Wednesday, September 23, 2020

खेती के कारपोरेटीकरण का विधेयक अब देश का कानून बन गया है .


 

शेष नारायण सिंह

 

सरकार ने विपक्ष के भारी विरोध के बाद भी  खेती से सम्बंधित विधेयक पास  कर दिया . लोकसभा में तो सरकार के पास अपनी ही पार्टी के सदस्यों का स्पष्ट बहुमत था ,वहां पास होना ही था. लेकिन राज्यसभा में विपक्ष के कई नेताओं ने मतविभाजन के बाद बिल को रोकना चाहा लेकिन उपाध्यक्ष ने ध्वनिमत से  पास करवा कर लोकसभा में पास  हुए दोनों विधेयकों को  राज्यसभा की हरी झंडी दे दी और राष्ट्रपति भवन का रास्ता दिखा दिया . राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद वह विधेयक क़ानून बन गया . ऐसा लगता   है कि ध्वनिमत का सहारा इसलिए लेना पडा क्योंकि सरकार को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन कर रही पार्टियों ने भी इन विधेयकों का विरोध किया है . बहरहाल अब तो क़ानून बन गया  है .इस  कानून के बन जाने के बाद खेती  किसानी वही नहीं रहेगी जो अब तक रहती  रही है . हमेशा से ही इस देश का किसान खेती की उपज के ज़रिये  सम्पन्नता के सपने देखता रहा है . हर स्तर से मांग होती रही है कि  खेती में सरकारी निवेश  बढाया जाय , भण्डारण और विपणन की सुविधाओं के ढांचागत निवेश का बंदोबस्त किया जाय जिससे कि किसान को अपने उत्पादन को कुछ दिन तक मंडी में भेजने से रोकने की ताकत आये  जिससे वह अपनी फसल बेचने के लिए मजबूर न हो. एक बात बिलकुल अजीब लगती  है कि शहरी मध्यवर्ग के लिए हर चीज़ महंगी मिल रही है जिसको किसान ने पैदा किया है . उस चीज़ को   पैदा करने वाले किसान को उसकी वाजिब कीमत नहीं मिल रही है . किसान से जो कुछ भी सरकार खरीद रही है उसका लागत मूल्य भी नहीं दे रही है .. किसान को उसकी लागत नहीं मिल रही है और शहर का उपभोक्ता कई गुना ज्यादा कीमत दे रहा है. इसका मतलब यह हुआ कि बिचौलिया मज़े ले रहा है . किसान और शहरी मध्यवर्ग की मेहनत का एक बड़ा हिस्सा वह हड़प रहा है.और यह बिचौलिया गल्लामंडी में बैठा कोई आढ़ती नहीं है . वह  आवश्यक वस्तुओं के क्षेत्र में सक्रिय कोई पूंजीपति भी हो सकता है और किसी भी बड़े नेता का व्यापारिक पार्टनर भी .इस हालत को संभालने का एक ही तरीका है कि जनता अपनी लड़ाई खुद ही लड़े. उसके लिए उसे मैदान लेना पड़ेगा और सरकार की पूंजीपति परस्त नीतियों का हर मोड़ पर विरोध करना पड़ेगा. लेकिन ऐसा हो नहीं पाता.  आज की सत्ताधारी पार्टी बीजेपी है . उसकी सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी अकाली दल है . उसको मालूम है कि पंजाब का किसान मौजूदा बिलों का भारी विरोध करेगा इसलिए उनके पार्टी के मालिकों की घर की बहू ने केंद्र सरकार के मंत्री  पद से इस्तीफा दे दिया . लेकिन अभी भी बीजेपी सरकार को अकाली दल का  समर्थन मिल रहा है .अकाली दल के नेता सुखबीर  सिंह बादल आवाजें तो तरह तरह की निकाल रहे हैं लेकिन ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं .उन्होंने किसानों के बारे में पारित विधेयकों को एहसान फरामोशी के बिल कहा है . आम तौर पर बीजेपी को संसद में समर्थन देने वाली पार्टियों बीजू जनता दल और तेलंगाना राष्ट्र समिति ने भी  इन विधेयकों का विरोध किया है .

 

खेती में सरकारी  निवेश की बात हमेशा से होती रही  है.१९६५ के बाद जो हरित क्रान्ति आयी थी ,वह भी बहुत बड़े पैमाने पर सरकारी निवेश का नतीजा थी.  सरकार ने  रासायनिक खाद, सिंचाई के साधन ,बीज जैसी ज़रूरी चीजों को सब्सिडी के रास्ते सस्ता कर दिया था . सरकारी खरीद की व्यवस्था की गयी थी . न्यूनतम मूल्य की गारंटी की गयी थी  यानी आढ़ती या किसी ज़खीरेबाज़ की मर्जी से अपनी फसल बेचने के लिए किसान मजबूर नहीं था. अपने उत्पादन का कंट्रोल उसके पास ही था .पिछले चालीस साल से सरकार से उसी तरह की एक क्रान्ति की बात की जाती रही है .उम्मीद की जा रही थी कि कृषि उपज के भंडारण और विपणन में बड़े पैमाने पर सरकारी पूंजी का   निवेश कर दिया जाए , अमूल जैसी  कंपनियों की व्यवस्था कर दी जाये और किसान को अधिक उत्पादन के अवसर उपलब्ध कराये जाएँ . अगर ऐसा हुआ होता तो किसान की सम्पन्नता बढ़ती और  देश में तेज़ी से बढ़ रहे मध्यवर्ग के परिवारों में किसान भी बड़ी संख्या में शामिल  होते . लेकिन सरकार ने सरकारी पूंजी  निवेश नहीं किया . उससे पलट कारपोरेट क्षेत्र को खेती किसानों के उत्पादन पर नियंत्रण की खुली छूट दे दी. सरकारी मंडियां ख़त्म कर दी गयीं , किसान को निजी पूंजी के मालिकों के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया.  इसका मतलब यह नहीं है कि मुख्य विपक्षी पार्टी ,कांग्रेस  कोई बहुत बड़ी किसान हितैषी पार्टी है . जब सरकार में थी तो वह भी यही करना चाहती थी . इसलिए इस बिल का विरोध असली मुद्दों पर  नहीं किया जा रहा था .सारा फोकस न्यूनतम समर्थन मूल्य ( एम एस पी ) पर केन्द्रित कर दिया गया  है . सरकार का कहना है कि एम एस पी तो रहेगा . लेकिन सरकार अब कोई खरीद नहीं करेगी . यानी जो कारपोरेट  खेती की उपज खरीदेगा उसके लिए दिशा निर्देश के तौर  पर एम एस पी घोषित कर दिया  जाएगा लेकिन खरीद वह अपनी मर्जी से करेगा . सैद्धांतिक रूप से  उसकी खरीद की कीमत एम एस पी से ज्यादा भी हो सकती है लेकिन अगर सरकारी खरीद का ढांचा ख़त्म हो गया तो उसको मनमानी करने से कौन रोक पायेगा. जनता दल यू केंद्र सरकार का एक बड़ा सहयोगी दल है .इसके नेता के सी त्यागी ने एक लेख लिखकर  बताया है कि प्रधानमंत्री से वायदा किया  है कि एम एस पी रहेगा . केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने भी कहा है कि एम एस पी रहेगा लेकिन वह क़ानून का   हिस्सा कभी नहीं रहा .

पहले भी जब सरकारी अफसरमंत्री , सत्ताधारी पार्टियों के नेता  न्यूनतम समर्थन मूल्य की बात करते हैं थे तो लगता था कि वे किसानों को कुछ खैरात में दे रहे हैं .. कई बार तो ऐसे लगता है जैसे किसी अनाथ को या भिखारी को कुछ देने की बात की जा रही हो. यह किसान का अपमान है और उसकी गरीबी  का मजाक है . वह अपने को दाता समझते थे और  किसान को प्रजा ..  राजनीतिक नेता और मंत्री जनता के वोट  की मदद से सत्ता पाते हैं . अजीब बात है कि जिस देश में सत्तर प्रतिशत आबादी   किसानों की है वहां यह  सत्ताधीश सबसे ज़्यादा उसी किसान को बेचारा बना देते हैं .

किसानों के हित के लिए सरकार में जो भी योजनायें बनती  हैं वे किसानों को अनाज और खाद्य पदार्थों के उत्पादक के रूप में मानकर चलती  हैं . नेता लोग किसान को सम्पन्न नहीं बनने देना चाहते. इस मानसिकता में बदलाव की ज़रूरत है.  किसानों के लिए सबसे बड़ी मुसीबत यह  है कि कि लागत का मूल्य नहीं मिलता . इसका कारण यह है कि किसान के लिए बनी हुयी संस्थाएं  उसको प्रजा समझती हैं . न्यूनतम मूल्य देने के लिए बने संगठन कृषि लागत और मूल्य आयोग का तरीका वैज्ञानिक नहीं है .वह पुराने लागत के आंकड़ों की मदद से आज की फसल की कीमत तय करते हैं जिसकी वजह से किसान ठगा रह जाता है .फसल बीमा भी बीमा कंपनियों के लाभ के लिए डिजाइन किया गया है .. खेती की लागत की चीज़ों की कीमत लगातार बढ़ रही है लेकिन किसान की बात को कोई भी सही तरीके से नहीं सोच रहा है जिसके कारण इस देश में किसान तबाह होता जा रहा है .सरकारी आंकड़ों में जी डी पी में तो वृद्धि हो रही है जबकि खेती की विकास दर  बहुत कम हैं ,कभी कभी तो नकारात्मक हो जाती हैं . किसानों को जो सरकारी समर्थन मूल्य मिलता है वह भी लागत मूल्य से कम होता है .सरकारी खरीद होती  नहीं और निजी हाथों में फसल बेचने पर जो दाम  मिलता है बहुत कम होता है

अब सरकार ने कानून तो पास करवा लिया है लेकिन उस पर दबाव पूरा है . 25 सितम्बर को कुछ राज्यों में किसानों ने बंद का आवाहन किया है . देशव्यापी आन्दोलन भी चल रहा है . किसानों पर सरकार ने एक और फैसला आनन फानन में कर लिया  है . संसद के सत्र के आख़िरी दिन आयी कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की एक रिपोर्ट में आयोग ने सीधे किसानों को सब्सिडी देने की सिफारिश करते हुए सालाना हजार रुपये देने की सिफारिश कर दी है आयोग के मुताबिककिसानों को 2,500 रुपये की दो किस्तों में भुगतान किया जाए। पहली किस्त खरीफ की फसल शुरू होने से पहले और दूसरा भुगतान रबी की शुरुआत में किया जाएताकि किसानों को बुआई में धन की कमी न हो। अगर सरकार इन सिफारिशों को मंजूर करती हैतो अभी कंपनियों को दी जाने वाली सब्सिडी प्रक्रिया समाप्त कर दी जाएगी। किसान अभी यूरियापोटाश और फॉस्फेट को बाजार खाद कंपनियों को दी गयी सब्सिडी पर खरीदते हैं।इन कंपनियों को खाद की बिक्री के बाद सरकार सब्सिडी का भुगतान करती है। नई प्रक्रिया के तहत किसानों को उर्वरक बाजार मूल्य पर मिलेंगे और सब्सिडी सीधे उनके खाते में आएगी और किसान को कंपनी की  तरफ से तय किये गए दाम पर खाद खरीदनी  पड़ेगी . यहाँ भी खाद कंपनी को मनमानी की छूट दे दी गयी है .

अब सरकार ने  खेती से सम्बंधित सारी पहल निजी हाथों में सौंप दिया है . ठेके पर खेती की बात भी की जा रही है . नए कानून में यह व्यवस्था  है कि कोई भी कंपनी किसान से बुवाई के पहले ही उसकी उपज का दाम तय करके उससे  समझौता कर लेगी . सरकार इस को बहुत बड़ी उपलब्धि बता रही है .जबकि इसकी सचाई यह है कि किसान को अपनी उपज की कीमत पर कोई कंट्रोल नहीं रहेगा . जिस दाम पर भी समझौता हुआ है ,उससे ज़्यादा दम अगर कहीं मिल रहा है तो वह नहीं बेच सकेगा. इस देश के कारपोरेट संस्कृति ऐसी है कि किसान को खूब दबाकर दाम तय कर लिया जाएगा .कुल मिलाकर नए कानून के बाद जो स्थितियां बनेगीं उसमें किसान की पैदावार की लगाम उसके हाथ में नहीं , कारपोरेट कंपनी के हाथ में होगी.  और अगर ठेके की खेती करने वाली कोई कंपनी आ जायेगी तो किसान को उसकी ज़मीन का किराया ही हाथ आयेगा , उपज से उसका कोई  नहीं रहेगा .इस कानून ने खेती किसानी  को कारपोरेट हाथों में सौंप दिया है .

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