शेष नारायण सिंह
आज देशबंधु अखबार की दूसरी लीड खबर है कि ‘दसवीं में भी लड़कियां रहीं लड़कों से आगे ‘ इसके पहले बारहवीं की परीक्षा में भी लड़कियों ने बहुत ही अच्छा किया था. खबर में लिखा है कि सीबीएसई द्वारा घोषित किए गए नतीजों में कुल 91.46 फीसदी छात्र 10वीं की बोर्ड परीक्षाओं में उत्तीर्ण हुए हैं। पिछले वर्ष के मुकाबले यह संख्या 0.36 प्रतिशत अधिक है। सीबीएसई द्वारा घोषित किए गए इन नतीजों में कुल 93.31 प्रतिशत छात्राएं उत्तीर्ण हुई है। पास होने वाले लड़कों का प्रतिशत 90.14 है। लड़कों के मुकाबले 3.71 प्रतिशत अधिक लड़कियां दसवीं की परीक्षा में उत्तीर्ण हुई है। 78.95 प्रतिशत ट्रांसजेंडर छात्र भी दसवीं की कक्षा में उत्तीर्ण हुए हैं। यह ख़बरें इसलिए पहले पृष्ठ पर प्रमुखता से छापी जाती हैं क्योंकि लड़कियों का किसी भी परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन अभी भी पुरुष आधिपत्य वाले समाज में अजूबा माना जाता है . लेकिन इन हालात में तेज़ी से बदलाव हो रहा है . ज्यादातर मातापिता अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देने की पेशकश करने लगे हैं . लेकिन अभी बहुत कुछ होना बाकी है . अभी भी कई बार बातचीत में पुरातन मानसिकता वालों से भेंट होती रहती है . कई बार लोग कहते पाए जाते हैं कि अब फलां का परिवार पूरा हो गया . इसका भावार्थ यह होता है कि उनके यहाँ एक बेटी और एक बेटा जन्म ले चुका है . इसके पहले हमारे गाँव में मैंने अक्सर सुना है कि फलां बहुत ही भाग्यशाली हैं क्योंकि उनके यहाँ जितनी भी औलादें हैं सब बेटे ही हैं , बेटियाँ नहीं हैं.मैंने ऐसे बहुत सारे परिवार देखे हैं जहां अगर तीन चार बेटियाँ जन्म ले लें तो लोग बेटा पैदा होने की उम्मीद में और कई बेटियों को जन्म देते रहते हैं . परिवार नियोजन का उनका काम तब तक पूरा नहीं होता जब तक बेटा न जन्म ले ले .यह मानसिकता पुरातनपंथी है और जहालत की कोख से जन्म लेती है. अपने बचपन में मैंने अपने गाँव में उस समय के जागरूक लोगों को बात करते सुना है कि जवाहरलाल नेहरू के यहाँ भी तो बेटी ही हैं और वह सभी मर्दों से भारी है लेकिन उनकी बात का कोई असर नहीं होता था. पुत्र की आवश्यकता सबको होती थी . बेटियों के जन्म से ग्रामीण इलाकों में घबराहट का कारण शायद यह भी था कि उनके विवाह के लिए लोगों को अपनी आर्थिक हैसियत से ज़्यादा का दहेज देना पड़ता था . लडकी की शिक्षा में भी कोताही बरती जाती थी क्योंकि माना जाता था कि लडकी ज्यादा पढ़ लिख जायेगी तो पढ़ा लिखा लड़का उसकी शादी के लिए ढूंढना पडेगा और शिक्षित लड़के के घर वाले ज्यादा दहेज़ की मांग करेंगे . मेरे अपने घर में लड़कियों की शिक्षा नहीं के बराबर थी . जब मेरी मां मेरे साथ कुछ दिन रहने के लिए दिल्ली आईं और उन्होंने सुना कि उस समय के सबसे महंगे स्कूल में मेरी बेटी पढने जाती है तो उन्होंने मुझसे कहा था कि ,” बेटा तुम तो एकदम बेवकूफ हो . बिटिया की पढ़ाई के लिए इतना ज्यादा खर्च कर रहे हो . वह तो पराया धन है , किसी और के घर चली जायेगी .” यह बात उन्होंने गाँव में भी जाकर बताई थी और उनकी बात को सही मानने वाले भी मिल गए थे . मुझे बेवकूफ मानने वालों और बेटी को पराया धन मानने वालों को अपनी बात को सही साबित करने का एक और सबूत भी मिल गया था .
इसलिए लड़कियों को उनका सही मुकाम तभी मिलेगा जब समाज में दहेज की समस्या ख़त्म होगी . हाँ यह भी सच है कि शिक्षित और जागरूक लडकियां अब दहेज लोभी लड़कों से शादी करने से इनकार भी करने लगी हैं . कुल मिलाकर लडकियों की शिक्षा ऐसी चाभी है जिससे समाज में बड़े बदलाव की उम्मीद की जा सकती है . जब यह मान लिया जाएगा कि लडकी हो या लड़का , शिक्षा सहित सभी क्षेत्रों में बराबरी का हक सबको है .तभी प्रगति के रास्ते खुलेंगे .
स्वाति मुंबई की एक उच्च मध्यवर्गीय सोसाइटी में घरों में काम करती है . दो बच्चियों की माँ है. हाड तोड़ मेहनत करती है . महाराष्ट्र के किसी ग्रामीण इलाके से आकर मुंबई में रहती है . उसकी कोशिश है कि उसकी बच्चियों का भविष्य बेहतर हो और उन्हें अपनी माँ की तरह पूरी मेहनत के बदले कम पैसों में काम करने के लिए मजबूर न होना पड़े . स्वाति को इस मकसद को हासिल करने के तरीके भी मालूम हैं . उसे मालूम है कि उच्च शिक्षा के बल पर उसकी बच्चियां अच्छी जिन्दगी जी सकेंगीं. इससे लिए वह स्कूल की फीस बढ़ने के साथ साथ और मेहनत करने लगती है. नए घर पकड़ लेती है. महाराष्ट्र में लड़कियों की शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन का सबसे बड़ा साधन माना जाता है .लेकिन यह काम एक दिन में नहीं हुआ . आखिर स्वाति भी तो महाराष्ट्र के किसी गाँव में जन्म लेने वाली महिला है .उसकी शिक्षा दीक्षा का इंतज़ाम उसके मातापिता ने नहीं किया . जबकि महाराष्ट्र में लड़कियों की शिक्षा के क्षेत्र में बहुत सारे क्रांतिकारी काम डेढ़ सौ साल पहले से शुरू हो चुके हैं . वहां पेशवा की राजधानी पुणे में १८४८ में ही ज्योतिबा फुले ने दलित लड़कियों के लिए अलग से स्कूल खोलकर इस क्रांति का ऐलान कर दिया था . आज भी महाराष्ट्र में लड़कियों की इज्ज़त अन्य राज्यों की तुलना में कहीं अधिक है. यह परम्परा चली आ रही थी लेकिन बीच में मराठी मानूस के नारे के राजनीतिक इस्तेमाल के बाद लुम्पन लड़कों पर स्थानीय नेता ज्यादा जोर देने लगे .नतीजा यह हुआ आज़ादी के बाद महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों में लड़कियों की शिक्षा पर उतना ध्यान नहीं दिया गया जो आज़ादी की लड़ाई के दौरान दिया गया था और जिसकी बुनियाद महात्मा फुले ने १८४८ में ही रख दी थी. . बहरहाल बच्चियों की शिक्षा को नज़र अंदाज़ करने के नतीजे महाराष्ट्र के नेताओं की समझ में आने लगे हैं . शायद इसीलिये सन २००० के बाद की कांग्रेसी नेतृत्व वाली सरकारों ने लड़कियों की शिक्षा को महत्व देना एक बार फिर शुरू कर दिया . यातायात विभाग के निर्देश पर सवारी और माल ढोने वाले वाहनों पर “ मुलगी शिकली ,प्रगती झाली “ लिखना अनिवार्य कर दिया गया . . सरकारी तौर पर एक अभियान चलाया जा रहा है जिसके तहत प्रचार किया जा रहा है कि अगर लडकी शिक्षित होगी , तभी प्रगति होगी.इस अभियान का फर्क भी पड़ना शुरू हो गया है. यह मानी हुई बात है कि तरक्की के लिए शिक्षा की ज़रुरत है. और परिवार की तरक्की तभी होगी जब मां सही तरीके से शिक्षित होगी.
इस बात में दो राय नहीं है कि मोटे तौर पर महाराष्ट्र लड़कियों की शिक्षा के मामले में देश के अन्य राज्यों से बेहतर है और उसको अन्य राज्यों को प्रेरणा के लिए इस्तेमाल करना चाहिए ..उत्तर भारत के बड़े राज्यों, बिहार और उत्तर प्रदेश के उदाहरण से बहुत अच्छी तरह से समझी जा सकती है. यहाँ पर लड़कियों की शिक्षा लड़कों की तुलना में बहुत कम है .शायद इसी वजह से यह राज्य देश के सबसे अधिक पिछडे राज्यों में शुमार किये जाते हैं . इन इलाकों में रहने वाले मुसलमानों की बात तो और भी चिंता पैदा करने वाली है. आख़िरी पैगम्बर ,हज़रत मुहम्मद ने फरमाया था कि शिक्षा इंसान के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ है. आपने कहा था कि अगर इल्म के लिए उन्हें चीन भी जाना पड़े तो कोई परेशानी वाली बात नहीं है. इसका मतलब यह है कि मुसलमान को शिक्षा पर सबसे ज्यादा ध्यान देना चाहिए लेकिन वास्तव में ऐसा होता नहीं है. कम से कम उत्तर प्रदेश और बिहार के मुसलमान शिक्षा के क्षेत्र में सबसे ज्यादा पिछडे हुए हैं . उनके इस पिछडेपन का एक बड़ा कारण यह है कि इन इलाकों में मुसलमानों की लड़कियों की शिक्षा का कोई इन्तजाम नहीं है. जो बात समझ में नहीं आती , वह यह कि जब पैगम्बर साहेब ने ही तालीम पर सबसे ज्यादा जोर दिया था तो उनके बताये रास्ते पर चलने वाले शिक्षा के क्षेत्र में इतना पिछड़ क्यों गए. सब को मालूम है कि अगर लडकियां शिक्षित नहीं होंगी तो आने वाली नस्लें शिक्षा से वंचित ही रह जाएँगीं, इसलिए मुसलमानों के सामाजिक और धार्मिक नेताओं को चाहिए कि वह ऐसी व्यवस्था करें जिस के बाद उनकी अपनी बच्चियां अच्छी शिक्षा हासिल कर सकें.दिल्ली में आयोजित एक सेमिनार में यह बात सामने आई कि मुसलमानों में आधुनिक और तकनीकी शिक्षा के लिए कोई ख़ास कोशिश नहीं हो रही है. सबको मालूम है कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्थापना के बाद , उत्तर भारत में मुसलमानों ने आधुनिक और वैज्ञानिक शिक्षा के लिए कोई भी अहम पहल नहीं की है. लड़कियों की शिक्षा के क्षेत्र में अगर कोई सही पहल की जाए तो धार्मिक नेता आगे आकर उसका विरोध करते हैं और औरतों को अपने ऊपर निर्भर बनाए रखने की हर कोशिश करते हैं .केरल के राज्यपाल आरिफ मुहम्मद खान एक राजनीतिक और सामाजिक नेता भी हैं . उन्होंने अपने एक लेख में लिखा है कि अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के संस्थापक और क्रांतिकारी शिक्षाविद , सर सैय्यद अहमद खान को भी उस वक़्त के धार्मिक नेताओं ने खुशी से स्वीकार नहीं किया था . इसलिए मुसलमानों और समाज की तरक्की के लिए ज़रूरी है कि अर्जेंट आधार पर लड़कियों की शिक्षा के लिए समाज और काम के नेता ज़रूरी पहल करें वरना बहुत देर हो जायेगी.
ज्योतिबा फुले ने लड़कियों की शिक्षा को एक क्रांतिकारी कार्यक्रम की तरह चलाया था . आज भी वही ज़रूरत है क्योंकि यथास्थितिवादी समाज से कोई भी सहयोग नहीं मिलेगा .महाराष्ट्र का उदाहरण ही देखा जा सकता है . वहां लड़कियों की शिक्षा की क्रान्ति के सूत्रधार ज्योतिबा फुले को भी उनके पिता जी ने घर से निकाल दिया था जब उन्होंने १८४८ में दलित लड़कियों के लिए पहला स्कूल पुणे में खोला था. आज के समाज, खासकर मुस्लिम समाज में ऐसे लोगों को आगे आने की ज़रुरत है जो सर सैय्यद की तरह आगे आयें और समाज को परिवर्तन की राह पर डालने की कोशिश करें. आगर समाज के हर वर्ग की महिलायें शिक्षित होंगी तभी देश की सामाजिक और आर्थिक प्रगति होगी
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