Wednesday, March 24, 2021

ममता बनर्जी के बारे में दिलीप घोष का बयान तालिबानी है

  

शेष नारायण सिंह

 

 

पश्चिम बंगाल के प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष , दिलीप घोष ने राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी  के सन्दर्भ में एक बहुत ही आपत्तिजनक बयान दिया है. नंदीग्राम में जब ममता परचा दाखिल करने गयी थीं तो उनके पाँव में चोट लग गयी थी. शायद फ्रैक्चर था. प्लास्टर लगाया गया . अब ममता बनर्जी व्हील चेयर से चलती हैं और चुनाव प्रचार करती हैं . इमकान है कि ममता बनर्जी  को इन हालात में मतदाताओं को सहानुभूति भी मिल रही है . बीजेपी ने पिछले एक साल से बंगाल विधानसभा चुनाव जीतेने के लिए सारी ताक़त झोंक  रखी है . आज की स्थिति यह है कि अधिकतर चुनाव सर्वे  बीजेपी को पिछड़ता हुआ बता रहे हैं . चुनावी सर्वे के अनुसार  ममता बनर्जी बंगाल की सबसे लोकप्रिय नेता हैं और यही बात वहां बीजेपी की तरफ से मुख्यमंत्री पद की  दावेदारी करने वालों को खल रही है .  बंगाल बीजेपी अध्यक्ष दिलीप घोष भी इन नेताओं में शामिल हैं जो मुख्यमंत्री पद की उम्मीद लगाये बैठे हैं . ऐसे नेताओं में दिलीप घोष का नाम सबसे ऊपर है . शायद यही कारण है कि वे ममता बनर्जी के बारे में ऊल जलूल बयान दे रहे हैं . ममता बनर्जी की चोट को लेकर उन्होंने पुरुलिया की एक चुनाव सभा में कह दिया कि  ममता बनर्जी के पाँव का प्लास्टर कट गया है और अब क्रेप बैंडेज लगी हुयी है . वे पाँव उठकर सबको ( बैंडेज ) दिखाती रहती हैं . साड़ी ऐसे पहनती हैं जिससे एक  पाँव ढका रहता है और दूसरा खुला रहता है. अगर उनको अपना पाँव खुला ही रखना है तो साड़ी क्यों पहनती हैं ,उनको बरमूडा पहनना चाहिए जिससे ( पाँव ) स्पष्ट  दिखता रहे . उनके इस बेहूदा बयान पर  लोक सभा सदस्य मोहुआ मोइत्रा ने ट्वीट करके कहा कि  दिलीप घोष का यह बयान एक विकृतकामी ( pervert ) का बयान है और ऐसी मानसिकता वाले सभी विकृतकामी बन्दर चुनाव हारेंगे .

 

चुनाव हारना जीतना तो नतीजों से पता लगेगा लेकिन दिलीप घोष की घटिया मानसिकता का  पता उनके इस बयान से जगजाहिर हो गया है . साथ साथ यह भी पता चलने लगा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह,  बीजेपी अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा और कैलाश विजयवर्गीय की सारी मेहनत के बावजूद दिलीप घोष टाइप “  विकृतकामी बंदरों “ को हार साफ़ नज़र आ रही है . अगर यही बयान किसी विरोधी नेता ने बीजेपी की किसी महिला नेता के खिलाफ दे दिया होता तो देश के बड़े न्यूज़ चैनल चौबीसों घंटे यही खबर चला रहे होते लेकिन दिलीप घोष के मर्दवादी नपुंसक बयान पर किसी  चैनल ने कोई खबर नहीं चलाई . बहरहाल उनकी अपनी मजबूरियां होंगी लेकिन दिलीप घोष के इस बयान की  चौतरफा निंदा होनी  चाहिए और उनकी इस मानसिकता को उसी तरह के लोगों के दिमाग की स्थिति से जोड़कर देखा जाना चाहिए जो  स्त्री को  अपने से घटिया मानते हैं. ऐसा कई बार  सुना गया है कि किसी बड़े सरकारी पद पर  तैनात महिला अफसर का चपरासी उसका हुक्म मानने में अपनी हेठी समझता है .  दिलीप घोष का बयान उसी संकुचित सोच वाली मानसिकता वाले चपरासी की तरह का ही बयान  माना जाएगा . यह भी ज़रूरी है कि  सभ्य समाज के प्रबुद्ध लोग इस तरह  की  सोच की निंदा करें और महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई को धार देने की कोशिश करें. महिलाओं के अधिकार की लड़ाई लड़ने वालों को को यह चाहिए कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के तालिबानी संगठनों की तरह सोचने वालों की हर मुकाम पर निंदा करें . दिलीप घोष का बयान उसी तालिबानी सोच का भारतीय संस्करण है.

 

तालिबानी सोच के चलते देश की आज़ादी को भी खतरा पैदा हो जाता है . भारत और पाकिस्तान एक समय पर अंग्रेजों से आज़ाद हुए थे . महात्मा गांधी के नेतृत्व में जो आज़ादी की लड़ाई लड़ी गयी थी उसमें नैसर्गिक न्याय स्थाई भाव था . शोषित पीड़ित जमातों के साथ न्याय उसी का हिस्सा है . डॉ लोहिया समेत सभी बड़े नेताओं ने बार बार कहा है कि  महिलायें भी अपने देश में शोषित पीड़ित रही हैं वे चाहे जिस  जाति या धर्म का पालन करने वाली हों. आज़ादी के बाद देश की नीतियाँ गांधी के ही रास्ते पर चलीं . ज़मींदारी उन्मूलन हुआ,दलितों के लिये आरक्षण हुआ, उनको शिक्षा देने का अभियान चलाया गया  लेकिन  पाकिस्तान में  कुछ नहीं हुआ. वहां पर समाज के समृद्ध वर्गों के एकाधिकार को बनाये रखने के लिए ही सारे नियम  क़ानून बनाये गए .  यही कारण है कि आज पाकिस्तान एक पिछड़ा देश है जबकि भारत दुनिया के शीर्ष देशों में गिना  जाने लगा  है . पाकिस्तान में तो अभी तक महिलाओं को अपमानित करने का कुटीर उद्योग चल रहा है .इसी सोच का नतीजा है कि वहां  जब भी चुनाव होते हैं तो घटिया मर्दवादी सोच के लोग ही हावी रहते  हैं. पाकिस्तान में होने वाले किसी चुनाव के लिए सबसे बड़ा ख़तरा पुरातनपंथियों और तालिबानी सोच के लोगों से रहता है .  पिछले कई वर्षों  से  पाकिस्तान के  सरहदी सूबे , खैबर पख्तूनख्वां ,में तालिबानियों की ओर से पर्चे बांटे जाते हैं जिसमें अपील की जाती है कि चुनाव के दिन कोई भी महिला घर से बाहर न निकले और वोट न डाले . सूबे के मर्दों को हिदायत दी जाती  है कि अपने घर की औरतों को वोट डालने के लिए घर से बाहर न निकलने दें . जो पर्चे बांटे जाते  हैं उनमें लिखा होता है कि औरतों के लिए डमोक्रेसी में शरीक होना गैर इस्लामी है   .दिलीप घोष के बरमूडा वाले बयान से पाकिस्तानी तालिबान की इसी सोच की बू आती है .

 

इस तरह की सोच वाले सभी पार्टियों में मौजूद हैं . ज़रूरत इस बात की है उन लोगों को राजनीति की मुख्यधारा से  बाहर ही रखा जाए . पाकिस्तानी तालिबानी  मानसिकता किसी भी  समाज में स्वीकार नहीं की  जानी चाहिए .एक समाज के रूप में हमें इस मानसिकता से लड़ना पडेगा . असली समस्या यह है कि आज भी हमारा पुरुष प्रधान समाज महिलाओं को कमज़ोर मानता है .जब तक औरतों के बारे में पुरुष समाज की बुनियादी सोच नहीं बदलेगी तब तक कुछ नहीं होने वाला है . असली लड़ाई पुरुषों की मानसिकता  बदलने की है .जब यह मानसिकता  बदलेगी उसके बाद ही देश की आधी आबादी के खिलाफ निजी तौर पर की जाने वाली ज़हरीली बयानबाजी से बचा  जा सकता है . दुनिया जानती है कि संसद और विधानमंडलों में महिलाओं के ३३ प्रतिशत आरक्षण के लिये कानून बनाने के लिए देश की अधिकतर राजनीतिक पार्टियों में आम राय है लेकिन कानून संसद में पास नहीं हो रहा  है . इसके पीछे भी वही तर्क है कि पुरुष प्रधान समाज से आने वाले नेता महिलाओं के बराबरी के हक को स्वीकार नहीं करते .इसीलिये सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक और नैतिक  विकास को बहुत तेज़ गति दे सकने वाला यह कानून अभी पास नहीं हो रहा है .महिला आरक्षण का विरोध कर रही जमातें किसी से कमज़ोर नहीं हैं और महिलायें  पिछले कई दशक से सरकारों को अपनी बातें मानने के लिए दबाव डालती रही हैं .अपने को पिछड़ी जातियों के राजनीतिक हित की निगहबान बताने वाली राजनीतिक पार्टियां महिलाओं के आरक्षण में अलग से पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की बात कर रही हैं . सबको मालूम है कि यह मुद्दे को भटकाने का तरीका है .

 

महिला अधिकारों की लड़ाई कोई नई नहीं है  भारत की आज़ादी  की लड़ाई के  साथ महिलाओं की आज़ादी की लड़ाई का आन्दोलन भी चलता रहा है .१८५७ में ही मुल्क की खुदमुख्तारी की लड़ाई शुरू हो गयी थी लेकिन अँगरेज़ भारत का साम्राज्य छोड़ने को तैयार नहीं था. उसने इंतज़ाम बदल दिया. ईस्ट इण्डिया कंपनी से छीनकर ब्रितानी सम्राट ने हुकूमत अपने हाथ में ले ली. लेकिन शोषण का सिलसिला जारी रहा. दूसरी बार अँगरेज़ को बड़ी चुनौती महात्मा गाँधी ने दी . १९२० में उन्होंने जब आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व करना शुरू किया तो बहुत शुरुआती दौर में साफ़ कर दिया था कि उनके अभियान का मकसद केवल राजनीतिक आज़ादी नहीं हैवे सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई लड़ रहे हैं , उनके साथ पूरा मुल्क खड़ा हो गया . . हिन्दू ,मुसलमानसिखईसाईबूढ़े ,बच्चे नौजवान , औरतें और मर्द सभी गाँधी के साथ थे. सामाजिक बराबरी के उनके आह्वान ने भरोसा जगा दिया था कि अब असली आज़ादी मिल जायेगी. लेकिन अँगरेज़ ने उनकी मुहिम में हर तरह के अड़ंगे डाले .

महिलाओं के सम्मान को सुनिश्चित करने के लिए उनको राजनीतिक अधिकार मिलना  ज़रूरी है और उसके लिए महिलाओं को आरक्षण मिलना ही चाहिए .आरक्षण के  बिल को पास  उन लोगों के ही करना है जिनमें से अधिकतर मर्दवादी  सोच की बीमारी  के मरीज़ हैं . और वे दिलीप घोष टाइप मानसिकता वाले लोग हैं . पिछले दिनों एक रिपोर्ट आई थी जिसमें लिखा है कि अहमदाबाद की 58 फीसदी औरतें गंभीर रूप से मानसिक तनाव की शिकार हैं. उनका अध्ययन बताता है कि 65 फीसद औरतें सरेआम पड़ोसियों के सामने बेइज्जत की जाती है. 35 फीसदी औरतों की बेटियां अपने पिता की हिंसा की शिकार हैं. यही नहीं 70 फीसदी औरतें गाली गलौच और धमकी झेलती हैं. 68 फीसदी औरतों ने थप्पड़ों से पिटाई की जाती है. ठोकर और धक्कामुक्की की शिकार 62 फीसदी औरतें हैं तो 53 फीसदी लात-घूंसों से पीटी जाती हैं. यही नहीं 49 फीसदी को किसी ठोस या सख्त चीज से प्रहार किया गया जाता है. वहीं 37 फीसदी के जिस्मों पे दांत काटे के निशान पाए गए. 29 फीसद गला दबाकर पीटी गई हैं तो 22 फीसदी औरतों को सिगरेट से जलाया गया है. "दिलीप घोष यह सब तो नहीं कर सकते लेकिन जो उन्होंने ममता जी की चोट, साड़ी और बरमूडा वाला बयान दिया है वह इसी श्रेणी के अपराधों की मानसिक स्थिति से पैदा होती है और उनकी निंदा की जानी चाहिए .

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