Monday, March 12, 2018

जब तक लड़कियों को उचित शिक्षा नहीं मिलेगी ,समाज नहीं बदलेगा

शेष नारायण सिंह 

महिला दिवस पर मेरी इच्छा है कि मेरे गाँव की लड़कियों को भी कम से कम अपनी शिक्षा के अनुसार काम करने और अपनी पसंद की शादी करने का अधिकार मिले.
महिला दिवस के दिन अच्छे भविष्य का संकल्प लेने की ज़रूरत सबसे ज्यादा गाँव में होती है . मेरे बचपन में मेरे गाँव में महिलाओं की इज्ज़त कोई नहीं करता था. लड़कियों को बोझ माना जाता था. उनके जन्म के बाद से ही उनकी शादी की बातें शुरू हो जाती थीं. चौदह पंद्रह साल की होते होते शादी हो जाती थी. मेरे गाँव की ज़्यादातर लड़कियों की शादी सरुवार में होती थी. माना जाता था कि अयोध्या में जब स्टीमर से सरजू पार करके लकड़मंडी पंहुचते थे तो सरुवार का इलाका शुरू हो जाता है . अब तो सरजू नदी पर पुल बन गया है . लकड़मंडी से गोंडा और बस्ती की सवारी मिलती थी. वहीं हमारे गाँव की लडकियां ब्याही जाती थीं. लेकिन जब से मैंने होश सम्भाला सरुवार में शादी ब्याह लगभग ख़त्म हो गया है . अब फैजाबाद, प्रतापगढ़ और रायबरेली में लडकियां ब्याही जाती हैं. उतनी दूर अब कोई भी लडकियां भेजने को तैयार नहीं है .
शादी के तीन साल के अन्दर गौना किया जाता था.गौने में जाती हुयी लडकियां जितना रोती थीं ,उसको सुनकर दिल दहल जाता था. मुझे याद है कि जब मैंने अपनी माई से पूछा कि लडकियां रोती क्यों हैं तो उन्होंने बताया कि अपने माता पिता ,भाई-बहन, सही सहेलर को छोड़ने का दुख बहुत बड़ा होता है . लडकी किसी की विदा हो रही हो पूरे गाँव की औरतें रोती थीं. उनको अपनी बेटी की विदाई याद आती रहती थी . अपनी खुद की विदाई याद आती थी. माहौल में पूरा कोहराम होता था. रोते बिलखते लडकी चली जाती थी . ससुराल से लौटकर आई लड़कियां जब वहां की कठिन ज़िंदगी की बात अपनी मां को बताती थीं तो बहुत तकलीफ होती थी लेकिन गाँव वालों को अच्छी ससुराल की कहानी बताई जाती थी.
ग़रीबी के तरह तरह के आयाम का अनुभव मुझे उन्हीं लड़कियों की शादी और उसकी तैयारी में देखने को मिला . दहेज़ का आतंक अब जैसा तो नहीं था लेकिन जो भी अतिरिक्त खर्च शादी में किया जाता था , गिरस्त पर भारी पड़ता था. उसी गरीबी में अंदर छुपी खुशियों को तलाशने की जो कोशिश की जाती थी , उन दिनों मुझे वह सामान्य लगती थी . अब लगता है कि अशिक्षा के आतंक के चलते लोगों को मालूम ही नहीं चलता था कि वे घोर गरीबी में जी रहे हैं .
जिन लोगों के घर की लडकियां थोडा बहुत पढ़ लेती थीं, उनकी हालत बदल जाती थी. मसलन मेरी क्लास में पढने वाली लड़कियों ने जब मिडिल पास कर लिया तो उनको सरकारी कन्या पाठशाला में नौकरी मिल गयी और उनका दलिद्दर भाग गया . आस पड़ोस की गाँवों में लड़कियों में पढने का रिवाज़ था .नरिन्दापुर और बूधापुर की लडकियां प्राइमरी तो पास कर ही लेती थीं. इन गाँवों में पुरुष शिक्षित थे सरकारी काम करते थे लेकिन बाकी गाँवों की हालत बहुत ख़राब थी.
सोचता हूँ कि अगर उस वक़्त के मुकामी नेताओं ने महात्मा गांधी की तरह लड़कियों की शिक्षा की बात की होती तो हालात इतने न बिगड़ते . आज भी हालात बहुत सुधरे नहीं हैं . अपने उद्यम से ही लोग लड़कियों को पढ़ा लिखा रहे हैं लेकिन उद्देश्य सब का शादी करके बेटी को हांक देना ही रहता है . जब तक यह नहीं बदलता मेरे जैसे गाँवों में महिला दिवस की जानकारी भी नहीं पंहुचेगी .
इसी माहौल में मेरी माई ने एड़ी चोटी का जोर लगाकर अपनी बेटियों को पढ़ाने की कोशिश की थी. नहीं कर पाईं. लेकिन अपने चारों बच्चों के दिमाग में शिक्षा के महत्व को भर दिया था . नतीजा यह है कि उनकी सभी लड़कियों ने उच्च शिक्षा पाई और सब अपनी अपनी लडाइयां लड़ रही हैं . आज महिला दिवस पर मेरी इच्छा है कि मेरे गाँव की लड़कियों को भी कम से कम अपनी शिक्षा के अनुसार काम करने और अपनी पसंद की शादी करने का अधिकार मिले. फिर उनकी नहीं तो उनकी लड़कियों की जिंदगियां बाकी दुनिया की महिलाओं जैसी हो जायेगी .

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