Wednesday, July 29, 2020

चारण पत्रकारिता से लोकतंत्र , राष्ट्र और सत्ताधारी पार्टी का भारी नुकसान होता है





शेष नारायण सिंह


पूरी दुनिया में कोरोना वायरस के  विषाणु के कारण हाहाकार मचा हुआ है . भारत में भी यह बहुत ही खतरनाक बीमारी साबित हो चुकी है . देश के हर राज्य में कोरोना संक्रमित मरीज़ हैं . लोगों को तरह तरह की पेशानियां झेलनी पड़ रही हैं . कहीं अस्पताल की सुविधा नहीं है तो कहीं क्वारंटाइन के  प्रबंधन को लेकर मुसीबतें हैं. टेस्ट बहुत कम हो  रहे हैं . ख़बरें यह भी हैं कि बहुत सारे बीमार लोग टेस्ट के लिए नमूने नहीं दे   पा रहे हैं क्योंकि टेस्ट की  सुविधा के अभाव में अधिकारी नमूने नहीं  ले  रहे हैं . गाँव में भी लोग कोरोना संक्रमित हो रहे हैं लेकिन उनकी गिनती नहीं हो  रही है क्योंकि किसी अस्पताल या सरकारी एजेंसी में उनका कहीं कोई रिकार्ड नहीं है .अगर किसी की कोरोना से मृत्यु   हो रही है तो  ऐसी  भी सूचना आ रही है कि उसके गहर परिवार वाले उसका अंतिम संस्कार तक   नहीं कर  रहे हैं .कोरोना से बीमार लोगों को परिवार के लोग छोड़कर ज़िम्मेदारी से मुक्त हो रहे  हैं.  यह जितने भी विषय हैं यह सब समाचार हैं. ईमानदारी की पत्रकारिता में या सारी ख़बरें हेडलाइन की ख़बरें मानी जायेंगी .
असम , बिहार  और उत्तराखंड में बरसात में आने वाली बाढ़ के चलते तबाही आई हुयी है . सड़कें टूट रही हैं, पुल गिर रहे हैं. गाँवों में पानी घुस आया है , इंसानी  ज़िंदगी मुसीबत के मंझधार में  है. मानवीय विपत्ति की यह ख़बरें भी अगर  कहीं आ रही हैं तो साइड की ख़बरों की तरह चलाई जा रही हैं . लेकिन कुछ टीवी चैनलों में तो बिलकुल नदारद हैं. हां कुछ चैनल इन ख़बरों को भी ज़रूरी प्राथमिकता दे रहे हैं लेकिन पिछले एक हफ्ते थे ज्यादातर टीवी चैनलों की ख़बरों को देख कर लगता है देश में सब अमन चैन है , कहीं कोई परेशानी नहीं है .
अजीब  बात है कि फ्रांस से बहुत ही महंगे दाम में खरीदे गए रफायल युद्धक विमानों को घंटों ख़बरों में चलाया जा रहा है . अव्वल तो सेना के पास कितने हथियार हैं यह बात आम तौर पर सीक्रेट  रखी जाती   है क्योंकि माना यह जाता है कि  जिनके खिलाफ युद्ध होना है उनको किसी  भी देश के हथियारों की विस्तृत जानकारी नहीं होनी चाहिए . और एक हमारा विजुअल मीडिया  है जो एक महत्वपूर्ण हथियार के सारे विवरण टेलिविज़न पर दिन रात प्रचारित कर रहा है.  यह प्रवृत्ति गैर ज़िम्मेदार पत्रकारिता तो हैं ही यह राष्ट्रहित को भी नुक्सान पंहुचा सकती है .
कई साल के विवाद के बाद अयोध्या में राम मन्दिर का निर्माण होना है . पांच अगस्त को उस मंदिर का शिलान्यास  प्रधानमंत्री जी करेंगे . उस कार्यक्रम को लाइव दिखाया जाएगा .  यह खबर है लेकिन टीवी चैनलों की नज़र में पिछले एक हफ्ते से  पांच अगस्त के शिलान्यास के कार्यक्रम की जो विवरणी शास्वत चल रही है उसको देख कर लगता है कि उसके अलावा  कोई ऐसी खबर ही नहीं है जिसको  हाईलाईट किया जा सके . टीवी  चैनलों की एक अन्य खबर है कि मुंबई में  सिनेमा के अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने आत्महत्या कर ली थी. उसकी जाँच चल रही है . उस जांच की पल पल की जानकारी चप्पे  चप्पे पर  मौजूद चैनल के रिपोर्टर दे रहा  है. और चैनल इसको लहक लहक लार सुना रहा है . सुशांत  सिंह की आत्महत्या निश्चित रूप से एक बड़ी खबर है लेकिन उसकी जांच की हर जानकारी तो उतनी बड़ी खबर नहीं  है कि  उसका लगभग लाइव प्रसारण किया जाय लेकिन आजकल टीवी पत्रकारिता में जो भेडचाल है उसके चलते यह सारी हालात पैदा हुए हैं . अमिताभ बच्चन के बीमारी भी कई दिन तक टीवी चैनलों का मुख्य विषय बना रहा . इन खबरों के बीच में मुंबई सहित बाकी देश में कोरोना  के कारण पैदा हुई आर्थिक तबाही ,  बेरोजगारी , फ़िल्मी दुनिया में काम करने वालों की भीख माँगने की मजबूरी का कहीं भी ज़िक्र  नहीं हो रहा है . बड़े शहरों ने बेरोजगार होकर गाँवों में गये लोग जिस तरह से अपराध की तरफ प्रवृत्त ही रहे हैं वह भी कहीं चर्चा में नहीं आ रहा है .
राजस्थान में संविधान की व्यख्या को लेकर जो संकट मौजूद है उसका भी ज़िक्र केवल सचिन पायलट के अधिकारों को  छीन लेने तक सीमित कर दिया गया है.  वहां के राज्यपाल की संदिग्ध भूमिका का टीवी चैनलों में  विश्लेषण  नहीं हो रहा है . मायावती की राजनीति में बहुत बड़ा शिफ्ट हो चुका है . अगर  कबीरपंथी  पत्रकारिता का दौर होता तो उसका विधिवत विश्लेषण किया  जाता  लेकिन  ऐसा कहीं कुछ देखने को नहीं मिल रहा है .    राजस्थान में उनकी पार्टी के विधान मंडल दल ने अपना विलय कांग्रेस में बहुत पहले पर लिया था . अब मायावती उन कांग्रेसी विधायकों के लिए व्हिप जारी करती हैं या उनकी सदस्यता रद्द करवाने  सुप्रीम कोर्ट जाती  हैं, उसकी जानकारी पूरी तरह से बार  बार देश को बाताई जा रही है लेकिन यह  नहीं बताया जा रहा है कि उनको यह काम करने की  प्रेरणा कौन दे रहा है .
इस तरह की पत्रकारिता को चारण पत्रकारिता कहते हैं .टीवी चैनल देखने से लगता है कि रफायल युद्धक विमान और राम मंदिर के शिलान्यास से बड़ी कोई खबर ही नहीं है .जबकि पत्रकारिता का बुनियादी सिद्धांत यह  है कि इंसानी मुसीबतों या उनकी बुलंदियों के बारे में सूचना दी जाए . सवाल यह  है कि मीडिया संस्थान सचाई को दिखाने से डरते क्यों हैं .संविधान  मीडिया को जनहित में अपनी बात कहने की आज़ादी देता है .  प्रेस की आज़ादी की  व्यवस्था  संविधान में ही है . संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) में अभिव्यक्ति की स्वत्रंत्रता की व्यवस्था दी गयी हैप्रेस की आज़ादी उसी से निकलती  है . इस आज़ादी को सुप्रीम कोर्ट ने अपने बहुत से फैसलों में सही ठहराया है . १९५० के  बृज भूषण बनाम दिल्ली राज्य  और १९६२ के सकाळ पेपर्स  प्राइवेट लिमिटेड बनाम यूनियन आफ इण्डिया के फैसलों में  प्रेस की अभिव्यक्ति की आज़ादी को मौलिक अधिकार के  श्रेणी में रख दिया  गया है . प्रेस की यह आज़ादी निर्बाध ( अब्सोल्युट ) नहीं है . संविधान के मौलिक अधिकारों वाले अनुच्छेद 19(2) में ही उसकी सीमाएं तय कर दी गई हैं.  संविधान में लिखा है  कि  अभिव्यक्ति की आज़ादी के "अधिकार के प्रयोग पर भारत की प्रभुता और अखंडताराज्य की सुरक्षाविदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधोंलोक व्यवस्थाशिष्टाचार या सदाचार के हितों में अथवा न्यायालय-अवमानमानहानि या अपराध-उद्दीपन के संबंध में युक्तियुक्त निर्बंधन जहां तक कोई विद्यमान विधि अधिरोपित करती है वहां तक उसके प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या वैसे निर्बंधन अधिरोपित करने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी"  यानी प्रेस की आज़ादी तो मौलिक अधिकारों के तहत कुछ भी लिखने की आज़ादी  नहीं है .
हालांकि यह भी सच   है कि  सत्ताधीश कई बार इस आज़ादी को गैर संवैधानिक तरीकों से कुचल भी देते हैं. सरकारी आदेश या अन्य  तरीकों से मीडिया संस्थान या  पत्रकारों पर हमले भी होते  हैं.कई बार तो पत्रकारों को सही खबर लिखने की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है . सत्ता के करीबी पत्रकार भी इस बात को सही ठहराते पाए जाते हैं .और कई बार पत्रकारों की  हत्या को भी सही बताते है . वे मानते है कि अगर  पत्रकार ने संविधान के अनुच्छेद 19(2) का उन्लंघन किया  है तो उसको मार डालना  भी सही है  . इस तर्क की परिणति बहुत ही खतरनाक है और इसी तर्क से लोकशाही को ख़तरा  है . कर्नाटक की पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के हवाले से बात को समझने की कोशिश की जायेगी . उनकी हत्या के बाद उनके पुराने लेखों का ज़िक्र किया गया जिसमें उन्होंने ऐसी बातें लिखी थीं जो एक वर्ग को स्वीकार नहीं थीं. सोशल मीडिया पर सक्रिय एक  वर्ग ने  चरित्र हनन का प्रयास भी किया .वे यह कहना चाह  रहे थे कि गौरी लंकेश की  हत्या करना एक ज़रूरी काम था और जो हुआ वह ठीक ही हुआ.  आज ज़रूरत इस बात की है कि इस तरह की प्रवृत्तियों की निंदा की जाये .अगर इस बात को सही साबित करने की कोशिश की जायेगी तो लोकतंत्र के अस्तित्व पर ही  सवालिया निशान  लग जाएगा.  इस लोकतंत्र को बहुत ही मुश्किल से हासिल किया  गया है और उतनी ही मुश्किल इसको संवारा गया है . अगर समाचार संस्थान  जनता तक सही बातें और वैकल्पिक दृष्टिकोण नहीं पंहुचाएगा तो सत्ता पक्ष के  लिए भी मुश्किल होगी. इंदिरा  गांधी ने यह गलती १९७५ में की थी. इमरजेंसी में सेंसरशिप लगा दिया था . सरकार के खिलाफ कोई भी खबर नहीं छप सकती थी. टीवी और रेडियो पूरी तरह से सरकारी नियंत्रण में थे , उनके पास  तक  जा सकने वालों में सभी चापलूस होते थेउनकी जयजयकार करते रहते थे इसलिए उनको  सही ख़बरों का पता  ही नहीं लगता था . नौकरशाही ने उनको  बता दिया कि देश में उनके पक्ष में बहुत भारी माहौल है और वे दुबारा भी बहुत ही आराम से चुनाव जीत जायेंगीं .  चुनाव करवा दिया और  १९७७ में बुरी तरह से हार गईं ..इंदिरा गांधी के भक्त और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने प्रेस सेंसरशिप के दौरान नारा दिया था कि  ' इंदिरा इज इण्डिया ,इण्डिया इज  इंदिरा ,' इसी .तरह से जर्मनी के तानाशाह हिटलर के तानाशाह बनने के पहले उसके एक चापलूस रूडोल्फ हेस ने नारा दिया था कि  ,' जर्मनी इस हिटलर , हिटलर इज जर्मनी '.   रूडोल्फ हेस नाजी पार्टी में बड़े पद पर था .
चारण पत्रकारिता  सत्ताधारी पार्टियों  की सबसे  बड़ी दुश्मन है क्योंकि वह सत्य पर पर्दा डालती है और सरकारें गलत फैसला लेती हैं . ऐसे माहौल में सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह मीडिया को निष्पक्ष और निडर बनाए रखने में योगदान करे  . चापलूस पत्रकारों से पिंड छुडाये . सरकार को चाहिए कि पत्रकारों के सवाल पूछने के  अधिकार और आज़ादी को सुनिश्चित करे . साथ ही संविधान के अनुच्छेद १९(२) की सीमा में  रहते हुए कुछ भी लिखने की  आज़ादी और अधिकार को सरकारी तौर पर गारंटी की श्रेणी में ला दे . इससे निष्पक्ष पत्रकारिता का बहुत लाभ होगा.  ऐसी कोई व्यवस्था कर दी जाए जो सरकार की चापलूसी करने को  पत्रकारीय  कर्तव्य पर कलंक माने और इस तरह का काम करने वालों को हतोत्साहित करे. अगर मौजूदा सरकार इस तरह का  माहौल  बनाने में सफल होती है तो वह राष्ट्रहित और समाज के हित में होगा .


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