बता दिया था कि धर्मनिरपेक्षता इस
राष्ट्र की स्थापना और संचालन का बुनियादी आधार रहेगा . देखा गया है कि
जवाहरलाल नेहरू के जाने के  बाद कांग्रेस ने जब भी धर्मनिरपेक्षता की
राजनीति को  कमज़ोर किया उसे चुनाव में हार का सामना करना पड़ा .

सबसे पहले इमरजेंसी के दौरान कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता की राह को छोड़ने
की कोशिश की . विपक्ष के सभी बड़े नेता जेलों में बंद थे और ऐसा लगता था
कि बाहर  निकलना असंभव था . आर एस एस वाले भी बंद थे . उस वक़्त के आर एस
एस के मुखिया बालासाहेब  देवरस ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को
कई पत्र लिखे और कांग्रेस के साथ मिलकर काम करने का भरोसा दिया . १०
नवंबर 1975 को येरवदा जेल से लिखे एक पत्र में बालासाहेब देवरस ने इंदिरा
गांधी को बधाई दी थी कि सर्वोच्च न्यायालय की पाँच सदस्यीय बेंच ने उनके
रायबरेली वाले चुनाव को वैध ठहराया है.  इसके पहले 22 अगस्त 1975 को लिखे
एक अन्य पत्र में आर एस एस प्रमुख ने लिखा कि ''मैंने आपके 15 अगस्त के
भाषण को काफी ध्यान से सुना। आपका भाषण आजकल के हालात के उपयुक्त था और
संतुलित था।'' इसी पत्र में उन्होने इंदिरा गांधी को भरोसा दिलाया था कि
संघ के कार्यकर्ता पूरे देश में फैले हुए हैं जो निस्वार्थ रूप से काम
करते हैं। वह आपके कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में तन-मन से सहयोग करेगें
. इस सब के बावजूद भी इंदिरा गांधी के रुख में तो कोई बदलाव नहीं हुआ
लेकिन उनके बेटे संजय गांधी ने मुसलमानों के विरोध का रवैया अपनाया .
अपने खास अफसरों को लगाकर मुसलमानों के खिलाफ हिंसक कार्रवाई की और कोशिश
की कि देश के बहुसंख्यक हिंदू  उनको मुस्लिमविरोधी के रूप में स्वीकार कर
लें . यह वह कालखंड है जब कांग्रेस ने पहली बार साफ्ट हिंदुत्व को अपनी
राजनीति का आधार बनाने की कोशिश की थी. कांग्रेस की १९७७ की हार में अन्य
कारणों के अलावा इस बात का महत्त्व सबसे ज्यादा था .हार के बाद  इंदिरा
गांधी ने फिर धर्मनिरपेक्षता की बात शुरू कर दी और उनको हराने वाली जनता
पार्टी में  फूट डाल दी . उन्होंने देश को बताना शुरू कर दिया कि जनता
पार्टी वास्तव में आर एस एस की पार्टी है उसमें समाजवादी तो बहुत कम
संख्या में हैं . जनता पार्टी के बड़े नेता और समाजवादी विचारक मधु लिमये
ने भी साफ़ ऐलान कर दिया कि आर एस एस वास्तव में एक राजनीतिक पार्टी है और
उसके सदस्य जनता पार्टी के सदस्य नहीं रह सकते . कई महीने चली बहस के बाद
जनता पार्टी टूट गयी और १९८० में कांग्रेस पार्टी दुबारा सत्ता में आ गयी
.

दोहरी सदस्यता के बारे में लाल कृष्ण आडवानी ने अपने ब्लॉग में लिखा है
कि ” मुख्य रूप से 'दोहरी सदस्यता' का विचार मधु लिमये की मानसिक उपज था,
जिसका लक्ष्य था जनता पार्टी के उन सदस्यों को कमजोर करना, जो पहले जनसंघ
का हिस्सा थे और लगातार संघ से जुड़े हुए थे। जब जनता पार्टी को बने एक
वर्ष भी नहीं हुआ था तब लिमये, जो पार्टी के महासचिव थे, ने इस बात पर
जोर दिया कि जनता पार्टी का कोई भी सदस्य साथ-ही-साथ संघ का भी सदस्य
नहीं हो सकता” उन्होंने कांग्रेस की जीत का भी अपने तरीके से ज़िक्र किया
है .लिखते हैं कि “ वर्ष 1980 के संसदीय चुनावों में जनता पार्टी की हार
का अनुमान मुझे पहले से ही था। यह हार अत्यंत गंभीर थी। इसने दर्शाया कि
मतदाता 1977 के जनादेश के साथ विश्वासघात करने के लिए पार्टी को दंड देना
चाहते थे। 1977 में 298 सीटों की तुलना में पार्टी को मात्र 31 सीटें
प्राप्त हुईं। इसमें जनसंघ की सीटें 1977 में 93 की तुलना में मात्र 16
थीं। दूसरी ओर इंदिरा गांधी के नेतृत्ववाली कांग्रेस (आई) शानदार तरीके
से वापस लौटी और 1977 के 153 सांसदों की तुलना में 1980 में उसके 351
सांसद विजयी रहे, जो कि 542 सदस्यीय सदन में लगभग दो-तिहाई बहुमत था।“

दूसरी बार कांग्रेस ने साफ्ट हिंदुत्व की राजनीति को अपनाने का कार्य
बाबरी मसजिद के लिए चलाये गए आर एस एस के आंदोलन के दौरान किया जब राजीव
गांधी मंत्रिमंडल में गृहमंत्री , सरदार बूटा सिंह  ने जाकर अयोध्या में
बाबरी मसजिद के पास एक मंदिर का शिलान्यास करवा दिया . काँग्रेस पार्टी
उसके बाद हुए १९८९ के चुनावों में हार गयी . १९९१ में पी वी नरसिम्हाराव
ने जुगाड करके एक सरकार बनायी .कांग्रेस की इसी सरकार के काल में बाबरी
मसजिद का विध्वंस हुआ और उसके बाद हुए चुनावों में कांग्रेस फिर हार गयी.
उसके बाद कांग्रेस पार्टी इतिहास का विषय बनने की तरफ बढ़ रही थी लेकिन
१९९७ के कोलकता कांग्रेस में सोनिया गांधी ने पार्टी की सदस्यता ली और
१९९८ में कांग्रेस अध्यक्ष बनीं. उस वक़्त कांग्रेस की हालत बहुत खराब थी
. लेकिन सोनिया गांधी ने ऐलान किया कि उनकी पार्टी धर्मनिरपेक्षता की राह
से भटक गयी थी अब वे हमेशा उसी धर्मनिरपेक्षता की राह पर चलती रहेगीं
.सिद्धांतों को फिर से संभाल लेने का ही नतीजा है कि कांग्रेस ने अपनी
पुरानी हैसियत को पाने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया और २००४ में
केन्द्र सरकार पर कांग्रेस का दुबारा कब्ज़ा हो गया . मुख्य विपक्षी दल तब
से लगातार सिमट रहा है .बीजेपी की सरकारें कई राज्यों में बन गयी थीं जो
अब धीरे धीरे विदा हो रही हैं . राजनीतिक जानकार बताते हैं कि इसका कारण
कांग्रेस की धर्मनिरपेक्ष नीतियां हैं .



दिग्विजय सिंह कांग्रेस की इसी आक्रामक धर्मनिरपेक्षता को आगे बढ़ा रहे
हैं .ज़ाहिर है धर्मनिरपेक्ष राजनीति से बीजेपी को चुनावी नुक्सान हो रहा
है और उसके नेता जब भी मौक़ा मिलता है ,दिग्विजय सिंह के खिलाफ अभियान
चलाने का अवसर नहीं चूकते . बीजेपी के समर्थक भी दिग्विजय सिंह को बहुत
ही घटिया इंसान के रूप में पेश करने में संकोच नहीं करते .रामदेव जैसे
लोगों के अलावा मीडिया में मौजूद बीजेपी के सहयोगी भी दिग्विजय सिंह के
हर बयान  को अपनी सुविधानुसार  पेश करते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि आज
दिग्विजय सिंह साम्प्रदायिक ताक़तों को चुनौती देने की राजनीति के विशेषण
बन चुके हैं और उनकी पार्टी में उनको पूरा सम्मान मिल रहा है ..

Monday, April 1, 2013

उत्तर प्रदेश में चुनाव कांग्रेस और बीजेपी के बीच होने की संभावना बढ़ी



शेष नारायण सिंह

मुंबई,३१ मार्च. बीजेपी की टीम २०१४ की घोषणा के बाद अब साफ़ हो गया है कि बीजेपी अब चुनावी  मैदान में  हिंदुत्व के नाम पर उतरने वाली है .यह भी तय हो गया है कि बीजेपी का चुनाव प्रचार नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की थीम पर ही केंद्रित रहेगा. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद के राग से मिलाकर धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण की कोशिश की जायेगी. बीजेपी में अटल बिहारी वाजपेयी ,सुषमा स्वराज और अरुण जेटली के नाम ऐसे हैं जिनको लिबरल डेमोक्रेटिक के रूप में पेश किया जाता है लेकिन  नरेंद्र मोदी, लाल कृष्ण आडवाणी ,उमा भारती आदि ऐसे नाम हैं जिनका ज़िक्र आते ही, बाबरी मसजिद के विध्वंस की तस्वीरे  सामने आ जाती हैं . राज नाथ सिंह की नई टीम में पीलीभीत के एम पी वरुण गांधी को  भी बहुत बड़ी पोस्ट दे दी गयी है . उत्तर प्रदेश में बीजेपी के बड़े नेता और बाबरी मसजिद के विध्वंस के आन्दोलन के समय बजरंग दल के अध्यक्ष रहे विनय कटियार ने उनकी तैनाती पर टिप्पणी की है और कहा है कि वरुण गांधी  को उनके नाम के साथ गांधी जुड़े होने का फायदा मिला है .लेकिन सच्चाई यह है कि वरुण गांधी ने खासी मेहनत करके मुसलमानों के घोर शत्रु के रूप में अपनी पहचान बना ली है और उत्तर प्रदेश में हर इलाके में वे नौजवान जो मुसलमानों  के खिलाफ हैं वे वरुण गांधी को हीरो मानते हैं . जो भी हो अब बीजेपी के पत्ते खुल चुके हैं और इसका सीधा मतलब है कि इस बार आर एस एस की पार्टी हिंदुओं की एकता की राग के  साथ चुनावी मैदान में जाने का मन बना चुकी है .
बीजेपी की नई टीम और उसमें नरेंद्र मोदी के लोगों को मिली प्राथमिकता के अलग अलग सन्देश हर राज्य में जायेगें. बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के राज्य, उत्तर प्रदेश में यह टीम धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति को एक निश्चित दिशा  देगी. बीजेपी को उसका लाभ  मिलेगा. पिछले एक साल में उत्तर प्रदेश में जिस तरह का राज कायम है उसके बाद समाजवादी पार्टी के पक्ष में उतने लोग नहीं हैं जितने मार्च २०१२ में थे. समाजवादी पार्टी की जब सरकार बनी थी तो पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने बताया था कि २०१२ के विधान सभा चुनाव के अपने घोषणापत्र की प्रमुख बातें लागू करके वे लोकसभा  चुनाव में जाना चाहेगें जिससे अपनी पार्टी की मजबूती और अच्छे काम के बल पर जनता के बीच जाएँ तो अच्छी सीटें मिल जायेगीं  उनकी कोशिश थी कि उतनी सीटें फिर से हासिल की जाएँ जितनी २००४ में मिली थीं . २००४ में समाजवादी पार्टी को उत्तर प्रदेश में करीब ४० सीटें मिली थीं.
लेकिन पार्टी की हालत अब ऐसी है कि अगर आज चुनाव हो जाएँ तो समाजवादी पार्टी को उतनी सीटें भी नहीं मिलेगीं जितनी उसके पास अभी हैं .पूरे राज्य में कानून व्यवस्था की हालत बहुत खराब है, बिजली पानी की भारी किल्लत है . कुछ खास जातियों के लोगों का आतंक है और कुल मिलाकर ऐसी हालत है कि अगर आज चुनाव हो जाएँ तो उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सीटें बहुत कम हो जायेगीं . कांग्रेस नेता और केन्द्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा का दावा है कि केवल चार सीटें रह जायेगीं . उनकी इस बात पर विश्वास करने का कोई आधार तो  नहीं है लेकिन यह तय है कि स्थिति  कमज़ोर होगी  और अगर नरेंद्र मोदी , वरुण गांधी, उमा भारती जैसे लोग  जिनको मुसलमान अपना शत्रु मानते हैं वे बीजेपी के अगले दस्ते में नज़र आये तो समाजवादी पार्टी का प्रमुख वोट बैंक किसी ऐसी पार्टी को वोट देगा जो केन्द्र में नरेंद्र मोदी की सरकार को रोकने की क्षमता रखता हो . इस कसौटी पर केवल कांग्रेस  ही खरी पायी जायेगी. मायावती की पार्टी की हैसियत केन्द्र में किसी सरकार की मदद करने भर की है और सबको मालूम है कि वे ज़रूरत पड़ने पर  बीजेपी की मदद भी कर सकती हैं . १९९४ से लेकर २००७ तक वे जब भी उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं , हमेशा बीजेपी की मदद से ही बनीं. २००२ के  गुजरात के नरसंहार के बाद हुए चुनावों में वे नरेंद्र मोदी का प्रचार करने अहमदाबाद भी जा चुकी हैं . ऐसी हालत में बीजेपी को रोकने के लिए आर एस एस  विरोधी शक्तियां मायावती के पास नहीं जायेगीं . मुलायम सिंह यादव भी पिछले दिनों लाल कृष्ण आडवानी  की तारीफ़ करके मुसलमानों की नाराज़गी का शिकार बन चुके हैं .उनकी पार्टी ने साफ़ संकेत दे दिया है कि वह अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार को यू पी ए से अच्छी मानती है . लोकसभा के अंदर राजनाथ सिंह ऐलान कर चुके हैं कि अगली बार मुलायम सिंह यादव उनके साथ रहेगें . ऐसी स्थति में सेकुलर और मुस्लिम  वोट मुलायम सिंह यादव के पास नहीं जाने वाला है . और जो ढुलमुल मुस्लिम विरोधी मतदाता है वह तो हर हाल में  बीजेपी के साथ जाएगा.ऐसी हालत में बीजेपी की साम्प्रदायिक राजनीति को रोकने के लिए सेकुलर और मुस्लिम वोट कांग्रेस के पास जा सकता है . यही हालत २००९ के चुनाव में भी हुई थी जब बीजेपी ने ऐसा माहौल बना दिया था कि उसकी सरकार बनने वाली है और मुसलमानों ने मुलायम सिंह यादव के प्रति सहानुभूति रखते हुए भी कांग्रेस को जिता दिया था . वरना जो पार्टी उत्तर प्रदेश की विधान सभा में २५ सीट के आसपास ही जीतने की क्षमता रखती है , उसको २१ सीट लोकसभा में जीत पाना एक राजनीतिक अजूबा ही माना जाएगा . यह इसीलिये हुआ कि बीजेपी के खिलाफ जो ताक़तें थी उनकी बड़ी संख्या कांग्रेस की तरफ चली गयी .  मायावती और मुलायम सिंह के साथ भी लोग रहे जिसके कारण  तीनों ही पार्टियों को लगभग बराबर  सीटें मिलीं . इस बार तस्वीर बदल सकती है  क्योंकि मुलायम सिंह यादव ने भी बीजेपी की तरफ दोस्ती के संकेत दे दिए हैं और जब मोदी के पक्ष धार्मिक ध्रुवीकरण होगा तो वोट उसी को मिलेगें जो दिल्ली में बीजेपी को सत्ता पर कब्जा करने से रोक सके. इसलिए उत्तर प्रदेश में तो यही लग रहा है कि लोकसभा चुनाव  बीजेपी और कांग्रेस के बीच होने की बुनियाद पड़ चुकी है 

Monday, March 25, 2013

बीजेपी और समाजवादी पार्टी में दूरियां घट रही हैं .




शेष नारायण सिंह
मुंबई, २४ मार्च .सत्ता की राजनीति में बड़े पैमाने पर मंथन चल रहा है .बीजेपी के नेता और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी  राष्ट्रीय राजनीति में धमाकेदार इंट्री ली हैं .आम तौर पर माना जा रहा है की बीजेपी वाले उनको ही आगे  करके कांग्रेस के खिलाफ मोर्चेबंदी करेंगे .हिंदुत्व का  राजनीतिक इस्तेमाल उत्तर  प्रदेश में ही शुरू हुआ था. बाद में नरेंद्र मोदी ने उसका गुजरात में सफलता पूर्वक इस्तेमाल किया . मुसलमानों का खौफ पैदा करके वहाँ के हिंदुओं को एक किया और लगातार चुनाव जीतने  का  रिकार्ड बनाया .आज पूरे देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के उसी माडल को लागू करने की कोशिश की जा रही है . बीजेपी के नेता अभी तो न नुकुर कर रहे हैं लेकिन ईमान है कि आने वाले वक़्त में मोदी की ताक़त भारी पड़ेगी और  धार्मिक ध्रुवीकरण को राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की राजनीति आर एस एस की मंजूरी के साथ लोकसभा २०१४ में इस्तेमाल की जायेगी. 
हिंदुत्व  को राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करने की बीजेपी की कोशिश में उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी अड़चन मुलायम सिंह यादव की पार्टी रही है.अगर कहा जाए कि  लाल कृष्ण आडवानी के हिंदुत्व के अभियान को मुलायम सिंह यादव ने रोक दिया था तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. हिंदुत्व के राजनीतिक इस्तेमाल की उनकी मंशा के खिलाफ मुलायाम सिंह यादव चट्टान की तरह खड़े हो गए थे . उसका उनको राजनीतिक लाभ भी मिला. पिछले बीस वर्षों में कई बार उत्तर प्रदेश में सरकार बनी और केन्द्र में भी रक्षा मंत्री तक की पोजीशन तक पंहुचे .उन्होंने हमेशा कहा है कि लाल कृष्ण आडवानी इतिहास की गलत व्याख्या करते  हैं .खास तौर पर अयोध्या की बाबरी मसजिद के बारे में तो लाल कृष्ण आडवानी की हर बात को मुलायम सिंह यादव ने गलत बताया है लेकिन लखनऊ की एक सभा में उन्होंने ऐलान किया  कि लाल कृष्ण आडवानी कभी झूठ नहीं बोलते . उस सभा में मुलायाम सिंह यादव के प्रशंसक  इकठ्ठा हुए थे लेकिन जब   मुलायम सिंह यादव 
ने आडवाणी की तारीफ़ के पुल बांधना शुरू किया तो उन लोगों को अपने कानों पर 

विश्वास ही नहीं हुआ .मुलायम सिंह यादव ने कहा कि लाल कृष्ण आडवाणी जैसे 


बड़े नेता ने उनसे कहा है कि वह चाहते हैं कि सूबे में सपा की सरकार चले लेकिन 

उप्र में भ्रष्टाचार बहुत ज्यादा है। बकौल मुलायम 'यदि आडवाणी ऐसा कह रहे हैं तो 

हमें निश्चित समीक्षा करनी चाहिए। आडवाणी कभी झूठ नहीं बोलते।'मुलायम सिंह 

यादव के इस बयान को राजनीतिक विश्लेषक भूलवश दिया गया बयान नहीं मानते. 

ऐसा लगता है कि  समाजवादी पार्टी में बीजेपी को लेकर गंभीर विचार मंथन चल 

रहा है .अभी कुछ दिन पहले पार्टी के दूसरे सबसे महत्वपूर्ण नेता राम गोपाल यादव 

ने बीजेपी के सबसे बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी की तारीफ़ की थी और कहा था 


कि अगर उनकी सरकार के ऊपर २००२ के गोधरा के बाद के नर संहार का दाग न 


लगा होता तो वे डॉ मनमोहन सिंह से बहुत अच्छे प्रधान मंत्री थे. उन्होंने कहा  था 

कि अटल जी और डॉ मनमोहन सिंह में कोई तुलना नहीं की जा सकती .

इसके अलावा भी समाजवादी पार्टी और बीजेपी के बीच बढ़ रही नजदीकियां और भी अवसरों पर देखी गयी हैं . राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान लोकसभा में सपा और भाजपा के बीच नए समीकरणों के संकेत दिखे। मुलायम सिंह यादव ने बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के सामने दोनों दलों के बीच दूरी  कम करने का एक  फार्मूला पेश किया .बीजेपी के देशभक्ति, सीमा और भाषाई मुद्दों से शत-प्रतिशत सहमति जताते हुए मुलायम सिंह ने कहा कि यदि मुसलिम और कश्मीर मुद्दे पर वे अपनी नीति बदल लें तो उनके-हमारे बीच की दूरी कम हो जाएगी। जवाब में राजनाथ ने दोनों दलों के बीच दूरियां होने की बात को नकारते हुए भविष्य में साथ आने के संकेत भी दे दिए. राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बुधवार को विपक्ष की तरफ से चर्चा की शुरुआत करते हुए राजनाथ ने किसानों, गरीबों की बात की तो वह मुलायम सिंह यादव बहुत प्रभावित हुए . मुलायम सिंह ने राजनाथ की ओर मुखातिब होकर कहा कि देशभक्ति, सीमा मामलों और भाषा पर हमारी व बीजेपी की नीति एक ही है बीच की दूरी कम हो जाएगी .उनकी इस बात पर बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने उठकर हमारे और आपके बीच में दूरी कहां है? अगली बार निश्चित तौर पर आप हमारे साथ होंगे। मुलायम ने भी जोर देकर दोबारा कहा, मैं फिर कह रहा हूं और इस सदन में कह रहा हूं कि भाजपा अपनी नीति बदल रही है।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में सत्ता की इस करवट का मतलब समझ में आना शुरू तो हो गया है लेकिन आने वाले दिनों में इसके संकेत और साफ़ हो जायेगें .और अगर यह तय हो गया कि समाजवादी पार्टी और बीजेपी के बीच दोस्ती बढ़ रही है तो उत्तर प्रदेश में राजनीति का खेल बिलकुल बदल जाएगा 

Saturday, November 10, 2012

कोई कुछ भी कहे लेकिन गडकरी की कश्ती भंवर में तो है ही



शेष नारायण सिंह  


शासक वर्ग की दोनों ही बड़ी पार्टियों में उथल पुथल है . कांग्रेस के कई नेताओं के ऊपर भ्रष्टाचार  के संगीन आरोप हैं तो सत्ताधारी पार्टी के भ्रष्टाचार पर नज़र रखने के लिए जनता की तरफ से तैनात विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी भी भ्रष्टाचार की लपटों से बच नहीं पा रही है . माहौल ऐसा है कि भ्रष्टाचार की पिच पर दोनों ही पार्टियों  की दमदार मौजूदगी है . ज़ाहिर है कांग्रेस या बीजेपी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर एक दुसरे के ऊपर उंगली उठाने की स्थिति में नहीं हैं .  यह देश का दुर्भाग्य है कि राजनीतिक जीवन में सक्रिय ज्यादातर बड़ी पार्टियों के नेता राजाओं की तरह का जीवन बिताने को आदर्श मानते हैं .जिसे हासिल करने के लिए ऐसे ज़रिये से धन कमाने के चक्कर में रहते हैं जिसकी गिनती कभी भी ईमानदारी की श्रेणी में नहीं की जा सकती. ताज़ा मामला बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी का है . उनके ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं . लेकिन उनके साथी यह कहते पाए जा रहे हैं कि उन्होंने कानूनी या नैतिक तौर पर कोई गलती नहीं की है . लेकिन उनकी पार्टी के अंदर से ही उनके खिलाफ माहौल बनना  शुरू हो गया है. सच्चाई यह है कि पिछले सात  वर्षों से बीजेपी ने कांग्रेस को भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही घेरने की  रणनीति पर काम किया है ,विकास या अच्छी सरकार का मुद्दा उनकी नज़र में नहीं  आया. जब भ्रष्टाचार के चक्कर में लोकायुक्त  ने  कर्नाटक के मुख्यमंत्री पर आरोप लगाया तो बीजेपी ने दक्षिण भारत में अपनी पार्टी को कमज़ोर करने का खतरा लेकर भी मुख्यमंत्री येदुरप्पा को पद से हटाया. लेकिन गडकरी के ऊपर जो आरोप लगे हैं उनको  झेल पाना बीजेपी के बस की बात नहीं है. एक टी वी चैनल ने सारा मामला उठाया . बाद में भ्रष्टाचार के खिलाफ काम कर रहे लोगों की एक जमात के नेता ने भी बहुत ही समारोहपूर्वक नितिन गडकरी की भ्रष्टाचार कथा को सार्वजनिक किया . इस नेता की खासियत यह  है कि जिस मुद्दे को भी यह उठाता  है ,मीडिया उसे चटनी की तरह लपक लेता है .शायद इसी वजह से आज बीजेपी अध्यक्ष के भ्रष्टाचार  के कथित कारनामे सारे देश में चर्चा का विषय हैं .  बीजेपी के सामने भी चुनौती है कि अपने मौजूदा अध्यक्ष को कैसे बचाए .  माहौल ऐसा है  कि अगर नितिन गडकरी  हटाये जाते हैं तो भ्रष्टाचार के कहानियों के सारे ताने बाने बीजेपी के इर्द गिर्द ही बन जायेगें . लेकिन न हटाने की सूरत में भी वही हाल रहेगा. राजनीतिक माहौल ऐसा है कि आजकल जब भी भ्रष्टाचार शब्द के कहीं इस्तेमाल होता है, तो  नितिन गडकरी की तस्वीर सामने आ जाती है . 

हालात को काबू में रखने के लिए बीजेपी के नेता तरह तरह की कोशिश कर रहे हैं . बीजेपी का नियंत्रक संगठन आर एस एस है. आर एस एस की पूरी कोशिश है कि नितिन गडकरी को डंप न किया जाए. शायद इसी मंशा से उन्होंने अपने खास सदस्य  और चार्टर्ड अकाउन्टेंट ,एस गुरुमूर्ती को पेश किया और उन्होंने बीजेपी के कोर ग्रुप को बता दिया कि नितिन गडकरी बिलकुल निर्दोष हैं . यह अलग बात  है कि सार्वजनिक रूप से उनकी बात को स्वीकार कर लेने के बाद भी बीजेपी के नेता गडकरी को दोषमुक्त नहीं मान पा रहे हैं.आर एस एस की पोजीशन गडकरी ने बहुत ही मुश्किल कर दी है .आर्थिक भ्रष्टाचार के मामलों से वे जूझ ही रहे थे कि  उन्होंने स्वामी विवेकानंद की अक्ल की तुलना दाऊद इब्राहीम की अक्ल से करके भारी मुश्किल पैदा कर दी . आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप तो आर एस एस बर्दाश्त भी कर लेता लेकिन जिन स्वामी विवेकानंद जी के व्यक्तित्व के आसपास,  आर एस एस ने अपना संगठन खड़ा किया  हो उनकी तुलना दाऊद इब्राहीम जैसे आदमी से कर देना  आर एस एस के लिए बहुत मुश्किल है .हालांकि पूरे भारत में कोई भी दाऊद इब्राहीम को सही नहीं  ठहरा पायेगा लेकिन आर एस एस के लिए किसी ऐसे आदमी को महिमामंडित करना असंभव है जो मुसलमान हो, पाकिस्तान का दोस्त हो और मुंबई में शिवसेना के खिलाफ बहुत सारे अभियान चला चुका हो . गडकरी ने भ्रष्टाचार के कथित काम करके बीजेपी की वह अथारिटी तो छीन ही ली कि वह भ्रष्टाचार के मुद्दे को चुनावी मुद्दा बना सके, उन्होंने देश के नौजवानों के संघप्रेमी वर्ग को भावनात्मक स्तर पर भी  तकलीफ पंहुचाई . बीजेपी और आर एस एस के लिए विवेकानंद का अपमान करने वाले को बर्दाश्त कर पाना बहुत मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है .बीजेपी की परेशानी को समझने के  लिए आज़ादी  की लड़ाई के इतिहास पर एक नज़र डालनी होगी. भारत की आज़ादी की लड़ाई  की पहली कोशिश १८५७ में हुई थी . कहीं कोई  संगठन नहीं था  लिहाजा वह  संघर्ष बेकार साबित हो गया. लेकिन जब १९२० में महात्मा गांधी के नेतृत्व में आज़ादी की कोशिश शुरू हुई तो पूरा देश उनके साथ हो गया .लेकिन महात्मा गांधी के साथ कोई भी ऐसा आदमी नहीं था जिसका आर एस एस से किसी तरह का सम्बन्ध रहा हो. आर एस एस वाले बताते हैं कि इनके संस्थापक डॉ हेडगेवार ने आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया था . अगर उनकी बात को मान भी लिया जाए तो यह पक्का है कि आर एस एस वालों के पास महान पूर्वजों की किल्लत है .

सत्ता में आने के बाद बीजेपी ने वी.डी. सावरकर को आजादी की लड़ाई का हीरो बनाने की कोशिश की थी .बीजेपी ने सावरकर की तस्वीर संसद के सेंट्रल हाल में लगाने में सफलता भी हासिल कर ली लेकिन बात बनी नहीं क्योंकि 1910 तक के सावरकर और ब्रिटिश साम्राज्य से मांगी गई माफी के बाद आजाद हुए सावरकर में बहुत फर्क है और पब्लिक तो सब जानती है। सावरकर को राष्ट्रीय हीरो बनाने की बीजेपी की कोशिश मुंह के बल गिरी। इस अभियान का नुकसान बीजेपी को बहुत ज्यादा हुआ क्योंकि जो लोग नहीं भी जानते थे, उन्हें पता लग गया कि वी.डी. सावरकर ने अंग्रेजों से माफी मांगी थी और ब्रिटिश साम्राज्य की सेवा करने की शपथ ली थी। 1980 में अटल बिहारी वाजपेयी ने गांधी को अपनाने की कोशिश शुरू की थी लेकिन गांधी के हत्यारों और संघ परिवार के कुछ सदस्यों संबंधों को लेकर मुश्किल सवाल पूछे जाने लगे तो परेशानी पैदा हो गयी और वह प्रोजेक्ट भी ड्राप हो  गया .

1940 में संघ के मुखिया बनने के बाद एम एस गोलवलकर भी सक्रिय रहे लेकिन जेल नहीं गए। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौर में जब पूरा देश गांधी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई में शामिल था तो आर.एस.एस. के गोलवलकर को कोई तकलीफ हुई,वे आराम से अपना काम करते रहे . ज़ाहिर है उनको भी आज़ादी की लड़ाई  का हीरो नहीं साबित किया जा सकता .कुछ वर्ष पहले सरदार पटेल को अपनाने की कोशिश शुरू की गई। लालकृष्ण आडवाणी लौहपुरुष वाली भूमिका में आए और हर वह काम करने की कोशिश करने लगे जो सरदार पटेल किया करते थे। लेकिन बात बनी नहीं क्योंकि सरदार की महानता के सामने लालकृष्ण आडवाणी टिक न सके। बाद में जब उन्होंने पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिनाह को महान बता दिया तो सब कुछ हवा हो गया. जिनाह को सरदार पटेल ने कभी भी सही आदमी नहीं माना था . ज़ाहिर है जिनाह का कोई भी प्रशंसक  सरदार पटेल का अनुयायी नहीं हो सकता . वैसे सरदार पटेल को अपनाने की आर.एस.एस. की हिम्मत की दाद देनी पडे़गी क्योंकि आर.एस.एस. को अपमानित करने वालों की अगर कोई लिस्ट बने तो उसमें सरदार पटेल का नाम सबसे ऊपर आएगा। सरदार पटेल ने ही महात्मा गांधी की हत्या वाले केस में आर.एस.एस. पर पाबंदी लगाई थी और उसके मुखिया एम एस गोलवलकर को गिरफ्तार करवाया था। बाद में मुक़दमा चलने के बाद जब हत्या में गोलवलकर का रोल साबित नहीं हो सका तो उन्हें रिहा हो जाना चाहिए था लेकिन सरदार पटेल ने कहा कि तब तक नहीं छोड़ेंगे जब तक वह अंडरटेकिंग न दें। बहरहाल अंडरटेकंग लेकर आर एस के प्रमुख एम एस गोलवलकर को छोड़ा। साथ ही एक और आदेश दिया कि आर एस एस वाले किसी तरह ही राजनीति में शामिल नहीं हो सकेंगे। जब राजनीतिक रूप से सक्रिय होने की बात हुई तो सरदार पटेल की मृत्यु के बाद भारतीय जनसंघ की स्थापना की गयी और उसके बाद चुनावी राजनीति करने के  रास्ते खुले . इसी भारतीय जनसंघ की उत्तराधिकारी पार्टी आज की बीजेपी है .

ज़ाहिर है कि बीजेपी और आर एस एस में ऐसे महान लोगों  की कमी है जो समकालीन इतिहास के हीरो हों और उन पर गर्व किया जा  सके. ऐसी  हालत में बीजेपी ने १९२० के पहले के कुछ महान लोगों को अपना बनाने का अभियान चला रखा है. ऐसे महान लोगों में स्वामी विवेकानंद का नाम सबसे ऊपर  है . यह अलग बात है कि स्वामी विवेकानंद के ऊपर बाकी देश का भी बराबर का अधिकार है. ऐसी हालत  अगर बीजेपी या आर एस एस का कोई  नेता स्वामी विवेकानंद की शान में गुस्ताखी करता है तो उसका समर्थन कर पाना  बहुत मुश्किल होगा . आज नितिन गडकरी की  नाव भंवर में है और उनके लिए बीजेपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बने रह पाना बहुत मुश्किल है . गडकरी  के समर्थन में कोई नहीं है लेकिन आर एस एस के  सामने बहुत मुश्किल है . नागपुर वाले कभी नहीं चाहते कि  नरेंद्र मोदी या उनका कोई करीबी दोस्त पार्टी का अध्यक्ष बने . बताया तो यह भी जा रहा है कि नितिन गडकरी के भ्रष्टाचार के कारनामे के दस्तावेज़ भी उनके विरोधी खेमे के किसी बड़े  नेता ने मीडिया को दिया है . नरेंद्र मोदी को रोक पाना अब नितिन गडकरी के बस की बात नहीं है लेकिन आर एस एस जब तक मोदी विरोधी किसी बड़े बीजेपी नेता की तलाश नहीं कर लेता तब तक नितिन गडकरी का अध्यक्ष बने  रहना मुश्किल हालात के बावजूद भी संभव लगता है .

Friday, November 2, 2012

मध्यप्रदेश के किसानों के खिलाफ कांग्रेस और बीजेपी एक साथ , डॉ सुनीलम को साजिशन सज़ा दी गयी




शेष नारायण सिंह 

नयी दिल्ली, 2 नवम्बर . किसान  संघर्ष समिति के अध्यक्ष और मध्य प्रदेश के पूर्व विधायक डॉ सुनीलम को मुलताई मामले में हुयी सज़ा का चारों तरफ विरोध हो रहा है . मानवाधिकार नेता , चितरंजन सिंह ने बताया की पटना में 11 नवम्बर को जुलूस निकाल कर विरोध किया जाएगा जबकि मुंबई और दिल्ली में नागरिक अधिकारों के कार्यकर्ता आंदोलित  हैं और अपने तरीकों से विरोध कर रहे हैं . आज  यहाँ सोशलिस्ट फ्रंट के बैनर  तले  एक प्रेस वार्ता का आयोजन करके डॉ सुनीलम और उनके साथ  दो किसानों को हुयी सज़ा को गलत बताया  गया। इस अवसर पर जस्टिस राजिंदर सच्चर, चितरंजन सिंह , पी यूं सी एल के नए महासचिव डॉ वी सुरेश , किसान नेता  विनोद सिंह आदि ने अपनी बात रखी। 

जस्टिस राजिंदर सच्चर ने  कहा की 12 जनवरी 1998  के दिन पुलिस फायरिंग में हुयी 24 किसानों  और एक पुलिस कर्मी की हत्या में डॉ सुनीलम को जो सजा हुयी है ,वह न्याय की कसौटी पर  सही नहीं है .उसमें बहुत  सारी गलतियाँ हैं . उन्होंने कहा  कि एक किसान  ने मरने के  पहले एक बयान दिया था।  मौत के समय दिए गए बयान को न्याय प्रक्रिया में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है लेकिन अजीब बात है की कोर्ट ने उसके बयान को साक्ष्य नहीं माना . उन्होंने कहा कि मुलताई केस को देखने से लगता है की बीजेपी और कांग्रेस में कोई विवाद नहीं है।खासकर जब गरीब आदमी के अधिकारों को छीन कर पूंजीपतियों को  खुश करना होता है . उन्होने कहा की जब मुलताई में गोली चली थी तो कांग्रेस नेता ,दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री थे। उसके बाद बीजेपी के कई नेता मुख्यमंत्री बने लेकिन मध्य प्रदेश सरकार का रुख वही बना रहा .उन्होंने इस बात पर अफ़सोस जताया  कि  24 किसानों को उस दिन मार डाला गया था लेकिन किसी भी न्यायिक जांच के आदेश नहीं दिए गए . पुलिस ने मनमानी करके केस  बनाया और साजिशन डॉ सुनीलम और दो किसानों को सज़ा दिलवा दी। . उन्होंने कहा क़ानून का कोई भी विद्यार्थी बता देगा कि इस केस में किसी भी हालत में सज़ा नहीं होनी चाहिए थी लेकिन लगता है कि न्याय प्रक्रिया किसी दबाव के तहत काम कर रही थी।

Sunday, October 28, 2012

हमें एक राष्ट्र के रूप में भ्रष्टाचार के खिलाफ लामबंद होना पड़ेगा




शेष नारायण सिंह 

अपने देश की राजनीतिक  बिरादरी में   भ्रष्टाचार एक ऐसी बीमारी के रूप में स्थापित हो रहा है जो चारों तरफ फैला हुआ है . हर पार्टी में भ्रष्ट लोगों की कमी नहीं है . जिस देश में दस हज़ार रूपये की रिश्वत के शक में जवाहरलाल नेहरू ने अपने पेट्रोलियम मंत्री को सरकार से बाहर कर दिया था, जिस देश में पांडिचेरी लाइसेंस स्कैंडल के नाम पर कुछ लाख रूपयों के चक्कर में फंसे तुलमोहन राम को मधु लिमये और उनके स्तर के संसदविदों ने इदिरा गांधी की सरकार के लिए मुसीबत पैदा कर दी थी.  कुछ ज़मीन के केस में मारुती लिमिटेड के घोटाले में उस वक़्त की प्रधान मंत्री के बेटे,संजय गांधी  और देश के  रक्षा मंत्री बंसी लाल को संसद में घेर लिया गया था .६५ करोड के बोफोर्स घोटाले के चलते निजाम बदल गया था . अब तो सौ,  दो सौ करोड के घोटालों को किसी गिनती में नहीं गिना जा रहा है . एक  केंद्रीय मंत्री ने तो खुले आम कह दिया है कि ७१ लाख का घोटाला किसी मंत्री और उसकी पत्नी के स्तर का  काम नहीं है . उसे तो ७१ करोड रूपये के घोटाले में शामिल होना चाहिए. अब बात बहुत आगे बढ़   गयी है . अब लाखों करोड के घोटाले हो रहे हैं . दुर्भाग्य की बात यह है कि एक राष्ट्र के रूप में यह घोटाले हमको झकझोरते  नहीं . अब भ्रष्टाचार को राजनीतिक जीवन का सहयोगी माना  जाने लगा है और उसे  सामाजिक अपमान की बात नहीं माना जा  रहा है . सबसे अजीब बात यह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ आन्दोलन चलाने वालों पर भी भ्रष्ट होने के आरोप लग रहे हैं . इसलिए भ्रष्टाचार को कैरियर बनाने वालों के देश में आम आदमी की सुरक्षा की उम्मीद केवल मीडिया से है लेकिन कई बार ऐसा हुआ है कि वहाँ भी हथियारों के दलालों के पक्ष में लेख लिखने वाले मिल जा रहे  हैं  . ज़ाहिर है कि देश की हालत बहुत अच्छे नहीं हैं . हालात को सही ढर्रे  पर लाने के लिए हमें एक राष्ट्र के रूप में  भ्रष्टाचार के खिलाफ लाम बंद होना पड़ेगा . यह काम फ़ौरन करना पडेगा क्योंकि अगर  इन हालात को ठीक करने के लिए  किसी गांधी का इंतज़ार करने का मंसूबा बनाया तो बहुत देर हो जायेगी. हमें अपने सम्मान और पहचान की  हिफाज़त खुद ही करने के लिए तैयार होना पडेगा .
आम तौर पार भ्रष्टाचार विरोधी पार्टी के रूप में अपनी छवि बनाकर चल रही बीजेपी को भी ज़बरदस्त झटका लगा है .भ्रष्टाचार को चुनावी मुद्दा बनाकर अगल लोक सभा चुनाव लड़ने की योजना पर काम कर रही बीजेपी को ज़बरदस्त झटका लगा है . उसके वर्तमान अध्यक्ष नितिन गडकरी भी भ्रष्टाचार की बहस  की ज़द में आ गए हैं .अब तक के संकेतों से लगता है कि उनके कथित भ्रष्टाचार के कारनामों के बाद लोग भ्रष्ट अध्यक्ष के रूप में बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण का  उदाहरण देना बंद कर देगें . नितिन गडकरी के  भ्रष्टाचार  के कथित कारनामों के बाद साफ़ लगने लगा है कि अब अपने देश में राजनीतिक बहसें विपक्षी पार्टियों को ज्यादा भ्रष्ट साबित करने वाले विषय को केन्द्र बनाकर नहीं होंगीं. अब लगता है कि भ्रष्टाचार को  मुद्दा बनाने  की हैसियत किसी भी राजनीतिक पार्टी की नहीं है. वामपंथी पार्टियों के अलावा आज कोई भी पार्टी यह दावा नहीं कर सकती कि उसके यहाँ भ्रष्टाचार के खिलाफ राजनीतिक आचरण करना ज़रूरी है . नितिन गडकरी का मामला खास तौर पर बहुत चिंताजनक है . जब कांग्रेसियों के भ्रष्टाचार की परतें खुल  रही थीं और कामनवेल्थ और टू जी जैसे घोटालों पर बहस चल रही थी तो गडकरी के बयानों से बहुत उम्मीद बनती थी कि चलो कोई बड़ा नेता तो है  जो भ्रष्टाचार के खिलाफ  मजबूती से आवाज़ उठा रहा है . लेकिन अब जो सच्चाई सामने आयी है वह बहुत ही निराशाजनक है . नितिन गडकरी के  कथित भ्रष्टाचार की जितनी कहानियां अब तक सामने आयी हैं वे किसी को भी  शर्मिंदा करने के लिए काफी हैं लेकिन अभी पता चला है कि गडकरी के भ्रष्ट कार्य का अभी तो केवल ट्रेलर सामने आया है . अभी बहुत सारे ऐसे खुलासे होने बाकी हैं जिनके बाद उनकी छवि बहुत खराब हो जायेगी. इसके पहले कांग्रेस के कई नेताओं के भ्रष्ट आचरण के कारनामे पब्लिक डोमेन में आये थे.कामनवेल्थ, टू जी , वाड्रा - डी  एल एफ केस आदि ऐसे घोटाले हैं जिनके बाद  कांग्रेस शुद्ध रूप से रक्षात्मक मुद्रा  थी. हिमाचल प्रदेश में चल रहे विधान सभा चुनाव के अभियान में बीजेपी को वीरभद्र सिंह से मज़बूत चुनौती मिल रही  है . बीजेपी ने वीरभद्र सिंह के खिलाफ भ्रष्टाचार  का एक केस तैयार किया और उम्मीद की थी कि उनको उसी चक्कर में घेर लिया जाएगा . लेकिन ऐसा कुछ  नहीं हुआ . जिस दिन बीजेपी ने बड़े ताम झाम के साथ वीर भद्र वाला प्रोजेक्ट सार्वजनिक किया उसी दिन देश के एक बहुत बड़े अखबार ने नितिन गडकरी के भ्रष्टाचार के पुराने कारनामों को पहले  पन्ने पर छाप दिया .अब बीजेपी वाले नितिन गडकरी से ही जान छुडाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं . बीजेपी का वीरभद्र अभियान फ्लाप हो चुका है .

आज गडकरी की जो दुर्दशा हो  रही है उसके बाद बहुत सारे लोगों को निराशा होगी. इन पंक्तियों का लेखक भी उसमें शामिल है . १५ नवंबर २००९ को एक सम्पादकीय  में मैंने नितिन  गडकरी के बारे में जो लिखा था उसे अक्षरशः  उद्धृत करके बात को सही पृष्ठभूमि रखने की कोशिश की जायेगी .मैंने लिखा था ," नितिन गडकरी एक कुशाग्रबुद्धि इंसान हैं . पेशे से  इंजीनियर  , नितिन गडकरी ने मुंबई वालों को बहुत ही राहत दी थी जब पी  डब्ल्यू डी मंत्री के रूप में शहर में बहुत सारे काम  किये थे. वे नागपुर के हैं और वर्तमान संघ प्रमुख के ख़ास बन्दे के रूप में उनकी पहचान होती. है.उनके खिलाफ स्थापित सत्ता वालों का जो अभियान चल रहा है उसमें यह कहा जा रहा है कि उन्होंने  राष्ट्रीय स्तर पर कोई काम नहीं किया  है. जो लोग यह कुतर्क चला रहे हैं उनको  भी मालूम है कि  यह बात  चलने वाली नहीं है. मुंबई जैसे नगर में जहां  दुनिया भर की गतिविधियाँ चलती रहती हैं , वहां  नितिन गडकरी की इज्ज़त है, वे  राज्य में  मंत्री रह चुके हैं , उनके पीछे  आर एस एस का पूरा संगठन खडा है  तो उनकी सफलता की संभावनाएं अपने आप बढ़ जाती हैं . और इस बात  को तो हमेशा के लिए दफन कर दिया जाना चाहिए कि दिल्ली में  ही राष्ट्रीय अनुभव होते हैं  . मुंबई, बेंगलुरु , हैदराबाद आदि शहरों  में भी राष्ट्रीय अनुभव  हो सकते हैं .  बहरहाल अब लग रहा  है कि नितिन गडकरी ही बी जे पी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जायेंगें और दिल्ली में रहने वाले नेताओं को एक बार फिर एक प्रादेशिक नेता के मातहत काम करने को मजबूर होना पड़ेगा . "  यह लेख उस वक़्त लिखा गया था अजाब दिल्ली वाले उनको राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने की  योजना का विरोध कर रहे थे.नितिन गडकारी का विरोध मूल रूप से उनको  क्षेत्रीय नेता बता कर किया जा  रहा था.  बहरहाल जिन  लोगों ने नितिन गडकरी को ठीक नेता  माना था ,वे आज परेशानी में हैं .
जो भी हो नितिन गडकरी का कथित भ्रष्ट लोगों की सूची में काफी ऊंचे मुकाम पर स्थापित हो जाना बीजेपी के लिए बहुत बुरी खबर है . आगे की राजनीतिक गतिविधियां निश्चित रूप से बहुत ही दिलचस्प मोड लेने वाली हैं  .  एक राष्ट्र के रूपमें हमें चौकन्ना रहना पड़ेगा कि कहीं भ्रष्टाचार के चलते हमारा देश एक बार फिर गुलामी की जंजीरों में न जकड दिया जाए. हमें एक राष्ट्र के रूप  में यह संस्कृति  विकसित करने के एज़रूरत है जहां बे ईमानी से की गयी  कमाई को अपराध से की गयी कमाई  माना जाए. देश की एकता और अखंडता के लिए यह  बहुत ही ज़रूरी है.