Monday, September 14, 2020

 

प्रो. अम्बरीश सक्सेना के कालेज में दिया गया मेरा  भाषण

शेष नारायण सिंह

  आपको मैं धन्यवाद कहना चाहता हूँ कि आपने मुझे आज अपने बीच आने का अवास्र्र दिया .इस बात की मुझे और अधिक खुशी   है  कि आज चर्चा के केंद्र में आज  भारतेंदु हरिश्चंद्र हैं .मैं भारतेंदु को क्रांतिकारी  मानता हूँ जिन्होंने नाटक, गद्य, अनुवाद ,प्रहसन ,कविता आदि के माध्यम से जनजागरण का प्रयास किया . हिंदी साहित्य में उनका  प्रभाव अद्वितीय है . वैसे तो उन्होंने पांच वर्ष की आयु में ही कुछ न कुछ साहित्यिक बोलना शुरू कर दिया  था लेकिन पंद्रह वर्ष की आयु में विधिवत  साहित्य सेवा प्रारम्भ कर दी .। अठारह वर्ष की आयु यानी महात्मा गांधी के  जन्म के एक साल पहले  उन्होंने 'कविवचनसुधा' नामक पत्रिका निकालना  शुरू कर दिया था , जिसमें उस समय के बड़े-बड़े विद्वानों की रचनाएं छपती थीं।  'कविवचनसुधा',के पांच साल बाद  1873 में 'हरिश्चन्द्र मैगजीन' और 1874 में स्त्री शिक्षा के लिए 'बाला बोधिनी' नामक पत्रिका निकालने लगे थे .बनारस की संस्कृति में  जो मानदंड उन्होंने स्थापित किया था उस पर आज तक के बनारसियों को गर्व है . भारतेंदु की अड़ी आज भी बनारस के अड़ी वालों को याद रहती है . उनका परिवार अंग्रेजों का भक्त था लेकिन वे खुद देशभक्त थे . देशभक्ति की भावना के कारण उन्हें अंग्रेजों की नाराजगी भी झेलनी पड़ी .   भारतेन्दु जी ने हिंदी भाषा को समृद्ध बनाया लेकिन साहित्य को भी बहुत कुछ दिया .उन्होंने खड़ी बोली के उस रूप को प्रतिष्ठित किया जो उर्दू से अलग है और  हिन्दी क्षेत्र की बोलियों को साथ लेकर विकसित हुई है .यही भारतेंदु की भाषा है . उनके भाषाई संस्कारों पर राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द का निश्चित प्रभाव है क्योंकि उनको  भारतेंदु जी अपना गुरू मानते थे .वे अंग्रेज़ी राज को भारत की दुर्दशा  के लिए ज़िम्मेदार मानते थे . अपने लेखन  में उन्होंने  कई बार लिखा है कि अँग्रेज किस तरह भारत की संपत्ति को लूट रहे थे, भारतेन्दु स्त्री-पुरुष की समानता के पक्षधर थे . उनके पूरे साहित्य में यह सब साफ़ नज़र आता है .

 

मैं कई बार सोचता हूँ  कि उनको कहीं मालूम तो नहीं था कि उनके पास बहुत कम समय है क्योंकि 34 साल की  आयु में जितना कुछ उन्होंने लिखा है बहुत ही बड़ा  खज़ाना है .  १५ साल की उम्र में उन्होंने विधिवत लिखना शुरू किया था और 34 साल में चले गए यानी कुल बीस साल और इस बीस साल में क्या क्या नहीं लिखा .

 

मौलिक नाटक[4]

·         वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति ,सत्य हरिश्चन्द्र विषस्य विषमौषधम् भारत दुर्दशा ,अंधेर नगरी ,प्रेमजोगिनी

·         अन्य भाषाओं से नाटकों का जो  अनुवाद उन्होंने किया ,काश बाद के लोगों भी वह काम  जारी रखा होता .

·          

·         अनूदित नाट्य रचनाएँ

·         विद्यासुन्दर (१८६८,नाटक, संस्कृत 'चौरपंचाशिकाके यतीन्द्रमोहन ठाकुर कृत बँगला संस्करण का हिंदी अनुवाद)

·         पाखण्ड विडम्बन (कृष्ण मिश्र कृत प्रबोधचंद्रोदयनाटक के तृतीय अंक का अनुवाद)

·         धनंजय विजय (१८७३, व्यायोग, कांचन कवि कृत संस्कृत नाटक का अनुवाद)

·         कर्पूर मंजरी (१८७५, सट्टक, राजशेखर कवि कृत प्राकृत नाटक का अनुवाद)

·         भारत जननी (१८७७,नाट्यगीत, बंगला की 'भारतमाता'के हिंदी अनुवाद पर आधारित)

·         मुद्राराक्षस (१८७८, विशाखदत्त के संस्कृत नाटक का अनुवाद)

·         दुर्लभ बंधु (१८८०, शेक्सपियर के मर्चेंट ऑफ वेनिसका अनुवाद)

 

 

 निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल ,

बिनु निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल.

अंग्रेज़ी पढ़ी के जदपि सब गुन होत प्रवीण

पै निज भाषा ज्ञान बिनु  रहत हीन के हीन

 

हिंदी दिवस आज शाम तक बीत जाएगा . सरकारी विभागों में सरकारी कार्यक्रम होंगे  , शपथ ली जायेगी  और शाम होते-होते हिंदी का काम पूरा हो जाएगा . एक बात समझ लेने की ज़रूरत है कि सरकार की कृपा से  हिंदी नहीं चलती। वास्तव में वह जनभाषा है और महात्मा गांधी की विरासत है। वह अपने उसी  पाथेय के साथ बुलंदियों के मुकाम हासिल करती रहेगी। आज से करीब सौ साल पहले 1918  में हिंदी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन के अध्यक्ष के रूप में महात्मा गांधी ने हिंदी को आजादी की लड़ाई के एजेंडे पर रख दिया था। उन्होंने कहा था किभारत की राष्ट्रभाषा हिंदी को ही बनाया जाना चाहिए क्योंकि हिंदी जनमानस की भाषा है। जब देश आजाद हुआ तो संविधानसभा ने 14  सितम्बर 1949 के दिन एक सर्वसम्मत प्रस्ताव पास करके तय किया कि हिंदी ही स्वतंत्र भारत की राजभाषा होगी। संविधान के अनुच्छेद 343 (1 ) में लिखा है- कि ,  ''संघ  यानी केंद्र सरकार की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी. संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतरराष्ट्रीय रूप होगा.'' 

महात्मा गांधी के 1918  वाले भाषण के बाद स्वत्रंतता की लड़ाई में हिंदी को महत्वपूर्ण स्थान मिलना शुरू  हो गया। इस सन्दर्भ में महान पत्रकारशहीद गणेश शंकर विद्यार्थी का वह भाषण बहुत ही जरूरी दस्तावेज है जो उन्होंने 1930 में हिंदी साहित्य सम्मलेन के गोरखपुर अधिवेशन के अध्यक्ष के रूप में दिया था। गौर करने की बात है कि 1930 में महात्मा गांधी आजादी की लड़ाई के सर्वमान्य नेता  बन चुके थे, 1930 में कांग्रेस ने देश की पूर्ण स्वतंत्रता का ऐलान कर दिया था और दांडी मार्च के माध्यम से पूरी दुनिया में महात्मा गांधी की नेतृत्व शक्ति  का डंका बज चुका था।  वैसे  विश्वपटल पर जनमानस के नेता के रूप में तो महात्मा गांधी 1920 के आन्दोलन के बाद ही स्थापित हो चुके थे लेकिन सन 1930 तक महात्मा गांधी का लोहा  विंस्टन चर्चिल जैसा भारत की आज़ादी  का विरोधी भी मानने लगा था.  रूसी क्रांति के नेता लेनिन भी महात्मा गांधी को  महान मानने लगे थे . एक दिलचस्प वाकया कलकत्ता से छपने वाले उन दिनों के महत्वपूर्ण अखबार, ''मतवाला'' में छपा है कि जब भारत के  कम्युनिस्ट नेताएमएन रॉय ने दूसरी कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के सम्मलेन में यह साबित  करने की कोशिश की कि 1920 का असहयोग आन्दोलन कोई खास महत्व नहीं रखता और गांधी एक मामूली राजनीतिक नेता हैं  तो लेनिन ने उनको डपट दिया था और कहा था कि, ''गांधी राष्ट्रीय मुक्ति के लिए लाखों-लाख लोगों का विराट जन-आन्दोलन चला रहे हैंवह साम्राज्यवाद-विरोधी हैं।  वह क्रांतिकारी हैं?'' आशय यह है कि 1930 तक महात्मा गांधी दुनिया के बड़े क्रांतिकारी नेताओं में बहुत ही सम्मानित व्यक्ति बन चुके थे और उनके हस्तक्षेप के कारण  आजादी की लड़ाई के शुरुआती दिनों में ही यह तय हो गया था कि हिंदी को स्वतंत्र भारत में सम्मान मिलने वाला है।

1930 के आन्दोलन के बाद तो कांग्रेस के अधिवेशनों में भी हिंदी को बहुत महत्व मिलने लगा था। इस सन्दर्भ में जब गणेश शंकर विद्यार्थी का भाषण देखते हैं तो बात ज्यादा साफ समझ में आ जाती है। अपने भाषण में स्व. विद्यार्थी जी ने एक तरह से भविष्य का खाका ही खींच दिया है। उन्होंने कहा  कि,

''हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य का भविष्य बहुत बड़ा है। उसके गर्भ में निहित भवितव्यताएं इस देश और उसकी भाषा द्वारा संसार भर के रंगमंच पर एक विशेष अभिनय कराने वाली हैं। मुझे तो ऐसा भासित होता है कि संसार की कोई भी भाषा मनुष्य-जाति को उतना ऊंचा उठानेमनुष्य को यथार्थ में मनुष्य बनाने और संसार को सुसभ्य और सद्भावनाओं से युक्त बनाने में उतनी सफल नहीं हुईजितनी कि आगे चलकर हिन्दी भाषा होने वाली है । ...मुझे तो वह दिन दूर नहीं दिखाई देताजब हिन्दी साहित्य अपने सौष्ठव के कारण जगत-साहित्य में अपना विशेष स्थान प्राप्त करेगा और हिन्दीभारतवर्ष-ऐसे विशाल देश की राष्ट्रभाषा की हैसियत से न केवल एशिया महाद्वीप के राष्ट्रों की पंचायत मेंकिन्तु संसार भर के देशों की पंचायत में एक  भाषा के समान न केवल बोली भर जाएगी किन्तु अपने बल से संसार की बड़ी-बड़ी समस्याओं पर भरपूर प्रभाव डालेगी और उसके कारण अनेक अन्तरराष्ट्रीय प्रश्न बिगड़ा और बना करेंगे।''

आज उनके भाषण के करीब नब्बे साल बाद उनकी भविष्यवाणी पर गौर करने से समझ में आ जाता  है कि हिंदी भाषाजिसको महात्मा गांधी ने जनभाषा कहा थावह  वास्तव में मानवता के एक बड़े हिस्से के लोगों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली थी। महात्मा गांधी कोई भी विषय अधूरा नहीं छोड़ते थे। उन्होंने राजभाषा के सम्बन्ध में बाकायदा बहस चलवाई और आखिर में   सिद्धांत भी प्रतिपादित कर दिया। महात्मा गांधी  के अनुसार राष्ट्रभाषा बनने के लिए किसी भाषा में पांच बातें अहम हैं : पहला- उसे सरकारी अधिकारी आसानी से सीख सकें। दूसरा- वह समस्त भारत में धार्मिकआर्थिक और राजनीतिक संपर्क के माध्यम के रूप में प्रयोग के लिए सक्षम होतीसरा- वह अधिकांश भारतवासियों द्वारा बोली जाती होचौथा- सारे देश को उसे सीखने में आसानी हो,और पांचवां- ऐसी भाषा को चुनते समय फैसला करने वाले अपने क्षेत्रीय या फौरी हित से ऊपर उठकर फैसला करें।''  गांधी जी को विश्वास था कि हिन्दी इस कसौटी पर सही उतरती है।

देश के आज़ाद  होने पर संविधान सभा की जिस बैठक में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का फैसला हुआ उसमें सभी सदस्य मौजूद थे और एकमत से फैसला लिया गया। महात्मा गांधी तब जीवित नहीं थे लेकिन देश ने उनकी विरासत को सम्मान दिया और संविधान में हिंदी को राजभाषा के रूप में स्थापित कर दिया। हालांकि यह भी सच है कि संविधान सभा की घोषणा और संविधान में स्थान पाने के बाद भी हिंदी उपेक्षित ही रही। सरकारी स्तर पर थोड़ी   गति तब आई जब जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में 1963 में राजभाषा अधिनियम संसद में पास कर लिया गया और राजभाषा के सम्बन्ध में एक नया कानून बन गया। उसके बाद ही शब्दावली आदि के  लिए समितियां बनीं। लेकिन समितियां भी सरकारी  ही थीं। ऐसे-ऐसे शब्द बना दिए गए जो सीधा संस्कृत से उठा लिए गए थे। उन्हीं सरकारी शब्दों की महिमा है कि कई बार तो हिंदी में आई सरकारी चिट्ठियों के भी हिंदी अनुवाद की जरूरत पड़ जाती है।

यह बात भी निर्विवाद है कि किसी भी भाषा के विकास के लिए ऐसे उच्च कोटि के साहित्य की जरूरत होती है जो जनमानस की जबान पर चढ़ सके। अपने यहां हिंदी भाषा के विकास में कबीरसूर और तुलसी का जितना योगदान है उतना किसी का नहीं। बाद में भी जिन महान साहित्यकारों ने हिंदी को जनभाषा  बनाने में योगदान किया है उनको भी हिंदी दिवस पर याद करना जरूरी होता है।  हमारा सिर उनके सम्मान में सदा ही झुका रहेगा। हिंदी को केवल खड़ी बोली मानने वालों को समझ लेना चाहिए कि अगर अंग्रेजों ने भी इसी तरह की शुद्धता के आग्रह रखे होते तो उनकी अंग्रेजी भाषा का विकास भी नहीं हुआ होता।  खड़ी बोली हिंदी की विकास यात्रा में एक अहम मुकाम जरूर है लेकिन खड़ी बोली ही हिंदी नहीं हैहिंदी उसके अलावा भी बहुत कुछ  है।

आजकल हिंदी के साथ तरह-तरह के प्रयोग किए जा रहे हैं। अभी तीस साल पहले की बात है कि कुछ अखबारों ने हिंदी और अंग्रेजी मिलाकर भाषा चलाने की कोशिश की और उसी को हिंदी मनवाने पर आमादा थे।  कहते थे कि अब हिंदी नहीं हिंगलिश का जमाना है। दावा करते थे कि अब यही भाषा चलेगी। लेकिन आज उन संपादकों का भी कहीं पता नहीं है और उस भाषा को भी अपमान की दृष्टि से देखा जाता है। आजकल टेलीविजन  में  नौकरी करने वालों को मुगालता है कि जो उल्टी-सीधी हिंदी वे लोग लिखते बोलते  हैंवही असली हिंदी है। समय से बड़ा कोई न्यायाधीश नहीं होता। इस  अभियान के कुछ पुरोधा तो  दिल्ली के टीवी दफ्तरों के आसपास नौकरी की तलाश करते पाए जाते हैं। और कुछ लोगों ने अन्य धंधे कर लिए हैं।   भाषा के नाम पर मनमर्जी करने वाले रास्ते से अपने आप हटते जा रहे हैं।

ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। हिंदी सिनेमा में भी सड़क छाप लोगों का एक तरह  से कब्जा ही हो गया था। फ़िल्मी कहानी लिखने वालों को मुंशी कहा जाता था। मुंशी वह प्राणी होता था जो हीरो या फिल्म निर्माता की चापलूसी करता रहता था और कुछ भी कहानी के रूप में चला देता था।  उन मुंशियों के प्रभाव के दौर में प्रेमचंद और अमृतलाल नगर जैसे महान लेखकों की कहानियों पर बनी फिल्में भी व्यापारिक सफलता नहीं पा सकीं। उन दिनों ज़्यादातर फिल्मों में प्रेम त्रिकोण होता थाखलनायक होता था और लगभग सभी कहानियां एक जैसी ही होती थीं। लेकिन जब सिनेमा का विकास एक स्थिर मुकाम तक आ गया तो ख्वाजा अहमद अब्बास,श्याम बेनेगल जैसे लोग आए और सार्थक सिनेमा का दौर  शुरू हो गया . इस दौर में सही तरीके से लिखी गई हिंदी की कहानियां फिल्मों में इज्जत का मुकाम पा सकीं। और अब तो कहानी की गुणवत्ता पर भी चर्चा होती  है। सही हिंदी बोली जाती है और भाषा अपनी रवानी पकड़ चुकी है। ऐसा लगता है कि टेलीविजन की खबरों की भाषा में भी ऐसा ही कुछ होना शुरू हो गया है। वेलकम बैक बोलने वाले अब खिसक रहे  हैं।  हिंदी वाक्यों में अंग्रेजी  चपेकने  की जिद  करने वाले एक न्यूज चैनल के मालिक बुरी तरह  से कर्ज में डूब चुके हैं। सही हिंदी बोलने वाले समाचार वाचकों की स्वीकार्यता बढ़ रही है।

  इतिहास में भी हिंदी के साथ इस तरह के अन्याय हुए हैं। महात्मा तुलसी दास के ही समकालीन रामकथा  के एक रचयिता कवि केशवदास भी हुए हैं। उनके अलावा और भी बहुत सारे कवियों ने राम के चरित्र को अपने काव्य का विषय बनाया था ।  उनका कहीं पता नहीं.  केवल हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने वाले ही उनको  जानते होंगे । केशवदास को तो बाद के विद्वानों ने ''कठिन काव्य का प्रेत'' तक कह डाला जबकि रामचरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास का मुकाम हिंदी साहित्य में अमर हैऔर रामकथा के गायकों में कोई भी उन जैसा  नहीं है। इसका कारण यह है कि तुलसी बाबा ने अपने समय की जनभाषा हिंदी में कविताई की और किसी राजा या सामंत की चापलूसी नहीं की।''हिंदी की विकास यात्रा चालू है और उसमें अपने तरीके से लोग अपनी-अपनी भूमिका भी निभा रहे  हैं और योगदान भी कर रहे हैं।

लेकिन हम पंहुचे कहाँ तक हैं . आज हिंदी दिवस है इस अवसर पर एक भाषाई बानगी देखिए एक श्रीमान जी ने कहा ," यू नोआई वेरी मच लाइक हिंदी लैंग्वेज। मैं हिंदी बोलने वालों को एप्रिसिएट करता हूँ।इस हिंदी को हिंदी भाषा के विकास का संकेत मानने  वाले वास्तव में भाषा की हत्या कर रहे हैं . सच्ची बात यह है कि इस  तरह की भाषा का  इस्तेमाल करके वे लोग अपनी धरोहर और भावी  पीढ़ियों के विकास पर ज़बरदस्त हमला कर रहे हैं . ऐसे लोगों के चलते ही बहुत बड़े पैमाने पर भाषा का भ्रम फैला हुआ  है.  आम धारणा फैला  दी गयी है कि भाषा सम्प्रेषण और संवाद का ही माध्यम है . इसका अर्थ यह हुआ कि यदि भाषा दो व्यक्तियों या समूहों के बीच संवाद स्थापित कर सकती है और जो कहा जा  रहा है उसको समूह समझ रहा है जिसको संबोधित किया जा रहा है तो भाषा का काम हो गया . लोग कहते  हैं कि भाषा का यही काम है  लेकिन यह बात सच्चाई से बिलकुल परे है . यदि भाषा केवल बोलने और समझने की  सीमा तक सीमित कर दी गयी तो पढने और लिखने का काम कौन करेगा . भाषा को यदि  लिखने के काम से मुक्त कर दिया गया तो   ज्ञान को आगे कैसे बढ़ाया जाएगा . भाषा को जीवित रखने के लिए पढ़ना भी बहुत ज़रूरी है  और लिखना भी उससे ज्यादा ज़रूरी है . यह बात सही है कि  भाषा  सम्प्रेषण का माध्यम है लेकिन वह धरोहर और मेधा की वाहक भी  है .  इसलिए भाषा को बोलने ,समझने, लिखने और पढने की मर्यादा में ही रखना ठीक रहेगा . यह  भाषा की प्रगति और   सम्मान के लिए सबसे आवश्यक शर्त है . भाषा के लिए समझना और बोलना सबसे छोटी भूमिका है .  जब तक उसको पढ़ा  और लिखा नहीं जाएगा तब तक वह  भाषा  कहलाने की अधिकारी ही नहीं होगी. वह केवल बोली होकर रह जायेगी .  यह बातें सभी भाषाओं के लिए सही है  लेकिन हिंदी भाषा  के लिए ज्यादा सही  है. आज जिस तरह का विमर्श हिन्दी के बारे में देखा जा रहा है वह हिंदी के संकट की शुरुआत का संकेत माना जा सकता है. हिंदी  में अंग्रेज़ी शब्दों को डालकर उसको  भाषा के विकास की बात करना  अपनी हीनता को स्वीकार करना  है . हिंदी को एक वैज्ञानिक सोच की भाषा और सांस्कृतिक थाती  की वाहक बनाने के लिए अथक प्रयास कर रहे  भाषाविद, राहुल देव   का कहना  है  कि, "हिंदी  समाज वास्तव में एक आत्मलज्जित समाज है . उसको अपने आपको हिंदी वाला कहने में शर्म आती है  . वास्तव में अपने को दीन मानकर ,अपने दैन्य को छुपाने के लिए वह अपनी हिंदी में अंग्रेज़ी  शब्दों को ठूंसता है " इसी तर्क के आधार पर हिंदी की वर्तमान स्थिति को समझने का प्रयास किया  जाएगा.

 

 हिंदी के बारे में एक और भाषाभ्रम भी बहुत बड़े स्तर पर प्रचलित है .  कहा जाता है कि भारत में टेलिविज़न और सिनेमा  पूरे देश में हिंदी का विकास कर रहा है . इतना ही नहीं इन  माध्यमों के  कारण विदेशों में भी  हिंदी का विस्तार हो रहा है. लेकिन इस तर्क में दो  समस्याएं हैं. एक तो यह कि सिनेमा टेलिविज़न की हिंदी भी वही वाली है जिसका उदाहरण ऊपर दिया गया है  और दूसरी  समस्या  यह है कि बोलने या समझने से किसी भाषा का  विकास नहीं हो सकता . उसको  लिखना और बोलना बहुत ज़रूरी है , उसके बिना फौरी तौर पर संवाद तो  हो जाता है लेकिन उसका कोई  स्वरूप तय नहीं होता.  टेलिविज़न और सिनेमा में पटकथा या संवाद लिखने वाले बहुत से ऐसे  लोग हैं  जो हिंदी की सही समझ रखते हैं लेकिन शायद उनकी कोई मजबूरी होती है  जो उल्टी सीधी भाषा लिख देते हैं . हो   सकता है कि उनके अभिनेता या निर्माता उनसे वही मांग करते हैं .  इन लेखकों को प्रयास करना चाहिए कि निर्माता निदेशकों को यह समझाएं कि यदि सही भाषा लिखी गयी तो भी बात और अच्छी हो जायेगी . चाणक्य सीरियल और पिंजर जैसी  फिल्मों के रचयिता  डॉ चन्द्र प्रकाश द्विवेदी  की फिल्मों का उदाहरण  दिया जा सकता  है जो भाषा के बारे में बहुत ही सजग रहते हैं. अमिताभ बच्चन की भाषा भी एक अच्छा उदाहरण है .  सिनेमा के संवादों में उनकी हिंदी को सुनकर भाषा की क्षमता का अनुमान लगता  है .सही हिंदी बोलना असंभव नहीं है ,बहुत आसान  है. अधिकतर सिनेमा कलाकार निजी बातचीत में अंग्रेज़ी बोलते पाए जाते हैं जबकि उनके रोजी रोटी का साधन  हिंदी सिनेमा ही है. पिछले दिनों एक टेलिविज़न कार्यक्रम में फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौट की भाषा सुनने का अवसर मिला , जिस तरह से उन्होंने हिंदी शब्दों और मुहावरों का प्रयोग किया ,उसको टेलिविज़न और  सिनेमा वालों को  उदाहरण के रूप में प्रयोग करना चाहिए .  एक अन्य अभिनेत्री स्वरा भास्कर भी बहुत अच्छी भाषा बोलते देखी और सुनी गयी हैं . . डॉ  राही मासूम  रज़ा ने टेलिविज़न और सिनेमा के माध्यम से सही हिंदी को पूरी दुनिया में  पंहुचाने  का जो काम किया है ,उस पर किसी भी भारतीय को गर्व हो सकता  है. कुछ दशक पहले  टेलिविज़न पर दिखाए गए उनके धारावाहिक , ' महाभारत ' के संवाद  हमारी भाषाई धरोहार का हिस्सा बन चुके हैं.  टेलिविज़न बहुत बड़ा माध्यम है , बहुत बड़ा उद्योग है . उसका समाज की भाषा चेतना पर बड़ा असर पड़ता है . लेकिन सही भाषा बोलने वालों की गिनती उँगलियों पर की जा सकती है .दुर्भाग्य की बात यह है कि  आज इस माध्यम के कारण  ही बच्चों के  भाषा संस्कार बिगड़ रहे  हैं. टेलिविज़न वालों से उम्मीद की जाती है कि वह भाषा को परिमार्जित करे और  भाषा का संस्कार देंगे लेकिन वे तो भाषा  को बिगाड़ रहे  हैं . हिंदी के अधिकतर टेलिविज़न चैनल  हिंदी और अन्य भाषाओं में विग्रह पैदा कर  रहे  हैं. हिंदी के अखबार भी हिंदी को बर्बाद कर रहे हैं  . यह  आवश्यक है कि औपचारिक मंचों से सही हिंदी बोली जाए अन्यथा हिंदी को बोली के स्तर तक सीमित कर दिया जाएगा ".

आज टेलिविज़न की कृपा से छोटे बच्चों की भाषा का  प्रदूषण हो रहा है .बच्चे  सोचते  हैं कि जो भाषा टीवी पर सुनायी पड़  रही है ,वही हिंदी है .माता पिता भी अंग्रेज़ी ही बोलने के लिए प्रोत्साहित करते हैं क्योंकि स्कूलों का दबाव रहता है . देखा गया है कि बच्चों की पहली भाषा तो अंग्रेज़ी हो ही चुकी है .बहुत भारी फीस लेने वाले स्कूलों में  अंग्रेज़ी बोलना अनिवार्य है . अपनी भाषा में बोलने वाले बच्चों को दण्डित किया जाता है...बच्चों की मुख्य भाषा अंग्रेज़ी हो जाने के संकट बहुत ही भयावह  हैं. साहित्य ,संगीत आदि की बात तो बाद में आयेगी ,अभी तो बड़ा संकट दादा-दादी, नाना-नानी से संवादहीनता की स्थिति   है. आपस में बच्चे अंग्रेज़ी में बात  करते हैं ,  स्कूल की भाषा अंग्रेज़ी हो ही चुकी है , उनके  माता पिता  भी आपस में और बच्चों से अंग्रेज़ी में बात करते हैं नतीजा यह होता है कि बच्चों को अपने  दादा-दादी से बात  करने के लिए हिंदी के शब्द तलाशने पड़ते हैं .  जिसके कारण संवाद में निश्चित रूप से कमी आती है  .यह स्पष्ट तरीके से नहीं दिखता लेकिन  बूढ़े लोगों को तकलीफ बहुत होती है.

 

एक समाज के रूप में हमें  इस स्थिति को संभालना पडेगा . बंगला, तमिल, कन्नड़ , तेलुगु . मराठी आदि भाषाओं के इलाके में रहने वालों को  अपनी भाषा की श्रेष्ठता पर गर्व होता है. वे अपनी भाषा में कहीं भी बात करने में लज्जित  नहीं  महसूस करते लेकिन हिंदी में यह संकट  है .  इससे हमें  अपने  भाषाई संस्कारों को मुक्त करना  पडेगा.  अपनी भाषा को बोलकर श्रेष्ठता का अनुभव करना भाषा के  विकास  की बहुत ही ज़रूरी शर्त  है.  इसके लिए  पूरे प्रयास से हिंदी को रोज़मर्रा की भाषा , बच्चों की भाषा  और बाज़ार की भाषा बनाना बहुत ही ज़रूरी है . आज देश में  बड़े व्यापार की भाषा अंग्रेज़ी है , वहां  हिंदी का प्रयोग किया जाना चाहिए . क्योंकि वहां भी अपनी मातृभाषा का प्रयोग किया जा सकता  था . चीन और जापान ने अपनी भाषाओं को ही बड़े  व्यापार का माध्यम बनाया और आज हमसे बेहतर आर्थिक विकास के उदाहरण बन चुके हैं . अंग्रेज़ी सीखना ज़रूरी है  तो वह  सीखी जानी चाहिए , उसका साहित्य पढ़ा जाना  चाहिए, अगर ज़रूरी है तो उसके माध्यम से वैज्ञानिक और जानकारी जुटाई जानी चाहिए लेकिन भाषा की श्रेष्ठता के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए . भारतेंदु हरिश्चंद्र की बात   सनातन सत्य है कि ' निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल '. भाषा की चेतना से ही पारिवारिक जीवन को और सुखमय बनाया जा सकता  है . हमारी परम्परा की वाहक भाषा ही होती है . संस्कृति,  साहित्य , संगीत सब कुछ भाषा के ज़रिये ही अभिव्यक्ति  पाता है ,इसलिए हिंदी भाषा को उसका गौरवशाली स्थान दिलाने के लिए हर स्तर से हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए .

 

 

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